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वेडिंग जूलरी हो ऐसी जो खूबसूरती के साथ कौन्फिडेंस भी बढ़ाएं

क्या आप भी दुल्हन बनने जा रही हैं. इस दिन के लिए आपने भी खूब सपने संजोए होंगे. मन ही मन आप सोच रही होंगी कि इस दिन कैसे आउटफिट्स पहनूं, कैसा मेकअप हो, कैसे फुटवियर हो, कैसी जूलरी हो, ताकि अपने सजना की नज़रों में हमेशा के लिए बस जाऊं.

महफिल में शामिल लोग बस मुझ पर ही नज़रें टिकाए रखें और बस हर किसी की जुबान से यही लफ्ज निकले कि इस दुल्हन को देख मानो ऐसा लग रहा है कि जैसे आसमान से कोई परी धरती पर उतर आई हो. आखिर ये दिन जीवन में एक बार जो आता है.

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इसलिए इतने खास दिन को और खास बनाना तो बनता ही है तभी तो दुल्हन की इस खास दिन की खास एंट्री में है मालाबार गोल्ड एंड डायमंड का साथ. क्योंकि मालाबार गोल्ड एंड डायमंड प्रोडक्ट रेंज के तहत हम बनाते हैं ऐसी शानदार जूलरी, जिसे पहनकर दुल्हन न सिर्फ खूबसूरत लगती है बल्कि इस यूनिक जूलरी को पहनकर उसका कोन्फिडेन्स भी इस कदर बढ़ जाता है कि वो पूरे आत्मविश्वास के साथ इस दिन अपनी हर रस्म को पूरा करती है. तो फिर दिल थाम कर बैठ जाएं इस नए जमाने की खूबसूरत और कॉन्फिडेंट दुल्हन को देखने के लिए. मालाबार गोल्ड एंड डायमंड के साथ…

Family Story in Hindi – छलना

Family Story in Hindi – छलना- भाग 2 : क्या थी माला की असलियत?

लेखिका- नलिनी शर्मा

धीरेधीरे 6 माह गुजर गए. इस खूबसूरत जोड़े की असलियत जगजाहिर हो चुकी थी, इसलिए सब से कर्ज मिलना बंद हो गया था. अब मकानमालिक भी इन्हें रोज आ कर धमकाने लगा था. 6 माह से उस का किराया जो बाकी था. एक दिन क्रोधित हो कर मकानमालिक ने माला के घर का सामान सड़क पर फेंक दिया और कोर्ट में घसीटने की धमकी देने लगा. पड़ोसियों के बीचबचाव से वह बड़ी मुश्किल से शांत हुआ.

रोज की अशांति और फसाद से शलभ त्रस्त हो गया. उस का मेरठ से और नौकरी से मन उचाट हो गया. न तो वह मेरठ में रहना चाहता था, न ही दिल्ली वापस जाना चाहता था. इन 2 शहरों को छोड़ कर उस की कंपनी की किस अन्य शहर में कोई शाखा नहीं थी. आखिर नौकरी बदलने की इच्छा से शलभ ने मुंबई की एक फर्म में आवेदनपत्र भेज दिया.

एक शाम शलभ दफ्तर से अपने घर लौटा तो अपने गेट के बाहर पुलिया पर अकेली माला को उदास बैठा पाया. रमा अपनी परिचित के यहां लेडीज संगीत में गई हुई थी. देर रात तक चलने वाले कार्यक्रम के कारण वह शीघ्र लौटने वाली नहीं थी. पूछने पर माला ने बताया कि 6 माह से किराया नहीं देने के कारण मकानमालिक ने उस की व महेश की अनुपस्थिति में मकान पर अपना ताला लगा दिया है. महेश उसे यहां बैठा कर मकानमालिक को मनाने गया था.

शुलभ कुछ देर तो दुविधा की स्थिति में खड़ा रहा फिर उस ने माला को अपने घर के अंदर बैठने के लिए कहा. घर के अंदर आते ही माला शलभ के गले लग कर बिलखने लगी. हालांकि शलभ बुरी तरह चिढ़ा हुआ था मालामहेश की हरकतों से पर खूबसूरत माला को रोती देख उस का हृदय पसीज उठा.

माला का गदराया यौवन और आंसू से भीगा अद्वितीय रूप शलभ को पिघलाने लगा. माला के बदन के मादक स्पर्श से शलभ के तनबदन में अद्भुत उत्तेजना की लहर दौड़ गई. माला के बदन की महक व उस के नर्म खूबसूरत केशों की खुशबू उसे रोमांचित करने लगी.

शलभ के कान लाल हो गए, आंखों में गुलाबी चाहत उतर आई और हृदय धौंकनी के समान धड़कने लगा. तीव्र उत्तेजना की झुरझुरी ने उस के बदन को कंपकंपा दिया. पल भर में वह माला के रूप लावण्य के वशीभूत हो चुका था.

अपने को संयमित कर के शलभ ने माला को अपने सीने से अलग किया और धीरे से सोफे पर अपने सामने बैठा कर सांत्वना दी, ‘‘शांत हो जाओ. सब ठीक हो जाएगा…’’

माला ने अश्रुपूरित आंखों से शलभ की आंखों में झांकते हुए पूछा, ‘‘पैसा नहीं है हमारे पास… कैसे ठीक होगा ’’

‘‘मैं कुछ करता हूं…’’ अस्फुट भर्राया सा स्वर निकला शलभ के गले से.

‘‘आता हूं मैं बस अभी, तब तक तुम यहीं बैठो…’’ कह कर शलभ ने एटीएम कार्ड उठाया और गाड़ी से निकल पड़ा.

लौट कर शलभ ने माला के हाथ में 6 माह के किराए के 9 हजार जैसे ही थमाए उस ने खुशी से किलकारी मारी. शलभ सोफे पर बैठ कर जूते उतारने लगा तो वह अपने स्थान से उठी, खूबसूरत अदा से अपना पल्लू नीचे ढलका दिया और शलभ के एकदम करीब जा कर उस के कान में मादक स्वर में फुसफुसाई, ‘‘थैंक्यू जीजू, थैंक्यू.’’

माला के उघड़े वक्षस्थल की संगमरमरी गोलाइयों पर नजर पड़ते ही शलभ का चेहरा तमतमा गया और उस के मुख से कोई आवाज नहीं निकली. वह मुग्ध हो उसे देखने लगा. घर में माला महेश के विरुद्ध शलभ के स्वर एकाएक बंद हो गए. पति के रुख में अचानक बदलाव पा कर रमा को आश्चर्य तो हुआ पर वास्तविकता से अनभिज्ञ उस ने राहत की सांस ली. रोजरोज की तकरार से उसे मुक्ति जो मिल गई थी. नहीं चाहते हुए भी शलभ ने पत्नी से माला को 9 हजार रुपए देने की बात गुप्त रखी.

माला को भी इस बात का एहसास हो गया था कि उसे देख कर सदैव भृकुटि तानने वाला शलभ उस के रूप के चुंबकीय आकर्षण में बंध कर मेमना बन गया था. वह उसे अपने मोहपाश में बांधे रखने के लिए उस पर और अधिक डोरे डालने लगी. जब भी रमा किसी काम से बाहर जाती, सहजसरल भाव से वह माला के  ऊपर घर की देखरेख का जिम्मा सौंप देती. इस का भरपूर फायदा उठाती माला.

उस के दोनों हाथों में लड्डू थे. रमा के सामने आंसू बहा कर माला पैसे मांग लेती और शलभ उस पर आसक्त हो कर अब स्वयं ही धन लुटा रहा था. अपने सहज, सरल स्वभाव वाले निष्कपट अनुरागी पति को अपने प्रति दिनप्रतिदिन उदासीन व ऊष्मारहित  होते देख कर रमा का माथा ठनका पर बहुत सोचनेविचारने के बाद भी वह सत्य का पता नहीं लगा पाई.

माला केवल पैसे ऐंठने के लिए शलभ पर डोरे डाल रही थी. उस की तनिक भी रुचि नहीं थी शलभ में. पर एक दिन शलभ अपना संयम खो बैठा और माला के सामने प्रणय निवेदन करने लगा. पहले तो माला घबरा गई फिर उसे विचित्र नजरों से घूरने लगी फिर बोली, ‘‘जीजू फौरन 10 हजार रुपयों का इंतजाम करो, नहीं तो मैं आप का कच्चाचिट्ठा रमा दीदी के सामने खोलती हूं…’’

मरता क्या न करता. रुपए पा का माला प्रसन्न हुई. फिर उस का लोभ बढ़ता गया. उस ने रमा पर भी अपना भावनात्मक दबाव बढ़ा दिया. शीघ्र ही रमा के घर में आर्थिक तंगी शुरू हो गई. त्रस्त हो कर रमा ने अनुभा मौसी को वस्तुस्थिति से अवगत कराते हुए शीघ्र ही रुपए भेजने को कहा तो उन्होंने तमक कर उत्तर दिया, ‘‘छोटी बहन मानती हो न उसे. थोड़ी सी सहायता कर दी तो मुझ से पैसे मांगने लगीं तुम.’’

रमा ने फिर सारी बात मां को बताई तो मां ने भी उसे जम कर खरीखोटी सुना दी, ‘‘मुझ से पहले सलाह क्यों नहीं ली  पैसे लुटाने के बाद अब उस का रोना क्यों रो रही हो  अनुभा और उस के परिवार के काले कारनामों से त्रस्त हो कर हम ने सदा के लिए उन्हें त्याग दिया है.’’

रमा के दिलोदिमाग से मायके के रिश्तेदारों का नशा काफूर हो चुका था. उधर शलभ का मन माला की ओर से उचट हो गया था. लेकिन वे न तो पत्नी को सत्य बताने की हिम्मत जुटा पाए थे, न ही माला की रोज बढ़ती मांगों को पूरा कर पा रहे थे. उन की स्थिति चक्की के दो पाटों में फंसे अनाज जैसी थी. जिस की यंत्रणा वे भोग रहे थे. उन की नींद व चैन छिन गए थे. उन के द्वारा मुंबई की एक फर्म में भेजे गए आवेदनपत्र का अभी तक कोई जवाब भी नहीं आया था.

धीरेधीरे माला ने पुन: कौलसैंटर में कार्य करना शुरू कर दिया. महेश ने एक सिविल ठेकेदार के जूनियर सुपरवाइजर के रूप में काम पकड़ लिया. पर आय कम थी, उन के खर्चे अधिक. धीरेधीरे दोनों की जीवन की गाड़ी पटरी पर आने लगी.

तभी अचानक एक दिन माला कौलसैंटर से अचानक गायब हो गई. काम पर गई तो अपने घर नहीं लौटी. पुलिस ने चप्पाचप्पा छान मारा पर वह कहीं नहीं मिली. पता चला कि वह उस दिन कौलसैंटर पहुंची ही नहीं थी. बदहवास महेश इधरउधर मारामारा फिरता रहा. फिर कुछ दिनों बाद वह भी कहीं चला गया. लोगों ने अंदाजा लगाया कि वह अपने मातापिता के पास लौट गया होगा. पड़ोस के घर में सन्नाटा पसर गया. इस दंपती का क्या हश्र हुआ होगा, इस के बारे में लोग तरहतरह की अटकलें लगाने लगे. सब को अपना पैसा डूबने का दुख तो था ही, इस खूबसूरत युवा जोड़े का चले जाना भी कम दुखद नहीं था सब के लिए.

