लेखक-रोहित
युवा सरकारी नौकरी का लालच सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे ज्यादातर ऐसे सक्षम युवा हैं जिन्हें संभव है कि सीट की कमी और सरकारी कुव्यवस्था के चलते सरकारी नौकरी नहीं मिलने वाली, लेकिन परिवार की एक बड़ी पूंजी अभी तक वे इन तैयारियों में उम्मीद के सहारे खर्च कर चुके हैं. ऐसे में प्रतियोगी युवाओं का भविष्य अंधकार में गहराता जा रहा है. ये वे युवा हैं जो सबकुछ दांव पर लगा कर एक अनिश्चित भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं. अक्तूबर 2017, वर्ल्ड इकोनौमिक फोरम की इंडिया इकोनौमिक समिट में उद्योग जगत के नामी लोगों ने देश में बढ़ती बेरोजगारी की स्थिति पर पहली बार मोदी कार्यकाल में खुल कर चिंता जताई थी. यह चिंता ऐसे समय में आई थी जब प्रधानमंत्री मोदी और उन की सरकार नोटबंदी की झूठी सफलता की कड़वी रेवडि़यां देश में बांटे जा रहे थे.
उस दौरान तमाम अर्थशास्त्री नोटबंदी को देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक बता रहे थे लेकिन प्रधानमंत्री पर मानो बहुमत का नशा सवार था. हैरानी यह कि देश के उद्योगपति जब रोजगार की स्थिति पर चिंता जता रहे थे तब उसी समिट में देश के रेल मंत्री पीयूष गोयल उसे ‘अच्छा संकेत’ कह रहे थे. वे कह रहे थे, ‘सचाई यह है कि आज का युवा नौकरी तलाश करने की होड़ में नहीं है. वह नौकरी देने वाला बनना चाहता है. आज देश का युवा उद्यमी बनना चाहता है जो एक अच्छा संकेत है.’ बेरोजगारी को ‘अच्छा संकेत’ कहने वाले पीयूष गोयल के पास अपनी बात का ही कोई आधार न था. उसी समय कई रिपोर्टें बता रही थीं कि जो थोड़ेबहुत लोग यदाकदा भी छोटामोटा उद्यम खोल लिया करते थे उन की स्थिति भी बदहाल होने को है. लेकिन यह बात सरकार के पल्ले नहीं पड़ी या वह इस बारे में सोचना भी नहीं चाहती थी. ऐसा शायद इसलिए भी क्योंकि देश के मुखिया ही रोजगार के नाम पर पढ़ेलिखे नौजवानों को पकौड़े तलने की नसीहत दे चुके थे. 2019 के आम चुनाव से पहले जब माहौल अर्थव्यवस्था, रोजगार व महंगाई को ले कर गरम हुआ और सरकार बुनियादी मुद्दों पर घिरने लगी तो भाजपा ने अंधराष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद को अपना हथियार बनाया.
ये भी पढ़ें- मृत्यु के बाद भी पाखंड का अंत नहीं
लेकिन वह फिर भी दोबारा पूर्ण बहुमत में आने को ले कर आशंकित थी क्योंकि देश में बेरोजगारी का ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा था और एनएसएससो का लीक डाटा कह रहा था कि ‘देश 45 साल की सब से अधिक बेरोजगारी दर झेल रहा है.’ इसी डर से सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी और उन की पार्टी भाजपा को अपने कोर युवा वोटरों के छिटकने का संशय था. नतीजतन, युवाओं को पूरे विश्वास में लेने के लिए सरकार ने बम्पर सरकारी नौकारियों की घोषणाएं करनी शुरू कर दीं. रेलवे, देश की सब से बड़ी सरकारी जौब प्रोवाइड करने वाली संस्था जिस में सब से ज्यादा प्रतियोगी कम्पीट करते हैं, को सरकार द्वारा हथियार बनायागया. लोकसभा चुनाव से ठीक पहले 23 जनवरी को रेल मंत्री पीयूष गोयल ने प्रैस कौन्फ्रैंस की और 2021 तक रेलवे में 4 लाख नौकरियां देने का वादा किया. जाहिर है, यह नुकसान की भरपाई का तरीका था जो सरकार सालोंसाल से रोजगार देने के मोरचे में विफल हो रही थी. उसी कौन्फ्रैंस से मिली जानकारी के अनुसार रेलवे में नौकारियों की 15.6 लाख की कुल स्ट्रैंथ में से लगभग 2 लाख 30 हजार पद पहले से ही खाली चल रहे थे, जिन्हें अगले 2 वर्षों में भरने के वादे किए जा रहे थे.
