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Shyam Benegal : सिनेमा, सामाजिक व राजनीतिक हालात का चित्रण या एक और नेहरूवियन फिल्मकार

Shyam Benegal : एक बार हार्वर्ड बिजनैस स्कूल के एक इंटरव्यू में श्याम बेनेगल ने कहा था, ‘‘मैं ने हमेशा महसूस किया है कि भारतीय ग्रामीण इलाकों को भारतीय सिनेमा में कभी भी ठीक से प्रस्तुत नहीं किया गया. अगर आप वास्तव में भारतीय मानस को समझना चाहते हैं तो आप को ग्रामीण भारत को देखना होगा.’’

अब आप सोचिए कि श्याम बेनेगल जैसे उच्च शिक्षित फिल्मकार किस तरह के विचार रखते थे. श्याम बेनेगल के यह महज विचार नहीं थे, बल्कि वे इन्हीं विचारों के साथ भारतीय सिनेमा में इन सारी बातों को सदैव रखते थे. उन की डाक्यूमैंट्री हो या एड फिल्म या हो फीचर फिल्म, उन्होंने ग्रामीण व गरीब की बात को सर्वाधिक सशक्त अंदाज में पेश किया.

इन दिनों संविधान का मुद्दा काफी गरमाया हुआ है. जबकि, श्याम बेनेगल ने 2014 में ही ‘संविधान’ नामक 10 एपिसोड का एक सीरियल बनाया था. हर एपिसोड की अवधि 52 मिनट थी. यह सीरियल डाक्यूमैंट्री फौर्म में राज्यसभा टीवी पर 2 मार्च, 2014 से 4 मई, 2014 तक प्रसारित हुआ था. वहीं, श्याम बेनेगल ने 53 एपिसोड का सीरियल ‘भारत एक खोज’ 1988 में बनाया था.

श्याम बेनेगल ने ‘भारत एक खोज’ के माध्यम से भारतीय सिनेमा को नई दिशा दी. ‘भारत एक खोज’ में भी महाभारत की कहानी है, कृष्ण भी है. इस के बावजूद इस में धर्म नहीं बल्कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति, पहनावा आदि नजर आता है. उसी दौर में बलदेव राज चोपड़ा उर्फ बी आर चोपड़ा ने ‘महाभारत’ सीरियल को पूरी तरह से धार्मिक अंदाज में पेश किया था. बी आर चोपड़ा की ‘महाभारत’ के किरदार राजा रवि वर्मा के कलेंडर की भांति नजर आते हैं, जबकि श्याम बेनेगल के ‘महाभारत’ के किरदार वैसे नजर नहीं आते. यह है सोच का अंतर. यह है देश की बेहतरीन समझ रखने का नतीजा.

अपनी फिल्मों के माध्यम से उन्होंने एक ऐसा सिनेमा प्रस्तुत किया जो न केवल देश की वास्तविकताओं पर आधारित था बल्कि इस की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक जटिलताओं को भी गहराई से दर्शाता था. उन के कार्यों ने जाति, वर्ग, लिंग और शक्ति के मुद्दों को एक दुर्लभ संवेदनशीलता के साथ संबोधित किया, जिस से दर्शकों को उन के आसपास की दुनिया पर एक निसंकोच नजर डालने का मौका मिला.

श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों में महिलाओं को केंद्र में रखते हुए उन्हें सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने की अनुमति दी. उन की फिल्मों ने महिलाओं के आंतरिक जीवन, संघर्ष और आकांक्षाओं का पता लगाया, जिन से वे भारतीय सिनेमा में नारीवादी कहानी कहने की अग्रणी बन गईं.

बेनेगल हमेशा महिलाओं को नायक के रूप में चित्रित करने के प्रति दृढ़ संकल्पित रहे. यह वह दौर था जब मुख्यधारा की हिंदी फिल्में अकसर महिलाओं को सहायक पत्नियों, बलिदान देने वाली माताओं या सजावटी प्रेमरुचियों की भूमिकाओं तक सीमित कर देती थीं.

भारतीय सिनेमा की सब से बड़ी कमजोर कड़ी यह है कि हमारे यहां फिल्मकार की बात को गहराई से समझने के बजाय उस की एकदो फिल्में देख कर उसे कई तरह के ‘वाद’ में विभाजित कर देते हैं. श्याम बेनेगल की फिल्म ‘अंकुर’, निशांत’, ‘मंथन’ व ‘भूमिका’ को देख कर उन पर साम्यवादी होने का आरोप मढ़ कर उन्हें एक अलग हाशिए पर डाल दूसरे फिल्मकार खुद मेनस्ट्रीम सिनेमा का अगुआ होने का राग आलापते रहे.

ऐसे लोगों पर कटाक्ष करते हुए मशहूर रंगकर्मी, निर्देशक व कौस्ट्यूम डिजाइनर, जिन्होंने श्याम बेनेगल के सीरियल ‘भारत एक खोज’ के अलावा ‘सरदार पटेल’ व ‘अतर्नाद’ जैसी फिल्मों में कौस्ट्यूम डिजाइनिंग की, कहते हैं, ‘‘क्या गरीबों की बात करना, मजदूरों की बात करना, शोषित व पीड़ितों के सामाजिक मुद्दे फिल्मों में उठाना साम्यवाद है?’’

श्याम बेनेगल को समानांतर सिनेमा या कला सिनेमा का अग्रणी माना गया और बौलीवुड में मेनस्ट्रीम सिनेमा से जुड़े फिल्मकार कला या समानांतर सिनेमा के फिल्मकारों व उन की फिल्मों में अभिनय करने वाले कलाकारों के साथ अछूत जैसा व्यवहार करते रहें. जबकि ऐसे ही मेनस्ट्रीम के फिल्मकारों ने अपनी असफलता को सफलता में बदलने के लिए श्याम बेनेगल द्वारा अपनी फिल्मों के माध्यम से स्टार व लोकप्रिय कलाकार बनाए गए शबाना आजमी, नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी आदि के आगे नतमस्तक होने पर क्यों मजबूर हुए?

श्याम बेनेगल ने अपनी सोचसमझ व विचारों के अनुरूप ही ‘जुबैदा’, कलियुग’ और ‘जुनून’ जैसी फिल्में बनाई, जिन्हें लोग कमर्शियल या यों कहें कि मेनस्ट्रीम सिनेमा मानते हैं, पर उन की नजर में आज भी श्याम बेनेगल कला या सामानांतर सिनेमा के फिल्मकार ही हैं? ऐसा क्यों, इस तरह की सोच के असल में कौन हैं जिम्मेदार? इस पर सभी को सोचविचार करने की जरूरत है.

क्या यह सच नहीं है कि श्याम बेनेगल ने जिन कहानियों को अपने सिनेमा में परोसा उन्हीं कहानियों ने देश की सिनेमाई पहचान को एक नया आकार दिया. श्याम बेनेगल की प्रतिभा को पहचान उन की पहली ही फिल्म ‘अंकुर’ से देखने को मिली जब उन की इस फिल्म के प्रदर्शित होते ही 40 से ज्यादा अवार्ड और 3 राष्ट्रीय पुरस्कारों से इस को नवाजा गया.

कुछ लोग मानते हैं कि श्याम बेनेगल सदैव धारा के विपरीत बहने का प्रयास करते हुए अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल हुए. पर यह बात हमारी समझ से परे है. माना कि 70 के दशक में तथाकथित हिंदी मेनस्ट्रीम सिनेमा खुद को चकनाचूर होते नहीं देख पा रहा था और वह गुस्से से हथियार हाथ में ले चलने लगा था. मगर इस तरह के मेनस्ट्रीम सिनेमा में गीतसंगीत, पेड़ के इर्दगिर्द नृत्य व रोमांटिक कहानियों का चस्का भी परोसा जा रहा था.

इस तरह की फिल्मों में हीरो व हीरोईन चिकनेचुपड़े थे. कुलमिला कर यह सिनेमा ग्रामीण पृष्ठभूमि से परे महानगरी पृष्ठभूमि के करीब था. माना कि एंग्रीयंगमैन के नाम से मशहूर अमिताभ बच्चन सिनेमाप्रेमियों के दिलोदिमाग पर छा चुके थे. पर इस के पीछे प्रचारतंत्र का भी बहुत बड़ा योगदान था.

भारतीय इतिहास में 70 का दशक राजनीतिक अशांति, आर्थिक संघर्ष और तेजी से सामाजिक परिवर्तनों से चिह्नित एक अशांत युग था, तब श्याम बेनेगल ने एक राष्ट्र की अपनी पहचान के साथ आने वाली आकांक्षाओं और चिंताओं को आवाज दी. उन्होंने मेनस्ट्रीम सिनेमा के फिल्मकारों की तरह पलायनवाद का रास्ता नहीं इख्तियार किया.

उसी दौर में डाक्यूमैंट्री व एड फिल्म बनाने में व्यस्त श्याम बेनेगल को एहसास हुआ कि जिस दर्द को वे बचपन से महसूस करते आए हैं वह बेचारगी, ग्रामीणों का शोषण आदि की तो बात न की जा कर सिर्फ सपने बेचे जा रहे हैं. यह सिनेमा हमारे देश की तसवीर पेश करने के बजाय दर्शक और हर आम इंसान को पलायनवादी बना रहा है. तब उन्होंने एक अतिसाधारण कहानी ‘अंकुर’ लिख कर उस कहानी के किरदारों में अनजान चेहरों शबाना आजमी व अनंत नाग को पिरो कर हैदराबाद में जा कर फिल्माया.

श्याम बेनेगल की यह कहानी 1950 के हैदराबाद में घटित एक सत्य घटनाक्रम से प्रेरित होने के साथ ही सामंतवाद की मुखालफत करती है. इस फिल्म के अंत में एक दृश्य है, जिस में एक छोटा बच्चा, सूर्या के घर की कांच की खिड़की पर पत्थर फेंक कर भाग जाता है. इस दृश्य को लोग भुला नहीं पाते.

सत्य घटना पर आधारित फिल्म ‘अंकुर’ मानवी व्यवहार का विश्लेषण करती अति जटिल फिल्म है. कहानी के केंद्र में दो किरदार लक्ष्मी और सूर्या हैं जिन का सामाजिक स्तर विरोधाभासी है. फिल्म में श्याम बेनेगल ने जातिगत मतभेदों, जातिगत पूर्वाग्रहों के साथ ही सामंतवादी सोच व यौन उत्पीड़न के मुद्दे को पूरी गंभीरता से उठाया है.

दलित जाति से संबंध रखने वाली लक्ष्मी (शबाना आजमी) अपने बहरे व गूंगे, शराबी व अतिगरीब कुम्हार पति किश्तय्या (साधु मेहर) के साथ एक गांव में रहती है. लक्ष्मी की अपनी जिंदगी में एकमात्र इच्छा एक बच्चे की मां बनना है. उधर गांव के जमींदार के शहर में पढ़ाई कर वापस लौटे बेटे सूर्या (अनंत नाग) की अपनी समस्याएं हैं.

सूर्या के पिता (खादर अली बेग) की कौशल्या नामक मालकिन है, जिस से उस का नाजायज बेटा प्रताप है. सूर्या के पिता का दावा है कि उन्होंने कौशल्या को ‘गांव की सब से अच्छी जमीन’ प्यार के तोहफे के रूप में दी है. तो वहीं सूर्या को मजबूरन अपना विवाह नाबालिग सारू (प्रिया तेंदुलकर) से इस शर्त पर करना पड़ता है कि जब तक सारू यौवन में नहीं पहुंच जाती वह सारू के साथ यौनसंबंध स्थापित नहीं कर सकता.

सूर्या अनिच्छा से गांव में अपनी जमीन पर बने पुराने घर में अकेले रहने चला जाता है. लक्ष्मी और किश्तय्या उस के नौकर होते हैं. सूर्या पहली मुलाकात में ही लक्ष्मी की ओर आकर्षित होने लगता है और उसे अपना खाना पकाने व चाय परोसने का काम देता है. इस से गांव के पुजारी नाराज होते हैं.

अब तक पारंपरिक रूप से जमींदार को भोजन पहुंचाने का काम पुजारी ही करते रहे हैं. उधर, सूर्या किश्तय्या को अपनी बैलगाड़ी चलाने के लिए रखता है और किश्तय्या की अनुपस्थिति में वह लक्ष्मी संग शारीरिक संबंध स्थापित करता है. गांव में अफवाहें गरम हो जाती हैं कि बेटा सूर्या भी अपने पिता के ही नक्शेकदम पर चल रहा है.

शराबी किश्तय्या ताड़ी चुराते हुए पकड़ कर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता है. तब वह शर्मिंदगी के चलते गांव छोड़ देता है. अब सूर्या व लक्ष्मी के बीच कोई नहीं रहता. दोनों एकसाथ सोते हैं. कुछ समय बाद सारू अपने पति के साथ रहने के लिए आ जाती है. सारू दलित लक्ष्मी को पसंद नहीं करती और उसे नौकरी से बाहर का रास्ता दिखा देती है.

सूर्या चुप रहता है क्योंकि गर्भधारण कर चुकी लक्ष्मी सूर्या के कहने पर भी गर्भपात करवाने से इनकार कर देती है. इसी बीच, किश्तय्या शराब की लत को छुड़ा कर वापस आता है, पर सूर्या अपने साथियों की मदद से उस पर कोड़े बरसाता है. लक्ष्मी अपने पति का बचाव करने के लिए दौड़ पड़ती है. वह गुस्से में सूर्या को कोसती है, फिर धीरेधीरे किश्तय्या के साथ घर लौटती है.

अंतिम दृश्य में जब सभी चले जाते हैं, तब एक छोटा बच्चा सूर्या की कांच की खिड़की पर पत्थर फेंकता है और भाग जाता है. यह दृश्य अपनेआप में बहुतकुछ कह जाता है.

निशांतः तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘बैन’ होने से बचाया था

फिल्म ‘अंकुर’ के बाद फिर हैदराबाद की ही एक सत्य घटनाक्रम यानी कि तेलंगाना के 1940 से 1950 के विद्रोह के खिलाफ सामंतवाद की आलोचना करने वाली फिल्म ‘निशांत’ बनाई थी, जिस में उन्होंने सामंतवाद के समय के दौरान ग्रामीण तबके की महिलाओं के यौन शोषण की बात की. जब श्याम बेनेगल ने अपनी इस फिल्म को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के पास पारित करने के लिए भेजा, तब तक देश में इमरजैंसी लग चुकी थी. उस वक्त सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल थे.

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी कि सैंसर बोर्ड ने ‘निशांत’ को बिना कट के प्रमाणपत्र देने का फैसला कर लिया था. लेकिन इस की भनक सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल तक पहुंच गई. माननीय मंत्री महोदय अपना सारा काम छोड़ कर हवाईजहाज पकड़ कर सीधे मुंबई पहुंच गए और सैंसर बोर्ड फिल्म को पारित किए जाने का प्रमाणपत्र श्याम बेनेगल को सौंपता, उस से पहले ही विद्याचरण शुक्ल ने फिल्म ‘निशांत’ देखी और इसे बैन करने का आदेश दे दिया.

देश में वह राजनीतिक उथलपुथल का दौर था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी इसी के चलते काफी व्यस्त थीं. पर उन्हें जब पता चला कि ‘निशांत’ को बैन कर दिया गया है तो उन्होंने दिल्ली में एक निजी शो में फिल्म को देखा और फिर फिल्म को बैन किए जाने पर सवाल उठाते हुए कहा था, ‘‘इस से सरकार असंवेदनशील और तुच्छ प्रतीत होती है.’’ उस के बाद ‘निशांत’ पर बैन हट गया था. और श्याम बेनेगल का आत्मविश्वास बढ़ गया था.

मजेदार बात यह है कि बाद में इस फिल्म ने 1977 में हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता. इसे 1976 के कान्स फिल्म महोत्सव में पाल्मे डी’ओर के लिए प्रतिस्पर्धा करने के लिए चुना गया था. 1976 के लंदन फिल्म फैस्टिवल व 1977 के मेलबर्न इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल और 1977 के शिकागो इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में आमंत्रित किया गया था, जहां इसे गोल्डन प्लाक से सम्मानित किया गया था.

फिल्म ‘निशांत’ में जागीरदार व उन के बेटों के अत्याचार का चित्रण है. जागीरदार के बेटों ने प्रथा बना ली है कि वे गांव की किसी भी महिला को अपने साथ सोने के लिए मजबूर कर सकते हैं. गांव के नए टीचर की पत्नी सुशीला को भी वे उठा कर ले जाते हैं और जागीरदार के घर के अंदर उस के साथ हर दिन बलात्कार होता रहता है. शिक्षक पति पुलिस व प्रशासन हर जगह मदद मांगने जाता है, मदद नहीं मिलती, पर वह प्रयास कर सभी पीड़ितों को इकट्ठा करता है. संगठित ग्रामीण अपने उत्पीड़कों का वध करते हैं. ये उन्मादी ग्रामीण निर्दोष रुक्मिणी के साथसाथ सुशीला को भी मार डालते हैं, जिसे खुद उस का पति नहीं बचा पाता.

