2001 में न्यूयार्क शहर के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले के बाद से अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में तैनात हैं. 2011 में अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन के खात्मे के बाद अफगानिस्तान में तालिबान को पूरी तरह साफ़ कर देने का इरादा लेकर अब तक जमी रही अमेरिकी सेना अफगानों को इस बात की तसल्ली देती रही कि अब सब कुछ ठीक है. अफगानिस्तान आतंक और खून खराबे का दौर से आज़ाद हो चुका है. अब वहां सिर्फ और सिर्फ विकास और अमन चैन होगा. अमेरिका के दिए इसी विश्वास के चलते दुनिया के कई देशों ने अफगानिस्तान में तमाम विकास योजनाओं में अपनी दौलत का खूब निवेश किया. इसमें भारत भी पीछे नहीं रहा. मगर अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान छोड़ते ही तालिबान एक ज़लज़ले की तरह आया और मात्र 44 दिन में उसने पूरे अफगानिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया. अफगानी राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी अहमदज़ई की हुकूमत के परखच्चे उड़ गए और अपनी जान बचा कर भागने के सिवा उनके आगे कोई रास्ता ना बचा.

अफगानिस्तान में जम्हूरियत की आस दम तोड़ चुकी है. खूंखार तालिबानी लड़ाकों ने राजधानी काबुल में घुस कर राष्ट्रपति भवन को अपने कब्ज़े में ले लिया है. तालिबान के राजनीतिक कार्यालय का प्रमुख मुल्ला अब्दुल गनी बरादर काबुल पहुंच चुका है. तालिबान अब पूरी तरह अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज़ होने जा रहा है. माना जा रहा है कि अब्दुल गनी बरादर अफगानिस्तान का नया राष्ट्रपति होगा. गौरतलब है कि अब्दुल गनी बरादर तालिबान के शांति वार्ता दल का वही नेता है, जो अभी तक कतर की राजधानी दोहा में राजनीतिक समझौते की कोशिश करने का दिखावा कर रहा था.

ये भी पढ़ें- छोटे नेताओं के बड़े हौसले

मुल्ला उमर के सबसे भरोसेमंद कमांडरों में से एक अब्दुल गनी बरादर को 2010 में दक्षिणी पाकिस्तानी शहर कराची में सुरक्षाबलों ने पकड़ लिया था, लेकिन बाद में तालिबान के साथ डील होने के बाद पाकिस्तानी सरकार ने 2018 में उसे रिहा कर दिया था. बरादर उन चार लोगों में से एक है जिसने 1994 में अफगानिस्तान में तालिबान आंदोलन की शुरुआत की. उसकी अहमियत को इस बात से समझा जा सकता है कि 2010 में गिरफ्तारी के समय उसे तालिबान के नेता मुल्ला मोहम्मद उमर के सबसे भरोसेमंद कमांडरों में से एक माना जाता था. इसके साथ ही उसको दूसरा-इन-कमांड भी कहा जाता था. वह उन प्रमुख आतंकियों में से एक है जो अमेरिका और अफगान सरकार के साथ बातचीत का समर्थन करता है.

बरादर की मध्यस्थता में अमेरिका और तालिबान के बीच 2018 से ही बातचीत हो रही थी. फरवरी, 2020 में इसके नतीजे के तौर पर दोनों पक्षों में एक शांति समझौता भी हुआ जिसमें तय हुआ कि अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी सेनाओं को वापस बुलाएगा और तालिबान अमेरिकी सेनाओं पर हमला रोक देगा.

ये भी पढ़ें- तालिबानी आतंक को फूल देती दुनिया

समझौते के अन्य वादों के मुताबिक तालिबान, अल-कायदा और अन्य आतंकी संगठनों को अपने नियंत्रण वाले इलाकों में पनपने नहीं देगा और अफगान सरकार से शांति स्थापित करने के लिए बातचीत करेगा. अमेरिका ने समझौते के तहत सेनाओं की वापसी शुरू की, लेकिन तालिबान ने शांति समझौते को ताक पर रखते हुए अफगानिस्तान के इलाकों पर कब्जा शुरू कर दिया.