अधर में करोड़ों प्रतियोगी सरकार की लुभावनी घोषणा से देश के करोड़ों युवा प्रतियोगियों में उम्मीद जगी. इसी उम्मीद को और हवा देने के लिए रेलवे ने आम चुनाव से पहले युवाओं को लुभाने के लिए तकरीबन 1 लाख 3 हजार ग्रुप डी और 35,208 एनटीपीसी वैकेंसियों की रजिस्ट्रेशन प्रक्रिया भी चालू कर दी थी, जिस में लगभग देश के 2 करोड़ 40 लाख युवा प्रतियोगियों ने अपना रजिस्ट्रेशन कराया था. लेकिन पिछले 2 सालों के भीतर न तो कोई नई बहाली की गई और न ही एग्जाम लिया गया. प्रतियोगियों ने सरकार पर सोशल मीडिया के माध्यम से जब दबाव बनाया तो एनटीपीसी का 28 दिसंबर, 2020 से अप्रैल 2021 तक टायर वन का एग्जाम लिया गया जिस में से भी 20 लाख से अधिक प्रतियोगियों का एग्जाम दूसरे फेज के कोरोना के चलते टाल दिया गया. भले सरकार ने इस देरी का सारा ठीकरा कोरोना के मत्थे मढ़ा हो लेकिन सरकार के इन खोखले वादों के चलते करोड़ों प्रतियोगी आज बुरी तरह हताश हो चुके हैं. वे ट्विटर पर लाखों की संख्या में अपनी दिक्कतों को ट्रैंड करा रहे हैं लेकिन मजाल है कि सरकार का बाल भी बांका हो रहा हो. देश में सरकारी नौकरियां वैसे ही बची नहीं, जहां थोड़ीबहुत बची भी हैं वहां भरतियां नहीं, जहां भरती हो रही हैं वहां नियमितता नहीं. ऐसे में प्रतियोगी अवसादों में घिर रहे हैं.
ये भी पढ़ें- इंजीनियर बनकर भी हैं बेरोजगार
हर एग्जाम, हर रिजल्ट और हर सलैक्शन में होने वाली देरी की कीमत उन के पूरे परिवार को चुकानी पड़ रही है. ऐसे में बेरोजगारी तो बढ़ ही रही है उस से ज्यादा बेरोजगारों के नौकरी पाने के लिए होने वाले खर्चे भी बढ़ रहे हैं. एक तो बेरोजगारी, दूसरा बढ़ता खर्चा 30 वर्षीय अनिल बिहार के वैस्ट चंपारण जिले के बगहा गांव से संबंध रखते हैं. अनिल एक गरीब किसान परिवार से हैं जिन के पास मात्र 2 बीघा जमीन है, जिस में गुजारे लायक खाना और छोटेमोटे खर्चे लायक कमाई हो पाती है. अनिल ने अपनी हालत को कोसा तो जरूर लेकिन बाधक कभी नहीं माना था. उन्होंने 12वीं में अपने पूरे जिले से तीसरे पायदान के अंक अर्जित किए थे. अनिल पढ़ाई में होनहार थे तो घर वालों को उन के सफल होने की उम्मीद भी अधिक थी. सो, तंगहाली के बावजूद पूरे परिवार ने विश्वास के साथ अनिल को साल 2015 में ग्रेजुएशन के बाद दिल्ली शहर में सरकारी नौकरी की तैयारी करने भेज दिया था. लेकिन पिछले 5 वर्षों से लगातार अथक प्रयास करने के बावजूद सरकारी नौकरी में कुछ न कुछ बाधाएं उन्हें झेलनी पड़ रही हैं. अनिल को सरकारी नौकरी पाने में हो रही अनियमितता ने परेशान तो किया ही है साथ ही सरकारी नौकरी की तैयारी में बढ़ रहे खर्च ने भी हताहत कर दिया है. हालत यह थी कि कोरोना के इस नाजुक समय में वे कई निजी कंपनियों में छोटीमोटी ही सही नौकरी तलाश रहे थे लेकिन रोजगार न होने के चलते उन्हें हर जगह से निराश होना पड़ा. अब स्थिति यह है कि उन्हें फिर से वापस गांव जाने पर मजबूर होना पड़ रहा है. अनिल का मानना है कि आज स्थिति यह है कि अगर कोई प्रतियोगी सरकारी नौकरी की तैयारी करने आ रहा है तो उसे मैंटली प्रिपेयर हो कर आना पड़ेगा कि कम से कम 6-8 साल लगने ही हैं.
