हम में से कईयों ने अल्बानिया का नाम सुना होगा लेकिन हम में से कुछ ही जानते होंगे कि अल्बानिया दुनिया का पहला इस्लामिक देश है जिसने खुद को नास्तिक देश घोषित कर रखा है . बात साल 1976 की है जब वहां के तानाशाह कहे जाने बाले मुखिया एनवर होक्साह ने धार्मिक कृत्यों को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया था . पार्टी आफ लेबर के इस नेता का मानना था कि कार्ल मार्कस ने यह गलत नहीं कहा था कि धर्म एक अफीम है जिससे पूरा देश बर्बाद हो जाता है . अल्बानिया का सदियों पुराना और आज का भी इतिहास कुछ भी कहे पर यह बात जाहिर है कि यूरोप के गरीब देशों में शुमार किया जाना बाला अल्बानिया कम से कम अफगानिस्तान जैसी बदहाली का शिकार कभी नहीं हुआ .

अफगानिस्तान अब पूरी तरह तालिबान के कब्जे में है जिसके बाबत सारी दुनिया अमेरिका को कोस रही है मानो उसने अफगानिस्तान में खुशहाली और लोकतंत्र बहाली का ठेका और जिम्मेदारी ले रखी हो जबकि राष्ट्रपति जो वाइडेंन बेहद तल्ख़ लहजे में कह चुके हैं कि सवाल अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी से पूछा जाना चाहिए कि वे देश छोड़कर क्यों भागे और अमेरकी सैनिक क्यों लगातार अपनी जान जोखिम में डालें .

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इस बयान को बारीकी से समझना बहुत जरुरी है जिसका सार यह है कि यह कोई सैन्य युद्ध नहीं है बल्कि एक धार्मिक उन्माद है , इस्लामिक कट्टरवाद की इंतिहा है फिर क्यों अमेरिका से यह उम्मीद की जाए कि वह किसी के मजहवी फटे में अपनी टांग अडाएगा . तालिबान कोई देश या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य सेना नहीं है वह चरमपंथियों का गिरोह है जो अपना आत्मविश्वास बनाये रखने और बढ़ाने अल्लाह ओ अकबर के नारे लगाता है .

पूरी दुनिया से आवाजें ये भी आ रही हैं कि मानवता खतरे में है इसलिए कुछ करना चाहिए लेकिन करना क्या चाहिए यह किसी को नहीं सूझ रहा क्योंकि बकौल जो वाइडेंन अफगानी सेना ने बिना लड़े ही हार मान ली . यह हार दरअसल में इस्लाम की जीत है , थोड़े कम कट्टरवादियों पर बहुत ज्यादा और बड़े कट्टरपंथियों की फतह है .

जीता तो मजहब –

इस लड़ाई में हारा तो कोई नहीं मजहब जीता है लेकिन तथाकथित मानवतावादी हल्ला मचा रहे हैं कि अब औरतों पर धार्मिक अत्याचार होंगे , अफगानिस्तान में बुर्के की दुकानें खुलने लगी हैं, अब लड़कियों और बच्चों को पढ़ने नहीं दिया जायेगा , मर्दों को एक ख़ास किस्म की दाढ़ी रखना पड़ेगी और पांचो वक्त की नमाज पढ़ना पड़ेगी आतंकवाद बढ़ेगा बगैरह बगैरह …

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इसके इतर भारत के नजरिये से कहा जा रहा है कि चीन और पाकिस्तान ने तालिबान को समर्थन इसलिए दे दिया कि भारत को कश्मीर में घेरा जा सके . अब ये भले लोग शायद ही बता पायें कि धारा 370 के बेअसर होने के बाद वहां कौन सी शांति स्थापित हो गई थी . कहाँ के कश्मीरी पंडित और मुसलमान ईद और दीवाली पर गले मिलने लगे थे . हाँ मिलिट्री तैनात है इसलिए आतंकवादी गतिविधियाँ जरुर रुक रुक कर हो रहीं थीं ठीक वैसे ही जैसे नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सली वारदातें होती हैं . अफगानिस्तान की दिक्कत यह है या थी कि खुद वहां के लोग इस्लामिक यानी धर्म राज्य चाहते थे इसलिए ख़ामोशी से सारा तमाशा देखते रहे . वे खुद मजहबी बंदिशें और धार्मिक गुलामी चाहते थे तो अमेरिका या कोई दूसरा क्या कर लेता .यह धर्म की जकडन और उसके उसूलों में जीने की आदिम ख्वाहिश हर देश में मौजूद है जिसका लोकतंत्र से कहने और दिखाने भर का वास्ता है .

न्यूज़ चेनल कल से दिन रात काबुल से भाग रहे लोगों का एक दृश्य दिखा रहे हैं जिसमें अफगानी हवाई अड्डे पर बस अड्डे जैसे खड़े और भाग रहे हैं .  कुछ तो हवाई जहाज की छत पर लटके हैं और तीन लोग उड़ते हवाई जहाज से गिरकर अपनी जान गवां चुके हैं . इस भीड़ में  मर्द ज्यादा हैं जो अपने बीबी बच्चों को अल्लाह ताला और तालिबानों के भरोसे छोड़ कर भाग रहे हैं .