तभी अनुभा मौसी ने शलभ और रमा पर इलजाम मढ़ दिया कि इन्हीं दोनों की मिलीभगत ने मेरी बेटी और दामाद को गायब कर दिया है. बड़ी मुश्किल से जानपहचान वालों के हस्तक्षेप से ये दोनों पुलिस के चंगुल में आने से बचे.

अचानक एक दिन मुंबई की फर्म से इंटरव्यू के लिए शलभ को बुलावा आ गया. बच्चों की छुट्टियां थी. इंटरव्यू के साथ घूमना भी हो जाएगा, इस उद्देश्य से शलभ ने रमा और दोनों बच्चों को भी अपने साथ ले लिया.

पहले दिन इंटरव्यू संपन्न होने के बाद अगले दिन के लिए शलभ ने टूरिस्ट बस में चारों के लिए बुकिंग करवा ली. अगले दिन सुबह 10 बजे चारों मुंबई भ्रमण के लिए टूरिस्ट बस में सवार हो कर निकल पड़े. भ्रमण में फिल्म की शूटिंग दिखलाना भी तय था. पास ही के एक गांव में ग्रामीण परिवेश में एक लोकनृत्य का फिल्मांकन हो रहा था. करीब 75 बालाएं रंगबिरंगे आकर्षक ग्रामीण परिधानों में सजी संगीत पर थिरक रही थीं.

अचानक नन्हा दीपू चीख पड़ा, ‘‘मम्मा, वह देखो, सामने माला मौसी…’’

उसे पहचानने में रमा को देर नहीं लगी. वही चिरपरिचित खूबसूरत मासूम चेहरा. वह पति के कान में फुसफुसाई, ‘‘मैं इसे अनुभा मौसी को लौटा कर अपने नाम पर लगा हुआ दाग अवश्य मिटाऊंगी…’’

लताड़ लगाई शलभ ने, ‘‘खबरदार, अब इस पचड़े से दूर रहो. बाज आया मैं तुम्हारे रिश्तेदारों से…’’

लेकिन रमा नहीं मानी. पति की इच्छा के विरुद्ध उस ने टूरिस्ट बस का बकाया भ्रमण कैंसिल कर के टैक्सी किराए पर ले ली और शूटिंग के उपरांत उस का पीछा करते उस के घर जा पहुंची.

शलभ और रमा को एकाएक सामने पा कर माला अनजान बन गई. दोनों को पहचानने से इनकार कर दिया उस ने. सब्र का बांध टूट गया रमा का. क्रोध से चीखी वह, ‘‘तू यहां ऐश कर रही है और तेरी मां ने हम दोनों को पुलिस के हवाले कर दिया कि तुझे गायब करने में हमारा हाथ है. चल अभी मेरे साथ इसी वक्त. तुझे मैं मौसी के पास ले चलती हूं.’’

अब क्या ख़ाक तालिबां होंगें

हम में से कईयों ने अल्बानिया का नाम सुना होगा लेकिन हम में से कुछ ही जानते होंगे कि अल्बानिया दुनिया का पहला इस्लामिक देश है जिसने खुद को नास्तिक देश घोषित कर रखा है . बात साल 1976 की है जब वहां के तानाशाह कहे जाने बाले मुखिया एनवर होक्साह ने धार्मिक कृत्यों को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया था . पार्टी आफ लेबर के इस नेता का मानना था कि कार्ल मार्कस ने यह गलत नहीं कहा था कि धर्म एक अफीम है जिससे पूरा देश बर्बाद हो जाता है . अल्बानिया का सदियों पुराना और आज का भी इतिहास कुछ भी कहे पर यह बात जाहिर है कि यूरोप के गरीब देशों में शुमार किया जाना बाला अल्बानिया कम से कम अफगानिस्तान जैसी बदहाली का शिकार कभी नहीं हुआ .

अफगानिस्तान अब पूरी तरह तालिबान के कब्जे में है जिसके बाबत सारी दुनिया अमेरिका को कोस रही है मानो उसने अफगानिस्तान में खुशहाली और लोकतंत्र बहाली का ठेका और जिम्मेदारी ले रखी हो जबकि राष्ट्रपति जो वाइडेंन बेहद तल्ख़ लहजे में कह चुके हैं कि सवाल अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी से पूछा जाना चाहिए कि वे देश छोड़कर क्यों भागे और अमेरकी सैनिक क्यों लगातार अपनी जान जोखिम में डालें .

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इस बयान को बारीकी से समझना बहुत जरुरी है जिसका सार यह है कि यह कोई सैन्य युद्ध नहीं है बल्कि एक धार्मिक उन्माद है , इस्लामिक कट्टरवाद की इंतिहा है फिर क्यों अमेरिका से यह उम्मीद की जाए कि वह किसी के मजहवी फटे में अपनी टांग अडाएगा . तालिबान कोई देश या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य सेना नहीं है वह चरमपंथियों का गिरोह है जो अपना आत्मविश्वास बनाये रखने और बढ़ाने अल्लाह ओ अकबर के नारे लगाता है .

पूरी दुनिया से आवाजें ये भी आ रही हैं कि मानवता खतरे में है इसलिए कुछ करना चाहिए लेकिन करना क्या चाहिए यह किसी को नहीं सूझ रहा क्योंकि बकौल जो वाइडेंन अफगानी सेना ने बिना लड़े ही हार मान ली . यह हार दरअसल में इस्लाम की जीत है , थोड़े कम कट्टरवादियों पर बहुत ज्यादा और बड़े कट्टरपंथियों की फतह है .

जीता तो मजहब –

इस लड़ाई में हारा तो कोई नहीं मजहब जीता है लेकिन तथाकथित मानवतावादी हल्ला मचा रहे हैं कि अब औरतों पर धार्मिक अत्याचार होंगे , अफगानिस्तान में बुर्के की दुकानें खुलने लगी हैं, अब लड़कियों और बच्चों को पढ़ने नहीं दिया जायेगा , मर्दों को एक ख़ास किस्म की दाढ़ी रखना पड़ेगी और पांचो वक्त की नमाज पढ़ना पड़ेगी आतंकवाद बढ़ेगा बगैरह बगैरह …

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इसके इतर भारत के नजरिये से कहा जा रहा है कि चीन और पाकिस्तान ने तालिबान को समर्थन इसलिए दे दिया कि भारत को कश्मीर में घेरा जा सके . अब ये भले लोग शायद ही बता पायें कि धारा 370 के बेअसर होने के बाद वहां कौन सी शांति स्थापित हो गई थी . कहाँ के कश्मीरी पंडित और मुसलमान ईद और दीवाली पर गले मिलने लगे थे . हाँ मिलिट्री तैनात है इसलिए आतंकवादी गतिविधियाँ जरुर रुक रुक कर हो रहीं थीं ठीक वैसे ही जैसे नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सली वारदातें होती हैं . अफगानिस्तान की दिक्कत यह है या थी कि खुद वहां के लोग इस्लामिक यानी धर्म राज्य चाहते थे इसलिए ख़ामोशी से सारा तमाशा देखते रहे . वे खुद मजहबी बंदिशें और धार्मिक गुलामी चाहते थे तो अमेरिका या कोई दूसरा क्या कर लेता .यह धर्म की जकडन और उसके उसूलों में जीने की आदिम ख्वाहिश हर देश में मौजूद है जिसका लोकतंत्र से कहने और दिखाने भर का वास्ता है .

न्यूज़ चेनल कल से दिन रात काबुल से भाग रहे लोगों का एक दृश्य दिखा रहे हैं जिसमें अफगानी हवाई अड्डे पर बस अड्डे जैसे खड़े और भाग रहे हैं .  कुछ तो हवाई जहाज की छत पर लटके हैं और तीन लोग उड़ते हवाई जहाज से गिरकर अपनी जान गवां चुके हैं . इस भीड़ में  मर्द ज्यादा हैं जो अपने बीबी बच्चों को अल्लाह ताला और तालिबानों के भरोसे छोड़ कर भाग रहे हैं .

ये भागते लोग हमदर्दी के बजाय बड़ी चिंता का विषय होने चाहिए कि ये जहां भी जायेंगे वहीँ तालिबानी संस्कार ले जायेंगे .  इन्होने कट्टरता देखी है इसलिए ये कट्टरता ही फैलायेंगे तो यह क्यों न सोचा और कहा जाए कि अगर ये अमेरिका गए तो तालिबानी एजेंट क्यों नहीं बन सकते . भागने के बजाय ये तालिबानों यानी खुद से ज्यादा धार्मिक उन्मादियों से लड़ने की हिम्मत दिखा पाते तो लगता कि ये धार्मिक घुटन नहीं चाहते . अफगानिस्तान को नर्क बनाने में ये तालिबानियों से कम जिम्मेदार और गुनाहगार नहीं . ये वही आम लोग हैं जो इस्लाम का जरा सा भी टूटता उसूल देखकर हाय हाय करने लगते हैं .

दरअसल में कट्टरवाद की भी केटेगिरियां होने लगी हैं जिसके तहत लोग अब जीतेजी मोक्ष चाहने लगे हैं फिर चाहे वे किसी भी देश या धर्म के हों अंतर उनकी मानसिकता में कुछ नहीं  . उन्हें सुकून धर्म , उसकी किताबों और धर्म स्थलों में ही मिलता है . ये लोग जब तक दान देकर पहले धर्म गुरुओं की फ़ौज खड़ी नहीं कर लेते इन्हें मानव जीवन व्यर्थ लगता है फिर मुफ्त की खाने बाले ये पंडे ,मौलवी , पादरी और मुनि बगैरह धर्म के धंधे को और हवा देते हैं जिसके नतीजे अफगानिस्तान जैसे नजारों से सामने आते हैं तो पहले लोग थोडा घबराते हैं फिर हारे हुए जुआरी की तरह कहीं और धर्म और उसकी दहशत को विस्तार देने चले जाते हैं .

खुश तो बहुत होगे तुम आज ..

अफगानिस्तान की हालत पर कुछ देश और लोग ही घडियाली आंसू बहा रहे हैं लेकिन धर्म के दुकानदार मन ही मन खुश हैं और शायद सोच भी रहे हों कि काश हमारे यहाँ भी ऐसे धार्मिक लड़ाके होते तो हर चीज जो अभी आसानी से नहीं मिल रही बैठे बिठाये मिलती जिसमें दौलत  शोहरत और औरत भी शामिल है . लोगों में जितना डर और दहशत धर्म और उसके योद्धाओं का फैलता है उतना ही वे दान दक्षिणा देते हैं और पैर भी छूते हैं .