फिल्म ‘अंकुर’ और ‘निशांत’ की चर्चा करते हुए ब्रिटिश फिल्म और टैलीविजन अकादमी के साथ एक साक्षात्कार में बेनेगल ने कहा था, ‘‘ भारतीय महिला को हमेशा एक पीड़ित के रूप में चित्रित किया गया है. मैं इसे बदलना चाहता था.’’ यह कटु सत्य है. श्याम बेनेगल की फिल्में महिलाओं का अधिक प्रामाणिक प्रतिनिधित्व प्रस्तुत करने में सफल रहीं.

‘मंथन’ में जातिवाद का मुद्दा

इस के बाद श्याम बेनेगल ने 1976 में अमूल नामक दूध सहकारी आंदोलन के वर्गीस कूरियन की सलाह पर नसीरुद्दीन शाह, अमरीश पुरी, गिरीश कर्नाड और स्मिता पाटिल जैसे कलाकारों को ले कर फिल्म ‘मंथन’ का निर्माण किया, जिस के लिए वर्गीस कूरियन ने 5 लाख डेयरी किसानों से दोदो रुपए एकत्र कर दिए थे.

इस के बावजूद श्याम बेनेगल ने अपनी इस फिल्म में जाति व्यवस्था का अहम मुद्दा उठाया था. 48 साल बाद 2024 में ‘मंथन’ का फिर से कांस फिल्म फैस्टिवल में प्रदर्शन किया गया. इस फिल्म के लिए संयुक्त राष्ट्र ने श्याम बेनेगल और वर्गीज कुरियन को खासतौर पर सम्मानित करने के लिए बुलाया था.

इसे 1977 में हिंदी की सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला था. इस के साथ ही इस फिल्म के शीर्षक गीत ‘मेरो गाम कथा परे…’ के लिए सिंगर प्रीति सागर को भी फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था.

सामंती पितृसत्तात्मक सोच व जातिवाद का विरोध करती फेमिनिस्ट फिल्म ‘भूमिका’

70 के दशक में भारतीय सिनेमा में पुरुषों और पुरुषप्रधान फिल्मों का वर्चस्व था. यह वह दौर था जब अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, शशि कपूर, धर्मेंद्र, शत्रुघ्न सिन्हा, डैनी जैसे कलाकारों के अभिनय का जलवा था और फिल्मों में महिला पात्र महज शोपीस या ग्लैमरगर्ल मात्र हुआ करती थीं.

ऐसे वक्त में श्याम बेनेगल ने महिलाओं की स्थिति व फेमिनिस्ट सोच वाली फिल्म ‘भूमिका’ बनाई. 11 नवंबर, 1977 को रिलीज हुई यह फिल्म मराठीभाषी अभिनेत्री हंसा वाडकर के जीवन पर लिखी बुक ‘सांगत्ये आइका’ से प्रेरित थी. इस में मराठी अभिनेत्री द्वारा अपनी स्वतंत्रता की खोज के साथ उस की सामाजिक अपेक्षाओं और व्यक्तिगत उथलपुथल का चित्रण किया गया है.

इस फिल्म में स्मिता पाटिल, अमोल पालेकर, अनंत नाग, नसीरुद्दीन शाह और अमरीश पुरी मुख्य किरदार में हैं. फिल्म की कहानी के केंद्र में इतना भर है कि एक नारी के जीवन में किस तरह से पुरुष आते हैं और जिस के चलते उस की जिंदगी में किस तरह के बदलाव आते हैं. किसी कलाकार के अस्तव्यस्त जीवन को ले कर इतनी बेहतरीन बायोपिक फिल्म अब तक कोई अन्य फिल्मकार नहीं बना पाया. यहां तक कि राज कुमार हिरानी ‘संजू’ और दक्षिण में नाग अश्विन ‘महानटी’ में भी फेल हो गए.

‘भूमिका’ फिल्म ने 2 राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ फिल्म का फिल्मफेयर पुरस्कार जीता. इसे कार्थेज फिल्म फैस्टिवल 1978, शिकागो फिल्म फैस्टिवल में आमंत्रित किया गया था, जहां इसे गोल्डन प्लाक 1978 से सम्मानित किया गया था. 1986 में इसे फैस्टिवल औफ इमेजेज, अल्जीरिया में आमंत्रित किया गया था.

श्याम बेनेगल ने इस फिल्म में जातिवाद और ‘नारी महज भोग्या’ के सिद्धांत का विरोध किया है. तो इस फिल्म में भी सामंती पितृसत्तात्मक सोच का विरोध साफ नजर आता है. फिल्म में पत्नी द्वारा सौतन से कहा गया यह संवाद बहुतकुछ कह जाता है, ‘‘बिस्तर बदल जाते हैं, रसोई बदल जाती है, पुरुषों के मुखौटे बदल जाते हैं लेकिन पुरुष नहीं बदलते हैं.’’

‘भूमिका’ का निर्माण करते हुए श्याम बेनेगल ने बायोपिक फिल्म की शैली यानी कि पारंपरिक उत्थानपतनउदय का पालन नहीं किया. फिल्म में उन के जीवन के प्रमुख घटनाक्रमों का समावेश जरूर है. श्याम बेनेगल ने नारी को उस के हाल पर नहीं छोड़ा है बल्कि फिल्म के अंत में नायिका ऊषा की आंखें जल रही हैं और उस के होंठ एक कड़ी रेखा में खिंचे हुए हैं. वह पूरे दृढ़संकल्प के साथ खुद से वादा करती है, ‘अब मैं वही करूंगी जो मुझे अच्छा लगेगा.’

कोंडराः पितृसत्तात्मक समाज के नैतिक पाखंडों की बात

1978 में आई फिल्म ‘कोंडरा’ पितृसत्तात्मक समाज के सामाजिक और नैतिक पाखंडों की पड़ताल करती है. यहां बेनेगल ने महिलाओं को सौंपी गई प्रतिबंधात्मक भूमिकाओं और पुरुषप्रधान समाजों द्वारा नियंत्रण बनाए रखने के लिए धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं में हेरफेर करने के तरीकों की आलोचना करने के लिए मिथक और लोककथाओं का उपयोग किया है.

‘कलियुग’ में पूंजीवाद और इंसानी कमजोरी पर प्रहार

1974 से 1980 तक श्याम बेनेगल ने जितनी भी फिल्में बनाईं, सभी फिल्में छोटे बजट की रहीं और इन सभी पर कला या समानांतर सिनेमा का ठप्पा लगता रहा. लेकिन 1981 में श्याम बेनेगल ने ‘कलियुग’ का निर्देशन किया, जिस का निर्माण मेनस्ट्रीम व कमर्शियल सिनेमा के अभिनेता व राज कपूर के भाई शशि कपूर ने किया था. इस फिल्म में राज बब्बर, शशि कपूर, सुप्रिया पाठक, अनंत नाग, रेखा, कुलभूषण खरबंदा, सुषमा सेठ जैसे दिग्गज कलाकारों ने अभिनय किया था.

श्याम बेनेगल ने भले ही शशि कपूर के लिए यह फिल्म बनाई थी मगर इस फिल्म में भी श्याम बेनेगल ने पूंजीवाद और मानवीय कमजोरी पर तीखा प्रहार करते हुए कलियुगी परिवार के बीच कारोबार को ले कर होने वाले विवाद और दुश्मनी की कहानी पेश की. ‘कलियुग’ को फिल्मफेयर का बेस्ट फिल्म अवार्ड मिला. इस के साथ ही ‘कलियुग’ उन 3 भारतीय फिल्मों में से एक थी जिन्हें अकादमी पुरस्कारों में नामित किया गया था.

1982 में प्रदर्शित फिल्म ‘आरोहण’ में किसानों की दुर्दशा का चित्रण किया.

मंडी: सफदेपोश चेहरे हुए बेनकाब

श्याम बेनेगल सिर्फ सभ्य समाज या आम इंसानों तक ही सीमित नहीं रहे. उन्होंने वेश्यायों की जिंदगी पर भी फिल्म बनाई, मगर आम फिल्मों से हट कर. हिंदी सिनेमा में तवायफों के जीवन को हमेशा ही बहुत ग्लैमराइज तरीके से दिखाया जाता रहा है. पर जब श्याम बेनेगल ने 1983 में वेश्यालय पर ‘मंडी’ बनाई तो उन्होंने तवायफों के जीवन के सच के साथ समाज के कई सफेदपोश चेहरों को भी बेनकाब किया.

इस फिल्म में बेनेगल समाज द्वारा अकसर कलंकित और खारिज की जाने वाली महिलाओं का मानवीयकरण कर के दर्शकों को अपने स्वयं के पूर्वाग्रहों और सामाजिक पाखंडों पर सवाल उठाने के लिए मजबूर करते हैं. शबाना आजमी, कुलभूषण खरबंदा, सईद जाफरी, नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी के अभिनय से सजी इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से भी नवाजा गया था.

सुस्मानः नारी और आर्थिक चुनौतियां

बेनेगल ने अपनी फिल्मों में नारी के समक्ष आने वाले आर्थिक संकट और सामाजिक चुनौतियों पर भी खुल कर बात की. मसलन, 1987 में प्रदर्शित हथकरघा उद्योग के इर्दगिर्द घूमने वाली कहानी पर आधारित फिल्म ‘सुस्मान’. इस में हथकरघा उद्योग और कारीगरों के संघर्ष की मार्मिक दास्तान है. जबकि फिल्म मुख्यरूप से बुनकरों के आर्थिक शोषण पर केंद्रित है. यह प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच अपने परिवारों और समुदायों को बनाए रखने में महिलाओं की भूमिका पर भी रोशनी डालती है.

इन महिलाओं, जिन्हें अकसर स्वीकार नहीं किया जाता है, को अपने घरों की रीढ़ की हड्डी के रूप में चित्रित किया जाता है, जो श्रम और सामाजिक अपेक्षाओं के दोहरे बोझ से निबटती हैं. यों तो 10 साल पहले फिल्म ‘मंथन’ की श्वेतक्रांति में वे महिलाओं की भूमिका का चित्रण कर चुके थे. यह फिल्म दमनकारी व्यवस्थाओं को चुनौती देने और अपने अधिकारों का दावा करने में उन की सामूहिक शक्ति और लचीलेपन को प्रदर्शित करती है. ‘मंथन’ में नारी सशक्तीकरण के माध्यम से ही सहकारी आंदोलन को गति मिलती है.

सूरज का सातवां घोड़ाः साहित्यिक कहानी, मगर बहुत बड़ा राजनीतिक संदेश

श्याम बेनेगल ने साहित्य से भी परहेज नहीं किया. उन्होंने एनएफडीसी की मदद से धर्मवीर भारती के उपन्यास ‘द सन्स सेवेंथ हौर्स’ पर आधारित फिल्म ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ बनाई. इस फिल्म में उन्होंने पारंपरिक सिनेमाई संरचनाओं को चुनौती दी. अभिनेता रजित कपूर, रघुवीर यादव, राजेश्वरी सचदेव, अमरीश पुरी, पल्लवी जोशी, नीना गुप्ता जैसे कलाकारों के अभिनय से सजी इस फिल्म ने 1993 में हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता था.

आत्मचिंतनशील शैली की इस फिल्म में कहानीकार मानेक मुल्ला (रजित कपूर) अपने दोस्तों को 3 महिलाओं की 3 कहानियां सुनाता है. जिन्हें वे अपने जीवन में अलगअलग समय पर जानते थे. राजेश्वरी सचदेव (मध्यवर्ग के लिए एक रूपक), पल्लवी जोशी (बौद्धिक और समृद्ध) और नीना गुप्ता (गरीब).

तीनों कहानियां एक ही कहानी के तीन अलगअलग पहलू हैं. इस कहानी में बताया गया है कि सूर्य के रथ को खींचने वाले सात घोड़ों की एक निर्धारित भूमिका तय होती है, लेकिन जो सब से कमजोर माना जाता है, वही भविष्य का प्रतिनिधित्व करता है. यह वही घोड़ा है जो लोगों को जीने की उम्मीद देता है.

श्याम बेनेगल ने ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ के माध्यम से इस बात पर रोशनी डालने का प्रयास किया कि किसी समूह या समाज में सब से निचला, सब से धीमा या सब से कमजोर ही समूह की गति या प्रगति निर्धारित करता है.

सरदारी बेगम: पितृसत्तात्मक समाज में पहचान तलाशती शास्त्रीय गायिका

ठुमरी गायिका के जीवन को चित्रित करती फिल्म ‘सरदारी बेगम’ एक शास्त्रीय गायिका की कहानी है जो कि सामाजिक बंधनों और व्यक्तिगत आकांक्षाओं से जूझती है. वह पितृसत्तात्मक समाज में अपनी अलग पहचान के लिए संघर्ष करती है. फिल्म में पारिवारिक रिश्तों, पीढ़ीगत और यौन राजनीति के साथसाथ सामाजिक रीतिरिवाजों पर भी चोट किया गया है. इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है. फिल्म में किरण खेर, अमरीश पुरी, रजित कपूर और राजेश्वरी सचदेव मुख्य भूमिका में हैं.

‘जुबैदा’: आजादखयालों वाली औरत का दर्द

2001 में श्याम बेनेगल ने फिल्म ‘जुबैदा’ में आजादखयालों वाली औरत की दुखद कहानी को परदे पर उतारा. जिस में प्यार, त्याग और महत्त्वाकांक्षा की एक मार्मिक खोज की गई. करिश्मा कपूर, मनोज वाजपेयी, सुरेखा सीकरी, रजत कपूर, लिलेट दुबे, अमरीश पुरी, फरीदा जलाल और शक्ति कपूर के अभिनय से सजी इस फिल्म को भी राष्ट्रीय पुरस्कार तथा करिश्मा कपूर को फिल्मफेयर अवार्ड मिला था.

इस तरह यदि श्याम बेनेगल की फिल्मों पर नजर दौड़ाई जाए तो एक ही बात उभ कर आती है कि श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्मों के माध्यम से हाशिए पर पड़े व निम्न लोगों को आवाज देने का प्रयास किया. वंचितों और वंचितों के जीवन पर केंद्रित कहानियों के माध्यम से वे आजीवन मुख्यधारा की कहानियों को चुनौती देते हुए विजयी बन कर उभरते रहे.

क्राउडफंडिंग का पहला सफल प्रयोग

इन दिनों ‘क्राउडफंडिंग’ शब्द काफी प्रचलित है. लेकिन सब से पहले श्याम बेनेगल ने ‘क्राउडफंडिंग’ से फिल्म ‘मंथन’ बनाई थी. वैसे उन्होंने ऐसा सीधे तौर पर नहीं किया था. यह फिल्म एनडीटीवी की थी, जिस के लिए दुग्ध व्यापार से जुड़े 5 लाख किसानों ने दोदो रुपए दिए थे. 1976 में दो रुपए की क्या कीमत थी, इस का एहसास किया जा सकता है.

मेनस्ट्रीम के फिल्मसर्जकों की तरह श्याम बेनेगल ने भारत को रोमांटिक बनाने के बजाय पूरे देश को उस के अल्पसंख्यकों और वंचित समुदायों के चश्मे से देखा. उन का सारा ध्यान ग्रामीण भारत, ग्रामीण इलाकों में मौजूद जातिवाद, आम इंसान के शोषण पर था और इसी को उन्होंने अपनी फिल्म में मुद्दा बनाया. उन्होंने वर्ग असमानताओं का एक स्पष्ट चित्रण पेश किया.

तभी एक बार फिल्म समीक्षक चिदानंद दासगुप्ता ने लिखा था, “’सत्यजीत रे के विपरीत, बेनेगल के काम ने जानबूझ कर किसी का पक्ष लिया और पात्रों को उत्पीड़कों और उत्पीड़ितों में विभाजित कर दिया. उन का यथार्थवाद अडिग था और सरलीकृत समाधान पेश करने से इनकार करता था.’’

