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Love Story In Hindi : तेरे बिन – क्या हर्षा को कोई और मिल गया था या बात कुछ और थी

Love Story In Hindi : हर्षा जिस दिन से मायके से लौटी थी उल्लास उसे कुछ बदलाबदला पा रहा था. औफिस जाते समय पहले तो वह उस की हर जरूरत का ध्यान रखती. नाश्ता, टिफिन, घड़ी, मोबाइल, वालेट, पैन, रूमाल कहीं कुछ रह न जाए. वह नहा कर निकलता तो धुले व पै्रस किए कपड़े, पौलिश किए जूते उसे तैयार मिलते. रोज बढि़या डिनर, संडे को स्पैशल लंच, सुंदर सजासंवरा घर, मुसकान से खिलीखिली हर वक्त आंखों में प्यार का सागर लिए उस की सेवा में बिछी रहने वाली हर्षा के रंगढंग उस दिन से कुछ अलग ही नजर आ रहे थे.

अब उसे कोई चीज टाइम पर जगह पर नहीं मिलती. पूछता तो उलटे तुरंत जवाब मिल जाता कि कुछ खुद भी कर लिया करो. अकेली कितना करूं. उल्लास इधरउधर दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगा था.

‘उस दिन औफिस की पुरानी सैक्रेटरी बीमार जान कर उसे देखने घर चली आई. कहीं इस कारण हर्षा को कुछ फील तो नहीं हो गया या  हर्षा की नई भाभी पारुल ने तो कहीं उसे पट्टी पढ़ा कर नहीं भेजा, बहुत तेज लगती है वह या फिर औफिस में बिजी रहने के कारण आजकल कम टाइम दे पाता हूं. घर में अकेले पड़ेपड़े बोर हो जाती होगी शायद. मायके में जौइंट फैमिली जो है… बच्चा भी तो नहीं अभी कोई, जो उसी से मन लग जाता. 2-3 साल बाद बच्चे का प्लान खुद ही तो मिल कर बनाया था. पूछने पर तो सही जवाब भी नहीं देती आजकल,’ उल्लास सोचे जा रहा था.

‘‘उल्लास खाना बना दिया है, निकाल कर खा लेना. बाकी फ्रिज में रख देना. मुझे शायद आने में देर हो जाए. फ्रैंड के घर किट्टी पार्टी है,’’ हर्षा का सपाट स्वर सुनाई दिया.

‘‘संडे को कौन किट्टी पार्टी रखता है? एक ही दिन तो सभी जैंट्स घर पर होते हैं?’’

‘‘और हम जो रोज घर में रहतीं हैं उन का क्या? कल से तुम्हारे कपड़े बैड पर फैले हैं. उन्हें समेट कर रख लेना. मेरी समझ नहीं आता मेरे लिए क्यों छोड़ कर जाते हो?’’ और धड़ाम से दरवाजा बंद कर वह चली गई.

उल्लास सोचने लगा कि वह पहले भी तो यों छोड़ जाता था… तब उस के काम खुशीखुशी कर देती थी, तो अब उस ने ऐसा क्या कर दिया जो हर्षा उस से रूठीरूठी सी रहने लगी है? वह उस पर और बर्डन नहीं डालेगा. अपने काम खुद कर लिया करेगा.

उल्लास ने जैसेतैसे बेमन से खाना खा  लिया. हर्षा का खाना बेस्वाद तो कभी नहीं बना, भले ही खिचड़ी बनाए. इसी कारण उस का बाहर का खाना बिलकुल छूट गया था… पर अब तो कभी नमक ज्यादा तो कभी कम. कच्ची सब्जी, जलीजली रोटियां. हुआ क्या है उसे? वह हैरान था. उस की समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

फिर मन ही मन बुदबुदाया कि चल बेटा होस्टल डेज याद कर और आज कुछ बना डाल हर्षा को खुश करने के लिए. जब तक वह घर लौटे बढि़या सा डिनर तैयार कर ले उस के लिए… हमेशा वही बनाती है उसे भी तो कभी कुछ करना चाहिए. फिर सोचने लगा कि हर्षा को आमिर खान पसंद है. अत: पहले ‘दंगल’ मूवी के टिकट बुक करा लिए जाएं नाइट शो के. फिर औनलाइन टिकट बुक किए. दोनों की पसंद का खाना तैयार किया.

हर्षा आई तो उस का प्रयास देख कर मन ही मन खुश हुई. करी को थोड़ा सा ठीक किया, पर बाहर जाहिर नहीं होने दिया. यही तो चाहने लगी थी कि उल्लास किसी भी बात के लिए उस पर निर्भर न रहे. डिनर भी चुपचाप हो गया. मूवी में भी हर्षा चुपचुप रही.

उस की चुप्पी उल्लास को अखरने लगी थी. अत: बोला, ‘‘कोई बात है हर्षा तो मुझे बताओ… मुझ से कुछ गलत हो गया या मेरा साथ तुम्हें अब अच्छा नहीं लगता?’’

‘‘जब तुम हिंदी मूवी पसंद नहीं करते हो, तो मेरी पसंद के टिकट नहीं लाने चाहिए थे. प्रत्यूष और धनंजय को ले कर अच्छा होता कोई अपनी पसंद की इंग्लिश मूवी ऐंजौय करते… जबरदस्ती मेरे कारण देखने की क्या जरूरत है?’’

उल्लास देखता रह गया कि जो हर्षा रातदिन उसे दोस्तों के साथ न जाने और अपने साथ ही हिंदी मूवी देखने की जिद करती थी वही आज उलटी बात कर रही है… क्यों उस से कट रही है हर्षा? क्या किसी और के लिए दिल में जगह बना ली है? फिर उस ने सिर झटका कि वह ऐसा सोच भी कैसे सकता है? उसे दीवानों की तरह चाहने वाली हर्षा ऐसा कभी नहीं कर सकती. वह चाहती है न कि वह अपने सारे काम खुद करे तो करेगा. तब तो खुश होगी. उसे पहले वाली हर्षा मिल जाएगी.

2-3 महीने में उल्लास ने अपने को काफी बदल लिया. अपने कपड़े हर संडे धो डालता. कुछ खुद प्रैस करता कुछ को बाहर से करवा लेता. घड़ी, वालेट, मोबाइल, चार्जर वगैरह ध्यान से 1-1 चीज रख लेता. हर्षा को इस के लिए परेशान न करता. पेट भरने लायक खाना भी बनाना आ गया था. औफिस जाने से पहले अपना कमरा ठीक कर जाता.

अब तो खुश हो हर्षा? वह पूछता तो हर्षा हौले से मुसकरा देती, पर अंदर से उसे अपने कामों को स्वयं करता देख बहुत दुखता, पर वह ऐसा करने के लिए मजबूर थी.

‘‘उल्लास इंगलिश की नईर् मूवी लगी है, जाओ अपने दोस्तों के साथ देख आओ.’’

‘‘हर्षा तुम मुझे ऐसे अपने से दूर क्यों कर रही हो. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यह कैसी खुशी है तुम्हारी? क्या मुझे अपने लायक नहीं समझती अब?’’

‘‘उल्लास तुम तो लायक हो और तुम्हारे लिए वह लाली मौसी ने सही लड़की चुनी थी उन की ननद की बेटी संजना. बिलकुल तुम्हारे लिए हर तरह से सही मैच… उस ने अभी तक शादी नहीं की. मेरी वजह से उस से रिश्ता होतेहोते रह गया था तुम्हारा… लाली मौसी इसी कारण अभी तक नाराज हैं. उन की नाराजगी तुम दूर कर सकते हो तो बताओ…’’

‘‘कहां इतनी पुरानी बात ले कर बैठ गई तुम… हम दोनों ने एकदूसरे को

पसंद किया, प्यार किया, शादी की. अब यह बात कहां से आ गई… अच्छा औफिस को देर हो रही है. मैं निकलता हूं शाम को बात करते हैं रिलैक्स,’’ और फिर हमेशा की तरह बाहर निकलते हुए उस के माथे पर चुंबन जड़ दिया, ‘‘तुम कुछ भी कर लो, कह लो तुम्हें प्यार करता रहूंगा. सी यू हनी.’’

‘‘यही तो मैं अब नहीं चाहती उल्लास… तुम्हें कुछ कह भी तो नहीं सकती,’’ हर्षा देर तक रोती रही. कल ही उसे मुंबई के लिए निकलना था कभी न लौटने के लिए. उस ने अपनेआप को किसी तरह संभाला. छोटे से बैग में सामान पैक कर लिया. उल्लास आया तो उसे बताने की हिम्मत न हुई. रात बेचैनी से करवटें बदलते बीत गई.

‘‘तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लग रही हर्षा,’’ उल्लास कभी पानी, कभी चाय तो कभी कौफी बना लाता. कभी माथा सहलाता.

‘‘डाक्टर को बुलाऊं क्या?’’

‘‘कुछ नहीं थोड़ा सिरदर्द है. सुबह तक ठीक हो जाएगा. तुम अब सो जाओ.’’

मगर उल्लास माना नहीं तेल की शीशी उठा लाया. ढक्कन खोला तो वह फिसल कर बैड के नीचे पहुंच गया. वह झुका तो पैक्ड बैग नजर आया.

‘‘अरे यह बैग कैसा है? कौन जा रहा है?’’

‘‘हां, उल्लास मुझे कल ही जाना पड़ रहा है मुंबई. अभि मुझे लेने कल सुबह यहां पहुंच जाएगा. वह मेरी सहेली रुचि की बहन की शादी है. उस का कोई है नहीं. घबरा रही है, डिप्रैशन में अस्पताल में दाखिल भी रही. सारी तैयारी करनी है. अत: मां से रिक्वैस्ट की कि अभि को भेज कर मुझे बुला लें. मेरे पास भी तुम से रिक्वैस्ट करने के लिए फोन आया था. मैं ने कह दिया उल्लास मुझे मना नहीं करेंगे… 1 महीना क्या 6 महीने रख लो. सारे काम खुद करने की आदत डाल ली है. अब उल्लास को कोई परेशानी नहीं होगी अकेले. सही है न?’’ वह हलके से मुसकराई. पर इतना प्यार करने वाले पति उल्लास से सब मनगढ़ंत कहने के लिए मजबूर वह अंदर तक हिल गई.

‘‘मगर… कितने दिन… मैं अकेले कैसे… कुछ बताया तो होता?’’

‘‘अकेले की आदत तो डाल ही लेनी चाहिए… आत्मनिर्भर होना चाहिए हर तरह से… अचानक कोई चल पड़े तो रोता ही फिरे दूसरा, कुछ कर ही न पाए,’’ वह हंसी थी.

‘‘चुप करो… कैसी बेसिरपैर की बातें कर रही हो… जा रही हो तो मैं तुम्हें रोक नहीं रहा… कब लौटोगी यह बताओ. शादी के लिए 10 दिन बहुत हैं, 1 महीना जा कर क्या करोगी पर ठीक है जाओ… हर दिन मुझे फोन करोगी. चलो अब सो जाओ.’’

8 बज चुके थे. तभी अभि आ गया, ‘‘कहां हो दीदी?’’

‘‘अभी उठी नहीं. कल तबीयत कुछ ठीक नहीं थी उस की… कुछ अजीब सी बातें कर रही थी, इसलिए अभी उठाया नहीं.’’

‘‘1 बजे की फ्लाइट है जीजू, देर न हो जाए.’’

‘‘हां, मैं उठाने ही जा रहा था. मुझे रात को ही मालूम हुआ… चाय बन गई, तुम उठा दो मैं चाय डाल कर लाता हूं.’’

‘‘दीदी उठो. मैं आ भी गया. चलना नहीं क्या? देर हो जाएगी,’’ अभि ने उसे उठाया.

‘‘जितनी देर होनी थी अभि हो चुकी अब और क्या होगी?’’ कहते हुए हर्षा उठ बैठी.