उसे पता होना चाहिए कि इतने सालों के लिए पैसा उस के परिवार के पास है या नहीं. साथ ही, अपने घरपरिवार को विश्वास दिलाना पड़ेगा कि इस बीच उसे कोई रोकेटोके न. अनिल बताते हैं शहरों में जिन का अपना मकान है वे तो थोड़ाबहुत परिवार के साथ मैनेज कर लेते हैं लेकिन ग्रामीण इलाकों से आने वाले प्रतियोगी को बहुत से खर्चों का सामना करना पड़ता है. ‘सरिता’ पत्रिका से बात करते हुए वे एक प्रतियोगी के खर्चों का हिसाब बताते हैं. ‘‘रूम का खर्चा सीधे मान कर चलिए तो शहर में मिनिमम 4 हजार रुपए होता ही है. इस से नीचे जाते हैं तो आप को छोटा सा सिंगल रूम मिलेगा, जिस में न किचन, न बाथरूम, न टौयलेट कुछ नहीं. आप को बाकी किराएदारों के साथ यह सब एडजस्ट करना ही पड़ेगा. यह मैं संत नगर, बुराड़ी, नरेला, करावल नगर जैसे दूरदराज इलाके की बात कर रहा हूं. ना, ना करते हुए भी बिजली का बिल 8-9 रुपए यूनिट कीमत से किराएदारों से लिया ही जाता है. इस में 500-1,000 रुपए कहीं नहीं गए. बीच दिल्ली में तो भूल जाइए, क्या हाल है.
ये भी पढ़ें- सही बातों का करें अनुकरण
‘‘चलो, कोई लड़का कमरे की स्थिति को ले कर एडजस्ट कर सकता है. हजार दो हजार ऊपरनीचे हो जाते हैं. लेकिन भूख को तो एडजस्ट नहीं किया जा सकता. 3 वक्त न सही, जीने के लिए 2 वक्त खाना तो पड़ेगा ही. मेरी तरह गांव से आए किसी भी लड़के के खाने का खर्च मान कर चलोगे तो मिनिमम 2,000 रुपए महीना लगता है. और यह तब की स्थिति है जब वह हाथ भींच (एडजस्ट) कर चले. यह कोई हवाहवाई बात नहीं है. ‘‘आज 180 रुपए लिटर सरसों के तेल का भाव है. यह तेल पहले 80 रुपए का था, माने सीधा 100 रुपए का अंतर है. कोई भी दाल ले लो, 100 रुपए से नीचे नहीं है. दोनों टाइम अगर दालचावल ही खाए तो इतना खर्च बैठ जाता है. तेल इतना महंगा है कि इस में मांसमच्छी खाना ही भूल जाओ. कोई पसंद का खाना महीने में खा लिया तो बहुत है. पहले जो सिलैंडर 400 रुपए में आता था उसे आज ब्लैक में 1,000-1,200 रुपए में भराना पड़ रहा है. इस कारण रोटी नहीं बनाते हैं, जो खाना जल्दी बन जाए वही बना लेते हैं. फिर, जिस इलाके में मैं हूं वहां पानी साफ नहीं है.