नेहरूवाद से प्रेरित

बेनेगल की शुरुआती फिल्मों में तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों का चित्रण रहा, जिस के चलते उन पर नेहरूवादी होने के आरोप भी लगे. 1976 में फिल्म ‘मंथन’ ने सहकारी डेयरी आंदोलन का जश्न मनाया. तो वहीं पूरे 20 साल बाद 1996 में आई फिल्म ‘द मेकिंग औफ द महात्मा’ ने दक्षिण अफ्रीका में गांधी के प्रारंभिक वर्षों और उन के अहिंसा के दर्शन के विकास का पता लगाती है. श्याम बेनेगल ने महात्मा गांधी को देवता मानने के बजाय एक ऐसे इंसान के रूप में पेश किया जो उन की परिस्थितियों, व्यक्तिगत संघर्षों और उत्पीड़ितों के साथ बातचीत से आकार लेता है. गांधी की नैतिक दुविधाओं और विकसित होती रणनीतियों पर फिल्म का जोर नेतृत्व में अनुकूलनशीलता और आत्मप्रतिबिंब के महत्त्व पर एक सूक्ष्म टिप्पणी के रूप में भी काम करता है. फिर उन्होंने राजीव गांधी के कार्यकाल में जवाहरलाल नेहरू की किताब ‘द डिस्कवरी औफ इंडिया’ पर आधारित 53 एपिसोड का सीरियल ‘भारत एक खोज’ ले कर आए, जिस में गहराई और निष्पक्षता के साथ भारत के इतिहास का पता लगाया गया.

बेनेगल ने स्रोतसामग्री के प्रति ईमानदारी बरतते हुए भी हुए अंधराष्ट्रवाद को दूर रखा. श्याम बेनेगल ने इस सीरियल को बनाते समय ऐतिहासिक निष्ठा और सामाजिक व राजनीतिक टिप्पणी के बीच संतुलन बरकरार रखा. बौद्ध धर्म के उदय, भक्ति और सूफी आंदोलनों व औपनिवेशिक मुठभेड़ जैसे प्रसंगों की खोज के माध्यम से सीरियल ऐतिहासिक घटनाओं और सांप्रदायिकता, जातिगत भेदभाव और लैंगिक असमानता जैसे समकालीन मुद्दों के बीच समानताएं बनाता है.

अभी भी लैंगिक पूर्वाग्रह और रूढ़िवादिता के मुद्दों से जूझ रहे बौलीवुड में श्याम बेनेगल का सिनेमा सवाल उठाने, चुनौती देने और बदलाव को प्रेरित करने की शक्ति का प्रमाण है. महिलाओं के बारे में अपने सूक्ष्म, सहानुभूतिपूर्ण और निसंदेह ईमानदार चित्रण के माध्यम से बेनेगल ने भारतीय सिनेमा की संभावनाओं को फिर से परिभाषित किया.

उन की फिल्में नारीवादी आख्यानों के लिए एक कसौटी के रूप में काम करती रहती हैं, जिस से यह साबित होता है कि सिनेमा समाज का प्रतिबिंब और इस के परिवर्तन के लिए एक शक्ति दोनों हो सकता है.

उन की फिल्मों की सब से बड़ी खासीयत यह है कि उन की फिल्म की कहानी चाहे ग्रामीण महाराष्ट्र, दक्षिण भारत या गुजरात के बैकड्राप पर हो, पर वह कहानी के अनुसार स्थानीय रीतिरिवाजों, बोलियों और सांस्कृतिक बारीकियों पर सावधानीपूर्वक ध्यान देती है.

यह क्षेत्रीय विशिष्टता उन के आख्यानों में गहराई और यथार्थवाद जोड़ती है. उदाहरण के लिए, ‘मंथन’ में पात्र गुजराती और हिंदी का मिश्रण बोलते हैं, जो क्षेत्र की भाषाई विविधता को दर्शाता है. इसी तरह, ‘कोंडुरा’ में दक्षिण भारत की सांस्कृतिक प्रथाओं और लोककथाओं को कथा में मूल रूप से बुना गया है, जो स्थानीय जीवन की एक समृद्ध टेपेस्ट्री का निर्माण करती हैं.

श्याम बेनेगल ने सत्ता की चाटुकारिता कभी नहीं की. 2015 में उन्होंने कन्नड़ लेखक एम एम कलबुर्गी की हत्या और दादरी मौबलिंचिंग जैसी घटनाओं की निंदा की और असहिष्णुता के खिलाफ एकजुट प्रतिक्रिया का आह्वान किया. 2021 में उन्होंने सिनेमेटोग्राफ अधिनियम में प्रस्तावित संशोधनों की आलोचना की. फिल्म सैंसरशिप में संभावित सरकारी अतिक्रमण की चेतावनी दी. 2024 के अंतिम समय में सरकार ने सैंसर बोर्ड के संदर्भ में उन की ज्यादातर सिफारिशें मान ली हैं.

Rights : जमाना बदल गया

Rights : जिस तरह ससुराल से प्रताड़ित महिला को कानूनों से हक मिले हुए हैं वैसे ही पुरुष को भी मिले हैं, यानी पति भी पत्नी की प्रताड़ना की शिकायत करा सकते हैं मगर दिक्कत उस कानून में है जहां तलाक को बहुत जटिल और थका देने वाला बना दिया गया है, जो अनचाही घटनाओं को जन्म देता है.

अभी हाल ही में बेंगलुरु में एक एआई इंजीनियर द्वारा सुसाइड करने का मामला सामने आया है. 34 साल के अतुल सुभाष ने 9 दिसंबर को 1 घंटे 20 मिनट का वीडियो और 24 पेज का लेटर जारी कर कहा कि उन के पास आत्महत्या करने के सिवा कोई उपाय नहीं बचा है. सुभाष ने पत्नी निकिता सिंघानिया, सास, साले और चचेरे ससुर को मौत का जिम्मेदार बताया.

देश में पत्नियों से प्रताड़ित पतियों की संख्या बढ़ती जा रही है. 2021 के एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक देश में 81,063 विवाहित पुरुषों ने आत्महत्या कर ली वहीं 28,680 विवाहित महिलाओं ने आत्महत्या की. यह भी बताया गया कि साल 2021 में करीब 33.2 फीसदी पुरुषों ने पारिवारिक समस्याओं के कारण और 4.8 फीसदी फीसदी ने विवाह से जुड़े विवाद और घरेलू हिंसा के कारण आत्महत्या कर ली थी.

ज्यादा दूर नहीं, करीब एक या दो पीढ़ी पहले तक, खबर इस के विपरीत थी. दहेज नामक दैत्य ने लड़कियों की जान अपने क्रूर पंजों में दबोच रखा था. दहेज के लिए प्रताड़ित की जाने वाली कहानियां आम थीं. आएदिन स्टोव फटने से बहुओं के मरने की खबर छाई रहती थी. लड़कियां ज्यादातर कम उम्र में ही ब्याह दी जाती थीं, फिर उस का भविष्य पूरी तरह पति नामक परमेश्वर और ससुराल वालों के हाथों में. ससुराल अच्छी मिल गई तो ठीक वरना आजीवन प्रताड़ना. लड़की वाले बेचारे आजन्म बेटी को ले आशंकित रहते और लड़के वाले मूंछों पर ताव. आज भी 60-70 वर्षीय लोग भूले नहीं होंगे उस दौर को.

यों तो कांग्रेस के जमाने में बना दहेज निषेध अधिनियम 1961 देश में लागू था पर यह कारगर नहीं था और ज्यादातर केस सुबूत के अभाव में खारिज हो जाते थे. सताई हुई बेटी या मृत बेटी के मांबाप छाती पीट रह जाते थे. एक अंतहीन दौर था उत्पीड़न का, पानी सिर से ऊपर हो जाने के पश्चात भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए को साल 1983 में इंदिरा गांधी के समय लागू किया गया था. यह धारा विवाहित महिलाओं को उन के पति या उन के रिश्तेदारों से होने वाली क्रूरता और उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाई गई थी. यह एक कड़ा कानून था जो भारतीय वधुओं के लिए संजीविनी साबित हुई.

कोख में मारने से बच गई लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान भी दिया जाने लगा और शादी की औसत उम्र भी बढ़ी. 1950 के बाद से ही मुफ्त शिक्षा मिलने से देहात और अंदरूनी क्षेत्रों को छोड़ दें तो शहरों-महानगरों में रहने वाली अधिकांश लड़कियां अब पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हैं और अपने अधिकारों से बखूबी परिचित भी हैं.

जब सोच बदली तो व्यवहार भी. अब मांग की जा रही है कि उस कानून में थोड़ी ढील की आवश्यकता है. उस कानून को अब हथियार की तरह उपयोग किया जाने लगा है, जिस से वर पक्ष अब खुद को डरा, सहमा और कभीकभी सताया हुआ महसूस करता है. जैसे पहले लड़कियां लोकलाज और संस्कार की वजह से चुपचाप जुल्म सहती रहती थीं, वैसे ही आजकल कई पति भी सहनशील बने रहते हैं.

घरेलू हिंसा के शिकार शादीशुदा पुरुषों द्वारा आत्महत्या किए जाने के मामले से निबटने के लिए सरकार को गाइडलाइंस जारी करने का निर्देश देने की गुहार सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई है. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में इस के लिए राष्ट्रीय पुरुष आयोग बनाने की गुहार लगाई गई है. इस याचिका में एनसीआरबी के आंकड़ों का जिक्र किया गया है.

पति भी कर सकता है शिकायत

शादीशुदा पुरुषों के भी शादीशुदा महिलाओं की ही तरह कई अधिकार होते हैं. यानी जैसे पत्नी अपने पति के खिलाफ शिकायत कर सकती है, ठीक उसी तरह पति भी अपनी पत्नी के सताए जाने की शिकायत कर सकता है. अगर इस तरह के सभी दावे सही निकले तो उसे कोर्ट से न्याय भी दिया जा सकता है.

अच्छा हो कि दंपती आपस में प्यार से सामंजस्य बना कर जीवन का सुख लें. दो पहियों की गृहस्थी की गाड़ी बराबरी के चक्रों के सहारे संतुलन से खींचें न कि खींचखांच कर. जिंदगी छोटी है, न जाने कब शाम हो जाए, सो तब तक जिंदगी में उजालों का रंग भर लिया जाए.

होना तो यह चाहिए कि बजाय पुलिस मामला बनाने के, विवाह संबंध आसानी से तोड़ने का कानून हो. हिंदू विवाह कानून में तलाक का प्रावधान है पर उस में यदि एक पक्ष अड़ जाए तो एक दशक तक का समय तलाक लेने में लग जाता है. इसीलिए पतिपत्नी झगड़ते रहते हैं. कानून के मुताबिक अब पत्नियों का पलड़ा भारी लग रहा है. वैसे कट्टरपंथी औरतों को मिले अधिकारों को छीनना चाहते हैं और न जाने कब भाजपा सरकार किसी बहाने कानून में संशोधन कर औरतों को फिर पति की गुलाम संस्कारों के नाम पर बना दे.

Orissa High Court : शादी का झांसा दे कर सैक्स, रेप है या नहीं

Orissa High Court : ओडिशा हाईकोर्ट ने 24 फरवरी को एक मामले में बड़ा फैसला सुनाया है जिस में एक महिला ने 2021 में एक पुरुष पर 9 साल लंबे चले रिश्ते के बाद शादी के झूठे वादे के आरोप में बलात्कार का केस दर्ज कराया था. महिला का कहना था की उस ने शादी के वादे पर उक्त पुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाए.

हाईकोर्ट की सिंगल बैंच के जज संजीव कुमार पाणिग्रही ने कहा कि शादी का झूठा वादा करना नैतिक रूप से गलत हो सकता है, लेकिन यह अपराध नहीं है. जस्टिस संजीव कुमार पाणिग्रही ने कहा कि दोनों पक्ष 2012 में वयस्क और सहमति से रिश्ते में थे. रिश्ते का शादी में न बदलना व्यक्तिगत निराशा का कारण हो सकता है, लेकिन यह अपराध नहीं है.

इस मामले पर पीठ ने दिलचस्प बातें कहीं कि “यौन स्वायत्तता की अवधारणा, एक महिला का अपने शरीर, कामुकता और रिश्तों के बारे में स्वतंत्र फैसले लेने का अधिकार, नारीवादी दर्शन के भीतर निरंतर विवाद का विषय रहा है. पितृसत्तात्मक समाज में विवाह को महज एक औपचारिक कार्य बना दिया गया है, जिस से यह धारणा मजबूत हुई है कि महिला की कामुकता को पुरुष की प्रतिबद्धता से बांधा जाना चाहिए. शादी मंजिल नहीं है, न ही अंतरंगता का पूर्व निर्धारित परिणाम है. दोनों को मिलाना मानवीय रिश्तों को पुरातन अपेक्षाओं में कैद करना है.”

कोर्ट ने आगे कहा, “नारीवादी दर्शन ने अपेक्षाओं के अत्याचार के खिलाफ लंबे समय से लड़ाई लड़ी है. यह गलत धारणा है कि एक महिला की भावनाएं केवल तभी वैध हैं जब वह विवाह से बंधी हो.” कोर्ट ने इस दौरान एक किताब का भी जिक्र किया. कोर्ट ने कहा, “सिमोन डी ब्यूवोइर ने अपनी किताब द सैकंड सैक्स में इस अपेक्षा में निहित अधीनता का जिक्र किया है. यह अनुमान कि एक महिला केवल विवाह की प्रस्तावना के रूप में अंतरंगता में संलग्न होती है, कि एक कार्य के लिए उस की सहमति दूसरे के लिए एक मौन प्रतिज्ञा है, पितृसत्तात्मक विचार का अवशेष है, न्याय का सिद्धांत नहीं.”

इस मामले में कोर्ट का दो टूक मानना है:

“कानून हर टूटे वादे की सुरक्षा नहीं करता.”
“प्यार का असफल होना अपराध नहीं है और निराशा को धोखाधड़ी में नहीं बदला जा सकता.”

Anglerfish की कहानी जो सोशल मीडिया पर छा गई

Anglerfish : हाल में समुद्र की सतह पर एंगलरफिश तैरती पाई गई, आमतौर पर ऐसा होता नहीं क्योंकि यह 1,000 फुट नीचे गहरे अंधेर समुद्र में पाई जाती है, इसे ले कर सोशल मीडिया पर रिऐक्शन देखने को मिले.

फरवरी में, संरक्षण संगठन कोंड्रिक टेनेरिफ के रिसर्चर्स टेनेरिफ आइलैंड के तट से लगभग 2 किलोमीटर दूर शार्क की तलाश में थे. तभी उन की नजर कुछ अजीबोगरीब चीज पर पड़ी. उस दौरान फोटोग्राफर डेविड जारा बोगुन्या ने एक हम्पबैक एंगलरफिश (एक प्रकार की ब्लैक सी डेविल) को सूरज की रोशनी में तैरते देखा और अपने कैमरे से फिल्माया. यह मछली आमतौर पर समुद्र के ट्विलाइट जोन यानी समुद्र की ऊपर सतह से 200 से 1,000 मीटर की गहराई में रहती है और इसे पहले कभी दिन के उजाले में जीवित नहीं देखा गया था.

एंगलरफिश की अजीबोगरीब जिंदगी

एंगलरफिश आमतौर पर उतनी बड़ी नहीं होती जितनी अकसर लोग सोचते हैं. बोगुन्या द्वारा फिल्माई गई यह मछली एक मादा थी, जो आमतौर पर 15 सैंटीमीटर तक बढ़ती है. इस का साइज अधिकतम किसी लैपटौप के कीबोर्ड जितना होता है. यह समुद्र की गहराई में शिकार को आकर्षित करने के लिए लाइट पैदा करती है.

नर एंगलरफिश में यह प्रतिष्ठित ल्यूर नहीं होता और वे आकार में बहुत छोटे होते हैं, आमतौर पर केवल 3 सैंटीमीटर तक बढ़ते हैं. नर अपने जीवन का पहला हिस्सा एक मादा की तलाश में बिताते हैं, जिस से वे जुड़ जाते हैं. वे आखिरकार अपने संचार प्रणाली को मादा के साथ जोड़ लेते हैं और पूरी तरह से उस पर पोषण के लिए निर्भर रहते हैं, जिस से वे एक ‘जीवित अंडकोष’ की तरह जीवन व्यतीत करते हैं.

सतह के पास तैरती हुई मछली

यह स्पष्ट नहीं है कि यह मछली सतह के पास क्यों तैर रही थी. रिसर्चरों ने अनुमान लगाया कि हो सकता है जलवायु परिवर्तन के चलते यह सतह के नजदीक हो या यह मछली अपने जीवन के अंत में हो सकती है. देखने वालों ने मछली को कई घंटों तक देखा, जब तक कि वह मर नहीं गई. इस के शरीर को संरक्षित कर के सांताक्रुज डे टेनेरिफ़ के प्रकृति और पुरातत्व लैब में ले जाया गया, जहां इस पर और अध्ययन किया जाएगा. मगर इस पूरी घटना ने सोशल मीडिया पर चर्चा छेड़ दी.

सोशल मीडिया पर सहानुभूति की लहर

दरअसल इस घटना के बाद एंग्लरफिश मछली का यह वीडियो तेजी से सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, जिस के बाद सैकड़ों रिऐक्शनरी वीडियोज, मीम्स, एनिमेशन वायरल होने लगे. यहां तक कि ‘इकारस इज द एंगलरफिश’ वाली कविता भी खूब वायरल हुई. यह कविता रिसर्चरों द्वारा एंग्लरफिश के ढूंढें जाने पर बनाई गई.

