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Menstruation Cups : मेंस्ट्रुअल कप के गलत यूज से खतरे

Menstruation Cups : मेंस्ट्रुअल कप महिलाओं के लिए पीरियड्स के दौरान एक आरामदायक, सस्ता, इको फ्रैंडली प्रोडक्ट है मगर इस के प्रति गलत जानकारियों या कम जानकारियों ने दिक्कतें भी खड़ी की हैं.

हाल ही में ब्रिटेन में एक मामला सामने आया, जहां एक 30 साल की महिला को महीनों तक पेट दर्द और पेशाब में खून की समस्या हुई. उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह क्यों हो रहा है, लेकिन बाद में डाक्टरों ने पाया कि उस का मेंस्ट्रुअल कप गलत तरीके से यूज किया था जिस से किडनी को मूत्राशय से जोड़ने वाली नाली (मूत्रवाहिनी) पर दबाव पड़ रहा था, जिस से उसे पेशाब निकलने में दिक्कत हो रही थी. यह एक अलग तरह का मामला है, लेकिन यह बताता है कि मेंस्ट्रुअल कप का सही उपयोग कितना जरूरी है.

कई महिलाएं मेंस्ट्रुअल कप को बिना सही जानकारी के इस्तेमाल करने लगती हैं, जिस से गलत फिटिंग, संक्रमण और अन्य स्वास्थ्य समस्याओं का खतरा बढ़ जाता है. कुछ मुख्य बातें जो ध्यान में रखनी चाहिए:

• सही साइज चुनें– सभी के शरीर की बनावट अलग होती है, इसलिए सही साइज का कप चुनना जरूरी है.

• इस्तेमाल का सही तरीका सीखें – इसे कैसे मोड़ना, डालना और हटाना है, यह अच्छे से समझना चाहिए.

• हाइजीन का ख्याल रखें – मेंस्ट्रुअल कप को हर बार इस्तेमाल से पहले और बाद में अच्छे से साफ करना जरूरी है.

• शरीर के संकेतों को नजरअंदाज न करें – अगर कप लगाने के बाद असहज महसूस हो, पेशाब में दिक्कत हो या दर्द हो, तो तुरंत डाक्टर से सलाह लें.

Artificial Intelligence : एआई से प्रोफैशनल जौब्स बचेंगी या जाएंगी?

Artificial Intelligence : आर्टिफिशियल इंटेलिजैंस को ले कर दुनिया भर में डर का हौव्वा खड़ा किया जा रहा है. माइक्रोसौफ्ट के को-फाउंडर बिल गेट्स ने भी कहा कि एआई अधिकांश नौकरियों को खत्म कर देगा और ग्लोबल इकोनोमी को पूरी तरह बदल देगा.

सवाल यह कि किसी टैकनोलौजी के आने से नौकरियों और अर्थव्यवस्था पर असर पड़ता है? जवाब है हां. दुनियाभर में रेडियो, कंप्यूटर, टेलीविजन, मोबाइल क्रान्ति हुई. इन के आने से फर्क पड़ा, कुछ तरह की नौकरियां खत्म हुईं पर कुछ तरह की नौकरियां पैदा भी हुईं. अर्थव्यवस्था उसी हिसाब से चली और ग्लोबल हुई. पर सभी पेशे खत्म हो जाएंगे यह मानना अतिश्योक्ति है.

जानिए जिन पेशों के खत्म होने की बात की जा रही है वह खत्म होंगे या नहीं –

कोडर्स: एआई को हमारी जरूरत

आप सोच रहे होंगे कि प्रोग्रामर्स की नौकरी सब से पहले खतरे में आएगी. पर ऐसा नहीं है. हालांकि एआई कोड लिख सकता है, लेकिन वह परफैक्ट नहीं है. गलतियों को सुधारने, मौनिटर करने के लिए इंसानों की जरूरत होगी. अभी भी हमें एआई की नहीं, एआई को हमारी जरूरत है.

एनर्जी एक्सपर्ट : एआई के लिए बहुत जटिल है यह क्षेत्र

तेल, परमाणु, नवीकरणीय ऊर्जा. यह क्षेत्र बहुत ही रणनीतिक और जटिल है, जिसे पूरी तरह मशीनों पर छोड़ना संभव नहीं. इंजीनियर्स, रिसर्चर्स और टैकनीशियनों की जरूरत हमेशा रहेगी, ताकि वे इंफ्रास्ट्रक्चर को संभाल सकें, चैलेंजेस को समझ सकें और नई खोजों को कर सकें.

बायोलौजिस्ट : इंसान की जरूरत

एआई बीमारियों का निदान कर सकता है, डीएनए सीक्वेंस का विश्लेषण कर सकता है और डाक्टर्स से बेहतर तरीके से बीमारियों का पता लगा सकता है मगर यह वह बिना इंसानी समझ और क्रिएटिविटी के नहीं कर सकता.

बात क्रिएटिव फील्ड की आती है तो एआई को सब से ज्यादा मारक बताया जा रहा है. मगर एआई वही जानकारी देता है जो आप चाहते हैं वो भी किसी जानकारी के आधार पर जो इंसान ने जुटाई हो. सही या गलत की समझ न होने के चलते अभी भी वह इंसानों पर ही निर्भर है.

Apaar ID : क्या है ‘अपार’ आईडी ?

Apaar ID : सरकार को लगता है कि औन लाइन व्यवस्था से ही सब ठीक हो सकता है. शिक्षा मंत्रालय स्कूली छात्रों के लिए ‘अपार’ आईडी बनाने का काम कर रही है. इस अभियान को तेज करने के लिए उत्तर प्रदेश में 11 फरवरी को ‘अपार’ दिवस मनाया गया. इस दिन तक उत्तर प्रदेश में कक्षा 9 से 12 के छात्रों की 50 फीसदी ‘अपार’ आईडी बन चुकी थी.

महानिदेशक स्कूल शिक्षा कंचन वर्मा ने सभी बीएसए यानि बेसिक शिक्षा अधिकारियों को कहा है कि जल्द से जल्द ‘अपार’ आईडी बनाने का काम पूरा करें. ‘अपार’ यानि औटोमेटेड परमानेंट एकेडमिक अकाउंट में छात्रों का पूरा विवरण दर्ज किया जा रहा है. यह आईडी सरकारी और प्राइवेट दोनों ही स्कूलों के छात्रों की बन रही है.

अपार आईडी में छात्र का नाम, लिंग, जन्मतिथि, पता, पेरैंट्स का नाम, दोनों के आधार नंबर, स्कूल का विवरण, फोटो, मार्कशीट, सर्टिफिकेट, डिग्री, डिप्लोमा, प्रमाण पत्र, कैरेक्टर सर्टिफिकेट, स्कूल ट्रांसफर सर्टिफिकेट रहेंगे. इन में कहीं अंतर होने पर ‘अपार’ आईडी नहीं बनेगी.

सरकार का तर्क है कि ‘अपार’ आईडी के जरिए सभी छात्रों की शैक्षणिक जानकारी एक जगह पर उपलब्ध होगी. यह आधार कार्ड की तरह ही एक तरह का आईडी है. इस में छात्रों की मार्कशीट, डिग्री, सर्टिफिकेट और अन्य उपलब्धियां डिजिटल रूप से सुरक्षित रहेगी.

सरकार के तुगलकी फैसलों के चलते लोगों के पास तमाम तरह की आईडी और कार्ड बन गए हैं. इस तरह के विवरण औनलाइन दर्ज होने से गोपनीयता भंग होती है. इतनी सारी आईडी रखना सिर दर्द है. सरकार न नौकरी दे पा रही न परीक्षाओं में नकल रोक पा रही बस आईडी पर आईडी बना रही है.

Gandhi Family : राहुल गांधी के धर्म पर हायहाय क्यों

Gandhi Family : जात निकाला यानी जाति से निष्कासित कर देना या हुक्कापानी बंद कर देना तो देश में आम बात है धर्म परिवर्तन भी उतनी ही आम बात है लेकिन किसी को धर्म से ही निष्कासित कर देने की धौंस पहली दफा आम हुई है.

एक शंकराचार्य अविमुक्तेश्वारानन्द जिन्हें संत बिरादरी के लोग ही स्वयं भू शंकराचार्य कहते हैं ने कहा है कि राहुल गांधी माफी मांगें नहीं तो उन्हें हिंदू धर्म से निष्कासित कर दिया जाएगा. राहुल ने हाथरस रेप पीड़िता की वकालत करते मनु स्मृति और संविधान की तुलना यह कहते कर दी थी कि बलात्कारी खुलेआम घूमें यह मनुस्मृति कहती है.

धर्म के ठेकेदारों को तकलीफ संविधान से भी रहती है और राहुल गांधी के धर्म को ले कर भी उन के पेट में मरोड़े अकसर उठा करती हैं. इस शंकराचार्य की गिनती कांग्रेसी खेमे में होती है और इस के गुरु स्वरूपानंद गांधी परिवार के फेमिली शंकराचार्य हुआ करते थे इसलिए हर कोई हैरान है कि एकाएक ही इस की निष्ठां को यह क्या हो गया और क्या किसी को इस तरह से धर्म से निकाला जा सकता है.

Transgender : हिंदू किन्नर मुसलिम किन्नर

Transgender : किन्नरों को इस बात पर बड़ा फख्र और गुमान रहता है कि लिंग के साथसाथ उन की कोई जाति या धर्म भी नहीं होता. लेकिन अब यह गुरुर दरकता दिखाई दे रहा है. भोपाल के किन्नर हिंदू और मुसलिम समुदायों में बंट गए हैं और एकदूसरे पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगा रहे हैं.