30 रुपए में पानी का जार लेना पड़ता है. इस का महीना खर्चा ही 200-250 रुपए आ जाता है, खर्चे क्या गिनाएं कई हैं, बालदाढ़ी, साबुनशैम्पू, तेलकंघा, आनाजाना. इस मारे मेरे जैसे बहुत से प्रतिभागी ज्यादा दोस्तीयारी नहीं रखते हैं ताकि फालतू के खर्चे न बढ़ जाएं और क्या बताएं आप को खर्च के बारे में?’’ अनिल ने अभी तक एसएससी सीजीएल के लिए 3 बार (2017, 2018, 2019) और सीएचएसएल का एक बार अटैंम्प कर चुके हैं. वहीं 2019 रेलवे फौर्म (ग्रुप डी और एनटीपीसी) भी भर चुके हैं. सीजीएल 2017 में अनिल प्रीक्वालीफाई नहीं कर पाए थे. 2018 में अनिल एसएससी का एग्जाम क्लीयर करतेकरते रह गए थे. 2019 की एसएससी भरती, जिस का एग्जाम एक साल देरी के बाद 2020 में लिया गया, में अनिल प्री और मैंस का एग्जाम तो अच्छे से पास कर चुके हैं पर परिणाम की नौर्मलाइजेशन प्रक्रिया से खुश नहीं हैं. इसे वे काफी भेदभाव वाला बताते हैं. ऐसे ही रेलवे 2019 का भी सबकुछ अटका हुआ है और 2020 एसएससी सीजीएल का भी. इस सरकारी अटकमअटकी में अनिल का पूरा भविष्य अटक गया है. हर माह के साथ न सिर्फ उन के परिवार की सेविंग खत्म हो रही हैं, बल्कि खर्चों का बो झ भी बढ़ता जा रहा है.
अनिल कहते हैं, ‘‘आज एक प्रतिभागी अगर शहर में पढ़ने आया है तो पढ़ाई पर खर्च करेगा ही. नौर्मल सी बात है, हर महीना करंट अफेयर की किताबों का खर्च ही 100 रुपए आ जाता है. इस के बाद अलगअलग सब्जैक्ट के नोट्स, बुक्स, न्यूज पेपर मिला कर 500-700 रुपए महीना बैठ जाता है. सिंगल कमरा है और 2-3 लोग मिल कर रह रहे हैं तो लाइब्रेरी का 500-1,000 रुपए खर्च बैठ जाता है. आप दिल्ली की किसी भी कोचिंग की फीस पता कर के आइए, आप को एक सब्जैक्ट की कोचिंग की फीस 5 हजार से 30 हजार रुपए महीने तक मिलेगी. ‘‘मुखर्जी नगर में भारती सर से मैथ पढि़ए, 22 हजार रुपए फीस है. वे बत्रा कौम्प्लैक्स में पढ़ाते हैं. ऐसे ही गोविंद सर हैं, वे 10-12 हजार रुपए के आसपास फीस में पढ़ाते हैं. ऐसी भी कोचिंग हैं जहां बाउंसर रखे होते हैं भीड़ को कंट्रोल करने के लिए. तो सम झ ही सकते हैं, कुछ तो होगा वहां. बहुत से औनलाइन पढ़ रहे हैं, वहां भी अच्छीखासी फीस वसूली जा रही है. हां, बहुत लोग खुद से तैयारी करते हैं लेकिन उन का सक्सैस रेट कम होता है.
गाइडैंस नहीं मिल पाती, इसलिए सालोंसाल एग्जाम देने के बाद भी फेल होने की संभावना अधिक रहती है. ‘‘मैं अपने परिवार का फर्स्ट जनरेशन लर्नर हूं, इसलिए सब से ज्यादा जरूरत मेरे जैसे प्रतिभागियों को होती है कोचिंग की. लेकिन समस्या यह कि इसी हिस्से के लिए पैसों का अभाव होता है और यही हिस्सा कोचिंग जौइन नहीं करने देता.’’ वे बताते हैं, ‘‘कुल मिला कर मान के चलिए कि 10-12 हजार रुपए लग जाते हैं. यह मैं अपने जैसों की बात कर रहा हूं, जबकि मैं न सिगरेट का शौकीन हूं न नुक्कड़ पर चाय पीने की सोच पाता हूं और न ही 3 वर्षों से कोई कपड़ा खरीदा. कुछ लड़के होते हैं जिन्हें परिवार से अच्छी मदद मिलती है. उन से पूछिए, उन का महीने का कितना लग जाता है. अगर कोई बिना िझ झक अच्छे से तैयारी करे तो मिनिमम 20-25 हजार रुपया महीना खर्च हो जाए.’’ अनिल आगे कहते हैं, ‘‘सरकारी नौकरी के लिए मेरा कैरियर दांव पर लगा हुआ है. मेरे साथसाथ मेरा परिवार, जो मु झे सपोर्ट कर रहा है, मु झे पढ़ाने के अलावा वे लोग और कुछ नहीं कर रहे. परिवार वालों का सबकुछ दांव पर लगा है.