भारत सरकार की प्रतिक्रिया गौर करने लायक है जिसने औरतों और बच्चों के शोषण की बात कही . यह दरअसल में एक धार्मिक अनुभव है कि धर्म ज्यादातर शोषण औरतों का ही करता है . भारत सरकार ने मर्दों की स्थिति पर चिंता जाहिर नहीं की क्योंकि उसे मालूम है कि धर्म की आड़ में पुरुष ही शोषण करता है स्त्री तो भोग्या , जायदाद और पाँव की जूती होती है इसलिए किस्मत बाले हैं अफगानी मर्द जो तालिबानों की अधीनता स्वीकारते उनके साथ जीतेजी जन्नत का सुख भोगेंगे .

इस अंतर्राष्ट्रीय हादसे पर कोई पंडा पुजारी दुखी नहीं है क्योंकि हो वही रहा है जो धर्म कहता है . हमारा देश इसका अपवाद नहीं है जहां एक मामूली सी ऐक्ट्रेस दिशा परमार इसलिए ट्रोल होती है क्योंकि वह शादी के बाद मांग में सिंदूर नहीं भरती . यहाँ करीना कपूर को इसलिए सोशल मीडिया पर मार पड़ती हैं कि वह अपने दूसरे बेटे का नाम विष्णु प्रसाद या शंकर लाल नहीं रखती बल्कि जहांगीर रख लेती है . इन दिनों देश में यह और ऐसी कई बातें  हराम हैं  .

तो सरकार को वाकई अगर चिंता करनी है तो अपने देश की औरतों और बच्चों की करे कि कहीं वे भी तो तालिबानियों के हत्थे नहीं चढ़ रहे . हमें अगर अफगानिस्तान नहीं बनना है तो धार्मिक कट्टरवाद से बचकर रहना होगा . लेकिन इसके लिए उस धार्मिक होती सरकार को अपनी सोच बदलनी होगी जो हर बात में धर्म को आगे रखती है और धर्म के ठेकेदारों को शह देती रहती है . रही बात अफगानिस्तान की तो नैतिकता और मानवता का खोखला ढोल पीटना एक वेबजह का पाखंड है जिसके दिखते सच के आगे एक अमेरिका को छोड़ सभी देश घुटने टेक चुके हैं वह भी इसलिए कि वहां प्रेसिडेंट डोनाल्ड ट्रम्प नहीं बल्कि जो वाइडेंन हैं .

अगर अफगानिस्तान नब्बे के दशक में ही अल्बानिया से सबक ले लेता तो वहां के चंद अमन पसंद लोगों को ये दुर्दिन नहीं देखना पड़ते . वहां के मौजूदा हालात पर तो मशहूर शायर मोमिन  का यह शेर ही कहा जा सकता है –

उम्र तो सारी कटी इश्क- ए – बुताँ में `मोमिन`

आखिरी वक्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे .

इंटीग्रेटेड फार्मिंग: एक एकड़ में कमा सकते है लाखों रुपए

अरविंद मोहन मिश्र, जिला कृषि उपनिदेशक ,सीतापुर

मोहित शुक्ला आ ज के समय में हमारी खेतीकिसानी कितनी और कैसे फायदेमंद हो सकती है? क्योंकि समय के साथसाथ लागत और मेहनत तो बढ़ती चली जा रही है, लेकिन खेती में मुनाफा नहीं बढ़ पा रहा है. खेती को कम लागत में कैसे फायदेमंद बनाया जाए, इस को ले कर किसानों के लिए इंटीग्रेटेड फार्मिंग बहुत ही लाभदायक है. ऐसा ही मौडल फार्म एक एकड़ जमीन में तैयार कर के उपकृषि निदेशक अरविंद मोहन मिश्र ने किसानों को अपनी आय को बढ़ाने और लागत को कम करने का फार्मूला दिया है. वे किसानों को इस मौडल के माध्यम से जागरूक कर रहे हैं.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से महज 90 किलोमीटर दूर सीतापुर जिला राष्ट्रीय राज्यमार्ग के किनारे जिला कृषि उपनिदेशक अरविंद मोहन मिश्र ने अपने कार्यालय में खाली पड़ी जमीन पर आधुनिक विधि से एक एकड़ में मौडल तैयार किया है. इस एक एकड़ के मौडल में मछलीपालन, बत्तखपालन, मुरगीपालन के साथसाथ फलदार पौधों की नर्सरी तैयार कराई है. अरविंद मोहन मिश्र बताते हैं कि उन्होंने एक बीघा जमीन में तालाब की खुदाई कराई है. तालाब में ग्रास कौर्प मछली डाल रखी हैं. इतनी मछली से सालभर में तकरीबन एक से डेढ़ लाख रुपए मिल जाएंगे. इस के बाद तालाब के ऊपर मचान बना कर उस में पोल्ट्री फार्म बनाया है, जिस में कड़कनाथ सहित अन्य देशी मुरगामुरगी पाल रखे हैं. वे आगे बताते हैं कि जो दाना मुरगों को देते हैं, उस का जो शेष भाग बचता है, वह मचान से नीचे गिरता रहता है.

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वह दाना खराब न हो कर मछलियां खा जाती हैं. इस से मछलियों के दाने का भी पैसा बचता है. इस के साथ ही शेष 2 बीघा जमीन पर ढैंचा की बोआई कर रखी है. इस से हरी खाद बनेगी और उस के बाद इस की जुताई करा के इस में शुगर फ्री धान की रोपाई कर देंगे. 2 बीघे में गन्ने की खेती : अरविंद मोहन मिश्र ने बताया कि वे 2 बीघे में तकरीबन 200 से 250 क्विंटल गन्ने की पैदावार लेते हैं. साथ ही, गन्ने में बीचबीच में अगेती भिंडी फसल ले रखी है, जिस से 30 से 40 हजार रुपए का मुनाफा होता है. सहफसली का एक और फायदा यह भी है कि जो छिड़काव या खाद हम गन्ने में देते हैं, उस का लाभ सहफसली को भी मिलता है. 10 किसानों को बनवाया जाएगा मौडल :

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जिला उपकृषि निदेशक अरविंद मोहन मिश्र ने कहा कि यह मौडल सीतापुर जिले में 10 किसानों के लिए और बनवाया जाएगा. पायलट प्रोजैक्ट के तौर पर इस के लिए किसानों का खाका तैयार किया है. इस मौडल की मंजूरी के लिए शासन को भी पत्र लिखा जा चुका है. हानिकारक रसायनमुक्त जीरो बजट खेती पर रहेगा फोकस : मौजूदा समय में कृषि में लगातार लागत वृद्धि होने का एक कारण यह भी है कि किसान अधिक उत्पादन के चक्कर में बेरोकटोक हो कर खेती में रासायनिक खादों का प्रयोग कर रहे हैं, बिना किसी मापदंड के. इस को कम करने के लिए किसान खुद देशी विधि जैसे वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करें. गाय का गोबर और गौमूत्र से जीवामृत बना कर छिड़काव करें. वे आगे बताते हैं कि गाय के गोबर और मूत्र से 30 एकड़ जमीन के लिए जीवामृत तैयार किया जा सकता है.

अधर में प्रतियोगी युवा: सरकारी नौकरी का लालच

लेखक-रोहित 

युवा सरकारी नौकरी का लालच सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे ज्यादातर ऐसे सक्षम युवा हैं जिन्हें संभव है कि सीट की कमी और सरकारी कुव्यवस्था के चलते सरकारी नौकरी नहीं मिलने वाली, लेकिन परिवार की एक बड़ी पूंजी अभी तक वे इन तैयारियों में उम्मीद के सहारे खर्च कर चुके हैं. ऐसे में प्रतियोगी युवाओं का भविष्य अंधकार में गहराता जा रहा है. ये वे युवा हैं जो सबकुछ दांव पर लगा कर एक अनिश्चित भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं. अक्तूबर 2017, वर्ल्ड इकोनौमिक फोरम की इंडिया इकोनौमिक समिट में उद्योग जगत के नामी लोगों ने देश में बढ़ती बेरोजगारी की स्थिति पर पहली बार मोदी कार्यकाल में खुल कर चिंता जताई थी. यह चिंता ऐसे समय में आई थी जब प्रधानमंत्री मोदी और उन की सरकार नोटबंदी की झूठी सफलता की कड़वी रेवडि़यां देश में बांटे जा रहे थे.

उस दौरान तमाम अर्थशास्त्री नोटबंदी को देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक बता रहे थे लेकिन प्रधानमंत्री पर मानो बहुमत का नशा सवार था. हैरानी यह कि देश के उद्योगपति जब रोजगार की स्थिति पर चिंता जता रहे थे तब उसी समिट में देश के रेल मंत्री पीयूष गोयल उसे ‘अच्छा संकेत’ कह रहे थे. वे कह रहे थे, ‘सचाई यह है कि आज का युवा नौकरी तलाश करने की होड़ में नहीं है. वह नौकरी देने वाला बनना चाहता है. आज देश का युवा उद्यमी बनना चाहता है जो एक अच्छा संकेत है.’ बेरोजगारी को ‘अच्छा संकेत’ कहने वाले पीयूष गोयल के पास अपनी बात का ही कोई आधार न था. उसी समय कई रिपोर्टें बता रही थीं कि जो थोड़ेबहुत लोग यदाकदा भी छोटामोटा उद्यम खोल लिया करते थे उन की स्थिति भी बदहाल होने को है. लेकिन यह बात सरकार के पल्ले नहीं पड़ी या वह इस बारे में सोचना भी नहीं चाहती थी. ऐसा शायद इसलिए भी क्योंकि देश के मुखिया ही रोजगार के नाम पर पढ़ेलिखे नौजवानों को पकौड़े तलने की नसीहत दे चुके थे. 2019 के आम चुनाव से पहले जब माहौल अर्थव्यवस्था, रोजगार व महंगाई को ले कर गरम हुआ और सरकार बुनियादी मुद्दों पर घिरने लगी तो भाजपा ने अंधराष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद को अपना हथियार बनाया.

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लेकिन वह फिर भी दोबारा पूर्ण बहुमत में आने को ले कर आशंकित थी क्योंकि देश में बेरोजगारी का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा था और एनएसएससो का लीक डाटा कह रहा था कि ‘देश 45 साल की सब से अधिक बेरोजगारी दर झेल रहा है.’ इसी डर से सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी और उन की पार्टी भाजपा को अपने कोर युवा वोटरों के छिटकने का संशय था. नतीजतन, युवाओं को पूरे विश्वास में लेने के लिए सरकार ने बम्पर सरकारी नौकारियों की घोषणाएं करनी शुरू कर दीं. रेलवे, देश की सब से बड़ी सरकारी जौब प्रोवाइड करने वाली संस्था जिस में सब से ज्यादा प्रतियोगी कम्पीट करते हैं, को सरकार द्वारा हथियार बनायागया. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले 23 जनवरी को रेल मंत्री पीयूष गोयल ने प्रैस कौन्फ्रैंस की और 2021 तक रेलवे में 4 लाख नौकरियां देने का वादा किया. जाहिर है, यह नुकसान की भरपाई का तरीका था जो सरकार सालोंसाल से रोजगार देने के मोरचे में विफल हो रही थी. उसी कौन्फ्रैंस से मिली जानकारी के अनुसार रेलवे में नौकारियों की 15.6 लाख की कुल स्ट्रैंथ में से लगभग 2 लाख 30 हजार पद पहले से ही खाली चल रहे थे, जिन्हें अगले 2 वर्षों में भरने के वादे किए जा रहे थे.