‘‘क्यों नहीं आप वहां रुकीं इलाज करवाने… कोशिश तो की ही जा सकती थी… क्यों नहीं बताने दिया जीजू को?’’ छोटा भाई अभि उस के कंधे पकड़ लाचारगी से बैठ गया. आंखों में बूंदें झलकने लगीं.

‘‘वक्त बहुत कम था मेरे पास, कितना इलाज हो पाता… तुझे तो पता ही है, तेरे जीजू को तैयार भी तो करना था मेरे बिना रहने के लिए… तू शांत हो जा बस,’’ हर्षा उस के आंसू पोंछने लगी जो रुक ही नहीं रहे थे.

उल्लास के कदमों की आहट कमरे की ओर आने लगी, तो अभि ने झट अपने आंसू दोनों हाथों से पोंछ डाले और सामान्य दिखने की कोशिश करने लगा.

हर्षा जातेजाते उल्लास को ठीक से रहनेखाने की तमाम हिदायतें दिए जा रही थी. अधिक फोन मत करना… वहां सब मुझे छेड़ेंगे कि उल्लास तेरे बिना रह ही नहीं पा रहा.

अब उदास, परेशान मत हो… तुम्हीं ने तो लंबा प्रोग्राम बनाया है. दोस्त के यहां शादी में जा रही हो. खुशीखुशी जाओ, मेरी चिंता बिलकुल छोड़ दो. मैं सब मैनेज कर लूंगा… ठाट से रहूंगा, देखना.’’

एअरपोर्ट से अंदर जाने के लिए हर्षा ने उल्लास का हाथ छोड़ा तो लगा उस की सारी दुनिया ही छूट गई. उल्लास को आखिरी बार जी भर कर देख लेना चाह रही थी. बड़ी मुश्किल से अपने को संभाला और हौले से बाय कहा. मुसकरा कर हाथ हिलाया और फिर झटके से चेहरा घुमा लिया. आंखों में उमड़ते बादलों को बरसने से रोक पाना उस के लिए असंभव था.

2 दिन ही बीते थे हर्षा को गए हुए औफिस में उल्लास को पता चला उस की अगले फ्राईडे को मुंबई में मीटिंग है. वह खुशी से उछल पड़ा. उस ने 2-3 बार ट्राई किया कि हर्षा को बता दे पर फोन नहीं मिला. फिर सोचा अचानक उसे सरप्राइज देगा.

‘‘फोन ही नहीं मिल रहा हर्षा का. यहां मेरी मीटिंग है आज 3 बजे. सोच रहा हूं हर्षा को सरप्राइज दूं. उस की सहेली रुचि का जल्दी पता बता अभि.’’

अभि उसे हैरानपरेशान सा देख रहा था.

‘‘जीजू आप…’’ उस ने पैर छुए, ‘‘मैं वहीं जा रहा हूं आइए. 1 मिनट रुको. अंदर अम्मांजी से तो मिल लूं.’’

‘‘सब वहीं हैं जीजू,’’ वह धीरे से बोला.

‘‘कहां खोया है तू… लगता है तेरी भी जल्दी शादी करनी पड़ेगी,’’ उल्लास अकेले ही बोले जा रहा था.

‘‘अरे कहां ले आया तू टाटा मैमोरियल… कौन है यहां कुछ तो बोल… अभि कहीं हर्षा…’’ वह आशंका से व्याकुल हो उठा.

अभि बिना कुछ बोले उस का हाथ पकड़ सीधे हर्षा के पास ले आया, ‘‘सौरी दी… मैं आप को दिया प्रौमिस पूरा नहीं कर पाया,’’ और फिर फूटफूट कर रो पड़ा.

दिल से न चाहते हुए भी हर्षा की आंखें जैसे उल्लास का ही इंतजार कर रही थीं.

मानो कह रही हों तुम्हें देख अब तसल्ली से जा सकूंगी. उल्लास के हाथ को कस कर थामे उस की हथेलियों की पकड़ ढीली पड़ने लगी. वह बेसुध हो गई.

‘‘हर्षाहर्षा तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगा. तुम ने मुझे क्यों नहीं पता लगने दिया? डाक्टर… सिस्टर…’’

‘‘आप बाहर आइए प्लीज, हिम्मत से काम लीजिए… मैं ने इन्हें 2-3 महीने पहले ही बता दिया था… बहुत लेट आए थे… कैंसर की लास्ट स्टेज थी. अब कुछ नहीं हो सकता…’’

‘‘ऐसे कैसे कह सकते हैं डाक्टर? आप लोग नहीं कर पा रहे यह बात और है… मैं अमेरिका ले जाऊंगा… फौरन डिस्चार्ज कर दीजिए. मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगा हर्षा मैं अभी आया,’’ और वह बाहर भागा.

जी जान लगा कर उल्लास ने आननफानन में अमेरिका जाने की व्यवस्था कर ली. 2 दिन बाद वह हर्षा को ले कर लुफ्थांसा विमान में इसी उम्मीद की उड़ान भर रहा था.

‘‘तेरे बिन नहीं जीना मुझे हर्षा,’’ उस ने उस के कानों में धीरे से कहा और हमेशा की तरह उस के माथे पर चुंबन अंकित कर दिया, परंतु इस बार वह आंसुओं में भीगा था. Love Story In Hindi

Romantic Story In Hindi : अपना सा अजनबी

Romantic Story In Hindi : जिंदगी का गणित सीधा और सरल नहीं होता. वह बहुत उलझा हुआ और विचित्र होता है. रमा को लगा था, सबकुछ ठीकठाक हो गया है. जिंदगी के गणितीय नतीजे सहज निकल आएंगे. उस ने चाहा था कि वह कम से कम शादी से पहले बीए पास कर ले. वह कर लिया. फिर उस ने चाहा कि अपने पैरों पर खड़े होने के लिए कोई हुनर सीख ले. उस ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया और उस में महारत भी हासिल कर ली.

फिर उस ने चाहा, किसी मनमोहक व्यक्तित्व वाले युवक से उस की शादी हो जाए, वह उसे खूब प्यार करे और वह भी उस में डूबडूब जाए. दोनों जीवनभर मस्ती मारें और मजा करें. यह भी हुआ. विनोद से उस के रिश्ते की बात चली और उन लोगों ने उसे देख कर पसंद कर लिया. वह भी विनोद को पा कर प्रसन्न और संतुष्ट हो गई पर…

शादी हुए 2 साल गुजरे थे. 7-8 माह का एक सुंदर सा बच्चा भी हो गया था. वह सबकुछ छोड़छाड़ कर और भूलभाल कर अपनी इस जिंदगी को भरपूर जी रही थी. दिनरात उसी में खोई रहती थी. वह पहले एक रेडीमेड वस्त्रों की निर्यातक कंपनी में काम करती थी. जब उस की शादी हुई, उस वक्त इस धंधे में काफी गिरावट चल रही थी. इसलिए उस नौकरी को छोड़ते हुए उसे कतई दुख नहीं हुआ. कंपनी ने भी राहत की सांस ली.

परंतु जैसे ही इधर फिर कारोबार चमका और विदेशों में भारतीय वस्त्रों की मांग होने लगी, इस व्यापार में पहले से मौजूद कंपनियों ने अपने हाथ आजमाने शुरू कर दिए.

राहुल इसी सिलसिले में कंपनी मैनेजर द्वारा बताए पते पर रमा के पास आया था, ‘‘उमेशजी आप के डिजाइनों के प्रशंसक हैं. वे चाहते हैं, आप फिर से नौकरी शुरू कर लें. वेतन के बारे में आप जो उपयुक्त समझें, निसंकोच कहें. मैं साहब को बता दूंगा…

‘‘मैडम, हम चाहते हैं कि आप इनकार न करें, इसलिए कि हमारा भविष्य भी कंपनी के भविष्य से जुड़ा हुआ है. अगर कंपनी उन्नति करेगी तो हम भी आगे बढ़ेंगे, वरना हम भी बेकारों की भीड़ के साथ सड़क पर आ जाएंगे. आप अच्छी तरह जानती हैं, चार पैसे कंपनी कमाएगी तभी एक पैसा हमें वेतन के रूप में देगी.’’

व्यापारिक संस्थानों में आदमी कितना मतलबी और कामकाजी हो जाता है, राहुल रमा को इसी का जीताजागता प्रतिनिधि लगा था. एकदम मतलब की और कामकाजी बात सीधे और साफ शब्दों में कहने वाला. रमा ने उस की तरफ गौर से देखा, आकर्षक व्यक्तित्व और लंबी कदकाठी का भरापूरा नौजवान. वह कई पलों तक उसे अपलक ताकती रह गई.

‘‘उमेशजी को मेरी ओर से धन्यवाद कहिएगा. उन के शब्दों की मैं बहुत कद्र करती हूं. उन का कहा टालना नहीं चाहती पर पहले मैं अपने फैसले स्वयं करती थी, अब पति की सहमति जरूरी है. वे शाम को आएंगे. उन से बात कर के कल उमेशजी को फोन करूंगी. असल में हमारा बच्चा बहुत छोटा है और हमारे घर में उस की देखभाल के लिए कोई है नहीं.’’

चाय पीते हुए रमा ने बताया तो राहुल कुछ मायूस ही हुआ. उस की यह मायूसी रमा से छिपी न रही.

‘‘कंपनी में सभी आप के डिजाइनों की तारीफ अब तक करते हैं. अरसे तक बेकार रहने के बाद  इस कंपनी ने मुझे नौकरी पर रखा है. अगर कामयाबी नहीं मिली तो आप जानती हैं, कंपनी मुझे निकाल सकती है.’’

जाने क्यों रमा के भीतर उस युवक के प्रति एक सहानुभूति सी उभर आई. उसे लगा, वह भीतर से पिघलने लगी है. किसीकिसी आदमी में कितना अपनापन झलकता है. अपनेआप को संभाल कर रमा ने एक व्यक्तिगत सा सवाल कर दिया, ‘‘इस से पहले आप कहां थे?’’

‘‘कहीं नहीं, सड़क पर था,’’ वह झेंपते हुए मुसकराया, ‘‘बंबई में अपने बड़े भाई के पास रह कर यह कोर्स किया. वहीं नौकरी कर सकता था परंतु भाभी का स्वभाव बहुत तीखा था. फिर हमारे पास सिर्फ एक कमरा था. मैं रसोई में सोता था और कोई जगह ही नहीं थी.

‘‘भैया तो कुछ नहीं कहते थे, पर भाभी बिगड़ती रहती थीं. शायद सही भी था. यही दिन थे उन के खेलनेखाने के और उस में मैं बाधक था. वे चाहती थीं कि मैं कहीं और जा कर नौकरी करूं, जिस से उन के साथ रहना न हो. मजबूरन दिल्ली आया. 3-4 महीने से यहां हूं. हमेशा तनाव में रहता हूं.’’

‘‘लेकिन आप तो बहुत स्मार्ट युवक हैं, अच्छा व्यवसाय कर सकते हैं.’’

‘‘आप भी मेरा मजाक बनाने लगेंगी, यह उम्मीद नहीं थी. कंपनी की अन्य लड़कियां भी यही कह कर मेरा मजाक उड़ाती हैं. मुझे सफलता की जगह असफलता ही हाथ लगती है. पिछले महीने भी मैं ज्यादा व्यवसाय नहीं कर पाया था. तब उमेशजी ने बहुत डांट पिलाई थी. इतनी डांट तो मैं ने अपने मांबाप और अध्यापकों से भी नहीं खाई. नौकरी में कितना जलील होना पड़ता है, यह मैं अब जान रहा हूं.’’

मुसकरा दी रमा, ‘‘हौसला रखिए, ऐसा होता रहता है. ऊपर से जो हर वक्त मुसकराते दिखाई देते हैं, भीतर से वे उतने खुश नहीं होते. बाहर से जो बहुत संतुष्ट नजर आते हैं, भीतर से वे उतने ही परेशान और असंतुष्ट होते हैं. यह जीवन का कठोर सत्य है.’’

