उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का कांउटडाउन शुरू हो चुका है. मुकाबला समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के बीच दिख रहा है. किसी भी दल को बहुमत ना मिलता देख कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी किंग मेकर बनने की भूमिका में खुद को खडा करना चाह रहे है. कुछ प्रमुख नेता शिवपाल यादव, ओमप्रकाश राजभर, डाक्टर संजय निषाद, जंयत चौधरी अपने अपने दलों की ताकत बढाना चाह रहे है. उत्तर प्रदेश से बाहरी नेता भी यहां के विधानसभा चुनावों में अपना महत्व बढाना चाह रहे है. इनमें बिहार के मुकेश साहनी, लालू यादव, संतोष मांझी और नीतीश कुमार, दिल्ली के संजय सिंह, आन्ध्र प्रदेश से ओवैसी प्रमुख है.

अधिकतर नेता उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के फैसले को अपनी अपनी नजर से देख रहे है. इनका सोचना है कि विधानसभा चुनाव का फैसला किसी भी एक दल के पक्ष में नहीं होगा. ऐसे में चुनाव परिणाम त्रिशकु विधानसभा के दिख रहे है. त्रिशकु विधानसभा होने के कारण छोटे दलों का महत्व बढ जायेगा. छोटे दलों के साथ मोल भाव शुरू होगा. ऐसे में छोटे दल और उनके नेता मोलभाव करने की ताकत में होगे. इनको महत्व दिया जायेगा. इन दलों के नेता ‘अपना दल-एस’ को मिले महत्व को देख रहे है. जिस ‘अपना दल-एस’ को 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद केन्द्र के मंत्रिमडंल से बाहर कर दिया गया था उसे 2022 के विधानसभा चुनावों को देखते हुये वापस केन्द्र सरकार में शामिल किया गया है.

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रिपीट नहीं हुआ है कोई मुख्यमंत्री:
राजनीतिक लेखक कुमार कार्तिकेय कहते है ‘उत्तर प्रदेश में मंडल कमीशन लागू होने के बाद 1993 से लेकर 2007 तक विधानसभा चुनाव के परिणाम त्रिशकु ही रहे है. किसी एक दल को बहुमत नहीं मिला तो कई दलों ने मिल कर सरकार बनाई. जिन दलों की राजनीतिक विचारधारा आपस में मेल नहीं खाती थी वह भी सरकार बनाने के मुददे पर एकजुट होते रहे है. इनमें सपा-बसपा-भाजपा सभी शामिल रहे है. मायावती जिस भाजपा का मनुवादी कहती थी उसके साथ या समर्थन से 3 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बने. मुलायम सिह यादव कल्याण सिंह के विचार कभी आपस में नहीं मिले. इसके बाद भी 2004 में कल्याण सिंह के समर्थन से मुलायम ने अपनी सरकार बनाई थी. सरकार बनाने के लिये विचारधारा और मुददो तक को दरकिनार किया गया है.’

2007 से 2017 के तीन विधानसभा चुनाव में जनता ने बसपा, सपा और भाजपा को बहुमत की सरकार बनाने लायक जीत दिला दी थी. उत्तर प्रदेश में अब तक कोई ऐसा मुख्यमंत्री नहीं रहा है जिसने बहुमत से 5 साल सरकार चलाई हो और अगले चुनाव में दोबारा सरकार बनाने में सफल हुआ हो. ऐसे में योगी आदित्यनाथ रिकार्ड बनायेगे ऐसा संभव नहीं लग रहा है. जिससे त्रिशकु विधानसभा और खरीद फरोख्त की राजनीति का प्रभाव बढेगा. ऐसे में छोटे दल और नेताओं की ताकत बढेगी. इस उम्मीद में तमाम बडे नेता और छोटे छोटे दल उत्तर प्रदेश में अपनी ताकत बढाने में जुट गये है.

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किंग मेकर बनने की चाहत:
बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन का हिस्सा रखने वाले वीआईपी यानि विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश साहनी फूलन देवी के सम्मान की राजनीति के बहाने अपना रास्ता देख रहे है. वह गंगा किनारें की सीटों पर चुनाव लडने की तैयारी कर रहे है. हिंदूस्तानी आवाम पार्टी ‘हम’ के सन्तोष मांझी भी उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल के 20-25 सीटों पर चुनाव लडने की तैयारी कर रहे है. दूसरे छोटे नेताओ को भी लग रहा है कि वह तोलमोल करने की हालत में होगे.

राजनीतिक समीक्षक विमल पाठक कहते है ‘छोटे दलों के नेता विधानसभा चुनाव के पहले अपनी ताकत दिखाने की कोशिश कर रहे है. जिससे बडे दलों से उनको तालमेल हो जाये. अगर चुनाव के पहले कोई समझौता न भी हो पाये तो अगर वह अपने कुछ विधायक बनवाने में सफल हो गये तो बिहार की तरह उत्तर प्रदेश की सत्ता में हिस्सेदारी मिल सकेगी. इस कारण वह अपने जातीय वोटबैंक को दिखाने कर प्रयास कर रहे है. बडे दल भी अपना लाभ देखकर ही समझौता करना चाहते है.यही कारण है कि यह छोटे नेता अभी अपना कोई एक रास्ता नहीं बना पा रहे है.’ छोटे दलों के नेताओं को तभी महत्व मिलता है जब बडे दलो की बहुमत नहीं मिलता है.

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2022 की त्रिशकु विधानसभा होने के आसार दिख रहे है. ऐसे में छोटे दल खुद को किंग मेकर की भूमिका में देख रहे है.

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