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ड्रग्स केस में फंसे शक्ति कपूर के बेटे सिद्धांत कपूर, पढ़ें खबर

बॉलीवुड के मशहूर एक्टर शक्ति कपूर (Shakti Kapoor) के बेटे सिद्धांत कपूर (Siddhanth Kapoor)  पर ड्रग्स लेने का गंभीर आरोप लगा है. रिपोर्ट के अनुसार, एक पार्टी में कथित तौर पर सिद्धांत कपूर ड्रग्स का सेवन करते पाए गए. इसके बाद उन्हें बेंगलुरु में हिरासत में लिया गया है.

बताया जा रहा है कि सिद्धांत कपूर इस समय पुलिस की हिरासत में हैं. सिद्धांत कपूर ने ‘चुप चुप के’, ‘भूल भुलैया’, ‘भागम भाग’ जैसी फिल्मों में बतौर सहायक निर्देशक काम किया है. जबकि उन्होंने ‘जज्बा’, ‘हसीना पारकर’ और ‘चेहरे’ जैसी बॉलीवुड फिल्मों में अहम किरदार निभाया है.

 

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हाल ही में शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान को नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने क्लीन चिट दे दी थी. उन्हें पिछले साल एक क्रूज ड्रग्स बस्ट मामले में गिरफ्तार किया गया था. आर्यन खान ने पिछले साल लगभग एक महीना जेल में बिताया था और बाद में उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया.

 

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एक रिपोर्ट के मुताबिक शक्ति कपूर से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन बात नहीं हो सकी. सिद्धांत की बात करें तो वो कई फिल्मों में असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर काम कर चुके हैं.

 

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शाह परिवार को खरी-खोटी सुनाएगी बरखा, अनुपमा देगी करारा जवाब

टीवी सीरियल ‘अनुपमा’ में लगातार ट्विस्ट देखने को मिल रहा है. शो के बिते एपिसोड में आपने देखा कि बरखा ने बापूजी और वनराज की जमकर बेईज्जती की. तभी अनुपमा आती है और वह बापूजी से माफी मांगती है. तो दूसरी तरफ वह बरखा को भी जवाब देती है. शो के आनेवाले एपिसोड में खूब धमाल होने वाला है. आइए बताते है, शो के नए एपिसोड के बारे में.

शो के आने वाले एपिसोड में आप देखेंगे कि बापूजी उसे कुछ तोहफे देंगे. बरखा शाह हाउस से आया हुआ सारा सामान टेबल के नीचे रखवाएगी और यह सब वनराज देख लेगा. बरखा भी देख लेगी कि वनराज ने उसे ऐसा करते हुए देख लिया है.

 

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शो में आप ये भी देखेंगे कि अनुज अनुपमा से पूछेगा कि वनराज को घर के बाहर क्यों रोक लिया गया था. अनुपमा बताएगी कि शाह परिवार का नाम गेस्ट लिस्ट में नहीं था. अनुज और शाह परिवार की बॉन्डिंग देख बरखा को जलन होगी.  तभी अंकुश उसे शांत करवाने की कोशिश करेगा लेकिन बरखा का पारा बढ़ता जाएगा.

 

शो में ये भी दिखाया जाएगा कि अनुपमा पूजा करने की बात करेगी  तभी बरखा घर और बिजनेस को लेकर अनाउंसमेंट करेगी. अनुज सबको बताएगा कि घर और बिजनेस की असली मालकिन अनुपमा है.

 

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अनुपमा जैसे ही कुछ कहने लगेगी, बरखा म्यूजिक ऑन कर देगी और सबको डांस करने के लिए कहेगी. अनुपमा यह देखकर थोड़ा परेशान होगी और जाकर म्यूजिक बंद कर देगी और भजन लगा देगी. शो के आने वाले एपिसोड में आप देखेंगे कि सारा और अधिक नजदीक आएंगे. दूसरी तरफ बरखा अनुपमा से प्रॉपर्टी छीनने के लिए चाल चलेगी.

कपल्स के बीच उम्र का फासला

अब से कुछ दशकों पहले तक कपल्स की उम्र में 10-12 साल का अंतर होना आम बात थी. तब सोच यह थी कि पति के उम्र में बड़े होने से पत्नी पर उस का वर्चस्व कायम रहेगा. लड़की के मातापिता भी अपनी बेटी से बड़ी उम्र के लड़के से संबंध करने के इच्छुक रहते थे. लेकिन आज लड़कियां अच्छी पढ़ाईलिखाई कर रही हैं और जौब भी कर रही हैं तो उन की सोच बदल गई है. अब वे अपने मातापिता की पसंद से नहीं, अपनी पसंद से शादी करना चाहती हैं. वे ऐसे लड़के को अपना जीवनसाथी बनाना चाहती हैं जो हमउम्र हो या 2 साल तक का अंतर हो.

पतिपत्नी की उम्र के बीच कितना अंतर होना चाहिए, इस बारे में सब की राय भिन्नभिन्न हो सकती है. लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो दोनों के बीच उम्र का अधिक अंतर नहीं होना चाहिए.

बेहतर हो कि यह अंतर केवल दोतीन साल से अधिक न हो. आमतौर पर लड़का ही बड़ा होता है लेकिन यह जरूरी नहीं. लड़की भी लड़के से दोतीन साल बड़ी हो सकती है. फिल्मी दुनिया में तो यह अंतर कोई माने नहीं रखता. ऐसे उदाहरण भी हैं जिन में अभिनेता अपनी अभिनेत्री पत्नी से 20 साल बड़ा

या अभिनेत्री पत्नी अपने अभिनेता पति से

4-5 साल बड़ी है.

यदि पतिपत्नी के बीच उम्र का अधिक अंतर नहीं है तो दोनों में वैचारिक समानता रहेगी. अधिक अंतर होने से उन के विचार मेल नहीं खा सकते, क्योंकि दोनों की सोच में अंतर होता है. यदि 15-20 साल का अंतर है तो उन में वैचारिक सामंजस्य स्थापित होना बड़ा मुश्किल है.

यदि पति, पत्नी से 15-20 साल बड़ा है तो जाहिर है उस की जवानी भी इतने समय पहले ढलेगी, जबकि पत्नी का यौवन चरम स्तर पर होगा. ऐसे में उन के बीच शारीरिक संबंधों को ले कर समस्या पैदा हो सकती है.

बुढ़ापे की ओर अग्रसर पति अपनी पत्नी को संतुष्ट करने में अपनेआप को असमर्थ पाते हैं. ऐसे में वे सैक्स से बचने के लिए तब बिस्तर पर जाते हैं जब पत्नी सो चुकी होती है. अन्यथा कोई बहाना कर संभोग करने से बचते हैं.

इस से उन में आत्मगलानि भी होती है. तब उन्हें इस बात का एहसास होता है कि पतिपत्नी के बीच उम्र का अधिक अंतर होने का क्या परिणाम होता है. इस से पत्नी के विवाहेतर संबंध बनने की आशंका रहती है.

यदि पति उम्र में 10 साल बड़ा है तो उसे अपनी पत्नी के साथ कहीं आनेजाने में संकोच का अनुभव होता है. क्योंकि पत्नी जवानी के जोश में होती है, जबकि उस का जोश ठंडा पड़ चुका होता है.

जब उम्र का अंतर अधिक होता है तो वे एकदूसरे को सम   झ ही नहीं पाते. ऐसे में रिलेशनशिप एक बो   झ लगने लगती है. वे अपने मन की बात एकदूसरे से शेयर कर ही नहीं पाते.

यदि आप भी ऐसे दंपती हैं जिन के बीच उम्र का अधिक अंतर है तो कुछ बातें ध्यान में रखें-

अपने पार्टनर को अपने से हेय या हीन न समझें.

अपनी सोच को पार्टनर की सोच के अनुरूप बनाएं.

सैक्स को ले कर उलाहने न दें.

वैचारिक मतभेदों को मिलबैठ कर सुल   झाएं.

एकदूसरे का सम्मान करें.

अपने पार्टनर के प्रति पूर्ण वफादार बने रहें.

विवाहेतर संबंधों से बचें.

दोनों के बीच कभी कम न हो प्यार की गरमाहट.

पार्टनर के चरित्र पर शक न करें.

घर के महत्त्वपूर्ण फैसलों में पार्टनर की राय लें.

पार्टनर का मजाक न बनाएं.

पतिपत्नी के रिश्तों की अहमियत समझें.

एकदूसरे के लिए समय निकालें.

पार्टनर की खुशियों का ध्यान रखें.

विधवाओं पर आज भी बेडि़यां

रूबीना एक कसबे में महीनाभर पहले विधवा हुई. उस की उम्र 30-32 साल है. शादी के 10 साल हो गए थे. सास बहुत तेज है. बहू से अकसर तूतूमैंमैं करती रहती है. महल्ले वाले सासबहू को ले कर चटखारे लेते रहते हैं.

पति बस का ड्राइवर था, जिस की रोड ऐक्सिडैंट में मौत हो गई. फिर क्या था, अब तो सास को रूबीना और भी फूटी आंख न सुहाती. तरहतरह के विभूषणों से बहू नवाजी जाने लगी. ‘करमजली, डायन, पति को खा कर चैन पड़ गया सीने में ‘कुलक्षिणी’. अब जाने क्याक्या उस के कुलक्षण थे.

रूबीना बच्चों के एक क्रैच में आया है. हाथ में कुछ पैसे आते हैं तो घर खर्च चलाने के बाद अपनी मरजी से खर्चती है, सास से बिना पूछे. सजनासंवरना, ठेले पर चाटपानीपूरी खाना या फिर शाम के शो में कभी पिक्चर ही चले जाना और एक गलती उस की यह भी है कि उसे बच्चा नहीं था. चाहे पतिपत्नी दोनों में से किसी में कमी हो, बच्चा न हुआ तो हो गई वह कुलक्षिणी.

अब पति का श्राद्ध निबटा कर फिर से वह अपनी दिनचर्या में आ गई, यानी क्रैच में काम पर जाना, दिनभर शाम तक घर का काम करना और फिर शाम को दुकानों में ठेलों पर घूमना,  खरीदना, खाना, टहलना और साजशृंगार की चीजें खरीदनापहनना. मगर न घर में चैन था, न बाहर. टोकने वाले टोकते या उस की छीछी करते तो वह बिफर पड़ती.

‘क्या किसी के खसम का खा रही हूं मैं? अपना कमाती हूं, दिनभर घरबाहर खटती हूं, बुढि़या को बैठा कर खिलाती हूं फिर क्यों न पहनूं? पति था भी तो कौन सा सोहाग करता था मुझ से?