अमेरिका की देन है तालिबान  

दसअसल अफगानिस्तान में तालिबान का उदय अमेरिका के प्रभाव से कारण ही हुआ था. अब वही तालिबान अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों के लिए बड़ा सिरदर्द बन गया है. 1980 के दशक में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान में फौज उतारी थी, तब अमेरिका ने ही स्थानीय मुजाहिदीनों को हथियार और ट्रेनिंग देकर जंग के लिए उकसाया था. नतीजन, सोवियत संघ तो हार मानकर चला गया, लेकिन अफगानिस्तान में एक कट्टरपंथी आतंकी संगठन तालिबान का जन्म हो गया. इसके साये में कई आतंकी गुट पनपे, जिसमें से एक अलकायदा भी है, जिसके प्रमुख ओसामा बिन लादेन ने 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर जैसे भयावह काण्ड को अंजाम दिया था. ओसामा के खात्मे के लिए अफगानिस्तान की जमीन पर उतरी अमेरिकी फौजें अगले बीस साल तक जमी रहीं.

हैरतअंगेज़ बात यह है कि बीते बीस साल से अमेरिका ये दावा करता रहा कि उसने तालिबान को तहस नहस कर दिया है. उसके ज्यादादर लड़ाके मारे जा चुके है और जो बच गए है वे अफगान सीमा पर या सीमावर्ती देशों में जा छिपे हैं. जबकि हकीकत ये है कि ना तो तालिबान कभी कमजोर हुआ और ना उसके पास लड़ाकों की कमी हुई. बल्कि इस दौरान उसने अपने लड़ाकों को और ज़्यादा प्रशिक्षित किया, अनुशासित किया और अत्याधुनिक हथियारों से लैस किया. यही नहीं तालिबान ने चीन, पाकिस्तान और अन्य इस्लामिक देशों का बेहतर समर्थन भी हासिल किया. अफगानिस्तान पर जितनी आसानी से तालिबानी कब्ज़ा हुआ है उससे अब ये बात भी साफ़ हो गयी है कि दुनिया का बाप अब अमेरिका नहीं, बल्कि चीन है.

ये भी पढ़ें- भारत भूमि युगे युगे- 16 अगस्त को खेला होबे

चीन के तालिबान प्रेम का हाल यह है कि पंद्रह दिन पहले चीनी विदेश मंत्री ने तालिबानी प्रतिनिधि मंडल से बीजिंग में मुलाक़ात की थी.  तालिबान वैश्विक मंच पर वैधता के जिस शिखर पर पहुँचना चाहता है उसका बेस कैंप चीन बनाकर दे रहा है. पाकिस्तान अपने कंधे पर ऑक्सीजन और ड्राई फ्रूट्स लाद कर उसके साथ चलने के लिए तैयार खड़ा है.

औरतों पर सख्त है तालिबान

अफगानिस्तान में जो हो रहा है वह लोकतंत्र की लड़ाई नहीं है. वह अरब स्प्रिंग भी नहीं है. वह क्लैश ऑफ़ सिविलाइजेशन भी नहीं है. यह शुद्ध रूप से मज़हबी और सियासती सत्ता की लड़ाई है जिसके मूल में इस्लाम है. कट्टरपंथी तालिबान शरीया क़ानून का सख्त हिमायती है. वह दाढ़ी टोपी और हिजाब का सख्ती से पालन करवाने वाला है. तालिबान औरतों को सेक्स टॉय से ज़्यादा कुछ नहीं समझता, लिहाज़ा अब अफगानिस्तान में औरतों की स्थिति बदतर होने वाली है. उन्हें एक बार फिर अपने काम धंधे और पढ़ाई लिखाई छोड़ कर घरों में कैद रहना होगा. हिजाब में खुद को लपेट कर उन्हें शरिया कानून का सख्ती से पालन करना होगा.

अफगानिस्तान में औरतों पर जुल्म की शुरुआत हो चुकी है.  तालिबान कल्चर कमीशन ने एक चिट्ठी जारी कर कथित तौर पर 15 से 45 साल की अकेली महिलाओं और विधवाओं की सूची बनाकर देने का फरमान जारी किया है ताकि उनसे तालिबानी लड़ाके शादी कर सकें. इसके बाद से अफगानिस्तान के आम लोगों में अफरातफरी मची हुई है. आम लोग अपनी बच्चियों के भविष्य को लेकर खौफजदा हैं.

