Download App

Romantic Story : प्यार एक एहसास

Romantic Story : पिता की 13वीं से लौटी ही थी सीमा. 15 दिन के लंबे अंतराल के बाद उस ने लैपटौप खोल कर फेसबुक को लौग इन किया. फ्रैंड रिक्वैस्ट पर क्लिक करते ही जो नाम उभर कर आया उसे देख कर बुरी तरह चौंक गई.

‘‘अरे, यह तो शैलेश है,’’ उस के मुंह से बेसाख्ता निकल गया. समय के इतने लंबे अंतराल ने उस की याद पर धूल की मोटी चादर बिछा दी थी. लैपटौप के सामने बैठेबैठे ही सीमा की आंखों के आगे शैलेश के साथ बिताए दिन परतदरपरत खुलते चले गए.

दोनों ही दिल्ली के एक कालेज में स्नातक की पढ़ाई कर रहे थे. शैलेश पढ़ने में अव्वल था. वह बहुत अच्छा गायक भी था. कालेज के हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में वह बढ़चढ़ कर भाग लेता था. सीमा की आवाज भी बहुत अच्छी थी. दोनों कई बार डुएट भी गाते थे, इसलिए अकसर दोनों का कक्षा के बाहर मिलना हो जाता था.

एक बार सीमा को बुखार आ गया. वह 10 दिन कालेज नहीं आई तो शैलेश पता पूछता हुआ उस के घर उस का हालचाल पूछने आ गया. परीक्षा बहुत करीब थी, इसलिए उस को अपने नोट्स दे कर उस की परीक्षा की तैयारी करने में मदद की. सीमा ने पाया कि वह एक बहुत अच्छा इनसान भी है. धीरेधीरे उन की नजदीकियां बढ़ने लगीं. कालेज में खाली

समय में दोनों साथसाथ दिखाई देने लगे. दोनों को ही एकदूसरे का साथ अच्छा लगने लगा था. 1 भी दिन नहीं मिलते तो बेचैन हो जाते. दोनों के हावभाव से आपस में मूक प्रेमनिवेदन हो चुका था. इस की कालेज में भी चर्चा होने लगी.

यह किशोरवय उम्र ही ऐसी है, जब कोई प्रशंसनीय दृष्टि से निहारते हुए अपनी मूक भाषा में प्रेमनिवेदन करता है, तो दिल में अवर्णनीय मीठा सा एहसास होता है, जिस से चेहरे पर एक अलग सा नूर झलकने लगता है. सारी दुनिया बड़ी खूबसूरत लगने लगती है. चिलचिलाती गरमी की दुपहरी में भी पेड़ के नीचे बैठ कर उस से बातें करना चांदनी रात का एहसास देता है.

लोग उन्हें अजीब नजरों से देख रहे हैं, इस की ओर से भी वे बेपरवाह होते हैं. जब खुली आंखों से भविष्य के सपने तो बुनते हैं, लेकिन पूरे होने या न होने की चिंता नहीं होती. एकदूसरे की पसंदनापसंद का बहुत ध्यान रखा जाता है. बारिश के मौसम में भीग कर गुनगुनाते हुए नाचने का मन करता है. दोनों की यह स्थिति थी.

पढ़ाई पूरी होते ही शैलेश अपने घर बनारस चला गया, यह वादा कर के कि वह बराबर उस से पत्र द्वारा संपर्क में रहेगा. साल भर पत्रों का आदानप्रदान चला, फिर उस के पत्र आने बंद हो गए. सीमा ने कई पत्र डाले, लेकिन उत्तर नहीं आया. उस जमाने में न तो मोबाइल थे न ही इंटरनैट. धीरेधीरे सीमा ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया और कर भी क्या सकती थी?

सीमा पढ़ीलिखी थी तथा आधुनिक परिवार से थी. शुरू से ही उस की आदत रही थी कि वह किसी भी रिश्ते में एकतरफा चाहत कभी नहीं रखती. जब कभी उसे एहसास होता कि उस का किसी के जीवन में अस्तित्व नहीं रह गया है तो स्वयं भी उस को अपने दिल से निकाल देती थी. इसी कारण धीरेधीरे उस के मनमस्तिष्क से  शैलेश निकलता चला गया. सिर्फ उस का नाम उस के जेहन में रह गया था. जब भी ‘वह’ नाम सुनती तो एक धुंधला सा चेहरा उस की आंखों के सामने तैर जाता था, इस से अधिक और कुछ नहीं.

समय निर्बाध गति से बीतता गया. उस का विवाह हो गया और 2 प्यारेप्यारे बच्चों की मां भी बन गई. पति सुनील अच्छा था, लेकिन उस से मानसिक सुख उसे कभी नहीं मिला. वह अपने व्यापार में इतना व्यस्त रहता कि सीमा के लिए उस के पास समय ही नहीं था. वह पैसे से ही उसे खुश रखना चाहता था.

15 साल के अंतराल पर फेसबुक पर शैलेश से संपर्क होने पर सीमा के मन में उथलपुथल मच गई और अंत में वर्तमान परिस्थितियां देखते हुए रिक्वैस्ट ऐक्सैप्ट न करने में ही भलाई लगी.

अभी इस बात को 4 दिन ही बीते होंगे कि  उस का मैसेज आ गया. किसी ने सच ही कहा है कि कोई अगर किसी को शिद्दत से चाहे तो सारी कायनात उन्हें मिलाने की साजिश करने लगती है और ऐसा ही हुआ. इस बार वह अपने को रोक नहीं पाई. मन में उस के बारे में जानने की उत्सुकता जागी. मैसेज का सिलसिला चलने लगा, जिस से पता लगा कि वह पुणे में अपने परिवार के साथ रहता है. फिर मोबाइल नंबरों का आदानप्रदान हुआ.

इस के बाद प्राय: बात होने लगी. उन का मूक प्रेम मुखर हो उठा था. पहली बार शैलेश की आवाज फोन पर सुन कर कि कैसी हो नवयौवना सी उस के दिल की स्थिति हो गई थी. उस का कंठ भावातिरेक से अवरुद्ध हो गया था.

उस ने सकुचाते हुए कहा, ‘‘अच्छी हूं. तुम्हें मैं अभी तक याद हूं?’’

‘‘मैं भूला ही कब था,’’ जब उस ने प्रत्युत्तर में कहा तो, उस के दिल की धड़कनें बढ़ गईं.

उस ने पूछा, ‘‘फिर पत्र लिखना क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘तुम्हारा एक पत्र मां के हाथ लग गया था, तो उन्होंने भविष्य में

तुम्हारामेरा संपर्क में रहने का दरवाजा ही बंद कर दिया और मुझे अपना वास्ता दे दिया था. उन का इकलौता बेटा था, क्या करता.’’

उस ने सीमा से कभी भविष्य में साथ रहने का वादा तो किया नहीं था, इसलिए वह शिकायत भी करती तो क्या करती. एक ऐसा व्यक्ति जिस ने अपने प्रेम को भाषा के द्वारा कभी अभिव्यक्त नहीं किया था, उस का उसे शब्दों का जामा पहनाना उस के लिए किसी सुखद सपने का वास्तविकता में परिणत होने से कम नहीं था. यदि वह उस से बात नहीं करती तो इतनी मोहक बातों से वंचित रह जाती.

समय का अंतराल परिस्थितियां बदल देता है, शारीरिक परिवर्तन करता है, लेकिन मन अछूता ही रह जाता है. कहते हैं हर इनसान के अंदर बचपना होता है, जो किसी भी उम्र में उचित समय देख कर बाहर आ जाता है.

उन की बातें दोस्ती की परिधि में तो कतई नहीं थीं. हां मर्यादा का भी उल्लंघन कभी नहीं किया. शैलेश की बातें उसे बहुत रोमांचित करती थीं. बातों से लगा ही नहीं कि वे इतने सालों बाद मिले हैं. फोन से बातें करते हुए उन्होंने उन पुराने दिनों को याद कर के भरपूर जीया. कुछ शैलेश ने याद दिलाईं जो वह भूल गई थी, कुछ उस ने याद दिलाई. ऐसे लग रहा था जैसेकि वे उन दिनों को दोबारा जी रहे हैं.

15 सालों में किस के साथ क्या हुआ वह भी शेयर किया. आरंभ में इस तरह बात करना उसे अटपटा अवश्य लगता था, संस्कारगत थोड़ा अपराधबोध भी होता था और यह सोच कर भी परेशान होती थी कि इस तरह कितने दिन रिश्ता निभेगा.

इसी ऊहापोह में 5-6 महीने बीत गए. दोनों ही चाहते थे कि यह रिश्ता बोझ न बन जाए. यह तो निश्चित हो गया था कि आग लगी थी दोनों तरफ बराबर. पहले यह आग तपिश देती थी, लेकिन धीरेधीरे यही आग मन को ठंडक तथा सुकून देने लगी. उन की रस भरी बातें उन दोनों के ही मन को गुदगुदा जाती थीं.

एक बार शैलेश ने एक गाने की लाइन बोली, ‘‘तुम होतीं तो ऐसा होता, तुम यह कहतीं…’’

उस की बात काटते हुए सीमा बोली, ‘‘और तुम होते तो कैसा होता…’’

कभी सीमा चुटकी लेती, ‘‘चलो भाग चलते हैं…’’

शैलेश कहता, ‘‘भाग कर जाएंगे कहां?’’

एक दिन शैलेश ने सीमा को बताया कि औफिस के काम से वह बहुत जल्दी दिल्ली आने वाला है. आएगा तो वह उस से और उस के परिवार से अवश्य मिलेगा. यह सुन कर उस का मनमयूर नाच उठा. फिर कड़वी सचाई से रूबरू होते ही सोच में पड़ गई कि अब सीमा किसी और की हो चुकी है.

क्या इस स्थिति में उस का शैलेश से मिलना उचित होगा? फिर अपने सवाल का उत्तर देते हुए बुदबुदाई कि ऊंह, तो क्या हुआ? समय बहुत बदल गया है, एक दोस्त की तरह मिलने में बुराई ही क्या है… सुनील की परवाह तो मैं तब करूं जब वह भी मेरी परवाह करता हो. खुश रहने के लिए मुझ भी तो कोई सहारा चाहिए. देखूं तो सही इतने सालों में उस में कितना बदलाव आया है. अब वह शैलेश के आने की सूचना की प्रतीक्षा करने लगी थी.’’

अंत में वह दिन भी आ पहुंचा, जिस का वह बेसब्री से इंतजार कर रही थी. सुनील बिजनैस टूअर पर गया हुआ था. दोनों बच्चे स्कूल गए हुए थे. उन्होंने कनाट प्लेस के कौफी हाउस में मिलने का समय निश्चित किया. वह शैलेश से अकेले घर में मिल कर कोई भी मौका ऐसा नहीं आने देना चाहती थी कि बाद में उसे आत्मग्लानि हो.

उसे लग रहा था कि इतने दिन बाद उस को देख कर कहीं वह भावनाओं में बह कर कोई गलत कदम न उठा ले, जिस की उस के संस्कार उसे आज्ञा नहीं देते थे. शैलेश को देख कर उसे लगा ही नहीं कि वह उस से इतने लंबे अंतराल के बाद मिल रही है. वह बिलकुल नहीं बदला था. बस थोड़ी सी बालों में सफेदी झलक रही थी. आज भी वह उसे बहुत अपना सा लग रहा था. बातों का सिलसिला इतना लंबा चला कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था.

इधरउधर की बातें करते हुए जब शैलेश ने सीमा से कहा कि उसे अपने वैवाहिक जीवन से कोई शिकायत नहीं है, लेकिन उस की जगह कोई नहीं ले सकता तो उसे अपनेआप पर बहुत गर्व हुआ.

अचानक शैलेश को कुछ याद आया. उस ने पूछा, ‘‘अरे हां, तुम्हारे गाने के शौक का क्या हाल है?’’

बात बीच में काटते हुए सीमा ने उत्तर दिया, ‘‘क्या हाल होगा. मुझे समय ही नहीं मिलता. सुनील तो बिजनैस टूअर पर रहते हैं और न ही उन को इस सब का शौक है.’’

‘‘अरे, उन को शौक नहीं है तो क्या हुआ, तुम इतनी आश्रित क्यों हो उन पर? कोशिश और लगन से क्या नहीं हो सकता? बच्चों के स्कूल जाने के बाद समय तो निकाला जा सकता है.’’

सीमा को लगा काश, सुनील भी उस को इसी तरह प्रोत्साहित करता. उस ने तो कभी उस की आवाज की प्रशंसा भी नहीं की. खैर, देर आए दुरुस्त आए. उस ने मन ही मन निश्चय किया कि वह अपनी इस कला को लोगों के सामने उजागर करेगी.

उस को चुप देख कर शैलेश ने कहा, ‘‘चलो, हम दोनों मिल कर एक अलबम तैयार करते हैं. सहकर्मियों की तरह तो मिल सकते हैं न. इस विषय पर फोन पर बात करेंगे.’’

सीमा को लगा उस के अकेलेपन की समस्या का हल मिल गया. दिल से वह शैलेश के सामने नतमस्तक हो गई थी.

फिर से बिछड़ने का समय आ गया था. लेकिन इस बार शरीर अलग हुए थे केवल, कभी न बिछड़ने वाला एक खूबसूरत एहसास हमेशा के लिए उस के पास रह गया था, जिस ने उस की जिंदगी को इंद्रधनुषी रंग दे कर नई दिशा दे दी थी. इस एहसास के सहारे कि वह इतने सालों बाद भी शैलेश की यादों में बसी है. वह शैलेश का सामीप्य हर समय महसूस करती थी. दूरी अब बेमानी हो गई थी.

Love Story : एक रिश्ता प्यारा सा – माया और रमन के बीच क्या रिश्ता था?

Love Story : “अरे रमन जी सुनिए, जरा पिछले साल की रिपोर्ट मुझे फॉरवर्ड कर देंगे, कुछ काम था” . मैं ने कहा तो रमन ने अपने चिरपरिचित अंदाज में जवाब दिया “क्यों नहीं मिस माया, आप फरमाइश तो करें. हमारी जान भी हाजिर है.

“देखिए जान तो मुझे चाहिए नहीं. जो मांगा है वही दे दीजिए. मेहरबानी होगी.” मैं मुस्कुराई.

इस ऑफिस और इस शहर में आए हुए मुझे अधिक समय नहीं हुआ है. पिछले महीने ही ज्वाइन किया है. धीरेधीरे सब को जानने लगी हूं. ऑफिस में साथ काम करने वालों के साथ मैं ने अच्छा रिश्ता बना लिया है.

वैसे भी 30 साल की अविवाहित, अकेली और खूबसूरत कन्या के साथ दोस्ती रखने के लिए लोग मरते हैं. फिर मैं तो इन सब के साथ काम कर रही हूं. 8 घंटे का साथ है. मुझे किसी भी चीज की जरूरत होती है तो सहकर्मी तुरंत मेरी मदद कर देते हैं. अच्छा ही है वरना अनजान शहर में अकेले रहना आसान नहीं होता.