एक सीनियर मोस्ट किन्नर सुरैया नायक ने देवी नाम के किन्नर पर हिंदूवाद फैलाने का इल्जाम मढ़ा है तो देवी किन्नर ने भी सुरैया को हाजी कहना शुरू कर दिया है और अपना पक्ष मजबूत करने बजरंगदल और संस्कृति बचाओ मंच जैसे हिंदूवादी संगठनों का समर्थन और सहानुभूति हासिल कर ली है.

दरअसल में झगड़ा गद्दी और नेग के पैसों की छीना छपटी का है जो किन्नर समुदाय में शीर्ष पर भी मौजूद है. इस के पीछे धर्म का बड़ा हाथ है जिस ने किन्नरों को भी महामंडलेश्वर का दर्जा दे दिया और उन्हें आपस में लड़ा दिया. कल को सवर्ण दलित आदिवासी और ओबीसी किन्नर भी ताल ठोकने लगें तो किसी को हैरानी नहीं होगी.

Ranveer Allahbadia : अश्लीलता आप के दिमाग में रहती है

Ranveer Allahbadia :  देश में इन दिनों कोई 9 लाख 50 हजार कंटेंट क्रिएटर हैं जिन में से 1 लाख 15 हजार की कमाई एक से ले कर 10 लाख रुपए महीना तक है. रणवीर इलाहाबादी इन में से एक हैं जिन्हें अब हर कोई जानने लगा है.

रणवीर ने एक शो इंडिया गोट लैटेंट में बतौर जज प्रतिभागियों से कुछ तथाकथित अश्लील सवाल पूछ लिए. हल्ला मचा और ऐसा मचा कि उस के खिलाफ कई एफआईआर दर्ज हो गईं और एक संसदीय समिति भी जांच के लिए गठित कर दी गई.

अश्लीलता का कोई तयशुदा पैमाना नहीं होता लेकिन धर्म के ठेकेदारों को हर वह बात जो धर्म के कारोबार पर अटक करती हो अश्लील लगती है. रणवीर को उतनी लोकप्रियता उस के अश्लील सवालों से कम इन ठेकेदारों के उस के वीडियो वायरल करने से ज्यादा मिली जिस से डर कर उस ने माफी मांगने में ही अपनी भलाई समझी.

लेकिन यह समस्या का हल नहीं है क्योंकि अश्लीलता लोगों के दिमाग में रहती है, उन लोगों के तो दिल में भी रहती है जो इस का विरोध करते रहते हैं. शायद ही नैतिकता के ये कांट्रेक्टर बता पाएं कि वे ऐसे अश्लील कंटैंट देखते ही क्यों हैं.

Hindi Kahani : अधिक्रमण – प्रिया सुनील की कौन सी बात से नाराज थी

Hindi Kahani : ‘‘देखो प्रिया, मैं ने तो हां कर दी,’’ सुनील ने कौफी में चीनी डाल कर चम्मच से हिलाते हुए कहा, ‘‘अब तुम्हारी हां का इंतजार है. कह दो न.’’

‘‘इस में कहना क्या है, मेरी भी हां है,’’ बिना ध्यान दिए सुनील का प्याला उठाते हुए प्रिया ने कहा, ‘‘तुम मेरी मजबूरी जानते तो हो.’’

‘‘भई वाह, पत्नी हो तो ऐसी,’’ सुनील ने हंस कर कहा, ‘‘मैडम, अभी तो आप ने मेरे प्याले पर अधिकार किया है, कल को मेरी जेब पर अधिकार जमा लेंगी और फिर मेरे समूचे जीवन पर तो होगा ही.’’

‘‘क्या मैं ने तुम्हारा प्याला उठा लिया,’’ प्रिया ने आश्चर्य से कहा, ‘‘ओह हां, पता नहीं क्या सोच रही थी.  लो, तुम्हारा प्याला वापस किया.’’

‘‘धन्यवाद,’’ सुनील मुसकराया, ‘‘तो हम तुम्हारी समस्या के बारे में सोच रहे थे.’’

‘‘अब समस्या मेरी है. कुछ मुझे ही सोचना पड़ेगा,’’ प्रिया ने गहरी सांस ले कर कहा.

‘‘बहनजी,’’ सुनील चिढ़ाने के लिए अकसर प्रिया को बहनजी कहता था, ‘‘हर समस्या का कोई न कोई समाधान अवश्य होता है.’’

‘‘तो मां का क्या करूं? पिताजी की असमय मौत के बाद वह मेरे ऊपर पूरी तरह निर्भर हैं,’’ प्रिया ने मेज पर कोहनी टिका कर कहा, ‘‘मैं उन्हें छोड़ नहीं सकती, सुनील.’’

‘‘तो मां को साथ ले आओ,’’ सुनील हंसा, ‘‘इस से बढ़ कर और दहेज क्या हो सकता है.’’

‘‘यह हंसी की बात नहीं है,’’ प्रिया ने गंभीरता से कहा, ‘‘उस घर के साथ मां की इतनी यादें जुड़ी हैं कि वह कभी भी घर छोड़ने को तैयार नहीं होंगी. दूसरी बात, अगर मां हमारे साथ रहने को तैयार हो भी गईं तो क्या तुम्हारे घर वाले इसे कभी स्वीकार करेंगे?’’

‘‘मेरे लिए तो कोई समस्या ही नहीं है,’’ सुनील ने कहा, ‘‘मातापिता तो सांसारिक दुनिया को त्याग कर ऋषिकेश के एक आश्रम में रहते हैं. एक बड़ा भाई है जो शादी कर के चेन्नई में रहने लगा है. मैं अपनी मरजी का मालिक हूं.’’

अचानक प्रिया की आंखों में चमक आ गई, ‘‘तुम मेरी मां से मिलोगे? शायद उन्हें समझा पाओ.’’

सुनील ने मुसकरा कर पूछा, ‘‘बताओ, उन्हें पटाने का कोई नुस्खा है क्या?’’

‘‘शरम करो, अपनी सास के लिए क्या कोई ऐसे कहता है,’’ प्रिया को हंसी आ गई.

‘‘तो फिर कब आना है?’’ सुनील ने पूछा.

‘‘पहले मां से बात कर लूं फिर तुम्हें बता दूंगी.’’

घंटी बजने पर जब दरवाजा खुला तो सुनील चौंक गया. प्रिया ने आज तक उसे यह नहीं बताया था कि घर में बड़ी बहन भी है. बिलकुल प्रिया की शक्ल की.

‘‘नमस्ते, दीदी,’’ सुनील ने कहा, ‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’

‘‘हांहां, आओ न, तुम्हारा ही तो इंतजार था,’’ मां ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मैं प्रिया की मां हूं.’’

बिलकुल कल्पना से परे, वह एकदम चुस्तदुरुस्त और स्मार्ट लग रही थीं. सुनील ने सोचा था कि मां तो वृद्धा होती हैं. उन के चेहरे पर बुढ़ापा झलक रहा होगा. पर यहां तो सबकुछ उलटा था. मां ने आधुनिक स्टाइल के कपड़े पहने हुए थे. और उन की आंखों में हंसी नाच रही थी.

प्रिया उन के पीछे खड़ी हो शरारत से मुसकरा रही थी, ‘‘जब भी हम दोनों बाजार जाते हैं तो सब हमें बहनें ही समझते हैं. तुम भी धोखा खा गए.’’

सोफे पर बैठते हुए सुनील ने शिकायत की, ‘‘प्रिया, तुम्हें मुझे सतर्क कर देना चाहिए था.’’

‘‘तो फिर क्या करते?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘अरे, मांजी के लिए विदेशी परफ्यूम लाता. साथ में कोई और अच्छा सा उपहार लाता.’’

‘‘ठीक है, तुम मां से बातें करो,’’ प्रिया ने कहा, ‘‘मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

कुछ ही देर में सुनील मां से घुलमिल गया. अपने बारे में पूरी जानकारी दी और प्रिया से शादी करने की इच्छा भी जता दी.

‘‘मुझे तो कोई आपत्ति नहीं है,’’ मां ने सहजता से कहा, ‘‘प्रिया ने तुम्हारे बारे में इतना कुछ बता दिया है कि तुम बिलकुल अजनबी नहीं लगे.’’

‘‘तो आप ने मुझे पसंद कर लिया?’’ सुनील ने द्विअर्थी संवाद का सहारा लिया.

‘‘प्रिया की पसंद मेरी पसंद,’’ मां ने भी नहले पर दहला मारा.

सुनील ने प्रिया से आते ही कहा, ‘‘मांजी तो राजी हैं.’’

मां के गले में बांहें डाल कर प्रिया ने पुलकित स्वर में कहा, ‘‘मां, तुम हमारे साथ आ कर रहोगी न?’’

‘‘तुम्हारे साथ?’’ मां ने आश्चर्य से कहा, ‘‘तुम्हारे साथ क्यों रहूंगी?’’

‘‘क्यों, सुनील ने कहा नहीं कि दहेज में मुझे मां चाहिए,’’ प्रिया ने हंसते हुए कहा.

‘‘ऐसी तो हमारे बीच कोई बात नहीं हुई,’’ मां ने कहा.

आत्मीयता से मां का हाथ अपने हाथों में लेते हुए सुनील बोला, ‘‘अरे मां, शादी के बाद आप अकेली थोड़े ही रहेंगी. आप साथ रहेंगी तो प्रिया को भी तसल्ली रहेगी.’’