चलतेचलते राहुल ने नमस्कार करते हुए जब कृतज्ञ नजरों से रमा की ओर देखा तो वह सहसा आरक्त हो उठी. बेधड़क आंखों में आंखें डाल कर अपनी बात कह सकने की सामर्थ्य रखने वाली रमा को न जाने क्या हो गया कि वह छुईमुई की तरह सकुचा गई और उस की पलकें झुक गईं.

‘‘आप मेरी धृष्टता को क्षमा करें, जरूर आप का बच्चा आप की ही तरह बेहद सुंदर होगा. क्या मैं एक नजर उसे देख सकता हूं?’’ दरवाजे पर ठिठके राहुल के पांव वह देख रही थी और आवाज की थरथराहट अपने कानों में अनुभव कर रही थी.

रमा तुरंत शयनकक्ष में चली गई और पालने में सो रहे अपने बच्चे को उठा लाई.

‘‘अरे, कितना सुंदर और प्यारा बच्चा है,’’ लपक कर वह बाहर फुलवारी में खिले एक गुलाब के फूल को तोड़ लाया और रमा के आंचल में सोए बच्चे पर हौले से रख दिया. फिर उस ने झुक कर उस के नरम गालों को चूम लिया तो बच्चा हलके से कुनमुनाया. जेब से 50 रुपए का नोट उस बच्चे की नन्ही मुट्ठी में वह देने लगा तो रमा बिगड़ी, ‘‘यह क्या कर रहे हैं आप?’’

‘‘यह हमारे और इस बच्चे के बीच का अनुबंध है. आप को बीच में बोलने का हक नहीं है, रमाजी,’’ कह कर वह मुसकराया.

‘यह आदमी कोई जादूगर है. कंपनी की अन्य लड़कियों को तो इस ने दीवाना बना रखा होगा,’ रमा पलभर में न जाने क्याक्या सोच गई.

‘‘अभी आई,’’ कह कर वह बच्चे को पालने में लिटा फिर वहां आ गई. परंतु अब राहुल बाहर जाने को उद्यत था. उसे बाहर फाटक तक छोड़ने गई तो उस ने पलट कर रमा को हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और हौले से मुसकरा कर हिचकते हुए कहा, ‘‘यह तो अशिष्टता ही होगी कि पहली मुलाकात में ही मैं आप से इतनी छूट ले लूं, लेकिन कहना भी जरूरी है…’’

रमा एकाएक घबरा गई, ‘बाप रे, यह क्या हो गया. क्या कहने जा रहा है राहुल, कहीं मेरे मन की कमजोरी इस ने भांप तो नहीं ली?’

रमा अपने भीतर की कंपकंपी दबाने के लिए चुप ही रही. राहुल ही बोला, ‘‘असल में मैं अपने एक दोस्त के साथ रहता हूं. अब उस की पत्नी उस के पास आ कर रहना चाहती है और वह परेशान है. अगर आप की सिफारिश से मुझे कोई बरसाती या कमरा कहीं आसपास मिल जाए तो बहुत एहसान मानूंगा. आप तो जानती हैं, एक छड़े व्यक्ति को कोई आसानी से…’’ वह हंसने लगा तो रमा की जान में जान आई. वह तो डर ही गई थी कि पता नहीं राहुल एकदम क्या छूट उस से ले बैठे.

‘‘शाम को अपने पति से इस सिलसिले में भी बात करूंगी. इसी इमारत में ऊपर एक छोटा सा कमरा है. मकान मालिक इन्हें बहुत मानता है. हो सकता है, वह देने को राजी हो जाए. परंतु खाना वगैरह…?’’

‘‘वह बाद की समस्या है. उसे बाद में हल कर लेंगे,’’ कह कर वह बाहर निकल गया. गहरे ऊहापोह और असमंजस के बाद आखिर रमा ने अपने पति विनोद से फिर नौकरी करने की बात कही. विनोद देर तक सोचता रहा. असल परेशानी बच्चे को ले कर थी.

‘‘अपनी मां को मैं मना लूंगी. कुछ समय वे साथ रह लेंगी,’’ रमा ने सुझाव रखा.

‘‘देख लो, अगर मां राजी हो जाएं तो मुझे एतराज नहीं है,’’ वह बोला, ‘‘उमेशजी हमारे जानेपरखे व्यक्ति हैं. उन की कंपनी में नौकरी करने से कोई परेशानी और चिंता नहीं रहेगी. फिर तुम्हारी पसंद का काम है. शायद कुछ नया करने को मिल जाए.’’

राहुल के लिए ऊपर का कमरा दिलवाने की बात जानबूझ कर रमा ने उस वक्त नहीं कही. पता नहीं, विनोद इस बात को किस रूप में ले. दूसरे दिन वह बच्चे के साथ मां के पास चली गई और मां को मना कर साथ ले आई. विनोद भी तनावमुक्त हो गया.

रमा ने फिर से नौकरी आरंभ कर दी. पुराने कर्मचारी उस की वापसी से प्रसन्न ही हुए, पर राहुल तो बेहद उत्साहित हो उठा, ‘‘आप ने मेरी बात रख ली, मेरा मान रखा, इस के लिए किन शब्दों में आभार व्यक्त करूं?’’

रमा सोचने लगी, ‘यह आदमी है या मिसरी की डली, कितनी गजब की चाशनी है इस के शब्दों में. कितने भी तीखे डंक वाली मधुमक्खी क्यों न हो, इस डली पर मंडराने ही लगे.’ एक दिन उमेशजी ने कहा था, ‘कंपनी में बहुत से लोग आएगए, पर राहुल जैसा होनहार व्यक्ति पहले नहीं आया.’

‘लेकिन राहुल आप की डांटफटकार से बहुत परेशान रहता है. उसे हर वक्त डर रहता है कि कहीं आप उसे कंपनी से निकाल न दें,’ रमा मुसकराई थी.

‘तुम्हें पता ही है, अगर ऐसा न करें तो ये नौजवान लड़के हमारे लिए अपनी जान क्यों लड़ाएंगे?’ उमेशजी हंसने लगे थे.

‘‘राहुल, एक सूचना दूं तुम्हें?’’ एक दिन अचानक रमा राहुल की आंखों में झांकती हुई मुसकराने लगी तो राहुल जैसे निहाल ही हो गया था.

‘‘अगर आप ने ये शब्द मुसकराते हुए न कहे होते तो मेरी जान ही निकल जाती. मैं समझ लेता, साहब ने मुझे कंपनी से निकाल देने का फैसला कर लिया है और मेरी नौकरी खत्म हो गई है.’’

‘‘आप उमेशजी से इतने आतंकित क्यों रहते हैं? वे तो बहुत कुशल मैनेजर हैं. व्यक्ति की कीमत जानते हैं. आदमी की गहरी परख है उन्हें और वे आप को बहुत पसंद करते हैं.’’

‘‘क्यों सुबहसुबह मेरा मजाक बना रही हैं,’’ वह हंसा, ‘‘उमेशजी और मुझे पसंद करें? कहीं कैक्टस में भी हरे पत्ते आते हैं. उस में तो चारों तरफ सिर्फ तीखे कांटे ही होते हैं, चुभने के लिए.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं है,’’ वह बोली, ‘‘वे तुम्हें बहुत पसंद करते हैं.’’

‘‘उन्हें छोडि़ए, रमाजी, अपने को तो अगर आप भी थोड़ा सा पसंद करें तो जिंदगी में बहुतकुछ जैसे पा जाऊं,’’ उस ने पूछा, ‘‘क्या सूचना थी?’’

‘‘हमारे ऊपर वाला वह छोटा कमरा आप को मिलना तय हो गया है. 500 रुपए किराया होगा, मंजूर…?’’ रमा ने कहा तो राहुल ने अति उत्साह में आ कर उस का हाथ ही पकड़ लिया, ‘‘बहुतबहुत…’’ कहताकहता वह रुक गया.

उसे अपनी गलती का एहसास हुआ तो तुरंत हाथ छोड़ दिया, ‘‘क्षमा करें, रमाजी, मैं सचमुच कमरे को ले कर इतना परेशान था कि आप अंदाजा नहीं लगा सकतीं. कंपनी के काम के बाद मैं अपना सारा समय कमरा खोजने में लगा देता था. आप ने…आप समझ नहीं सकतीं, मेरी कितनी बड़ी मदद की है. इस के लिए किन शब्दों में…’’

‘‘कल से आ जाना,’’ रमा ने झेंपते हुए कहा.

किसीकिसी आदमी की छुअन में इतनी बिजली होती है कि सारा शरीर, शरीर का रोमरोम झनझना उठता है. रगरग में न जाने क्या बहने लगता है कि अपनेआप को समेट पाना असंभव हो जाता है. पति की छुअन में भी पहले रमा को ऐसा ही प्रतीत होता था, परंतु धीरेधीरे सबकुछ बासी पड़ गया था, बल्कि अब तो पति की हर छुअन उसे एक जबरदस्ती, एक अत्याचार प्रतीत होती थी. हर रात उसे लगता था कि वह एक बलात्कार से गुजर रही है. वह जैसे विनोद को पति होने के कारण झेलती थी. उस का मन उस के साथ अब नहीं रहता था. यह क्या हो गया है, वह खुद समझ नहीं पा रही थी.

मां से अपने मन की यह गुत्थी कही थी तो वे हंसने लगीं, ‘पहले बच्चे के बाद ऐसा होने लगता है. कोई खास बात नहीं. औरत बंट जाती है, अपने आदमी में और अपने बच्चे में. शुरू में वह बच्चे से अधिक जुड़ जाती है, इसलिए पति से कटने लगती है. कुछ समय बाद सब ठीक हो जाएगा.’

‘पर यह राहुल…? इस की छुअन…?’ रमा अपने कक्ष में बैठी देर तक झनझनाहट महसूस करती रही.

राहुल ऊपर के कमरे में क्या आया, रमा को लगा, जैसे उस के आसपास पूरा वसंत ही महकने लगा है. वह खुशबूभरे झोंके की तरह हर वक्त उस के बदन से जैसे अनदेखे लिपटता रहता.

वह सोई विनोद के संग होती और उसे लगता रहता, राहुल उस के संग है और न जाने उसे क्या हो जाता कि विनोद पर ही वह अतिरिक्त प्यार उड़ेल बैठती.

नींद से विनोद जाग कर उसे बांहों में भर लेता, ‘‘क्या बात है मेरी जान, आज बहुत प्यार उमड़ रहा है…’’

वह विनोद को कुछ कहने न देती. उसे बेतहाशा चूमती चली जाती, पागलों की तरह, जैसे वह उस का पति न हो, राहुल हो और वह उस में समा जाना चाहती हो.

अब वह मन ही मन राहुल से बोलती, बतियाती रहती, जैसे वह हर वक्त उस के भीतरबाहर रह रहा हो. उस के रोमरोम में बसा हुआ हो. वह अब जो भी रसोई में पकाती, उसे लगता राहुल के लिए पका रही है, वह खाती या विनोद को खिलाती तो उसे लगता रहता, राहुल को खिला रही है. वह अपने सामने बैठे पति को अपलक ताकती रहती, जैसे उस के पीछे राहुल को निहार रही हो.

वह स्नानघर में वस्त्र उतार कर नहा रही होती तो उसे लगता रहता, राहुल उस के पोरपोर को अपनी नरम उंगलियों से छू और सहला रहा है और वह पानी की तरह ही बहने लगती.

राहुल के लिए ऊपर छत पर कोई स्नानघर नहीं था. नीचे सीढि़यां उतर कर इमारत के कर्मचारियों के लिए एक साझा स्नानघर था, जिस में उसे नहाने की अनुमति थी. वह किसी महकते साबुन से नहा कर जब सीढि़यां चढ़ता हुआ उस के फ्लैट के सामने से गुजरता तो अनायास ही वह जंगले में आ कर खड़ी हो जाती. देर तक उस के साबुन की सुगंध हवा के साथ वह अपने भीतर फेफड़ों में महसूस करती रहती. आदमी में भी कितनी महक होती है. आदमी की आदम महक और वह उस महक की दीवानी…उस में मदहोश, गाफिल.