दिल्ली के इस ब्रांच ऑफिस में मैं अपने एक प्रोजेक्ट वर्क के लिए आई हुई हूं. दोतीन महीने का काम है. फिर अपने शहर जयपुर वाले ब्रांच में चली जाऊंगी. इसलिए ज्यादा सामान ले कर नहीं आई हूं.

मैं ने लक्ष्मी नगर में एक कमरे का घर किराए पर ले रखा है. बगल के कमरे में दो लड़कियां रहती हैं. जबकि मेरे सामने वाले घर में पतिपत्नी रहते हैं. शायद उन की शादी को ज्यादा समय नहीं हुआ है. पत्नी हमेशा साड़ी में दिखती है. मैं सुबहसुबह जब भी खिड़की खोलती हूं तो सामने वह लड़का अपनी बीवी का हाथ बंटाता हुआ दिखता है. कभीकभी वह छत पर एक्सरसाइज करता भी दिख जाता है.

उस की पत्नी से मेरी कभी बात नहीं हुई मगर वह लड़का एकदो बार मुझे गली में मिल चुका है. काफी शराफत से वह इतना ही पूछता है,” कैसी हैं आप ? कोई तकलीफ तो नही यहां.”

“जी नहीं. सब ठीक है.” कह कर मैं आगे बढ़ जाती.

इधर कुछ दिनों से देश में कोरोना के मामले सामने आने लगे हैं. हर कोई एहतियात बरत रहा है. बगल वाले कमरे की दोनों लड़कियों के कॉलेज बंद हो गए. दोनों अपने शहर लौट गई .

उस दिन सुबहसुबह मेरे घर से भी मम्मी का फोन आ गया,” बेटा देख कोरोना फैलना शुरु हो गया है. तू घर आ जा.”

“पर मम्मी अभी कोई डरने की बात नहीं है. सब काबू में आ जाएगा. यह भी तो सोचो मुझे ऑफिस ज्वाइन किए हुए 1 महीना भी नहीं हुआ है. इतनी जल्दी छुट्टी कैसे लूं? बॉस पर अच्छा इंप्रेशन नहीं पड़ेगा. वैसे भी ऑफिस बंद थोड़े न हुआ है. सब आ रहे हैं.”

“पर बेटा तू अनजान शहर में है. कैसे रहेगी अकेली? कौन रखेगा तेरा ख्याल?”

“अरे मम्मी चिंता की कोई बात नहीं. ऑफिस में साथ काम करने वाले मेरा बहुत ख्याल रखते हैं. सरला मैडम तो मेरे घर के काफी पास ही रहती है. उन की फैमिली भी है. 2 लोग हैं और हैं जिन का घर मेरे घर के पास ही है. इसलिए आप चिंता न करें. सब मेरा ख्याल रखेंगे.”

“और बेटा खानापीना… सब ठीक चल रहा है ?”

“हां मम्मा. खानेपीने की कोई दिक्कत नहीं है . मुझे जब भी कैंटीन में खाने की इच्छा नहीं होती तो सरला मैडम या दिवाकर सर से कह देती हूं. वे अपने घर से मेरे लिए लंच ले आते हैं. ममा डोंट वरी. मैं बिल्कुल ठीक हूं. गली के कोने में ढाबे वाले रामू काका भी तो हैं. मेरे कहने पर तुरंत खाना भेज देते हैं. ममा कोरोना ज्यादा फैला तो मैं घर आ जाऊंगी. आप चिंता न करो .”

उस दिन मैं ने मां को तो समझा दिया था कि सब ठीक है. मगर मुझे अंदाज भी नहीं था कि तीनचार दिनों के अंदर ही देश में अचानक लॉकडाउन हो जाएगा और मैं इस अनजान शहर में एक कमरे में बंद हो कर रह जाऊंगी. न घर में खानेपीने की ज्यादा चीजें हैं और न ही कोई रेस्टोरेंट ही खुला हुआ है .

मैं ने सरला मैडम से मदद मांगी तो उन्होंने टका सा जवाब दे दिया,” देखो माया अभी तो अपने घर में ही खाने की सामग्री कब खत्म हो जाए पता नहीं . अभी न तुम्हारा घर से निकलना उचित है और न हमारे घर में ऐसा कोई है जो तुम्हें खाना दे कर आए. आई एम सॉरी. ”

“इट्स ओके .” बस इतना ही कह सकी थी मैं. इस के बाद मैं ने दिवाकर सर को फोन किया तो उन्होंने उस दिन तो खाना ला कर दे दिया मगर साथ में अपना एक्सक्यूज भी रख दिया कि माया अब रोज मैं खाना ले कर नहीं आ सकूंगा. मेरी बीवी भी तो सवाल करेगी न.

“जी मैं समझ सकती हूं . मुझे उन की उम्मीद भी छोड़नी पड़ी. अब मैं ने रमन जी को फोन किया जो हर समय मेरे लिए जान हाजिर करने की बात करते रहते थे. उन का घर भी लक्ष्मी नगर में ही था. हमेशा की तरह उन का जवाब सकारात्मक आया. शाम में खाना ले कर आने का वादा किया. रात हो गई और वह नहीं आए. मैं ने फोन किया तो उन्होंने फोन उठाया भी नहीं और एक मैसेज डाल दिया, सॉरी माया मैं नहीं आ पाऊंगा.

अब मेरे पास खाने की भारी समस्या पैदा हो गई थी. किराने की दुकान से ब्रेड और दूध ले आई. कुछ बिस्किट्स और मैगी भी खरीद ली. चाय बनाने के लिए इंडक्शन खरीदा हुआ था मैं ने. उसी पर किसी तरह मैगी बना ली. कुछ फल भी खरीद लिए थे. दोतीन दिन ऐसे ही काम चलाया मगर ऐसे पता नहीं कितने दिन चलाना था. 21 दिन का लॉकडाउन था. उस के बाद भी परिस्थिति कैसी होगी कहना मुश्किल था.

उस दिन मैं दूध ले कर आ रही थी तो गेट के बाहर वही लड़का जो सामने के घर में रहता है मिल गया. उस ने मुझ से वही पुराना सवाल किया,” कैसी हैं आप? सब ठीक है न? कोई परेशानी तो नहीं?”

“अब ठीक क्या? बस चल रहा है. मैगी और ब्रेड खा कर गुजारा कर रही हूं .”

“क्यों खाना बनाना नहीं जानती आप?

उस के सवाल पर मैं हंस पड़ी.

“जानती तो हूं मगर यहां कोई सामान नहीं है न मेरे पास. दोतीन महीने के लिए ही दिल्ली आई थी. अब तक ऑफिस कैंटीन और रामू काका के ढाबे में खाना खा कर काम चल जाता था. मगर अब तो सब कुछ बंद है न. अचानक लॉक डाउन से मुझे तो बहुत परेशानी हो रही है.”

“हां सो तो है ही. मेरी वाइफ भी 5-6 दिन पहले अपने घर गई थी. 1 सप्ताह में वापस आने वाली थी. संडे मैं उसे लेने जाता तब तक सब बंद हो गया. उस के घरवालों ने कहा कि अभी जान जोखिम में डाल कर लेने मत आना. सब ठीक हो जाए तो आ जाना. अब मैं भी घर में अकेला ही हूं.”

“तो फिर खाना?”

“उस की कोई चिंता नहीं. मुझे खाना बनाना आता है. ” उस के चेहरे पर मुस्कान खिल गई.

“क्या बात है! यह तो बहुत अच्छा है. आप को परेशानी नहीं होगी.”

“परेशानी आप को भी नहीं होने दूंगा. कल से मैं आप के लिए खाना बना दिया करूंगा. आप बिल्कुल चिंता न करें. कुछ सामान लाना हो तो वह भी मुझे बताइए. आप घर से मत निकला कीजिए. मैं हूं न.”

एक अनजान शख्स के मुंह से इतनी आत्मीयता भरी बातें बातें सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा.” थैंक यू सो मच “मैं इतना ही कह पाई.

अगले दिन सुबहसुबह वह लड़का यानी अमर मेरे लिए नाश्ता ले कर आ गया. टेबल पर टिफिन बॉक्स छोड़ कर वह चला गया था. नाश्ते में स्वादिष्ट पोहा खा कर मेरे चेहरे पर मुस्कान खिल गई. मैं दोपहर का इंतजार करने लगी. ठीक 2 बजे वह फिर टिफिन भर लाया. इस बार टिफिन में दाल चावल और सब्जी थे. मैं सोच रही थी कि किस मुंह से उसे शुक्रिया करूं. अनजान हो कर भी वह मेरे लिए इतना कुछ कर रहा है.

मैं ने उसे रोक लिया और कुर्सी पर बैठने का इशारा किया. वह थोड़ा सकुचाता हुआ बैठ गया. मैं बोल पड़ी ,” आई नो एक एक अनजान, अकेली लड़की के घर में ऐसे बैठना आप को अजीब लग रहा होगा. मगर मैं इस अजनबीपन को खत्म करना चाहती हूं. आप अपने बारे में कुछ बताइए न. मैं जानना चाहती हूं उस शख्स के बारे में जो मेरी इतनी हेल्प कर रहा है.”

“ऐसा कुछ नहीं माया जी. हम सब को एकदूसरे की सहायता करनी चाहिए.” बड़े सहज तरीके से उस ने जवाब दिया और फिर अपने बारे में बताने लगा,

“दरअसल मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूं. मेरठ में मेरा घर है . स्कूल में हमेशा टॉप करता था. मगर घर के हालात ज्यादा अच्छे नहीं थे. सो इंटर के बाद ही मुझे नौकरी करनी पड़ी. करोल बाग में मेरा ऑफिस है. वाइफ भी मेरठ की ही है. बहुत अच्छी है. बहुत प्यार करती है मुझ से. हम दोनों की शादी पिछले साल ही हुई थी. दिल्ली आए ज्यादा समय नहीं हुआ है.”

“बहुत अच्छे. मैं भी दिल्ली में नई हूं. हमारे इस ऑफिस का एक ब्रांच जयपुर में भी है. वही काम करती थी मैं. यहां एक प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए आई हुई हूं .अगर प्रमोशन मिल गया तो शायद हमेशा के लिए भी रहना पड़ जाए.”

अच्छा जी अब आप खाना खाएं. देखिए मैं ने ठीक बनाया है या नहीं.”

आप तो बहुत स्वादिष्ट खाना बनाते हैं. सुबह ही पता चल गया था. कह कर मैं हंस पड़ी. वह भी थोड़ा शरमाता हुआ मुस्कुराने लगा था. मैं खाती रही और वह बातें करता रहा.

अब तो यह रोज का नियम बन गया था. वह 3 बार मेरे लिए खाना बना कर लाता. मैं भी कभीकभी चाय बना कर पिलाती. किसी भी चीज की जरूरत होती तो वह ला कर देता . मुझे निकलने से रोक देता.

मेरे आग्रह करने पर वह खुद भी मेरे साथ ही खाना खाने लगा. हम दोनों घंटों बैठ कर दुनिया जहान की बातें करते.

इस बीच मम्मी का जब भी फोन आता और वह चिंता करतीं तो मैं उन्हें समझा देती कि सब अच्छा है. मम्मी जब भी खाने की बात करतीं तो मैं उन्हें कह देती कि सरला मैडम मेरे लिए खाना बना कर भेज देती हैं. कोई परेशानी की बात नहीं है.

इधर अमर की वाइफ भी फोन कर के उस का हालचाल पूछती. चिंता करती तो अमर कह देता कि वह ठीक है. अपने अकेलेपन को टीवी देख कर और एक्सरसाइज कर के काट रहा है.

हम दोनों घरवालों से कही गई बातें एकदूसरे को बताते और खूब हंसते. वाकई इतनी विकट स्थिति में अमर का साथ मुझे मजबूत बना रहा था. यही हाल अमर का भी था. इन 15- 20 दिनों में हम एकदूसरे के काफी करीब आ चुके थे. और फिर एक दिन हमारे बीच वह सब हो गया जो उचित नहीं था.

अमर इस बात को ले कर खुद को गुनहगार मान रहा था. मगर मैं ने उसे समझाया,” तुम्हारा कोई दोष नहीं अमर. भूल हम दोनों से हुई है. पर इसे भूल नहीं परिस्थिति का दोष समझो. यह भूल हम कभी नहीं दोहराएंगे. मगर इस बात को ले कर अपराधबोध भी मत रखो. हम अच्छे दोस्त हैं और हमेशा रहेंगे. एक दोस्त ही दूसरे का सहारा बनता है और तुम ने हमेशा मेरा साथ दिया है. मुझे खुशी है कि मुझे तुम्हारे जैसा दोस्त मिला.”

मेरी बात सुन कर उस के चेहरे पर से भी तनाव की रेखाएं गायब हो गई और वह मंदमंद मुस्कुराने लगा.

Illegal Migrants : अवैध प्रवासी मामला, 56 इंची सीना ट्रंप के सामने क्यों नहीं तना ?

Illegal Migrants : अमेरिका, कनाडा आदि देशों में अनेक देशों के लोग वैध या अवैध रूप से काम करने के लिए पहुंचते हैं. इन्हें एजेंट ले कर जाते हैं. अवैध रूप से रहने वाले पकड़े भी जाते हैं और वापस भी भेजे जाते हैं मगर देश की जनता ने इस से पहले कभी भी किसी भी सरकार के समय ऐसा दृश्य नहीं देखा कि भारत के लोग हथकड़ी व बेड़ियों में जकड़े किसी दूसरे देश के सैनिक विमान में ठूंस कर वापस किए गए हों.

5 फरवरी को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी सेना के विमान में 104 प्रवासी भारतीयों को जंजीरों में जकड़ कर भारत वापस भेजा. बिलकुल ऐसे जैसे वे कोई खूंखार अपराधी या आतंकी हों. अमेरिका, कनाडा, मैक्सिको आदि जगहों पर करोड़ों की संख्या में अलग अलग देशों के लाखों नागरिक काम करने और पैसा कमाने की इच्छा से रह रहे हैं. इन में अधिकांश ऐसे हैं जिन के पास वहां रहने के लिए पर्याप्त दस्तावेज नहीं हैं. इन्हें एजेंट्स द्वारा वहां ले जाया जाता है. एजेंट्स लाखों रुपए ले कर अवैध तरीकों से इन देशों में उन को एंट्री दिलवा देते हैं.

भारत में भी ऐसे लोगों की भरमार है जो एजेंट्स द्वारा अच्छी कमाई का लालच दे कर यहां लाए जाते हैं. बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार के लाखों लोग भारत में अवैध तरीके से रह रहे हैं. यहां रहते हुए ये कुछ जरूरी मगर फर्जी दस्तावेज एजेंटों के माध्यम से बनवा लेते हैं. कुछ ऐसी ही स्थिति अमेरिका, कनाडा में रहने वाले प्रवासियों की है. पैसा कमाना और परिवार को ठीक से पालने की ख्वाहिश उन्हें वहां ले जाती है. मगर वे कोई ऐसे खूंखार अपराधी नहीं हैं जिन्हें जेल की सलाखों में ठूंस कर रखा जाए, प्रताड़ित किया जाए, उन्हें खानेपीने को न दिया जाए, बाथरूम तक न जाने दिया जाए या जंजीरों में बांध कर उन के देश वापस भेजा जाए.