‘‘साथ रहने में मुझे कोई एतराज नहीं,’’ मां ने थोड़ा हिचकिचा कर कहा, ‘‘लेकिन तुम्हारे घर में…’’

‘‘ओह मां, एक ही बात है,’’ सुनील ने समझाया, ‘‘हम तीनों एकसाथ मेरे घर में रहें या इस घर में, क्या फर्क पड़ता है?’’

तुम्हारे घर में रहना अच्छा नहीं लगेगा,’’ मां ने कहा, ‘‘लोग क्या कहेंगे?’’

थोड़ी देर की बहस के बाद सुनील ने मां को इतना राजी कर लिया कि वह शादी के बाद सुनील के घर कुछ समय रह कर देखेंगी अगर मन नहीं लगा तो सब यहां आ जाएंगे.

बिना धूमधाम के कोर्ट में शादी हो गई. सुनील का घर व कमरा मां ने खुद सजाया था. लगता था सजावट करने में उन्हें विशेष रुचि थी. घर पूरी तरह से मां ने संभाल लिया था.

एक सप्ताह बाद सुनील और प्रिया को अपनेअपने कार्यालय जाना था. प्रिया का दफ्तर सुनील के दफ्तर से अधिक दूर नहीं था. बीच में एक दक्षिण भारतीय रेस्तरां था जहां दोनों का परिचय, दोस्ती व प्रणयलीला का आरंभ हुआ था. उन के जीवन में इस रेस्तरां का विशेष स्थान था.

नाश्ता करने के बाद मां ने दोनों को अपनाअपना टिफनबाक्स पकड़ा दिया.

‘‘आप जितनी अच्छी हैं उतनी ही पाक कला में भी निपुण हैं,’’ सुनील ने टिफनबाक्स लेते हुए कहा, ‘‘मुझे अगर पहले पता होता तो शादी के मामले में इतनी देर न लगाता. यह सारी गलती आप की बेटी की है.’’

प्रिया ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा, ‘‘तुम तो शादी करने को ही राजी नहीं थे. कहते थे न कि ऐसे ही साथ क्यों नहीं रहते?’’

मां ने हंस कर कहा, ‘‘अरेअरे, लड़ो मत. जो कुछ इतने दिनों में तुम ने खोया है वह सब मैं पूरा कर दूंगी.’’

‘‘बहुत चटोरे हैं मां, इन्हें ज्यादा मुंह न लगाओ,’’ प्रिया ने इठला कर कहा, ‘‘अब चलो भी.’’

मां उन्हें जाते हुए देखती रहीं. कहां गए वे दिन जब वह इसी तरह अपने पति को विदा करती थीं. उन के जाने के बाद वह घर की सफाई में लग गईं.

दिन में 2 बार फोन कर के सुनील ने मां से बात कर ली. मां को अच्छा लगा. प्रिया को तो अकसर समय ही नहीं मिलता था और अगर फोन करती भी थी तो केवल अपने मतलब से.

मोटरसाइकिल की आवाज सुनते ही मां ने दरवाजा खोला और दोनों का हंस कर स्वागत किया.

सुनील ने देखा कि मां भी एकदम तरोताजा लग रही थीं. अच्छी साड़ी के साथ हलका सा शृंगार कर लिया था. प्रिया की ओर देखा तो वह दफ्तर से हारीथकी आई थी. बालों की लटें बिखर रही थीं. चेहरे का रंग किसी बरतन की कलई की तरह उतर रहा था.

एक दिन सुनील मां से कह बैठा, ‘‘मां, आप प्रिया को अपनी तरह स्मार्ट रहना क्यों नहीं सिखातीं?’’

प्रिया चिढ़ गई और नाराज हो कर अपने कमरे में चली गई.

थोड़ी देर तक कमरे में से सुनील और प्रिया के बीच झगड़ने की आवाजें आती रहीं.

मां ने आवाज लगाई, ‘‘अरे भई, जल्दी से बाहर आओ. मैं गरमागरम पालक की पकौडि़यां बना रही हूं. बैगन की पकौड़ी भी तो तुम्हें अच्छी लगती हैं. वह भी काट रखा है.’’

सुनील उत्साह से बाहर आया, ‘‘लो, मैं आ गया. मांजी, आप ने तो मेरी कमजोरी पकड़ ली है. वाहवाह, साथ में धनिए की चटनी भी है.’’

हाथमुंह धो कर प्रिया भी बाहर आ गई. उस का क्रोध ठंडा हो गया था लेकिन मुंह फूला हुआ था.

‘‘खाओखाओ,’’ सुनील ने कहा, ‘‘प्रिया, तुम भी मांजी के कुछ गुण सीख लो.’’

‘‘मुझे आता है. वह तो मां ही किचन में नहीं घुसने देतीं.’’

‘‘अरे, अभी बच्ची है,’’ मां ने मुसकरा कर कहा, ‘‘और जब तक मैं हूं उसे कुछ करने की जरूरत क्या है?’’

‘‘मां, मुझे क्षमा करो. मैं भूल गया था. नजरें कमजोर हो गईं लगता है,’’ सुनील ने विनोद से प्रिया को ऊपर से नीचे तक देखा और कहा, ‘‘सच ही तो, प्रिया अभी बच्ची है.’’

सुनील रोज सुबहशाम मां की प्रशंसा करते नहीं थकता था. लेकिन इस बीच परिस्थिति कुछ ऐसी हो गई कि प्रिया को अंदर से बुरा लगने लगा. फिर भी वह चुप रह कर झगड़ा अधिक न बढ़े इस की चेष्टा करती थी.

एक दिन जब प्रिया नहा कर बाथरूम से बाहर आई तो देखा सुनील मां की गोद में सिर रख कर लेटा हुआ था और मां उस के ललाट पर बाम लगा रही थीं. यह देख कर वह चकित रह गई.

इस बीच मां ने मुसकरा कर सुनील से पूछा, ‘‘कैसा लग रहा है?’’

‘‘बहुत अच्छा,’’ सुनील ने उठने की चेष्टा की.

‘‘लेटे रहो. आराम करो,’’ मां ने उठते हुए कहा, ‘‘प्रिया, एक प्याला गरम चाय बना दे. थोड़ी देर में ठीक हो जाएगा.’’

‘‘सिर में दर्द था तो मुझ से क्यों नहीं कहा?’’ प्रिया ने शिकायत की, ‘‘मां को नाहक कष्ट दिया. मां, आप ही चाय बना दो. मैं यहां बैठी हूं.’’

कुछ दिनों से प्रिया महसूस कर रही थी कि मां अब छोटेमोटे कामों के लिए उसे ही दौड़ा देती थीं जबकि पहले सारे काम खुद ही करती थीं, उसे हाथ तक नहीं लगाने देती थीं. कहीं मां से ईर्ष्या तो नहीं होने लगी उसे?

एक दिन उत्साह से सुनील ने कहा, ‘‘चलो, आज दिल्ली हाट चलते हैं. दक्षिण की हस्तकला की प्रदर्शनी है और विशेष व्यंजनों के स्टाल भी लगे हैं.’’

मां ने खुश हो कर कहा, ‘‘हांहां चलो. मेरी तो बहुत इच्छा थी ऐसी प्रदर्शनियां देखने की पर क्या करूं, अकेली जा नहीं सकती और कोई अवसर भी नहीं मिलता.’’

‘‘चलो, प्रिया, झटपट तैयार हो जाओ,’’ सुनील ने आग्रह किया.

प्रिया ने सोचा कि अगर वह नहीं जाएगी तो कोई नहीं जाएगा. इसलिए उस ने कह दिया कि मेरी तबीयत ठीक नहीं है, मैं नहीं जाऊंगी.

‘‘अरे, चल भी,’’ मां ने कहा, ‘‘बाहर चलेगी तो तबीयत ठीक हो जाएगी.’’

‘‘नहीं मां, सारे बदन में दर्द हो रहा है. मैं तो कुछ देर सोऊंगी,’’ प्रिया ने सोचा दर्द की बात सुन कर सुनील कोई गोली खिलाएगा या डाक्टर के पास चलने को कहेगा.

‘‘तो ऐसा करो,’’ सुनील ने कहा, ‘‘तुम आराम करो. मैं मां को ले जाता हूं. वैसे भी मोटरसाइकिल पर 2 ही लोग बैठ सकते हैं.’’

‘‘ठीक है, प्रिया. तू आराम कर,’’ मां ने कहा और तैयार होने चली गईं. प्रिया आश्चर्य से उन्हें देखती रह गई. मां को क्या हो गया है?

कुछ देर बाद मां और सुनील अपनेअपने कमरों से तैयार हो कर बाहर आ गए. आश्चर्य से आंखें फाड़ कर वह दोनों को देख रही थी. मां ने सुनील की दी हुई साड़ी पहन रखी थी. गले और कानों में आभूषण भी थे. लिपस्टिक व पाउडर का भी इस्तेमाल किया था. बगल में छिड़के मादक परफ्यूम से कमरा महक रहा था.

‘‘हाय, हम चलते हैं, अपना खयाल रखना,’’ सुनील ने चलते हुए कहा.

‘‘ठीक है प्रिया, फ्रिज में खिचड़ी रखी है. उसे गरम कर के जरूर खा लेना और आराम करना,’’ मां ने बिना मुड़े कहा.

उन के जाने के बाद प्रिया बहुत देर तक सूनी आंखों से छत को देखती रही और फिर जब अपने पर नियंत्रण न कर पाई तो सिसकसिसक कर रोने लगी. लगता है मां और सुनील के बीच चक्कर चल रहा है. मां कोई इतनी बूढ़ी तो हुई नहीं हैं…इस के आगे प्रिया बस, यही सोच सकी कि क्या यह उस के अधिकारों पर अधिक्रमण है? प्रिया ने सोचा, चलो, मां के व्यवहार का कोई कारण था तो सुनील को क्या हो गया? शादी उस से और प्यार मां से? नहीं, समस्या और परिस्थिति दोनों पर अंकुश लगाना पड़ेगा.

