भारत में कोरोना की दूसरी लहर में सारे मृत्युपरांत कर्मकांड धरे के धरे रह गए. संस्कार तो दूर, पंडे तो मृतक के नजदीक तक न फटके. लेकिन इन सब से सबक लेने की जगह लोग फिर से पाखंड की इस फंतासी में फंसते जा रहे हैं और हैरानी यह कि इन में पढ़ेलिखे बढ़चढ़ कर हैं. हमारे देश में अंधविश्वास और पाखंड की अमरबेल आधुनिक, सभ्य व पढ़ेलिखे समाज के मध्यवर्ग पर बुरी तरह फैली हुई है. समाज को जागरूक करने का दावा करने वाला शिक्षित मध्यवर्ग बातें भले ही विज्ञान के आविष्कारों की करता हो परंतु सदियों से चली आ रही कुरीतियों व परंपराओं को तोड़ने का साहस वह आज भी नहीं कर पाया है. विज्ञान के साथ वैज्ञानिक नजरिया न होने के कारण समाज में एक अजीब विरोधाभास दिखाई दे रहा है.

एक तरफ विज्ञान और टैक्नोलौजी की उपलब्धियों का तेजी से प्रसार हो रहा है तो दूसरी तरफ लोगों में वैज्ञानिक नजरिए के बजाय अंधविश्वास, कट्टरपंथ, पोंगापंथ जैसी अंधविश्वासी परंपराएं तेजी से पांव पसार रही हैं. कोरोना जैसी महामारी ने इन अंधविश्वासी परंपराओं के मौजूदा स्वरूप में परिवर्तन तो किया है मगर लोग मौका मिलते ही फिर दकियानूसी परंपराओं के जाल में फंसे नजर आते हैं. अप्रैलमई 2021 में भारत में कोरोना की स्थिति भयावह थी. परिवार के लोग कोरोना से मरने वाले का अंतिम संस्कार तक नहीं कर पा रहे थे, लेकिन सिर्फ 2 माह बाद ही सामान्य हालात होने के बाद सबकुछ भूल कर वही लोग फिर से अंधभक्ति और पाखंड में लग गए. समाज को इन परंपराओं और पाखंड की ओर ढकेलने का काम धर्म के ठेकेदार पंडेपुजारियों द्वारा बखूबी कर रहे हैं. धर्म के ठेकेदार लोगों को बताते हैं कि मरने वाले की आत्मा की शांति के लिए ये कर्मकांड नहीं करोगे तो मरने वाले को स्वर्ग का टिकट कैसे मिलेगा.

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