भारतीय नागरिकों की इस तरह देश वापसी शर्मनाक तो है ही, उस से भी ज्यादा शर्मनाक है अमेरिकी सैनिक विमान को इस तरह चुपचाप अपनी जमीन पर उतरने देना. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आखिर वह साहस क्यों नहीं दिखा सके जो कोलंबिया के राष्ट्रपति गुस्तावो पेट्रो ने दिखाया?

कोलंबिया के भी अनेक नागरिक अवैध रूप से अमेरिका में रह रहे हैं, इन में से कइयों को गिरफ्तार कर डिटेंशन सेंटर में रखा गया था. जब उन्हें अमेरिकी सैनिक विमान से कोलंबिया भेजने की कवायद अमेरिका ने की तो कोलंबिया के राष्ट्रपति गुस्तावो पेट्रो ने उस विमान को अपनी धरती पर उतरने की इजाजत नहीं दी. उन्होंने अमेरिकी अधिकारियों से बात की और फिर अपने नागरिकों को सम्मान के साथ वापस लाने के लिए अपना यात्री विमान अमेरिका भेजा.

कोलंबिया के नागरिकों के विमान से उतरने की तस्वीरें इंटरनेट पर हैं. उन के चेहरे मास्क से ढके हुए हैं मगर उन के पैरों और कमर में कोई जंजीरें और हाथों में हथकड़ी नहीं लगी है. कोलंबिया के राष्ट्रपति ने अपनी पोस्ट में लिखा – अमेरिका से आने वाले हमारे साथी आजाद हैं. वे सम्मान के साथ उस जमीन पर वापस आ गए हैं जहां उन्हें प्यार किया जाता है. हम उन के लिए आसान क्रेडिट प्लान तैयार करेंगे. प्रवासी अपराध नहीं हैं. वे स्वतंत्र हैं. वे काम करना चाहते हैं और जीवन में तरक्की करना चाहते हैं.

किसी भी देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति को यही करना चाहिए जो कोलंबिया के राष्ट्रपति ने किया. लेकिन अमेरिका द्वारा भारतीयों के अपमान और प्रताड़ना पर हमारे प्रधानमंत्री खामोश रहे. यही नहीं अमेरिकी विमान को इस तरह पंजाब के हवाई अड्डे पर उतारा गया ताकि राष्ट्रीय मीडिया उन प्रवासियों तक पहुंच कर उनके साथ हुए व्यवहार को उजागर न कर सके.

गौरतलब है कि जिस दिन दिल्ली में विधानसभा चुनाव था और जिस दिन प्रधानमंत्री मोदी कुंभ स्नान के लिए प्रयागराज के संगम तट पर थे, अमेरिकी विमान को उस दिन पंजाब में उतारा गया. यानी जिस दिन देश भर का मीडिया इन दो महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को कैप्चर करने में जुटा था, उस दिन चुपके से अमेरिकी सैन्य विमान को पंजाब में उतारा गया. देश की जनता और मीडिया की नजरों से बचा कर यात्रियों को विमान से उतार कर एक स्थान पर एकत्रित किया गया और उसके बाद उन्हें फटाफट उन के शहरों को रवाना कर दिया गया.

इस खबर के बाहर आने के बाद गोदी मीडिया सरकार की इस शर्मनाक हरकत को बैलेंस करने के लिए बताता रहा कि कैसे अमेरिका ने सिर्फ भारत नहीं मैक्सिको, कोलंबिया, ग्वाटेमाला के अवैध माइग्रेंट भी भेजे. यानी मोदी सरकार की कमजोरी छिपाने के लिए भारत को मैक्सिको और ग्वाटेमाला की कतार में खड़ा करते वक़्त गोदी मीडिया को रत्ती भर शर्म नहीं आई. भारत ने अमेरिका के सैनिक विमान को भारत की जमीन पर क्यों उतरने दिया, इस सवाल पर अभी तक चुप्पी पसरी हुई है.

उल्लेखनीय है कि अमेरिका में लैटिन अमेरिकी प्रवासियों की संख्या सब से अधिक है. लैटिन अमेरिका से अमेरिका आने वाले ज़्यादातर लोग मैक्सिको और मध्य अमेरिका से आते हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका की आबादी में 17.6% लोग हिस्पैनिक या लातीनी हैं. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, 1 फरवरी, 2025 तक लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई क्षेत्र की आबादी 66 करोड़ 67 लाख 45 हजार 551 थी.

यह आबादी दुनिया की कुल आबादी का 8.14% है. अर्जेंटीना, बोलीविया, ब्राजील, चिली, कोलंबिया, इक्वाडोर, पैराग्वे, पेरू, उरुग्वे, और वेनेजुएला जैसे दक्षिण अमेरिकी देश और क्यूबा, डोमिनिकन गणराज्य, और प्यूर्टो रिको जैसे कुछ कैरेबियाई देश लैटिन अमेरिकी देश कहलाते हैं जिन की अधिकांश आबादी अमेरिका में बसती है.

इस के बाद यहां चीन के लोग प्रवासी के तौर पर बसते हैं. खुद अमेरिकी सरकार के मुताबिक उन की संख्या 28,000 के ऊपर है यानी हमारे करीब 18,000 के डेढ़ गुना से ज्यादा, लेकिन ट्रंप की हिम्मत नहीं है कि उन को हाथों में हथकड़ी और पांवों में बेड़ियां डाल कर किसी मुजरिम की तरह अपने सैनिक विमान में भर के चीन भेज दे. वह चीन से डरता है क्योंकि चीन अपने नागरिकों के साथ अपने देश में चाहे जैसा बर्ताव करे मगर देश के बाहर किसी अन्य देश में वह अपने नागरिकों के सम्मान को देश का सम्मान मानता है.

यदि उस का कोई नागरिक किसी देश में किसी गलत कार्य के लिए पकड़ा भी जाता है तो कानूनी सीमा के भीतर ही उस के खिलाफ कार्रवाई होती है. यह चीन का रौब है. कानूनी सीमा के बाहर जा कर यदि किसी चीनी नागरिक के साथ किसी प्रकार का कोई दुर्व्यवहार होता है तो चीन दुर्व्यवहार करने वाले देश के नागरिकों को पकड़ के अपनी जेलों में बंद कर देता है. सम्मानित कूटनीतिक जर्नल फौरेन पौलिसी की पिछली साल की रपट कहती है कि चीनी जेलों में 5,000 से ज्यादा विदेशी कैदी हैं और इन में सब से ज्यादा अमेरिकी हैं.

चीन अमेरिका को अपनी धौंस में रखता है. चीनी राष्ट्रपति शी जिंगपिंग अपने राष्ट्र और अपने नागरिकों के सम्मान को सर्वोपरि रखते हैं. उन्होंने ‘दोस्त ट्रंप’ जैसा उद्घोष भी कभी नहीं किया मगर ‘दोस्त ट्रंप’ का उद्घोष करने वाले अपने प्रधानमंत्री मोदी और उन के नागरिकों को ट्रंप ने जिस तरह अपमानित किया उस के बाद भी मोदी यदि उन्हें दोस्त कहें तो यह दोस्ती नहीं उन का डर है. कूटनीति की ज़रा सी भी समझ रखने वाले बता सकते हैं कि क्या यह बराबरी का व्यवहार है ? दोस्ती का व्यवहार है ? भारतीयों के हाथों में पैरों में और कमर में जंजीरें बांधी गईं, क्या यह शर्मनाक नहीं?

ब्राजील के नागरिकों को हथकड़ियां पहनाई गई तो ब्राजील सरकार ने इस की निंदा की. वहां की मीडिया रिपोर्ट से पता चलता है की ब्राजील की सरकार ने ट्रंप प्रशासन से स्पष्टीकरण मांगा है कि ब्राजील के 88 अवैध प्रवासियों के मूल अधिकारों का अपमान क्यों किया गया? इस तरह मैक्सिको ने एक अमेरिकी सैन्य विमान को लैंड करने से रोक दिया. इस विमान में 80 मैक्सिकन नागरिक थे. भारत ने कुछ इस तरह का किया होता तो हमारी छाती भी गर्व से फूल जाती.

देश की जनता ने इससे पहले कभी भी किसी भी सरकार के समय ऐसा दृश्य नहीं देखा कि भारत के लोग किसी हथकड़ी व बेड़ियों में किसी दूसरे देश के सैनिक विमान में ठूंस कर वापस किए गए क्योंकि वे अवैध तरीके से उस देश में घुसने का प्रयास कर रहे थे या रह रहे थे.

अमृतसर-पंजाब के संत रविदास अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर अमेरिका से भेजे यात्रियों तक मीडिया ना पहुंच पाए इस के पूरे इंतजाम थे क्योंकि सरकार भी जानती है कि यह मामला किसी भी देश के लिए शर्मनाक है. यही वजह है कि अमेरिकी विमान के अंदर की तस्वीरें, प्रवासी भारतीयों की तस्वीरें, उन के बयान आदि मीडिया के पास नहीं हैं. सिर्फ इतनी जानकारी है कि विमान में 79 पुरुष, 25 महिलाएं और 12 नाबालिग बच्चे थे. ये तमाम लोग पंजाब के अलावा गुजरात, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से थे. विमान में 11क्रू मेंबर और 45 अमेरिकी अधिकारी थे.

इन यात्रियों में 33 लोग गुजरात से थे, वही गुजरात जिसे मोदी सरकार विकास का मौडल बताते नहीं थकती है. अगर गुजरात में सचमुच विकास की लहर चल रही है तो गुजरात से लोग अवैध रास्तों से अमेरिका में काम करने या बसने के लिए क्यों जा रहे हैं? अब जब वे बेड़ियों व हथकड़ियों में जकड़ कर भेजे गए हैं तो उन्हें अपने ही देश में छुपा कर रखा जा रहा है. ताकि कोई इन्हें देख न ले. गुजरात की सच्चाई बाहर न आ जाए.

बेरोजगारी की समस्या से सिर्फ गुजरात नहीं जूझ रहा है. यह समस्या पूरे देश में कैंसर की तरह फैली हुई है, मगर प्रधानमंत्री मोदी हमारे विश्वगुरु होने का ढोल पीटते नहीं थकते हैं. अगर मोदी सरकार ने रिकौर्ड स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा कर दिए हैं और भारत सब से तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यस्था बन गई है तो इस तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था को छोड़ने के लिए करोड़ों लोग क्यों मजबूर हैं? क्या भारत में उन के लिए जौब नहीं है?

अमेरिका में सात लाख 25 हज़ार अवैध भारतीय प्रवासी हैं. हाल के वर्षों में कनाडा की सीमा से भी बिना दस्तावेज़ वाले भारतीय कामगारों ने अमेरिका में दाखिल होने की कोशिश की. पिछले साल 30 सितंबर तक अमेरिकी बौर्डर पेट्रोल पुलिस ने कनाडा बौर्डर से 14 हज़ार से ज़्यादा भारतीयों को गिरफ़्तार किया, जो अवैध रूप से अमेरिका में घुसने की कोशिश कर रहे थे. अमेरिका में भारत के जितने अवैध प्रवासी हैं, उनमें ज्यादातर पंजाब और गुजरात के हैं.

प्यू रिसर्च सेंटर के अनुसार, भारत से बड़े पैमाने में लोग अवैध तरीके से अमेरिका पहुंचते हैं. भारतीय कानून प्रवर्तन अधिकारियों के आंकड़ों का हवाला देते हुए खुद विदेश मंत्री जयशंकर ने सदन में कहा कि 2009 में 734, 2010 में 799, 2011 में 597, 2012 में 530 और 2013 में 550 निर्वासित किए गए. 2014 में जब एनडीए सरकार सत्ता में आई तो 591 निर्वासित किए गए, इस के बाद 2015 में 708 निर्वासित किए गए. 2016 में कुल 1,303 निर्वासित किए गए, 2017 में 1,024, 2018 में 1,180 लोग वापस भेजे गए. सब से अधिक निर्वासन 2019 में देखा गया जब 2,042 अवैध भारतीय अप्रवासियों को देश वापस भेजा गया. 2020 में निर्वासन संख्या 1,889 थी, 2021 में 805, 2022 में 862, 2023 में 670 और पिछले साल 1,368 और इस साल अब तक 104 भारतीयों को वापस भारत भेजा गया है. मगर यह पहली बार है कि भारतीय नागरिक बेड़ियों में जकड़ कर भेजे गए. दोस्त ट्रंप की ऐसी दोस्ती मोदी को मुबारक.

Film Review : ‘द मेहता बौयज’ पिता और उनके जवान बेटेबेटी के रिश्‍तों की कहानी, मूवी देख कर रो देंगे

Film Review : द मेहता बौयज
रेटिंग – 2 स्टार

ब्रह्मांड के सब से अधिक महत्वपूर्ण और अति जटिल पितापुत्र के रिश्तों पर अतीत में कई पारिवारिक कमर्शियल फिल्में बन चुकी हैं, जहां व्यवसायिकता हावी रही है और उन सभी फिल्मों में मेलोड्रामा की बहुतायत रही है. दर्शक फिल्म देखते हुए रोए या न रोए, मगर फिल्म के परदे पर किरदारों की आंखों से आंसू जबरन टपकते रहे हैं. पर अब अभिनेता से निर्देशक, सह निर्माता व सहलेखक बने बोमन ईरानी पितापुत्र के रिश्ते पर एक सहज फिल्म ‘द मेहता ब्यौयज’ ले कर आए हैं.

शिकागो, टोरंटो, साउथ एशियन, जरमनी, बर्लिन, इफ्फी आदि इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवलों में धाक जमाने के बाद अब यह फिल्म सात फरवरी से अमेजान प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हो रही है. फिल्म शुरू होते ही इस बात का अहसास हो जाता है कि इस फिल्म का अंत क्या होगा, इस के बावजूद दर्शक फिल्म पर से अपनी निगाहें हटाना नहीं चाहता. यह है बोमन ईरानी के निर्देशन व अभिनय का जादू. यह फिल्म जटिल रिश्तों की ऐसी सूक्ष्म पड़ताल करती है कि आप अपने रिश्तों पर पुनर्विचार करने को प्रेरित हो जाते हैं.