वह जानबूझ कर विनोद के सामने कभी गलती से भी राहुल का जिक्र न करती थी. कमरे में आ जाने के बावजूद कभी उस ने विनोद के सामने उस से बात करने का प्रयास नहीं किया था. न उसे कभी चाय या खाने पर ही बुलाया था.

परंतु क्या सचमुच ऐसा था, इतना सहज और सरल? या संख्याएं और गणितीय रेखाएं आपस में उलझ गई थीं, गड्डमड्ड हो गई थीं?

उस ने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की थी कि वह विनोद के अलावा भी किसी अन्य पुरुष की कामना करेगी कि उस के भीतर कोई दूसरा भी कभी इस तरह रचबस जाएगा कि वह पूरी तरह अपनेआप पर से काबू खो बैठेगी.

‘‘राहुल, तुम मेरा भला चाहते हो या बुरा…?’’ एक दिन उस की चार्टर्ड बस नहीं आई थी तो उसे राहुल के साथ ही सामान्य बस से दफ्तर जाना पड़ रहा था. वे दोनों उस समय बस स्टौप पर खड़े थे.

‘‘तुम ने कैसे सोच लिया कि मैं कभी तुम्हारा बुरा भी चाह सकता हूं? अपने मन से ही पूछ लेतीं. मेरे बजाय तुम्हारा मन ही सच बता देता,’’ राहुल सीधे उस की आंखों में झांक रहा था.

‘‘तुम मेरी खातिर ऊपर का कमरा ही नहीं, बल्कि यह नौकरी भी छोड़ कर कहीं चले जाओ. सच राहुल, मैं अब…’’

‘‘अगर तुम मेरे बिना रह सकती हो तो कहो, मैं दुनिया ही छोड़ दूं. मैं तुम्हारे बिना जीवित रहने की अब कल्पना नहीं करना चाहता,’’ उस ने कहा तो रमा की पलकों पर नमी तिर आई.

‘‘किसी भी दिन मेरा पागलपन विनोद पर उजागर हो जाएगा. और उस दिन की कल्पनामात्र से ही मैं कांप उठती हूं.’’

‘‘सच बताना, मेरे बिना अब जी सकती हो तुम?’’

चुप रह गई रमा.

बस आई तो राहुल उस में चढ़ गया. उस ने हाथ पकड़ कर रमा को भी चढ़ाना चाहा तो वह बोली, ‘‘तुम जाओ, मैं आज औफिस नहीं जाऊंगी,’’ कह कर वापस घर आ गई.

मां ने उस की हालत देखी तो पहले तो कुछ नहीं कहा, पर जब वह अपने शयनकक्ष में बिस्तर पर तकिए में मुंह गड़ाए सिसकती रही तो न जाने कब मां उस के पलंग पर आ बैठीं, ‘‘अपनेआप को संभालो, बेटी. यह सब ठीक नहीं है. मैं समझ रही हूं, तू कहां और क्यों परेशान है. मैं आज ही राहुल से चुपचाप कह दूंगी कि वह यहां से नौकरी छोड़ कर चला जाए. इस तरह कमजोर पड़ना अच्छा नहीं होता, बेटी. तेरा अपना घरपरिवार है. संभाल अपनेआप को.’’

रमा न जाने क्यों देर तक एक नन्ही बच्ची की तरह मां की गोद में समाई फफकती रही, जैसे कोई उस का बहुत प्रिय खिलौना उस से छीनने की कोशिश कर रहा हो. Romantic Story In Hindi

Social Story : दाखिले का चक्रव्यूह – कशिश की गंदी चालों में वरुण कैसे फंसा ?

Social Story : ‘‘मे आई कम इन, सर?’’, मेहता कोचिंग सैंटर के दरवाजे पर खड़े वरुण ने झिझकते हुए पूछा.

‘‘यस, कम इन’’, राजीव मेहता सर की कोचिंग खासी प्रसिद्ध थी. यहां से कोचिंग करना मतलब प्रबंधन के प्रमुख संस्थानों में दाखिला पक्का. यहां दाखिला मिलना आसान नहीं था, जिन छात्रों के 12वीं में 90 प्रतिशत से ऊपर अंक आते, उन्हें ही यहां कोचिंग हेतु बुलाया जाता. फिर बाकायदा साक्षात्कार होता. केवल छात्र का ही नहीं, बल्कि उस के अभिभावकों का भी साक्षात्कार लिया जाता.

कोचिंग की आवश्यकता वैसे तो पढ़ाई में कमजोर विद्यार्थियों को पड़ती है किंतु कोचिंग का व्यवसाय कुछ ऐसा है कि अच्छा नाम कमाने हेतु उन्हें आवश्यकता पड़ती है मेधावी छात्रों की. साथ ही कोचिंग को बखूबी चलाने के लिए पैसा चाहिए, इसलिए ऐसे विद्यार्थी भी चाहिए जो संस्थान को भारी फीस दे सकें. भारत में जनता इतनी है कि हर जगह सीटों की कमी पड़ जाती है. लंबी कतारों में खड़े लोग अपने बच्चों का दाखिला करवाने को लालायित रहते हैं. इसीलिए कोचिंग में दाखिला मिलने पर ऐसी प्रसन्नता होती है मानो आगे की शिक्षा मुफ्त हो.

राजीव सर की कोचिंग की भारी फीस भरनी हर किसी के बूते की बात कहां थी. जब वरुण का नाम काउंसिलिंग के लिए आया तो उस का पूरा परिवार बहुत खुश हुआ. वह भी खुश था कि अब उस का दाखिला एक अच्छे प्रबंधन संस्थान में हो सकेगा.

वरुण पढ़ाई में बहुत मेधावी नहीं था. परिश्रम से ही वह अपने वर्तमान स्थान तक पहुंचा था. इस कोचिंग सैंटर में दाखिले के बाद भी वरुण ने परिश्रम करने की ठानी थी. दाखिले की फीस का इंतजाम पापा ने अपनी पीएफ स्कीम से उधार ले कर किया था और बाद की फीस हेतु वरुण के नाम पर छात्र लोन के लिए अर्जी भी दे दी थी. कोचिंग का समय शाम से ले कर रात तक का होता था. यहां पढ़ाने के लिए बाहर से शिक्षक आया करते थे. धीरेधीरे पता चला कि दिन में ये शिक्षक अन्य प्रबंधन संस्थान में पढ़ाया करते थे, तभी इन्हें वहां की तत्कालीन शिक्षा प्रणाली का अनुमान रहता. ये उसी हिसाब से कोचिंग में भी पढ़ाया करते.

राजीव सर और उन की पत्नी कशिश कोचिंग संस्थान को चलाया करते थे. जैसे एक व्यापारी पौलीक्लीनिक खोल कर उस में अच्छे डाक्टरों को घंटे के हिसाब से पैसे दे कर बुलाता है, बस, कुछ वैसा ही हिसाब यहां था. खैर, बच्चों को तो अपने भविष्य से मतलब था, यदि वह सुनहरा दिख रहा है तो किसी को कोई आपत्ति नहीं थी.

राजीव सर की पत्नी कशिश भी कोचिंग में पूरी भागीदारी निभाती थीं. ‘‘यदि कुछ समझ में न आए तो मेरे पास आना, कभी भी, शरमाना मत. मैं तुम्हारे सारे डाउट क्लीयर कर दूंगी, ओके?’’ नए बैच का ओरिएंटेशन पूरा होने पर कशिश मैम के आश्वासन पर पूरी कक्षा ने तालियां बजा दी.

फिर सत्र आरंभ हो गया और पूरे जोरशोर से पढ़ाई शुरू हो गई. राजीव सर अकसर अपने केबिन में ही सारा दिन बिताते, जबकि कशिश मैम सारे कोचिंग इंस्टिट्यूट का चक्कर लगातीं, शायद, यहीं से कोचिंग क्लास के अंदर चल रही बातों की टोह लिया करती होंगी. अच्छे प्रबंधक के सारे गुण झलकते थे उन में. वरुण उन से काफी प्रभावित रहता और वे भी वरुण को देख मुसकरातीं.

दूसरा सत्र पूरा होने के साथ कोचिंग का आधा कार्यकाल पूर्ण हो चुका था. अगले सत्र के बाद कुछ चुनिंदा छात्रों हेतु छात्रवृत्ति की घोषणा भी होनी थी. यह छात्रवृत्ति 50 से ले कर 90 फीसदी की फीस माफी की हुआ करती थी, ऐसा सब ने सुन रखा था. हर छात्र इस छात्रवृत्ति की ओर ललचाई नजरें रख रहा था. वरुण को इस छात्रवृत्ति की सख्त जरूरत थी. ‘कितना अच्छा हो जो यह मुझे मिल जाए, पापा का काफी लोन भी चुक जाएगा,’ वह सोचने लगा था क्योंकि अब तक की फीस उस के पापा छात्र लोन के जरिए ही चुका पा रहे थे जो उन्होंने वरुण के नाम पर लिया था.

उस शाम, कक्षा समाप्त होने के बाद सभी छात्र अपने घरों की ओर निकलने लगे. तभी वहां कशिश मैम टहलती हुई आईं और बोलीं, ‘‘वरुण, जरा मेरे केबिन में आना.’’

वरुण को आश्चर्य हो रहा था कि उसे कशिश मैम ने क्यों बुलाया है. रात के

9 बज रहे थे, कोचिंग सैंटर लगभग खाली हो चुका था. पहली बार वह उन के केबिन में गया. क्या आलीशान केबिन था. एक तरफ कशिश मैम की मेजकुरसी सजी थी तो दूसरी ओर एक बड़ा सा सोफासैट रखा था. दीवारों पर सुंदर पेंटिंग टंगी हुई थीं. कमरे के 2 विपरीत कोनों में हलकी रोशनी वाले बल्ब जल रहे थे. सुर्ख लाल परदों के कारण कमरे में हलकी लाल रोशनी छिटक रही थी.

‘‘आओ वरुण, मेरे पास चले आओ,’’ कशिश मैम की आवाज आज कितनी मधुर व कामुक प्रतीत हुई, ‘‘हां, दरवाजे की चिटकनी बंद करते आना.’’

‘‘जी मैम, कहिए, क्या कर सकता हूं मैं?’’, वरुण हाथ बांधे एक अच्छे छात्र की भांति खड़ा हो गया.

‘‘बहुत कुछ कर सकते हो तुम, पर आज नहीं. आज सिर्फ मुझे करने दो,’’ कहते हुए कशिश मैम उस के एकदम करीब आ कर खड़ी हो गईं. उन की सांस अपने कानों से टकराने से वरुण अचकचा कर थोड़ा दूर हो गया. ‘‘डरो मत. आज यहां और कोई नहीं है. बस, मैं और तुम.’’ कशिश मैम ने वरुण का हाथ पकड़ कर उसे अपने पास सोफे पर बैठा लिया. ‘‘देखो वरुण, मुझे तुम बहुत अच्छे लगते हो, और शायद तुम्हें मैं. मैं ने देखा है तुम्हें अपनी ओर देखते हुए’’, कहते हुए जैसे ही कशिश मैम ने वरुण के बालों में अपनी उंगलियां फिरानी आरंभ कीं, वह घबरा गया, ‘‘नहीं मैम, ऐसी कोई बात नहीं है, बिलकुल नहीं.’’

‘‘अरे, इतना क्यों घबरा रहे हो, डियर? माना कि मैं तुम से उम्र में थोड़ी बड़ी हूं पर मैं किसी कमसिन लड़की से कहीं अधिक सुख दे सकती हूं तुम्हें, और फिर छात्रवृत्ति के बारे में भी तो सुना होगा तुम ने? मैं ने सुना है तुम्हारे पापा ने पीएफ से उधार लिया है और अब तुम एजुकेशन लोन पर पढ़ रहे हो. जरा सोचो,

90 फीसदी छात्रवृत्ति मिलने पर कितना फायदा हो जाएगा तुम्हें.’’