हौलीवुड में एंग्लरफिश को ले कर कई फिल्में बनाई गईं हैं, जिन में इसे डरावना और हौरिफाइंग दिखाया गया है. यहां तक कि इसे बहुत बड़े समुद्री दैत्य के रूप में प्रस्तुत किया गया जिस का साइज विशाल और बाकी मछलियों के लिए भयानक. इस फिश को समुद्र की गहराइयों में अंधेरेनुमा जगह के रूप में पहचान दी गई, जैसे ‘स्टार वार’, ‘फाइंडिंग नेमो’, ‘लुका’, ‘सिंबाड’ इत्यादि.

सोशल मीडिया पर इस मछली को ले कर सहानुभूति इसलिए जगी है क्योंकि जिस तरह से इस का प्रेजेंटेशन होता आया है उस से अलग यह बहुत ही छोटी और साधारण मछली है.

मछली की वीडियो वायरल होने के बाद एक यूजर्स ने कहा, “मुझे लगता है कि वह एक सम्मानित बुजुर्ग दादी है, जिस ने अपने पूरे जीवन में सूरज की रोशनी और पानी के ऊपर की दुनिया को देखने का सपना देखा है. वह जानती है कि उस का समय निकट है, इसलिए उस ने अपने दोस्तों और परिवार को अलविदा कहा और प्रकाश की ओर तैर गई. उस का जीवन एक एंगलरफिश के रूप में समाप्त हो रहा है.”

एक व्यक्ति ने मछली को अपने ‘फेमिनिस्ट रोमन साम्राज्य’ के रूप में वर्णित किया, जो उस के लिए एक प्रेरणादायक जनून था.

गहरे समुद्र के प्रति बदलती धारणा

एंगलरफिश के प्रति सोशल मीडिया पर सिम्पथी रिऐक्शन शानदार थे. यह मछली अपने दांतों से भरे हुए मुंह व अपने चमकदार ल्यूर से डरावनी लगती है. इस मछली को हमेशा समुद्री एलियंस के रूप दिखाया जाता रहा है.

गहरे समुद्र की चुनौतियां

इस में कोई शक नहीं कि इंसानों का रहनसहन और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार न सिर्फ धरती को प्रभावित कर रहां है बल्कि समुद्र पर भी असर डाल रहा है. विकास के नाम पर, अपने प्रभुत्व को जमाने के नाम पर गहरे समुद्र तल में खनन, प्लास्टिक पौल्यूशन और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बढ़ते खतरों ने समुद्री जीवों पर असर डाला है. उन पर सीधा असर पड़ रहा है. दुनिया का वेस्ट समुद्र में धकेला जाता है. बताया जाता है कि समुद्र में 170 ट्रिलियन प्लास्टिक का कचरा है जिसे कैसे साफ किया जाए, इस पर कोई प्लान नहीं.

एंगलरफिश की यह कहानी न केवल गहरे समुद्र के रहस्यों को उजागर करती है बल्कि यह हमें यह भी याद दिलाती है कि हमें अपने जलवायु का ध्यान रखना चाहिए. सोशल मीडिया पर इस मछली के प्रति सहानुभूति की लहर ने यह साबित कर दिया है कि लोग अब गहरे समुद्र को केवल राक्षसों का साम्राज्य नहीं मानते, बल्कि इसे एक रहस्यमय और सुंदर दुनिया के रूप में देखने लगे हैं.

Acid Attack कैसे रुके

Acid Attack : भारत में 2013 से एसिड के खुले बाजार में बिक्री पर रोक है, इस के बावजूद यह खुलेआम बिकता है. एसिड अटैक होने पर अगर जान बच जाए तो भी जिंदगी नरक बन जाती है.

जीवन में कभी न कभी हर किसी को रिजैक्शन का सामना करना पड़ता है. फिर चाहे बात शिक्षा की हो, नौकरी की या रिश्तों की. लेकिन कुछ लोग रिजैक्शन को बरदाश्त नहीं कर पाते. इसी वजह से बहुत से लोग तनावग्रस्त हो जाते हैं. कुछ गलत कदम उठा लेते हैं. बात यदि रिश्तों में मिलने वाले रिजैक्शन की करें तो हम खुद की जिंदगी खत्म करने तक की सोच लेते हैं. लेकिन कुछ लोगों को इस बात की तकलीफ होती है कि आखिर उन में ऐसी क्या कमी है, जिस की वजह से उन्हें रिजैक्शन का सामना करना पड़ा.

वह व्यक्ति बदला लेने की सोचने लगता है. ऐसा ही एक मामला वैलेंटाइन डे पर सामने आया. जहां सिरफिरे ने लड़की से रिजैक्शन मिलने पर चाकू से वार कर तेजाब फेंक दिया. लेकिन सवाल यहां यह खबर देने का नहीं है, सवाल है आखिर कब तक लड़कियां इन दरिंदों के हाथों शिकार होती रहेंगी. इन सिरफिरों के बदला लेने की आग जाने कितने मासूमों के चहरे ही नहीं बल्कि उन के मनोबल, आत्मविश्वास, सपने, उम्मीदों सब को अपने बदले की संतुष्टि पाने के लिए जलाते रहेंगे.

क्या हमेशा लड़कियां इन सिरफिरों के हत्थे एसिड अटैक की शिकार होती रहेंगी. जिस तरह से दवा के लिए कैमिस्ट को डाक्टर का प्रिस्क्रिप्शन दिखाना अनिवार्य होता है, उस तरह तेजाब के लिए क्यों नहीं? जबकि, यह तो जहर की दवा से भी बदतर मौत देता है. जहर खा कर मनुष्य कुछ देर तड़पता है और फिर मृत्युलोक सिधार जाता है लेकिन एसिड अटैक से तड़पती ये लड़कियां रोज तिलतिल मरती हैं.

वे हर रोज अपने जिंदा होने का अफसोस मनाती हैं. माना कि कुछ लड़कियों ने अपना जज्बा न खो कर मिसाल गढ़ी है लेकिन सोचें तो उन को कितनी तकलीफों से गुजरना पड़ता है. हंसतीखेलती महिला को यह घाव समाज में दोयम दर्जे का नागरिक बना देता है. जहां वह जीवन को खूबसूरत बनाने के सपने संजोती हैं, उस की जगह उसे एसिड सर्वाइवर का टैग मिलता है. जब भी वह खुद को आईने में देखती होगी तो वह दिल दहला देने वाला मंजर आंखों से दिखना बंद होने पर भी उसे साफ नजर आता होगा.

कैसे ये सिरफिरे आशिक खुलेआम इन वारदातों को अंजाम दे पाते हैं?

भारत समेत दक्षिण एशियाई देशों में यह बेहद गंभीर समस्या है. स्वयंसेवी संस्था एसिड सर्वाइवल ट्रस्ट इंटरनैशनल (एएसटीआई) के अनुसार, दुनिया में सब से ज्यादा एसिड हमले ब्रिटेन में होते हैं. वहां इस का ज्यादा इस्तेमाल गैंगवार में होता है. ब्रिटेन के बाद भारत का नंबर आता है. यहां हर साल एक हजार से ज्यादा मामले सामने आते हैं.

नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार एसिड अटैक के साल 2019 में 150 मामले, साल 2020 में 105, साल 2021 में 102 मामले आए. ऐसे मामलों में पश्चिम बंगाल पहले नंबर पर, दूसरे पर उत्तर प्रदेश और तीसरे पर दिल्ली रहा.

2021 के मामलों पर गौर करें तो देश में 107 पीड़ितों के साथ एसिड हमले की 102 घटनाएं और एसिड हमले के प्रयास के 48 मामले दर्ज किए गए थे. जहां चार्जशीट दर्ज करने की दर 89 फीसदी रही जबकि दोषसिद्धि की दर 20 फीसदी ही दर्ज की गई. ये बेहद चिंताजनक आंकड़े हैं.

इस में सजा का प्रावधान देखें तो एसिड अटैक के मामले आईपीसी की धारा 326 ए के तहत दर्ज किए जाते हैं, जबकि एसिड अटैक के प्रयास के मामले आईपीसी की धारा 326 बी के तहत दर्ज किए जाते हैं. जिस में न्यूनतम 10 वर्ष की सजा से ले कर आजीवन कारावास के साथ आर्थिक दंड का प्रावधान है.

मनोविज्ञान के अनुसार देखें तो ऐसे हमले अतिआवेशभरे व्यवहार के कारण होते हैं, जिन्हें इंपल्सिव डिसऔर्डर कहा जाता है. यह व्यवहार एकदो दिन की गणना नहीं है बल्कि बचपन में ही इस की नींव रखी जा चुकी होती है. जब मांबाप बच्चे को न सुनने का आदी ही नहीं रहने देते तो उस के व्यक्तित्व में इनकार सुनने जैसे शब्दों कि जगह होती ही नहीं. जिस कारण यदि कोई उस का कहा न माने तो आवेग में आ कर वह कुछ भी करगुजरने को तैयार हो जाता है.

देखा जाए तो आने वाले समय में ऐसे बच्चों की तादाद में और भी इजाफा होगा क्योंकि आजकल एकल परिवार में रहने वाले बच्चे ऐसी परवरिश पाते हैं कि जिन्हें सिर्फ प्यार, समय से पहले मिलने वाली सुविधा की लत सी लग गई है. इसलिए जरूरी है कि अपना कल अच्छा बनाना है तो अपने आज में न कहने की आदत डालें.

आज जरूरत है कि बच्चों के प्रशिक्षण के साथ नए कानून बनाए जाएं जहां सजा का प्रावधान ऐसा हो कि तेजाब तो दूर वे पानी फेंकने तक की हिम्मत न जुटा पाएं. चोटिल काया तो सब को नजर आ जाती है लेकिन जहन पर लगे घावों की पीड़ा एक सर्वाइवर ही जानती है, जिस की जिंदगी बेहद बोझिल और दर्दनाक हो कर रह जाती है.

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तेजाब हमलों का शिकार महिलाएं ही नहीं, अब पुरुष भी बन रहे निशाना

जब भी हम एसिड अटैक की बात करते हैं तो हमारे मन में महिलाओं की तसवीर आती है. यह माना जाता है कि तेजाब हमले सिर्फ महिलाओं पर होते हैं लेकिन अब तो पुरुष भी इस घातक हमले का शिकार बन रहे हैं. अपराधी अपनी खुन्नस निकालने के लिए, आवेग में आ कर कुछ भी करगुजर सकता है, किसी भी व्यक्ति को निशाना बना सकता है, चाहे वह महिला हो या पुरुष.

बीते कई सालों से पुरुषों पर एसिड अटैक की वारदातें बढ़ती जा रही हैं. आएदिन सुनने में आता है कि प्रेमिका ने प्रेमी पर तेजाब फेंका, ससुर ने दामाद पर तेजाब फेंका, इंजीनियर युवती ने सबक सिखाने के लिए सहकर्मी इंजीनियर युवक पर तेजाब हमला करवाया आदिआदि.

लड़कियों के तेजाब फेंकने की वजहें भी लड़कों जैसी ही होती हैं या फिर अलग होती हैं. प्यार रिजैक्शन, पुरानी रंजिश, बदला और बरबाद करने देने के जनून में लड़कियां तेजाब फेंकती हैं. एसिड अटैक की घटनाएं इसलिए भी ज्यादा होती हैं क्योंकि गन या अन्य हथियार की तुलना में यह आसानी से मिल जाता है.

प्रधानमंत्री नैशनल रिलीफ फंड से महिला एसिड अटैक पीड़ितों को 1 लाख रुपए की फाइनैंशियल मदद की जाती है. पुरुष पीड़ितों के मामले में चोटों की गंभीरता और अन्य मानदंडों के आधार पर 1 लाख रुपए तक की वित्तीय सहायता दी जाती है.

वहीं, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह द्वारा एसिड अटैक पीड़ितों के लिए 8,000 रुपए मंथली पैंशन शुरू की गई थी. अब 7 वर्षों बाद वहां आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार ने पैंशन को बढ़ा कर 10,000 रुपए प्रतिमाह करने का प्रस्ताव किया है.
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Best Story : मलहम – प्यार में मिले धोखे का बदला कैसे लिया गुंजन ने?

Best Story : गुजन जल्दीजल्दी काम निबटा रही थी. दाल और सब्जी बना चुकी थी बस फुलके बनाने बाकी थे. तभी अभिनव किचन में दाखिल हुआ और गुंजन के करीब रखे गिलास को उठाने लगा. उस ने जानबूझ कर गुंजन को हौले से स्पर्श करते हुए गिलास उठाया और पानी ले कर बाहर निकल गया.

गुंजन की धड़कनें बढ़ गईं. एक नशा सा उस के बदन को महकाने लगा. उस ने चाहत भरी नजरों से अभिनव की तरफ देखा जो उसे ही निहार रहा था. गुंजन की धड़कनें फिर से ठहर गईं. लगा जैसे पूरे जहान का प्यार लिए अभिनव ने उसे आगोश में ले लिया हो और वह दुनिया को भूल कर अभिनव में खो गई हो.

तभी अम्मांजी अखबार ढूंढ़ती हुई कमरे में दाखिल हुईं और गुंजन का सपना टूट गया. नजरें चुराती हुई गुंजन फिर से काम में लग गई.

गुंजन अभिनव के यहां खाना बनाने का काम करती है. अम्मांजी का बड़ा बेटा अनुज और बहु सारिका जौब पर जाते हैं. छोटा बेटा अभिनव भी एक आईटी कंपनी में काम करता है. उस की अभी शादी नहीं हुई है और वह गुंजन की तरफ आकृष्ट है.

22 साल की गुंजन बेहद खूबसूरत है और वह अपने मातापिता की इकलौती संतान है. मातापिता ने उसे बहुत लाड़प्यार से पाला है. इंटर तक पढ़ाया भी है. मगर घर की माली हालत सही नहीं होने की वजह से उसे दूसरों के घरों में खाना बनाने का काम शुरू करना पड़ा.

गुंजन जानती है कि अभिनव ऊंची जाति का पढ़ालिखा लड़का है और अभिनव के साथ उस का कोई मेल नहीं हो सकता. मगर कहते हैं न कि प्यार ऐसा नशा है जो अच्छेअच्छों की बुद्धि पर ताला लगा देता है. प्यार के एहसास में डूबा व्यक्ति सहीगलत, ऊंचनीच, अच्छाबुरा कुछ भी नहीं समझता. उसे तो बस किसी एक शख्स का खयाल ही हर पल रहने लगता है और यही हो रहा था गुंजन के साथ भी. उसे सोतेजागते हर समय अभिनव ही नजर आने लगा था.

धीरेधीरे वक्त गुजरता गया. अभिनव की हिम्मत बढ़ती गई और गुंजन भी उस के आगे कमजोर पड़ती गई. एक दिन मौका देख कर अभिनव ने उसे बांहों में भर लिया. गुंजन ने खुद को छुड़ाने का प्रयास करते हुए कहा,” अभिनवजी, अम्मां जी ने देख लिया तो क्या सोचेंगी?”

“अम्मां सो रही हैैं गुंजन. तुम उन की चिंता मत करो. बहुत मुश्किल से आज हमें ये पल मिले हैं. इन्हें यों ही बरबाद न करो.”

“मगर अभिनवजी, यह सही नहीं है. आप का और मेरा कोई मेल नहीं,” गुंजन अब भी सहज नहीं थी.

“ऐसी बात नहीं है गुंजन. मैं तुम से प्यार करने लगा हूं. प्यार में कोई छोटाबड़ा नहीं होता. बस मुझे इन जुल्फों में कैद हो जाने दो. गुलाब की पंखुड़ी जैसे इन लबों को एक दफा छू लेने दो.”

अभिनव किसी भी तरह गुंजन को पाना चाहता था. गुंजन अंदर से डरी हुई थी मगर अभिनव का प्यार उसे अपनी तरफ खींच रहा था. आखिर गुंजन ने भी हथियार डाल दिए. वह एक प्रेयसी की भांति अभिनव के सीने से लग गई. दोनों एकदूसरे के आलिंगन में बंधे प्यार की गहराई में डूबते रहे. जब होश आया तो गुंजन की आंखें छलछला आईं. वह बोली,”आप मेरा साथ तो दोगे न? जमाने की भीड़ में मुझे अकेला तो नहीं छोड़ दोगे?”

“पागल हो क्या? प्यार करता हूं. छोड़ कैसे दूंगा?” कह कर उस ने फिर से गुंजन को चूम लिया. गुंजन फिर से उस के सीने में दुबक गई. वक्त फिर से ठहर गया.

अब तो ऐसा अकसर होने लगा. अभिनव प्यार का दावा कर के गुंजन को करीब ले आता.