अधर में करोड़ों प्रतियोगी सरकार की लुभावनी घोषणा से देश के करोड़ों युवा प्रतियोगियों में उम्मीद जगी. इसी उम्मीद को और हवा देने के लिए रेलवे ने आम चुनाव से पहले युवाओं को लुभाने के लिए तकरीबन 1 लाख 3 हजार ग्रुप डी और 35,208 एनटीपीसी वैकेंसियों की रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया भी चालू कर दी थी, जिस में लगभग देश के 2 करोड़ 40 लाख युवा प्रतियोगियों ने अपना रजिस्ट्रेशन कराया था. लेकिन पिछले 2 सालों के भीतर न तो कोई नई बहाली की गई और न ही एग्जाम लिया गया. प्रतियोगियों ने सरकार पर सोशल मीडिया के माध्यम से जब दबाव बनाया तो एनटीपीसी का 28 दिसंबर, 2020 से अप्रैल 2021 तक टायर वन का एग्जाम लिया गया जिस में से भी 20 लाख से अधिक प्रतियोगियों का एग्जाम दूसरे फेज के कोरोना के चलते टाल दिया गया. भले सरकार ने इस देरी का सारा ठीकरा कोरोना के मत्थे मढ़ा हो लेकिन सरकार के इन खोखले वादों के चलते करोड़ों प्रतियोगी आज बुरी तरह हताश हो चुके हैं. वे ट्विटर पर लाखों की संख्या में अपनी दिक्कतों को ट्रैंड करा रहे हैं लेकिन मजाल है कि सरकार का बाल भी बांका हो रहा हो. देश में सरकारी नौकरियां वैसे ही बची नहीं, जहां थोड़ीबहुत बची भी हैं वहां भरतियां नहीं, जहां भरती हो रही हैं वहां नियमितता नहीं. ऐसे में प्रतियोगी अवसादों में घिर रहे हैं.

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हर एग्जाम, हर रिजल्ट और हर सलैक्शन में होने वाली देरी की कीमत उन के पूरे परिवार को चुकानी पड़ रही है. ऐसे में बेरोजगारी तो बढ़ ही रही है उस से ज्यादा बेरोजगारों के नौकरी पाने के लिए होने वाले खर्चे भी बढ़ रहे हैं. एक तो बेरोजगारी, दूसरा बढ़ता खर्चा 30 वर्षीय अनिल बिहार के वैस्ट चंपारण जिले के बगहा गांव से संबंध रखते हैं. अनिल एक गरीब किसान परिवार से हैं जिन के पास मात्र 2 बीघा जमीन है, जिस में गुजारे लायक खाना और छोटेमोटे खर्चे लायक कमाई हो पाती है. अनिल ने अपनी हालत को कोसा तो जरूर लेकिन बाधक कभी नहीं माना था. उन्होंने 12वीं में अपने पूरे जिले से तीसरे पायदान के अंक अर्जित किए थे. अनिल पढ़ाई में होनहार थे तो घर वालों को उन के सफल होने की उम्मीद भी अधिक थी. सो, तंगहाली के बावजूद पूरे परिवार ने विश्वास के साथ अनिल को साल 2015 में ग्रेजुएशन के बाद दिल्ली शहर में सरकारी नौकरी की तैयारी करने भेज दिया था. लेकिन पिछले 5 वर्षों से लगातार अथक प्रयास करने के बावजूद सरकारी नौकरी में कुछ न कुछ बाधाएं उन्हें झेलनी पड़ रही हैं. अनिल को सरकारी नौकरी पाने में हो रही अनियमितता ने परेशान तो किया ही है साथ ही सरकारी नौकरी की तैयारी में बढ़ रहे खर्च ने भी हताहत कर दिया है. हालत यह थी कि कोरोना के इस नाजुक समय में वे कई निजी कंपनियों में छोटीमोटी ही सही नौकरी तलाश रहे थे लेकिन रोजगार न होने के चलते उन्हें हर जगह से निराश होना पड़ा. अब स्थिति यह है कि उन्हें फिर से वापस गांव जाने पर मजबूर होना पड़ रहा है. अनिल का मानना है कि आज स्थिति यह है कि अगर कोई प्रतियोगी सरकारी नौकरी की तैयारी करने आ रहा है तो उसे मैंटली प्रिपेयर हो कर आना पड़ेगा कि कम से कम 6-8 साल लगने ही हैं.

उसे पता होना चाहिए कि इतने सालों के लिए पैसा उस के परिवार के पास है या नहीं. साथ ही, अपने घरपरिवार को विश्वास दिलाना पड़ेगा कि इस बीच उसे कोई रोकेटोके न. अनिल बताते हैं शहरों में जिन का अपना मकान है वे तो थोड़ाबहुत परिवार के साथ मैनेज कर लेते हैं लेकिन ग्रामीण इलाकों से आने वाले प्रतियोगी को बहुत से खर्चों का सामना करना पड़ता है. ‘सरिता’ पत्रिका से बात करते हुए वे एक प्रतियोगी के खर्चों का हिसाब बताते हैं. ‘‘रूम का खर्चा सीधे मान कर चलिए तो शहर में मिनिमम 4 हजार रुपए होता ही है. इस से नीचे जाते हैं तो आप को छोटा सा सिंगल रूम मिलेगा, जिस में न किचन, न बाथरूम, न टौयलेट कुछ नहीं. आप को बाकी किराएदारों के साथ यह सब एडजस्ट करना ही पड़ेगा. यह मैं संत नगर, बुराड़ी, नरेला, करावल नगर जैसे दूरदराज इलाके की बात कर रहा हूं. ना, ना करते हुए भी बिजली का बिल 8-9 रुपए यूनिट कीमत से किराएदारों से लिया ही जाता है. इस में 500-1,000 रुपए कहीं नहीं गए. बीच दिल्ली में तो भूल जाइए, क्या हाल है.

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‘‘चलो, कोई लड़का कमरे की स्थिति को ले कर एडजस्ट कर सकता है. हजार दो हजार ऊपरनीचे हो जाते हैं. लेकिन भूख को तो एडजस्ट नहीं किया जा सकता. 3 वक्त न सही, जीने के लिए 2 वक्त खाना तो पड़ेगा ही. मेरी तरह गांव से आए किसी भी लड़के के खाने का खर्च मान कर चलोगे तो मिनिमम 2,000 रुपए महीना लगता है. और यह तब की स्थिति है जब वह हाथ भींच (एडजस्ट) कर चले. यह कोई हवाहवाई बात नहीं है. ‘‘आज 180 रुपए लिटर सरसों के तेल का भाव है. यह तेल पहले 80 रुपए का था, माने सीधा 100 रुपए का अंतर है. कोई भी दाल ले लो, 100 रुपए से नीचे नहीं है. दोनों टाइम अगर दालचावल ही खाए तो इतना खर्च बैठ जाता है. तेल इतना महंगा है कि इस में मांसमच्छी खाना ही भूल जाओ. कोई पसंद का खाना महीने में खा लिया तो बहुत है. पहले जो सिलैंडर 400 रुपए में आता था उसे आज ब्लैक में 1,000-1,200 रुपए में भराना पड़ रहा है. इस कारण रोटी नहीं बनाते हैं, जो खाना जल्दी बन जाए वही बना लेते हैं. फिर, जिस इलाके में मैं हूं वहां पानी साफ नहीं है.

30 रुपए में पानी का जार लेना पड़ता है. इस का महीना खर्चा ही 200-250 रुपए आ जाता है, खर्चे क्या गिनाएं कई हैं, बालदाढ़ी, साबुनशैम्पू, तेलकंघा, आनाजाना. इस मारे मेरे जैसे बहुत से प्रतिभागी ज्यादा दोस्तीयारी नहीं रखते हैं ताकि फालतू के खर्चे न बढ़ जाएं और क्या बताएं आप को खर्च के बारे में?’’ अनिल ने अभी तक एसएससी सीजीएल के लिए 3 बार (2017, 2018, 2019) और सीएचएसएल का एक बार अटैंम्प कर चुके हैं. वहीं 2019 रेलवे फौर्म (ग्रुप डी और एनटीपीसी) भी भर चुके हैं. सीजीएल 2017 में अनिल प्रीक्वालीफाई नहीं कर पाए थे. 2018 में अनिल एसएससी का एग्जाम क्लीयर करतेकरते रह गए थे. 2019 की एसएससी भरती, जिस का एग्जाम एक साल देरी के बाद 2020 में लिया गया, में अनिल प्री और मैंस का एग्जाम तो अच्छे से पास कर चुके हैं पर परिणाम की नौर्मलाइजेशन प्रक्रिया से खुश नहीं हैं. इसे वे काफी भेदभाव वाला बताते हैं. ऐसे ही रेलवे 2019 का भी सबकुछ अटका हुआ है और 2020 एसएससी सीजीएल का भी. इस सरकारी अटकमअटकी में अनिल का पूरा भविष्य अटक गया है. हर माह के साथ न सिर्फ उन के परिवार की सेविंग खत्म हो रही हैं, बल्कि खर्चों का बो झ भी बढ़ता जा रहा है.

अनिल कहते हैं, ‘‘आज एक प्रतिभागी अगर शहर में पढ़ने आया है तो पढ़ाई पर खर्च करेगा ही. नौर्मल सी बात है, हर महीना करंट अफेयर की किताबों का खर्च ही 100 रुपए आ जाता है. इस के बाद अलगअलग सब्जैक्ट के नोट्स, बुक्स, न्यूज पेपर मिला कर 500-700 रुपए महीना बैठ जाता है. सिंगल कमरा है और 2-3 लोग मिल कर रह रहे हैं तो लाइब्रेरी का 500-1,000 रुपए खर्च बैठ जाता है. आप दिल्ली की किसी भी कोचिंग की फीस पता कर के आइए, आप को एक सब्जैक्ट की कोचिंग की फीस 5 हजार से 30 हजार रुपए महीने तक मिलेगी. ‘‘मुखर्जी नगर में भारती सर से मैथ पढि़ए, 22 हजार रुपए फीस है. वे बत्रा कौम्प्लैक्स में पढ़ाते हैं. ऐसे ही गोविंद सर हैं, वे 10-12 हजार रुपए के आसपास फीस में पढ़ाते हैं. ऐसी भी कोचिंग हैं जहां बाउंसर रखे होते हैं भीड़ को कंट्रोल करने के लिए. तो सम झ ही सकते हैं, कुछ तो होगा वहां. बहुत से औनलाइन पढ़ रहे हैं, वहां भी अच्छीखासी फीस वसूली जा रही है. हां, बहुत लोग खुद से तैयारी करते हैं लेकिन उन का सक्सैस रेट कम होता है.