तालिबान ने अब तमाम इलाकों से महिलाओं का नाम हटाने की मुहिम शुरू कर दी है. इसमें दुकानों या पार्लर या कहीं भी महिलाओं की तस्वीर नहीं होगी. किसी विज्ञापन में महिला नहीं दिख सकती. यहां तक कि अगर कोई पार्क या दुकान या संस्थान किसी महिला के नाम पर है, तो उसे भी बदलकर कुछ और किया जाएगा. ये सब साल 2001 से पहले भी होता रहा है.

भारत की चिंता बढ़ी

तालिबान की कट्टरपंथी सोच और जुल्म से बचने के लिए अब बड़ी संख्या में अफगानी जनता वहां से पलायन कर रही है. जो लोग आधुनिक सोच रखते हैं और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं, अपनी बेटियों को तालिबानी लड़ाकों के हाथों लुटने से बचाना चाहते हैं वे भला अफगानिस्तान में तालिबान की पाबंदियों में कैसे रह पाएंगे? वे निश्चित ही परिवार सहित अन्य देशों का रुख करेंगे. कनाडा और अमेरिका ने अफगानी नागरिकों को अपने यहाँ पनाह देने की बात कही है, मगर भारत जो अफगानिस्तान का पुराना दोस्त रहा है, की तरफ से ऐसा कोई सन्देश नहीं है. आने वाले वक़्त में अफगानिस्तान के सीमावर्ती देशो के साथ बड़ी संख्या में अफगानी भारत आने की कोशिश करेंगे. ऐसे में भारत अतिथि देवो भवः का पालन करते हुए उनका स्वागत करेगा या उनको लौटा कर अपने छोटे दिल का परिचय देगा? जबकि बांग्लादेशी नागरिकों की समस्या से देश पहले ही उलझ रहा है. म्यांमार में तख्ता पलट के बाद वहां सेना की गोलियों से डर कर भारत में घुस आने वाले लोगों की संख्या का अनुमान अभी सरकार लगा नहीं पा रही है. ऐसे में अफगानिस्तान से आने वाले जनसैलाब का सामना भारत कैसे करेगा, यह बड़ा सवाल है.

भारत के लिए बड़ा ख़तरा

अफ़ग़ानिस्तान के ज्यादातर हिस्सों पर तालिबान के फैल जाने से भारत की चिंताएं काफी बढ़ गई हैं. बीते दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान की जमीन पर न सिर्फ भारी भरकम निवेश किया है, बल्कि भारत-अफगान संबंधों को नई धार दी है. साल 2001 से अब तक भारत ने अफगानिस्तान में तकरीबन 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया है. भारत का अफगानिस्तान में निवेश इंफ्रास्ट्रक्चर, सिंचाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और एनर्जी सेक्टर में है. भारत और अफगान के बीच गहरी दोस्ती सामरिक रूप से भी समय के साथ मजबूत हुई थी और यह पाकिस्तान के आंखों में खटकता रहा. एक समृद्ध, विकसित और लोकतांत्रिक अफगान का सपना इस समूचे क्षेत्र में था और यह उम्मीद भी थी कि अमेरिकी सेनाएं अपना मिशन पूरा करके ही वापस लौटेंगी, लेकिन अमेरिका ने तालिबान के आगे घुटने टेक दिए हैं. उसने अफगानिस्तान सरकार को मंझधार में छोड़ कर अपनी फौजें वापस बुला ली हैं. ऐसे में स्थितियां भारत के लिए काफी निराशाजनक हैं. उधर चीन तालिबान को सपोर्ट कर रहा है और पाकिस्तान भी अंदरखाने तालिबान के साथ है. पाकिस्तान का ज्यादातर निवेश तालिबान में रहा है, जिसके जरिये वह अफगानिस्तान की जमीं से भारत को उखाड़ फेंकने का सपना सजाता रहा.