फिल्म ‘‘द मेहता ब्यौयज’ की कहानी नवसारी गुजरात में लोगों को टाइपिंग सिखातेसिखाते शिव मेहता (बोमन ईरानी) ने अपने बेटे अमय मेहता ( अविनाश तिवारी) को आर्किटैक्ट बना दिया. आर्किटैक्ट की पढ़ाई पूरी करने के बाद अमय मेहता मुंबई में आ कर बस गया. फिल्म शुरु होती है एक आत्मविश्वासी वास्तुकार/आर्किटैक्ट अमय (अविनाश तिवारी) के साथ जो बिस्तर पर लेटा हुआ छत से देख रहा है. वह अपनी कंपनी के अति महत्वाकांक्षी परियोजना के साथ संघर्ष कर रहा है. वह अपनी मां की मृत्यु की खबर से टूट जाता है. क्योंकि वह सिर्फ अपनी मां से प्यार करता था.

इधर कंपनी के मालिक (सिद्धार्थ बसु) को अमय से बहुत कुछ अनूठा चाहिए. अमय मुंबई में रह रहा है, लेकिन अभी भी अपने पैरों पर नहीं खड़ा है, वह मुंबई में अपने टूटेफूटे फ्लैट में ही रह रहा है. जारा (श्रेया चौधरी) स्नेह और आक्रोश के मिश्रण के साथ अमय से कहती है कि उस के अंदर टैलेंट है, मगर जारा को नहीं पता कि उस का पाला एक ऐसे पुरुष से हुआ है जो वह काम नहीं करेगा या नहीं कर सकता है जो उसे करना है, जहां वह चाहता है.

जारा गोंसाल्विस (श्रेया चौधरी), अमय को समझाती है कि दुनिया में औसत लोगों की ही भरमार है, और अमेय में टैलेंट की कमी नहीं है. जिस औफिस में अमय कार्यरत है, वहां पर जहांगीर इंस्टीट्यूट के लिए भारतीयता की पहचान दिलाने वाले नक्शे की जरूरत है. जारा चाहती है कि अमय अपने टैलेंट को उजागर कर सभी की बोलती बंद कर दे. इसी बीच अमय की मां की मौत हो जाती है. अमय अपने घर नवसारी पहुंचता है, जहां उस की बहन अनु मेहता पटेल ( पूजा सरुप ) अमेरिका से पहले ही आ चुकी है. भाईबहन आपस में बात करते हैं, जिस से यह एहसास होता है कि पिता व बेटे के बीच बहुत ज्यादा मधुर संबंध नहीं है.

पिता व पुत्र दोनों ही दो विपरीत ध्रुवों की तरह हैं. दोनों एकदूसरे को दिल से बहुत चाहते हैं. पर लोगों के साथ ही अनु को भी ऐसा नहीं लगता. नवसारी से वापस मुंबई आने से पहले बहन अनु के कहने पर अपने पिता से मिलने उन के कमरे में जा कर बताता है कि वह मुंबई वापस जा रहा है. तब पिता शिव बिस्तर से उठ कर अमय के पास तक तो आते हैं, पर गले नहीं लगा पाते. अनु बता चुकी है कि अब शिव उन के साथ अमेरिका जा रहे हैं.

अनु व शिव सामान बांध कर मुंबई से अमेरिका के लिए प्लेन पकड़ने के लिए मुंबई एयरपोर्ट पर पहुंचते हैं. एयरपोर्ट पर अमय भी पहुंच जाता है. पर कुछ समस्या के चलते शिव की टिकट दो दिन बाद की है और अनु रुक नहीं सकती. क्योंकि अमेरिका में उस के बच्चे अकेले हैं. मजबूरन अमय अपनी बहन अनु से वादा करता है कि वह पिता शिव को अपने साथ अपने मकान पर ले जाएगा और दो दिन बाद उन्हें प्लेन में बैठा देगा.

अमय के घर में पहुंचते ही मूसलाधार बारिश शुरू हो जाती है. इस बारिश के वक्त शिव के हाथ के बनाए गरमागरम नूडल्स खाते हुए बापबेटे टीवी पर चार्ली चैपलिन की फिल्म देखते हुए पहली बार हंसते हैं. यहीं से पितापुत्र के बीच की बर्फ पिघलनी शुरू होती है. इस के बाद क्या होता है यह जानने के लिए तो फिल्म देखनी ही पड़ेगी.

पीढ़ियों के बीच मतभेद आम बात है. हर पिता अपने बेटे को अपने हिसाब से कुछ बनाना चाहता है, अकसर बेटे भी अपने पिता की सोच के अनुरूप बनना चाहते हैं, पर समय के साथ कहीं न कहीं इसी बात पर पितापुत्र के बीच मतभेद/मनभेद अथवा पैसे को ले कर भेद भी हो जाते हैं, जिस के चलते रिश्ते कैसे बनतेबिगड़ते हैं, इसे बड़ी चतुराई व सहजता के साथ बिना उपदेशात्मक भाषणबाजी के बोमन ईरानी ने अपनी इस फिल्म में पिरोया है.

कहानी की भावनात्मक गहराई हर दर्शक को उस के आसपास के रिश्तों या घटनाओं की याद दिलाती है. पिता और बेटे का तनावपूर्ण रिश्ता हो या भाईबहन का सहज संबंध, आप को लगता है, ऐसे चरित्र आप के अपने जीवन में भी हैं. फिल्म जितनी मार्मिक है, उतनी ही मनोरंजक भी. फिल्म में शिव की पत्नी शिवानी को नहीं दिखाया गया है, मगर शिव की पत्नी शिवानी के व्यक्तित्व को शिवानी के न होने पर शिव, अमय व अनु की जिंदगी पर पड़ने वाले असर से समझा जा सकता है.

पिता अपने अनुभवों व उम्र के आधार पर सदैव इस अकड़ में रहता है कि वह सब कुछ जानता है. तो वहीं बेटे को अक्सर पिता का जब देखो तब ‘ज्ञान’ बांटते रहना अच्छा नहीं लगता. यह बात भी इस फिल्म से उजागर होती है. बोमन ईरानी ने अपनी फिल्म में सिर्फ पितापुत्र के रिश्ते की बात नहीं की है, बल्कि भाईबहन के रिश्ते की भी बात की है.

इस फिल्म में अनु व अमय के बीच का रिश्ता देख कर हर भारतीय रिलेट कर पाएगा, क्योंकि इसी तरह के रिश्ते हर भारतीय परिवार में भाईबहन के बीच नजर आते हैं. मगर लेखक व निर्देशक ने पिता व पुत्र के बीच की दूरियों पर बहुत कम कहा है. बोमन ईरानी ने फिल्म में बेवजह नाटकीयता परोसने से बचते नजर आए हैं. मगर फिल्म में एक आर्किटैक्ट की कारपोरेट कंपनी का जो माहौल दिखाया गया है, वैसा इन दिनों किसी भी कारपोरेट औफिस में नजर नहीं आता.

मुंबई शहर का परिदृश्य फिल्म में और पिता और पुत्र के बीच के रिश्ते में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ ही रूपक की तरह भी है. शिव का अपने बेटे अमय से गया वाक्य, ‘‘सभी शहर एक जैसे दिखते हैं. भारत, भारत जैसा नहीं दिखता’’ बहुत कुछ कह जाता है.

बोमन ईरानी ने फिल्म में कुछ कमाल के दृश्य रचे हैं. मसलन, पिता को घर में न पा कर उन की तलाश में अमय का निकलना और फिर कमर तक सड़क पर भरे पानी में पिता को सामान लाते देखने वाला सीन कमाल है. यह फिल्म आप को एक बेटी की बेबसी से रूबरू कराती है जो, अपने पिता को पूरी जिंदगी समेटते हुए देखती है, लेकिन उस के पास कोई विकल्प नहीं है. पर फिल्म का क्लाइमैक्स कमजोर होते हुए भी आंखों से आंसू टपका देता है.

शिव मेहता के किरदार में बोमन ईरानी छा गए हैं. पत्नी के निधन के बाद आत्मनिर्भर पति बनने का प्रयास हो, अपने घर की हर एक यादगार चीज छोड़ कर अमेरिका जाना हो या फिर मन में बेटे की चिंता के बावजूद चेहरे पर सख्ती बनाए रखने वाले दृश्य हों, उन्होंने उसे बेहतरीन ढंग से निभाया है.

इस फिल्म के असली हीरो वही है. उन्होंने एक बार फिर साबित कर दिखाया कि वह चाहे जितनी जिम्मेदारी एक साथ संभाल लें, पर अभिनय में उन का कोई सानी नहीं है. अनु के छोटे किरदार में भी पूजासरुप अपनी छाप छोड़ जाती है. एयरपोर्ट पर दो मिनट के दृश्य में तो वह दर्शक की आंखें गीली कर जाती हैं. अमय मेहता के किरदार में अविनाश तिवारी का काम अच्छा ही है. लेकिन कुछ दृश्यों में वे कमजोर पड़ गए हैं. जारा के किरदार में श्रेया चौधरी के हिस्से करने को कुछ खास आया नहीं, पर वह ठीकठाकसुंदर लगी हैं.

Delhi Elections : आम आदमी पार्टी की हार के मायने

Delhi Elections : दिल्ली में आम आदमी पार्टी की हार पर यह दुख तो है कि देश में ईमानदारी, बिना जातिधर्म का बक्सा लिए सिर्फ प्रशासनिक सुधारों की बात करने वाली एक पार्टी का खात्मा सा हो गया है पर यह भी साफ है कि आम आदमी पार्टी अपने घोषित उद्द्येश्य से कब की बाहर निकल चुकी थी और जनता से अपना प्यार खो बैठी थी.

2019 और 2025 के बीच आम आदमी पार्टी जनता के लिए नहीं, अपने फैलाव की ज्यादा सोच रही थी और तभी भारतीय जनता पार्टी के उपराज्यपाल एक के बाद एक तीर व गोलियां उस पर चला रहे थे और कोई उन्हें रोक नहीं रहा था. केंद्र सरकार ने एकएक कर के आप के मंत्रियों को गिरफ्तार किया और आम आदमी को उस से फर्क नहीं पड़ा. ‘आप’ अपने को बचाने में लगी रही पर जनता केंद्र सरकार की मनमानी के खिलाफ खड़ी नहीं हुई. आम आदमी पार्टी के नेताओं ने कभी बेईमानी की थी या नहीं, यह तो कभी पता नहीं चलेगा पर आम जनता को कभी इन गिरफ्तारियों पर दुख नहीं हुआ वरना तो अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी पर पूरी दिल्ली हिल जानी चाहिए थी.

भारतीय जनता पार्टी अरविंद केजरीवाल की विधानसभा को जीत लेने के बावजूद लोकसभा की सारी सीटें जीत रही थी. 2019 में जीती और 2024 में भी. केजरीवाल को अपनी राजनीति में जो बदलाव करना चाहिए था वह न ला कर वे अपनी पार्टी के पैर उन राज्यों में फैलाने लगे जहां मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस का सीधे था. नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस के क्लब में होते हुए भी वे कांग्रेस के दोस्त न बन सके और दिल्ली में अपनी मौजदूगी के कारण मोदी की आंखों की किरकिरी बने रहे.

पार्टी को मजबूत करने की जगह वे पूजापाठी कार्यक्रम अपनाने लगे. लोगों को हरिद्वार, अयोध्या, इलाहाबाद की तीर्थयात्राएं कराने लगे. पार्टी को जो पैसा दिल्ली में मिलता था उस का उपयोग दूसरे राज्यों के चुनावों में खर्च करने लगे. उन्हें पंजाब में सफलता मिल गई तो वे फूल कर कुप्पा हो गए पर अपनी गिरफ्तारी पर जनता की चुप्पी का कोई इशारा उन्होंने नहीं समझा.

 

आम आदमी पार्टी का प्रयोग अभी असफल नहीं हुआ क्योंकि इस चुनाव में भी उसे 43 फीसदी वोट मिले हैं. 22 सीटें जीत कर व दमखम वाली पार्टी है पर पार्टी के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल की खुद की नई दिल्ली की सीट की हार उन्हें और उन की पार्टी का भविष्य संदेह में डाल रही है. भारतीय जनता पार्टी का दिल्ली में राज कोई नया सवेरा लाएगा, ऐसी उम्मीद न करें. राज तो वैसा ही चलेगा जैसा दूसरे भाजपाशासित राज्यों में चल रहा है. बस, इतना फर्क होगा कि अब उपराज्यपाल आराम फरमाएंगे और भाजपा के मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के आदेशों को अक्षरश: मानेंगे.

Bollywood : लवयापा – कमजोर लेखन, निर्देशन व अभिनय

Bollywood : अपने बेटे जुनैद खान की अद्वैत चंदन के निर्देशन में बनी फिल्म ‘लवयापा’ के प्रमोशन के दौरान मिस्टर परफैक्शनिस्ट यानी कि अभिनेता आमीर खान ने प्रण लिया था कि अगर उन के बेटे जुनैद खान की फिल्म ‘लवयापा’ बौक्स औफिस पर सफल हो गई, तो वह हमेशा के लिए सिगरेट पीना छोड़ देंगें. अपने बेटे की फिल्म ‘लवयापा’ को सफल बनाने के लिए आमीर खान व उन की पीआर टीम ने काफी मशक्क्त की. पर शायद आमीर खान भूल गए कि सोशल मीडिया पर हंगामा मचाने मात्र से किसी भी फिल्म को दर्शक मिलने से रहे.

फिल्म के प्रमोशन के लिए आमीर खान ने राज ठाकरे सहित कुछ राजनेताओं से उन के घर जा कर उन से मुलाकात की, राजनेताओं से मुलाकात करने से फिल्म देखने दर्शक सिनेमाघर में आते हैं, यह बात हमें पता नहीं थी. बहरहाल, आमीर खान के बेटे जुनैद खान की फिल्म ’लवयापा’ 7 फरवरी को सिनेमाघर पहुंच चुकी है. मगर आमीर खान के लिए खुश होने की बात है कि उन्हें सिगरेट छोड़ने की जरुरत नहीं पड़ेगी.

फिल्म ‘लवयापा’ इतनी बेतुकी फिल्म है कि पहले दिन यानी कि 7 फरवरी को 50 करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म बौक्स औफिस पर महज एक करोड़ रूपए ही एकत्र कर सकी. इतनी बड़ी नाकद्री दोदो नेपोकिड की फिल्म का. जी हां! इस फिल्म में आमीर खान के बेटे जुनैद खान के साथ श्रीदेवी व बोनी कपूर की बेटी तथा जान्हवी कपूर की बहन खुशी कपूर हैं. यह दोनों इस से पहले क्रमशः महाराज और आर्चीज में भी नजर आ चुके हैं.

फिल्म ‘लवयापा’ की कहानी दिल्ली की है. जहां 24 साल के गौरव सचदेवा (जुनैद खान) और बानी शर्मा (खुशी कपूर) एकदूसरे से प्यार करते हैं. दोनों एकदूसरे को बानी बू और गुच्ची बू के नाम से बुलाते हैं. दोनों ही दिनरात मोबाइल पर लगे रहते हैं और एकदूसरे को अपने बारे में पलपल की जानकारी देते रहते हैं. इन दोनों को लगता है कि यह एकदूसरे को बहुत बेहतर समझते हैं. उन के बीच विश्वास की कभी न टूटने वाली डोर है. लेकिन विश्वास कब अविश्वास में बदल जाए, इस की गारंटी तो ईश्वर भी नहीं दे सकते.