दोनों ने ही प्यार के रास्ते पर बढ़ते हुए मर्यादाओं की सीमारेखाएं तोड़ दी थीं. गुंजन प्यार के सुहाने सपनों के साथ सुंदर घरसंसार के सपने भी देखने लगी थी.

मगर एक दिन वह देख कर भौंचक्की रह गई कि अभिनव के रिश्ते की बात करने के लिए एक परिवार आया हुआ है. मांबाप के साथ एक आधुनिक, आकर्षक और स्टाइलिश लड़की बैठी हुई थी.

अम्मांजी ने गुंजन से कुछ खास बनाने की गुजारिश की तो गुंजन ने सीधा पूछ लिया,” ये कौन लोग हैं अम्मांजी?”

“ये अपने अभि को देखने आए हैं. इस लड़की से अभि की शादी की बात चल रही है. सुंदर है न लड़की?” अम्मांजी ने पूछा तो गुंजन ने हां में सिर हिला दिया.

उस के दिलोदिमाग में तो एक भूचाल सा आ गया था. उस दिन घर जा कर भी गुंजन की आंखों के आगे उसी लड़की का चेहरा नाचता रहा. आंखों से नींद कोसों दूर थी.

अगले दिन जब वह अभिनव के घर खाना बनाने गई तो सब से पहले मौका देख कर उस ने अभिनव से बात की,” यह सब क्या है अभिनव? आप की शादी की बात चल रही है? आप ने अपने घर वालों को हमारे प्यार की बात क्यों नहीं बताई?”

“नहीं गुंजन, हमारे प्यार की बात मैं उन्हें नहीं बता सकता.”

“मगर क्यों? ”

“क्योंकि हमारा प्यार समाज स्वीकार नहीं करेगा. मेरे मांबाप कभी नहीं मानेंगे कि मैं एक नीची जाति की लड़की से शादी करूं,” अभिनव ने बेशर्मी से कहा.

“तो फिर प्यार क्यों किया था आप ने? शादी नहीं करनी थी तो मुझे सपने क्यों दिखाए थे?” तड़प कर गुंजन बोली.

“देखो गुंजन, समझने का प्रयास करो. प्यार हम दोनों ने किया है. प्यार के लिए केवल हम दोनों की रजामंदी चाहिए थी. मगर शादी एक सामाजिक रिश्ता है. शादी के लिए समाज की अनुमति भी चाहिए. शादी तो मुझे घर वालों के कहे अनुसार ही करनी होगी.”

“यानी प्यार नहीं, आप ने प्यार का नाटक खेला है मेरे साथ. मैं नहीं केवल मेरा शरीर चाहिए था. क्यों कहा था मुझे कि कभी अकेला नहीं छोड़ोगे?”

“मैं तुम्हें अकेला कहां छोड़ रहा हूं गुंजन? मैं तो अब भी तुम ही से प्यार करता हूं मेरी जान. यकीन मानो हमारा यह प्यार हमेशा बना रहेगा. शादी भले ही उस से कर लूं मगर हम दोनों पहले की तरह ही मिलते रहेंगे. हमारा रिश्ता वैसा ही चलता रहेगा. मैं हमेशा तुम्हारा बना रहूंगा,” गुंजन को कस कर पकड़ते हुए अभि ने कहा.

गुंजन को लगा जैसे हजारों बिच्छुओं ने उसे जकङ रखा हो. वह खुद को अभिनव के बंधन से आजाद कर काम में लग गई. आंखों से आंसू बहे जा रहे थे और दिल रो रहा था.

घर आ कर वह सारी रात सोचती रही. अभिनव की बेवफाई और अपनी मजबूरी उसे रहरह कर कचोट रही थी. अभिनव के लिए भले ही यह प्यार तन की भूख थी मगर उस ने तो हृदय से चाहा था उसे. तभी तो अपना सबकुछ समर्पित कर दिया था. इतनी आसानी से वह अभिनव को माफ नहीं कर सकती थी. उस के किए की सजा तो देनी ही होगी. वह पूरी रात यही सोचती रही कि अभिनव को सबक कैसे सिखाया जाए.

आखिर उसे समझ आ गया कि वह अभिनव से बदला कैसे ले सकती है. अगले दिन से ही उस ने बदले की पटकथा लिखनी शुरू कर दी.

उस दिन वह ज्यादा ही बनसंवर कर अभि के घर खाना बनाने पहुंची. अभि शाम 4 बजे की शिफ्ट में औफिस जाता था. अम्मांजी हर दूसरे दिन 12 से 4 बजे तक के लिए घर से बाहर अपनी सखियों से मिलने जाती थीं. पिताजी के पैर में तकलीफ थी इसलिए वे बिस्तर पर ही रहते थे.

12 बजे अम्मांजी के जाने के बाद वह अभि के पास चली आई और उस का हाथ पकड़ कर बोली, “अभिनव आप की शादी की बात सुन कर मैं दुखी हो गई थी. मगर अब मैं ने खुद को संभाल लिया है. शादी से पहले के इन दिनों को मैं भरपूर ऐंजौय करना चाहती हूं. आप की बांहों में खो जाना चाहती हूं.”

अभिनव की तो मनमांगी मुराद पूरी हो रही थी. उस ने झट गुंजन को करीब खींच लिया. दोनों एकदूसरे के आगोश में खोते चले गए. बैड पर अभि की बांहों में मचलती गुंजन ने सवाल किया,” कल आप सच कह रहे थे अभिनव ? शादी के बाद भी आप मुझ से यह रिश्ता बनाए रखोगे न ?”

“हां गुंजन इस में तुम्हें शक क्यों है? शादी एक चीज होती है और प्यार दूसरी चीज. हम दोनों का प्यार और शरीर का यह मिलन हमेशा कायम रहेगा. शादी के बाद भी यह रिश्ता ऐसा ही चलता रहेगा,” कह कर अभिनव फिर से गुंजन को बेतहाशा चूमने लगा.

शाम को गुंजन अपने घर लौट आई. उसे खुद से घिन आ रही थी. वह बाथरूम में गई और नहा कर बाहर निकली. फिर मोबाइल ले कर बैठ गई. आज के उन के शारीरिक मिलन का एकएक पल इस मोबाइल में कैद था. उस ने बड़ी होशियारी से मोबाइल का कैमरा औन कर के ऐसी जगह रखा था जहां से दोनों की सारी हरकतें कैद हो गई थीं.

यह काफी देर तक का लंबा अंतरंग वीडियो था. 10 दिन के अंदर उस ने ऐसे 3 -4 वीडियो और शूट कर लिए. फिर वीडियोज में ऐडिट कर के बड़ी चतुराई से उस ने अपने चेहरे को छिपा दिया.

कुछ दिनों में अभिनव की शादी हो गई. 8-10 दिनों के अंदर ही उस ने अभिनव की पत्नी से दोस्ती कर ली और उस का मोबाइल नंबर ले लिया. अगले दिन उस ने अम्मांजी को कह दिया कि उसे मुंबई में जौब लग गई है और अब काम पर नहीं आ पाएगी. उस दिन वह अभिनव से मिली भी नहीं और घर चली आई.

अगले दिन सुबहसुबह उस ने अपने और अभिनव के 2 अंतरंग वीडियो अभिनव की पत्नी को व्हाट्सऐप कर दिए. 2 घंटे बाद उस ने 2 और वीडियो व्हाट्सऐप किए और चैन से घर के काम निबटाने लगी.

शाम 4 बजे के करीब अभिनव का फोन आया. गुंजन को इस का अंदाजा पहले से था. उस ने मुसकराते हुए फोन उठाया तो सामने से अभिनव का रोता हुआ स्वर सुनाई दिया,” गुंजन तुम ने यह क्या किया मेरे साथ? मेरी शादीशुदा जिंदगी की अभी ठीक से शुरुआत भी नहीं हुई थी और तुम ने ये वीडियो भेज दिए. तुम्हें पता है माया सुबह से ही मुझ से लड़ रही थी और अभीअभी सूटकेस ले कर हमेशा के लिए अपने घर चली गई. गुंजन, तुम ने यह क्या कर दिया मेरे साथ? अब मैं…”

“…अब तुम न घर के रहोगे न घाट के. गुडबाय मिस्टर अभिनव,” वाक्य पूरा करते हुए गुंजन ने कहा और फोन काट दिया.

उस ने आज अभिनव से बदला ले लिया था. खुद को मिले हर आंसुओं का बदला. आज उसे महसूस हो रहा था जैसे उस के जख्मों पर किसी ने मलहम लगा दिया हो.

Hindi Story : इस प्यार को हो जाने दो – कैसा था अफजल और पूनम का इम्तिहान

Hindi Story : कालेज के वार्षिक उत्सव की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. सभी छात्रछात्राएं अपनीअपनी खूबियों के अनुसार कार्यक्रम में भाग ले रहे थे. अफजल को गजलें लिखने का शौक था. उस की गजल का हर शब्द काबिलेतारीफ होता. पूरा कालेज दीवाना था उस की गजलों का. पूनम को गीतसंगीत बहुत पसंद था. बहुत मीठी आवाज थी उस की. पूरा कालेज उसे ‘स्वर कोकिला’ के नाम से जानता था. दोनों हर कार्यक्रम में एकसाथ ही भाग लेते. और न जाने कब दोनों एकदूसरे को चाहने लगे.

वेलैंटाइन डे पास आ रहा था. कालेज व बाजार में उस का माहौल अपना असर दिखा रहा था. कालेज के कई लड़केलड़कियां कार्ड खरीद कर लाए थे और अफजल से कुछ पंक्तियां लिख कर देने को कह रहे थे ताकि वे कार्ड में लिख अपने प्यार का इजहार कर सकें.

वहीं, कुछ लोगों ने वेलैंटाइन डे पर लाल गुलाब का गुलदस्ता बनवाया था. अफजल आज एक लाल गुलाब ले कर पूनम के पास जा पहुंचा और बोला, ‘‘मैं तुम से प्यार करता हूं, पूनम. क्या तुम स्वीकारोगी मेरा प्यार?’’ यह कह वह अपने प्यार का इजहार कर बैठा. पूनम अफजल को मन ही मन चाहने लगी थी. सो, उस ने फूल हाथ में ले, शरमाते हुए, झुकी पलकों संग उस के प्यार को स्वीकार कर लिया था.

दोनों का प्यार बादलों के संग उड़ते हुए आजाद परिंदों की तरह परवाज करने लगा था. कालेज के बाद दोनों छिपछिप कर मिलने लगे थे. लेकिन इश्क और मुश्क भला छिपाए छिपे हैं किसी से? कालेज के सभी लोग उन्हें ‘हंसों का जोड़ा’ के नाम से पुकारते. इसी तरह मिलते और प्यार में डूबे 4 वर्ष बीत गए.

कालेज खत्म कर दोनों अपनीअपनी नौकरियों में लग गए. पूनम अपनी पूरी तनख्वाह अपनी मां के हाथ में रखती, हां, कुछ रुपए हर तनख्वाह में से अपने भाइयों के लिए उपहार के लिए रख लेती.

अब पूनम के घर में उस के विवाह के लिए चर्चा होने लगी थी और वह बहुत चिंतित हो गई थी. आज पूनम जब अफजल से मिली, कहने लगी, ‘‘अफजल, मेरे मातापिता मेरी शादी की बात कर रहे हैं और मुझे नहीं लगता कि वे हमारे प्यार को स्वीकारेंगे.’’

अफजल ने जवाब में कहा, ‘‘पूनम, तुम घबराओ नहीं. तुम अपनी मां को बताओ तो सही या मैं तुम्हारे पिताजी से बात करूं?’’

पूनम कहने लगी, ‘‘अफजल, देखती हूं, आज मैं ही मां को बता देती हूं.’’

जैसे ही मां ने सुना, वे तो बिफर पड़ी और आव देखा न ताव, जा बताया पिताजी को. जैसे ही पूनम के पिताजी ने उस के मुंह से अफजल का नाम सुना, तो वे आगबबूला हो उठे. मां तो कोसने लगी,  ‘‘कहा था लड़की को इतनी छूट मत दो. अब पोत रही है न हमारे मुंह पर कालिख. क्या फायदा इस को पढ़ानेलिखाने का. रातदिन इस की चिंता लगी रही. कभी देर से घर आती तो कलेजा मुंह को आ जाता. किंतु यह दिन दिखाएगी, ऐसा तो सोचा भी न था. मैं सोचती थी पढ़लिख जाए तो अच्छे घर में रिश्ता हो जाएगा. अपने पैरों पर खड़ी होगी तो किसी की मुहताज न होगी. पर हमें तो इस ने कहीं का न छोड़ा, अब क्या मुंह दिखाएंगे हम समाज में.’’

पिताजी बोले, ‘‘अगर प्रेम ही करना था तो कोई हिंदू लड़का नहीं मिला था. इन मुसलमानों में ही तुझे ज्यादा प्यार नजर आया? उन के घर में बुर्का पहन कर रहेगी? मांसमछली खाएगी? अपने धर्म की गीता छोड़ 5 वक्त नमाज पढ़ेगी? अरे, समझती क्यों नहीं, नाम भी बदल देंगे तेरा, जो कि तेरी अपनी पहचान है, कहीं की न रहेगी तू?’’

पूनम ने कितनी बार समझाने की कोशिश की थी अपनी मां को. वह कहती, ‘‘मां, अफजल एक नेक इंसान है, 4 साल साथ में गुजारे हैं हम ने और फिर हम एकदूसरे को अच्छे से समझते भी हैं. ऐसे में तुम क्यों खिलाफ हो उस के? उस की जगह किसी हिंदू लड़के से शादी कर लूं और हमारे विचार ही आपस में न मेल खाएं तो उस शादी का क्या फायदा मां? शादी तो 2 इंसानों का मिलन होता है, उस में धर्म की दीवार क्यों मां? क्या तुम पिताजी के साथ खुश हो मां?’’ जैसेतैसे अपनी जिंदगी की गाड़ी घसीट ही तो रहे हैं आप लोग.’’

इतना सुन मां ने उस के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया, ‘‘बेशर्म, जबान लड़ाती है, इतनी अंधी हो गई है उस मुसलमान के प्यार में?’’

उस के घर में तो धर्म का बोलबाला था, कोई उस की बात समझना तो दूर की बात, सुनने के लिए भी तैयार न था. इसी कारण उन दोनों ने कोर्टमैरिज करने का फैसला किया. और कोई चारा भी न था.

शादी के बाद जब वे दोनों पूनम के घर आशीर्वाद लेने आए, उस के पिता कहने लगे, ‘‘हमारी छूट व प्यार का गलत फायदा उठाया है तुम ने. जरा सोचो, तुम्हारे छोटे भाइयों का क्या होगा आगे? कुछ तो लिहाज किया होता. बिरादरी में हमारी नाक क्यों कटवा दी? तुझे पैदा होते ही क्यों न मार डाला हम ने? जाओ, अब जहां रिश्ता जोड़ा है वहीं जा कर रहो. अब तो वे तुम्हारा धर्म भी परिवर्तन कर देंगे. अल्लाहअल्लाह करना रातदिन.’’

पूनम चुपचाप सब सुन रही थी. बीचबीच में कुछ बोलने की कोशिश करती, किंतु पिताजी के गुस्से के सामने चुप हो जाती. थोड़ी सी आस अपने दोनों भाइयों से थी. किंतु जैसे ही उस ने उन से नजरें मिलाने की कोशिश की, एक ने तो मुंह फेर लिया और दूसरे ने उस का हाथ पकड़ दरवाजे का रास्ता दिखा दिया और कहा, ‘‘जाओ दीदी, अब इस घर के दरवाजे तुम्हारे लिए सदा के लिए बंद हैं.’’

अफजल दरवाजे के बाहर ही खड़ा सुन रहा था. वह चाहता था कि पूनम के पिताजी से बात करे, किंतु पूनम ने उसे रोक दिया था और वह अफजल से बोली, ‘‘चलो अफजल, घर चलते हैं, पिताजी नहीं मानने वाले.’’

उस के जातेजाते पिताजी ने कह दिया था, ‘‘यदि वे तुम्हें इस्तेमाल कर तलाक दे कर निकाल दें तो लौट कर न आना वापस.’’ अफजल को भी बहुत बुरा लग रहा था कि पूनम उस से प्यार व निकाह क्या कर बैठी, आशीर्वाद मिलना तो दूर, उस के लिए उस के मातापिता के घर के दरवाजे भी हमेशा के लिए बंद हो गए थे. सो, दोनों अफजल के घर आ पहुंचे.

अफजल की मां ने नई बहू के स्वागत की पूरी तैयारियां कर रखी थीं. अफजल के रिश्तेदार इस विवाह के खिलाफ थे. आखिर हिंदू व मुसलिम एकदूसरे के कट्टर दुश्मन जो बने बैठे हैं. सो, उस की मां अकेली ही स्वागत कर रही थी अपनी बहू का. अफजल की मां ने उसे बेटी सा प्यार दिया. वे कहने लगीं, ‘‘बेटी, तुम मेरे अफजल के लिए अपना सबकुछ छोड़ कर आई हो. अब मैं ही तुम्हारी मांबाप, भाई हूं. इस घर में कोई परेशानी हो तो जरूर कहना.’’