गाइडैंस नहीं मिल पाती, इसलिए सालोंसाल एग्जाम देने के बाद भी फेल होने की संभावना अधिक रहती है. ‘‘मैं अपने परिवार का फर्स्ट जनरेशन लर्नर हूं, इसलिए सब से ज्यादा जरूरत मेरे जैसे प्रतिभागियों को होती है कोचिंग की. लेकिन समस्या यह कि इसी हिस्से के लिए पैसों का अभाव होता है और यही हिस्सा कोचिंग जौइन नहीं करने देता.’’ वे बताते हैं, ‘‘कुल मिला कर मान के चलिए कि 10-12 हजार रुपए लग जाते हैं. यह मैं अपने जैसों की बात कर रहा हूं, जबकि मैं न सिगरेट का शौकीन हूं न नुक्कड़ पर चाय पीने की सोच पाता हूं और न ही 3 वर्षों से कोई कपड़ा खरीदा. कुछ लड़के होते हैं जिन्हें परिवार से अच्छी मदद मिलती है. उन से पूछिए, उन का महीने का कितना लग जाता है. अगर कोई बिना िझ झक अच्छे से तैयारी करे तो मिनिमम 20-25 हजार रुपया महीना खर्च हो जाए.’’ अनिल आगे कहते हैं, ‘‘सरकारी नौकरी के लिए मेरा कैरियर दांव पर लगा हुआ है. मेरे साथसाथ मेरा परिवार, जो मु झे सपोर्ट कर रहा है, मु झे पढ़ाने के अलावा वे लोग और कुछ नहीं कर रहे. परिवार वालों का सबकुछ दांव पर लगा है.

यानी उन की सारी इनकम मु झ पर ही खर्च हो रही है. मेरा अगर कुछ नहीं होता है तो मेरे पीछे मेरी फैमिली, मु झे पढ़ाने वाले भैया की फैमिली की भी सारी मेहनत खराब हो जाएगी. उन का भविष्य भी खराब होगा. इसलिए मेरे लिए बहुत जरूरी है कि मेरा कुछ हो. सरकारी नौकरी में मेरा नाम आए, तभी फैमिली ग्रोथ कर पाएगी.’’ देश में सिर्फ अनिल का ही मामला नहीं है बल्कि करोड़ों प्रतियोगी इस समय इसी उठापटक से जू झ रहे हैं. भविष्य की अथाह असुरक्षा नौजवानों को खाए जा रही है. कुछ अनिल जैसा हाल दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में रहने वाले अंकुश का है. वे अपने परिवार के साथ 5 हजार रुपए महीना किराए के कमरे में रहते हैं. हाल ही में कोरोना से उबरा अंकुश और उस का परिवार अब फाइनैंशियल दिक्कतों का सामना कर रहा है. पिता की नौकरी कोरोनाकाल में लौकडाउन के चलते छूट गई है. अंकुश का सोचना है कि उस ने जो एसएससी सीजीएल और रेलवे के फौर्म भरे हैं उन का जल्दी एग्जाम और रिजल्ट घोषित हो ताकि जल्दी लाइफ की चीजें क्लीयर हो सकें.

भरती से ज्यादा रिटायर यदि सरकार के चुनावी वादों को दरकिनार कर दिया जाए तो कई सालों से यह ट्रैंड साफ देखा जा सकता है कि भरतियों में होने वाली देरी कोई आकस्मिक नहीं है बल्कि यह पूरी तरह से योजनाबद्ध तरीके से की जा रही है और सालदरसाल सरकारें इन प्रक्रियाओं को जानबू झ कर टरकाती भी हैं. रेलवे में बढ़ रही अनियमितता अब अधिक बढ़ती जा रही है और इस अनियमितता का शिकार हर साल करोड़ों प्रतियोगी होते हैं जिन्हें न सिर्फ देरी से एग्जाम, रिजल्ट और जौइनिंग से समस्या हो रही है बल्कि प्रशासनिक चरित्र से भी समस्या होने लगी है. ऐसा साफ देखा भी जा सकता है कि भरती होने वालों से अधिक संख्या रिटायर होने वालों की है. 2019 के आम चुनाव से पहले सूचना के अधिकार कानून से मिली जानकारी के अनुसार भारतीय रेलवे में जितने लोग भरती होते हैं उस से कहीं अधिक संख्या में हर साल कर्मचारी सेवानिवृत्त हो जाते हैं. आरटीआई में पिछले दशक में सेवानिवृत्त होने वाले लोगों की संख्या और रोजगार के अवसरों की संख्या के बारे में पूछा गया जिस का डाटा हैरान करने वाला था.

नतीजे बता रहे थे कि 2008 से 2018 तक लगातार जितने लोगों को नौकरी मिली, उस से ज्यादा लोग रिटायर हुए. परिणामस्वरूप, रिक्त पदों की संख्या सालदर साल बढ़ती रही. डाटा कहता है कि 2008 में 42,149 कर्मचारी रिटायर हुए, फिर वर्ष 2008-9 में 13,870 भरती और 40,290 रिटायर हुए, वहीं 2009-10 में 41,372 रिटायर तो महज 11,825 ही भरती हुए, 2010-11 में 43,372 रिटायर और 5,913 भरती, 2011-12 में 44,360 रिटायर और 23,292 भरती, 2012-13 में 68,728 रिटायर और 28,767 भरती, 2013-14 में 60,754 रिटायर और 31,805 भरती, 2014-15 में 59,990 रिटायर और 15,191 भरती, 2015-16 में 53,654 रिटायर और 27,995 भरती, 2016-17 में 58,373 रिटायर और 19,587 भरती, 2017-18 में 19,700 रिटायर हुए. लगातार यह ट्रैंड देखने में आया कि सरकार ने भरती प्रक्रिया में भारी अनदेखी की है. वहीं चुनाव से पहले सरकार ने 90 हजार की रेलवे भरती इन्हीं युवाओं को लुभाने को की थी जो इस समय दरदर ठोकरें खाने को मजबूर हैं. एसएससी व अन्य का भी यही हाल देश में ठीक यही हाल उन करोड़ों प्रतियोगियों का है जो एसएससी व दूसरी सरकारी नौकरियों की तैयारी कर रहे हैं. एसएससी की तैयारी कर रहे छात्रों का हर साल एकदो वर्ष देरी से चल रहा है.

हमारी पत्रिका ने जितने भी एस्पिरैंट से बात की वे सभी प्रतियोगी देरी और लगातार कम होती सीट्स को ले कर परेशान थे. वे सभी मांग कर रहे थे कि एसएससी हर वर्ष अपना निश्चित कैलेंडर घोषित करे और परीक्षाओं के परिणाम एक वर्ष के भीतर घोषित हो जाएं. अगस्त 2017 में 8,134 एसएससी सीजीएल की सीट्स पर जिन प्रतियोगियों ने एग्जाम दिया था उन की जौइनिंग होतेहोते 2021 आ गया. इस पूरे प्रोसैस को लगभग 4 साल का वक्त लग गया. ऐसे ही 2018 के एसएससी सीजीएल के जो एग्जाम जून में हुए उस का रिजल्ट आतेआते 3 साल लग गए. 2019 के प्री मैन्स के फाइनल रिजल्ट अब जा कर 2021 में घोषित हुए हैं, बाकी अन्य प्रक्रियाओं के साथ जौइनिंग कब तक होगी, कुछ कहा नहीं जा सकता. वहीं 2020 का साल तो खुद ही अधर में लटका रहा है. उस में प्रतियोगियों को सरकार से उम्मीद नहीं कि इस के एग्जाम कब तक हों. साल दर साल सरकारी नौकरियों में भारी कटौती हो रही है. सरकार चुनाव के वक्त जीतने के लिए बम्पर नौकरियां निकालती है, उस के बाद ठंडी पड़ जाती है.

एसएससी और बीपीएसई की लगातार हर साल सीटें कम होती रही हैं. 2012 में एसएससी की 16,119 सीटें थीं, 2013 में 16,114, 2014 में 15,549, 2015 में 8,561, 2016 में 10,661, 2017 में 8,134, 2018 में 11,271, 2019 में 8,582 और 2020 में 6,506 हैं. यानी देखा जा सकता है कि वर्ष 2012 के मुकाबले कितनी प्रतिशत की गिरावट है. यही हाल बैंक, पीओ का भी है जहां पहले के मुकाबले भयंकर तरीके से सीटें घटा दी गई हैं. सरकार की इन अनियमितताओं और तमाम देरियों के चलते आज प्रतियोगी न सिर्फ हताश हैं बल्कि अपनी बेरोजगारी, ऊपर से बढ़ते खर्चे और खुद को परिवार पर अतिरिक्त बो झ सम झ कर टूट रहे हैं. साल दर साल चल रही तैयारियों में प्रतियोगी का लाखों खर्च हो जा रहा है. एक अच्छा रोजगार पाने के लिए आम परिवार को घर के गहने, जमीन गिरवी रखने और कर्जा लेने की नौबत आ पड़ी है. कहां क्या दिक्कत हम ने जितने भी प्रतियोगियों से संपर्क साधा, सभी सरकार की गलत आर्थिक नीतियों को इस उठापठक का जिम्मेदार मान रहे थे.

एक प्रतियोगी अनिल का कहना है, ‘‘सरकार निजीकरण की बात करती है और इसे बड़े लैवल पर बढ़ावा भी देने में लगी है. काफी सैक्टर इसी प्रकरण में उस ने निजी हाथों में बेच दिए हैं. वहीं कुछ लोग हैं जो बिना सोचे इस काम में इन का समर्थन करने लगते हैं. सोचिए, इस समय कोरोना आया है. आप बताइए जितने भी हौस्पिटल हैं वे सारे प्राइवेट होते तो क्या गरीब आदमी कहीं भी अपना इलाज कराने का विश्वास रख पाता. मु झे कुछ हो जाएगा तो मैं खुद प्राइवेट हौस्पिटल अफोर्ड नहीं कर सकता. फोर्टिस जैसे हौस्पिटल घंटों के हिसाब से चार्ज करते हैं. पता करें वहां एक बैड का क्या चार्ज लगता है? पहले मरीज की प्रोफाइल देखते हैं, फिर एडमिट करते हैं. ऐसे में कोई गरीब आदमी वहां इलाज के बारे में सोच सकता है? दूसरी चीज, अगर ये सब प्राइवेट हाथों में देंगे तो सरकारी नौकरियां कहां बचेंगी, सुविधाएं कहां बचेंगी? यह तो हमें भी सम झना जरूरी है. इस सरकार के शासन के दौरान सरकारी नौकरियां लगातार इसी के चलते घट भी रही हैं. ‘‘2014 में मैं ने भी इन्हें वोट दिया था. लेकिन अब सम झ रहे हैं.

