16 अगस्त को खेला होबे के राष्ट्रीय आयोजन के पीछे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की मंशा विपक्ष की सर्वमान्य नेता बनने की कम, चुनावप्रचार के दौरान अपनी बेइज्जती का बदला लेने की ज्यादा दिख रही है. दिल्ली से ले कर अहमदाबाद तक मोदी गैंग को घेर रहीं ममता भाजपाइयों के जख्मों पर नमक छिड़क रही हैं.
दिलचस्प बात पश्चिम बंगाल के क्लबों को मुफ्त एक लाख फुटबौल बांटने की घोषणा है. कम्युनिस्टों के दौर में वहां क्लब पौलिटिक्स खूब फलीफूली थी, तब लोग मुंह से बोलते थे पर अब लातों से बोलेंगे. इस घोषणा से 2 मई के बाद वायरल हुआ एक संपादित वीडियो प्रासंगिक हो जाता है जिस में ममता कुरसी पर बैठेबैठे फुटबौल फेंक रही हैं जो नरेंद्र मोदी के कमजोर होते कंधे पर जा कर लगती है और वे लड़खड़ा कर गिर पड़ते हैं. इस बार कैसे बचते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा.
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माया का ब्राह्मण प्रेम
तमाम धर्मग्रंथ निर्देश देते हैं कि ब्राह्मण जन्मना पूज्य हैं और दलित जन्मना तिरस्कृत हैं. इसी मनुवादी व्यवस्था को कोसकोस कर बसपा प्रमुख मायावती सत्ता के शिखर तक पहुंची थीं जो अब स्वीकारने लगी हैं कि भला है बुरा है जैसा भी है मेरा ब्राह्मण मेरा देवता है. इसीलिए, दलित उन से छिटक भी गया है. 2007 के चुनाव में उन का सोशल इंजीनियरिंग का टोटका चल गया था. लेकिन 2022 में पुराने फार्मूलों से नए समीकरण हल होने के आसार दिख नहीं रहे.
बसपा उत्तर प्रदेश में जगहजगह ब्राह्मण सम्मेलन कर ब्रह्मा के मुंह और पैर को जोड़ने की कोशिश कर रही है. इन सम्मेलनों में अभिषेक और पूजापाठ सहित तमाम कर्मकांड बसपा के गुरु वशिष्ठ सतीश मिश्रा कर रहे हैं. शुक्र बस इस बात का है कि इन आयोजनों में दलितों से ब्राह्मणों के पैर नहीं धुलाए जा रहे.
दलित मंदिर जाते ही क्यों हैं
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मोक्षदायिनी नगरी गया में तेजी से दलित इसाई बन रहे हैं. इस पर पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मां झी ने तुक की यह बात तो कही कि हिंदू धर्म में अपमान होता है इसलिए लोग धर्मांतरण करते हैं. गौरतलब है कि नैली पंचायत के दुबहल गांव के महादलित चर्चों में जाने लगे हैं जिस से बिहार की सियासत गरमा रही है.
दलित समुदाय के जीतनराम ने बेतुकी बात यह कही कि जब भी वे किसी मंदिर में जाते हैं तो उसे धोया जाता है. जब ऐसा होता है तो वे और दूसरे दलित अपमानित होने को मंदिर जाते ही क्यों हैं और क्या चर्चों में जा कर प्रार्थना करने से उन की बदहाली दूर हो जाएगी? इस सवाल का जवाब मां झी शायद ही दे पाएं. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी पुरी के जगन्नाथ मंदिर में पहली बार 18 मार्च, 2018 को बेइज्जत हुए थे तो दूसरी बार 22 मार्च, 2019 को उन्होंने मंदिर को एक लाख रुपए का दान दिया था. जीतनराम को भी बेइज्ज्ती से बचने के लिए यही शौर्टकट अपनाना चाहिए और दलितों की वाकई चिंता उन्हें है तो इस तबके को शिक्षा और स्वाभिमान का पाठ पढ़ाना चाहिए जो उन के भगवा खूंटे से बंधे रहने के साथ नामुमकिन है.
कांवड़ यात्रा
समुद्र मंथन से निकला जहर पीने के बाद शंकरजी की हालत बिगड़ने लगी तो उन के परमभक्त राक्षस राजा रावण से देखा नहीं गया. उस ने कांवड़ में जल भर कर अभिषेक शुरू कर दिया जो सालोंसाल चला. चल अब भी रहा है लेकिन इसे ले कर समारोहपूर्वक यात्राएं निकलने लगी हैं जिन में हुड़दंग ज्यादा होता है. जगहजगह कांवडि़यों का सम्मान सैनिकों से भी ज्यादा होता है. हिंदीभाषी राज्यों में यह करोड़ों का धार्मिक इवैंट होता है जिसे फुरसतिए युवा खूब एंजौय करते हैं.
कोरोना के कहर के चलते इस बार यह यात्रा प्रतिबंधित है और जगहजगह पुलिस जांच करती नजर आई कि कहीं कोई शिव भक्त चोरी से गंगाजल न ले जाए. अब वक्त है कि खर्चीली कांवड़ यात्रा के रिवाज पर हमेशा के लिए रोक लगाई जाए.