अफजल की मां की बातें पूनम को बहुत सुकून दे रही थीं. कहां तो एक तरफ उस के अपने घर वाले उसे कोस रहे थे और जब से उस की व अफजल की बात उन्हें मालूम हुई, एक दिन भी वह चैन की नींद न सो पाई थी और न ही एक भी निवाला सुकून से खाया था. ऐसा मालूम होता था जैसे बरसों से भूखी हो व थकी हो.

2 दिनों बाद दोनों हनीमून के लिए मसूरी घूमने को गए. वहां की वादियों में दोनों रम जाना चाहते थे. लेकिन वहां भी पूनम को अपने मातापिता की बातें याद आती रहतीं. खैर, 15 दिन पूरे हुए, हनीमून खत्म हुआ. अब अफजल व पूनम दोनों को दफ्तर जाना था. अफजल की मां पूनम को सगी बेटी सा प्यार दे रही थीं. एक ही वर्ष में उस ने चांद सी बेटी को जन्म दिया.

पूनम को लगा शायद उस के मातापिता अपनी नातिन को देख कर खुश हो जाएंगे. सो, एक दिन उस ने अपनी मां को फोन मिलाया. पिताजी ने फोन उठाया और उस की आवाज सुन मां को फोन थमा दिया. मां ने तो उस की बात सुने बिना ही कह दिया, ‘‘पूनम, तुम हमारे लिए सदा के लिए मर चुकी हो.’’

उन की बात सुन कर पूनम खूब रोई. उस दिन पूनम ने मन ही मन अपने मातापिता से सदा के लिए रिश्ता तोड़ लिया था.

पूनम अपनी सास के साथ पूरी तरह हिलमिल गई थी. कभीकभी छुट्टी के दिन वह अपनी सास के बुटीक में भी जा कर उन का हाथ बंटाती.

पूनम की सास ने किसी भी मसजिदमजार में जाना बंद कर दिया और पूनम मंदिरों में नहीं जाती. वे नया साल, अपनी विवाह की वर्षगांठ, बच्चों के जन्मदिन जम कर मनाते.

ईद के दिन रिश्तेदारों के यहां खाना खाते और दीवालीहोली पर सब को घर पर खाने पर बुलाते. जो मुसलिम रिश्तेदार पहले नाराज थे, धीरेधीरे घुलमिल गए.

ऐसा चलते पूरे 7 वर्ष बीत गए. अब सास का शरीर भी जवाब देने लगा था. सो, बुटीक कम ही संभालती थीं. लेकिन पूनम उन का पूरा सहारा बन गई थी बुटीक को चलाने में. बारबार सास कहतीं, ‘‘अब शरीर तो साथ देता नहीं, लगता है बुटीक बंद ही करना पड़ेगा और वे बहुत दुखी हो जातीं.’’

पूनम उन के दुख को समझती थी. काम के चलते अफजल एक वर्ष के लिए अमेरिका चले गए. तभी अचानक एक दिन पूनम के भाई का फोन आया. पूनम बहुत खुश हो गई और कहने लगी, ‘‘मां कैसी है?’’ उस के भाई ने उस से बहुत प्यार से बात की. पूनम का मीठा रुख देख अगले दिन मां का भी फोन आया. पूनम तो मानो चहक उठी और पूछने लगी, ‘‘कैसी हो मां तुम सब, पिताजी कैसे हैं?’’

मां कहने लगी, ‘‘बेटी पूनम, तुम्हारे पिता तो बूढ़े हो चले हैं, भाई पढ़ाईलिखाई में तो कुछ खास अच्छे निकले नहीं. सो, तुम्हारे पिताजी ने उन्हें एक दुकान खुलवा दी. किंतु दोनों के दोनों एक फूटी कौड़ी घर में नहीं देते हैं, बल्कि कर्जा और हो गया. जिस बैंक से लोन ले कर कारोबार शुरू किया वह भी अब चुका नहीं पा रहे हैं. यदि तुम कुछ रुपयों का इंतजाम कर सको…’’

उसे ठीक तरह बात करते देख मां ने भाइयों के लोन चुकाने के लिए पूनम से रुपए मांग ही लिए.

अब पूनम सब समझ गई थी कि आज भी उन्होंने पूनम से सिर्फ उन की अपनी जरूरत पूरी करवाने के लिए ही फोन किया था. एक वह दिन था जब वह अफजल से निकाह करना चाहती थी, तो उस के परिवार वालों ने उस से रिश्ता तोड़ लिया था. तब तो उन्हें बेटी से ज्यादा धर्म प्यारा हुआ करता था. और आज, जब पैसों की जरूरत आन पड़ी तो अब वह अपनी हो गई. वरना क्या जैसे अफजल की मां ने हिम्मत कर अकेली हो कर भी गैरधर्म की लड़की को अपना लिया, क्या उस के अपने मांबाप, भाई साथ नहीं दे सकते थे उस का? और उस के निकम्मे भाइयों के लिए मां उस से वापस रिश्ता जोड़ने के लिए राजी हो गई. फिर भी उस ने अपनी मां को मीठा जवाब दे दिया ‘‘हां मां, देखती हूं.’’

और कुछ ही दिनों में जब उस की अपनी सास बीमार हुई और औपरेशन करवाना पड़ा तो पूनम ने अपने बैंक अकाउंट में से पैसे निकलवा कर अपनी सास का दिल का औपरेशन करवाया और उस की सेवा में लग गई. उस के बाद उस ने अपनी नौकरी छोड़ सास का बुटीक भी पूरी तरह से संभाल लिया. सास और बहू अब मांबेटी बन गई थीं. पूनम मन ही मन सोचती रहती, ऐसा धर्म किस काम का जिस की दीवार इतनी बड़ी होती है कि उस के सामने खून के रिश्ते भी बौने हो जाते हैं? और अपने धर्म को निभाने के लिए खून से जुड़े रिश्तों ने उसे छोड़ दिया था. उस ने तो धर्म की वह दीवार ढहा दी थी और वह गुनगुना रही थी –

धर्म, जाति, ऊंचनीच की दीवारों को ढह जाने दो.

इस प्यार को हो जाने दो, इस प्यार को हो जाने दो…

Hindi Kahani : बलात्कार – बहुत हुआ अब और नहीं

Hindi Kahani : जब पुलिस की जीप एक ढाबे के आगे आ कर रुकी, तो अब्दुल रहीम चौंक गया. पिछले 20-22 सालों से वह इस ढाबे को चला रहा था, पर पुलिस कभी नहीं आई थी. सो, डर से वह सहम गया. उसे और हैरानी हुई, जब जीप से एक बड़ी पुलिस अफसर उतरीं. ‘शायद कहीं का रास्ता पूछ रही होंगी’, यह सोचते हुए अब्दुल रहीम अपनी कुरसी से उठ कर खड़ा हो गया कि साथ आए थानेदार ने पूछा, ‘‘अब्दुल रहीम आप का ही नाम है? हमारी साहब को आप से कुछ पूछताछ करनी है. वे किसी एकांत जगह बैठना चाहती हैं.’’

अब्दुल रहीम उन्हें ले कर ढाबे के कमरे की तरफ बढ़ गया. पुलिस अफसर की मंदमंद मुसकान ने उस की झिझक और डर दूर कर दिया था.

‘‘आइए मैडम, आप यहां बैठें. क्या मैं आप के लिए चाय मंगवाऊं?

‘‘मैडम, क्या आप नई सिटी एसपी कल्पना तो नहीं हैं? मैं ने अखबार में आप की तसवीर देखी थी…’’ अब्दुल रहीम ने उन्हें बिठाते हुए पूछा.

‘‘हां,’’ छोटा सा जवाब दे कर वे आसपास का मुआयना कर रही थीं. एक लंबी चुप्पी के बाद कल्पना ने अब्दुल रहीम से पूछा, ‘‘क्या आप को ठीक 10 साल पहले की वह होली याद है, जब एक 15 साला लड़की का बलात्कार आप के इस ढाबे के ठीक पीछे वाली दीवार के पास किया गया था? उसे चादर आप ने ही ओढ़ाई थी और गोद में उठा उस के घर पहुंचाया था?’’ अब चौंकने की बारी अब्दुल रहीम की थी. पसीने की एक लड़ी कनपटी से बहते हुए पीठ तक जा पहुंची. थोड़ी देर तक सिर झुकाए मानो विचारों में गुम रहने के बाद उस ने सिर ऊपर उठाया. उस की पलकें भीगी हुई थीं.

अब्दुल रहीम देर तक आसमान में घूरता रहा. मन सालों पहले पहुंच गया. होली की वह मनहूस दोपहर थी, सड़क पर रंग खेलने वाले कम हो चले थे. इक्कादुक्का मोटरसाइकिल पर लड़के शोर मचाते हुए आतेजाते दिख रहे थे. अब्दुल रहीम ने उस दिन भी ढाबा खोल रखा था. वैसे, ग्राहक न के बराबर आए थे. होली का दिन जो था. दोपहर होती देख अब्दुल रहीम ने भी ढाबा बंद कर घर जाने की सोची कि पिछवाड़े से आती आवाजों ने उसे ठिठकने पर मजबूर कर दिया. 4 लड़के नशे में चूर थे, पर… पर, यह क्या… वे एक लड़की को दबोचे हुए थे. छोटी बच्ची थी, शायद 14-15 साल की. अब्दुल रहीम उन चारों लड़कों को पहचानता था. सब निठल्ले और आवारा थे. एक पिछड़े वर्ग के नेता के साथ लगे थे और इसलिए उन्हें कोई कुछ नहीं कहता था. वे यहीं आसपास के थे. चारों छोटेमोटे जुर्म कर अंदरबाहर होते रहते थे. रहीम जोरशोर से चिल्लाया, पर लड़कों ने उस की कोई परवाह नहीं की, बल्कि एक लड़के ने ईंट का एक टुकड़ा ऐसा चलाया कि सीधे उस के सिर पर आ कर लगा और वह बेहोश हो गया.

आंखें खुलीं तो अंधेरा हो चुका था. अचानक उसे बच्ची का ध्यान आया. उन लड़कों ने तो उस का ऐसा हाल किया था कि शायद गिद्ध भी शर्मिंदा हो जाएं. बच्ची शायद मर चुकी थी. अब्दुल रहीम दौड़ कर मेज पर ढका एक कपड़ा खींच लाया और उसे उस में लपेटा. पानी के छींटें मारमार कर कोशिश करने लगा कि शायद कहीं जिंदा हो. चेहरा साफ होते ही वह पहचान गया कि यह लड़की गली के आखिरी छोर पर रहती थी. उसे नाम तो मालूम नहीं था, पर घर का अंदाजा था. रोज ही तो वह अपनी सहेलियों के संग उस के ढाबे के सामने से स्कूल जाती थी. बच्ची की लाश को कपड़े में लपेटे अब्दुल रहीम उस के घर की तरफ बढ़ चला. रात गहरा गई थी. लोग होली खेल कर अपनेअपने घरों में घुस गए थे, पर वहां बच्ची के घर के आगे भीड़ जैसी दिख रही थी. शायद लोग खोज रहे होंगे कि उन की बेटी किधर गई.

अब्दुल रहीम के लिए एकएक कदम चलना भारी हो गया. वह दरवाजे तक पहुंचा कि उस से पहले लोग दौड़ते हुए उस की तरफ आ गए. कांपते हाथों से उस ने लाश को एक जोड़ी हाथों में थमाया और वहीं घुटनों के बल गिर पड़ा. वहां चीखपुकार मच गई.

‘मैं ने देखा है, किस ने किया है.

मैं गवाही दूंगा कि कौन थे वे लोग…’ रहीम कहता रहा, पर किसी ने भी उसे नहीं सुना. मेज पर हुई थपकी की आवाज से अब्दुल रहीम यादों से बाहर आया.

‘‘देखिए, उस केस को दाखिल करने का आर्डर आया है,’’ कल्पना ने बताया. ‘‘पर, इस बात को तो सालों बीत गए हैं मैडम. रिपोर्ट तक दर्ज नहीं हुई थी. उस बच्ची के मातापिता शायद उस के गम को बरदाश्त नहीं कर पाए थे और उन्होंने शहर छोड़ दिया था,’’ अब्दुल रहीम ने हैरानी से कहा. ‘‘मुझे बताया गया है कि आप उस वारदात के चश्मदीद गवाह थे. उस वक्त आप उन बलात्कारियों की पहचान करने के लिए तैयार भी थे,’’ कल्पना की इस बात को सुन कर अब्दुल रहीम उलझन में पड़ गया. ‘‘अगर आप उन्हें सजा दिलाना नहीं चाहते हैं, तो कोई कुछ नहीं कर सकता है. बस, उस बच्ची के साथ जो दरिंदगी हुई, उस से सिर्फ वह ही नहीं तबाह हुई, बल्कि उस के मातापिता की भी जिंदगी बदतर हो गई,’’ सिटी एसपी कल्पना ने समझाते हुए कहा.

‘‘2 चाय ले कर आना,’’ अब्दुल रहीम ने आवाज लगाई, ‘‘जीप में बैठे लोगों को भी चाय पिलाना.’’ चाय आ गई. अब्दुल रहीम पूरे वक्त सिर झुकाए चिंता में चाय सुड़कता रहा. ‘‘आप तो ऐसे परेशान हो रहे हैं, जैसे आप ने ही गुनाह किया हो. मेरा इरादा आप को तंग करने का बिलकुल नहीं था. बस, उस परिवार के लिए इंसाफ की उम्मीद है.’’ अब्दुल रहीम ने कहा, ‘‘हां मैडम, मैं ने अपनी आंखों से देखा था उस दिन. पर मैं उस बच्ची को बचा नहीं सका. इस का मलाल मुझे आज तक है. इस के लिए मैं खुद को भी गुनाहगार समझता हूं. ‘‘कई दिनों तक तो मैं अपने आपे में भी नहीं था. एक महीने बाद मैं फिर गया था उस के घर, पर ताला लटका हुआ था और पड़ोसियों को भी कुछ नहीं पता था.

‘‘जानती हैं मैडम, उस वक्त के अखबारों में इस खबर ने कोई जगह नहीं पाई थी. दलितों की बेटियों का तो अकसर उस तरह बलात्कार होता था, पर यह घर थोड़ा ठीकठाक था, क्योंकि लड़की के पिता सरकारी नौकरी में थे. और गुनाहगार हमेशा आजाद घूमते रहे. ‘‘मैं ने भी इस डर से किसी को यह बात बताई भी नहीं. इसी शहर में होंगे सब. उस वक्त सब 20 से 25 साल के थे. मुझे सब के बाप के नामपते मालूम हैं. मैं आप को उन सब के बारे में बताने के लिए तैयार हूं.’’ अब्दुल रहीम को लगा कि चश्मे के पीछे कल्पना मैडम की आंखें भी नम हो गई थीं.

‘‘उस वक्त भले ही गुनाहगार बच गए होंगे. लड़की के मातापिता ने बदनामी से बचने के लिए मामला दर्ज ही नहीं किया, पर आने वाले दिनों में उन चारों पापियों की करतूत फोटो समेत हर अखबार की सुर्खी बनने वाली है.

‘‘आप तैयार रहें, एक लंबी कानूनी जंग में आप एक अहम किरदार रहेंगे,’’ कहते हुए कल्पना मैडम उठ खड़ी हुईं और काउंटर पर चाय के पैसे रखते हुए जीप में बैठ कर चली गईं. ‘‘आज पहली बार किसी पुलिस वाले को चाय के पैसे देते देखा है,’’ छोटू टेबल साफ करते हुए कह रहा था और अब्दुल रहीम को लग रहा था कि सालों से सीने पर रखा बोझ कुछ हलका हो गया था. इस मुलाकात के बाद वक्त बहुत तेजी से बीता. वे चारों लड़के, जो अब अधेड़ हो चले थे, उन के खिलाफ शिकायत दर्ज हो गई. अब्दुल रहीम ने भी अपना बयान रेकौर्ड करा दिया. मीडिया वाले इस खबर के पीछे पड़ गए थे. पर उन के हाथ कुछ खास खबर लग नहीं पाई थी. अब्दुल रहीम को भी कई धमकी भरे फोन आने लगे थे. सो, उन्हें पूरी तरह पुलिस सिक्योरिटी में रखा जा रहा था. सब से बढ़ कर कल्पना मैडम खुद इस केस में दिलचस्पी ले रही थीं और हर पेशी के वक्त मौजूद रहती थीं.