यानी उन की सारी इनकम मु झ पर ही खर्च हो रही है. मेरा अगर कुछ नहीं होता है तो मेरे पीछे मेरी फैमिली, मु झे पढ़ाने वाले भैया की फैमिली की भी सारी मेहनत खराब हो जाएगी. उन का भविष्य भी खराब होगा. इसलिए मेरे लिए बहुत जरूरी है कि मेरा कुछ हो. सरकारी नौकरी में मेरा नाम आए, तभी फैमिली ग्रोथ कर पाएगी.’’ देश में सिर्फ अनिल का ही मामला नहीं है बल्कि करोड़ों प्रतियोगी इस समय इसी उठापटक से जू झ रहे हैं. भविष्य की अथाह असुरक्षा नौजवानों को खाए जा रही है. कुछ अनिल जैसा हाल दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके में रहने वाले अंकुश का है. वे अपने परिवार के साथ 5 हजार रुपए महीना किराए के कमरे में रहते हैं. हाल ही में कोरोना से उबरा अंकुश और उस का परिवार अब फाइनैंशियल दिक्कतों का सामना कर रहा है. पिता की नौकरी कोरोनाकाल में लौकडाउन के चलते छूट गई है. अंकुश का सोचना है कि उस ने जो एसएससी सीजीएल और रेलवे के फौर्म भरे हैं उन का जल्दी एग्जाम और रिजल्ट घोषित हो ताकि जल्दी लाइफ की चीजें क्लीयर हो सकें.
भरती से ज्यादा रिटायर यदि सरकार के चुनावी वादों को दरकिनार कर दिया जाए तो कई सालों से यह ट्रैंड साफ देखा जा सकता है कि भरतियों में होने वाली देरी कोई आकस्मिक नहीं है बल्कि यह पूरी तरह से योजनाबद्ध तरीके से की जा रही है और सालदरसाल सरकारें इन प्रक्रियाओं को जानबू झ कर टरकाती भी हैं. रेलवे में बढ़ रही अनियमितता अब अधिक बढ़ती जा रही है और इस अनियमितता का शिकार हर साल करोड़ों प्रतियोगी होते हैं जिन्हें न सिर्फ देरी से एग्जाम, रिजल्ट और जौइनिंग से समस्या हो रही है बल्कि प्रशासनिक चरित्र से भी समस्या होने लगी है. ऐसा साफ देखा भी जा सकता है कि भरती होने वालों से अधिक संख्या रिटायर होने वालों की है. 2019 के आम चुनाव से पहले सूचना के अधिकार कानून से मिली जानकारी के अनुसार भारतीय रेलवे में जितने लोग भरती होते हैं उस से कहीं अधिक संख्या में हर साल कर्मचारी सेवानिवृत्त हो जाते हैं. आरटीआई में पिछले दशक में सेवानिवृत्त होने वाले लोगों की संख्या और रोजगार के अवसरों की संख्या के बारे में पूछा गया जिस का डाटा हैरान करने वाला था.