4-6 महीने में घर आ कर 5 हजार रुपए दे कर जाता तो अगले 3-4 महीने फिर खबर ही नहीं. जाने कहांकहां मुंह मार चुका था. मैं ने तो कई बार खुद पकड़ा. तो, अब उस के लिए रोने बैठी रहूं.’

लोगों को उस की जबान पर बड़ा ताज्जुब होता. विधवा हो कर इतनी जबान चले. सभी उस की सास की आग में और घी डाल जाते. लेकिन हम उन लोगों से पूछते कि रूबीना गलत भी कहां है? पति साल में 4-6 बार आ कर 6-8 हजार रुपए दे कर अपना काम खत्म समझे. जिस के रहने, न रहने से रूबीना को खास फर्क भी न पड़ा, उस के चले जाने से वह अपनी जिंदगी को मातम का काला साया बना कर खानापहननाघूमना सब छोड़ दे? क्या समाज इस के लिए उसे सर्टिफिकेट देगा? या उसे पद्मभूषण की उपाधि मिलेगी? या उस का मरा हुआ पति जीवित हो जाएगा?

अब आइए एक हाई क्लास मौडर्न फैमिली के 60 साल की बुजुर्ग महिला का हालेदिल लें. डाइनिंग का यह माहौल है. वह अपने बेटे, बहू और पोते के साथ कहीं किसी के घर गेस्ट हो कर आई हैं. खाने में वेज-नौनवेज सबकुछ है. बुजुर्ग विधवा महिला सर्विंग बाउल से अपनी प्लेट में कुछ टुकड़े नौनवेज के लेती है.

बहू और उस की हमउम्र होस्ट सहेली एकदूसरे को देखती हैं. दोनों के होंठों के बीच हलकी व्यंग्यभरी मुसकान ऐंठ कर दबी होती है. बुजुर्ग महिला का बेटा यह समझता है और सब को सुना कर अपनी मां से कहता है, ‘मां नौनवेज की दूसरी डिश ट्राई करो.’ फिर अपने दोस्त की पत्नी की तरफ देख कर कहता है, ‘दरअसल, डाक्टर ने मां को नौनवेज खाने की सलाह दे रखी है. पापा के जाने के बाद से उन की तबीयत बहुत खराब रहने लगी थी.’

बुजुर्ग महिला का नौनवेज फेवरेट था लेकिन इतनी कैफियतें सुन खाने से मन उठ गया. वह सोच रही थी कि नौनवेज खाना या न खाना खुद की चौइस क्यों नहीं हो सकती? क्यों सेहत या कमजोरी का बहाना बनाना पड़ा? अपने पति के प्रति प्रेम, लगाव क्या किसी के खाने से जुड़ा मसला होना चाहिए? गोया कि पति नहीं तो क्या पसंद का खाना भी नहीं, क्योंकि पसंद का खाया, पहना तो अब पति के प्रति प्रेम को प्रमाणित नहीं किया जा सकता. दूसरे, नौनवेज खा लिया तो अब शरीर की भूख इतनी बढ़ जाएगी कि पुरुष देखते ही उस के साथ भाग जाने को मन करेगा. हद हो गई लकीर के फकीरों की. यह आज के समाज का चित्र है और कुछ नहीं.

भारतीय समाज में एक स्त्री शादी के बाद जैसे हमेशा ही प्रमाण देती रहती है कि वह अपने पति के प्रति समर्पित है. पति ही उस का सबकुछ है और, तभी समाज में उस का एक स्थान होता है. ठीक उसी तरह पति की मृत्यु के बाद भी एक विधवा स्त्री इस स्थिति में रहती है कि उसे हर वक्त यह प्रमाणित करते रहना पड़े कि पति के जाने के बाद भी वह पति को ही जपती रहेगी. उस के सिवा उस की जिंदगी का कोई महत्त्व नहीं है और वह यह बात स्वीकार करती है.

एक विधवा स्त्री अगर भावनात्मक रूप से इस कदर पति से जुड़ी है कि वह खुद ही सबकुछ त्याग कर जीना चाहे, इसी में उसे खुशी मिले तो बात जबरदस्ती की नहीं होती. लेकिन जिस स्त्री को विवाह में पति से दुख ही मिला हो या उसे पति के लिए विलाप ही करते रहने से अच्छा मूव औन कर जाना ज्यादा सही और व्यावहारिक लगता हो तो उसे पति के नाम पर जिंदगीभर मातमपुरसी करते रहने की बाध्यता क्यों हो?

यहां पुरुषों से तुलना तो बनती है. आखिर हर बात में संविधान से ले कर समाज तक बराबरी का दंभ भरने वाला कानून किस कोने में जा कर छिप जाता है जब बात स्त्री के दैनिक जीवनधारण की आती है?

इतिहास के पन्नों में विधवा स्त्री

हम बात करें हिंदू समाज की विधवाओं की, क्योंकि इस धर्म में विधवाओं को ले कर ऐसे कड़े नियमकानून थे, अब भी मानसिकता वही है कि लगता है जैसे विधवा हो जाने से स्त्री ने कोई जानबूझ कर अपराध किया है, जिस के लिए उसे सजा पानी है.

मध्यकाल से पहले तक यानी वैदिककाल में स्त्रियों की स्थिति बेहतर थी. यद्यपि तब विधवाओं के जीवनयापन में बेडि़यां थीं लेकिन जीवन आज से पूरी तरह अलग था और इस से उन के सम्मान की हानि नहीं थी.

बात तब बिगड़ी जब मनु ऋषि ने स्त्री को आजन्म पिता, पति और पुत्र के अधीन ही रहने का फरमान सुना दिया. इस के बाद तो भारत में साम्राज्य विस्तार हेतु सैकड़ों आक्रमण हुए और उस दौरान राजाओं और मुगल, अफगान, पठान शासकों और आक्रमणकारी दलों की शिकार स्त्रियां या फिर विधवा स्त्रियां ही बनती रहीं.

मजबूरन सामाजिक पंचायतों द्वारा स्त्री और परिवार की मानमर्यादा की सुरक्षा हेतु स्त्रियों, खासकर विधवा स्त्रियों, पर घोर पाबंदियां लगाई गईं और लगाई जाती रहीं. जबकि, स्त्रियों पर ढेरों नियम न थोप कर उन की सुरक्षा के नियम कड़े किए जाना उचित होता.

आगे चल कर मध्यकाल और उस के बाद ऊंची जातियों की विधवा स्त्रियों पर ऐसी बेडि़यां थोपी गईं और उन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से यह बात मानने को बाध्य किया जाता रहा कि पति की मृत्यु स्त्री के घोर पाप और अपराध का फल है और इस पाप के बदले उस ने अपना सारा सुख, सारी सुविधा का त्याग नहीं किया तो ईश्वर, जो कहीं है भी कि नहीं, उसे कभी माफ नहीं करेगा और यदि उस ने चोरीछिपे कुछ अच्छा खापहन लिया तो उसे भयानक सजा ‘तथाकथित’ ईश्वर की ओर से मिलेगी.

इन बातों को घोल कर पिलाने के लिए उन्हें शिक्षा से दूर रखा जाने लगा और कम उम्र में कुलीन ब्राह्मण के नाम पर बूढ़े बीमार लोगों के विवाह में दे कर उन्हें जानबूझ कर वैधव्य की ओर धकेला जाता रहा.

स्थिति जघन्य हो चुकी थी और सारे भारत में सतीप्रथा को अत्यंत पूजनीय स्थान दे कर जलती चिता में मृत पति के साथ स्त्रियों को जिंदा जलाया जा रहा था. इस घोर अंधविश्वास और अन्याय के युग में ईश्वरचंद्र विद्यासागर युग प्रवर्तक के रूप में सामने आए. उन के अथक प्रयासों व लंबी लड़ाई के बाद वर्ष 1856 में विधवा पुनर्विवाह कानून लागू हुआ. ज्ञात हो, ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने खुद अपने बेटे का ब्याह एक विधवा कन्या से करवाया था.

ये विधवा महारानियां

रानी लक्ष्मीबाई, गोरखपुर के निकट तुलसीपुर की रानी ईश्वर कुमारी, अनूप नगर के राजा प्रताप सिंह की पत्नी चौहान रानी, मध्य प्रदेश के रामगढ़ रियासत की रानी अवंतिका लोधी, नाना साहेब पेशवा की पुत्री मैना, सिकंदर बाग की वीरांगना उदा देवी… किसकिस का नाम लें, जिन्होंने पति की मृत्यु के बाद न केवल राजगद्दी और प्रजा को संभाला बल्कि राज्य के बाहरी आक्रमणकारियों और अंगरेजों की साजिशों व दबावों के विरुद्ध जम कर लड़ाइयां लड़ीं, शहीद हुईं और इतिहास से निकल कर लोगों के लिए प्रेरणा बन गईं. अगर वे विधवा होने के बाद सामाजिक दबावों के आगे सिर झुका लेतीं तो भारत की गौरवगाथा वह न होती जो आज इतिहास में दर्ज है.

कालांतर में विधवा स्त्रियों की दशा

विधवा पुनर्विवाह कानून के पारित होने से अब तक विधवा स्त्रियों की दशा में क्याकुछ सुधार हुए हैं, हम अपनी छिपी हुई मानसिकता को परख कर आज समझ सकते हैं.

गौर कीजिए कुछ पौइंट्स पर जब हम कूपमंडूक बन जाते हैं.

जब खुद के घर में नौकरी या व्यवसाय करने वाले पुत्र की किसी विधवा स्त्री से ब्याह की बात आती है तो आज भी लोग तुरंत पीछे हट जाते हैं, नाकभौं सिकोड़ते हैं.

अपने घर में अगर जवान बेटे की मौत हो जाए, उस की विधवा पत्नी को बेटे की जागीर देने में भी आनाकानी होने लगती है. बहुत बार उसे किसी तरह टरकाने की कोशिश की जाती है.

जब घर में बेटे की मौत हो जाए और उस के बच्चे भी हों, बहुत कम ही परिवार ऐसे होते हैं जो अपने घर या रिश्तेदार के किसी बेटे से बहू के ब्याह को राजी हों. ज्यादातर सब की सोच यही होती है कि अब उस की अलग क्या जिंदगी होगी. बच्चे ही पाल लेगी और क्या.

अगर कोई संयुक्त परिवार का बेटा खत्म हो जाए जहां वह संयुक्त व्यवसाय का हिस्सा रहा हो, उस की पत्नी व्यवसाय में उस का स्थान लेना चाहे तो घर के दूसरे पुरुष सदस्य उसे यह हक लेने दें, यह आज भी भारतीय परिवारों में इतना आसान नहीं है.