कुछ उत्साही पत्रकारों ने उस परिवार के पड़ोसियों को खोज निकाला था, जिन्होंने बताया था कि होली के कुछ दिन बाद ही वे लोग चुपचाप बिना किसी से मिले कहीं चले गए थे, पर बात किसी से नहीं हो पाई थी. कोर्ट की तारीखें जल्दीजल्दी पड़ रही थीं, जैसे कोर्ट भी इस मामले को जल्दी अंजाम तक पहुंचाना चाहता था. ऐसी ही एक पेशी में अब्दुल रहीम ने सालभर बाद बच्ची के पिता को देखा था. मिलते ही दोनों की आंखें नम हो गईं. उस दिन कोर्ट खचाखच भरा हुआ था. बलात्कारियों का वकील खूब तैयारी के साथ आया हुआ मालूम दे रहा था. उस की दलीलों के आगे केस अपना रुख मोड़ने लगा था. सभी कानून की खामियों के सामने बेबस से दिखने लगे थे.

‘‘जनाब, सिर्फ एक अब्दुल रहीम की गवाही को ही कैसे सच माना जाए? मानता हूं कि बलात्कार हुआ होगा, पर क्या यह जरूरी है कि चारों ये ही थे? हो सकता है कि अब्दुल रहीम अपनी कोई पुरानी दुश्मनी का बदला ले रहे हों? क्या पता इन्होंने ही बलात्कार किया हो और फिर लाश पहुंचा दी हो?’’ धूर्त वकील ने ऐसा पासा फेंका कि मामला ही बदल गया. लंच की छुट्टी हो गई थी. उस के बाद फैसला आने की उम्मीद थी. चारों आरोपी मूंछों पर ताव देते हुए अपने वकील को गले लगा कर जश्न सा मना रहे थे. लच की छुट्टी के बाद जज साहब कुछ पहले ही आ कर सीट पर बैठ गए थे. उन के सख्त होते जा रहे हावभाव से माहौल भारी बनता जा रहा था.

‘‘क्या आप के पास कोई और गवाह है, जो इन चारों की पहचान कर सके,’’ जज साहब ने वकील से पूछा, तो वह बेचारा बगलें झांकने लगा. पीछे से कुछ लोग ‘हायहाय’ का नारा लगाने लगे. चारों आरोपियों के चेहरे दमकने लगे थे. तभी एक आवाज आई, ‘‘हां, मैं हूं. चश्मदीद ही नहीं भुक्तभोगी भी. मुझे अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाए.’’ सब की नजरें आवाज की दिशा की ओर हो गईं. जज साहब के ‘इजाजत है’ बोलने के साथ ही लोगों ने देखा कि उन की शहर की एसपी कल्पना कठघरे की ओर जा रही हैं. पूरे माहौल में सनसनी मच गई. ‘‘हां, मैं ही हूं वह लड़की, जिसे 10 साल पहले होली की दोपहर में इन चारों ने बड़ी ही बेरहमी से कुचला था, इस ने…

‘‘जी हां, इसी ने मुझे मेरे घर के आगे से उठा लिया था, जब मैं गेट के आगे कुत्ते को रोटी देने निकली थी. मेरे मुंह को इस ने अपनी हथेलियों से दबा दिया था और कार में डाल दिया था. ‘‘भीतर पहले से ये तीनों बैठे हुए थे. इन्होंने पास के एक ढाबे के पीछे वाली दीवार की तरफ कार रोक कर मुझे घसीटते हुए उतारा था. ‘‘इस ने मेरे दोनों हाथ पकड़े थे और इस ने मेरी जांघें. कपड़े इस ने फाड़े थे. सब से पहले इस ने मेरा बलात्कार किया था… फिर इस ने… मुझे सब के चेहरे याद हैं.’’ सिटी एसपी कल्पना बोले जा रही थीं. अपनी उंगलियों से इशारा करते हुए उन की करतूतों को उजागर करती जा रही थीं. कल्पना के पिता ने उठ कर 10 साल पुराने हुए मैडिकल जांच के कागजात कोर्ट को सौंपे, जिस में बलात्कार की पुष्टि थी. रिपोर्ट में साफ लिखा था कि कल्पना को जान से मारने की कोशिश की गई थी. कल्पना अभी कठघरे में ही थीं कि एक आरोपी की पत्नी अपनी बेटी को ले कर आई और सीधे अपने पति के मुंह पर तमाचा जड़ दिया.

दूसरे आरोपी की पत्नी उठ कर बाहर चली गई. वहीं एक आरोपी की बहन अपनी जगह खड़ी हो कर चिल्लाने लगी, ‘‘शर्म है… लानत है, एक भाई होते हुए तुम ने ऐसा कैसे किया था?’’ ‘‘जज साहब, मैं बिलकुल मरने की हालत में ही थी. होली की उसी रात मेरे पापा मुझे तुरंत अस्पताल ले कर गए थे, जहां मैं जिंदगी और मौत के बीच कई दिनों तक झूलती रही थी. मुझे दौरे आते थे. इन पापियों का चेहरा मुझे हर वक्त डराता रहता था.’’ अब केस आईने की तरह साफ था. अब्दुल रहीम की आंखों से आंसू बहे जा रहे थे. कल्पना उन के पास जा कर उन के कदमों में गिर पड़ी.

‘‘अगर आप न होते, तो शायद मैं जिंदा न रहती.’’ मीडिया वाले कल्पना से मिलने को उतावले थे. वे मुसकराते हुए उन की तरफ बढ़ गई. ‘‘अब्दुल रहीम ने जब आप को कपड़े में लपेटा था, तब मरा हुआ ही समझा था. मेज के उस कपड़े से पुलिस की वरदी तक के अपने सफर के बारे में कुछ बताएं?’’ एक पत्रकार ने पूछा, जो शायद सभी का सवाल था. ‘‘उस वारदात के बाद मेरे मातापिता बेहद दुखी थे और शर्मिंदा भी थे. शहर में वे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहे थे. मेरे पिताजी ने अपना तबादला इलाहाबाद करवा लिया था. ‘‘सालों तक मैं घर से बाहर जाने से डरती रही थी. आगे की पढ़ाई मैं ने प्राइवेट की. मैं अपने मातापिता को हर दिन थोड़ाथोड़ा मरते देख रही थी.

‘‘उस दिन मैं ने सोचा था कि बहुत हुआ अब और नहीं. मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने के लिए परीक्षा की तैयारी करने लगी. आरक्षण के कारण मुझे फायदा हुआ और मनचाही नौकरी मिल गई. मैं ने अपनी इच्छा से इस राज्य को चुना. फिर मौका मिला इस शहर में आने का. ‘‘बहुतकुछ हमारा यहीं रह गया था. शहर को हमारा कर्ज चुकाना था. हमारी इज्जत लौटानी थी.’’ ‘‘आप दूसरी लड़कियों और उन के मातापिता को क्या संदेश देना चाहेंगी?’’ किसी ने सवाल किया. ‘‘इस सोच को बदलने की सख्त जरूरत है कि बलात्कार की शिकार लड़की और उस के परिवार वाले शर्मिंदा हों. गुनाहगार चोर होता है, न कि जिस का सामान चोरी जाता है वह.

‘‘हां, जब तक बलात्कारियों को सजा नहीं होगी, तब तक उन के हौसले बुलंद रहेंगे. मेरे मातापिता ने गलती की थी, जो कुसूरवार को सजा दिलाने की जगह खुद सजा भुगतते रहे.’’ कल्पना बोल रही थीं, तभी उन की मां ने एक पुडि़या अबीर निकाला और उसे आसमान में उड़ा दिया. सालों पहले एक होली ने उन की जिंदगी को बेरंग कर दिया था, उसे फिर से जीने की इच्छा मानो जाग गई थी.

Best Hindi Story : आवारा बादल – शिखा के बर्ताव में क्यों आया बदलाव ?

Best Hindi Story : ‘जब मैं बादल बन जाऊं, तुम बारिश बन जाना.  जो कम पड़ जाएं सांसें, मेरा दिल बन जाना.’

एक गाने की इन पंक्तियों को गाते हुए सुरेंद्र शिखा के बालों में उंगलियां फंसाता है और शरारती नजरों के साथ उस को को छेड़ता है.

“हटो जी, आज क्या सूझी है तुम्हें जो तुम यों गाना गा रहे हो? कुछ अपनी उम्र का भी खयाल रखो. तुम कालेज वाले लड़के नहीं रहे, 2 बच्चों के पिता बन चुके हो.”  शिखा ने सुरेंद्र के हाथों को अपने बालों से हटाते कहा.

सुरेंद्र और शिखा जवानी की दहलीज पार कर चुके थे और अधेड़ उम्र में ही बुढ़ापा हौले से अपनी आमद का एहसास कराने लगा था. उन के एक बेटा और एक बेटी थी. दोनों बच्चों से उन की दुनिया गुलजार थी.  सुरेंद्र रांची यूनिवर्सिटी में प्रोफैसर था और अभी दोतीन वर्ष ही हुए थे यहां ट्रांसफर हुए.  इस कारण दोनों पतिपत्नी रांची में ही रहते थे.

आज रविवार की छुट्टी थी तो सुरेंद्र शिखा को अपनी चुहलबाजियों से परेशान कर रहा था और शिखा का चेहरा देख मुसकरा रहा था. “यह गाना न गाऊं तो फिर क्या गाऊं,  बीते जमाने वाला-ऐ मेरी जोहरा जबीं, तुझे मालूम नहीं…,” यह गुनगुनाते हुए सुरेंद्र हंसने लगता है.

“सुबहसुबह तुम सठिया गए हो,”  कहते हुए शिखा चाय बनाने के लिए उठने लगी. मगर सुरेंद्र ने उसे खींच कर पास बिठा लिया.

“ओफ्फो, जब देखो तब किचन में जाने को तैयार रहती है. आज मेरी छुट्टी है और साथ में घर के काम से तुम्हारी भी छुट्टी. आज कामवाली को भी फोन कर के न आने का कह दो. संडे उस की भी छुट्टी,”  सुरेंद्र ने कहा.

“छुट्टी, और वह भी मेरी, आज तक मुझे गृहस्थी और अपनी जिम्मेदारियों से छुट्टी नहीं मिली,” शिखा मुंह बनाती है.

“इसलिए आज छुट्टी और आगे भी हम छुट्टियां मनाएंगे,”  सुरेंद्र ने कहा.

“क्यों जी, आज तुम्हारा लहजा इतना बदलाबदला सा क्यों है,  आखिर इरादा क्या है?”  शिखा सुरेंद्र की आंखों में झांकती है.

“इरादा तो नेक है,”  सुरेंद्र शरारती अंदाज में हंसते हुए आगे कहता है, “आज से हम अपनी जिंदगी को जीने की शुरुआत करेंगे और इस के लिए कोई बहानेबाजी नहीं चलेगी.  देखो न शिखा, अपनीअपनी जिम्मेदारियों को निभाते हम दोनों एकदूसरे के साथ सिर्फ फौर्मल लाइफ ही जी पाए हैं.  तुम्हें भी तो मुझ से कितनी शिकायतें रहती थीं.”

सुरेंद्र की बात सुन कर शिखा अपने बीते वर्षों में चली जाती है.  नईनई शादी हुई थी उस की और वह भी संयुक्त परिवार में.  सुरेंद्र तब दूसरे शहर में कालेज में पढ़ाता था और वहीं रहता था दोतीन दोस्तों के साथ रूम शेयर कर के. वह छुट्टियों में घर आता था.  ऐसे में शिखा नईनवेली दुलहन हो कर भी परिवार के बीच जिम्मेदार बहू बन कर रह गई. फिर उस के बाद बच्चों को पालने से ले कर खुद को सैट करने तक अपनीअपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए इन दोनों ने अपने दांपत्य सैटलमैंट को पीछे छोड़ दिया था.

“कहां खो गईं, कहीं शिकायतों का पिटारा तो नहीं खुलने लगा?”

सुरेंद्र की आवाज पर शिखा की तंद्रा टूटती है और वह वर्तमान में लौट आती है.

“जब हमारी उम्र बिंदास जीने की थी तब तो सिर्फ जिम्मेदारियां दिखी तुम्हें और अब? अब अपने पेट और बाल को देखो, बुढ़ापे की दस्तक दे रहे हैं. अब क्या आंखें चार करोगे? मोटे पावर के इस चश्मे से तुम्हारी आंखें कब से चार की गिनती करवा रही हैं,” शिखा की बातों में कटाक्ष का अंश था.

“मानता हूं, शिखा. मैं तुम्हें समय पर वह प्यारभरा साथ नहीं दे पाया, कभी तुम्हें हनीमून पर नहीं ले गया,  कभी तुम्हारे साथ क्वालिटी टाइम नहीं बिताया, लेकिन मेरी लाचारी को समझो,” सुरेंद्र अब गंभीर हो चला था, आगे बोला, “वह बात तो सुनी है न, जब जागो तभी सवेरा. तो आंखें खोल कर देखो, हमारे जीवन में एक नया सवेरा हुआ है.  कल बीत चुका है और उस की खामियां गिनते हुए इस नई सुबह को क्यों खराब करें. मैं ने हमारा हनीमून प्लान किया है. अगले हफ्ते मैं छुट्टियां ले रहा हूं.  किसी हिल स्टेशन पर चलेंगे और…,” सुरेंद्र अब फिर शरारती हो जाता है.

शिखा का दिल भी धीरेधीरे सुरेंद्र की बातों में डूबने लगता है. सकुचाते हुए वह बोलती है, “और बच्चे, परिवार वाले जानेंगे तो क्या कहेंगे? इस उम्र में हनीमून ट्रैवल?  लोग तो फैमिली टूर पर निकलते हैं.  मैं ससुराल में सब से नजरें कैसे मिला पाऊंगी और समाज के लोग, सोचो, पड़ोसी हम पर कितना हंसेंगे?”

“फिर से बचकानी बातें शुरू कर दीं तुम ने,”  सुरेंद्र झुंझला उठा, “लोगों के कहनेसुनने के चक्कर में हम अपनी बची जिंदगी को बेजान कर दें? क्या प्रेम की हरियाली को सिर्फ एक उम्र तक ही सीमित रखना चाहिए? नहीं शिखा, मैं ने लोगों की छोड़ खुद के लिए सोचना शुरू कर दिया है.  तुम भी अपना जीवन अपने ढंग से जीने की शुरुआत करो.  और इस में गलत भी क्या है? हम पतिपत्नी हैं. माना कि हमारी थोड़ी उम्र हो चली हैं  लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि हम जीवन को किसी तरह गुजारने लगें. खुशहाल जीने के लिए उम्र की बंदिश नहीं होती.”

शिखा सुरेंद्र की बातों से सहमत हो जाती है.

“अब नहाधो कर फ्रैश हो जाओ, हम बाहर चल रहे हैं. शौपिंग, खाना और मूवी तीनों के साथ आज का संडे,”  सुरेंद्र बोल कर बाथरूम में चला गया.

थोड़ी देर में शिखा दोनों बच्चों के साथ तैयार हो गई. वे गाड़ी से बाहर निकले. ड्राइव करते हुए सुरेंद्र धीमी आवाज में खूबसूरत संगीत का आनंद ले रहा था.  शिखा भी कार से बाहर दिखती तेज बढ़ती सड़क के साथ खुद को गतिमान बना रही थी. आज बाहर का नजारा उसे कुछ नया सा और मोहक महसूस हो रहा था.

एक रैस्टोरैंट में वे दोनों हलका सा कुछ खा कर शौपिंग के लिए एक मौल में चले जाते हैं. बच्चे दूसरी तरफ अपनी पसंद की चीजें देखने लगते हैं. इधर  सुरेंद्र शिखा के लिए एक हलके ब्लू कलर का गाउन पसंद करता है, “देखो तो, यह ड्रैस तुम पर जंच रही है.”

“तुम भी न. फिर से मुझे बोलने को मजबूर मत करो. मैं अब यह पहन कर घूमूंगी?”  शिखा ने आंखें दिखाते हुए कहा.

“अच्छा चलो, नाराज मत होना. कुछ नए अच्छे कपड़े पसंद कर लो बाहर ले जाने के लिए.”

शिखा ने सिल्क की साड़ी और कुछ कौटन खादी मिक्स के सलवारकुरते पसंद किए, साथ ही सुरेंद्र ने भी अपने लिए कुछ नए कपड़े खरीदे.

दोपहर का लंच कर के वे घर आ गए.  शिखा सारा सामान सोफे पर रख कर आराम की मुद्रा में बैठे गई.  सुरेंद्र कार गैरेज में लगा कर अंदर आया.
“चलो दिन का रूटीन पूरा. अब थोड़ा आराम कर लो, फिर शाम चलेंगे.”

“अब शाम को मैं कहीं नहीं जाने वाली,” शिखा बोल पड़ी.

“यह क्या, थोड़ा सा बाहर निकलीं और थक गईं. फिर अपने हनीमून टूर का क्या होगा,”  सुरेंद्र ने शिखा को देख कर कहा.