धीरेधीरे सब सम झ रहे हैं कि यह सरकार गलत है. हमारी जीडीपी का हाल बुरा है. नौकरियां गायब हैं. यह पार्टी (भाजपा) राष्ट्रवाद का नाम लेती है. लेकिन इस की आड़ में यह अपने लिए ही काम कर रही है. सरकार जो फालतू खर्चा करती है उस की बड़े स्तर पर आलोचना होती है लेकिन वह किसी की सुनने को तैयार नहीं. यह सरकार देश चलाने में सक्षम नहीं.’’ देश में करोड़ों युवा इस समय रोजगार की राह ताक रहे हैं. कई ऐसे हैं जो सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे थे लेकिन अब वहां से निराशा हाथ लगने के बाद प्राइवेट जौब की तरफ मूव करना चाहते हैं. लेकिन समस्या दूसरी भी कि इन में कई वे युवा हैं जो अपने गांव की जमीन को गिरवी रख शहरों में तैयारी करने आए थे, कई घरों के गहने गिरवी रख सपने संजो शहर आए थे, कई लाखों रुपया तैयारी करने में खर्च कर चुके हैं. हकीकत यह है कि आज भारत की अर्थव्यवस्था इतनी चरमरा गई है कि अगले 4-5 वर्षों में भी बेहतर रोजगार के बारे में सोचना किसी गुनाह से कम नहीं.

इन में से ज्यादातर ऐसे सक्षम युवा होंगे जिन्हें सीट की कमी और सरकारी कुव्यवस्था के चलते सरकारी नौकरी नहीं मिलने वाली, लेकिन परिवार की एक बड़ी पूंजी अभी तक वे सरकारी नौकरी की उम्मीद के चलते खर्च कर चुके होंगे. आज लोग दरदर की ठोकरें खा रहे हैं. सबकुछ बंद पड़ा है. सामान्य होने का कोई निश्चित समय नहीं दिखाई देता. कई आंकड़े बेरोजगारी को ले कर पहले से ही हल्ला मचा चुके हैं. कइयों ने हालात और ज्यादा बुरे होने की बात कही है. बारबार लगने वाले लौकडाउन अर्थव्यवथा की रीढ़ तोड़ने में लगे हैं. लोगों के पास खर्च करने को पैसा नहीं है. जिन के पास थोड़ाबहुत है वे बुरे समय के लिए बचाना चाह रहे हैं. ऐसे में प्रतियोगी युवाओं का भविष्य गहराता जा रहा है. ये वे युवा हैं जो सबकुछ दांव पर लगा कर एक अनिश्चित भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं. लेकिन इन की जिम्मेदारी लेने वाला अब कोई नहीं है.

अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्ज़ा

2001 में न्यूयार्क शहर के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले के बाद से अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में तैनात हैं. 2011 में अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन के खात्मे के बाद अफगानिस्तान में तालिबान को पूरी तरह साफ़ कर देने का इरादा लेकर अब तक जमी रही अमेरिकी सेना अफगानों को इस बात की तसल्ली देती रही कि अब सब कुछ ठीक है. अफगानिस्तान आतंक और खून खराबे का दौर से आज़ाद हो चुका है. अब वहां सिर्फ और सिर्फ विकास और अमन चैन होगा. अमेरिका के दिए इसी विश्वास के चलते दुनिया के कई देशों ने अफगानिस्तान में तमाम विकास योजनाओं में अपनी दौलत का खूब निवेश किया. इसमें भारत भी पीछे नहीं रहा. मगर अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान छोड़ते ही तालिबान एक ज़लज़ले की तरह आया और मात्र 44 दिन में उसने पूरे अफगानिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया. अफगानी राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी अहमदज़ई की हुकूमत के परखच्चे उड़ गए और अपनी जान बचा कर भागने के सिवा उनके आगे कोई रास्ता ना बचा.

अफगानिस्तान में जम्हूरियत की आस दम तोड़ चुकी है. खूंखार तालिबानी लड़ाकों ने राजधानी काबुल में घुस कर राष्ट्रपति भवन को अपने कब्ज़े में ले लिया है. तालिबान के राजनीतिक कार्यालय का प्रमुख मुल्ला अब्दुल गनी बरादर काबुल पहुंच चुका है. तालिबान अब पूरी तरह अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज़ होने जा रहा है. माना जा रहा है कि अब्दुल गनी बरादर अफगानिस्तान का नया राष्ट्रपति होगा. गौरतलब है कि अब्दुल गनी बरादर तालिबान के शांति वार्ता दल का वही नेता है, जो अभी तक कतर की राजधानी दोहा में राजनीतिक समझौते की कोशिश करने का दिखावा कर रहा था.

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मुल्ला उमर के सबसे भरोसेमंद कमांडरों में से एक अब्दुल गनी बरादर को 2010 में दक्षिणी पाकिस्तानी शहर कराची में सुरक्षाबलों ने पकड़ लिया था, लेकिन बाद में तालिबान के साथ डील होने के बाद पाकिस्तानी सरकार ने 2018 में उसे रिहा कर दिया था. बरादर उन चार लोगों में से एक है जिसने 1994 में अफगानिस्तान में तालिबान आंदोलन की शुरुआत की. उसकी अहमियत को इस बात से समझा जा सकता है कि 2010 में गिरफ्तारी के समय उसे तालिबान के नेता मुल्ला मोहम्मद उमर के सबसे भरोसेमंद कमांडरों में से एक माना जाता था. इसके साथ ही उसको दूसरा-इन-कमांड भी कहा जाता था. वह उन प्रमुख आतंकियों में से एक है जो अमेरिका और अफगान सरकार के साथ बातचीत का समर्थन करता है.

बरादर की मध्यस्थता में अमेरिका और तालिबान के बीच 2018 से ही बातचीत हो रही थी. फरवरी, 2020 में इसके नतीजे के तौर पर दोनों पक्षों में एक शांति समझौता भी हुआ जिसमें तय हुआ कि अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी सेनाओं को वापस बुलाएगा और तालिबान अमेरिकी सेनाओं पर हमला रोक देगा.

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समझौते के अन्य वादों के मुताबिक तालिबान, अल-कायदा और अन्य आतंकी संगठनों को अपने नियंत्रण वाले इलाकों में पनपने नहीं देगा और अफगान सरकार से शांति स्थापित करने के लिए बातचीत करेगा. अमेरिका ने समझौते के तहत सेनाओं की वापसी शुरू की, लेकिन तालिबान ने शांति समझौते को ताक पर रखते हुए अफगानिस्तान के इलाकों पर कब्जा शुरू कर दिया.

अमेरिका की देन है तालिबान  

दसअसल अफगानिस्तान में तालिबान का उदय अमेरिका के प्रभाव से कारण ही हुआ था. अब वही तालिबान अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों के लिए बड़ा सिरदर्द बन गया है. 1980 के दशक में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में फौज उतारी थी, तब अमेरिका ने ही स्थानीय मुजाहिदीनों को हथियार और ट्रेनिंग देकर जंग के लिए उकसाया था. नतीजन, सोवियत संघ तो हार मानकर चला गया, लेकिन अफगानिस्तान में एक कट्टरपंथी आतंकी संगठन तालिबान का जन्म हो गया. इसके साये में कई आतंकी गुट पनपे, जिसमें से एक अलकायदा भी है, जिसके प्रमुख ओसामा बिन लादेन ने 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर जैसे भयावह काण्ड को अंजाम दिया था. ओसामा के खात्मे के लिए अफगानिस्तान की जमीन पर उतरी अमेरिकी फौजें अगले बीस साल तक जमी रहीं.

हैरतअंगेज़ बात यह है कि बीते बीस साल से अमेरिका ये दावा करता रहा कि उसने तालिबान को तहस नहस कर दिया है. उसके ज्यादादर लड़ाके मारे जा चुके है और जो बच गए है वे अफगान सीमा पर या सीमावर्ती देशों में जा छिपे हैं. जबकि हकीकत ये है कि ना तो तालिबान कभी कमजोर हुआ और ना उसके पास लड़ाकों की कमी हुई. बल्कि इस दौरान उसने अपने लड़ाकों को और ज़्यादा प्रशिक्षित किया, अनुशासित किया और अत्याधुनिक हथियारों से लैस किया. यही नहीं तालिबान ने चीन, पाकिस्तान और अन्य इस्लामिक देशों का बेहतर समर्थन भी हासिल किया. अफगानिस्तान पर जितनी आसानी से तालिबानी कब्ज़ा हुआ है उससे अब ये बात भी साफ़ हो गयी है कि दुनिया का बाप अब अमेरिका नहीं, बल्कि चीन है.

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चीन के तालिबान प्रेम का हाल यह है कि पंद्रह दिन पहले चीनी विदेश मंत्री ने तालिबानी प्रतिनिधि मंडल से बीजिंग में मुलाक़ात की थी.  तालिबान वैश्विक मंच पर वैधता के जिस शिखर पर पहुँचना चाहता है उसका बेस कैंप चीन बनाकर दे रहा है. पाकिस्तान अपने कंधे पर ऑक्सीजन और ड्राई फ्रूट्स लाद कर उसके साथ चलने के लिए तैयार खड़ा है.

औरतों पर सख्त है तालिबान

अफगानिस्तान में जो हो रहा है वह लोकतंत्र की लड़ाई नहीं है. वह अरब स्प्रिंग भी नहीं है. वह क्लैश ऑफ़ सिविलाइजेशन भी नहीं है. यह शुद्ध रूप से मज़हबी और सियासती सत्ता की लड़ाई है जिसके मूल में इस्लाम है. कट्टरपंथी तालिबान शरीया क़ानून का सख्त हिमायती है. वह दाढ़ी टोपी और हिजाब का सख्ती से पालन करवाने वाला है. तालिबान औरतों को सेक्स टॉय से ज़्यादा कुछ नहीं समझता, लिहाज़ा अब अफगानिस्तान में औरतों की स्थिति बदतर होने वाली है. उन्हें एक बार फिर अपने काम धंधे और पढ़ाई लिखाई छोड़ कर घरों में कैद रहना होगा. हिजाब में खुद को लपेट कर उन्हें शरिया कानून का सख्ती से पालन करना होगा.

अफगानिस्तान में औरतों पर जुल्म की शुरुआत हो चुकी है.  तालिबान कल्चर कमीशन ने एक चिट्ठी जारी कर कथित तौर पर 15 से 45 साल की अकेली महिलाओं और विधवाओं की सूची बनाकर देने का फरमान जारी किया है ताकि उनसे तालिबानी लड़ाके शादी कर सकें. इसके बाद से अफगानिस्तान के आम लोगों में अफरातफरी मची हुई है. आम लोग अपनी बच्चियों के भविष्य को लेकर खौफजदा हैं.

तालिबान ने अब तमाम इलाकों से महिलाओं का नाम हटाने की मुहिम शुरू कर दी है. इसमें दुकानों या पार्लर या कहीं भी महिलाओं की तस्वीर नहीं होगी. किसी विज्ञापन में महिला नहीं दिख सकती. यहां तक कि अगर कोई पार्क या दुकान या संस्थान किसी महिला के नाम पर है, तो उसे भी बदलकर कुछ और किया जाएगा. ये सब साल 2001 से पहले भी होता रहा है.

भारत की चिंता बढ़ी

तालिबान की कट्टरपंथी सोच और जुल्म से बचने के लिए अब बड़ी संख्या में अफगानी जनता वहां से पलायन कर रही है. जो लोग आधुनिक सोच रखते हैं और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं, अपनी बेटियों को तालिबानी लड़ाकों के हाथों लुटने से बचाना चाहते हैं वे भला अफगानिस्तान में तालिबान की पाबंदियों में कैसे रह पाएंगे? वे निश्चित ही परिवार सहित अन्य देशों का रुख करेंगे. कनाडा और अमेरिका ने अफगानी नागरिकों को अपने यहाँ पनाह देने की बात कही है, मगर भारत जो अफगानिस्तान का पुराना दोस्त रहा है, की तरफ से ऐसा कोई सन्देश नहीं है. आने वाले वक़्त में अफगानिस्तान के सीमावर्ती देशो के साथ बड़ी संख्या में अफगानी भारत आने की कोशिश करेंगे. ऐसे में भारत अतिथि देवो भवः का पालन करते हुए उनका स्वागत करेगा या उनको लौटा कर अपने छोटे दिल का परिचय देगा? जबकि बांग्लादेशी नागरिकों की समस्या से देश पहले ही उलझ रहा है. म्यांमार में तख्ता पलट के बाद वहां सेना की गोलियों से डर कर भारत में घुस आने वाले लोगों की संख्या का अनुमान अभी सरकार लगा नहीं पा रही है. ऐसे में अफगानिस्तान से आने वाले जनसैलाब का सामना भारत कैसे करेगा, यह बड़ा सवाल है.

भारत के लिए बड़ा ख़तरा

अफ़ग़ानिस्तान के ज्यादातर हिस्सों पर तालिबान के फैल जाने से भारत की चिंताएं काफी बढ़ गई हैं. बीते दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान की जमीन पर न सिर्फ भारी भरकम निवेश किया है, बल्कि भारत-अफगान संबंधों को नई धार दी है. साल 2001 से अब तक भारत ने अफगानिस्तान में तकरीबन 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया है. भारत का अफगानिस्तान में निवेश इंफ्रास्ट्रक्चर, सिंचाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और एनर्जी सेक्टर में है. भारत और अफगान के बीच गहरी दोस्ती सामरिक रूप से भी समय के साथ मजबूत हुई थी और यह पाकिस्तान के आंखों में खटकता रहा. एक समृद्ध, विकसित और लोकतांत्रिक अफगान का सपना इस समूचे क्षेत्र में था और यह उम्मीद भी थी कि अमेरिकी सेनाएं अपना मिशन पूरा करके ही वापस लौटेंगी, लेकिन अमेरिका ने तालिबान के आगे घुटने टेक दिए हैं. उसने अफगानिस्तान सरकार को मंझधार में छोड़ कर अपनी फौजें वापस बुला ली हैं. ऐसे में स्थितियां भारत के लिए काफी निराशाजनक हैं. उधर चीन तालिबान को सपोर्ट कर रहा है और पाकिस्तान भी अंदरखाने तालिबान के साथ है. पाकिस्तान का ज्यादातर निवेश तालिबान में रहा है, जिसके जरिये वह अफगानिस्तान की जमीं से भारत को उखाड़ फेंकने का सपना सजाता रहा.

अफगान सरकार की मदद में अमेरिका के बाद भारत ही ऐसा देश है जिसने कोई कसर नहीं छोड़ी, चाहे वहां की सड़क बनानी हो या संसद, भारत ने अपनी भूमिका बढ़-चढ़कर निभाई. कोविड के इस दौर में भी भारत ने दवाओं से लेकर वैक्सीन तक की सप्लाई में अहम भूमिका निभाई है. लेकिन, वक्त का पहिया अपनी चाल बदल चुका है. अफगानिस्तान में भारत का निवेश खतरे में है. इसकी चिंता रायसीना के माथे पर भी दिख रही है, जिसने अपनी अफगान नीति में परिवर्तन कर बैक डोर से तालिबान के साथ बातचीत का रास्ता भी खोला है, लेकिन मौजूदा वक्त में सारी कवायद ढाक के तीन पात की तरह दिखने लगी है. दूसरी चिंता भारत को यह है कि लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी समूहों को तालिबानियों की सरपरस्ती में फिर से अपनी जड़ें मजबूत करने और भारत पर आतंकी हमले करने के मौके उपलब्ध होंगे.

जम्मू कश्मीर, लद्दाख जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों में आतंकवाद फिर से सिर  उठाएगा. तालिबानी ताकत का बढ़ना भारत सहित जितने भी सीमावर्ती गैर-इस्लामिक देश हैं, सबके लिए चिंतनीय और खतरनाक है. तालिबान और पकिस्तान मिल कर भारत की शांति में खलल डालेंगे और इन दोनों को उकसाने के लिए उनका बाप चीन बैठा है. तालिबान मुस्लिम कट्टरवाद का पोषक है. लिहाजा वह अब भारत में संघ के समानांतर धार्मिक भावनाओं को भड़कायेगा. अलकायदा के मजबूत होने से आतंकी घटनाओं में बढ़ोत्तरी होगी. जिसके चलते भारत को अपनी सुरक्षा पर अतिरिक्त खर्च करना पड़ेगा. इससे ज़रूरी विकास कार्यों का प्रभावित होना लाजिमी है.

हाल ही में भारत में ड्रोन की आवाजाही लगातार देखी गयी है. ये ड्रोन सीमा पार से आ रहे हैं और यहाँ की रेकी करके वापस चले जाते हैं. भारत की इंटेलिजेंस इतनी नकारा है कि अब तक यह पता नहीं लग सका कि ड्रोन का संचालन कहाँ से और क्यों हो रहा है.

अफगानिस्तान से भारत का नाता पुराना

अफगानिस्तान को देखने का दुनिया का और हमारा नजरिया अलग है. यह क्षेत्र जिसे हमारा इतिहास गांधार, कंबोज के नाम से जानता रहा है, कभी भारत का ऐतिहासिक पश्चिमी प्रवेश द्वार था. हूण-कुषाण भी इन्हीं क्षेत्रों से आकर भारत में बसे. पर्वतीय दर्रों की सुरक्षा शताब्दियों से जिस गांधार का दायित्व रही, वह गांधार लगातार हुए मजहबी आक्रमण के फलस्वरूप आज कंधार बन गया. हमारी संस्कृति पर स्मृतिलोप का प्रभाव इतना भयंकर है कि हमें अपना इतिहास भी याद नहीं आता.

जब पाकिस्तान अस्तित्व में आ गया तो हमारे पास अफगानिस्तान के लिए कश्मीर के गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर ही एक रास्ता बचता था. उसके पाकिस्तान के पास जाने से वह रास्ता भी हाथ से निकल गया. पाकिस्तान से हुए युद्धों में हमारे पास गिलगित-बाल्टिस्तान को उसके कब्जे से मुक्त कराने के बड़े अवसर आए, पर न तो इच्छाशक्ति थी और न ही कोई रणनीतिक सोच. वरना आज चीन का सीपैक प्रोजेक्ट तो अस्तित्व में ही न आ पाता.

हमारे नेताओं ने कभी महसूस ही नहीं किया कि हमारा अफगानिस्तान से जमीनी संपर्क होना बहुत आवश्यक है, क्योंकि अब वहीं से होकर पश्चिमोत्तर एशिया के लिए रास्ता जाता है. पाकिस्तान के कारण ईरान-इराक से संपर्क बाधित हो जाना हमारी एक बड़ी समस्या थी, लेकिन उस पर कभी गौर नहीं किया गया. भारत का बंटवारा अफगानिस्तान का दुर्भाग्य लेकर आया. वह अफगानिस्तान जो कभी एशिया का चौराहा हुआ करता था, आज एक अविकसित जिहादी इस्लामिक देश बन कर रह गया है.

बौलीवुड गायक दलेर मेहंदी ने ‘जीमाअवार्ड’ से सम्मानित विश्व प्रसिद्ध राजस्थानी गायक मामे खान की बेेटी की शादी में दिया अनूठा उपहार

मशहूर राजस्थानी लोकगायक,शास्त्रीय गायक व बौलीवुड गायक मामे खान की बेटी की शादी में उपहार स्वर बौलीवुड गायक दलेर मेहंदी ने पारंपरिक ‘‘घूमर‘‘ मिश्रण के साथ स्वरचित विशेष राजस्थानी लोकगीत ‘‘आओजी..‘‘पेश किया

बौलीवुड के लोकप्रिय पाश्व गायक व राजस्थानी लोकगायक मामे खान किसी परिचय के मोहताज नही हैं. वह ‘लकबाय चांस’,‘आई एम’,‘नोवन किल्ड जेसिका’, ‘मिर्जिया’, सोन चिरैया’ सहित कई बौलीवुड फिल्मों के लिए पाश्व गायनकर शोहरत बटोर चुके हैं.

उन्हें विश्व  स्तर पर लोकप्रियता हासिल है और उन्हें सर्वश्रेष्ठ गायक के ‘जीमा’अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है. हाल ही में जैसलमेर से सत्तर किलोमीटर दूर मामे खान के पैतृक गांव सत्तो में उनकी बेटी की शादी थी. इस अवसर पर मामे खान ने मशहूर बौलीवुड गायक दलेर मेहंदी को खासतौर पर निमंत्रित किया था.

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इस खास मौके पर बेटी को उपहार देते हुए दलेर मेंहदी ने ‘घूमर’के साथ राजस्थानी लोक संगीत मिरित स्व रचित स्वागत गीत ‘‘आओ जी’’को गाया.इस शादी के अवसर पर जैसलमेर में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए पद्मश्री अनवर खान और राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता गाजी खान(जिन्होंने कुछ संगीतकारों,ग्रैमी विजेताओं और जाकिर हुसैन खान के साथ परफार्म कर चुके हैं.)सहित सैकड़ों महान शास्त्रीय गायक भी मौजूद थे.

जैसलमेर से लगभग 70 किलोमीटर दूर सत्तो गांव में दलेर मेहंदी ने कट्टर शास्त्रीय और लोक गायकों के साथ स्वरचित गीत ‘आओजी’ गाकर दर्शकों को मंत्र मुग्ध कर दिया.भीषण गर्मी और पसीना था,लेकिन लोगों में संगीत के प्रति प्रेम में ऊर्जा थी.राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता और लोक संगीतकार गाजी खान ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि,दलेर का गायन ‘‘सच्चा‘‘, ‘‘कठिन‘‘ और अपनी तरह का एक था. उन्होंने कहा-‘‘आरोहका रंग कुछ और या अवरोह का रंग बिलकुल अलग और बीच में कहां कहां से घूमकर इतना सुरीला गाना उलेर मेहंदी ने गायाहै.

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राजस्थानी लोकगीत ‘आओ जी’को तीन हिंदुस्तानी शास्त्रीय रागों में खुद दलेर मेहंदी ने लिखा और संगीत बद्ध किया है, जिनमें से प्रत्येक एक फुर्तीले पैरों वाली बैलेरीना की कृपा के साथ एक दूसरे में सम्मिश्रणथा.राग देस के स्वरोंसे शुरू होकर, गीत जय जयवंती से होकर राग सरस्वती में अंतर की ओर ले जाता है.मामे खान की बेटी को उसकी शादी में गीत उपहार में देने के लिए देलर मेहंदी और उनकी टीम ने इस गीत को रिकॉर्ड करने के लिए मिक्स मास्टर, शूट आदि के लिए चैबीसों घंटे काम किया था.

अपनी गायकी से लोगों को मंत्रमुग्ध कर देने वाले पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित और राजस्थानी लोकगायक अनवर खान भी दलेर मेहंदी की परफार्मेंस से मंत्र मुग्ध होकर श्रद्धा से उनके पैर छूते हुए कहा- ‘‘आपने अपने गायन से यहाँ की धरती को धन्य कर दिया … आप सरताज हो…मुझे एक ऐसे चेहरे की आवाज सुनकर बहुत अच्छा लगा, जिसे मैंने अब तक केवल टीवी और रेडियो पर देखा और सुना था.मैं दलेर को ‘भारतीय संगीत जगत गुरु‘ की उपाधि से सम्मानित करता हॅूं.‘‘

उसके बाद अनवर खान साहब पर दलेर मेहंदी ने चुटकी लेते हुए कहा-‘‘खान साहब का एक ‘सा‘ लगाने से ही आत्मा एक ग्राचित्त हो जाती है. ‘‘ मामे खान की बेटी की शादी में दलेर मेहंदी के साथ मौजूदगाजी खान ने कहा-“मैंने कई बार 15 से अधिक ग्रैमी पुरस्कार विजेताओं के साथ प्रदर्शन किया है,लेकिन मैं दलेर पाजी से हैरान हूं.तुम्हें पता है, यह मुश्किल है … हर स्थिर में राग अलग है और अंदर में राग अलग है … उसे मिश्रा नकर एक जगलाना वाकई मुश्किल है … और यही दलेर जी ने किया है.उन्होंने इसे उन लोगों के लिए स्वादिष्ट बना दिया है,जो शास्त्रीय संगीत से अनजान हैं.‘‘

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उधर मेजबान मामे खान भी अपनी बेटी के लिए दलेर मेंहदी द्वारा एक विशेष उपहार के रूप में ‘‘आओ जी‘‘पाकर अचंभित थे. उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था किपॉ पस्टार दलेर मेहंदी उनकी बेटी को आशीर्वाद देने के लिए इतनी दूर आजा सकते हैं और दिल को छूले ने वाले भाव के साथ अनूठा उपहार भी देंगे.मामे खान को दलेर मेंहदी के भोजन के प्रति प्रेम के बारे में पता था,इसलिए शादी समारोह की व्यस्तता होने के बावजूद मामे खान ने दलेर मेहंदी, उनके परिवार और उनकी टीम के लिए खाना बनाने के लिए कुछ समय निकाला.

दलेर मेहंदी ने राजस्थानी लोक कलाकारों की बहुत प्रशंसा की.उन्होने कहा-‘‘यह कलाकार हमारा गौरव हैं.यह हमारे देश की नींव हैं.उनकी भलाई और समृद्धि की देखभाल करना हमारी सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है.जो मुझे प्रतिध्वनित होता है,वह है उनकी मुस्कान,दृढ़ता,संगीत के लिए शुद्ध प्रेम.‘‘

Dance Deewane 3 : Sidharth Shukla के साथ ठुमके लगाती नजर आएंगी Shehnaaz Gill , वीडियो हुआ वायरल

बिग बॉस 13 से मशहूर हुईं सिद्धार्थ शुुक्ला और शहनाज गिल की जोड़ी पर्दे पर अब हमेशा छाई रहती है. दोनों एक -दूसरे को काफी ज्यादा पसंद भी करते हैं. हाल ही में दोनों बिग बॉस ओटीटी प्लेटफार्म पर साथ में नजर आएं थें, जहां इन्हें दर्शकों ने खूब सारा प्यार दिया था.

अब शहनाज ने एक वीडियो शेयर किया है जिसमें वह मेकअप करती नजर आ रही हैं, और आगे वीडियो में कह रही हैं कि वह बहुत जल्द सिद्धार्थ शुक्ला के साथ नजर आएंगी.

कलर्स टीवी पर प्रसारित होने वाले डांसिंग रियलिटी शो डांस दीवाने 3 इन दिनों खूब धूम मचाए हुए है. इस रियलिटी शो को दर्शकों का खूब सारा प्यार मिल रहा है. शायद यही वजह है कि माधुरी दीक्षित का डांसिग शो हर जगह छाया हुआ है.

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15 अगस्त के दिन डांसिग शो में देश के कई वीरों को सलामी देने के लिए बुलाया गया, इस दौरान टोक्यो ओलंपिक में मेडल जीतने वाली मीराबाई चानू भी नजर आई जिसे लोगों ने खूब सारा प्यार दिया. इस शो में मीराबाई चानू के सफर को दिखाया जाएगा, जिसे डांस के रूप में किया जाएगा.

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जिसे देखकर सभी शो में मौजूद कंटेस्टेंट और दर्शक भावुक होते नजर आएंगे. जब इस डांस को मीराबाई चानू ने देखा तो वह भी इमोशनल हो गई जिसके बाद शो कि होस्ट भारती उन्हें सहारा देती नजर आई. यह सब आपको अपकमिंग एपिसोड में देखने को मिलेगा.

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अब देखना यह है कि शहनाज गिल और सिद्धार्थ शुक्ला को इस शो में कितना प्यार मिलता है. खैर फैंस इन दोनों के डांस को देखने का लिए बेताब हैं.

छोटे नेताओं के बड़े हौसले

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का कांउटडाउन शुरू हो चुका है. मुकाबला समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच दिख रहा है. किसी भी दल को बहुमत ना मिलता देख कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी किंग मेकर बनने की भूमिका में खुद को खडा करना चाह रहे है. कुछ प्रमुख नेता शिवपाल यादव, ओमप्रकाश राजभर, डाक्टर संजय निषाद, जंयत चौधरी अपने अपने दलों की ताकत बढाना चाह रहे है. उत्तर प्रदेश से बाहरी नेता भी यहां के विधानसभा चुनावों में अपना महत्व बढाना चाह रहे है. इनमें बिहार के मुकेश साहनी, लालू यादव, संतोष मांझी और नीतीश कुमार, दिल्ली के संजय सिंह, आन्ध्र प्रदेश से ओवैसी प्रमुख है.

अधिकतर नेता उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के फैसले को अपनी अपनी नजर से देख रहे है. इनका सोचना है कि विधानसभा चुनाव का फैसला किसी भी एक दल के पक्ष में नहीं होगा. ऐसे में चुनाव परिणाम त्रिशकु विधानसभा के दिख रहे है. त्रिशकु विधानसभा होने के कारण छोटे दलों का महत्व बढ जायेगा. छोटे दलों के साथ मोल भाव शुरू होगा. ऐसे में छोटे दल और उनके नेता मोलभाव करने की ताकत में होगे. इनको महत्व दिया जायेगा. इन दलों के नेता ‘अपना दल-एस’ को मिले महत्व को देख रहे है. जिस ‘अपना दल-एस’ को 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद केन्द्र के मंत्रिमडंल से बाहर कर दिया गया था उसे 2022 के विधानसभा चुनावों को देखते हुये वापस केन्द्र सरकार में शामिल किया गया है.

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रिपीट नहीं हुआ है कोई मुख्यमंत्री:
राजनीतिक लेखक कुमार कार्तिकेय कहते है ‘उत्तर प्रदेश में मंडल कमीशन लागू होने के बाद 1993 से लेकर 2007 तक विधानसभा चुनाव के परिणाम त्रिशकु ही रहे है. किसी एक दल को बहुमत नहीं मिला तो कई दलों ने मिल कर सरकार बनाई. जिन दलों की राजनीतिक विचारधारा आपस में मेल नहीं खाती थी वह भी सरकार बनाने के मुददे पर एकजुट होते रहे है. इनमें सपा-बसपा-भाजपा सभी शामिल रहे है. मायावती जिस भाजपा का मनुवादी कहती थी उसके साथ या समर्थन से 3 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बने. मुलायम सिह यादव कल्याण सिंह के विचार कभी आपस में नहीं मिले. इसके बाद भी 2004 में कल्याण सिंह के समर्थन से मुलायम ने अपनी सरकार बनाई थी. सरकार बनाने के लिये विचारधारा और मुददो तक को दरकिनार किया गया है.’

2007 से 2017 के तीन विधानसभा चुनाव में जनता ने बसपा, सपा और भाजपा को बहुमत की सरकार बनाने लायक जीत दिला दी थी. उत्तर प्रदेश में अब तक कोई ऐसा मुख्यमंत्री नहीं रहा है जिसने बहुमत से 5 साल सरकार चलाई हो और अगले चुनाव में दोबारा सरकार बनाने में सफल हुआ हो. ऐसे में योगी आदित्यनाथ रिकार्ड बनायेगे ऐसा संभव नहीं लग रहा है. जिससे त्रिशकु विधानसभा और खरीद फरोख्त की राजनीति का प्रभाव बढेगा. ऐसे में छोटे दल और नेताओं की ताकत बढेगी. इस उम्मीद में तमाम बडे नेता और छोटे छोटे दल उत्तर प्रदेश में अपनी ताकत बढाने में जुट गये है.

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किंग मेकर बनने की चाहत:
बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन का हिस्सा रखने वाले वीआईपी यानि विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश साहनी फूलन देवी के सम्मान की राजनीति के बहाने अपना रास्ता देख रहे है. वह गंगा किनारें की सीटों पर चुनाव लडने की तैयारी कर रहे है. हिंदूस्तानी आवाम पार्टी ‘हम’ के सन्तोष मांझी भी उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल के 20-25 सीटों पर चुनाव लडने की तैयारी कर रहे है. दूसरे छोटे नेताओ को भी लग रहा है कि वह तोलमोल करने की हालत में होगे.

राजनीतिक समीक्षक विमल पाठक कहते है ‘छोटे दलों के नेता विधानसभा चुनाव के पहले अपनी ताकत दिखाने की कोशिश कर रहे है. जिससे बडे दलों से उनको तालमेल हो जाये. अगर चुनाव के पहले कोई समझौता न भी हो पाये तो अगर वह अपने कुछ विधायक बनवाने में सफल हो गये तो बिहार की तरह उत्तर प्रदेश की सत्ता में हिस्सेदारी मिल सकेगी. इस कारण वह अपने जातीय वोटबैंक को दिखाने कर प्रयास कर रहे है. बडे दल भी अपना लाभ देखकर ही समझौता करना चाहते है.यही कारण है कि यह छोटे नेता अभी अपना कोई एक रास्ता नहीं बना पा रहे है.’ छोटे दलों के नेताओं को तभी महत्व मिलता है जब बडे दलो की बहुमत नहीं मिलता है.

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2022 की त्रिशकु विधानसभा होने के आसार दिख रहे है. ऐसे में छोटे दल खुद को किंग मेकर की भूमिका में देख रहे है.

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