वरुण सोच में डूब गया और कशिश मैम जैसा चाहती थीं वैसा करती रहीं. न चाहते हुए भी वरुण ने कोई प्रतिरोध नहीं किया. फिर तो यह क्रम बन गया. जब कशिश मैम का दिल करता, वे वरुण को बुला लेतीं. जब कोचिंग सैंटर खाली हो जाता, अपने कमरे में कशिश मैम वरुण के साथ मनचाहा करतीं और वरुण चुपचाप सब सह जाता. उस समय उसे केवल अपने पिता की आर्थिक मजबूरी व अपना सुनहरा भविष्य दिखाई देता.

छात्रवृत्ति घोषणा का समय आया. राजीव सर ने हर अध्यापक से उन के छात्रों की सिफारिशी सूची मंगवाई. पूरी कमेटी बैठाई गई. 50 फीसदी छात्रवृत्ति हेतु 10 विद्यार्थियों के नाम सुझाए गए, 60 फीसदी और 70 फीसदी के लिए 3 विद्यार्थी और 90 फीसदी हेतु केवल एक विद्यार्थी का नाम चुनना था. जब पूरी सूची तैयार हो गई, तब मैम ने राजीव सर से खास कह कर वरुण का नाम 90 फीसदी के लिए सुझा दिया, ‘‘लड़का बहुत मेहनती है और मेधावी भी, मैं ने खुद उसे कितनी बार परखा है.’’

घोषणा के बाद वरुण बहुत प्रसन्न हुआ. जिस लालच में उस ने अपना सर्वस्व लुटाया, आखिर वह उसे मिल गया. इस खबर से वरुण पूरे सैंटर में मशहूर हुआ सो अलग. सैंटर की छात्रा नेहा भी अब उस की ओर देख मुसकुराने लगी थी. वरुण को तो नेहा प्रथम दिन से ही आकर्षक लगी थी. वरुण के एक बुद्धिमान विद्यार्थी स्थापित होने के बाद नेहा ने उस से दोस्ती कर ली. उसे विश्वास होने लगा था कि वरुण एक सफल भविष्य बनाएगा.

एक शाम कक्षा समाप्त होने के बाद कुछ लड़कों ने वरुण के ऊपर टिप्पणी की, ‘‘क्या बात है वरुण, कशिश मैम तुम्हें अकेले में क्यों बुलाती हैं, यार?’’

वरुण कुछ उत्तर दे पाता, इस से पहले ही नेहा बोल पड़ी, ‘‘वह इसलिए क्योंकि मैम को वरुण अपने बेटे की याद दिलाता है, उस का नाम है अरुण. दोनों नाम इतने मिलतेजुलते हैं न, तो उन्हें वरुण पर भी प्यार आता है.’’

बाद में वरुण ने नेहा से पूछा, ‘‘आज जो तुम ने कह कर उन लड़कों का मुंह बंद कर दिया, तुम्हें कैसे पता कशिश मैम के बेटे का नाम अरुण है?’’

‘‘वह इसलिए जनाब, क्योंकि राजीव सर और कशिश मैम मेरे मामामामी हैं और अरुण मेरा ममेरा भाई है जो लंदन में पढ़ता है. दरअसल, मैं ने भी इस बात पर गौर किया कि मामी तुम्हें कई बार बुलवाती हैं तो मैं ने उन से कारण पूछा और यह बात उन्होंने स्वयं मुझे बताई. कितनी स्वीट हैं न, मामी’’, नेहा की बात से वरुण भौचक्का रह गया. नेहा, मैम की रिश्तेदार निकली. अब वह कैसे अपने मन की बात उस से कहे? वह तो सोच रहा था कि नेहा की सहायता से मैम के चंगुल से निकलने का प्रयास करेगा. वरुण उदास हो गया.

एक शाम अपनी मनमरजी कर चुकने के बाद कशिश मैम कहने लगीं, ‘‘वरुण, तुम मंजोतिया कालेज में दाखिला चाहते हो न? हमारे यहां जो अनिरुद्ध सर आते हैं, वे वहीं पढ़ाते हैं. मैं ने उन से मंजोतिया कालेज की प्रवेश परीक्षा में आने वाले पेपर मंगवाए हैं, तुम्हें दिखा दूंगी.’’

वरुण सकते में आ गया, ‘‘कैसे मैम? अनिरुद्ध सर दाखिले के पेपर कैसे और क्यों लाएंगे?’’

‘‘तुम क्या सोचते हो कि हमें दिन में पढ़ाने के लिए अच्छे शिक्षक नहीं मिल सकते?’’, हंसते हुए मैम बोलीं, ‘‘हम देर शाम की कोचिंग इसलिए रखते हैं ताकि अच्छे प्रबंधन कालेजों में पढ़ाने वाले शिक्षक हमारे यहां भी पढ़ा सकें. वैसे, निजी प्रबंधन कालेजों में पढ़ाने वाले शिक्षकों को बहुधा एक नौकरी के साथ दूसरी नौकरी करने की अनुमति नहीं होती है. ऐसा वे चोरीछिपे करते हैं. उन्हें दोगुना वेतन मिल जाता है और हमें अच्छे प्रबंधन कालेजों में दाखिले हेतु प्रश्नपत्र भी. यही शिक्षक हमें वहां से निकलवा कर देते हैं.

‘‘फिर जब हमारे यहां के विद्यार्थी उन्हीं कालेजों में दाखिले के लिए समूह परिचर्चा व साक्षात्कार में भाग लेते हैं, तो यही शिक्षक उन के ऐसे समूह बनवाते हैं, जो उन के मित्र शिक्षक को जंचे ताकि इन का चुनाव आसानी से हो जाए. तभी तो हमारा नाम होता है कि इस कोचिंग सैंटर में पढ़ने से विद्यार्थी अच्छी जगह दाखिला पा लेते हैं. कुछ समझे इस सारे गणित को?’’

वरुण हतप्रभ रह गया. दाखिले के चक्रव्यूह में इतने भेद. खैर, वरुण को इस सब से क्या मतलब. वह तो अपना उल्लू सीधा करने के चक्कर में था, अन्य सभी की भांति.

वरुण को 90 फीसदी वजीफा भी मिल चुका था और अपने मनमाफिक कालेज में दाखिला भी. अब उसे कशिश मैम के चक्रव्यूह में फंसने की क्या आवश्यकता थी भला. सो, इस बार जब कशिश मैम ने उसे बुला भेजा, वह नहीं गया. बल्कि इस बार वह राजीव सर के पास जा पहुंचा और कशिश मैम की सारी पोलपट्टी खोल कर रख दी. सुनते ही राजीव सर आगबबूला हो उठे, ‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई बकवास करने की? जानते भी हो क्या बक रहे हो?’’

‘‘सर, मैं सच कह रहा हूं. आप अपनी पत्नी से स्वयं पूछ लीजिए.’’

‘‘अब तुम मुझे बताओगे मुझे क्या करना है? निकल जाओ इसी वक्त मेरे कमरे से,’’ कहते हुए राजीव सर ने वरुण को निकाल दिया. वरुण अपने घर लौट गया. लेकिन जो आग उस ने लगाई थी, उस की चिंगारियां अभी भी सुलग रही थीं. राजीव सर ने फौरन कशिश मैम को बुलवा भेजा, और फिर सारी बात उन से पूछ डाली. सारी बात खुलने पर कशिश मैम सकपका गईं. उन्हें जरा भी उम्मीद नहीं थी कि बात यों उघड़ जाएगी. उन का रोरो कर बुरा हाल था, ‘‘आप अपनी पत्नी की बात का विश्वास करेंगे, या एक अनजान लड़के का? वह लड़का कोरा झूठ बोल रहा है. बल्कि उस की मुझ पर बुरी नजर रही है. वह हमेशा मुझे घूरता रहता है. आप ही कहते हैं न कि मेरे जैसा बदन कम ही औरतों का होता है. अब यदि मैं इतनी सुंदर हूं तो क्या इस में भी मेरी गलती है?’’

‘‘उसे हमारे व्यवसाय के अंदर की बातें कैसे पता? उसे कैसे पता कि हम अन्य प्रबंधन कालेज के शिक्षकों से दाखिले के पेपर मंगवाते हैं, हम समूहपरिचर्चा व साक्षात्कार में अपने विद्यार्थियों को कैसे आगे करवाते हैं, जवाब दो’’, राजीव सर अब भी क्रोध में उबल रहे थे.

‘‘मुझे नहीं पता कि उसे ये सब बातें कैसे पता. मैं उसे बेहद शरीफ और नेकनीयत विद्यार्थी समझती थी. याद है मैं ने आप से कह कर उसे 90 फीसदी वजीफा भी दिलवाया था. और वह मुझे ही बेकार में बदनाम कर रहा है. हो सकता है कि वह किसी अन्य कोचिंग सैंटर से पैसे खा रहा हो और हमारे यहां फूट डालने का प्रयास कर रहा हो या फिर उस को हमारे अंदर की बातें कहीं से पता चल गई हैं और वह हमें ब्लैकमेल करना चाह रहा हो…वह पहले हम दोनों में लड़ाई करवाएगा और फिर जब आप अकेले पड़ जाएंगे तब आप को ब्लैकमेल करने लगेगा.’’

फिर कुछ सोच कर कशिश मैम आगे कहने लगीं, ‘‘और हां, यदि आप को अब भी मेरी बात का विश्वास नहीं तो नेहा या किसी अन्य विद्यार्थी से पूछ लीजिए कि मेरे और उस लड़के के क्या संबंध हैं.’’ उन का यह पैंतरा काम कर गया. नेहा का नाम सुन कर राजीव सर शांत हो गए और उसे बुला भेजा.

‘‘जी हां, मामाजी, मामी वरुण को इसलिए पसंद करती हैं क्योंकि उस का नाम अरुण से मेल खाता  है. वे उसे बच्चे की तरह प्यार करती हैं. क्यों, क्या बात है?’’

‘‘कुछ नहीं, नेहा बेटे. अब तुम जाओ.’’ नेहा की बातें सुन कर राजीव सर संभल गए.

अब आगे क्या करना है, इस विषय को ले कर वे गंभीर विचारों में पड़ गए.

दोनों मियांबीवी ने मिल कर यह निर्णय  लिया कि वे वरुण को अनुशासनात्मक कार्यवाही के तहत अपने कोचिंग सैंटर से निकाल देंगे. यदि उस ने ज्यादा होहल्ला किया तो 90 फीसदी वजीफे की रकम के अलावा जो फीस के पैसे उस ने भरे हैं, वह उसे लौटा देंगे लेकिन उसे अपने यहां का विद्यार्थी नहीं दर्शाएंगे.

2 दिनों के बाद राजीव सर ने वरुण को अपने कक्ष में बुलवाया और अनुशासनात्मक कार्यवाही का हवाला देते हुए उसे निष्कासनपत्र थमा दिया.

‘‘यह क्या सर, आप मेरी गलती न होते हुए भी मुझे सजा दे रहे हैं? और कशिश मैम जिन के कारण…’’ वरुण आगे कुछ कहता इस से पहले ही राजीव सर दहाड़ पड़े, ‘‘नाम मत लो मिसेज राजीव का अपनी गंदी जबान से. चुपचाप यह चिट्ठी पकड़ो और निकल जाओ इस सैंटर से. तुम्हारे जैसे लड़कों के लिए यहां कोई जगह नहीं है. याद रखना, अगर तुम ने कोई बवाल खड़ा करने की कोशिश की तो मैं अनुशासनात्मक समिति बिठा कर भी यही कार्य कर सकता हूं. और उस स्थिति में तुम्हें तुम्हारी फीस भी नहीं लौटाई जाएगी. अभी कम से कम मैं तुम्हारी फीस लौटा रहा हूं. चुपचाप फीस लो और दफा हो जाओ यहां से.’’