हर वक्त फोन पर चिपके रहने वाली आदत से गौरव की मां (गृशा कपूर) बहुत चिढ़ती है. उन्हें लगता है कि घर में गौरव की बहन किरण (तनविका पार्लिकर) की शादी उस के मंगेतर डाक्टर अनुपम (कीकू शारदा) होने वाली है और गौरव का पूरा ध्यान फोन पर है.

उधर बानी के पिता अतुल कुमार शर्मा (आशुतोश राणा) ठहरे अति सख्त पिता. खुद बानी और उन की छेाटी बहन अपने पिता से डरती है. बानी, गुच्ची से उपहार में मिला मोबाइल फोन मौल में हुए कंपटीशन में जीता हुआ बताती है, पर उन के पिता समझ जाते हैं कि वह झूठ बोल रही है. वह सितार अच्छा बजाते हैं. साथ में शुद्ध हिंदी में बातें करते हैं. बानी के पिता उस की शादी के लिए लड़का देख रहे हैं.

एक दिन वह फोन पर गौरव और बानी की प्यार भरी बातें सुन लेते हैं. अब मजबूरन अतुल कुमार शर्मा के आदेश पर बानी को अपना हाथ मांगने के लिए गौरव को अपने पिता के सामने लाना पड़ता है. बानी के पिता गौरव और बानी की शादी से पहले एक शर्त रखते हैं कि उन्हें 24 घंटे के लिए एकदूसरे के साथ अपना फोन एक्सचेंज करना पड़ेगा और उस के बाद ही उन की शादी का फाइनल डिसिजन होगा. मगर जैसे ही वे दोनों फोन एक्सचेंज करते हैं, उन के बीच विश्वास की दीवार ढहने लगती है.

गौरव और बानी को एकदूसरे के बारे में ऐसीऐसी बातें पता चलने लगती हैं, जिस के बारे में उन्होंने कल्पना तक नहीं की थी. बानी के फोन से गौरव को पता चलता है कि वह इस से पहले किन लड़कों से किस तरह की चैट करती रही है, किन के साथ उस का लव अफेयर रहा है. किस लड़के के साथ वह लंबी ड्राइव पर जा चुकी है आदि. तो वहीं बानी को पता चलता है कि गौरव किस तरह की नीच हरकतें करता रहा है.

बानी व गौरव के फोन की अदलाबदली के बाद दोनों की रिश्तों में में आए तूफान का असर गौरव की बहन किरण और होने वाले जीजा डा. अनुपम (कीकू शारदा) के रिश्ते पर भी पड़ता है. अब एकदूसरे के फोन में छिपी सच्चाई का पता लगने के बाद गौरव और बानी का रिश्ता किस करवट बैठेगा, इस के लिए तो फिल्म ही देखनी पड़ेगी.

फिल्म ‘लवयापा’ के निर्देशक अद्वैत चंदन है, जो कि पिछले तीस वर्षों से आमीर खान के साथ निजी सहायक के रूप में जुड़े हुए हैं. आमीर खान अभिनीत पिछली फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ का निर्देशन कर अद्वैत चंदन ने आमीर खान को भी घर पर बैठा दिया था. ‘लाल सिंह चड्ढा’ बौक्स औफिस पर इस कदर असफल हुई कि आमीर खान ने अभिनय से दूरी बना ली थी और अब वह सिर्फ बतौर निर्माता आगे आ रहे हैं. इस के बाद भी उन्होंने अपने बेटे जुनैद खान की फिल्म के लिए निर्देशक के रूप में अद्वैत चंदन को ही क्यों चुना, इस की वजह तो आमीर खान ही बेहतर बता सकते हैं. लेकिन कड़वा सच यह है कि ‘लवयापा’ एक वाहियात फिल्म है. पटकथा तो गड़बड़ है ही साथ में इस के कुछ संवाद भी बहुत ही ज्यादा घटिया हैं. मसलन आशुतोष राणा का एक जगह संवाद है ’हिसाब और पेशाब बराबर होना चाहिए’ इतना ही नहीं अद्वैत चंदन, जुनैद खान और खुशी कपूर दोनों से अभिनय नहीं करवा सके.

फिल्म ‘लवयापा’ एक मलयालम फिल्म ‘लव टुडे’ का हिंदी रीमेक है. मगर मलयालम में यह फिल्म सिर्फ 5 करोड़ में बनी थी, जबकि ‘लवयापा’ का बजट 100 करोड़ से ऊपर बताया जा रहा है. दूसरी बात इस फिल्म से दोदो नेपोकिड लौंच हुए हैं. ऐेसे में कहानी व विषय वस्तु पर ध्यान देना निहायत जरुरी था. वर्तमान समय में बच्चे से ले कर बूढ़े तक के लिए उन का मोबाइल बहुत अहम है. सभी अपना मोबाइल सीने से लगा कर रखते हैं. जबकि फिल्म की कहानी का आधार ही 24 घंटे के लिए प्रेमी व प्रेमिका के मोबाइल की अदलाबदली है.

वर्तमान समय में जेन जे की नई पीढ़ी अपना मोबइल की अदलाबदली करने से रही तो लोगों को यह कौंसेप्ट ही गले नहीं उतरा जब लोग मूल कथानक के साथ ही रिलेट नहीं कर पा रहे हैं तो वह फिल्म के साथ कैसे रिलेट कर पाएंगे? इसी के साथ फिल्मकार ने इस फिल्म में डीपफेक, बौडीशेमिंग जैसे मुद्दे भी जबरन ठूंस दिए हैं और तो और फिल्म के दूसरे नायक किकू शारदा का किरदार अपने मोबाइल को अपनी मंगेतर से छिपा कर रखने की जो वजह बताता है, वह भी किसी की भी समझ में नहीं आती.

पटकथा लेखक स्नेहा देसाई और निर्देशक अद्वैत चंदन यह भी भूल गए कि आज की नई पीढ़ी का प्यार काफी डे से शुरू और काफी डे पर खत्म हो जाता है. आज की पीढ़ी अपने फोन पर बहुत कुछ चैट करती रहती है, कई बार महज दूसरों को चिढ़ाने के लिए भी. और तो और अब प्रीवेडिंग फोटोशूट का जमाना है और हम प्रीवेडिंग फोटो शूट के कुछ दिन बाद दोनों के अलग होने की खबरें सुन कर चौंकते नहीं हैं. जेन जी के रिश्तों की उलझनों को और गइराई से दर्शाया जाना चाहिए था, पर लेखक व निर्देशक बुरी तरह से चूक गए.

माना कि फिल्म कई जगहों पर कौमेडी और रोमांस का कौम्बो पेश कर मनोरंजन करती हैं. कीकू शारदा और तन्विका पार्लिकार और गौरव के दोस्तों का ट्रैक दिलचस्प है. फिल्म में पेरैंट्स बने गृशा कपूर और आशुतोष राणा के चरित्रों के जरिए आज की जनरेशन को संदेश देते हैं, ‘रिपेयर करना सीखो, रिप्लेस नहीं.’ गुच्ची की मां का किरदार निभा रही ग्रुशा कपूर भी सलाह देते हुए कहती हैं, ’बेटा सेल फोन हर दो साल में बदले जाते हैं, रिश्ते नहीं..’ पर आज की पीढ़ी किसी से भी संदेश नहीं लेना चाहती.

निर्देशक अद्वैत चंदन की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने अपनी फिल्म ‘लवयापा’ में यह दिखाने का साहस किया कि ‘लड़का’ और ‘लड़की’ दोनों के फोन में रहस्य छिपे होते हैं, जो कि उन के बीच के रिश्तों को उथलपुथल कर सकते हैं.

फिल्मकार अद्वैत चंदन ने जेन जेड की छीछालेदर व उन का अपमान करने में अपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं रखी. मगर क्या उन्हें नहीं पता कि तमाम बुजुर्ग के मोबाइल में पोर्न क्लिप मौजूद होती हैं, जिन्हें वह अपने व्हाट्सएप ग्रुप में शेअर करते रहते हैं. स्कूल व कालेज में पढ़ाई के दौरान लड़के व लड़कियां अनजाने व नासमझी में अपने दोस्तों के साथ मस्ती में कई कारनामे ऐसे करते रहते हैं, जिन्हें उचित नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन इस का यह अर्थ नहीं है कि आप रिश्तों की बलि चढ़ा दें. फिल्म इस संबंध में चुप्पी साध जाती है.

लेखकों व निर्देशक को तो यह भी पता नहीं कि हर रिश्ते में अंततः समाज आता ही है. दूसरी बात क्या आज की युवा पीढ़ी इतनी मूर्ख है कि वह पूर्व प्रेमी को साथ ले कर वर्तमान प्रेमी से मिलेगी? फिल्म में बौडी शेमिंग का भी मुद्दा उठाया गया है, जिस पर अतीत में कई फिल्में बन चुकी हैं. अभी कुछ समय पहले ही सोनाक्षी सिन्हा की भी इस सब्जेक्ट पर फिल्म आई थी. बौडीशेमिंग को ले कर उपदेशात्मक लंबाचौड़ा कीकू शारदा का भाषण कहानी के प्रवाह में खलल डालने के साथ ही बोर करता है.

एडिटर ने इस फिल्म को एडिटिंग टेबल पर ठीक से कसा ही नहीं. इंटरवल से पहले फिल्म बहुत गड़बड़ है. फिल्म का संगीत भी दोयम दर्जे का है तो वहीं कलाकारों का घटिया अभिनय भी इस रीमेक फिल्म की कमजोर कड़ियों में से एक है.

जुनैद खान के अभिनय में धार की कमी है. इस फिल्म से बेहतर व ‘महाराज’ में नजर आए थे. जुनैद खान के पास न तो आकर्षक स्क्रीन्स प्रजेंस है और न ही उन्हें अच्छे लहजे में बात करना आता है. उन की आवाज गड़बड़ है. वह हंसते ज्यादा हैं, बात कम करते हैं. खुशी कपूर तो अभिनय के लिए तैयार ही नहीं है. खुशी कपूर ओटीटी पर नैटफिलक्स की सीरीज ‘आर्चीज’ से अभिनय जगत में कदम रख चुकी है, इसलिए उम्मीद थी कि कैरियर की दूसरी फिल्म में वह कुछ अच्छा अभिनय कर सकेंगी, पर ऐसा नहीं हुआ.

Deva : साउथ की एक और रीमेक फेल, खतरे में शाहिद कपूर का करियर ?

Deva : देवा फिल्म में एक बार फिर शाहिद कपूर की साउथ रीमेक है. जितना फिल्म का बजट था उस अनुपात में कमाई नहीं कर पाई है.

जनवरी माह के चौथे सप्ताह के हंगामेदार रहने के बाद पांचवें सप्ताह यानी कि 31 जनवरी 2025 को सिर्फ एक फिल्म ‘देवा’ ही प्रदर्शित हुई. जो कि मलयालम फिल्मकार रोशन एंड्यूज की 2013 में प्रदर्शित मलयालम फिल्म ‘मुंबई पुलिस’ का हिंदी रीमेक है. हिंदी रीमेक का निर्देशन भी रोशन एंड्यूज ने ही किया है. इस फिल्म में शाहिद कपूर की मुख्य भूमिका है.

2019 में शाहिद कपूर की फिल्म ‘कबीर सिंह’ ने जबरदस्त कमायी की थी. इस फिल्म के बाद शाहिद कपूर ने ऐलान किया था कि अभिनय में उन का कोई मुकाबला नहीं कर सकता. जबकि ‘कबीर सिंह’ से पहले शाहिद कपूर लगातार 28 असफल फिल्में दे चुके थे. फिल्म ‘कबीर सिंह’ में शाहिद कपूर ने हिंसात्मक प्रवृत्ति और सैक्स के प्रति पागल युवक का किरदार निभाया था. इस किरदार और फिल्म की विषयवस्तु के खिलाफ कई महिला संगठनों ने आवाज भी उठाई थी.

फिल्म ‘कबीर सिंह’ के बाद अब तक शाहिद कपूर की ‘जर्सी’, ‘ब्लडी डैडी’,‘तेरी बाहों में ऐसा उलझा जिया’ फिल्में रिलीज हो चुकी हैं और इन सभी फिल्मों ने बौक्स औफिस पर निर्माताओं को खून के आंसू रुलाया. एक भी फिल्म अपनी लागत वसूल नहीं कर पाई.

ऐसे हालात में शाहिद कपूर को अपने कैरियर को पटरी पर लाने के लिए ‘देवा’ से काफी उम्मीदें थीं. पर साढ़े 300 करोड़ रूपए के बजट में बनी फिल्म ‘देवा’ पूरे 7 दिन के अंदर महज 28 करोड़ रूपए ही एकत्र कर सकी. इस में से निर्माता की जेब में महज 10 करोड़ रूपए ही आएंगे. यह बौक्स आफिस आंकड़े निर्माता ने दिए हैं जबकि फिल्म इंडस्ट्री व ट्रेड पंडितों के अनुसार यह आंकड़ा महज 20 करोड़ रूपए ही हैं. यानी कि ‘देवा’ बुरी तरह से असफल हो चुकी है. इसी के साथ शाहिद कपूर का कैरियर भी सवालों के घेरे में आ गया है.

फिल्म ‘देवा’ की असफलता के लिए लोग पूरी तरह से शाहिद कपूर को ही दोषी ठहरा रहे हैं. क्योंकि उन्होंने ऐन वक्त पर फिल्म ‘देवा’ का कलायमैक्स व अपने किरदार में बदलाव कर फिल्म को बरबाद कर डाला. फिल्म में देवा एक ऐसा पुलिस अफसर है जो कि अपने सहकर्मी पुलिस आफसर की हत्या कर देता है.

मूल मलयालम फिल्म में इस की वजह यह बताई गई है कि देवा एक ‘हिजड़ा’ है. यह बात केवल एक पुलिस अफसर को ही पता थी, जिस ने देवा को धमकी दी थी कि वह यह सच पुलिस विभाग में उजागर कर देगा. तो यह बात उजागर होती, उस से पहले ही सच जानने वाले पुलिस अफसर की देवा ने हत्या कर दी थी. मगर शाहिद कपूर ने हिजड़े का किरदार निभाने से इंकार करते हुए इसे बदलवा कर यह करवाया कि उस पुलिस अफसर ने उसे घूस लेते हुए देख लिया था, इसलिए उस की हत्या कर दी.

यह बात किसी भी दर्शक के गले नहीं उतरी क्योंकि वह पुलिस अफसर देवा का अति प्रिय देास्त भी था. ऐसे में घूस लेत देखेने मात्र से उस की हत्या करना लोगों के गले नहीं उतरी और फिल्म को दर्शक नसीब नहीं हुए. इस के अलवा भी फिल्म में काफी कमियां हैं.