“इसीलिए बोल रही हूं कि अब बुढ़ापे में यह जवानी वाले चोंचले छोड़ो और भक्तिभजन की तैयारी करो.”

शिखा की बातों का सुरेंद्र पर कोई असर नहीं हुआ. हालांकि शाम में सुरेंद्र की मरजी न चली और शिखा की बात उसे माननी पड़ी. शाम की चाय के साथ रात का खाना भी उन्होंने घर पर ही खाया. अगली सुबह सोमवार का दिन सभी अपनेअपने रूटीन वर्क में लग गए.  बच्चे स्कूल जा चुके थे और सुबह का नाश्ता ले कर सुरेंद्र कालेज के लिए निकल गया लेकिन जातेजाते शिखा को टूर की बात फिर से याद दिला गया.

दोपहर का खाली समय, शिखा आराम करने के लिए बैठी थी कि तभी डोरबेल बजी. उस ने दरवाजा खोला तो देखा, पड़ोस में रहने वाली निर्मला आई है.  निर्मला सिर्फ पड़ोसिन ही नहीं बल्कि शिखा की अच्छी सहेली भी बन गई थी.  खुशियों के पल या दुख के भारी दिन, ये दोनों एकदूसरे से साझा करती थीं.

“आओ निर्मला, बैठो.  5 दिनों से तुम दिखी नहीं, तो मैं समझी कि तुम मुझ से रूठ गई हो.  तुम्हें फोन भी लगाया लेकिन कनैक्ट नहीं हुआ,”  निर्मला को सोफे पर बैठने का इशारा करते हुए शिखा ने कहा.

“क्या बताऊं, शिखा. कुछ दिनों के लिए गांव चली गई थी. गांव में मेरे पति के बचपन के घनिष्ठ मित्र हैं.  अचानक उन की पत्नी के मर जाने की सूचना मिली, जिस के बाद हम दोनों वहां चले गए,”  निर्मला ने बताया.

“मगर कैसे, कुछ तो हुआ होगा, पहले से कोई बीमारी या किसी प्रकार की दुर्घटना?”  शिखा ने आश्चर्य से कहा.

“अरे नहीं, हार्ट अटैक हुआ था. समय कि बलवान थी कि सुहागिन के जोड़े में संसार से विदा हुई.  उस के पति का तो रोरो कर बुरा हाल था,”  कहते हुए निर्मला के चेहरे पर थोड़े दुख के भाव उभर आए.

“पत्नी के जाने से अब उस व्यक्ति के जीवन में निराशा और दुख के बादल ही भरे दिखेंगे,”  शिखा ने दुखी महसूस होते हुए कहा.

“ऐसा क्यों होगा भला, यदि वे चाहें तो आगे के बचे पल को सामान्य बना कर जी सकते हैं. माना कि जीवन में दुखद घटनाएं घटती हैं, विकट परिस्थितियां आती हैं, लेकिन इस का मतलब यह नहीं कि एक जीवित व्यक्ति निर्जीव सा जीवन जिए.”

“मतलब,”  शिखा निर्मला की बातें समझ न सकी.

“मतलब यह कि किसी भी व्यक्ति को अपनी दुखद परिस्थितियों में अधिक समय तक बंधे नहीं रहना चाहिए. बंधे रहने का मतलब आजीवन वह हताश और निराश रहेगा व जीवन को सलीके से जी नहीं पाएगा.  फिर इस का दोष देगा समय पर और प्रकृति पर कि उसे ऐसी जिंदगी क्यों मिली,”  निर्मला बोले जा रही थी.

“एक सामान्य व्यक्ति क्या चाहता है, जीवन को खुशहाल और आनंददायी बिताना.  लेकिन इस अवस्था को जीने के लिए वह प्रयास नहीं करता, इंतजार करता है कि उस के जीवन में सारे सुख बैठेबिठाए मिल जाएं. अरे शिखा, खुशी व्यक्ति के अंदर ही विराजमान रहती है. उसे भरपूर जीने के लिए खुशी को मन की गहराइयों से खींच कर बाहर उभारना पड़ता है.  लेकिन लोग हैं कि इतना छोटा सा भी प्रयास नहीं करते.”

“बात तो तुम्हारी सही लग रही है, निर्मला लेकिन कुछ चीजें समय से भी मिलती हैं. भला समय का लिखा कौन बदल सकता है. प्रकृति की कृपा सर्वोपरि है.”

“तू भी न, धार्मिक प्रवचन सुनते और पूजाअर्चना करते कुछ ज्यादा ही आध्यात्मिक हो गई है.”

“आध्यात्मिक, हुंह, आध्यात्मिक. अच्छा बता, मैं प्रकृति का ध्यान न करती तो क्या करती. शादी के बाद सिर्फ और सिर्फ जिम्मेदारियों का केंद्र बन कर रह गई. पति का साथ तन तक सीमित रह गया. मन तो हमारा संस्कार और कर्तव्य में उलझे रह गए,”  शिखा बीते दिनों का दुखड़ा सुनाने लगी.

“कब तक तुम उन्हीं पलों में खुद को समेटे रहोगी. माना कि तुम्हारा कल तुम्हारी सोच से परे था लेकिन तुम्हारा आज खुशियों की चादर बिछाए हुए है, तुम अपनी सोच से उसे धूसरित क्यों कर रही हो?”

शिखा निर्मला की बात को समझती जा रही थी.

“देख शिखा, व्यक्ति के पास प्रकृति ने जो अवस्थाएं दी हैं उन्हें अब कितना और किस प्रकार जीना है, उस के खुद के हाथ में होता हैं. कुछ लोग इसे जल्दी समझ लेते हैं.  कुछ तमाम उम्र समझ नहीं पाते.”

“अच्छा ज्ञानी बहना, अब यह भी तो बताओ कि जिसे देरसवेर इस रहस्य की समझ आ जाए, वह खुश रहने के लिए क्या करे?”  शिखा ने शरारतभरे अंदाज में कहा.

“ज्यादा कुछ नहीं, अपने वर्तमान को देखो और उस में निहित परिस्थितियां आदि को स्वीकार करते हुए सकारात्मकता का लैवल ऊंचा कर दो.  दबाना है तो नकारात्मक चीजें, दुख, चिंता आदि का दमन करो.  जीवन में मिली छोटीछोटी खुशियों को उभारो और उस का आकार बड़ा करो.  गांव पर भी भाईसाहब को खुद के बाकी बचे जीवन को जीने का तरीका बता आई हूं.”

निर्मला काफी देर तक बैठने के बाद चली गई थी.  मगर शिखा अब भी उस के शब्दों और तथ्यों को अपने अंदर महसूस कर रही थी.  बातोंबातों में निर्मला ने शायद शिखा के हृदय को परिवर्तित कर दिया था.  अब शिखा को भी खुद पर खीझ हो रही थी, ‘कितनी बड़ी बेवकूफ है वह जो बीते दिनों को पकड़ कर अपना आज खराब कर रही है.  उसे सुरेंद्र की बातें सही लगने लगीं. सच है कि उन दोनों ने जिम्मेदारियों और परिस्थितियों के कारण जीवन को भरपूर नहीं जिया.  उसे वो खुशियां नहीं मिल पाईं जिन की वह लालसा पाल रखे थी.  मगर अब जबकि खुशियां उस के समक्ष खड़ी हैं और कह रही हैं कि आओ, मुझ में समाहित हो जाओ और आनंददायक जीवन का लुत्फ उठाओ तो वह इसे ठुकरा रही है.  कल किस ने देखा है. फिर क्यों  न वह भी अपने आज को जी ले.’

शाम हो चली थी. सुरेंद्र घर आ गया.  लेकिन बीते कुछ घंटों में शिखा अब नईनवेली शिखा बन चुकी थी.  उस में वह अल्हड़पन और शरारतें फिर जीवंत होने लगीं जो वर्षों पहले कहीं दिल की गहराइयों में खो चुकी थीं.

चाय के साथ शिखा सुरेंद्र की पसंद का नमकीन लाई थी और संग में गाजर का हलवा भी, जो शायद उन के इस पल में मिठास घोलने के लिए काफी था.

“वाह, वाह, आज तो हमारी श्रीमतीजी ने हमारा मन जीत लिया. बात क्या है.”

“कुछ नहीं, बस, यों हीं. वो हमारे टूर का क्या हुआ? मैं सोच रही हूं कि हम दोनों शिमला की वादियों में कुछ सुकून के पल बिताएं.”

“जानेमन, तुम्हारे आदेश की तामील की जाएगी,” सुरेंद्र ने शरारतभरे लहजे में कहा, “चलने की तैयारी करो, इस हफ्ते मेरी छुट्टियां मंजूर हो जाएंगी.”

“जब मैं बादल बन जाऊं, तुम बारिश बन जाना…”  सुरेंद्र फिर से गाने की यह पंक्ति गुनगुनाने लगा.

“बादल तो तुम हो ही, अब आवारा बादल बन जाओ,”  और शिखा उस के अल्हड़पन पर मुसकराने लगती है.

Love Story : तीसरी गलती – सुधा क्यों परेशान थी ?

Love Story : टूर पर जाने के लिए प्रिया ने सारी तैयारी कर ली थी. 2 बैग में सारा सामान भर लिया था. बेटी को पैकिंग करते देख सुधा ने पूछा, ‘‘इस बार कुछ ज्यादा सामान नहीं ले जा रही हो?’’

‘‘हां मां, ज्यादा तो है,’’ गंभीर स्वर में प्रिया ने कहा. अपने जुड़वां भाई अनिल, भाभी रेखा को बाय कह कर, उदास आंखों से मां को देखती हुई प्रिया निकल गई. 10 मिनट के बाद ही प्रिया ने सुधा को फोन किया, ‘‘मां, एक पत्र लिख कर आप की अलमारी में रख आई हूं. जब समय मिले, पढ़ लेना.’’ इतना कह कर प्रिया ने फोन काट दिया.

सुधा मन ही मन बहुत हैरान हुईं, उन्होंने चुपचाप कमरे में आ कर अलमारी में रखा पत्र उठाया और बैड पर बैठ कर पत्र खोल कर पढ़ने लगीं. जैसेजैसे पढ़ती जा रही थीं, चेहरे का रंग बदलता जा रहा था. पत्र में लिखा था, ‘मां, मैं मुंबई जा रही हूं लेकिन किसी टूर पर नहीं. मैं ने अपना ट्रांसफर आप के पास से, दिल्ली से, मुंबई करवा लिया है क्योंकि मेरे सब्र का बांध अब टूट चुका है. अभी तक तो मेरा कोई ठिकाना नहीं था, अब मैं आत्मनिर्भर हो चुकी हूं तो क्यों आप को अपना चेहरा दिखादिखा कर, आप की तीसरी गलती, हर समय महसूस करवाती रहूं. तीसरी गलती, आप के दिल में मेरा यही नाम हमेशा रहा है न. ‘इस दुनिया में आने का फैसला तो मेरे हाथ में नहीं था न. फिर आप क्यों मुझे हमेशा तीसरी गलती कहती रहीं. सुमन और मंजू दीदी को तो शायद उन के हिस्से का प्यार दे दिया आप ने. मेरी बड़ी बहनों के बाद भी आप को और पिताजी को बेटा चाहिए था तो इस में मेरा क्या कुसूर है? मेरी क्या गलती है? अनिल के साथ मैं जुड़वां हो कर इस दुनिया में आ गई. अपने इस अपराध की सजा मैं आज तक भुगत रही हूं. कितना दुखद होता है अनचाही संतान बन कर जीना.

‘आप सोच भी नहीं सकतीं कि तीसरी गलती के इन दो शब्दों ने मुझे हमेशा कितनी पीड़ा पहुंचाई है. जब से होश संभाला है, इधर से उधर भटकती रही हूं. सब के मुंह से यही सुनसुन कर बड़ी हुई हूं कि जरूरत अनिल की थी, यह तीसरी गलती कहां से आ गई. अनिल तो बेटा है. उसे तो हाथोंहाथ ही लिया जाता था. आप लोग हमेशा मुझे दुत्कारते ही रहे. मुझ से 10-12 साल बड़ी मेरी बहनों ने मेरी देखभाल न की होती तो पता नहीं मेरा क्या हाल होता. मेरी पढ़ाईलिखाई की जिम्मेदारी भी उन्होंने ही उठाई.

‘मेरी परेशानी तब और बढ़ गई जब दोनों का विवाह हो गया था. अब आप थीं, पिताजी थे और अनिल. वह तो गनीमत थी कि मेरा मन शुरू से पढ़ाईलिखाई में लगता था. शायद मेरे मन में बढ़ते अकेलेपन ने किताबों में पनाह पाई होगी. आज तक किताबें ही मेरी सब से अच्छी दोस्त हैं. दुख तब और बढ़ा जब पिताजी भी नहीं रहे. मुझे याद है मेरे स्कूल की हर छुट्टी में आप कभी मुझे मामा के यहां अकेली भेज देती थीं, कभी मौसी के यहां, कभी सुमन या मंजू दीदी के घर. हर जगह अकेली. हर छुट्टी में कभी इस के घर, कभी उस के घर. जबकि मुझे तो हमेशा आप के साथ ही रहने का दिल करता था. ‘कहींकहीं तो मैं बिलकुल ऐसी स्पष्ट, अनचाही मेहमान होती थी जिस से घर के कामों में खूब मदद ली जाती थी, कहींकहीं तो 14 साल की उम्र में भी मैं ने भरेपूरे घर का खाना बनाया है. कहीं ममेरे भाईबहन मुझे किचन के काम सौंप खेलने चले जाते, कहीं मौसी किचन में अपने साथ खड़ा रखतीं. मेरे पास ऐसे कितने ही अनुभव हैं जिन में मैं ने साफसाफ महसूस किया था कि आप को मेरी कोई परवा नहीं थी. न ही आप को कुछ फर्क पड़ता था कि मैं आप के पास रहूं या कहीं और. मैं आप की ऐसी जिम्मेदारी थी, आप की ऐसी गलती थी जिसे आप ने कभी दिल से नहीं स्वीकारा.

‘मैं आप की ऐसी संतान थी जो आप के प्यार और साथ को हमेशा तरसती रही. मेरे स्कूल से लेट आने पर कभी आप ने यह नहीं पूछा कि मुझे देर क्यों हुई. वह तो मेरे पढ़नेलिखने के शौक ने पढ़ाई खत्म होते ही मुझे यह नौकरी दिलवा दी जिस से मैं अब सचमुच आप से दूर रहने की कोशिश करूंगी. अपने प्रति आप की उपेक्षा ने कई बार मुझे जो मानसिक और शारीरिक कष्ट दिए हैं. उन्हें भूल तो नहीं पाऊंगी पर हां, जीवन के महत्त्वपूर्ण सबक मैं ने उन पलों से ही सीखे हैं. ‘आप की उपेक्षा ने मुझे एक ऐसी लड़की बना दिया है जिसे अब किसी भी रिश्ते पर भरोसा नहीं रहा. जीने के लिए थोड़े से रंग, थोड़ी सी खुशबू, थोड़ा सा उजाला भी तो चाहिए, खुशियोें के रंग, प्यार की खुशबू और चाहत का उजाला. पर इन में से कुछ भी तो नहीं आया मेरे हिस्से. अनिल के साथ जुड़वां बन दुनिया में आने की सजा के रूप में जैसे मुझे किसी मरुस्थल के ठीक बीचोंबीच ला बिठाया गया था जहां न कोई छावं थी, न कोई राह.‘मां, आप को पता है अकेलापन किसी भयानक जंगल से कम नहीं होता. हर रास्ते पर खतरा लगता है. जब आप अनिल के आगेपीछे घूमतीं, मैं आप के आगेपीछे घूम रही होती थी. आप के एक तरफ जब अनिल लेटा होता था तब मेरा मन भी करता था कि आप की दूसरी तरफ लेट जाऊं पर मेरी हिम्मत ही नहीं हुई कभी. आज आप का दिल दुखाना मेरा मकसद नहीं था पर मेरे अंदर लोगों से, आप से मिली उपेक्षा का इतना जहर भर गया है कि मैं चाह कर भी उसे निगल नहीं सकती. आखिर, मैं भी इंसान हूं. आज सबकुछ उगलना ही पड़ा मुझे. बस, आज मैं आप सब से दूर चली गई. आप अब अपने बेटे के साथ खुश रहिए.

‘आप की तीसरी गलती.

‘प्रिया.’

सुधा को अब एहसास हुआ. आंसू तो कब से उन के गाल भिगोते जा रहे थे. यह क्या हो गया उन से. फूल सी बेटी का दिल अनजाने में ही दुखाती चली गई. वे पत्र सीने से लगा कर फफक पड़ीं. अब क्या करें. जीवन तो बहती नदी की तरह है, जिस राह से वह एक बार गुजर गया, वहां लौट कर फिर नहीं आता, आ ही नहीं सकता.

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