वरुण के 2 वर्ष बरबाद हुए सो अलग, मनपसंद प्रबंधन संस्थान में हुआ उस का दाखिला भी रद्द हो गया क्योंकि इस सैंटर ने उस प्रबंधन संस्थान को वरुण का गलत चरित्र प्रमाणपत्र भिजवा दिया. वरुण को कशिश मैम से उठाए लाभ की महंगी कीमत यों चुकानी पड़ी. काश, उस ने अपने सुनहरे भविष्य के सपने की खातिर उस समय सही फैसला किया होता तो आज उसे न तो इस तरह लांछित होना पड़ता और न ही उस की प्रगति की राह में यों रोड़े अटकते. अब वह नए सिरे से कैरियर बनाने की कोशिश कर रहा है पर बीचबीच में उसे कशिश मैम की याद आ ही जाती है. अब तो नेहा ने भी उस से सभी संबंध तोड़ लिए हैं और कोई नई लड़की भी उसे घास नहीं डाल रही. यहां कोचिंग सैंटर में सभी स्वार्थी हैं, प्रतिद्वंद्वी हैं, कोई दोस्त नहीं, कोई साथ देने वाला नहीं. Social Story

Family Story In Hindi : खिलौना – क्यों रीना अपने ही घर में अनजान थी?

Family Story In Hindi : पलक बहुत ही खोईखोई सी घर के एक कोने में बैठी थी. न जाने क्यों उसे यह घर बहुत अजनबी सा लगता था. बिजनौर में सबकुछ कितना अपनाअपना सा था. सबकुछ जानापहचाना, कितने मस्त दिन थे वे… पासपड़ोस में घंटों खेलती थी और बड़ी मम्मी कितने प्यार से पकवान बनाती थीं. स्कूल में हमेशा प्रथम आती थी वह. वादविवाद प्रतियोगिता हो या गायन, पलक हमेशा ही अव्वल आती.

रविवार का दिन तो जैसे एक त्यौहार होता था। पासपड़ोस के अंकलआंटी आते थे और फिर घर की छत पर मूंगफली और रेवड़ी की बैठक होती थी. बड़े पापा, मम्मी अपने बचपन के किस्से सुनाते थे. पलक घंटों अपनी सहेलियों के साथ बैठ कर उन पलों में सारा बचपन जी लेती थी.

पूरा दिन 24 घंटों में ही बंटा हुआ था। यहां की तरह नही था कि कुछ पलों में ही खत्म हो जाता है।

तभी ऋषभ भैया अंदर आए और बोले,”पलक, तुम यहां क्यों एक कोने में बैठी रहती हो? क्या प्रौब्लम है।”

ऋषभ भैया अनवरत बोले जा रहे थे,”यह दिल्ली है, बिजनौर नहीं। यह क्या अजीब किस्म की जींस और ढीली कुरती पहन रखी हैं…पता है कल मेरे दोस्त तुम्हें देख कर कितना हंस रहे थे।”

पलक को समझ नहीं आ रहा था, जो कपड़े बिजनौर में मौडर्न कहलाते थे वे यहां पर बेकार कहलाते हैं. पलक सोच रही थी कि बड़ी मम्मी, पापा ने तो उसे दिल्ली में पढ़ने के लिए भेजा था पर यहां के स्कूल में तो लगता है पढ़ाई के अलावा सारे काम होते हैं. सब लोग धड़ाधड़ इंग्लिश बोलते हैं, कैसीकैसी गालियां देते हैं कि उस के कान लाल हो जाते हैं।

वैसे इंग्लिश तो पलक की भी अच्छी थी पर न जाने क्यों दिल्ली में उसे बहुत झिझक होती है.

आज ऋषभ भैया और मम्मीपापा पलक को मौल ले कर गए थे, शौपिंग कराने के लिए। इतना बड़ा मौल पलक ने इस से पहले कभी नहीं देखा था.

जब पलक छोटी थी तो बारबार उस के दिमाग मे यही बात आती थी कि वह नानानानी के साथ क्यों रहती है?

पेरैंटटीचर मीटिंग में वह अपने नानानानी को ले कर नहीं जाना चाहती थी, क्योंकि सब की मम्मी इतनी सुंदर, जवान और नएनए स्टाइल के कपड़े पहनती हैं और उस की नानी खिचड़ी बाल और उलटीसीधी साड़ी पहन कर जाती थी.

एक बार उस ने अपनी नानी से पूछ ही लिया,”मैं अपने मम्मीपापा के साथ क्यों नही रहती हूँ?”

नानी हंसते हुए बोली थीं,”क्योंकि कुदरत ने तुम्हें अपने नानानानी के जीवन मे रंग भरने भेजा है.”

पलक को कुछ समझ नहीं आता था पर यह दुविधा उस के बालमन में हमेशा रहती थी. बस इस के अलावा उस की जिंदगी में सब कुछ परफैक्ट था.

जब कभी कभी पलक की मम्मी रीना दिल्ली से अपने बेटे ऋषभ के साथ आती थी तो पलक को बहुत बुरा लगता था. उन दिनों पलक की नानी कितनी अजनबी हो जाती थीं. सारा दिन वह रीना के चारों तरफ घूमती थीं. ऋषभ भैया उसे कितनी हेयदृष्टि से देखते थे.

पलक जब 11 साल की हुई तो उस के जन्मदिन पर उस की मम्मी ने उसे पूरी कहानी बताई कि पलक की बेहतर देखभाल के लिए ही वह नानानानी के पास रहती है और जल्द ही पलक को वे लोग दिल्ली ले जाएंगे.

कितनी खुश हुई थी पलक यह सुन कर कि जल्द ही वह अपने मम्मीपापा के साथ चली जाएगी.

उस बार जब छुट्टियों में रीना बिजनौर आई हुई थी तो पलक रीना को कर अपने स्कूल पेरैंटटीचर मीटिंग में ले कर गई. दोस्तों को उस ने बहुत शान से अपनी मम्मी से मिलवाया था.

रीना बहुत खुश हो कर पलक के साथ उस के स्कूल गई थी, क्योंकि अब वह अपनी बेटी को उस के बेहतर भविष्य के लिए दिल्ली ले कर जाना चाहती थी.

पलक का स्कूल देख कर रीना को धक्का लगा था, क्योंकि पलक का स्कूल छोटा और पुरानी तकनीक पर आधारित था.

आते ही रीना अपनी मां से बोली,”मम्मी, अब पलक को दिल्ली ले कर जाना ही होगा। इस छोटे शहर में पलक का ठीक से विकास नहीं हो पाएगा। इस के स्कूल में कुछ भी ठीक नही है।”

पलक की नानी रुआंसी हो कर बोलीं,”रीना, तुम भी तो इसी स्कूल में पढ़ी थीं और बेटा तुम तो पलक को इस दुनिया मे लाना ही नहीं चाहती थी। वह तो जब मैं ने सारी जिम्मेदारी उठाने की बात की थी तब तुम उसे जन्म देने के लिए तैयार हुई थी।”

रीना बेहद महत्त्वाकांक्षी युवती थी. जब उस का बेटा ऋषभ 3 वर्ष का ही हुआ था तब पलक के आने की आहट रीना को मिली थी। ऋषभ की जिम्मेदारी, नौकरी और घर की भागदौड़ में रीना थक कर चूर हो जाती थी. ऐसे में एक नई जिम्मेदारी के लिए वह तैयार नहीं थी. वैसे भी उन्हें बस एक ही बच्चा चाहिए था, ऐसे में पलक के लिए उन की जिंदगी में कोई जगह नहीं थी.

दिल्ली में आसानी से गर्भपात नहीं हो सकता था इसलिए रीना बिजनौर गर्भपात कराने आयी थी. पर रीना के मम्मीपापा अपने अकेलेपन से ऊब चुके थे. बेटा विदेश में बस गया था. रीना को भी घरपरिवार और नौकरी के कारण यहां आने की फुरसत नहीं थी. इसलिए रीना के मम्मीपापा, जानकीजी और कृष्णकांतजी को ऐसा लगा जैसे यह कुदरत की इच्छा हो और यह बच्चा उन के पास आना चाह रहा हो…

कितनी मुश्किल से जानकी ने रीना को मनाया था। पूरे समय वे रीना के साथ बनी रही थीं ताकि उसे किसी बात की तकलीफ न हो.

पलक के जन्म के 2 माह बाद जानकी पलक को ले कर बिजनौर आ गई थी. रीना किसी
भी कीमत पर पलक की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी, इसलिए उस ने पलक को अपना दूध भी नहीं पिलाया था.

मां का दूध न मिलने के कारण पहले 2 साल तक पलक बेहद बीमार रही. जानकी और कृष्णकांतजी का एक पैर घर और दूसरा हौस्पिटल में रहता.

पासपड़ोस वाले कहते भी,”आराम के वक्त इस उम्र में यह क्या झंझाल मोल ले लिया है…” पर जानकी की जिंदगी को एक मकसद मिल गया था. उन की दुनियाभर की बीमारियां एकाएक गायब हो गई थीं.

सारा दिन कैसे बीत जाता था जानकी को पता भी नहीं लगता था। पलक के साथ जानकी ने बहुत मेहनत की थी. 4 वर्ष की होतेहोते पलक एकदम जापानी गुड़िया सी लगने लगी थी.

अब जब भी छुट्टियों में रीना घर जाती तो पलक की बालसुलभ हरकतें और उस का भोलापन देख कर उस की सोई हुई ममता जाग उठती थी. पर रीना किस मुंह से अपनी मां से यह कहती, क्योंकि वह तो पलक को इस दुनिया में लाना ही नहीं चाहती थी और न उस की कोई जिम्मेदारी उठाना चाहती थी। इसलिए कितनेकितने दिनों तक वह अपने मम्मीपापा के पास बिजनौर फोन भी नहीं करती थी.

धीरेधीरे समय बीतता गया और ऋषभ भी अब किशोरवस्था में पहुंच गया था. ऋषभ अब अपनी ही दुनिया में व्यस्त रहता.

जब रीना ने अपने पति पराग से इस बात का जिक्र किया तो उस ने भी रीना को झिड़क दिया,”तुम कितनी खुदगर्ज हो रीना, अब पलक बड़ी हो गई है और ऋषभ की तरफ से तुम फ्री हो तो तुम्हें पलक याद आने लगी है और तुम्हें यह एहसास होने लगा है कि तुम पलक की मम्मी हो?

“याद है तुम्हें जब वह 7 महीने की थी और बेहद बीमार थी, तुम्हारी मम्मी ने तुम से आने के लिए कहा था पर तुम औफिस के काम का हवाला दे अमेरिका चली गई थी.

“हर वर्ष जब हम छुट्टियों में घूमने जाते थे तो मैं कितना कहता था कि पलक को भी साथ ले लेते हैं पर तुम हमेशा कतराती थीं क्योंकि तुम 2 बच्चों की जिम्मेदारी एकसाथ नहीं उठा सकती थीं…”

रीना चुपचाप बैठी रही और पलक को अपने घर लाने के लिए मंथन करती रही.

समय बीतता गया और रीना हर संभव कोशिश करती रही अपनी मम्मी को यह जताने की कि उन का पालनपोषण करने का तरीका पुराना है.

वह यह जताना चाहती थी कि पलक की बेहतर परवरिश के लिए उसे दिल्ली भेज देना चाहिए.

आज रीना को पलक के स्कूल जाने से यह मौका मिल भी गया. पलक 12 वर्ष की हो चुकी थी। रीना अपनी बेटी को अपने जैसा ही स्मार्ट बनाना चाहती थी. जब रीना की मम्मी ने अपनी बेटी की बात को अनसुना कर दिया तो रीना ने अपने पापा से बात की कि पलक की आगे की पढ़ाई के लिए उसे दिल्ली भेज देना चाहिए।

कृष्णकांतजी एक व्यवहारिक किस्म के इंसान थे। दिल से न चाहते हुए भी कृष्णकांतजी को पलक की भविष्य की खातिर रीना की बात माननी पड़ी.