नतीजे बता रहे थे कि 2008 से 2018 तक लगातार जितने लोगों को नौकरी मिली, उस से ज्यादा लोग रिटायर हुए. परिणामस्वरूप, रिक्त पदों की संख्या सालदर साल बढ़ती रही. डाटा कहता है कि 2008 में 42,149 कर्मचारी रिटायर हुए, फिर वर्ष 2008-9 में 13,870 भरती और 40,290 रिटायर हुए, वहीं 2009-10 में 41,372 रिटायर तो महज 11,825 ही भरती हुए, 2010-11 में 43,372 रिटायर और 5,913 भरती, 2011-12 में 44,360 रिटायर और 23,292 भरती, 2012-13 में 68,728 रिटायर और 28,767 भरती, 2013-14 में 60,754 रिटायर और 31,805 भरती, 2014-15 में 59,990 रिटायर और 15,191 भरती, 2015-16 में 53,654 रिटायर और 27,995 भरती, 2016-17 में 58,373 रिटायर और 19,587 भरती, 2017-18 में 19,700 रिटायर हुए. लगातार यह ट्रैंड देखने में आया कि सरकार ने भरती प्रक्रिया में भारी अनदेखी की है. वहीं चुनाव से पहले सरकार ने 90 हजार की रेलवे भरती इन्हीं युवाओं को लुभाने को की थी जो इस समय दरदर ठोकरें खाने को मजबूर हैं. एसएससी व अन्य का भी यही हाल देश में ठीक यही हाल उन करोड़ों प्रतियोगियों का है जो एसएससी व दूसरी सरकारी नौकरियों की तैयारी कर रहे हैं. एसएससी की तैयारी कर रहे छात्रों का हर साल एकदो वर्ष देरी से चल रहा है.
हमारी पत्रिका ने जितने भी एस्पिरैंट से बात की वे सभी प्रतियोगी देरी और लगातार कम होती सीट्स को ले कर परेशान थे. वे सभी मांग कर रहे थे कि एसएससी हर वर्ष अपना निश्चित कैलेंडर घोषित करे और परीक्षाओं के परिणाम एक वर्ष के भीतर घोषित हो जाएं. अगस्त 2017 में 8,134 एसएससी सीजीएल की सीट्स पर जिन प्रतियोगियों ने एग्जाम दिया था उन की जौइनिंग होतेहोते 2021 आ गया. इस पूरे प्रोसैस को लगभग 4 साल का वक्त लग गया. ऐसे ही 2018 के एसएससी सीजीएल के जो एग्जाम जून में हुए उस का रिजल्ट आतेआते 3 साल लग गए. 2019 के प्री मैन्स के फाइनल रिजल्ट अब जा कर 2021 में घोषित हुए हैं, बाकी अन्य प्रक्रियाओं के साथ जौइनिंग कब तक होगी, कुछ कहा नहीं जा सकता. वहीं 2020 का साल तो खुद ही अधर में लटका रहा है. उस में प्रतियोगियों को सरकार से उम्मीद नहीं कि इस के एग्जाम कब तक हों. साल दर साल सरकारी नौकरियों में भारी कटौती हो रही है. सरकार चुनाव के वक्त जीतने के लिए बम्पर नौकरियां निकालती है, उस के बाद ठंडी पड़ जाती है.
एसएससी और बीपीएसई की लगातार हर साल सीटें कम होती रही हैं. 2012 में एसएससी की 16,119 सीटें थीं, 2013 में 16,114, 2014 में 15,549, 2015 में 8,561, 2016 में 10,661, 2017 में 8,134, 2018 में 11,271, 2019 में 8,582 और 2020 में 6,506 हैं. यानी देखा जा सकता है कि वर्ष 2012 के मुकाबले कितनी प्रतिशत की गिरावट है. यही हाल बैंक, पीओ का भी है जहां पहले के मुकाबले भयंकर तरीके से सीटें घटा दी गई हैं. सरकार की इन अनियमितताओं और तमाम देरियों के चलते आज प्रतियोगी न सिर्फ हताश हैं बल्कि अपनी बेरोजगारी, ऊपर से बढ़ते खर्चे और खुद को परिवार पर अतिरिक्त बो झ सम झ कर टूट रहे हैं. साल दर साल चल रही तैयारियों में प्रतियोगी का लाखों खर्च हो जा रहा है. एक अच्छा रोजगार पाने के लिए आम परिवार को घर के गहने, जमीन गिरवी रखने और कर्जा लेने की नौबत आ पड़ी है. कहां क्या दिक्कत हम ने जितने भी प्रतियोगियों से संपर्क साधा, सभी सरकार की गलत आर्थिक नीतियों को इस उठापठक का जिम्मेदार मान रहे थे.