विधवा स्त्री की परिवार के अन्य विवाहित सधवा स्त्रियों के मुकाबले अकसर पूछपरख और भागीदारी कम होती है. किसी शगुन वाले अनुष्ठान में वह दूरदूर से सेवा और कामकाज करे, इतना ही उस के हिस्से में है. सभा या अनुष्ठान में उस की जम कर खुशी से भागीदारी समाज और रिश्ते में आज भी आंखों की किरकिरी है.

एक तो हिंदू विवाह में कन्यादान की रीति कन्या को वस्तु समान बनाती है जिसे दान किया जा सके, तिस पर वह भी विधवा स्त्री को हक नहीं कि वह पिता के अभाव में अपनी बेटी के ब्याह के वक्त धार्मिक रीति निभा सके. यह कितनी अपमानजनक स्थिति है जिसे मानने की बाध्यता ने अपनाना आसान कर दिया है. समाज तो है ही, विधवा स्त्री भी खुद को तुच्छ समझ कर हर अधिकार से खुद को निकाल ले जाती है.

इन सब के उलट आज की मौडर्न विधवा स्त्री स्वतंत्रता से जीने और अपने सामान्य प्राकृतिक, सामाजिक अधिकारों के लिए विरोधी तेवर मुखर करती है तो वह अलगथलग कर दी जाती है. उस के लिए पीठ पीछे कुछ उपाधियां निर्धारित कर दी जाती हैं, जैसे ‘इस के लक्षण ठीक नहीं हैं’, ‘बहुत चालू औरत है’, ‘पति की मौत से इस के पर निकल आए’ आदि.

और अब भी अगर यह दावा किया जाए कि अब जमाना बदल गया है, विधवाएं अब बेखौफ, बेलौस जिंदगी जीती हैं तो रुख करें भारत के धर्मस्थानों और तीर्थस्थलों का. वृंदावन तो अब ‘विधवाओं का शहर’ ही कहलाने लगा है.

आज भी बंगाल, असम, ओडिशा से हजारों की संख्या में विधवाएं अपने घर और समाज से लांछित व परित्यक्त हो कर वृंदावन पहुंचती हैं और मजबूरन भगवान के नाम पर भीख मांग कर रोतेधोते गुजारा करती हैं. उन की ऐसी बदतर हालत पर सुप्रीम कोर्ट भी सरकार के बाल और महिला विकास मंत्रालय को फटकार लगा चुका है कि विधवा स्त्रियों के सम्मान की क्या कहें, दो रोटी और एक सादे कपड़े भर के गुजारे के लिए उन्हें दूसरों के आगे हाथ फैलाने पड़ते हैं, विधवाओं को इस से नजात दिला कर एक सम्मान की जिंदगी देने की पहल क्यों नहीं की जाती?

विधवा स्त्रियों के हालात में सुधार हेतु कुछ जरूरी उपाय

१.     आज भी हमारे समाज में विधवा नाम से एक मैंटल ब्लौकेज बना हुआ है. पत्नी की मृत्यु के बाद पति को व्यक्तिगत जीवन में भले ही दिक्कतें हों लेकिन वह अछूत तो नहीं हो जाता. लेकिन यह क्या कि पति की मृत्यु से पत्नी समाज के अंधविश्वासों के कारण मानसिक यातना की शिकार हो जाए. शुभ कार्यों में उस की उपस्थिति अनुचित मानी जाए. वह कन्यादान के काबिल न रहे. किसी शादी और शुभ अनुष्ठानों में वह अकसर सेवा तो दे लेकिन विवाहित स्त्रियों से अलगथलग पड़ जाए.

२.     हिंदू धर्म में जब तक विवाहित स्त्रियों के लिए प्रतीक चिह्न, जैसे सिंदूर, चूड़ी, बिछिया, पायल, अल्ता जरूरी रहेंगे तब तक विधवा स्त्रियों के खानपान, रहनसहन, पहनावे पर समाज की भेदभावभरी कुदृष्टि बनी रहेगी. यदि विवाहित स्त्रियों के पहचान के लिए प्रतीक चिह्नों की बाध्यता खत्म हो तो विधवा स्त्रियों की पहचान के लिए थोपे गए तुगलकी कानून भी कमजोर हों. निसंदेह इस के लिए विवाहित स्त्रियों को ही आगे आना होगा.

३.     विधवा स्त्रियों के लिए आर्थिक जानकारी निहायत जरूरी है और इस के लिए सबकुछ भविष्य पर छोड़ना ठीक नहीं. विवाहित रहते हुए ही एक स्त्री को या तो अपने पति के निवेश के बारे में जानकारी हो जानी चाहिए या फिर पति अगर जानकारी न देता हो तो आर्थिक नियमों की जानकारी उसे किसी बाहरी स्रोत से प्राप्त कर के रखनी चाहिए. मनी मैनेजमैंमेंट, बैंकिंग, सेविंग्स, इन्वैस्टमैंट आदि की जानकारी के लिए स्त्री को शुरू से ही सतर्क रहना चाहिए. इस से किसी अनहोनी पर वह आसानी से आर्थिक मोरचा संभाल पाएगी.

४.     आर्थिक आजादी सम्मान से जीने का मुख्य आधार है और एक स्त्री को आज के जमाने में किसी भी तरह आत्मनिर्भर होना चाहिए. अगर विवाहित रहते हुए पैसे कमाने की गुंजाइश न रहे तो आज के जमाने के हिसाब से वह इतना स्मार्ट वर्क जरूर कर ले कि जब भी जरूरत पड़े, अपने मनपसंद क्षेत्र में काम ढूंढ़ सके.

५.     एक स्त्री को अपने कानूनी अधिकार और कानूनी बंदिशों के बारे में मालूमात होनी चाहिए ताकि विधवा हो जाने की स्थिति में पति और ससुराल की संपत्ति में उस का या उस के बच्चों का जो भी हक है उसे मिल सके. जरूरत पड़ने पर कानूनी सलाहकार की मदद से वह अपना हक सुनिश्चित कर सके.

एक तार्किक, बौद्धिक नजरिया जीवन के दुखद पहलुओं को कुछ हद तक मनोनुकूल कर सकता है. लेकिन पहल सब से पहले एक स्त्री को ही करनी होगी. यह न देखें कि जो विधवा है वह जाने, मुझे क्या? जिंदगी कब किस की किस करवट बैठे, कोई नहीं जानता. इसलिए आज के समाज में हर उस परंपरा व नजरिए का विरोध होना चाहिए जो मनुष्य होने के सामान्य अधिकार और सम्मान की रक्षा न करे.

सामंजस्य: क्या रमोला औफिस और घर में सामंजस्य बिठा पाई?

रमोला के हाथ जल्दीजल्दी काम निबटा रहे थे, पर नजरें रसोई की खिड़की से बाहर गेट की तरफ ही थीं. चाय के घूंट लेते हुए वह सैंडविच टोस्टर में ब्रैड लगाने लगी.

‘‘श्रेयांश जल्दी नहा कर निकलो वरना देर हो जाएगी,’’ उस ने बेटे को आवाज दी.

‘‘मम्मा, मेरे मोजे नहीं मिल रहे.’’

मोजे खोजने के चक्कर में चाय ठंडी हो रही थी. अत: रमोला उस के कमरे की तरफ भागी. मोजे दे कर उस का बस्ता चैक किया और फिर पानी की बोतल भरने लगी.

‘‘चलो बेटा दूध, कौर्नफ्लैक्स जल्दी खत्म करो. यह केला भी खाना है.’’

‘‘मम्मा, आज लंचबौक्स में क्या दिया है?’’

श्रेयांश के इस सवाल से वह घबराती थी. अत: धीरे से बोली, ‘‘सैंडविच.’’

‘‘उफ, आप ने कल भी यही दिया था. मैं नहीं ले जाऊंगा. रेहान की मम्मी हर दिन उसे बदलबदल कर चीजें देती हैं लंचबौक्स में,’’ श्रेयांश पैर पटकते हुए बोला.

‘‘मालती दीदी 2 दिनों से नहीं आ रही है. जिस दिन वह आ जाएगी मैं अपने राजा बेटे को रोज नईनई चीजें दिया करूंगी उस से बनवा कर. अब मान जा बेटा. अच्छा ये लो रुपए कैंटीन में मनपसंद का कुछ खा लेना.’’

रेहान की गृहिणी मां से मात खाने से बचने का अब यही एक उपाय शेष था. सोचा तो था कि रात में ही कुछ नया सोच श्रेयांश के लंचबौक्स की तैयारी कर के सोएगी पर कल दफ्तर से लौटतेलौटते इतनी देर हो गई कि खाना बाहर से ही पैक करा कर लेती आई.

खिड़की के बाहर देखा. गेट पर कोई आहट नहीं थी. घड़ी देखी 7 बज रहे थे. स्कूल बस आती ही होगी. बेटे को पुचकारते हुए जल्दीजल्दी सीढि़यां उतरने लगी.

ये बाइयां भी अपनी अहमियत खूब समझती हैं. अत: मनमानी करने से बाज नहीं आती हैं. मालती पिछले 3 सालों से उस के यहां काम कर रही थी. सुबह 6 बजे ही हाजिर हो जाती और फिर रमोला के जाने के वक्त 9 बजे तक लगभग सारे काम निबटा लेती. वह खाना भी काफी अच्छा बनाती थी. उसी की बदौलत लंचबौक्स में रोज नएनए स्वादिष्ठ व्यंजन रहते थे. शाम 6 बजे उस के दफ्तर से लौटते वह फिर हाजिर हो जाती. चाय के साथ मालती कुछ स्नैक्स भी जरूर थमाती.

मालती की बदौलत ही रमोला घर के कामों से बेफिक्र रहती थी और दफ्तर में अच्छा काम कर पाती. नतीजा 3 सालों में 2 प्रमोशन. अब तो वह रोहन से दोगुनी सैलरी पाती थी. परंतु अब मालती के न होने पर काम के बोझ तले उस का दम निकले जा रहा था. बढ़ती सैलरी अपने साथ बेहिसाब जिम्मेदारियां ले कर आ गई थी. हां, साथ ही साथ घर में सुखसुविधाएं भी बढ़ गई थीं. तभी रोहन और रमोला इस पौश इलाके में इतने बड़े फ्लैट को खरीद पाने में सक्षम हुए थे.

मालती के रहते उसे कभी किसी और नौकर या दूसरी कामवाली की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. लगभग उसी की उम्र की औरत होगी मालती और काम बिलकुल उसी लगन से करती जैसे वह अपनी कंपनी के लिए करती थी. इसी से रमोला हमेशा उस का खास ध्यान रखती और घर के सदस्य जैसा ही सम्मान देती. परंतु इधर कुछ महीनों से मालती का रवैया कुछ बदलता जा रहा था. सुबह अकसर देर से आती या न भी आती. बिना बताए 2-2, 3-3 दिनों तक गायब रहती. अचानक उस के न आने से रमोला परेशान हो जाती. पर समयाभाव के चलते रमोला ज्यादा इस मामले में पड़ नहीं रही थी. मालती की गैरमौजूदगी में किसी तरह काम हो ही जाता और फिर जब वह आती तो सब संभाल लेती.