अफगान सरकार की मदद में अमेरिका के बाद भारत ही ऐसा देश है जिसने कोई कसर नहीं छोड़ी, चाहे वहां की सड़क बनानी हो या संसद, भारत ने अपनी भूमिका बढ़-चढ़कर निभाई. कोविड के इस दौर में भी भारत ने दवाओं से लेकर वैक्सीन तक की सप्लाई में अहम भूमिका निभाई है. लेकिन, वक्त का पहिया अपनी चाल बदल चुका है. अफगानिस्तान में भारत का निवेश खतरे में है. इसकी चिंता रायसीना के माथे पर भी दिख रही है, जिसने अपनी अफगान नीति में परिवर्तन कर बैक डोर से तालिबान के साथ बातचीत का रास्ता भी खोला है, लेकिन मौजूदा वक्त में सारी कवायद ढाक के तीन पात की तरह दिखने लगी है. दूसरी चिंता भारत को यह है कि लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी समूहों को तालिबानियों की सरपरस्ती में फिर से अपनी जड़ें मजबूत करने और भारत पर आतंकी हमले करने के मौके उपलब्ध होंगे.

जम्मू कश्मीर, लद्दाख जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों में आतंकवाद फिर से सिर  उठाएगा. तालिबानी ताकत का बढ़ना भारत सहित जितने भी सीमावर्ती गैर-इस्लामिक देश हैं, सबके लिए चिंतनीय और खतरनाक है. तालिबान और पकिस्तान मिल कर भारत की शांति में खलल डालेंगे और इन दोनों को उकसाने के लिए उनका बाप चीन बैठा है. तालिबान मुस्लिम कट्टरवाद का पोषक है. लिहाजा वह अब भारत में संघ के समानांतर धार्मिक भावनाओं को भड़कायेगा. अलकायदा के मजबूत होने से आतंकी घटनाओं में बढ़ोत्तरी होगी. जिसके चलते भारत को अपनी सुरक्षा पर अतिरिक्त खर्च करना पड़ेगा. इससे ज़रूरी विकास कार्यों का प्रभावित होना लाजिमी है.

हाल ही में भारत में ड्रोन की आवाजाही लगातार देखी गयी है. ये ड्रोन सीमा पार से आ रहे हैं और यहाँ की रेकी करके वापस चले जाते हैं. भारत की इंटेलिजेंस इतनी नकारा है कि अब तक यह पता नहीं लग सका कि ड्रोन का संचालन कहाँ से और क्यों हो रहा है.

अफगानिस्तान से भारत का नाता पुराना

अफगानिस्तान को देखने का दुनिया का और हमारा नजरिया अलग है. यह क्षेत्र जिसे हमारा इतिहास गांधार, कंबोज के नाम से जानता रहा है, कभी भारत का ऐतिहासिक पश्चिमी प्रवेश द्वार था. हूण-कुषाण भी इन्हीं क्षेत्रों से आकर भारत में बसे. पर्वतीय दर्रों की सुरक्षा शताब्दियों से जिस गांधार का दायित्व रही, वह गांधार लगातार हुए मजहबी आक्रमण के फलस्वरूप आज कंधार बन गया. हमारी संस्कृति पर स्मृतिलोप का प्रभाव इतना भयंकर है कि हमें अपना इतिहास भी याद नहीं आता.

जब पाकिस्तान अस्तित्व में आ गया तो हमारे पास अफगानिस्तान के लिए कश्मीर के गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर ही एक रास्ता बचता था. उसके पाकिस्तान के पास जाने से वह रास्ता भी हाथ से निकल गया. पाकिस्तान से हुए युद्धों में हमारे पास गिलगित-बाल्टिस्तान को उसके कब्जे से मुक्त कराने के बड़े अवसर आए, पर न तो इच्छाशक्ति थी और न ही कोई रणनीतिक सोच. वरना आज चीन का सीपैक प्रोजेक्ट तो अस्तित्व में ही न आ पाता.

हमारे नेताओं ने कभी महसूस ही नहीं किया कि हमारा अफगानिस्तान से जमीनी संपर्क होना बहुत आवश्यक है, क्योंकि अब वहीं से होकर पश्चिमोत्तर एशिया के लिए रास्ता जाता है. पाकिस्तान के कारण ईरान-इराक से संपर्क बाधित हो जाना हमारी एक बड़ी समस्या थी, लेकिन उस पर कभी गौर नहीं किया गया. भारत का बंटवारा अफगानिस्तान का दुर्भाग्य लेकर आया. वह अफगानिस्तान जो कभी एशिया का चौराहा हुआ करता था, आज एक अविकसित जिहादी इस्लामिक देश बन कर रह गया है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...