एक प्रतियोगी अनिल का कहना है, ‘‘सरकार निजीकरण की बात करती है और इसे बड़े लैवल पर बढ़ावा भी देने में लगी है. काफी सैक्टर इसी प्रकरण में उस ने निजी हाथों में बेच दिए हैं. वहीं कुछ लोग हैं जो बिना सोचे इस काम में इन का समर्थन करने लगते हैं. सोचिए, इस समय कोरोना आया है. आप बताइए जितने भी हौस्पिटल हैं वे सारे प्राइवेट होते तो क्या गरीब आदमी कहीं भी अपना इलाज कराने का विश्वास रख पाता. मु झे कुछ हो जाएगा तो मैं खुद प्राइवेट हौस्पिटल अफोर्ड नहीं कर सकता. फोर्टिस जैसे हौस्पिटल घंटों के हिसाब से चार्ज करते हैं. पता करें वहां एक बैड का क्या चार्ज लगता है? पहले मरीज की प्रोफाइल देखते हैं, फिर एडमिट करते हैं. ऐसे में कोई गरीब आदमी वहां इलाज के बारे में सोच सकता है? दूसरी चीज, अगर ये सब प्राइवेट हाथों में देंगे तो सरकारी नौकरियां कहां बचेंगी, सुविधाएं कहां बचेंगी? यह तो हमें भी सम झना जरूरी है. इस सरकार के शासन के दौरान सरकारी नौकरियां लगातार इसी के चलते घट भी रही हैं. ‘‘2014 में मैं ने भी इन्हें वोट दिया था. लेकिन अब सम झ रहे हैं.
धीरेधीरे सब सम झ रहे हैं कि यह सरकार गलत है. हमारी जीडीपी का हाल बुरा है. नौकरियां गायब हैं. यह पार्टी (भाजपा) राष्ट्रवाद का नाम लेती है. लेकिन इस की आड़ में यह अपने लिए ही काम कर रही है. सरकार जो फालतू खर्चा करती है उस की बड़े स्तर पर आलोचना होती है लेकिन वह किसी की सुनने को तैयार नहीं. यह सरकार देश चलाने में सक्षम नहीं.’’ देश में करोड़ों युवा इस समय रोजगार की राह ताक रहे हैं. कई ऐसे हैं जो सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे थे लेकिन अब वहां से निराशा हाथ लगने के बाद प्राइवेट जौब की तरफ मूव करना चाहते हैं. लेकिन समस्या दूसरी भी कि इन में कई वे युवा हैं जो अपने गांव की जमीन को गिरवी रख शहरों में तैयारी करने आए थे, कई घरों के गहने गिरवी रख सपने संजो शहर आए थे, कई लाखों रुपया तैयारी करने में खर्च कर चुके हैं. हकीकत यह है कि आज भारत की अर्थव्यवस्था इतनी चरमरा गई है कि अगले 4-5 वर्षों में भी बेहतर रोजगार के बारे में सोचना किसी गुनाह से कम नहीं.
इन में से ज्यादातर ऐसे सक्षम युवा होंगे जिन्हें सीट की कमी और सरकारी कुव्यवस्था के चलते सरकारी नौकरी नहीं मिलने वाली, लेकिन परिवार की एक बड़ी पूंजी अभी तक वे सरकारी नौकरी की उम्मीद के चलते खर्च कर चुके होंगे. आज लोग दरदर की ठोकरें खा रहे हैं. सबकुछ बंद पड़ा है. सामान्य होने का कोई निश्चित समय नहीं दिखाई देता. कई आंकड़े बेरोजगारी को ले कर पहले से ही हल्ला मचा चुके हैं. कइयों ने हालात और ज्यादा बुरे होने की बात कही है. बारबार लगने वाले लौकडाउन अर्थव्यवथा की रीढ़ तोड़ने में लगे हैं. लोगों के पास खर्च करने को पैसा नहीं है. जिन के पास थोड़ाबहुत है वे बुरे समय के लिए बचाना चाह रहे हैं. ऐसे में प्रतियोगी युवाओं का भविष्य गहराता जा रहा है. ये वे युवा हैं जो सबकुछ दांव पर लगा कर एक अनिश्चित भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं. लेकिन इन की जिम्मेदारी लेने वाला अब कोई नहीं है.