श्रेयांश को बस में बैठा रमोला तेजी से सीढि़यां चढ़ते हुए घर में घुसी. बिखरी हुई बैठक को अनदेखा कर वह एक बार फिर रसोई में घुस गई. वह कम से कम 2 सब्जियां बना लेना चाहती थी, क्योंकि आज रात उसे लौटने में फिर देर जो होनी थी.

हाथ भले छुरी से सब्जी काट रहे थे पर उस का ध्यान आज दफ्तर में होने वाली मीटिंग पर अटका था. देर रात एक विदेशी क्लाइंट के साथ एक बड़ी डील के लिए वीडियो कौन्फ्रैंसिंग भी करनी थी. उस के पहले मीटिंग में सारी बातें तय करनी थीं. आधेपौने घंटे में उस ने काफी कुछ बना लिया. अब रोहन को उठाना जरूरी था वरना उसे भी देर हो जाएगी.

रोहन कभी घर के कामों में उस का हाथ नहीं बंटाता था उलटे हजार नखरे करता. कल रात भी वह बड़ी देर से आया था. उलझ कर वक्त जाया न हो, इसलिए रमोला ने ज्यादा सवालजवाब नहीं किए. जबकि रोहन का बैंक 6 बजे तक बंद हो जाता था. वह महसूस कर रही थी कि इन दिनों रोहन के खर्चों में बेहिसाब वृद्धि हो रही है. शौक भी उस के महंगे हो गए थे. आएदिन महंगे होटलों की पार्टियां रमोला को नहीं भातीं. फिर सोचती आखिर कमा किस लिए रहे हैं. घर और दोनों गाडि़यों की मासिक किश्तों और उस पर बढ़ रहे ब्याज के विषय में सोचती तो उस के काम की गति बढ़ जाती.

‘‘आज तुम श्रेयांश को मम्मी के घर से लाने ही नहीं गए, बेचारा इंतजार करता वहीं सो गया था. तुम तो जानते ही हो मम्मी के हार्ट का औपरेशन हुआ है. वह श्रेयांश की देखभाल करने में असमर्थ हैं,’’ रमोला ने बेहद नर्म लहजे में कहा पर मन तो हो रहा था कि पूछे इस बार क्रैडिट कार्ड का बिल इतना अधिक क्यों आया?

मगर रोहन फट पड़ा, ‘‘हां मैं तो बेकार बैठा हूं. मैडम खुद देर रात तक बाहर गुलछर्रे उड़ा कर घर आएं. मैं जल्दी घर आ कर करूंगा क्या? बच्चे की देखभाल?’’

रोहन के इस जवाब से रमोला हैरान रह गई. उस ने चुप रहना ही बेहतर समझा. सिर झुकाए लैपटौप पर काम करती रही. क्लाइंट से मीटिंग  के पहले यह प्रेजैंटेशन तैयार कर उसे कल अपने मातहतों को दिखानी जरूरी थी. कनखियों से उस ने देखा रोहन सीधे बिस्तर पर ही पसर गया. खून का घूंट पी वह लैपटौप पर तेजी से उंगलियां चलाने लगी.

चाय बन चुकी थी पर रोहन अभी तक उठा नहीं था. अपनी चाय पी वह दफ्तर जाने के लिए तैयार होने लगी. अपने बिखरे पेपर्स समेटे, लैपटौप बंद किया. साथसाथ वह नाश्ता भी करती जा रही थी. हलकी गुलाबी फौर्मल शर्ट के साथ किस रंग की पतलून पहने वह सोच रही थी. आज खास दिन जो था.

तभी रोहन की खटरपटर सुनाई देने लगी. लगता है जाग गया है. यह सोच रमोला उस की चाय वहीं देने चली गई.

‘‘गुड मौर्निंग डार्लिंग… अब जल्दी चाय पी लो. मैं बस निकलने वाली हूं,’’ परदे को सरकाते हुए रमोला ने कहा.

‘‘क्या यार जब देखो हड़बड़ी में ही रहती हो. कभी मेरे पास भी बैठ जाया करो,’’ रोहन लेटेलेटे ही उस के हाथ को खींचने लगा.

‘‘मुझे चाय नहीं पीनी, मुझे तो रात से ही भूख लगी है. पहले मैं खाऊंगा,’’ कहते हुए रोहन ने उसे बिस्तर पर खींच लिया.

‘‘रोहन, अब ज्यादा रोमांटिक न बनो, मेरी कमीज पर सलवटें पड़ जाएंगी. छोड़ो मुझे. नाश्ता और लंचबौक्स मैं ने तैयार कर दिया है. खा लेना, 9 बजने को हैं. तुम भी तैयार हो जाओ,’’ कह रमोला हाथ छुड़ा चल दी.

‘‘रोहन, दरवाजा बंद कर लो मैं निकल रही हूं,’’ रमोला ने कहा और फिर सीढि़यां उतर गैराज से कार निकाल दफ्तर चल दी. रमोला मन ही मन मीटिंग का प्लान बनाती जा रही थी.

‘उमेश को वह वीडियो कौन्फ्रैंसिंग के वक्त अपने साथ रखेगी. बंदा स्मार्ट है और उसे इस प्रोजैक्ट का पूरा ज्ञान भी है. जितेश को मार्केटिंग डिटेल्स लाने को कहा ही है. एक बार सब को अपना प्रेजैंटेशन दिखा, उन के विचार जान ले तो फिर फाइनल प्रेजैंटेशन रचना तैयार कर ही लेगी. सब सहीसही सोचे अनुसार हो जाए तो एक प्रमोशन और पक्की,’ यह सोचते रमोला के अधरों पर मुसकान फैल गई.

दफ्तर के गेट के पास पहुंच उसे ध्यान आया कि लैपटौप, लंचबौक्स सहित जरूरी कागजात वह सब घर भूल आई है. आज इतनी दौड़भाग थी सुबह से कि निकलते वक्त तक मन थक चुका था. रमोला ने कार को घर की तरफ घुमा दिया. कार को सड़क पर ही छोड़ वह तेजी से सीढि़यां चढ़ने लगी. दरवाजा अंदर से बंद न था. हलकी थपकी से ही खुल गया. बैठक में कदम रखते ही उसे जोरजोर से हंसने की आवाजें सुनाई दीं.

‘‘ओह मीतू रानी तुम ने आज मन खुश कर दिया… सारी भूख मिट गई… मीतू यू आर ग्रेट,’’ रोहन की आवाज थी.

‘‘साहबजी आप भी न…’’

‘तो मालती आ चुकी है… रोहन उसे ही मीतू बोल रहा है. पर इस तरह…’ सोच रमोला का सिर मानो घूमने लगा, पैर जड़ हो गए.

जबान तालू से चिपक गई. उस की बचीखुची होश की हवा चूडि़यों की खनखनाहट और रोहन के ठहाकों ने निकाल दी. वह उलटे पांव लौट गई. बिना लैपटौप लिए ही जा कर कार में बैठ गई. उस के तो पांव तले से जमीन खिसक गई थी.

‘मेरी पीठ पीछे ऐसा कब से चल रहा है… मुझे तो कुछ पता ही नहीं चला. रोहन मेरे साथ ऐसी बेवफाई करेगा, मैं सोच भी नहीं सकती. घर संभालतेसंभालते महरी उस के पति को भी संभालने लगी,’ मालती की जुरअत पर वह तड़प उठी कि कब रोहन उस से इतनी दूर हो गया. वह तो हमेशा हाथ बढ़ाता था. मैं ही छिटक देती थी. उस के प्यारइजहार की भाषा को मैं ने खूब अनदेखा किया.

‘रोहन को इस गुनाह के रास्ते पर धकेलने वाली मैं ही हूं. साथसाथ तो चल रहे थे हम… अचानक यह क्या हो गया. शायद साथ नहीं, मैं कुछ ज्यादा तेज चल रही थी, पर मैं तो घर, पति और बच्चे के लिए ही काम कर रही हूं, उन की जरूरतें और शौक पूरा हो इस के लिए दिनरात घरबाहर मेहनत करती हूं. क्या रोहन का कोई फर्ज नहीं? वह अपनी ऐयाशी के लिए बेवफाई करने की छूट रखता है?’ विचारों की अंधड़ में घिरी कार चला वह किधर जा रही थी, उसे होश नहीं था. बगल की सीट पर रखे मोबाइल पर दफ्तर से लगातार फोन आ रहे थे. एक बहुराष्ट्रीय कंपनी की बेहद उच्च पदासीन रमोला अचानक खुद को हारी हुई, लुटीपिटी, असहाय महसूस करने लगी. उसे सब कुछ बेमानी लगने लगा कि कैसी तरक्की के पीछे वह भागी जा रही है. उसे होश ही न रहा कि वह कार चला रही है.

जब होश आया तो खुद को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. सिरहाने रोहन और श्रेयांश बैठे थे. डाक्टर बता रहे थे कि अचानक रक्तचाप काफी बढ़ जाने से ये बेहोश हो गई थीं. कुछ दिनों के बाद अस्पताल से छुट्टी हो गई. उमेश और जितेश दफ्तर से उस से मिलने आए थे. उन की बातों से लगा कि उस की अनुपस्थिति में दफ्तर में काफी मुश्किलें आ रही हैं. रमोला ने उन्हें आश्वासन दिया कि बेहतर महसूस करते ही वह दफ्तर आने लगेगी, तब तक घर से स्काइप के जरीए वर्क ऐट होम करेगी.

रोहन को देख उसे घृणा हो जाती. उस दिन की हंसी और चूडि़यों की खनखनाहट की गूंज उसे बेचैन किए रहती. रोहन को छोड़ने यानी तलाक की बात भी उस के दिमाग में आ रही थी. पर फिर मासूम श्रेयांश का चेहरा सामने आ जाता कि क्यों उस का जीवन बरबाद किया जाए. उस के उच्च शिक्षित होने का क्या फायदा यदि वह अपनी जिंदगी की उलझनों को न सुलझा सके.

‘हार नहीं मानूंगा रार नहीं ठानूंगा’ एक कवि की ये पंक्ति उसे हमेशा उत्साहित करती थी, विपरीत परिस्थितियों में शांतिपूर्वक जूझने के लिए प्रेरणा देती थी. आज भी वह हार नहीं मानेगी और अपने घर को टूटने से बचा लेगी, ऐसा उसे विश्वास था.