वे लौट कर आए तो बहुत खुश थे. सुनील मां का बारबार हाथ पकड़ लेता था और मां की ओर से कोई आपत्ति भी उसे नजर नहीं आई. इस खुलेआम प्रेम प्रदर्शन को देख कर उस का मन और भी दुखी हो उठा.

‘‘सच प्रिया, बहुत मजा आया. अच्छा होता तुम भी साथ चलतीं. दक्षिण भारतीय खाना तो बड़ा ही स्वादिष्ठ था,’’ सुनील ने हंस कर कहा, ‘‘चलो, फिर सही.’’

मां स्वयं विस्तार से मौजमस्ती का बखान कर रही थीं.

सब अपनीअपनी हांक रहे थे. किसी ने उस से यह तक नहीं पूछा कि उस की तबीयत कैसी है. उस ने कुछ खाया भी या नहीं. क्रोध से प्रिया अंदर ही अंदर उबल रही थी. सोचा, नहीं, यह तमाशा वह और नहीं चलने देगी.

बहुत रात हो गई थी. प्रिया मुंह ढक कर लेटी जरूर थी पर उसे नींद नहीं आ रही थी.

‘‘क्या बात है, प्रिया,’’ सुनील ने पूछा, ‘‘कोई तकलीफ है क्या?’’

‘‘हां, है,’’ प्रिया बिफर पड़ी, ‘‘मां को अपने घर जाना होगा. तुम दोनों का नाटक अब और अधिक बरदाश्त नहीं होता.’’

‘‘यह अचानक तुम्हें क्या हो गया,’’ सुनील ने पूछा. वैसे वह सब समझ रहा था. मां के प्रति वह आकर्षित तो हो गया था, लेकिन कुछ अपराधबोध भी था. इस संकट से उबरना होगा.

‘‘तुम सब समझ रहे हो, इतने मूर्ख नहीं हो,’’ प्रिया ने क्रोध से कहा, ‘‘मां को किसी भी तरह उन के घर छोड़ आओ.’’

‘‘लेकिन साथ रखने की शर्त तो तुम्हारी थी,’’ सुनील ने कहा.

‘‘वह मेरी भूल थी,’’ प्रिया ने कटुता से पूछा, ‘‘तुम मेरे साथ क्या खेल खेल रहे हो? मां को क्यों बहका रहे हो?’’

सुनील उठ कर बैठ गया, ‘‘सुनना चाहती हो तो सुनो. मैं ने मां को हमेशा मां की नजरों से ही देखा है. अगर मेरी मां यहां होतीं तो भी मैं ऐसा ही करता. अभी तक मैं ने कोई अनुचित सोच उन के प्रति मन में कायम ही नहीं की है.’’

‘‘यह तुम कह रहे हो? निर्लज्जता की भी कोई हद होती है,’’ प्रिया ने क्रोध से कहा.

‘‘मैं चाहता था कि तुम अच्छे कपड़े पहनो, ठीक शृंगार करो, स्मार्ट दिखो, लेकिन दिन पर दिन तुम लापरवाह होती गईं, मानो शादी कर ली तो जीवन का लक्ष्य पूरा हो गया. अरे, शादी के पहले भी तो तुम अच्छीखासी थीं,’’ सुनील ने कहा.

‘‘नहीं करता मेरा मन तो…’’ प्रिया का वाक्य अधूरा रह गया.

‘‘वही तो. मेरी कितनी तमन्ना थी कि साथ चलो तो नईनवेली पत्नी लगो, कोई नौकरानी नहीं,’’ सुनील ने कहा, ‘‘और इसीलिए मैं ने यह नाटक किया कि ईर्ष्या के मारे तुम सही दिखने की कोशिश करो, लेकिन तुम्हारी समझ में कुछ नहीं आया.’’

प्रिया काफी देर तक चुप रही. फिर उस ने पूछा, ‘‘सुनील, तुम सच बोल रहे हो या मुझे बेवकूफ बना रहे हो.’’

‘‘सच, एकदम सच,’’ सुनील ने प्रिया को पास खींचा. मां पानी पीने कमरे से बाहर आई थीं. बेटी और दामाद की बातें कानों में पड़ीं. सुना और चुपचाप दबेपांव अपने कमरे में चली गईं. अगले दिन बहुत स्वादिष्ठ नाश्ता परोसते हुए मां ने मुसकरा कर कहा, ‘‘यहां रहते बहुत दिन हो गए हैं. अब मुझे जाना पड़ेगा.’’

‘‘क्यों, मां?’’ प्रिया ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘अकेली कैसे रहोगी?’’

‘‘आदत तो डालनी पड़ेगी न बेटी,’’ मां ने कहा, ‘‘और फिर तुम लोग तो आतेजाते रहोगे. है न बेटे?’’ प्रिया ने सुना. आज मां ने पहली बार सुनील को बेटा कह कर संबोधन किया था.

Hindi Story : बाहरवाली – हर रोज बुआ घर क्यों आ जाती थी दुखड़ा सुनाने

Hindi Story : बूआ का दुखड़ा सुनना मेरी दिनचर्या में शामिल था. रोज दोपहर में वे भनभनाती हुई चली आतीं और रोना ले कर बैठ जातीं, ‘‘क्या बताऊं सुधा, बेटों को पालपोस कर कितने जतन से बड़ा करो और बहुएं उन्हें ऐसे छीन ले जाती हैं जैसे सब उन्हीं का हो. अरे, हम तो जैसे कुछ हैं ही नही.’’

‘‘आप ने तो जैसे कभी किसी को पलापलाया छीना ही नहीं है, क्यों बूआ?’’ मेरे पति ने अकारण ही हस्तक्षेप कर दिया, ‘‘आप की तीनों बेटियां भी तो किन्हीं के पलेपलाए छीन कर बैठी हैं.’’

मैं ने आंखें तरेर कर पति को मना करना चाहा, मगर अखबार एक तरफ फेंक वे बोलते ही चले गए, ‘‘मेरी मां भी कहती हैं, शादी के बाद मैं सुधा का ही हो कर रह गया हूं. अब तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं? समझ में नहीं आता, जब बहुओं से इतनी ही जलन होती है तो उन्हें तामझाम के साथ घर लाने की क्या जरूरत होती है?

‘‘बेटे की शादी करने से पहले हर मां को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि अब उसे बेटा किसी और को सौंपना है, जैसे लड़की के मांबाप सोच लेते हैं. एक नया घर बनता है बूआ, लड़के पर जिम्मेदारी पड़ती है. वह भी कई रिश्तों में बंट जाता है. ऐसे में मां का यह सोचना कि वह अभी भी दुधमुंहा बच्चा बन उस का पल्लू थामे ‘राजा बेटा’ ही बना रहे तो यह उस के प्रति अन्याय होगा.’’

‘‘न, न सुधीर, मां का पल्लू क्यों पकड़े बेचारा राजा बेटा, वह हूर जो मिल गईर् है, पल्लू देने को,’’ बूआ ने हाथ झटक दिया.

मैं विषय उलझाना नहीं चाहती थी पर लाख इशारों के बाद भी पति मान नहीं रहे थे. वे बोले, ‘‘हूर लाता कौन है, तुम्हीं तो ठोकबजा कर, सैकड़ों लड़कियां देख अपनी बहू लाई थीं. फिर रोजरोज बहू का रोना ले कर क्यों बैठ जाती हो. उसे आए 2 महीने ही तो हुए हैं. नईनई शादी हुई है, तुम्हें तो बहू को लाड़प्यार से अपने काबू में रखना चाहिए. कभी तुम भी तो किसी की बहू बनी थीं.’’

‘‘लाड़प्यार करे मेरी जूती, मैं पीछेपीछे घूमने वालों में से नहीं हूं. देख सुधीर, मुझे विशू का उस की ससुराल वालों से ज्यादा मेलजोल पसंद नहीं है. 3 दिन से उस का छोटा भाई आया हुआ है. बाहर पढ़ता है न, इसलिए छुट्टियों में बहन के घर चला आया.’’

‘‘तो क्या हुआ, तुम भी 3-3 महीने अपनी बेटियों के घर रह आती हो. वह तो फिर भी छोटा भाई है.’’

‘‘वह…वह… मैं तो इलाज कराने…’’

‘‘इलाज कराने ही सही, पर दामाद ने भरपूर सेवा की, तुम स्वयं ही तो सुनाती रही हो. क्या तुम्हारा दामाद किसी

का पलापलाया बेटा नहीं है? तब तो तुम्हारी समधिन भी तुम्हारी तरह ही चीखतीचिल्लाती होगी?’’

‘‘सुधीर’’, बूआ का चेहरा फक पड़ गया. उन का चेहरा देख मुझे घबराहट होने लगी. मैं कभी बूआ की बातों को काटती नहीं थी. हमेशा यही सोचती, क्यों बुजुर्ग औरत का मन दुखाऊं. दो घड़ी मन हलका कर के भला वे मेरा क्या ले जाती हैं. परंतु पति का उन्हें आईना दिखा देना मुझे अनावश्यक सा लगा.

मेरे पति आगे बोले, ‘‘अपनी बेटी पराए घर में जा कर चाहे जो नाच नचाए, परंतु बहू का ऊंची आवाज में बात करना भी तुम्हें खलता है. अच्छा बूआ, घर में सुखशांति रखने का एक गुरुमंत्र लोगी मुझ से, बोलो?’’