ये भागते लोग हमदर्दी के बजाय बड़ी चिंता का विषय होने चाहिए कि ये जहां भी जायेंगे वहीँ तालिबानी संस्कार ले जायेंगे .  इन्होने कट्टरता देखी है इसलिए ये कट्टरता ही फैलायेंगे तो यह क्यों न सोचा और कहा जाए कि अगर ये अमेरिका गए तो तालिबानी एजेंट क्यों नहीं बन सकते . भागने के बजाय ये तालिबानों यानी खुद से ज्यादा धार्मिक उन्मादियों से लड़ने की हिम्मत दिखा पाते तो लगता कि ये धार्मिक घुटन नहीं चाहते . अफगानिस्तान को नर्क बनाने में ये तालिबानियों से कम जिम्मेदार और गुनाहगार नहीं . ये वही आम लोग हैं जो इस्लाम का जरा सा भी टूटता उसूल देखकर हाय हाय करने लगते हैं .

दरअसल में कट्टरवाद की भी केटेगिरियां होने लगी हैं जिसके तहत लोग अब जीतेजी मोक्ष चाहने लगे हैं फिर चाहे वे किसी भी देश या धर्म के हों अंतर उनकी मानसिकता में कुछ नहीं  . उन्हें सुकून धर्म , उसकी किताबों और धर्म स्थलों में ही मिलता है . ये लोग जब तक दान देकर पहले धर्म गुरुओं की फ़ौज खड़ी नहीं कर लेते इन्हें मानव जीवन व्यर्थ लगता है फिर मुफ्त की खाने बाले ये पंडे ,मौलवी , पादरी और मुनि बगैरह धर्म के धंधे को और हवा देते हैं जिसके नतीजे अफगानिस्तान जैसे नजारों से सामने आते हैं तो पहले लोग थोडा घबराते हैं फिर हारे हुए जुआरी की तरह कहीं और धर्म और उसकी दहशत को विस्तार देने चले जाते हैं .

खुश तो बहुत होगे तुम आज ..

अफगानिस्तान की हालत पर कुछ देश और लोग ही घडियाली आंसू बहा रहे हैं लेकिन धर्म के दुकानदार मन ही मन खुश हैं और शायद सोच भी रहे हों कि काश हमारे यहाँ भी ऐसे धार्मिक लड़ाके होते तो हर चीज जो अभी आसानी से नहीं मिल रही बैठे बिठाये मिलती जिसमें दौलत  शोहरत और औरत भी शामिल है . लोगों में जितना डर और दहशत धर्म और उसके योद्धाओं का फैलता है उतना ही वे दान दक्षिणा देते हैं और पैर भी छूते हैं .

भारत सरकार की प्रतिक्रिया गौर करने लायक है जिसने औरतों और बच्चों के शोषण की बात कही . यह दरअसल में एक धार्मिक अनुभव है कि धर्म ज्यादातर शोषण औरतों का ही करता है . भारत सरकार ने मर्दों की स्थिति पर चिंता जाहिर नहीं की क्योंकि उसे मालूम है कि धर्म की आड़ में पुरुष ही शोषण करता है स्त्री तो भोग्या , जायदाद और पाँव की जूती होती है इसलिए किस्मत बाले हैं अफगानी मर्द जो तालिबानों की अधीनता स्वीकारते उनके साथ जीतेजी जन्नत का सुख भोगेंगे .

इस अंतर्राष्ट्रीय हादसे पर कोई पंडा पुजारी दुखी नहीं है क्योंकि हो वही रहा है जो धर्म कहता है . हमारा देश इसका अपवाद नहीं है जहां एक मामूली सी ऐक्ट्रेस दिशा परमार इसलिए ट्रोल होती है क्योंकि वह शादी के बाद मांग में सिंदूर नहीं भरती . यहाँ करीना कपूर को इसलिए सोशल मीडिया पर मार पड़ती हैं कि वह अपने दूसरे बेटे का नाम विष्णु प्रसाद या शंकर लाल नहीं रखती बल्कि जहांगीर रख लेती है . इन दिनों देश में यह और ऐसी कई बातें  हराम हैं  .

तो सरकार को वाकई अगर चिंता करनी है तो अपने देश की औरतों और बच्चों की करे कि कहीं वे भी तो तालिबानियों के हत्थे नहीं चढ़ रहे . हमें अगर अफगानिस्तान नहीं बनना है तो धार्मिक कट्टरवाद से बचकर रहना होगा . लेकिन इसके लिए उस धार्मिक होती सरकार को अपनी सोच बदलनी होगी जो हर बात में धर्म को आगे रखती है और धर्म के ठेकेदारों को शह देती रहती है . रही बात अफगानिस्तान की तो नैतिकता और मानवता का खोखला ढोल पीटना एक वेबजह का पाखंड है जिसके दिखते सच के आगे एक अमेरिका को छोड़ सभी देश घुटने टेक चुके हैं वह भी इसलिए कि वहां प्रेसिडेंट डोनाल्ड ट्रम्प नहीं बल्कि जो वाइडेंन हैं .

अगर अफगानिस्तान नब्बे के दशक में ही अल्बानिया से सबक ले लेता तो वहां के चंद अमन पसंद लोगों को ये दुर्दिन नहीं देखना पड़ते . वहां के मौजूदा हालात पर तो मशहूर शायर मोमिन  का यह शेर ही कहा जा सकता है –

उम्र तो सारी कटी इश्क- ए – बुताँ में `मोमिन`

आखिरी वक्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे .

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