रमोला से उस की कालेज की एक सहेली मिलने आई. वह यूएस में रहती थी. बातोंबातों में उस ने बताया कि वहां तो नौकर, दाई मिलते नहीं. अत: सारा काम पतिपत्नी मिल कर करते हैं. रमोला को उस की बात जंच गई कि अपने घर का काम करने में शर्म कैसी.

उस के जाने के बाद कुछ सोचते हुए रमोला ने रोहन से कहा, ‘‘रोहन मैं सोचती हूं कि मैं नौकरी से इस्तीफा दे दूं. घर पर रह कर तुम्हारी तथा श्रेयांश की देखभाल करूं. तुम्हारी शिकायत भी दूर हो जाएगी कि मैं बहुत व्यस्त रहती हूं, घर पर ध्यान नहीं देती हूं.’’

यह सुनना था कि रोहन मानो हड़बड़ा गया. उसे अपनी औकात का पल भर में भान हो गया. श्रेयांश के महंगे स्कूल की फीस, फ्लैट और गाडि़यों की मोटी किस्त ये सब तो उस के बूते पूरा होने से रहा. कुछ ही पलों में उसे अपनी सारी ऐयाशियां याद आ गईं.

‘‘नहीं डियर, नौकरी छोड़ने की बात क्यों कर रही हो? मैं हूं न,’’ हकलाते हुए रोहन ने कहा.

‘‘ताकि तुम अपनी मीतू के साथ गुलछर्रे उड़ा सको… नहीं मुझे अब घर पर रहना है और किसी महरी को नहीं रखना है,’’ रमोला ने सख्त लहजे में तंज कसा.

रोहन के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वह घुटनों के बल वहीं जमीन पर बैठ गया और रमोला से माफी मांगने लगा. भारतीय नारी की यही खासीयत है, चाहे वह कम पढ़ीलिखी हो या ज्यादा घर हमेशा बचाए रखना चाहती है. रमोला ने भी रोहन को एक मौका और दिया वरना दूसरे रास्ते तो हमेशा खुले हैं उस के पास.

रमोला ठीक हो दफ्तर जाने लगी. गाड़ी के पहियों की तरह दोनों अपनी गृहस्थी की गाड़ी आगे खींचने लगे. अपनी पिछली गलतियों से सबक लेते हुए रमोला ने भी तय कर लिया था कि वह घर और दफ्तर दोनों में सामंजस्य बैठा कर चलेगी, भले ही एकाध तरक्की कम हो. नौकरी छोड़ने की उस की धमकी के बाद से रोहन अब घर के कामों में उस का हाथ बंटाने लगा था. इन सब बदलावों के बाद श्रेयांश पहले से ज्यादा खुश रहने लगा था, क्योंकि लंचबौक्स उस की मम्मी खुद तैयार करती और रोज नईनई डिश देती.

एक गलती: क्या उन समस्याओं का कोई समाधान निकला?

बंगले वाली- भाग 4: नेहा को क्यों शर्मिंदगी झेलनी पड़ी?

नेहा सिर पकड़ कर धम्म से सोफे पर बैठ गई… उफ, ये क्या हो गया है मुझ को? सच ही तो कह रहे हैं, आज तीन दिन हो गए हैं… कहीं कांची न देख ले, इस डर से वह सब्जी लेने नीचे तक नहीं उतरी, सब्जी वाला रोज आवाज लगा कर चला जाता है. कांची तो हमेशा के लिए यहां रहने आई होगी, ऐसे कब तक घर में छिप कर बैठूंगी. उफ, इसे भी पूरी दुनिया में क्या यही जगह मिली थी रहने के लिए…? भगवान भी पता नहीं किस बात की सजा दे रहा है मुझे… पतिदेव का गुस्सा सुबह भी सातवें आसमान पर था. न कुछ खाया, न टिफिन ले गए, बिना बात करे ऐसे ही औफिस चले गए. दुखी और उदास मन से वह अपने को कोसती हुई सब्जी वाले का इंतजार करने लगी… पर, ये क्या, एक घंटा हो गया, लेकिन सब्जी वाला तो आया ही नहीं. लगता है, तीन दिन से सब्जी नहीं ली, तो आज उस ने आवाज ही नहीं लगाई. सारा जमाना मेरी जान का दुश्मन बन बैठा है. वह उठने ही वाली थी कि दूसरे सब्जी वाले की आवाज सुनाई पड़ी, अमूमन इस से वो कभी सब्जी नहीं खरीदती थी, क्योंकि वो सब्जियों को हाथ लगाने पर झल्लाता था. जैसे किसी ने उस की नईनवेली दुलहन को छू लिया हो. पर मरती क्या न करती, थैला लिए सीढ़ियां उतर कर सब्जी लेने आ पहुंची.

सब्जी वाले ने भी ताना मारने का मौका नहीं गंवाया. वह मुसकराते हुए बोला, “धन्यवाद. मेरे ढेले से जो आज आप सब्जी खरीदने आईं. जी, मन में तो आया कि उस का मुंह  नोंच ले, पर हाय री किस्मत, क्याक्या दिन देखने पड़ रहे हैं. मन ही मन कुढ़ते हुए थैला ले कर वह मुड़ी ही थी कि नीचे के फ्लैट वाली मिसेज काटजू लगभग दौड़ती सी आई (उन्हें किसी से भी बात करने के लिए अब ऐसा ही करना पड़ता है. तब से, जब से उन्हें ये बात समझ में आई कि उन्हें देखते ही लोग ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग. इस में गलती लोगों की नहीं है, उन की फितरत ही ऐसी है, हंसहंस के लोगों के जख्मों पर नमक छिड़कना उन का सब से प्यारा शगल था). पर उन्होंने नेहा को गायब होने का मौका नहीं दिया.

‘‘अरे नेहा, क्या हुआ? तबीयत खराब है क्या? 2-3 दिन से दिखाई नहीं पड़ी, चेहरा भी कैसा पीला पड़ा हुआ है.’’

‘‘नहींनहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, थोड़ा घर की साफसफाई में व्यस्त थी.’’

‘‘अरे भाई, इतना भी क्या काम करना कि आसपास की खबर ही न हो… पर, इस में तुम्हारा भी क्या दोष? तुम्हारे यहां बाई नहीं है न, सारा काम खुद ही करना पड़ता है, वक्त तो लगेगा ही…’’

नेहा को मिसेज काटजू की इसी आदत से सख्त चिढ़ थी, जब भी मिलती, ताना मारने से बाज नहीं आती.

‘‘खैर, छोड़ो ये सब, पता है… सामने वाले बंगले में जो आई है न, वो पहले वाली से बिलकुल अलग है. इतनी अमीर है, पर घंमड जरा सा भी नहीं. खुद भी बैंक में अफसर है. कल मैं शाम को इन के साथ घूमने के लिए निकली थी न, तब वह मिली थी, सारा दिन तो वह बैंक मे रहती हैं.

कभीकभी तुम भी कहीं घूम आया करो… अरे, मैं तो भूल ही गई, पुराने स्कूटर पर घूमने में क्या मजा आएगा? भाई साहब से बोल कर अब नई गाड़ी ले भी लो, इतनी भी क्या कंजूसी करना.’’

‘‘अच्छा, मिसेज काटजू, मैं चलती हूं, मुझे बहुत काम है,’’ खून का घूंट पीती हुई नेहा गुस्से के मारे, बिना जवाब सुने सीढ़ियां चढ़ गई.

नेहा को समझ नहीं आ रहा था कि वह मिसेज काटजू के तानों से दुखी है या कांची के बैंक में अफसर होने पर… जो भी हो, एक बात अच्छी हो गई कि कांची दिनभर घर में नहीं रहती, उसे ज्यादा छिपने की जरूरत नहीं है. वैसे भी वो घर से निकलती ही कितना है, दो बच्चों के साथ खटारा स्कूटर पर कहीं जाने से तो उसे घर में रहना ज्यादा अच्छा लगता है. बच्चे भी नहीं जाना चाहते, उन्हें भी शर्म आती है और पति भी कहां ले जाना चाहते हैं? ये सब सोचते हुए उस की आंखें भर आईं…

8-10 दिन ऐसे ही बीत गए, नेहा की दिनचर्या में एक बड़ा फर्क आया था. वह यह कि उस ने बालकनी में जाना लगभग बंद कर दिया था. वह चाहती थी कि जब तक हो सके, बस कांची का सामना न हो. रोज की तरह आज भी वह अपने रोजमर्रा के कामों में व्यस्त थी, तभी मां का फोन आया, 3 दिन बाद छोटे भाई की सगाई थी, मां ने आने का आग्रह कर के फोन रख दिया.

कितने बदल गए हैं सब लोग… बदलें भी क्यों न, उस की तरह फालतू कोई नहीं हैं, दोनों छोटी बहनें सरकारी स्कूल में टीचर हैं, भाई भी सरकारी अफसर है. पिताजी को गुजरे तो 3 साल हो गए, याद आते ही उस की आंखें भर आईं.

मायके में मां के अलावा उसे याद करने की किसी के पास फुरसत नहीं है. बहनें और भाई जन्मदिन और शादी की सालगिरह पर फोन लगा लेते हैं बस… एक मां ही है, जो महीने में कम से कम एक बार फोन कर के हालचाल पूछ लेती हैं. पर इस में सारा दोष भाईबहनों का तो नहीं है, मैं मौन सा उन्हें फोन करती हूं, ताली दोनों हाथ से बजती है, एकतरफा रिश्ता कोई कब तक निभाएगा वो तो सिर्फ मां ही निभा सकती है.

अपनी मजबूरी पर उस का दिल जारजार रोने लगा. क्या, मेरा मन नहीं करता  अपनी मा, भाईबहनों से बात करने का, उन के अलावा और कौन है मायके में. फोन का बिल देख कर पतिदेव ऐसेऐसे विषवाण  छोड़ते थे कि कलेजा छलनी हो जाता. पर वह सब्र का घूंट पी लेती थी, क्योंकि इस के अलावा उस के पास कोई चारा भी न था. सालसालभर मिलना नहीं होता था, कम से कम फोन पर बात कर के ही दिल को तसल्ली मिल जाती थी. पर उस दिन तो अति हो गई, जब पतिदेव बरसे थे, ‘‘अगर इतना ही शौक है फोन पर गप्पें लगाना का तो जरा घर से बाहर निकल कर चार पैसे कमा कर दिखाओ. तब पता चलेगा, पैसे कैसे कमाए जाते हैं, घर बैठ कर गुलछर्रे उठाना बहुत आसान है.’’