बूआ कुछ न बोलीं, गुस्से से इन्हें घूरती रहीं.

पति बातें करते रहे, परंतु बूआ चली गईं. मुझे अच्छा नहीं लगा, मगर प्रत्यक्ष में मैं मौन ही रही. समय ने अतीत को पीछे धकेल दिया था, परंतु एक घाव सदा मेरे मानसपटल पर हरा रहा. चाहती तो पति को फटकार कर बूआ के अपमान पर नाराजगी प्रकट कर सकती थी, मगर ऐसा किया नहीं. शायद मैं भी बूआ को आईना दिखाना चाहती थी.

यही बूआ थीं जिन्होंने कभी सासुमां का पैर इस घर में जमने नहीं दिया था. मुझे अपनी सास निरीह गाय सी लगी थीं. पता नहीं क्यों, सासुमां ने मुझे कभी अपना नहीं समझा था. बूआ के सामने चुप रहने वाली सासुमां मेरे सामने शेरनी सी बन जाती थीं.

शायद अपने साथ हुए अन्याय का प्रतिकार सासुमां मुझ से लेना चाहती थीं. मुझ से मन की बात कभी न करतीं और जराजरा सी बात मेरे पति के कानों में जा डालतीं, जिस का प्रभाव अकसर हमारी गृहस्थी पर पड़ता. हम आपस में झगड़ पड़ते, जिस की कोई वजह हमारे पास होती ही नहीं थी.

एक शाम मायके से मेरे भाई की सगाई का पत्र आया तो मैं खुशीखुशी अम्मा को सुनाने दौड़ी. पर मेरी प्रसन्नता पर कुठाराघात हो गया. वे गुस्से से बोलीं, ‘बसबस, हमारे घर में मायके की ज्यादा चर्चा करने का रिवाज नहीं है.’

मैं अवाक रह गई और पति के सामने रो पड़ी, ‘इस घर में ब्याह दी गई, इस का अर्थ यह तो नहीं कि मेरा मायका समाप्त ही हो गया.’

उस दिन पहली बार पति को मां पर क्रोध आया था. मेरे मन में अम्मा के लिए संजोया सम्मान धीरेधीरे समाप्त होने लगा. यह सत्य है, अम्मा ने जो कुछ अपनी ससुराल से पाया था, वही मुझे लौटा रही थीं, मगर क्या यह न्यायसंगत था?

तब इन्होंने अम्मा से कहा था, ‘तुम्हें इस तरह नहीं करना चाहिए, अम्मा. तुम बबूल का पेड़ बो कर आम के फल की उम्मीद कैसे कर सकती हो? बिना वजह सुधा का मन दुखाओगी तो घर में सुखशांति कैसे रहेगी? इज्जत चाहती हो तो इज्जत देना भी सीखो, उस की खुशी में भी तो हमें खुश होना चाहिए.’

‘अरे’, विस्फारित आंखें लिए अम्मा मुझे यों घूरने लगीं मानो पति ने मेरी वकालत कर किसी की हत्या जैसा अपराध कर दिया हो. वे तुनक कर बोलीं, ‘यह कल की आई तुझे इतनी प्यारी हो गई, जो मुझे समझाने चला है. जोरू का गुलाम.’

उसी पल से अम्मा मेरी प्रतिद्वंद्वी बन गईं. कभी रुपए चोरी हो जाने का इलजाम मुझ पर लगता और कभी यह आरोप लगता कि मैं अपनी ननदों की पूरी देखभाल नहीं करती. धीरेधीरे पति ने हस्तक्षेप करना छोड़ दिया. 20

वर्ष बीत जाने पर भी अम्मा मुझे स्वीकार नहीं कर पाईं. पति पर जोरू का गुलाम होने का ठप्पा आज भी लगा है. अम्मा और मैं नदी के 2 किनारों की तरह जीते हैं.

मैं हैरान थी कि मेरी ननदों के घर में अम्मा का पूरा दखल है, मगर मेरे मायके से किसी का आना उन्हें पसंद नहीं. अम्मा, जो स्वयं बूआ और अपनी सास के दुर्व्यवहार से आजीवन अपमानित होती रहीं, क्यों मेरे मन की पीड़ा समझ नहीं पाईं? मैं उन के बेटे की पत्नी हूं, उन की प्रतिद्वंद्वी नहीं.

बूआ तो चली गईं, मगर अपने पीछे कड़वाहट का गहरा धुआं छोड़

गई थीं. पति बुरी तरह झल्ला रहे थे, ‘‘पता नहीं प्रकृति ने स्त्री को ऐसा क्यों बनाया है? 10-10 पुरुष एकसाथ  रह लेते हैं, लेकिन 2 औरतें जब भी साथ रहेंगी, अधिकारों को ले कर लड़ेंगी, विशेषकर अपना बेटा, बहू के साथ बांटने में औरत को बड़ी तकलीफ होती है.’’

‘‘हर घर में तो ऐसा नहीं होता,’’ मैं ने उन्हें टोका.

‘‘हां, सच कहती हो. 10 प्रतिशत घर ऐसे होंगे, जहां सासबहू में तालमेल होता होगा, वरना 90 प्रतिशत तो ऐसे ही हैं, जिन में अमनचैन नहीं है. सास अच्छी है तो बहू नकचढ़ी और कहीं बहू सेवा करने वाली हो, तो सास मेरी मां और बूआ जैसी.

‘‘सत्य तो यह है कि झगड़ा होता ही नहीं, सिर्फ उसे पैदा किया जाता है. भई, सीधी सी बात है, बेटा काबू में रखना हो तो बहू को वश में करो, उस से प्रेम करो, वह वश में रहेगी तो बेटा भी पीछेपीछे खिंचा चला आएगा.’’

‘‘और पति को वश में रखना हो तो क्या बहू को सास को वश में रखना चाहिए, ताकि बेटा, बहू के वश में रहे?’’ मेरी इस बात पर पति हंस पड़े, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं है. बहू बाहर से आती है, उसे विश्वास में लेना ज्यादा जरूरी होता है. बेटा तो अपना ही होता है, उस से इतना प्यार बढ़ाने की भला क्या जरूरत होती है.

‘‘मजा तो तब है जब पराई को अपना बनाओ. मगर होता उलटा है. शादी कर के सास अकसर असुरक्षा से घिर जाती है, बेटे पर हाथ कसने लगती है और बस, यहीं से झगड़ा शुरू हो जाता है.’’

‘‘यह सब अपनी अम्मा से भी कहा है कभी?’’

‘‘नहीं कह पाया न, इसीलिए तुम्हें समझा रहा हूं. आने वाले कुछ वर्षों में तुम भी तो सास बनने वाली हो, कुछ समझीं?’’

मैं क्या कहती, सिर्फ हंस कर रह गई कि कौन जाने जब सास बनूंगी, तब मैं कैसी हो जाऊंगी. कहीं मैं भी अपनी बहू को वही न परोसने लगूं, जो मुझे मिलता रहा था.

Emotional Story : कैक्टस के फूल – सावित्री रघुबीर को क्यों डांटती थी

Emotional Story : इंसुलिन ही अब उन की जिंदगी की डोर थी. वैसे भी अब तो सावित्री के साथ जीने की लालसा ने इस कष्ट को सामान्य कर दिया था. उन की इस सिसकारी पर सावित्री ने कहा, ‘‘इतने सालों से इंजेक्शन ले रहे हो, पर सिसकारी भरना नहीं भूले. कोई छोटे बच्चे तो हो नहीं, जो इंजेक्शन लगते ही सिस्स…सिस्स… करने लगते हो.’’

‘‘सावित्री, तुम्हें मैं बड़ा लगता हूं?’’  रघुबीर ने हमेशा की तरह सावित्री से॒कहा.

अब उन के लिए तो सावित्री ही सर्वस्व थीं. एक मित्र, साथी और प्रेमी. हां प्रेमी भी. इसीलिए तो…जबजब सावित्री चश्मा चढ़ी अपनी आंखों को फैला कर इंजेक्शन भरने लगतीं, रघुबीर एकटक उन के चेहरे को ताकते रहते और जब वह इंजेक्शन लगातीं, रघुबीर सिसकारी जरूर भरते. सावित्री को पता था रघुबीर ऐसा जानबूझ कर करते हैं. फिर भी वह यह जरूर कहतीं, ‘‘सच में इंजेक्शन से बहुत दर्द होता है?’’

इस के बाद रघुबीर के ‘न’ के साथ शुरू हुआ संवाद सावित्री की जिंदगी की डोर था.

दसदस साल बीत गए थे रघुबीर और सावित्री को इस वृद्धाश्रम में आए. यहां पहला कदम रखने का दुख अब हृदय के किसी कोने में दब कर रह गया था. जब ये आए थे, तब दोनों के पैर साथ चलते थे और अब हृदय की धड़कन भी साथ चलने लगी थी. जैसे एक की थम जाएगी तो दूसरे की भी.

‘‘मैं भी बैठ जाऊं?’’ सावित्री ने पार्क में लगे झूले पर बैठे रघुबीर से पूछा. पर रघुबीर का ध्यान तो कहीं और था. वह सामने रखे गमले में लगे कैक्टस को एकटक ताक रहे थे.

‘‘मैं भी बैठ जाऊं यहां?’’ सावित्री ने दोबारा पूछा. इस बार भी कोई जवाब नहीं मिला तो सावित्री झूले पर बैठ गईं. थोड़ी देर झूले के साथ मौन भी झूलता रहा. उस ने अचानक पैरों को जमीन पर रख कर झूले को रोक कर पूछा, ‘‘आप केवल कैक्टस को ही क्यों देखते हैं?’’