उधर 60 करोड़ रूवए की टिकटें निर्माता व कलाकारों द्वारा खरीदे जाने के बाद भी ‘स्काई फोर्स’ 15 दिन में 100 करोड़ का ही आंकड़ा छू पाई है. 60 करोड़ घटाने पर यह 40 करोड़ हो जाते हैं. जबकि इस फिल्म क बजट 380 करोड़ रूपए है.

Valentine’s Special : दूरदर्शिता- विवेक क्यों माधुरी से दूर हो गया?

Valentine’s Special : रो रो कर माधुरी अचेत हो गई थी. समीप बैठी रोती कलपती मां ने उस का सिर अपनी गोद में रख लिया और उसे झकझोरने लगीं, ‘‘होश में आ, बेटी.’’ एक महिला दौड़ कर गिलास में पानी भर लाई. कुछ छींटे माधुरी के मुंह पर मारे तो धीरेधीरे उस ने आंखें खोलीं. वस्तुस्थिति का ज्ञान होते ही वह फिर विलाप करने लगी थी, ‘‘तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकते. मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी. मां, उन्हें उठाओ न. मैं ने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया, फिर मुझ पर यह कहर क्यों टूटा? क्यों मुझे उजाड़ डाला…’’ उसे फिर गश आ गया था.

आंगन में बैठी मातमपुरसी करने आईं सभी महिलाओं की आंखें नम थीं. हादसा ही ऐसा हुआ था कि जिस ने भी सुना, एकबारगी स्तब्ध रह गया. माधुरी का पति विवेक व्यापार के सिलसिले में कार से दूसरे शहर जा रहा था. सामने से अंधी गति से आते ट्रक ने इतनी बुरी तरह से रौंद डाला था कि कार के साथसाथ उस का शरीर भी बुरी तरह क्षतविक्षत हो गया. ट्रक ड्राइवर घबरा कर तेजी से वहां से भाग निकलने में सफल हो गया.

धुरी ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘गुडि़या सोई हुई है,’’ बड़ी बहन ने धीरे से कहा.

‘‘उसे दूध…’’‘‘मैं ने पिला दिया है.’’

कुछ न करने की मजबूरी से तड़प रहे थें

बड़ी बहन बंबई से आई थी. उस का पति व इकलौता 5 वर्षीय बेटा भी साथ था. विवेक की असमय दर्दनाक मृत्यु से पूरा परिवार भीतर तक हिल गया था. मांबाप अपने सीने पर पत्थर रख बेटी को विदा करते हैं. अगर वही कलेजे का टुकड़ा 2 वर्षों में ही उजड़ कर उन की आंखों के समक्ष आ खड़ा हो तो मांबाप की कारुणिक मनोदशा को सहज ही समझा जा सकता है. पिछले 10 दिनों से रोरो कर उन के आंसू भी सूख चुके थे. बेटी के जीवन में अकस्मात छा गए घटाटोप अंधेरे से वे बुरी तरह विचलित हो गए थे. बेबसी, लाचारी और कुछ न कर पाने की अपनी मजबूरी से वे स्वयं भीतर ही भीतर तड़प रहे थे.

2 वर्ष पहले ही तो माधुरी दुलहन बन विदा हुई थी. क्या उस का रंगरूप था और क्या उस में गुण थे. एक भरीपूरी गुणों और सुंदरता की वह खान थी. रंगरूप ऐसा कि देखने वाला पलभर ठहरने के लिए विवश हो जाए, वह डाक्टर थी. स्वभाव इतना मृदु कि घर वाले उस पर फख्र करते. कभी गुस्से में तो किसी ने देखा ही नहीं था. अपने स्नेह, प्रेम, विश्वास, अपनत्व के लबालब भरे प्याले से वह विवेक को पूरी तरह संतुष्ट रखे हुए थी.

‘सच कहूं माधुरी, तुम्हें पा कर मेरा जीवन धन्य हो गया,’ अकसर विवेक कहता रहता.माधुरी मंदमंद मुसकराती तो वह उसे आलिंगनबद्ध कर प्रेम की फुहार कर देता. तब वह भी तो तृप्त हो जाती थी. कभीकभार हलकी सी तकरार, नोकझोंक भी होती लेकिन वह उन के प्रेम में कमी या दरार न बन कर टौनिक का ही काम करती.एक दिन माधुरी ने कहा था, ‘आज रवींद्र नाट्यगृह में रंगोली की प्रदर्शनी लगी है. चलो, देख कर आते हैं.’

‘अरे भई, हमें रंगोली से क्या लेनादेना. इस के बजाय कोई फिल्म देख आते हैं. रीगल सिनेमाघर में एक बढि़या अंगरेजी फिल्म लगी है,’ विवेक ने टालते हुए कहा.

‘ऊंह, तुम्हें तो मेरी पसंद से मतलब ही नहीं. हर बार अपनी ही मरजी चलाते हो,’ माधुरी के स्वर में रोष था.

‘कौन सी मरजी चलाई है मैं ने? क्या पिछली बार तुम्हारी पसंद का नाटक देखने नहीं गए थे? उस दिन भी तुम्हारे कहने से फिल्म का प्रोग्राम रद्द किया था…’

‘अच्छा बाबा, बस करो. अब और सूची मत पढ़ो. जो तुम्हारी मरजी हो, करो.’ विवेक चुपचाप कपड़े बदल कर पलंग पर जा लेटा. शायद कुछ खफा हो गया था. माधुरी भी दूसरी ओर मुंह कर के लेट गई. खाना मेज पर पड़ापड़ा ठंडा हो गया. आधा घंटा बीत गया था.

माधुरी सोच रही थी, ‘झूठा, बेईमान, मुझ से हमेशा कहता है कि तुम कभी नाराज मत होना. मैं तुम्हारा मुसकराता चेहरा ही सदा देखना चाहता हूं. तुम्हें छेड़े बिना मुझे तो नींद ही नहीं आती. तुम तो जानती हो, मैं तुम्हारे बगैर रह नहीं सकता.

‘अब घंटेभर से मैं इधर मुंह किए पड़ी हूं तो पूछा तक नहीं कि क्यों नाराज हो? खाना खाया या नहीं? अब कैसे नींद आ रही है मुझे छेड़े बिना? सभी मर्द एक जैसे होते हैं, मतलबी. अपने स्वार्थ के लिए बीवी की तारीफें, खुशामदें करते हैं, मिमियाते हैं और काम निकल जाने पर फिर शेर बन जाते हैं.?

विवेक ने पलट कर देखा, ‘क्या हुआ?’

‘मेरा सिर. घंटेभर से उधर मुंह किए पड़े हो और अब पूछ रहे हो क्या हुआ? न खाना खाया…’ शेष शब्द हलकी सी रुलाई में खो गए.

‘ओह, तो तुम्हें भूख लगी है. फिर इतनी देर से क्यों नहीं कहा?’ विवेक ने उस के आंसुओं से भरे चेहरे को चुंबनों से सराबोर कर दिया, ‘अब तो खुश हो. कल रंगोली देखने चलेंगे. चलो, अब खाना खाते हैं, नाराजगी खत्म.’

फिर खाना गरम कर दोनों ने खाया. ऐसे ही रूठने, मनाने में साल मानो पलों में बीत गया था. घर में ही खोली गई माधुरी की डिस्पैंसरी अच्छी चलने लगी थी. गुडि़या के आ जाने से उन के प्रेम की डोर और दृढ़ हो गई. नाजुक, रुई सी मुलायम गुडि़या को उठाते वक्त विवेक नाटकीय घबराहट दिखाता, ‘भई, मुझे तो इसे उठाने में डर लगता है. गुडि़या रानी, जल्दी से बड़ी हो जाओ. फिर तुम्हारे साथ तुतलाने, बतियाने, खेलने में बड़ा मजा आएगा. तुम भी अपनी मां जैसे नकली रूठनेमनाने के अभिनय करोगी?’ कहते हुए वह माधुरी की ओर शरारत से देखता तो वह भी नकली क्रोध से कहती, ‘अच्छा, तो मेरी नाराजगी आप को नकली लगती है, ठीक है अब असली…’‘न बाबा, न, मैं ने तो मजाक किया था. सचमुच रूठने की बात मत करना.’

सचमुच की नाराजगी तो विवेक ने ही जाहिर कर दी थी. उस से रूठ कर कितनी दूर चला गया था. उस ने तो कभी स्वप्न में भी इस तरह उजड़ने की कल्पना न की थी.

पिछले 10 दिनों में जब भी माधुरी की चेतना लौटती, यही लगता कि अभी विवेक शरारत से मुसकराते हुए सामने आ खड़ा होगा, ‘देखा, कैसे बुद्धू बनाया तुम्हें. मैं सचमुच में थोड़े ही मरा था. वह तो झूठमूठ अभिनय कर रहा था, तुम्हें तंग करने के लिए.’

माधुरी के चेहरे पर हलकी सी राहत और आंखों में चमक, मुसकराहट देख बड़ी बहन सशंकित हो उठती, ‘‘क्या हुआ, माधुरी?’’

फिर वस्तुस्थिति का भान होते ही वह बहन से लिपट आर्तनाद कर उठती, ‘‘दीदी, मैं क्या करूं? कैसे जिंदगी गुजारूंगी उन के बिना? मेरी गुडि़या अनाथ हो गई…’’ और इस विलाप में वह फिर बेसुध हो जाती.

मां, पिताजी, दीदी, जीजाजी, विवेक की मां, भैयाभाभी देर रात तक बैठते, माधुरी के भविष्य के बारे में विचारविमर्श करते. कोई ठोस निर्णय लेने से पहले माधुरी की राय तो आवश्यक थी ही, पर उस से पहले सर्वसम्मति से किसी निर्णय का आधार तो बनाना था.

‘‘गुडि़या को माधुरी की बड़ी बहन को सौंप दिया जाए. उस के एक ही बेटा है, गुडि़या वहां भली प्रकार से पल जाएगी. माधुरी अपनी डिस्पैंसरी देखती रहे. फिर जहां जब कोई सुपात्र मिले तो पुनर्विवाह…’’ माधुरी की मां ने धीरेधीरे संकोच के साथ अपने विचार प्रस्तुत कर दिए.

‘‘यह कैसे संभव है?’’ विवेक की मां कुछ तेजी से बोलीं, ‘‘फिर गुडि़या के बगैर माधुरी कैसे रह पाएगी?’’

दीदी, जीजाजी अब तक आपस में काफी गुफ्तगू कर चुके थे. दीदी बोलीं, ‘‘हम गुडि़या को बाकायदा गोद लेने के लिए तैयार हैं.’’

‘‘माधुरी को हम समझा लेंगे. यह तो निश्चित है कि गुडि़या के कारण उस के पुनर्विवाह में अड़चनें आएंगी और यह भी उतना ही सच है कि अपनी ममता को मारने के लिए वह कदापि तैयार नहीं होगी. विवेक के प्रेम की निशानी वह खोना नहीं चाहेगी, पर जीवन में कभीकभी ऐसे निर्णय लेने के लिए विवश होना पड़ता है जिन्हें हमारा मन कहीं गहरे तक स्वीकारने की इजाजत नहीं देता,’’ डबडबा आई आंखों को पल्लू से पोंछते हुए मां ने कहा.

‘‘अगर माधुरी इस निर्णय के लिए तैयार हो तो ठीक है,’’ विवेक की मां के स्वर में निराशा थी, ‘‘लेकिन लोग क्या कहेंगे? समाज द्वारा उठाए गए सवालों, लोगों की चुभती बातों, तानों, उठती उंगलियों…इन सब का सामना…’’ अपनी शंका भी जाहिर कर दी उन्होंने. साथ ही, यह भी कहा, ‘‘हमें लोगों की जबानों या नजरों से अधिक अपनी बेटी के भविष्य की चिंता है. लोग 2 दिन बोल कर चुप हो जाएंगे.’’

माधुरी के सामने उस के भविष्य की भूमिका बांधते हुए मां ने ही धीरेधीरे झिझकते हुए टुकड़ों में अपनी बात को रखा. परंतु वह सुनते ही बिफर पड़ी, ‘‘आप लोग मेरी गुडि़या मुझ से छीनना चाहते हैं. पति तो पहले ही साथ छोड़ गए…’’

काफी वक्त लगा था उसे सहज होने में. मां ने फिर बड़े धैर्य से उसे समझाया था. साथ ही, दीदी, विवेक की मां, भाभी ने भी अपनी सहमति प्रकट की और पहाड़ सी जिंदगी का हवाला देते हुए निर्णय को स्वीकारने की राय दी.

तेरहवीं के बाद जब गुडि़या को दीदी की गोद में डाला गया तो इस अद्भुत लाचार व दूरदर्शी फैसले पर जहां घर के सदस्यों की आंखें नम थीं, वहीं समाज में तेजी से कानाफूसी आरंभ हो गई थी. पति व बेटी की जुदाई की दोहरी पीड़ा से व्यथित माधुरी की रोती, थकान से बोझिल आंखें पलभर को मुंद गई थीं और सभी यंत्रणाओं से पलभर के लिए उस ने नजात पा ली थी.

Valentine’s Special : भीगी पलकों में गुलाबी ख्वाब

Valentine’s Special : मालविका की गजल की डायरी के पन्ने फड़फड़ाने लगे. वह डायरी छोड़ दौड़ी गई. पति के औफिस जाने के बाद वह अपनी गजलों की डायरी ले कर बैठी ही थी कि ड्राइंगरूम के चार्ज पौइंट में लगा उस का सैलफोन बज उठा.

फोन उठाया तो उधर से कहा गया, ‘‘मैं ईशान बोल रहा हूं भाभी, हम लोग मुंबई से शाम तक आप के पास पहुंचेंगे.’’

42 साल की मालविका सुबह 5 बजे उठ कर 10वीं में पढ़ रहे अपने 14 वर्षीय बेटे मानस को स्कूल बस के लिए  रवाना कर के 49 वर्षीय पति पराशर की औफिस जाने की तैयारी में मदद करती है. नाश्तेटिफिन के साथ जब पराशर औफिस के लिए निकल जाता और वह खाली घर में पंख फड़फड़ाने के लिए अकेली छूट जाती तब वह भरपूर जी लेने का उपक्रम करती. सुबह 9 बजे तक उस की बाई भी आ जाती जिस की मदद से वह घर का बाकी काम निबटा कर 11 बजे तक पूरी तरह निश्चिंत हो जाती.

इस वक्त शेरोशायरी, गीतगजलों की लंबी कतारें उस के मनमस्तिष्क में आ खड़ी होती हैं. अपने लिखे कलामों को धुन में बांधने की धुन पर सवार हो जाती है वह. नृत्य में भी पारंगत है मालविका और नृत्य कलाओं की प्रस्तुति से ले कर गीत गजलों के कार्यक्रमों में अकसर हिस्सा लेती है. वह अपने शहर में एक नामचीन हस्ती है और अपनी दुनिया में उस के फैंस की लिस्ट बड़ी लंबी है.