सुन कर, अपमान से तिलमिला उठी थी वह, सहने की भी कोई हद होती है. जी में तो आया कि चीखचीख कर कहे कि जब खुद यारदोस्तों से घंटों फोन पर बतियाते हो, तब बिल नहीं आता, मैं क्या अपनी मां से भी बात न करूं, पर कुछ कह न सकी थी, बस तभी बमुशिकल ही फोन को हाथ लगाती थी वह. काश, वो भी आत्मनिर्भर होती, उस के हाथ में भी चार पैसे होते, जिन्हें वह अपना इच्छा से खर्च कर सकती. लो, ऐसे खुशी के मौके पर मैं भी क्या सोचने बैठ गई. मायके जाने के खयाल से शरीर में खुशी की लहर दौड़ गई. अरे, कितनी सारी तैयारी करनी है, आज 10 तारीख तो हो गई. 13 तारीख को सगाई है, तो 12 को निकलना पड़ेगा. सिर्फ कल का ही दिन तो बचा है.

पतिदेव का मूड न उखड़े, इसलिए नेहा उन की पंसद का खाना बनाने में जुट गई. ‘‘क्या बात है? आज इतने दिनों बाद घर में ऐसा लग रहा है, जैसे सचमुच खाना बना हो, बड़ी चहक रही हो, कोई लौटरी लग गई क्या?’’

‘‘आज मां का फोन आया था. राहुल का रिश्ता तय हो गया है. 13 को सगाई है, चलोगे न…?’’सुनते ही पतिदेव के चेहरे की हंसी गायब हो गई. ‘‘अरे, मैं नहीं जा पाऊंगा, औफिस में बहुत काम है, बच्चों की भी पढ़ाई का नुकसान होगा. शादी में सब लोग चलेंगे, अभी तुम अकेली ही चली जाओ.’’

नेहा के सारे उत्साह पर पानी फिर गया. पर उसे इतना बुरा क्यों लग रहा है, ऐसा पहली बार तो नहीं हो रहा है. मायके के किसी भी प्रोग्राम में हमेशा ऐसा ही तो होता है… खैर, एक तरह से अच्छा ही हुआ, बच्चों के पास ढंग के कपड़े भी नहीं हैं. खर्च करने से बजट गड़बड़ा जाएगा, शादी मैं तो खर्च करना ही पड़ेगा.

नेहा ने अपना सूटकेस खोल कर साड़ियां निकाली, कुलमिला कर 4-5 भारी साड़ियां हैं, जिन्हें वह कई बार पहन चुकी थी और एकमात्र शादी में चढ़ाया गया सोने का हार, जिसे  पहनने में भी अब उसे शर्म लगती थी, पर बिना पहने भी नहीं जाया जा सकता. कहीं नहीं हैं, पता नहीं घर के समारोहों में भी इतना दिखावा क्यों करना पड़ता है.

गुनाह के दाग: कैसे खुली पति की हत्या करने वाली पत्नी की पोल

एकएक पल उसे एकएक साल के बराबर लग रहा था. किसी अनहोनी की आशंका से उस का दिल कांप उठता था. सवेरा होते ही जयलक्ष्मी बेटे के पास पहुंची और उसे झकझोर कर उठाते हुए बोली, ‘‘तुम यहां आराम से सो रहे हो और तुम्हारे पापा रात से गायब हैं. वह रात में गए तो अभी तक लौट कर नहीं आए हैं. वह घर से गए थे तो उन के पास काफी पैसे थे, इसलिए मुझे डर लग रहा है कि कहीं उन के साथ कोई अनहोनी तो नहीं घट गई?’’

जयलक्ष्मी बेटे को जगा कर यह सब कह रही थी तो उस की बातें सुन कर उस की ननद भी जाग गई, जो बेटे के पास ही सोई थी. वह भी घबरा कर उठ गई. आंखें मलते हुए उस ने पूछा, ‘‘क्या हुआ भाभी, भैया कहां गए थे, जो अभी तक नहीं आए. लगता है, तुम रात में सोई भी नहीं हो?’’

‘‘मैं सोती कैसे, उन की चिंता में नींद ही नहीं आई. उन्हीं के इंतजार में जागती रही. मेरा दिल बहुत घबरा रहा है.’’ कह कर जयलक्ष्मी रोने लगी.

बेटा उठा और पिता की तलाश में जगहजगह फोन करने लगा. लेकिन उन का कहीं पता नहीं चला. उस के पिता विजय कुमार गुरव के बारे में भले पता नहीं चला, लेकिन उन के गायब होने की जानकारी उन के सभी नातेरिश्तेदारों को हो गई. इस का नतीजा यह निकला कि ज्यादातर लोग उन के घर आ गए और सभी उन की तलाश में लग गए.

जब सभी को पता चला विजय कुमार के गायब होने के बारे में

विजय कुमार गुरव के गायब होने की खबर मोहल्ले में भी फैल गई थी. मोहल्ले वाले भी मदद के लिए आ गए थे. हर कोई इस बात को ले कर परेशान था कि आखिर विजय कुमार कहां चले गए? इसी के साथ इस बात की भी चिंता सता रही थी कि कहीं उन के साथ कोई अनहोनी तो नहीं घट गई. क्योंकि वह घर से गए थे तो उन के पास कुछ पैसे भी थे. किसी ने उन पैसों के लिए उन के साथ कुछ गलत न कर दिया हो.

38 साल के विजय कुमार महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग जिले की तहसील सावंतवाड़ी के गांव भड़गांव के रहने वाले थे. उन का भरापूरा शिक्षित और संपन्न परिवार था. सीधेसादे और मिलनसार स्वभाव के विजय कुमार गडहिंग्लज के एक कालेज में अध्यापक थे. अध्यापक होने के नाते समाज में उन का काफी मानसम्मान था. गांव में उन का बहुत बड़ा मकान और काफी खेती की जमीन थी. लेकिन नौकरी की वजह से उन्होंने गडहिंग्लज में जमीन खरीद कर काफी बड़ा मकान बनवा कर उसी में परिवार के साथ रहने लगे थे.

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विजय कुमार के परिवार में पत्नी जयलक्ष्मी के अलावा एक बेटा था. पत्नी और बेटे के अलावा उन की एक मंदबुद्धि बहन भी उन्हीं के साथ रहती थी. मंदबुद्धि होने की वजह से उस की शादी नहीं हुई थी. बाकी का परिवार गांव में रहता था. विजय कुमार को सामाजिक कार्यों में तो रुचि थी ही, वह तबला और हारमोनियम बहुत अच्छी बजाते थे. इसी वजह से उन की भजनकीर्तन की अपनी एक मंडली थी. उन की यह मंडली गानेबजाने भी जाती थी.

दिन कालेज और रात गानेबजाने के कार्यक्रम में कटने की वजह से वह घरपरिवार को बहुत कम समय दे पाते थे. उन की कमाई ठीकठाक थी, इसलिए घर में सुखसुविधा का हर साधन मौजूद था. आनेजाने के लिए मोटरसाइकिलों के अलावा एक मारुति ओमनी वैन भी थी.

इस तरह के आदमी के अचानक गायब होने से घर वाले तो परेशान थे ही, नातेरिश्तेदारों के अलावा जानपहचान वाले भी परेशान थे. सभी उन की तलाश में लगे थे. काफी प्रयास के बाद भी जब उन के बारे में कुछ पता नहीं चला तो सभी ने एकराय हो कर कहा कि अब इस मामले में पुलिस की मदद लेनी चाहिए.

इस के बाद विजय कुमार का बेटा कुछ लोगों के साथ थाना गडहिंग्लज पहुंचा और थानाप्रभारी को पिता के गायब होने की जानकारी दे कर उन की गुमशुदगी दर्ज करा दी. यह 7 नवंबर, 2017 की बात है.

पुलिस ने भी अपने हिसाब से विजय कुमार की तलाश शुरू कर दी. लेकिन पुलिस की इस कोशिश का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला. पुलिस ने लापता अध्यापक विजय कुमार की पत्नी जयलक्ष्मी से भी विस्तार से पूछताछ की.

पत्नी ने क्या बताया पुलिस को

जयलक्ष्मी ने पुलिस को जो बताया, उस के अनुसार रोज की तरह उस दिन कालेज बंद होने के बाद 7 बजे के आसपास वह घर आए तो नाश्तापानी कर के कमरे में बैठ कर पैसे गिनने लगे. वे पैसे शायद फीस के थे, जिन्हें अगले दिन कालेज में जमा कराने थे. पैसे गिन कर उन्होंने पैंट की जेब में वापस रख दिए और लेट की टीवी देखने लगे.

रात का खाना खा कर साढ़े 11 बजे के करीब विजय कुमार पत्नी के साथ सोने की तैयारी कर रहे थे, तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. जयलक्ष्मी ने सवालिया निगाहों से पति की ओर देखा तो उन्होंने कहा, ‘‘देखता हूं, कौन है?’’

विजय कुमार ने दरवाजा खोला तो शायद दस्तक देने वाला विजय कुमार का कोई परिचित था, इसलिए वह बाहर निकल गए. थोड़ी देर बाद अंदर आए और कपड़े पहनने लगे तो जयलक्ष्मी ने पूछा, ‘‘कहीं जा रहे हो क्या?’’

‘‘हां, थोड़ा काम है. जल्दी ही लौट आऊंगा.’’ कह कर वह बाहर जाने लगे तो जयलक्ष्मी ने क हा, ‘‘गाड़ी की चाबी तो ले लो?’’

‘‘चाबी की जरूरत नहीं है. उन्हीं की गाड़ी से जा रहा हूं.’’ कह कर विजय कुमार चले गए. वह वही कपड़े पहन कर गए थे, जिस में पैसे रखे थे. इस तरह थोड़ी देर के लिए कह कर गए विजय कुमार गुरव लौट कर नहीं आए.

पुलिस ने विजय कुमार के बारे में पता करने के लिए अपने सारे हथकंडे अपना लिए, पर उन की कोई जानकारी नहीं मिली. 3 दिन बीत जाने के बाद भी थाना पुलिस कुछ नहीं कर पाई तो घर वाले कुछ प्रतिष्ठित लोगों को साथ ले कर एसएसपी दयानंद गवस और एसपी दीक्षित कुमार गेडाम से मिले. इस का नतीजा यह निकला कि थाना पुलिस पर दबाव तो पड़ा ही, इस मामले की जांच में सीआईडी के इंसपेक्टर सुनील धनावड़े को भी लगा दिया गया.

जब सीआईडी के इंसपेक्टर को सौंपी गई जांच

सुनील धनावड़े जांच की भूमिका बना रहे थे कि 11 नवंबर, 2017 को सावंतवाड़ी अंबोली स्थित सावलेसाद पिकनिक पौइंट पर एक लाश मिलने की सूचना मिली. सूचना मिलते ही एसपी दीक्षित कुमार गेडाम, एसएसपी दयानंद गवस इंसपेक्टर सुनील धनावड़े पुलिस बल के साथ उस जगह पहुंच गए, जहां लाश पड़ी होने की सूचना मिली थी.

यह पिकनिक पौइंट बहुत अच्छी जगह है, इसलिए यहां घूमने वालों की भीड़ लगी रहती है. यहां ऊंचीऊंची पहाडि़यां और हजारों फुट गहरी खाइयां हैं. किसी तरह की अनहोनी न हो, इस के लिए पहाडि़यों पर सुरक्षा के लिए लोहे की रेलिंग लगाई गई है.

दरअसल, यहां घूमने आए किसी आदमी ने रेलिंग के पास खून के धब्बे देखे तो उस ने यह बात एक दुकानदार को बताई. दुकानदार ने यह बात चौकीदार दशरथ कदम को बताई. उस ने उस जगह का निरीक्षण किया और मामले की जानकारी थाना पुलिस को दे दी.

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पुलिस अधिकारियों ने घटनास्थल के निरीक्षण में सैकड़ों फुट गहरी खाई में एक शव को पड़ा देखा. शव बिस्तर में लिपटा था. वहीं से थोड़ी दूरी पर एक लोहे की रौड पड़ी थी, जिस में खून लगा था. इस से पुलिस को लगा कि हत्या उसी रौड से की गई है. पुलिस ने ध्यान से घटनास्थल का निरीक्षण किया तो वहां से कुछ दूरी पर कार के टायर के निशान दिखाई दिए.

इस से साफ हो गया कि लाश को कहीं बाहर से ला कर यहां फेंका गया था. पुलिस ने रौड और बिस्तर को कब्जे में ले कर लाश को पोस्टमार्टम के लिए भिजवा दिया.

सीआईडी इंसपेक्टर सुनील धनावड़े विजय कुमार गुरव की गुमशुदगी की जांच कर रहे थे, इसलिए उन्होंने लाश की शिनाख्त के लिए जयलक्ष्मी को सूचना दे कर अस्पताल बुला लिया.

लाश तो मिली पर नहीं हो सकी पुख्ता शिनाख्त

लाश की स्थिति ऐसी थी कि उस की शिनाख्त आसान नहीं थी. फिर भी कदकाठी से अंदाजा लगाया गया कि वह लाश विजय कुमार गुरव की हो सकती है. चूंकि उन के घर वालों ने संदेह व्यक्त किया था, इसलिए पुलिस ने लाश की पुख्ता शिनाख्त के लिए डीएनए का सहारा लिया. जिस बिस्तर में शव लिपटा था, उसे जयलक्ष्मी को दिखाया गया तो उस ने उसे अपना मानने से इनकार कर दिया.

भले ही लाश की पुख्ता शिनाख्त नहीं हुई थी, लेकिन पुलिस उसे विजय कुमार की ही लाश मान कर जांच में जुट गई. जिस तरह मृतक की हत्या हुई थी, उस से पुलिस ने अंदाजा लगाया कि यह हत्या प्रेमसंबंधों में हुई है. पुलिस ने विजय कुमार और उन की पत्नी जयलक्ष्मी के बारे में पता किया तो जानकारी मिली कि विजय कुमार और जयलक्ष्मी के बीच संबंध सामान्य नहीं थे.

इस की वजह यह थी कि जयलक्ष्मी का चरित्र संदिग्ध था, जिसे ले कर अकसर पतिपत्नी में झगड़ा हुआ करता था. जयलक्ष्मी का सामने वाले मकान में रहने वाले सुरेश चोथे से प्रेमसंबंध था, इसलिए घर वालों का मानना था कि विजय कुमार के गायब होने के पीछे इन्हीं दोनों का हाथ हो सकता है.

यह जानकारी मिलने के बाद सुनील धनावड़े समझ गए कि विजय कुमार के गायब होने के पीछे उन की पत्नी जयलक्ष्मी और उस के प्रेमी सुरेश का हाथ है. उन्होंने जयलक्ष्मी से एक बार फिर पूछताछ की. वह उस की बातों से संतुष्ट नहीं थे, लेकिन कोई ठोस सबूत न होने की वजह से वह उसे गिरफ्तार नहीं कर सके. उन्होंने सुरेश चोथे को भी थाने बुला कर पूछताछ की. उस ने भी खुद को निर्दोष बताया. उस के भी जवाब से वह संतुष्ट नहीं थे, इस के बावजूद उन्होंने उसे जाने दिया.

उन्हें डीएनए रिपोर्ट का इंतजार था, क्योंकि उस से निश्चित हो जाता कि वह लाश विजय कुमार की ही थी. पुलिस डीएनए रिपोर्ट का इंतजार कर ही रही थी कि पुलिस की सरगर्मी देख कर जयलक्ष्मी अपने सारे गहने और घर में रखी नकदी ले कर सुरेश चोथे के साथ भाग गई. दोनों के इस तरह घर छोड़ कर भाग जाने से पुलिस को शक ही नहीं, बल्कि पूरा यकीन हो गया कि विजय कुमार के गायब होने के पीछे इन्हीं दोनों का हाथ है.

शक के दायरे में आई पत्नी और उस का प्रेमी

पुलिस सुरेश चोथे और जयलक्ष्मी की तलाश में जुट गई. पुलिस उन की तलाश में जगहजगह छापे तो मार ही रही थी, उन के फोन भी सर्विलांस पर लगा दिए थे. इस से कभी उन के दिल्ली में होने का पता चलता तो कभी कोलकाता में. गुजरात और महाराष्ट्र के शहरों की भी उन की लोकेशन मिली थी. इस तरह लोकेशन मिलने की वजह से पुलिस कई टीमों में बंट कर उन का पीछा करती रही थी.

आखिर पुलिस ने मोबाइल फोन के लोकेशन के आधार पर जयलक्ष्मी और सुरेश को मुंबई के लोअर परेल लोकल रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार कर लिया. उन्हें थाना गडहिंग्लज लाया गया, जहां एसएसपी दयानंद गवस की उपस्थिति में पूछताछ शुरू हुई. अब तक डीएनए रिपोर्ट भी आ गई थी, जिस से साफ हो गया था कि सावलेसाद पिकनिक पौइंट पर खाई में मिली लाश विजय कुमार की ही थी. पुलिस के पास सारे सबूत थे, इसलिए जयलक्ष्मी और सुरेश ने तुरंत अपना अपराध स्वीकार कर लिया. दोनों के बताए अनुसार, विजय कुमार की हत्या की कहानी इस प्रकार थी.

कैसे हुआ जयलक्ष्मी और सुरेश में प्यार

34 साल का सुरेश चोथे विजय कुमार गुरव के घर के ठीक सामने रहता था. उस के परिवार में पत्नी और 2 बच्चों के अलावा मातापिता, एक बड़ा भाई और भाभी थी. वह गांव की पंचसंस्था में मैनेजर के रूप में काम करता था. घर में पत्नी होने के बावजूद वह जब भी जयलक्ष्मी को देखता, उस के मन में उसे पाने की चाहत जाग उठती.

37 साल की जयलक्ष्मी थी ही ऐसी. वह जितनी सुंदर थी, उतनी ही वाचाल और मिलनसार भी थी. उस से बातचीत कर के हर कोई खुश हो जाता था, इस की वजह यह थी कि वह खुल कर बातें करती थी. ऐसे में हर कोई उस की ओर आकर्षित हो जाता था. पड़ोसी होने के नाते सुरेश से उस की अकसर बातचीत होती रहती थी.

बातचीत करतेकरते ही वह उस का दीवाना बन गया था. जयलक्ष्मी का बेटा 18 साल का था, लेकिन उस के रूपयौवन में जरा भी कमी नहीं आई थी. शरीर का कसाव और चेहरे के निखार से वह 25 साल से ज्यादा की नहीं लगती थी. उस के इसी यौवन और नशीली आंखों के जादू में सुरेश कुछ इस तरह खोया कि अपनी पत्नी और बच्चों को भूल गया.

कहा जाता है कि जहां चाह होती है, वहां राह मिल ही जाती है. जयलक्ष्मी तक पहुंचने की राह आखिर सुरेश ने खोज ही ली. विजय कुमार से दोस्ती कर के वह उस के घर के अंदर तक पहुंच गया था. इस के बाद धीरेधीरे उस ने जयलक्ष्मी से करीबी बना ली. भाभी का रिश्ता बना कर वह उस से हंसीमजाक करने लगा. हंसीमजाक में जयलक्ष्मी के रूपसौंदर्य की तारीफ करतेकरते उस ने उसे अपनी ओर इस तरह आकर्षित किया कि उस ने उसे अपना सब कुछ सौंप दिया.

विजय कुमार गुरव दिन भर नौकरी पर रहते और रात में गानेबजाने की वजह से अकसर बाहर ही रहते थे. इसी का फायदा जयलक्ष्मी और सुरेश उठा रहे थे. जयलक्ष्मी को अपनी बांहों में पा कर जहां सुरेश के मन की मुराद पूरी हो गई थी, वहीं जयलक्ष्मी भी खुश थी. दोनों विजय कुमार की अनुपस्थिति में मिलते थे, इसलिए उन्हें पता नहीं चल पाता था.

लेकिन आसपास वालों ने विजय कुमार के घर में न रहने पर सुरेश को अकसर उस के घर आतेजाते देखा तो उन्हें शंका हुई. उन्होंने विजय कुमार को यह बात बता कर शंका जाहिर की तो विजय कुमार हैरान रह गए. उन्हें तो पत्नी और पड़ोसी होने के नाते सुरेश पर पूरा भरोसा था.

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इस तरह दोनों विजय कुमार के भरोसे का खून कर रहे थे. उन्होंने पत्नी और सुरेश से इस विषय पर बात की तो दोनों कसमें खाने लगे. उन का कहना था कि उन के आपस में संबंध खराब करने के लिए लोग ऐसा कह रहे हैं.

भले ही जयलक्ष्मी और सुरेश ने कसमें खा कर सफाई दी थी, लेकिन विजय कुमार जानते थे कि बिना आग के धुआं नहीं उठ सकता. लोग उन से झूठ क्यों बोलेंगे? सच्चाई का पता लगाने के लिए वह पत्नी और सुरेश पर नजर रखने लगे. इस से जयलक्ष्मी और सुरेश को मिलने में परेशानी होने लगी, जिस से दोनों बौखला उठे. इस के अलावा सुरेश को ले कर विजय कुमार अकसर जयलक्ष्मी की पिटाई भी करने लगे थे.

इस तरह बनी विजय कुमार की हत्या की हत्या की योजना

इस से जयलक्ष्मी तो परेशान थी ही, प्रेमिका की पिटाई से सुरेश भी दुखी था. वह प्रेमिका की पिटाई सहन नहीं कर पा रहा था. जयलक्ष्मी की पिटाई की बात सुन कर उस का खून खौल उठता था. प्रेमी के इस व्यवहार से जयलक्ष्मी ने एक खतरनाक योजना बना डाली. उस में सुरेश ने उस का हर तरह से साथ देने का वादा किया.

योजना के अनुसार, घटना वाले दिन जयलक्ष्मी ने खाने में नींद की गोलियां मिला कर पति, ननद और बेटे को खिला दीं, जिस से सभी गहरी नींद सो गए. रात एक बजे के करीब सुरेश ने धीरे से दरवाजा खटखटाया तो जयलक्ष्मी ने दरवाजा खोल दिया. सुरेश लोहे की रौड ले कर आया था. उसी रौड से उस ने पूरी ताकत से विजय कुमार के सिर पर वार किया. उसी एक वार में उस का सिर फट गया और उस की मौत हो गई.

विजय कुमार की हत्या कर के लाश को दोनों ने बिस्तर में लपेट दिया. इस के बाद जयलक्ष्मी ने लाश को अपनी मारुति वैन में रख कर उसे सुरेश से सावंतवाड़ी के अंबोली सावलेसाद पिकनिक पौइंट की गहरी खाइयों में फेंक आने को कहा.

सुरेश लाश को ठिकाने लगाने चला गया तो जयलक्ष्मी कमरे की सफाई में लग गई. उस के बाद सुरेश लौटा तो जयलक्ष्मी ने वैन की भी ठीक से सफाई कर दी. इस के बाद उस ने विजय कुमार की गुमशुदगी की झूठी कहानी गढ़ डाली. लेकिन उस की झूठी कहानी जल्दी ही सब के सामने आ गई.

पूछताछ के बाद पुलिस ने जयलक्ष्मी के कमरे का बारीकी से निरीक्षण किया तो दीवारों पर भी खून के दाग नजर आए. पुलिस ने उन के नमूने उठवा लिए. इस तरह साक्ष्य एकत्र कर के पुलिस ने दोनों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर अदालत में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया.

– कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

एक गलती- भाग 1: क्या उन समस्याओं का कोई समाधान निकला?

मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं संकर्षण को क्या जवाब दूं कि उस का पिता कौन है? संकर्षण मेरा बेटा है, पर उस के जीवन की भी अजब कहानी रही. वह मेरी एक गलती का परिणाम है जो प्रकृति ने कराई थी. मेरे पति आशीष के लंदन प्रवास के दौरान उन के बपचन के मित्र गगन के साथ प्रकृति ने कुछ ऐसा चक्र चलाया कि संकर्षण का जन्म हो गया. कोई सोच भी नहीं सकता था कि गगन या मैं आशीष के साथ ऐसी बेवफाई करेंगे. हम ने बेवफाई की भी नहीं थी बस सब कुछ आवेग के हाथों घटित हो गया था.

मुझे आज भी अच्छा तरह याद है जब गगन की पत्नी को हर तरफ से निराश होने के बाद डाक्टर के इलाज से गर्भ ठहरा था. पर पूर्ण समय बाद एक विकृत शिशु का जन्म हुआ, जो अधिक देर तक जिंदा न रहा.

होटल के कमरे में थके, अवसादग्रस्त और निराश गगन को संभालतेसंभालते हम लोगों को झपकी आई और कब हम लोग प्रकृति के कू्रर हाथों के मजाक बन बैठे समझ ही नहीं पाए. फिर संकर्षण का जन्म हो गया. मैं ने उसे जन्म देते ही गगन और उन की पत्नी को उसे सौंप दिया ताकि यह राज आशीष और गगन की पत्नी को पता न चले. गगन की पत्नी अपनी सूनी गोद भरने के कारण मेरी महानता के गुण गाती और आशीष मेरे इस त्याग को कृतज्ञता की दृष्टि से देखते.

हां, मेरे मन में जरूर कभीकभी अपराधबोध होता. एक तो संकर्षण से अपने को दूर करने का और दूसरा आशीष से सब छिपाने का. पर इसी में सब की भलाई थी और सबकुछ ठीकठाक चल भी रहा था. गगन और उन की पत्नी संकर्षण को पा कर खुश थे. वह उन के जीवन की आशा था. मेरे 2 बच्चे और थे कि तभी वह घटना घटी.

संकर्षण तब 10 वर्ष का रहा होगा. वह, गगन और उन की पत्नी कार से कहीं से लौट रहे थे कि उन की कार का ऐक्सिडैंट हो गया. गगन की पत्नी की घटना स्थल पर ही मौत हो गई. गगन को भी काफी चोटें आईं. हां, संकर्षण को 1 खरोंच तक नहीं आई.

काफी दिन हौस्पिटल में रहने के बाद गगन स्वस्थ हो गए पर दुनिया से विरक्त. एक दिन उन्होंने मुझे और आशीष को बुला कर कहा, ‘‘मैं ने अपनी सारी संपत्ति संकर्षण के नाम कर दी है. अब मैं संन्यास लेने जा रहा हूं. मेरी खोजखबर लेने की कोशिश मत करना.’’

हम लोगों ने बहुत समझाने की कोशिश की पर संकर्षण को हमारे हवाले कर के एक दिन वे घर छोड़ कर न जाने कहां चले गए. आशीष को गगन के जाने का गम जरूर था, पर संकर्षण अब हमारे साथ रहेगा, यह जान कर वे बहुत खुश थे. उन के अनुसार हम दोनों ने इतने दिन पुत्रवियोग सहा. तब से आज तक 10 साल बीत गए थे, लेकिन संकर्षण हम लोगों के साथ था.

हालांकि जब से उसे पता चला था कि गगन और उन की पत्नी, जिन के साथ वह इतने वर्ष रहा, उस के मातापिता नहीं हैं, मातापिता हम लोग हैं, तो वह हम से नाराज रहता. कहता, ‘‘आप लोग कैसे मातापिता हैं, जो अपने बच्चे को इतनी आसानी से किसी दूसरे को दे दिया? अगर मैं इतना अवांछनीय था, तो मुझे जन्म क्यों दिया था?’’

अपने बड़े भाईबहन से भी संकर्षण का तालमेल न बैठ पाता. उस की रुचि, सोच सब कुछ उन से अलग थी. उस की शक्ल भी गगन से बहुत मिलती थी. कई बार अपने दोनों बच्चों से इतनी भिन्नता और गगन से इतनी समरूपता आशीष को आश्चर्य में डाल देती. वे कहते, ‘‘हैरत है, इस का सब कुछ गगन जैसा कैसे है?’’

मैं कहती, ‘‘बचपन से वहीं पला है… व्यक्ति अपने परिवेश से बहुत कुछ सीखता है.’’

आशीष को आश्चर्य ही होता, संदेह नहीं. मैं और गगन दोनों ही उन के संदेह की परिधि के बाहर थे. यह सब देख कर मुझे खुद पर और क्षोभ होता था और मन करता था आशीष को सबकुछ सचसच बता दूं. लेकिन आशीष क्या सच सुन पाएंगे? इस पर मुझे संदेह था.

वैसे संकर्षण आशीष की ही भांति बुद्धिमान था. केवल उस के एक इसी गुण से जो आशीष से मिलता था, आशीष का पितृत्व संतुष्ट हो जाता, पर संकर्षण उस ने तो अपने चारों तरफ हम लोगों से नाराजगी का जाल बुन लिया और अपने को एकाकी करता चला गया.

पता नहीं यह कारण था अथवा कोई और संकर्षण अब बीमार रहने लगा. अस्थमा जैसे लक्षण थे. मर्ज धीरेधीरे बढ़ता गया.

हम लोग अब तक कोचीन में सैटल हो गए थे, पर कोचीन में ही नहीं बाहर भी अच्छे डाक्टर फेल हो गए. हालत यह हो गई कि संकर्षण कईकई घंटे औक्सीजन पर रखा जाता. मैं और आशीष दोनों ही बड़े परेशान थे.

अंत में ऐक्सपर्ट डाक्टरों की टीम की एक मीटिंग हुई और तय किया गया कि यह अल्फा-1 ऐंटीट्राइप्सिन डिजीज नामक बीमारी से पीडि़त है, जोकि जेनेटिक होती है और इस के  लक्षण अस्थमा से मिलतेजुलते हैं. हालांकि यह बीमारी 30 साल की उम्र के बाद होती है पर शायद संकर्षण को समय से पहले हो गई हो और इस के लिए पिता का डीएनए टैस्ट होना है ताकि यह तय हो सके कि वह उसी बीमारी से पीडि़त है और उस का सही इलाज हो सके.

आशीष का डीएनए टैस्ट संकर्षण से मेल नहीं खाया. मेल खाता भी कैसे? आशीष अगर उस के पिता होते तब न.

आशीष तो डीएनए रिपोर्ट आते ही बिना मेरी ओर देखे और बिना संकर्षण की बीमारी की परवाह किए कार स्टार्ट कर घर चले गए. संकर्षण की आंखों में उठते मेरे लिए नफरत के भाव और उस का यह प्रश्न करना कि आखिर मेरे पिता कौन हैं, मुझे अंदर तक झकझोर गया. मैं तो अपराधी की तरह कटघरे में खड़ी ही थी, गगन को संकर्षण की नजरों से गिराने की इच्छा न हुई अत: मैं चुप रही.

संकर्षण बोला, ‘‘आज तक मैं अपने को अवांछनीय समझता रहा जिस के मातापिता उसे बड़ी आसानी से किसी और की गोद में ऐसे डाल देते हैं, जैसे वह कोई निर्जीव वस्तु हो. पर आज पता चला कि मैं अवांछनीय होने के साथसाथ नाजायज औलाद भी हूं, अपनी चरित्रहीन मां और पिता की ऐयाशी की निशानी. आप ने आशीष अंकल को भी इतने दिन तक अंधेरे में रखा, जबकि मैं ने देखा है कि वे आप पर कितना विश्वास करते हैं, आप को कितना चाहते हैं.’’

मैं ने विरोध करना चाहा, ‘‘बेटा ऐसा नहीं है.’’

‘‘मत कहिए मुझे बेटा. इस से अच्छा था मैं बिना यह सत्य जाने मर जाता. कम से कम कुछ भ्रम तो बना रहता. अब हो सके तो कृपा कर के मेरे पिता का नाम बता दीजिए ताकि मैं उन से पूछ सकूं कि अपने क्षणिक सुख के लिए मुझे इतनी बड़ी यातनाक्यों दे डाली, जिस से निकलने का भी मुझे कोई रास्ता नहीं दिख रहा है,’’ संकर्षण बोला.

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