‘‘मुझे लगता है इस जीवन में मैं ने कैक्टस ही बोए हैं, इसीलिए कैक्टस मुझे अच्छा लगता है. शायद इसी वजह से यहां हूं भी.’’ अचानक झूले के रुकने से रघुबीर जैसे नींद से जगे थे.

‘‘कैक्टस में भी फूल खिलते हैं. हो सकता है यह आश्रम भी तुम्हारे लिए कैक्टस बन जाए.’’ सावित्री ने आशावादी विचार व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘कभीकभी कैक्टस से भी संबंध की शुरुआत हो सकती है.’’

रघुबीर जब से इस आश्रम में आए थे, उन के चेहरे पर उदासी छाई रहती थी. आश्रम में रहने वालों से भी वह बहुत कम बातचीत करते थे. हमेशा अकेले ही बैठे रहते थे. एक दिन रात के 2 बजे सावित्री ने झूले पर बैठे देखा. शायद उस आश्रम में सावित्री ही एक ऐसी थीं, जिन से रघुबीर कभीकभार दोचार बातें कर लिया करते थे. सावित्री ने उन के पास जा कर पूछा, ‘‘इस समय यहां क्या कर रहे हो?’’

‘‘नींद नहीं आ रही थी, इसलिए यहां आ कर बैठ गया.’’ रघुबीर ने जवाब में कहा.

‘‘नींद क्यों नहीं आ रही?’’ सावित्री ने पूछा. शायद वह उन से बातें करना चाहती थीं.

‘‘हर चीज की वजह नहीं होती.’’

‘‘होती तो है. बस हम जानना नहीं चाहते.’’ सावित्री ने रात की हवा में मिली नमी जैसी आवाज में कहा, ‘‘आप अपने मन की बात कह दीजिए, इस से मन हलका हो जाएगा. बात सुन लेने के बाद शायद मैं वजह खोज सकूं.’’

‘‘मैं मेजर डिप्रेशन का रोगी नहीं था.’’ रघुबीर ने रात को खुले आकाश में फैले अनगिनत सितारों को ताकते हुए कहा.

‘‘तो..?’’ सावित्री ने छोटा सा सवाल किया. उन्होंने डिप्रेशन शब्द न सुना हो, ऐसा नहीं था. सावित्री अध्यापिका थीं. स्वभाव से आशावादी. हर परिस्थिति को मुसकराते हुए स्वीकार करती थीं. सावित्री के इस सवाल से रघुबीर उत्तेजित हो कर बोले, ‘‘तो क्या… तो यह कि इसी बीमारी की वजह से आज मैं यहां इस वीरान वृद्धाश्रम में हूं. मैं ने अपने पोते पर हाथ उठा दिया था और जानती हो क्यों?’’ कहते हुए रघुबीर का शरीर कांप रहा था. आंखें चौड़ी और लाल हो गई थीं. उन की आंखों में ठहरी बातें पाला तोड़ कर बह रही थीं.

‘‘केवल…उस से मेरे इंसुलिन की सीरिंज टूट गई थी. मैं…मैं अभी भी उस दृश्य को देख रहा हूं, क्योंकि वह दृश्य मेरी आंखों के सामने नाचता रहता है. वह दृश्य मेरा पीछा नहीं छोड़ता.

उसी की वजह से बेटे ने मुझे अस्पताल में भरती कराया और अस्पताल से सीधे इस वीरान आश्रम में छोड़ गया. मैं ने अपने पोते पर हाथ उठाया?’’ रघुबीर ने यह अंतिम वाक्य इस तरह कहा, जैसे खुद से ही सवाल कर रहे हों. इतना कहतेकहते उन की सांस फूलने लगी थी.

उन्होंने एक लंबी सांस ले कर आगे कहा, ‘‘वह मेरा कितना खयाल रखता था, मेरे साथ कितना खुश रहता था. अपनी दादी के जाने के बाद वही एक सहारा था मेरा. मेरी लाठी था.

आप को पता है, वह रोजाना मेरे साथ मंदिर जाता था. मेरे पास बैठ कर होमवर्क करता था. कोई भी बात होती ‘दादाजी… दादाजी’ कह कर पहले मुझे बताता और मैं ने? मैं ने यह क्या किया? उस की दादी का खालीपन मुझे खा गया. अकेलापन मुझ से सहन नहीं हुआ.’’

इतना कह कर रघुबीर रोने लगे. सावित्री ने भी उन्हें रोने दिया. उन्हें तब तक देखती और उन की बातें सुनती रहीं, जब तक रघुबीर के मन की भड़ास न निकल गई. किसी को इस तरह सुनना भी एक कला है. यह कला सब के पास नहीं होती.

उस रात के बाद सावित्री रघुबीर का खयाल ही नहीं रखने लगीं, बल्कि हर तरह से उन की देखभाल भी करने लगीं. वह उन की देखभाल में कोई कसर नहीं रखती थीं. रोजाना याद कर के उन की दवाएं देना, इंसुलिन का इंजेक्शन लगाना, सब वही करतीं. दोनों साथ बैठ कर भगवदगीता का पाठ करते, उस का अर्थ समझने के लिए दोनों साथसाथ लंबे समय तक पार्क में टहलते हुए चर्चा करते.

कभीकभी बातों में विरोधाभास होता तो ‘तुम ही सच्चे हो, मैं गलत हूं.’ पर बात खत्म हो जाती. इस तरह दोनों में रसीला झगड़ा भी होता. इस तरह सालों बाद रघुबीर के लिए अब यह वीरान आश्रम रंगबिरंगा, फूलों से हराभरा लगने लगा था.

एक दिन सावित्री का बेटा उन से मिलने आया. उस ने मां से घर चलने को कहा, पर वह घर जाने को राजी नहीं हुईं. उस समय रघुबीर को पता चला कि सावित्री स्वेच्छा से आश्रम में रहने आई थीं. वह तो अपने गांव में ही रहना चाहती थीं, पर उन का बेटा गांव का सब कुछ बेच कर शहर में रहना चाहता था. सावित्री सादगी से जीने की आदी थीं, इसलिए उन्होंने बेटे से कहा था, ‘‘मैं वृद्धाश्रम में रहूंगी.’’

बेटे और बहू ने बहुत समझाया कि समाज में उन की बड़ी बदनामी होगी, पर वह नहीं मानीं और वृद्धाश्रम में रहने आ गई थीं. एकांत उन की प्रवृत्ति थी. वह रहती भी एकांत में ही थीं.

पर सावित्री और रघुबीर को कहां पता था कि वृद्धाश्रम में आने के बाद उन्हें एक साथी मिल जाएगा, जिस से निरंतर बातें की जा सकेंगी, नाराज भी हुआ जा सकेगा और मनाया भी जा सकेगा. इतने सालों से साथ रहतेरहते उन के बीच सात्विक प्रेम का सेतु बंध गया था. दोनों एक बार फिर युवा हो गए थे. उन में फिर से प्रेम हो गया था और जिंदगी एक बार फिर से प्रेममय हो गई थी. प्रेम तो कभी भी कितनी भी बार हो सकता है. पर प्रेम व्यक्ति से नहीं, उस के व्यक्तित्व से होता है.

रघुबीर कभी फूल तोड़ कर सावित्री को देते तो कभी कोई माला बना कर जूड़े में लगाते थे. यह सब करने में वह जरा भी नहीं शरमाते थे. उसी तरह सावित्री भी प्रेमभाव से यह सब स्वीकार करतीं. ऐसा करते हुए वे सहज हंस भी देते. इतना ही नहीं, अब दोनों एक ही थाली में साथसाथ खाना खाने लगे थे. ऐसे में एकदूसरे को खिला भी देते. बस, एक ही कौर में पेट भर जाता.

उन दोनों के प्रेम को देख कर वृद्धाश्रम के लोग तरहतरह की बातें करने लगे थे. पर उन की बातों पर न सावित्री ध्यान दे रही थीं और न रघुबीर. दोनों खुद में ही मस्त थे. लोग कहते, ‘इस उम्र में इन्हें यह सब करते शर्म भी नहीं आती. जिस उम्र में भगवान का नाम लेना चाहिए, इन्हें देखो, ये प्रेम गीत गा रहे हैं.’

शायद उन लोगों को सावित्री और रघुबीर जो कर रहे थे, उस बात पर गुस्सा नहीं था, उन्हें उन दोनों का साथ रहना खल रहा था. उन्हें इस बात तक की ईर्ष्या थी कि उन के साथ ऐसा क्यों नहीं है.

इसी ईर्ष्या की वजह से एक बार सावित्री और रघुबीर की जिंदगी में कैक्टस उग आया था. उन लोगों ने संचालक से शिकायत की कि इस उम्र में ये दोनों यह क्या तमाशा कर रहे हैं? एक वृद्ध ने तो कहा कि अगर किसी ने इन दोनों को एक साथ देख लिया तो आश्रम को लोग जो चंदा देते हैं, देना बंद कर देंगे.

इन्हीं लोगों की बातों में आ कर संचालक ने रघुबीर और सावित्री को फोन कर के सारी बात बताई. रघुबीर के घर से तो कोई जवाब नहीं आया, कहा गया कि आप को उन के बारे में जो निर्णय लेना हो, लीजिए.

हम लोगों से कोई मतलब नहीं है. जबकि सावित्री का बेटा तो उन्हें घर ले जाना चाहता था. पर इस बार भी उन्होंने मना कर दिया. तब बेटे ने कहा, ‘‘मुझे पता नहीं था कि मम्मी इसलिए अकेली रहना चाहती थीं.’’