गजलों के फड़फड़ाते पन्नों को बंद कर उस ने डायरी को टेबल की दराज के हवाले किया और जल्द ही अपने चचेरे देवर ईशान व उस की नवेली पत्नी रिनी के स्वागत की तैयारी में लग गई.

लगभग सालभर पहले चचेरे देवर 34 साल के ईशान की शादी हुई थी. तब पराशर इन की शादी में चंडीगढ़ गए थे. लेकिन मालविका नहीं जा पाई थी, बेटे का 9वीं कक्षा का फाइनल एग्जाम था. अब ईशान पत्नी रिनी के साथ उस के मायके होते हुए लक्षदीप से मुंबई और फिर नागपुर आ रहे थे.

मालविका ने पराशर को फोन पर सूचना दी और आइसक्रीम व बुके लाने को कहा. वैसे यह पराशर के मूड पर निर्भर करता है कि वह मालविका के सु झाव पर गौर करेगा या नहीं.

देवर ईशान और उस की पत्नी 28 साल की रिनी के आने से घर रंग और रौनक से भर गया था. मालविका का बेटा मानस अपनी कोचिंग और पढ़ाई के बीच थोड़ाबहुत हायहैलो करने का ही समय निकाल पाता, लेकिन भैया पराशर का रिनी को ले कर अतिव्यस्त हो जाना कभीकभी ईशान को हैरत में डाल रहा था. ईशान रहरह कर मालविका की ओर तिरछी निगाहों से देखने लगा था और मालविका?

16 सालों से अपने पति को लगातार सम झती हुई भी मालविका जैसे अनबू झ मकड़जाल में उल झी हुई थी. कौन कोशिश करे इन उल झे जालों को हटाने की? मालविका को तो इस की इजाजत ही नहीं थी. हां, बिना इजाजत मालविका को कोई भी निर्णय लेने का यहां अधिकार नहीं था.

हां, उल झनों के मकड़जाल हट सकते थे अगर मालविका पराशर की बात मान ले. लेकिन यह संभव नहीं. अवहेलना, ईर्ष्या, व्यंग्य, हिंसा  झेल कर भी मालविका ने अपने मौनस्वर को किस तरह जिंदा रखा है, यह वही जानती है. खैर, रिनी मदमस्त हिरनी सी खूब खेल रही है पराशर के साथ.

चंडीगढ़ में नारी मुक्ति आंदोलन और बेटी बचाओ एनजीओ की प्रैसिडैंट है वह. आजादी का उपयोग करने में इतनी बिंदास है कि मालविका को खुद पर तरस हो आता. क्या वह दूसरों के मुकाबले ज्यादा घुटी हुई सी नहीं रहती. कुछ ज्यादा संत्रस्त?

पराशर यों तो अच्छीभली नौकरी में है, देखनेभालने में भी स्मार्ट है लेकिन उस की एक ही परेशानी है मालविका.

ईशान जब से आया है, हर प्रकार की मौजमस्ती, खानपान, घूमनेफिरने के बीच एक और चीज जो सब से ज्यादा महसूस कर रहा था वह यह कि पराशर मालविका को ले कर काफी अशांत था. वह जानने को आतुर था कि मालविका जैसी सुंदर, सुघड़, मितभाषी स्त्री के प्रति भी किसी पुरुष में आक्रोश हो सकता है. फिजी से आते वक्त एक मधुर मजाकिया माहौल की कल्पना उस के जेहन में बसी थी, लेकिन यहां माहौल इतना तनावभरा होगा, उस के खयालों में भी नहीं रहा था.

साउथ पैसिफिक ओशन के देश फिजी से वह आया था जहां उस के पिता डाक्टर और मां एक मौल की मालकिन है. वह खुद भी वहां सरकारी अस्पताल में डाक्टर है. चंडीगढ़ में उस की शादी एक वैबसाइट के माध्यम से हुई थी और रिनी के साथ तालमेल बैठाने की उस की कोशिश जारी थी.

शादी के एक साल बाद भारत के रिश्तेदारों से मिल कर अगले 10 दिनों में उन के वापस जाने का प्रोग्राम था. इस लिहाज से 4 दिन ही बचे थे और इन दिनों मालविका ईशान को अपने किसी तनाव के घेरे में नहीं लेना चाहती थी लेकिन पराशर का असामान्य व्यवहार बारबार मालविका के प्यारे मेहमान को असमंजस में डाल देता था.

34 साल का ईशान 42 साल की भाभी से अब धीरेधीरे बहुत खुल चुका था. ईशान को इस के पहले मालविका ने 2 बार ही देखा था. पहली दफा उस से जब मुलाकात हुई थी. तब मालविका की शादी हुए 3 साल ही हुए थे और वह 27 की तथा ईशान 19 साल का था. उस वक्त सालभर का मानस मालविका को कितना तंग करता था और वह किस तरह  झल्लाती थी, यह बोलबोल कर ईशान मालविका को आज खूब चिढ़ा रहा था.

पराशर ने इस मौके को गंवाना नहीं चाहा. ईशान का भाभी के प्रति नम्र रुख पराशर को भी सम झ आ ही रहा था, कहा, ‘‘अब भी क्या कम है? न बच्चे में रुचि है न पति में. सारा दिन नाच, गाना और चाहने वाले.’’

ईशान से रहा नहीं गया. उस ने कहा, ‘‘क्यों भैया, सारा दिन तो सबकुछ मैनेज करने में ही बिता रही हैं भाभी, एकएक को खुश करने पर तुली हैं. अब कोई किसी भी कीमत पर खुश न हो तो भाभी भी क्या करें. अगर इस के बाद समय निकाल कर कुछ क्रिएटिव कर रही हैं तो यह तो गौरव की बात हुई न? रिनी भी तो चंडीगढ़ में महिलाशक्ति की नेत्री है. आप इस बारे में क्या कहेंगे?’’

पराशर के लिए रिनी एक मनोरंजन मात्र थी. अकसर ऐसा ही होता भी है और स्त्री सोचती है वह कितनी महत्त्वपूर्ण है जो एक पुरुष अपनी पत्नी को बेबस छोड़ उसे तवज्जुह दे रहा है. खैर, पराशर ने बात घुमा दी, ‘‘चलो, तुम लोगों को यहां का प्रसिद्ध बाजार घुमा दूं.’’

रिनी मचल उठी, ईशान को सुने बिना ही कह पड़ी, ‘‘चलो, चलें.’’

‘‘अरे, भाभी से तो पूछो,’’ ईशान रिनी से यह कहते हुए जरा तल्ख हो चुका था.

मालविका जानती थी कि पराशर उसे कतई साथ ले जाना नहीं चाहेगा. उस ने खुद ही कहा, ‘‘मु झे घर पर काम है, तुम सब जाओ.’’

कार पराशर ने ड्राइव की और तीनों साथ गए. लेकिन आधी दूरी पर जा कर ईशान ने कहा, ‘‘भैया, आप मु झे यहां उतार दें, मु झे बैंक में कुछ जरूरी काम है, आप लोकेशन बता जाइए. मेरा काम होते ही मैं वहां आ कर आप को कौल कर लूंगा.’’

पराशर फिलहाल रिनी को ले कर वक्त बिताने में ज्यादा उत्सुक था और साथ ही उस के लिए यह राहत की बात थी कि ईशान और मालविका अकेले साथ नहीं हैं.

मालविका बेमिसाल हुस्न की मलिका थी. गुलाब सी खूबसूरत गालों से भोर की लाली सा नूर  झरता था. सुगठित देहयष्टि में तरुणी सी लचक, नृत्य की मुद्रा में जैसे सर्वश्रेष्ठ शिल्पी की किसी नायाब कलाकृति सी नजर आती थी वह.

कौन किसे देखे, कौन किसे देख कर ज्यादा मुग्ध हो जाए? ईशान भी क्या कम स्मार्ट, जहीन और खूबसूरत नौजवान था. 6 फुट की बलिष्ठ कदकाठी में वह एक बोलती आंखों वाला स्मार्ट प्रोफैशनल था, जिस के साथ देखनेभालने में बेहद मौडर्न, सुंदर रिनी का अच्छा मैच था.

मालविका आज हफ्तेभर बाद अपनी डायरी के पन्ने पलट रही थी कि ईशान को वापस आया देख वह अवाक रह गई.

‘‘क्या हुआ, तुम अकेले? गए नहीं उन के साथ?’’

‘‘बरदाश्त करो थोड़ी देर, पराशर भैया और रिनी का अकेले घूमना.’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘क्या नहीं हुआ भाभी.’’

ईशान मालविका के पास आ कर सोफे पर बैठ गया. उस के हाथ पर अपना हाथ यों रखा जैसे वह उस का संबल हो, फिर शांति से पूछा, ‘‘मालविका, हां, नाम ही सही रहेगा. इस मामले में मैं तुम्हारी राय नहीं मांगूंगा क्योंकि मै जानता हूं तुम संस्कारों की दुहाई दोगी और हम किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाएंगे.’’

मालविका बेहद उल झन वाली स्थिति में आ गई थी,  उस ने झिझकते हुए पूछा, ‘‘आखिर क्या कहना चाह रहे हो तुम ईशान?’’

‘‘तुम्हें क्या हुआ मालविका, मु झे बताओ. भैया क्यों तुम से खफाखफा रहते हैं? तुम इतनी खूबसूरत हो, मितभाषी, सब का दिल जीत लेने वाली, गीत नृत्य में माहिर हो, फिर क्यों भैया अकसर व्यंग्य कसते रहते हैं, जैसे उन के अंदर बहुत क्रोध जमा है तुम्हारे लिए?’’

‘‘ईशान यह दुविधा मेरे लिए आग का दरिया है और इस में डूबे रहना मेरा समय.’’

‘‘आप इतनी टैलेंटेड और खूबसूरत हो, क्यों सहती हो इतना?’’

‘‘मानस के लिए, उसे मैं टूटे घरौंदे का पंख टूटा पंछी नहीं बनाना चाहती.’’

‘‘तुम ने जो सोचा है, वह एक मां का दृष्टिकोण है.’’

‘‘मैं अभी सब से पहले मां ही हूं ईशान.’’

‘‘और तुम खुद?’’

‘‘तुम जैसा प्यारा दोस्त अगर साथ रहे, तो खुद को भी धीरेधीरे सम झने लगूंगी.’’

‘‘मालविका, मैं कब से तुम से यही कहने वाला था. हम अब से पक्के दोस्त. तुम मु झे अपनी सारी परेशानी बताओगी और घुटन से खुद को मुक्त रखोगी. मैं जानता हूं तुम कितनी अकेली हो. अपने मायके में तुम इकलौती बेटी थी और अब तुम्हारे मातापिता रहे नहीं. मैं यह भी सम झता हूं कि तुम्हारी पहचान की वजह से तुम बाहर अपना दुख किसी से सा झा भी नहीं कर पाती होगी, कितनी घुटती होगी तुम. मालविका, आज तुम्हें जानने के लिए मैं ने भैया के साथ रिनी को भी अकेला छोड़ देना पसंद कर लिया.’’

मालविका की आंखों से टपटप आंसू उस की गोद में गिरने लगे, जैसे सालों से धरी रखी ग्लानि अब तोड़ चुकी थी अपनी सीमाएं.

‘‘ये बड़ी उल झन भरी बातें हैं,  तुम कैसे सम झोगे ईशान. तुम तो अभी बच्चे हो.’’

‘‘अब कान खींच लूंगा तुम्हारा, सम झी. हमारी दोस्ती के बीच अब कभी भी उम्र को मत लाना.’’

आंसुओं के बीच मालविका की आंखों में वैसी ही चमक उठी जैसी बारिश के बाद कई बार दिखती है. निगाहें मिलीं दोनों की और छोटीछोटी सम झ की बड़ी सी जगह बन गई.

‘‘तो बताओ.’’

हक से यह कहा ईशान ने तो मालविका ने मुंह खोला, ‘‘पराशर खुद बहुत हैंडसम और अच्छी नौकरी में हैं, मगर वे स्वीकार नहीं पाते कि उन के रहते कोई मेरी प्रशंसा करे. रिश्तेदार, जानपहचान वाले या मेरे परिचितअपरिचित फैंस. मैं अपना काम और नाम छोड़ कर सिर्फ उन के हाथों की कठपुतली बन जाऊं, तो शायद उन का दिल पसीजे. दरअसल, पराशर में प्रतिद्वंद्विता और तुलना करने की भावना हद से ज्यादा है जो उन्हें कभी चैन की सांस लेने नहीं देती. जब तक वे मेरा आत्मविश्वास नहीं तोड़ते उन का आत्मविश्वास नहीं गढ़ता. रातें मेरी कभी खुद की नहीं रहतीं, वे अपनी मरजी थोप कर मु झे कमतर का एहसास कराने की कोशिश करते हैं.’’

मालविका बोलते हुए अचानक रुक गई, शायद ज्यादा खुल जाने की झिझक ने उस के शब्दों को रोक लिया.

‘‘यानी, तुम्हारी इच्छा या अनिच्छा का कोई मोल नहीं, जो वे चाहें. पतिपत्नी में रिश्ता तो बराबरी का होता है.’’

‘‘परेशानी और भी है, सोच यह भी है कि अगर स्त्री कुछ अपनी खुशी के लिए कर रही है, जिस से समाज में उस की पहचान बनती है तो वह स्वार्थी और क्रूर है, क्योंकि वह अपने लिए समय निकालती है. जिस पति की ऐसी सोच रहे वह पत्नी को प्यार और सम्मान किस तरह दे सकेगा? तुम्ही बताओ ईशान.’’

‘‘लड़कियों को देख उन से ऐसा व्यवहार करते, जिस से मैं परेशान होऊं. जतलाने की यही मंशा रहती है कि चाहें तो वे अभी भी बहुतकुछ कर सकते हैं, लड़कियां अब भी उन के पीछे दीवानी हो सकती हैं, अर्थात मु झे भ्रम न हो कि लोग मेरे ही दीवाने हैं. क्या कहूं ऐसे बचकानेपन को. मैं ने उन्हें माफ करना सीख लिया है.’’

‘‘मालविका, तुम अपनी प्यारी सी दोस्ती मु झे दोगी? मैं एहसान मानूंगा तुम्हारा. तुम इतनी गुणी होते हुए भी कितनी सिंपल हो, तुम से बहुतकुछ सीखना है मु झे. जिंदगी को तुम्हारे नजरिए से जानना है मु झे. एक सुकूनभरा एहसास मैं भी दे पाऊंगा तुम्हें, ऐसा भरोसा दिलाता हूं. हमेशा रिश्ता लेने और देने का ही नहीं होता, कभी यह बिन कुछ लिएदिए आपस में खोए रहने का भी होता है. तुम कितनी अकेली हो, दोस्ती वाला यह हाथ थाम लो मालविका. मैं तुम्हारे दिल को थाम लूंगा.’’ ईशान ने अपना हाथ मालविका की ओर बढ़ा दिया था.