पलक को जब पता चला कि वह अपने मम्मीपापा के साथ दिल्ली जा रही है तो वह बेहद खुश थी. पर जब सारा सामान पैक हो गया तो पलक एकाएक रोने लगी कि वह किसी भी कीमत पर नानानानी को छोड़ कर नहीं जाना चाहती…

उधर जानकीजी का घोंसला एक बार फिर से खाली हो गया था पर इस बार पंछी के उड़ने का दर्द अधिक
था. कृष्णकांतजी जितना जानकीजी को समझाते,”वह रीना की ही बेटी है और तुम्हे खुश होना चाहिए कि हमारी पलक बड़े और अच्छे स्कूल में पढ़ेगी पर जानकीजी को तो जैसे उस की दुनिया ही वीरान लगने लगी थी।

जानकीजी को पूरा विश्वास था कि पलक उन के बिना रह नहीं पाएगी. बेटी ने एक बार भी नहीं कहा था, इसलिए उन्हें खुद तो दिल्ली जाने की हिम्मत नही हुई थी पर पति कृष्णकांतजी की चिरौरी कर के घर के पुराने नौकर मातादीन को ढेर सारी मिठाईयों के साथ दिल्ली भेज दिया.

नई दुनिया, नए लोग और चमकदमक सभी को अच्छी लगती हैं और पलक तो फिर भी बच्ची ही थी. वह इस टीमटाम में अपने पुराने घर और साथियों को भूल गई थी. मातादीन को देख कर एक पल के लिए पलक की आंखों
में चमक तो आई पर नए रिश्तों के बीच फिर वह चमक भी धीमी पड़ गई थी.

मातादीन पलक को खुश देख कर उसे आशीष दे कर अगले दिन विदा हो गया था. मातादीन को विदा करते हुये रीना का स्वर कसैला हो उठा और
बोली,”काका, मम्मी को बोलिएगा, पलक की चिंता छोड़ दे, वह मेरी बेटी है, मैं अपनेआप संभाल लूँगी।”

दिल्ली आ कर मातादीन ने कहा,”बीबीजी, चिंता छोड़ दीजिए। पलक बिटिया नई दुनिया में रचबस गयी हैं।”

पर जानकीजी खुश होने के बजाए दुखी हो गई थीं और फिर से उन का शरीर बीमारियों का अड्डा बन गया था.

उधर 1 माह बीत गया था और पलक के ऊपर से चमकदमक की खुमारी उतर गई थी. अब पलक चाह कर भी अपनेआप को दिल्ली की भागतीदौड़ती जिंदगी में ठीक से ढाल नहीं पा रही थी.

स्कूल का माहौल उस के पुराने स्कूल से बिलकुल अलग था. घर आ कर पलक किस से अपने मन की बात कहे, उसे समझ ही नहीं आता था.

पलक बहुत कोशिश करती थी अपनेआप को ढालने की पर असफल ही रहती. नानानानी का जब भी बिजनौर से फोन आता तो पलक हर बार यही ही बोलती कि उसे दिल्ली में बहुत मजा आ रहा है. पलक
अपने नानानानी को परेशान नहीं करना चाहती थी.

पलक के मम्मीपापा सुबह निकल कर रात को ही आते थे. ऋषभ भैया अपने दोस्तों और दुनिया में व्यस्त रहते। पासपड़ोस न के बराबर था. यहां के बच्चे उसे बेहद अलग लगते थे।

जब पलक ने अपनी मम्मी से इस बारे में बात की तो 12 साल की बच्ची का अकेलपन दूर करने के लिए उस की मम्मी ने उसे समय देने के बजाए विभन्न प्रकार की हौबीज क्लासेज में डाल दिया।

पहले ही पलक स्कूल में ही ऐडजस्ट नहीं कर पा रही थी और अब गिटार क्लास, डांस क्लास, अबेकस क्लास
पलक को हौबी क्लासेज के बजाए स्ट्रैस क्लासेज लगती थी.

पलक की नन्हीं सी जान इतनी अधिक भागदौड़ और तनाव को झेल नहीं पाई थी. उस के हौंसले पस्त हो गए थे.

वार्षिक परीक्षाफल आ गया था और पलक 2 विषयो में फेल हो गई थी.

परीक्षाफल देखते ही रीना पलक पर आगबबूला हो उठी,”बेवकूफ लड़की, कितना कुछ कर रही हूं मैं तुम्हारे लिए… दिल्ली के सलीके सिखाने के लिए कितनी हौबी क्लासेज पर पैसे खर्च हो गए पर तुम तो रहोगी वही छोटे शहर की सिलबिल।”

पराग रीना को समझाने की कोशिश भी करता कि पलक और ऋषभ को एक तराज़ू पर ना तौले. पलक को थोड़ा समय दे, वह जैसे रहना चाहती है उसे रहने दे.

इतने तनाव का यह असर हुआ कि पलक को बहुत तेज बुखार हो गया था. पराग रात भर पलक के माथे पर गीली पट्टियां बदलता रहा था. रीना यह कह कर जल्दी सो गई कि अगले दिन औफिस में उस की जरूरी मीटिंग है.

रात भर बुखार में पलक तड़पती रही. अपनी बेटी को तड़पता देख कर पराग ने निर्णय ले लिया था.
पराग ने जानकीजी को फोन कर दिया और वे जल्दी ही शाम पलक के पास पहुंच गईं.

पराग ने खुद यह महसूस किया कि जानकीजी के आते ही पलक का बुझा हुआ चेहरा चमक उठा था.
जब रात को रीना औफिस से लौटी तो जानकीजी को देख कर वह सकपका गई.

रात में खाने की मेज पर बहुत दिनों बाद पलक ने मन से खाया और बोली,”नानी, यहां पर किसी को ढंग से खाना बनाना नहीं आता।”

रीना कट कर रह गई और बोली,”मम्मी, आप ने पलक की आदत खराब कर रखी है, हैल्थी फूड उसे पसंद ही नही हैं।”

जानकीजी कुछ न बोलीं बस पलक को दुलारती रहीं। 2 दिनों के अंदर ही पलक स्वस्थ हो कर चिड़िया की तरह चहकने लगी.

एक हफ्ते बाद जब जानकीजी अपना सामान बांधने लगीं तो पलक भी अपना बैग पैक करने लगी.

जानकीजी बोलीं,”पलक, तुम कहां जा रही हो?”

पलक बोली,”नानी, मैं आप के बिना नहीं रह सकती हूं, मुझे यहां नहीं पढ़ना।”

रीना चिल्लाने लगी,”मम्मी इसलिए मैं नहीं चाहती थी आप यहां आओ…

“आप ने उसे बिगाड़ दिया है, बिलकुल भी प्रतिस्पर्धा नही है पलक में, बिलकुल छुईमुई खिलौना बना कर छोड़ दिया है। मेरी बेटी इस दुनिया में कभी कुछ कर भी पाएगी या नहीं…”

जानकीजी इस से पहले कुछ बोलतीं कि तभी पराग बोल उठा,”खिलौना पलक को मम्मीजी ने बनाया है या तुम ने?”

“जब तुम्हारा मन था तुम पलक को बिजनौर छोड़ देती हो और जब मन करता है तब तुम सब की अनदेखी कर के पलक को दिल्ली ले कर आ जाती हो, बिना यह जाने कि इस में पलक की मरजी है या नहीं…”

रीना ने हलका सा विरोध किया और बोली,”मां हूं मैं उस की…”

पराग बोला,”हां तुम उस की मां हो और वह तुम्हारी बेटी है मगर कोई चाबी वाला खिलौना नहीं।”

रीना पराग पर कटाक्ष करते हुए बोली,”लगता है तुम बेटी की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते हो, इसलिये यह सब बोल रहे हो।”

पराग रीना की बात सुन कर तिलमिला उठा क्योंकि उस में लेशमात्र भी सचाई नहीं थी।

इस से पहले पराग कुछ कहता, पलक ने धीरे से कहा,”मम्मी, मेरी खुशी मेरे अपने घर मे है, जो बिजनौर में है. यह भागदौड़, यह कंपीटिशन मेरे लिए नहीं हैं।”

इस से पहले कि रीना कुछ बोलती, जानकीजी बोलीं,”रीना, जो जहां का पौधा है वह वहीं पर पनपता है।”

रीना ने आगे कुछ नहीं कहा और चुपचाप अपने कमरे में चली गई. जाने से पहले पराग ने पलक को गले लगाते हुए कहा,”पलक जब भी तुम्हारा मन करे बिना एक पल सोचे चली आना और बेटा तुम्हारे 2 घर हैं एक बिजनौर में और दूसरा दिल्ली में।

“बेटा, कामयाबी कभी भी किसी जगह की मुहताज नहीं होती।”

पलक और जानकीजी को जाते हुए देख कर पराग सोच रहा था कि शायद खिलौने की चाबी अब खिलौने के पास ही है.

अब पराग अपनी बेटी की भविष्य को ले कर निश्चिंत हो गया था. Family Story In Hindi

Box Office : नहीं चली ‘मेट्रो इन दिनों’, फीका पड़ा अनुराग बसु का जादू

Box Office : फिल्म ‘मेट्रो इन दिनों’ बौक्स औफिस पर अपने पहले पार्ट ‘लाइफ इन मेट्रो’ जैसा कमाल नहीं दिखा पाई है. दर्शक फिल्म से कनेक्ट नहीं कर पाए.

2007 में अनुराग बसु ने एक फिल्म ‘लाइफ इन मेट्रो’’ बनाई थी, जिस में कोंकणा सेन शर्मा और इरफान खान जैसे कलाकार थे. इसे बौक्स औफिस पर अच्छी सफलता मिली थी. अब वही अनुराग बसु अपनी फिल्म ‘लाइफ इन मेट्रो’ का 18 साल बाद सिक्वअल ‘मेट्रो..इन दिनों’’ बनाई है, जिसे उन्होंने ‘स्प्रिचुअल रीमेक / आध्यात्मिक रीमेक का नाम दिया है, जबकि इस फिल्म में आध्यात्म का कहीं कोई नामोनिशान नहीं है.

जुलाई माह के पहले सप्ताह यानी कि 4 जुलाई को रिलीज हुई. इस फिल्म में नीना गुप्ता, कोंकणा सेन शर्मा, फातिमा सना शेख, सारा अली खान, अनुपम खेर, पंकज त्रिपाठी, अली फजल, आदित्य रौय कपूर और शाश्वत चटर्जी जैसे कलाकार हैं. लेकिन यह फिल्म उन की पिछली फिल्म ‘लाइफ इन मेट्रो’ के मुकाबले कहीं नहीं ठहरती.

यह फिल्म पूरी तरह से मुंबई के कोलाबा जैसे हाईफाई सोसायटी की ही कहानी लगती है. इस फिल्म में फिल्मकार ने इंसानी रिश्तों की बात करने के नाम पर सैक्स और हवस की ही बात की है. पूरी फिल्म में सैक्स की जगह अराजकता ही नजर आती है. फिल्म में एक दंपति की 12-13 साल की बेटी है, जो कि सैक्स को ले कर इतनी व्याकुल है कि वह अपनी मासी से पूछती है कि उसे लड़के को किस करना चाहिए या लड़की को किस करना चहिए? पूरी फिल्म में 4 अलगअलग शहरों, चार अलगअलग उम्र के दंपतियों की कहानी है. पर नवीनता कुछ भी नहीं है.

