Social Taboo : कहने वाले गलत नहीं कहते कि मौत का खौफ आदमी को चैन और सुकून से जीने भी नहीं देता. कैसेकैसे होते हैं ये डर और कौन इन्हें फैलाता है यह जानतेसमझते हुए भी लोग खामोश रहते हैं क्योंकि वे आस्तिक होते हैं लेकिन नास्तिकों को ये डर नहीं सताते जिन के लिए अलग से श्मशान घाट होने लगें तो एक बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है.
मृत्यु जीवन का सुखद समापन है या नहीं इस पर बहस की तमाम गुंजाइशें हैं लेकिन मौत का खौफ सिर्फ उन लोगों के सर ज्यादा चढ़ कर बोलता है जो धार्मिक और पूजापाठी हैं. एक नास्तिक के लिए यह सामान्य और जीवन की अंतिम घटना है जिस के बाद कुछ बाकी नहीं रह जाता. आस्तिकों के लिए मौजूदा जिंदगी तो कठोर होती ही है साथ ही मौत के बाद की जिंदगी का खौफ उन्हें चैन से मरने भी नहीं देता. कई बार तो यह इतना ज्यादा होता है कि लोगों को मनोचिक्त्सक की शरण लेना पड़ती है. मौत के डर को मनोविज्ञान की भाषा में थानाटोफोबिया कहते हैं.
बहुत बारीकी से देखें तो इस मृत्युचिंता या डर की जड़ में सिर्फ और सिर्फ धर्म है. जिस ने मौत को ले कर इतने खौफनाक और डरावने किस्सेकहानियां गढ़ रखे हैं कि खासे आदमी का जीना दुश्वार हो जाता है. दुनिया का ऐसा कोई धर्म नहीं है जो मौत का डर दिखा कर पैसे न ऐंठता हो. हिंदू धर्म सहित सभी धर्म मोक्ष की बात प्रमुखता से करते हैं तो उन का इकलौता मकसद मौत पर भी दुकान चलाना ही होता है. महाकुंभ की भगदड़ में जो लोग मारे गए वे भी मोक्ष के लालच में प्रयागराज गए थे जिसे ले कर तरहतरह की बातें खासतौर से धर्म गुरुओं के बीच ज्यादा हुईं.
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