‘‘एक अच्छा दोस्त जो आप के दर्द का सा झीदार भी हो, बहुत मुश्किल से मिलता है. लेकिन तुम्हें संभाल कर कैसे रखूं ईशान? तुम जो मु झ से कितने छोटे हो. पराशर भी कभी नहीं चाहेंगे कि मैं तुम से संपर्क रखूं और फिर रिनी? उसे क्यों पसंद होगी हमारी दोस्ती?’’

‘‘तो मालविका तुम अभी भी उल झी हुई हो. सामाजिक संपर्क में मैं तुम्हारा देवर हूं. लेकिन जहां दोस्ती का संबंध सब से ऊंचा होता है वहां रिश्तों की थोपी हुई पाबंदियां माने नहीं रखतीं. रही बात पराशर भैया और रिनी की, तो एक बात का उत्तर दो, तुम्हें उत्तर खुद ही मिल जाएगा. पराशर भैया क्या तुम्हारे दिल के राजदार हैं? क्या उन्होंने तुम्हें यह अधिकार दिया है? क्या वे तुम्हारे दिल के हमदम हैं? उन का वास्ता तुम्हारे शरीर से है, तुम से नहीं. घुटघुट कर बच्चे को बड़ा कर तो लिया, अब बाकी जिंदगी में एक अच्छी सी दोस्ती को भी अपनाना नहीं चाहोगी? जहां तक रिनी की बात है, तो वह आज की मौडर्न प्रोफैशनल लड़की है और उस के खुद के पक्के व अच्छे पुरुष दोस्त हैं.

‘‘मालविका, जैसे तुम अपने रचना संसार को पराशर भैया के न चाहते हुए भी जिंदा रखे हुए हो, क्योंकि तुम जानती हो कि तुम सही कर रही हो, उसी तरह हमारी दोस्ती को खुद के दिलदिमाग के सुकून के लिए जीने का हक दो. बात है हम दोनों अपनेअपने पार्टनर के साथ सच्चे और अच्छे रहें और इस के लिए शादी से अलग रिश्तों में भी सम झ कर चलें. सब की अपनी जिंदगी के माने हैं और शादी से वे माने खत्म नहीं होते.’’

कम बोलने वाला ईशान इतना बोल कर एकदम चुप हो गया. थक कर बेबस सा मालविका की ओर देखने लगा.

मालविका बोली, ‘‘यानी, अब मेरे मन के रेगिस्तान में एक नखलिस्तान पैदा हो गया है और मै आसानी से उस में दो घड़ी बिता सकती हूं,’’ मालविका ने ईशान के हाथ पर अपना हाथ रख दिया था. ईशान अब संतुष्ट था. 2 दिनों बाद जब ईशान और रिनी ने फिजी के लिए फ्लाइट पकड़ी तब ढेर सारी अच्छीबुरी बातों के बीच एक बात बहुत अच्छी थी कि मालविका के पास मुसकराने की एक बेहतरीन वजह हो गई थी. इन भीगी सी पलकों में एक गुलाबी सा ख्वाब पैदा हो गया था जो बड़ी आसानी से अब उसे सहलाता, बहलाता और वह बेवजह ही मुसकराने लगती.

Love Story : एक दोस्त है मेरा – रिया और उस अजनबी का क्या संबंध था?

Love Story : मैं बैडरूम की खिड़की में बस यों ही खड़ी बारिश देख रही थी. अमित बैड पर लेट कर अपने फोन में कुछ कह रहे थे. मैं ने जैसे ही खिड़की से बाहर देखते हुए अपना हाथ हिलाया, उन्होंने पूछा, ‘‘कौन है?’’

मैं ने कहा, ‘‘पता नहीं.’’

‘‘तो फिर हाथ किसे देख कर हिलाया?’’

‘‘मैं नाम नहीं जानती उस का.’’

‘‘रिया, यह क्या बात कर रही हो? जिस का नाम भी नहीं पता उसे देख कर हाथ हिला रही हो?’’

मैं चुप रही तो उन्होंने फिर कुछ शरारत भरे स्वर में पूछा, ‘‘कौन है? लड़का है या लड़की?’’

‘‘लड़का.’’

‘‘ओफ्फो, क्या बात है, भई, कौन है, बताओ तो.’’

‘‘दोस्त है मेरा.’’

इतने में तो अमित ने झट से बिस्तर छोड़ दिया. संडे को सुबह 7 बजे इतनी फुर्ती. तारीफ की ही बात थी, मैं ने भी कहा, ‘‘वाह, बड़ी तेजी से उठे, क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, देखना था उसे जिसे देख कर तुम ने हाथ हिलाया था. बताती क्यों नहीं कौन था?’’

अब की बार अमित बेचैन हुए. मैं ने उन के गले में अपनी बांहें डाल दीं, ‘‘सच बोल रही हूं, मुझे उस का नाम नहीं पता.’’

‘‘फिर क्यों हाथ हिलाया?’’

‘‘बस, इतनी ही दोस्ती है.’’ अमित कुछ समझते नहीं, गरदन पर झटका देते हुए बोले, ‘‘पता नहीं कैसी बात कर रही हो, जान न पहचान और हाथ हिला रही हो हायहैलो में.’’

‘‘अरे उस का नाम नहीं पता पर पहचानती हूं उसे.’’

‘‘कैसे?’’

‘‘बस यों ही आतेजाते मिल जाता है. एक ही सोसायटी है, पता नहीं कितने लोगों से आतेजाते हायहैलो हो ही जाती है. जरूरी तो नहीं कि सब के नाम पता हों.’’

‘‘अच्छा ठीक है. मैं फ्रैश होता हूं, नाश्ता बना लो,’’ अमित ने शायद यह टौपिक यहीं खत्म करना ठीक समझा होगा.

संडे था, मैं अमित और बच्चों की पसंद का नाश्ता बनाने में व्यस्त हो गई. बच्चों को कुछ देर से ही उठना था.

नाश्ता बनाते हुए मेरी नजर बाहर सड़क पर गई. वह शायद कहीं से कुछ रैडीमेड नाश्ता पैक करवा कर ला रहा था. हां, आज उस की पत्नी आराम कर रही होगी. उस की नजर फिर मुझ पर पड़ी. वह मुसकराता हुआ चला गया.

10 साल पहले हम अंधेरी की इस सोसायटी के फ्लैट में आए थे. हमारी बिल्डिंग के सामने कुछ दूरी पर जो बिल्डिंग है उसी में उस का भी फ्लैट है. मैं तीसरी फ्लोर पर रहती हूं और वह 5वीं पर. जब हम शुरूशुरू में आए थे तभी वह मुझे आतेजाते दिख जाता था. पता नहीं कब उस से हायहैलो शुरू हुई थी, जो आज तक जारी है.

इन 10 सालों में भी न तो मुझे उस का नाम पता है, न शायद उसे मेरा नाम पता होगा. दरअसल, ऐसा कोई रिश्ता है ही नहीं न कि मुझे उस का नाम जानने की जरूरत पड़े. बस समय के साथ इतना जरूर हुआ कि मेरी नजर उस की तरफ उस की नजरें मेरी तरफ अब अनजाने में नहीं, इरादतन उठती हैं, अब तो उस का इकलौता बेटा भी 10-12 साल का हो रहा है. मैं अनजाने में ही उस का सारा रूटीन जान चुकी हूं.

दरअसल मेरे बैडरूम की खिड़की से पता नहीं उस के कौन से कमरे की खिड़की दिखती है. बस, साल भर पहले ही तो जब उसे खिड़की में खड़े अचानक देख लिया तभी तो पता चला कि वह उसी फ्लैट में रहता है. पर उस के बाद जब भी महसूस हुआ कि वह खिड़की में खड़ा है, तो मैं ने फिर नजरें उधर नहीं उठाईं. अच्छा नहीं लगता न कि मैं उस की खिड़की की तरफ दिखूं.

हां, इतना होता है कि वह जब भी रोड से गुजरता है, तो एक नजर मेरी खिड़की की तरफ जरूर उठाता है और अगर मैं खड़ी होती हूं तो हम एकदूसरे को हाथ हिला देते हैं और कभीकभी यह भी हो जाता है कि मैं सोसायटी के गार्डन में सैर कर रही हूं और वह अपनी पत्नी और बेटे के साथ आ जाए तब भी वह पत्नी की नजर बचा कर मुसकरा कर हैलो बोलता है, तो मैं मन ही मन हंसती हूं.

अब मुझे उस का सारा रूटीन पता है. सुबह 7 बजे वह अपने बेटे को स्कूल बस में बैठाने

जाता है. फिर उस की नजर मेरी किचन की तरफ उठती है. नजरें मिलने पर वह मुसकरा देता है. साढ़े 9 बजे उस की पत्नी औफिस जाती है.

10 बजे वह निकलता है. 3 बजे तक वह वापस आता है. फिर अपने बेटे को सोसायटी के ही डे केयर सैंटर से लेने जाता है. उस की पत्नी लगभग7 बजे तक आती है.

मेरे बैडरूम और किचन की खिड़की से हमारी सोसायटी की मेन रोड दिखती है. घर में सब हंसते हैं. अमित और बच्चे कहते हैं, ‘‘सब की खबर रहती है तुम्हें.’’

बच्चे तो हंसते हैं, ‘‘कितना बढि़या टाइमपास होता है आप का मौम. कहीं जाना भी नहीं पड़ता आप को और सब को जानती हैं आप.’’

इतने में अमित की आवाज आ गई,

‘‘रिया, नाश्ता.’’

‘‘हां, लाई.’’ हम दोनों ने साथ नाश्ता किया. हमारी 20 वर्षीय बेटी तनु और 17 वर्षीय राहुल 10 बजे उठे. वे भी फ्रैश हो कर नाश्ता कर के हमारे साथ बैठ गए.

इतने में तनु ने कहा, ‘‘आज उमा के घर मूवी देखने सब इकट्ठा होंगे, वहीं लंच है.’’

मैं ने पूछा, ‘‘कौनकौन?’’

‘‘हमारा पूरा ग्रुप. मैं, पल्लवी, निशा, टीना, सिद्धि, नीरज, विनय और संजय.’’

अमित बोले, ‘‘नीरज, विनय को तो मैं जानता हूं पर अजय कौन है?’’

‘‘हमारा नया दोस्त.’’

अमित ने मुझे छेड़ते हुए कहा, ‘‘ठीक है बच्चों पर कभी मम्मी का दोस्त देखा है?’’

राहुल चौंका, ‘‘क्या?’’

‘‘हां भई, तुम्हारी मम्मी का भी तो एक दोस्त है.’’

तनु गुर्राई, ‘‘पापा, क्यों चिढ़ा रहे हो मम्मी को?’’

राहुल ने कहा, ‘‘उन का थोड़े ही कोई दोस्त होगा.’’

अमित ने बहुत ही भोलेपन से कहा, ‘‘पूछ लो मम्मी से, मैं झूठ थोड़े ही बोल रहा हूं.’’

दरअसल, हम चारों एकदसूरे से कुछ ज्यादा ही फ्रैंक हैं. युवा बच्चों के दोस्त बन कर ही रहते हैं हम दोनों इसलिए थोड़ाबहुत मजाक, थोड़ीबहुत खिंचाई हम एकदूसरे की करते ही रहते हैं.

तनु थोड़ा गंभीर हुई, ‘‘मौम, पापा झूठ बोल रहे हैं न?’’

मैं पता नहीं क्यों थोड़ा असहज सी हो गई, ‘‘नहीं, झूठ तो नहीं है.’’

‘‘मौम, क्या मजाक कर रहे हो आप लोग, कौन है, क्या नाम है?’’

मैं ने जब धीरे से कहा कि नाम तो नहीं पता, तो तीनों जोर से हंस पड़े. मैं भी मुसकरा दी.

राहुल ने कहा, ‘‘कहां रहता है आप का दोस्त मौम?’’

‘‘पता नहीं,’’ मैं ने पता नहीं क्यों झूठ बोल दिया. इस बार मेरे घर के तीनों शैतान हंसहंस कर एकदूसरे के ऊपर गिर गए. वह सामने वाले फ्लैट में रहता है, मैं ने जानबूझ कर नहीं बताया. मुझे पता है अमित की खोजी नजरें फिर सामने वाली खिड़की को ही घूरती रहेंगी. बिना बात के अपना खून जलाते रहेंगे.

तनु ने कहा, ‘‘पापा, आप बहुत शैतान हैं, मम्मी को तो कुछ भी नहीं पता फिर दोस्त कैसे हुआ मम्मी का.’’

‘‘अरे भई, तुम्हारी मम्मी उस की दोस्त हैं. तभी तो उस की हैलो का जवाब दे रही थीं, हाथ हिला कर.’’

मैं ने कहा, ‘‘तुम तीनों के दोस्त हो सकते हैं, मेरा क्यों नहीं हो सकता? आज तुम्हारे पापा ने किसी को हाथ हिलाते देख लिया, उन्हें चैन ही नहीं आ रहा है.’’

तीनों फिर हंसे, ‘‘लेकिन हमें हमारे दोस्तों के नाम तो पता हैं.’’

मैं खिसिया गई. फिर उन की मस्ती का मैं ने भी दिल खोल कर आनंद लिया. इतने में मेड आ गई, तो मैं उस के साथ किचन की सफाई में व्यस्त हो गई.

आज मेरे हाथ तो काम में व्यस्त थे पर मन में कई विचार आजा रहे थे. मुझे उस का नाम नहीं पता पर उसे आतेजाते देखना मेरे रूटीन का एक हिस्सा है अब. बिना कुछ कहेसुने इतना महसूस करने लगी हूं कि अगर उस की पत्नी उस के साथ होगी तो वह हाथ नहीं हिलाएगा. बस धीरे से मुसकराएगा. बेटे को बस में बैठा कर मेरी किचन की तरफ जरूर देखेगा. उस की कार तो मैं दूर से ही पहचानती हूं अब. नंबर जो याद हो गया है.

उस की पार्किंग की जगह पता है मुझे. यह सब मुझे कुछ अजीब तो लगता है पर यह जो ‘कुछ’ है न, यह मुझे अच्छा लगता है. मुझे दिन भर एक अजीब से एहसास से भरे रखता है. यह ‘कुछ’ किसी का नुकसान तो कर नहीं रहा है.

मैं जो अपने पति को अपनी जान से ज्यादा प्यार करती हूं, उस में कोई रुकावट, कोई समस्या तो है नहीं इस ‘कुछ’ से. यह सच है कि जब अमित और बच्चों के साथ होती हूं तो यह ‘कुछ’ विघ्न नहीं डालता हमारे जीवन में.

ऐसा नहीं है कि वह बहुत ही हैंडसम है. उस से कहीं ज्यादा हैंडसम अमित हैं और उस की पत्नी भी मुझ से ज्यादा सुंदर है पर फिर भी यह जो ‘कुछ’ है न इस बात की खुशी देता है कि हां, एक दोस्त है मेरा जिस का नाम मुझे नहीं पता और उसे मेरा. बस कुछ है जो अच्छा लगता है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें