जनता को सरकार से न न्याय मिलता है न सही शासन. जनता हायहाय करती रहती है. वहीं यह नहीं सोचिए कि आज सरकारी कर्मचारी खुद अपनी सरकार के निकम्मेपन से परेशान नहीं हैं. दिल्ली में इंडिया गेट के निकट वरिष्ठ सरकारी अफसरों की एक कालोनी है- पंडारा रोड कालोनी. इस के निर्माण में कालोनी वालों को छोटी मार्केट देने के लिए एक पंडारा रोड मार्केट बनाई गई थी जिस में 10-15 दुकानें हैं. अब इन दुकानों में पंडारा रोड कालोनी वालों के लिए ग्रोसरी की दुकानों की जगह भव्य रैस्ट्रों खुल गए हैं जो काफी किफायती दामों पर मिर्चमसालेदार खाना परोसने के लिए प्रसिद्ध हो गए हैं.
इसी कालोनी से सटा एक पब्लिक स्कूल है. शायद यह जगह नियत की गई होगी कि यहां कालोनी में रहने वालों के बच्चे आया करेंगे. लेकिन आज नेबरहुड स्कूल की तरह यहां पर दूरदूर से विद्यार्थी आते हैं क्योंकि यह दिल्ली का नामी स्कूल है.
अब इस कालोनी के निवासी गुहार लगा रहे हैं कि मार्केट और स्कूल में आने वाले लोगों की गाडिय़ों व भीड़ से न उन्हें दिन में चैन है न रात को. दिनभर कालोनी की गलियों में बच्चों को लेने आई गाडिय़ां ड्राइवरों के साथ खड़ी रहती हैं और देररात तक रैस्ट्रां चलते रहते हैं जहां शराब भी परोसी जाती है तो हंगामे भी होते हैं.
ऊंचे पदों पर बैठे अफसर कुछ नहीं कर पाते. देश की सरकार का कोई अफसर ऐसा न होगा जो कभी न कभी इस कालोनी के छोटेबड़े मकानों में न रहा हो और उस ने स्कूल और मार्केट को न झेला हो. पर कुछ करने की बात होती है तो सब ढीले पड़ जाते हैं.
यह स्कूल सिर्फ कालोनी वालों के लिए क्यों नहीं रहा और यह मार्केट सिर्फ कालोनी वालों के लिए क्यों नहीं रही, इस का जवाब सरकारी अफसर भी नहीं दे सकते क्योंकि उन्हीं के पुराने भाईबंधुओं ने किसी जमाने में ढील दी होगी कि इन जगहों का इस्तेमाल दूसरे कामों में किया जा सकता है.
जो सरकारी अफसर अपने इर्दगिर्द की बातों का ध्यान नहीं रख सकते उन से हम अपेक्षा करते हैं कि वे देश को ढंग से चला रहे होंगे. यह कालोनी आईएएस अफसरों के लिए है जो खुद को देश का स्टील फ्रेम कहते हैं पर यह असल में गला हुआ वह फ्रेम है जिस पर जंग लगी स्टील की परते हैं जो उखड़ रही हैं. यह फ्रेम जनता पर जुल्म होते देख सकता है, जुल्म कर सकता है, जनता को न्याय नहीं दिला सकता क्योंकि यह तो अपने घरों के आसपास का इलाका भी सुरक्षित नहीं रख सकता.
देश के राज्यों की राजधानियों में सरकारी कालोनियों का यही हाल है चाहे वे मंत्रियों की हों, विधायकों की हों, जजों की हों, अफसरों की हों या क्लास फोर कर्मचारियों की. दरअसल निकम्मेपन की संस्कृति हमारी रगरग में भरी है.