अंत में निर्णय लिया गया कि किसी भी तरह रघुबीर और सावित्री को आश्रम से बाहर करना है. और किया भी वही गया. निर्णय सुन कर दोनों में से किसी ने भी कारण नहीं पूछा. उन्होंने तो तय कर लिया था, कुछ भी हो, दोनों साथ रहेंगे.

आर्थिक रूप से वे सुदृढ़ थे ही, केवल शरीर से ही कमजोर थे. लेकिन दोनों के मन मजबूत थे, इसलिए तन की चिंता नहीं थी. वे खुश थे, दोनों एकदूसरे की सांस थे.

सावित्री ने आश्रम के गेट से निकलते हुए कहा, ‘‘आगे का रास्ता अब शायद कैक्टस के फूल की तरह होगा.’’

सावित्री और रघुबीर एकदूसरे का हाथ थामे आगे बढ़ते गए, बिना किसी परवाह के अनंत प्रेम की यात्रा पर…

Best Hindi Story : जाल – संजीव अनिता से शादी के लिए क्यों मना कर रहा था

Best Hindi Story : बरखा खूबसूरत भी थी और खुशमिजाज भी. पहले ही दिन से उस ने अपने हर सहयोगी के दिल में जगह बना ली. सब से पक्की सहेली वह अनिता की बनी क्योंकि हर कदम पर अनिता ने उस की सहायता की थी. जब भी फालतू वक्त मिलता  दोनों हंसहंस कर खूब बातें करतीं.

उन दिनों अनिता का प्रेमी संजीव 15 दिनों की छुट्टी पर चल रहा था. इन दोनों की दोस्ती की जड़ों को मजबूत होने के लिए इतना समय पर्याप्त रहा.

संजीव के लौटने पर अनिता ने सब से पहले उस का परिचय बरखा से कराया.

‘‘क्या शानदार व्यक्तित्व है तुम्हारा, संजीव,’’ बरखा ने बड़ी गर्मजोशी के साथ जब संजीव से हाथ मिलाया तब ये तीनों अपने सारे सहयोगियों की नजरों का केंद्र बने हुए थे.

‘‘थैंक यू,’’ अपनी प्रशंसा सुन संजीव खुल कर मुसकराया.

‘‘अनिता, इतने स्मार्ट इंसान को जल्दी से जल्दी शादी के बंधन में बांध ले, नहीं तो कोई और छीन कर ले जाएगी,’’ बरखा ने अपनी सहेली को सलाह दी.

‘‘सहेली, तेरे इरादे तो नेक हैं न?’’ नाटकीय अंदाज में आंखें मटकाते हुए अनिता ने सवाल पूछा, तो कई लोगों के सम्मिलित ठहाके से हौल गूंज उठा.

पहले संजीव और अनिता साथसाथ अधिकतर वक्त गुजारते थे. अब बरखा भी इन के साथ नजर आती. इस कारण उन के  सहयोगियों को बातें बनाने का मौका मिल गया.

‘‘ये बरखा बड़ी तेज और चालू लगती है मुझे तो,’’ शिल्पा ने अंजु से अपने मन की बात कह दी थी, ‘‘वह अनिता से ज्यादा सुंदर और आकर्षक भी है. मेरी समझ से भूसे और

चिंनगारी को पासपास रखना अनिता की बहुत बड़ी मूर्खता है.’’

‘मेरा अंदाजा तो यह है कि संजीव को अनिता ने खो ही दिया है. उस का झुकाव बरखा की तरफ ज्यादा हो गया है, यह बात मुझे तो साफ नजर आती है, ’’ अंजु ने फौरन शिल्पा की हां में हां मिलाते हुए बोली.

अनिता से इस विषय पर गंभीरता से बात सुमित्राजी ने एक दिन अकेले में की. तब बरखा और संजीव कैंटीन से समोसे लाने गए हुए थे.

‘‘तुम संजीव से शादी कब कर रही हो?’’ बिना वक्त बरबाद किए सुमित्रा ने मतलब की बात शुरू की.

‘‘आप को तो पता है कि संजीव पहले एम.बी.ए. पूरा करना चाहता है और उस में अभी साल भर बाकी है,’’ अनिता ने अपनी बात पूरी कर के गहरी सांस छोड़ी.

‘‘यही कारण बता कर 2 साल से तुझे लटकाए हुए है. मैं पूछती हूं कि वह शादी कर के क्या आगे नहीं पढ़ सकता है?’’

‘‘मैडम जब मैं ने 2 साल इंतजार कर लिया है तो 1 साल और सही.’’

‘‘बच्चों जैसी बातें मत कर,’’ सुमित्रा तैश में आ गईं, ‘‘मैं ने दुनिया देखी है. संजीव के रंगढंग ठीक नहीं लग रहे हैं मुझे. उसे बरखा के साथ ज्यादा मत रहने दिया कर.’’

‘‘मैडम, आप इस के बारे में चिंतित न हों. मुझे संजीव और बरखा दोनों पर विश्वास है.’’

‘यों आंखें मूंद कर विश्वास करने वाला इंसान ही जिंदगी में धोखा खाता है, मेरी बच्ची.’’

‘उन के आपस में खुल कर हंसनेबोलने का गलत अर्थ लगाना उचित नहीं है, मैडम. बरखा तो अपने को संजीव की साली मानती है. अपने भावी जीवनसाथी या छोटी बहन पर शक करने को मेरा मन कभी राजी नहीं होगा.’’

‘‘देख, साली को आधी घर वाली दुनिया कहती ही है. तुम ध्यान रखो कि कहीं बरखा तुम्हारा पत्ता साफ कर के पूरी घर वाली ही न बन जाए,’’ अनिता को यों आगाह कर के सुमित्रा खामोश हो गईं, क्योंकि संजीव और बरखा कैंटीन से लौट आए थे.

संजीव और बरखा के निरंतर प्रगाढ़ होते जा रहे संबंध को ले कर कभी किसी ने अनिता को चिंतित, दुखी या नाराज नहीं देखा. उस के हर सहयोगी ने हंसीमजाक, व्यंग्य या गंभीरता का सहारा ले कर उसे समझाया, पर कोई भी अनिता के मन में शक का बीज नहीं बो पाया. जो सारे औफिस वालों को नजर आ रहा था, उसे सिर्फ अनिता ही नहीं देख पा रही थी.

पहले पिक्चर देखने, बाजार घूमने या बाहर खाना खाने तीनों साथ जाते थे. फिर एक दिन बरखा और संजीव को मार्केट में घूमते शिल्पा ने देखा. उस ने यह खबर अनिता सहित सब तक फैला दी.

खबर सुनने के बाद अनिता के हावभाव ने यह साफ दर्शाया कि उसे दोनों के साथसाथ घूमने जाने की कोई जानकारी नहीं थी. उस ने सब के सामने ही संजीव और बरखा से ऊंची आवाज में पूछा, ‘‘कल तुम दोनों मुझे छोड़ कर बाजार घूमने क्यों गए?’’

‘‘तेरा बर्थडे गिफ्ट लाने के लिए, सहेली,’’ बरखा ने बड़ी सहजता से जवाब दिया, ‘‘अब ये बता कि हम सब को परसों इतवार को पार्टी कहां देगी?’’

बरखा का जवाब सुन कर अनिता ने अपने सहयोगियों की तरफ यों शांत भाव से मुसकराते हुए देखा मानो कह रही हो कि तुम सब बेकार का शक करने की गलत आदत छोड़ दो.

अनिता तो फिर सहज हो कर हंसनेबोलने लगी, पर बाकी सब की नजरों में बरखा की छवि बेहद चालाक युवती की हो गई और संजीव की नीयत पर सब और ज्यादा शक करने लगे.

बरखा ने अनिता के जन्मदिन की पार्टी का आयोजन अपने घर में किया.

‘‘आप सब को मैं अपने घर लंच पर बुलाना चाहती ही थी. मेरे मम्मीपापा सब से मिलना चाहते हैं. अनिता के जन्मदिन की पार्टी मेरे घर होने से एक पंथ दो काज हो जाएंगे,’’ ऐसा कह कर बरखा ने सभी सहयोगियों को अपने घर बुला लिया.

बरखा के पिता के बंगले में कदम रखते ही उस के सहयोगियों को उन की अमीरी का एहसास हो गया. बंगले की शानोशौकत देखते ही बनती थी.

बड़े से ड्राइंगहौल में पार्टी का आयोजन हुआ. वहां कालीन हटा कर डांसफ्लोर बनाय गया था. खानेपीने की चीजें जरूरत से ज्यादा थीं. घर के 2 नौकर सब की आवभगत में जुटे हुए थे.

पार्टी के बढि़या आयोजन से अनिता बेहद प्रसन्न नजर आ रही थी. बरखा और उस के मातापिता को धन्यवाद देते उस की जबान थकी नहीं.

‘‘ये मेरे जन्मदिन पर अब तक हुई 24 पार्टियों में बैस्ट है,’’ कहते हुए अनिता को जब भी मौका मिलता वह भावविभोर हो बरखा के गले लग जाती.

इस अवसर पर उन के सहयोगियों की पैनी दृष्टियों ने बहुत सी चटपटी बातें नोट की थीं. यह भी साफ था कि जो ऐसी बातें नोट कर रहे थे. वह सब अनिता की नजरों से छिपा था.

बंगले का ठाठबाट देख कर संजीव की नजरों में उभरे लालच के भाव सब ने साफ पढ़े. बरखा के मातापिता के साथ संजीव का खूब घुलमिल कर बातें करना उन्होंने बारबार देखा.

अनिता से कहीं ज्यादा संजीव बरखा को महत्त्व दे रहा था. वह उसी के साथ सब से ज्यादा नाचा. किसी के कहने का फिक्र न कर वह बरखा के आगेपीछे घूम रहा था.

अनिता से उस दिन किसी ने कुछ नहीं कहा, क्योंकि कोई भी उस की खुशी को नष्ट करने का कारण नहीं बनना चाहता था.

वैसे उस दिन के बाद से किसी को अनिता को समझाने या आगाह करने की जरूरत नहीं पड़ी. संजीव ने सब तरह की लाजशर्म त्याग कर बरखा को खुलेआम फ्लर्ट करना शुरू कर दिया.

बेचारी अनिता ही जबरदस्ती उन दोनों के साथ चिपकी रहती. उस की मुसकराहट सब को नकली प्रतीत होती. वह सब की हमदर्दी की पात्र बनती जा रही थी, लेकिन अब भी क्या मजाल कि उस के मुंह से संजीव या बरखा की शिकायत में एक शब्द भी निकल आए.

‘‘तुम सब का अंदाज बिलकुल गलत है. संजीव मुझे कभी धोखा नहीं देगा, देख लेना,’’ उस के मुंह से ऐसी बात सुन कर लगभग हर व्यक्ति उस की बुद्धि पर खूब तरस खाता.

जन्मदिन की पार्टी के महीने भर बाद स्थिति इतनी बदल गई कि संजीव को बरखा के रूपजाल का पक्का शिकार हुआ समझ लिया गया. अनिता की उपस्थिति की फिक्र किए बिना संजीव खूब खुल कर बरखा से हंसताबोलता. ऐसा लगता था कि उस ने अनिता से झगड़ा कर के संबंधविच्छेद करने का मन बना लिया था.

लेकिन सब की अटकलें धरी की धरी रह गई जब अचानक ही बड़े सादे समारोह में संजीव ने अनिता से शादी कर ली. बरखा उन की शादी में शामिल नहीं हुई. वह अपनी मौसी की बेटी की शादी में शामिल होने के लिए 20 दिन की छुट्टी ले कर मुंबई गई हुई थी.

यों जल्दीबाजी में संजीव का अनिता से शादी करने का राज किसी की समझ में नहीं आया.

लोगों के सीधा सवाल पूछने पर संजीव मुसकान होंठों पर ला कर कहता, ‘‘बरखा से हंसनेबोलने का मतलब यह कतई नहीं था कि मैं अनिता को धोखा दूंगा. आप सब ऐसा सोच भी कैसे सके? अरे, अनिता में तो मेरी जान बसती है और अब मैं उस से दूर रहना नहीं चाहता था.’’

अनिता की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस से कोई बरखा के साथ संजीव का जिक्र करता तो वह खूब हंसती.

‘‘अरे, तुम सब बेकार की चिंता करते थे. देखो, न तो मेरी छोटी बहन जैसी सहेली ने और न ही मेरे मंगेतर ने मुझे धोखा दिया. मुझे अपने प्यार पर पूरा विश्वास था, है और रहेगा.’’

उसे शुभकामनाएं देते हुए लोग बड़ी कठिनाई से ही अपनी हैरानी को काबू में रख पाते. संजीव और बरखा का चक्कर क्यों अचानक समाप्त हो गया, इस का कोई सही अंदाजा भी नहीं लगा पा रहा था.

दोनों सप्ताह भर का हनीमून शिमला में मना कर लौटे. बरखा ने फोन कर के अनिता को बता दिया कि वह शाम को दोनों से मिलने आ रही है.

उस के आने की खबर सुन कर संजीव अचानक विचलित नजर आने लगा. अनिता की नजरों से उस की बेचैनी छिपी नहीं रही.

‘‘किस वजह से टैंशन में नजर आ रहे हो, संजीव?’’ कुछ देर बाद हाथ पकड़ कर जबरदस्ती अपने सामने बैठाते हुए अनिता ने संजीव से सवाल पूछ ही लिया.

बहुत ज्यादा झिझकते हुए संजीव ने उस से अपने मन की परेशानी बयान की.

‘‘देखो, तुम बरखा की किसी बात पर विश्वास मत करना… वह तुम्हें उलटीसीधी बातें बता कर मेरे खिलाफ भड़काने की कोशिश कर सकती है,’’ बोलते हुए संजीव बड़ा बेचैन नजर आ रहा था.

‘‘वह ऐसा काम क्यों करेगी, संजीव? मुझे पूरी बात बताओ न.’’

‘‘वह बड़ी चालू लड़की है, अनिता. तुम उस के कहे पर जरा भी विश्वास मत करना.’’

‘‘पर वह ऐसा क्या कहेगी जिस के कारण तुम इतने परेशान नजर आ रहे हो?’’

‘‘उस दिन उस ने पहले मुझे उकसाया… मेरी भावनाओं को भड़काया और फिर… और फिर…’’ आंतरिक द्वंद्व के चलते संजीव आगे नहीं बोल सका.

‘‘किस दिन की बात कर रहे हो? क्या उस दिन की जब तुम उसे घर छोड़ने गए थे क्योंकि उसे स्टेशन जाना था?’’

‘‘हां.’’

‘‘जब तुम उस के घर पहुंचे, तब उस के मम्मीपापा घर में नहीं थे. तब अपने कमरे में ले जा कर उस ने पहले तुम्हारी भावनाओं को भड़काया और जब तुम ने उसे बांहों में भरना चाहा, तो नाराज हो कर तुम्हें उस ने खूब डांटा, यही बताना चाह रहे हो न तुम मुझे?’’ उस के चेहरे को निहारते हुए अनिता रहस्यमयी अंदाज में हौले से मुसकरा रही थी.

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि वह फोन कर के पहले ही तुम्हें मेरे खिलाफ भड़का चुकी है,’’ गुस्सा दर्शाने का प्रयास कर रहे संजीव का चेहरा पीला भी पड़ गया था.

‘‘मेरे प्यारे पतिदेव, न उस ने मुझे भड़काने की कोशिश की है और न ही मुझे आप से कोई नाराजगी या शिकायत है. सच तो यह है कि मैं बरखा की आभारी हूं,’’ अनिता की मुसकराहट और गहरी हो गई.

‘‘ये क्या कह रही हो?’’ संजीव हैरान हो उठा.

‘‘देखिए, बरखा ने अगर आप के गलत व्यवहार की सारी जानकारी मुझे देने की धमकी न दी होती… और इस कारण आप के मन में मुझे हमेशा के लिए खो देने का भय न उपजा होता, तो क्या यों झटपट मुझ से शादी करते?’’ यह सवाल पूछने के बाद अनिता खिलखिला कर हंसी तो संजीव अजीब सी उलझन का शिकार बन गया.

‘‘मैं ने कभी तुम से शादी करने से इनकार नहीं किया था,’’ संजीव ने ऊंची आवाज में सफाई सी दी.

‘‘मुझे आप के ऊपर पूरा विश्वास है और सदा रहेगा,’’ अनिता ने आगे झुक संजीव के गाल पर प्यार भरा चुंबन अंकित कर दिया.

‘‘मुझ से तुम्हें भविष्य में कभी वैसी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा, अनिता,’’ संजीव ने उस से फौरन वादा किया.

‘‘उस तरफ से मैं बेफिक्र हूं क्योंकि किसी तितली ने कभी तुम्हारे नजदीक आने की कोशिश की तो मैं उस का चेहरा बिगाड़ दूंगी,’’ अचानक ही अनिता की आंखों में उभरे कठोरता के भाव संजीव ने साफ पहचाने और इस कारण उस ने अपने बदन में अजीब सी झुरझुरी महसूस की.

‘‘क्या बरखा से संबंध समाप्त कर लेना हमारे लिए अच्छा नहीं रहेगा?’’ उस ने दबे स्वर में पूछा.

‘‘वैसा करने की क्या जरूरत है हमें, जनाब?’’ अनिता उस की आंखों में आंखें डाल कर शरारती ढंग से मुकराई, ‘‘मुझे आप और अपनी छोटी बहन सी प्यारी सहेली दोनों पर पूरा विश्वास है. फिर उसे धन्यवाद देने का यह तो बड़ा गलत तरीका होगा कि मैं उस से दूर हो जाऊं.’’

संजीव ने लापरवाही से कंधे उचकाए पर उस का मन बेचैन व परेशान बना ही रहा. बाद में बरखा उन के घर आई तो वह संजीव के लिए सुंदर सी कमीज व अनिता के लिए खूबसूरत बैग उपहार में लाई थी. वह संजीव के साथ बड़ी प्रसन्नता से मिली. कोई कह नहीं सकता था कि कुछ हफ्ते पहले दोनों के बीच बड़ी जोर से झगड़ा हुआ था.

अनिता और बरखा पक्की, विश्वसनीय सहेलियों की तरह मिलीं. जरा सा भी खिंचाव दोनों के व्यवहार में संजीव पकड़ नहीं पाया.

जल्दी ही वह भी उन के साथ सहजता से हंसनेबोलने लगा. वैसे वह उन की मानसिकता को समझ नहीं पा रहा था क्योंकि उस के हिसाब से उन दोनों को उस से गहरी नाराजगी व शिकायत होनी चाहिए थी.

‘जो कुछ उस दिन बरखा के घर में घटा, वह कहीं इन दोनों की मिलीभगत से फैलाया ऐसा जाल तो नहीं था जिस में फंस कर उसे अनिता से फटाफट शादी करनी पड़ी?’ अचानक ही यह सवाल उस के मन में बारबार उठने लगा और उस का दिल कह रहा था कि जवाब ‘ऐसा ही हुआ है’ होना चाहिए.

लेखिका : गोपिका चाचरा

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