कहा जाता है कि अनुराग बसु ने इस फिल्म के लिए 250 दिन शूटिंग की. कई बार कई सीन रीशूट किए गए. और इस का बजट 150 करोड़ रूपए है. निर्माताओं का दावा है कि फिल्म ने पूरे सप्ताह भर में 32 करोड़ रूपए कमाए. जबकि सकनिल्क का दावा है कि फिल्म ने 24 करोड़ रूपए एकत्र किए. जबकि 150 करोड़ रूपए के बजट वाली फिल्म को ‘नो लौस नो प्राफिट’ के लिए तकरीबन 400 करोड़ रूपए कमाने चाहिए. इस तरह यह फिल्म पूरी तरह से डिजास्टर हो चुकी है. इतना ही नहीं लोग मान रहे हैं कि यह जो आंकड़े हैं वह भी फेक हैं. क्योंकि सिनेमा तो एकदम खाली पड़े रहे.

फिल्म के डिजास्टर होने की मूल वजह यह है कि दर्शक फिल्म के किरदारों और उन की हरकतों के सथ रिलेट नहीं कर पाता. फिल्म ‘मेट्रो इन दिनों’ में एक दंपति मुंबई का मोंटी (पंकज त्रिपाठी ) और काजोल (कोकणा सेन शर्मा ) हैं, इन की दो टीनएजर बेटियां हैं. पर दोनों की जिंदगी में सकून नहीं है. दोनों नाम बदल कर डेटिंग ऐप पर चैट करते हैं. काजोल, माया बन कर अपने पति को रोमांस के लिए होटल बुलाती है, जहां वह अपनी सहेली की मदद से नंगा कर पूरे फाइव स्टोर होटल व सड़क पर निवस्त्र दौड़ाती है. फिर गोवा ले जाती है, जहां वह अपनी उम्र से भी आधी उम्र के युवक के साथ रोमांस करती है और होटल के एक कमरे में अपने प्रेमी संग अय्याशी करती है.

अपनी पत्नी की यह सारी हरकतें बेचारा मोंटी देखता रहता है. क्या भारत में इस तरह की आधुनिक पत्नियां हैं? बौलीवुड में लोग कह रहे हैं कि क्या अनुराग बसु ने अपनी आप बीती फिल्म में दिखाई है. अनुराग बसु भी शादीशुदा हैं और उन की भी दो टीनऐजर बेटियां हैं. फिल्म में सारा अली खान का किरदार सैक्स को ले कर पूरी तरह से कन्फ्यूज्ड है. वैसे भी सारा अली खान व आदित्य राय कपूर की अब तक एक भी फिल्म को सफलता नसीब नहीं हुई.

Voter List Controversy : हिंदू राष्ट्र में आधार होगा निराधार “बिहार तो झांकी है असम पश्चिम बंगाल बाकी है”

Voter List Controversy : बिहार विधानसभा चुनाव में वोटर लिस्ट विवाद के बाद यह बात साफ नजर आ रही है कि हिंदू राष्ट्र में आधार निराधार हो कर रह जाएगा.

चुनाव आयोग ने कहा है कि वोटर लिस्ट में कोई गैर भारतीय नहीं रहेगा. वोटर लिस्ट की जांच का जो मौडल बिहार विधान सभा में लागू किया गया है वह दूसरे राज्यों में भी लागू होगा. जैसेजैसे वहां पर विधानसभा चुनाव होंगे, वैसेवैसे वोटर उस राज्य में लिस्ट की जांच होगी. इस तरह से समझें तो अगला नम्बर असम और बंगाल का है. इस के बाद उत्तर प्रदेश की भी बारी है. 2026 में जिन राज्यों में चुनाव होंगे वहां यह जांच होगी. जिस में केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी भी शामिल होंगे.

असल में यह एक पौराणिक साजिश है कि जिस के तहत बड़ी जनसंख्या को नागरिकता ही न देने का काम किया जा रहा है. जिस हिंदू राष्ट्र की बात हो रही है वह पौराणिक व्यवस्था को बनाए रखना चाहता है. जिस के अनुसार सिर्फ सवर्णों को ही पूजा पाठ, धन, मकान, सत्ता का हक है. बाकी सब तो दस्यु या पशु हैं. राम रावण युद्ध में दर्शाया गया है कि जब युद्व खत्म हो गया तो राम तो राजा बन गए उन के साथ युद्ध करने वालों को वापस जंगलों और पहाड़ों पर भेज दिया गया. बिहार में वोटर लिस्ट में सुधार के नाम पर पौराणिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए नागरिकता को वर्ण से जोड़ने की साजिश की जा रही है.

देश में संविधान लागू होने से पहले किस तरह से चुनाव होते थे, किन को वोट देने का अधिकार था. अगर इस को देखें तो साफ पता चलता है कि वोट देने का अधिकार सब को नहीं था. 1857 के बाद अंगरेजों ने लोकल सेल्फ गवर्नमेंट पौलिसी कानून बनाया था. जो 1884 में पूरी तरह से लागू हो गया. 1909 में इलैक्शन एक्ट पारित हुआ उस के बाद इलैक्शन शुरू हुआ. उस समय वोटर लिस्ट में केवल 50 लोगों के नाम होते थे. यह वह लोग थे जो इलाके के मुखिया, जमीदार, बड़े साहूकार, बड़े काश्तकार यानी कि उस वक्त जो टैक्स के रूप में लगान जमा करते थे वही लोग चुनावी प्रक्रिया में शामिल होने के हकदार थे. वे ही लोग वोटर हुआ करते थे और उन्हीं लोगों में से चुनाव लड़ने वाले होते थे. उन्हीं में से लोग चुनाव जीत कर इलाके के विकास के लिए कार्य करते थे.

50 लोगों की वोटर लिस्ट में से केवल 4 लोगों को चुनाव लड़ाते थे. यह वह लोग होते थे जो उस समय 100 रुपए से अधिक का आयकर या माल गुजारी भरते थे. मुश्किल से गांव के अनुसार 4 या 5 वोट ही होते थे. 4 प्रत्याशी होते थे और 46 वोटर और इन्हीं लोगों में से एक जीत कर लोकल बोर्ड का मुखिया बनता था. वे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के मेंबर जो राजधानी लखनऊ में बैठा करते थे या फिर दिल्ली जाते थे.

जब देश आजाद हुआ तो यह तय किया गया कि भारत में लोकतंत्र की स्थापना के लिए अधिक से अधिक लोगों को वोट डालने का अधिकार दिया जाएगा. इस से पहले भारत ही नहीं अन्य देशों में भी अमीरो को ही वोट देने का अधिकार था. भारत के संविधान ने यह तय किया कि जो भी बालिग लोग हैं वह वोट देंगे. उम्र के अलावा कोई बंधन नहीं रखा गया था. भारत में हुए पहले आम चुनाव में करीब 17 करोड़ लोगों ने हिस्सा लिया, जिस में 85 फीसदी लोग न तो पढ़ सकते थे और न लिख सकते थे. कुल मिला कर करीब 4500 सीटों के लिए चुनाव हुआ था, जिस में 499 सीटें लोकसभा की थीं.

संविधान को दरकिनार करने की साजिश

बिहार में वोटर लिस्ट के बहाने इस तरह की व्यवस्था को बनाने का काम हो रहा है जहां वोटर लिस्ट में वह लोग होंगे जो पौराणिक व्यवस्था को मानेंगे. जो इस को चुनौती देने वाले होंगे उन के वोट के अधिकार को ही खत्म कर दिया जाएगा. देश को संविधान लागू होने से पहले के कालखंड में ले जाया जा रहा है. नागरिकता को वर्ण व्यवस्था से जोड़ने की साजिश की जा रही है. यह काम केवल बिहार तक ही सीमित नहीं रहेगा. यह पूरे देश में होगा.

बिहार विधान सभा चुनाव में वोटर लिस्ट विवाद के बाद चुनाव आयोग ने कहा कि ‘वोटर लिस्ट में जांच का काम देश के हर राज्य में किया जाएगा. इस में घरघर जा कर मतदाताओं की पुष्टि की जाएगी. इस के जरिए चुनाव आयोग यह चाहता है कि कोई गैर भारतीय वोटर लिस्ट में न रहे.’ 2029 में लोकसभा चुनाव से पहले सभी राज्यों की वोटर लिस्ट की स्क्रीनिंग पूरी करने की योजना है.

इस को दक्षिणापंथी लोगों की उस मांग से जोड़ कर देखा जा सकता है. जो भारतीय न हो उस को वोट देने का अधिकार न हो. यही उद्देश्य एनआरसी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर का भी था. जनगणना में भी केन्द्र सरकार इसी तरह का कोई हेरफेर कर सकती है. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव कहते हैं ‘जातीय जनगणना के आंकड़ों और वोटर लिस्ट के मामले में भाजपा सरकार पर भरोसा नही किया जा सकता है.’

बिहार वोटर लिस्ट में जिस तरह से चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं, उस के पहले महाराष्ट्र के चुनाव में वोटर लिस्ट की गड़बड़ी हो चुकी है. जिस से यह साफ दिखने लगा है कि हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए कुछ भी संभव है. इस को देख कर यह कहा जा सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में अगर भाजपा को 400 से अधिक सांसद मिल गए होते तो वह कानून बना कर इस तरह के काम करती जिन्हें अब उस को पिछले दरवाजे से करने की कोशिश हो रही है.

क्या है वोटर लिस्ट विवाद ?

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग ने वोटर लिस्ट को अपडेट करने का काम शुरू किया. जिस में नए मतदाताओं के नाम जोड़े जा रहे हैं और जो वोटर नहीं हैं, उन के नाम हटाए जा रहे हैं. इस में सभी मतदाताओं को सत्यापन का एक फोर्म भरना पड़ रहा है. जिस में अपने बारे में कुछ जरूरी जानकारी देनी है. चुनाव आयोग जो जानकारी मांग रहा है, उस में दो प्रावधान किए गए हैं, जैसे 2003 या उस के बाद पैदा हुए मतदाताओं को अपना जन्मप्रमाण पत्र या मातापिता के वोटर आईडी का एपिक नंबर देना होगा. जबकि 2003 से पहले पैदा हुए लोगों को कोई दस्तावेज नहीं देना है.

विवाद का कारण यह है कि आयोग ने सत्यापन के दस्तावेजों में राशन कार्ड और आधार कार्ड को मान्यता नहीं दी है. विपक्ष इस बात से नाराज है. उस का तर्क है कि यह गरीब मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करने की कोशिश है. यह एक तरह से नागरिकता का सत्यापन हो रहा है. नागरिकता के सत्यापन से उस को डर है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों के नाम वोटर लिस्ट से गायब हो जाएंगे. मुसलिम मतदाता विपक्ष का सब से बड़ा हथियार हैं. इस के जरीये हिंदू राष्ट्र बनाने की तैयारी है. विपक्ष की सब से बड़ी चिंता यह है कि बिहार मौडल पूरे देश में ले जाया जाएगा. घुसपैठियों को भले ही देश से न निकाला जा सकता हो पर उन को वोट के अधिकार से वंचित रखा जा सकता है.

विपक्ष ने पूरी ताकत से इस लड़ाई को लड़ने का फैसला किया. उसे यह डर था कि महाराष्ट्र जैसी वोटर लिस्ट में गडबडी का लाभ बिहार में भी भाजपा उठा सकती है. पटना में कांग्रेस और दूसरे प्रमुख दलों ने रैली की. सड़क के साथ ही साथ विपक्ष ने इस लडाई को कोर्ट में भी लडने का काम किया. वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि चुनाव से ठीक पहले प्रदेश के 7.9 करोड़ मतदाताओं को यह कहना कि वह अपनी पात्रता को सत्यापित करें, यह एक तरह से हजारों वोटर्स को मतदान से रोकने की कोशिश है. आधार कार्ड को स्वीकार न करना पूरी तरह से नागरिकता जांच की कवायद है.

आधार कार्ड 12 अंकों की एक पहचान संख्या है, जिसे भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण द्वारा जारी किया जाता है. यह प्रत्येक भारतीय की पहचान और उस के निवास स्थान का प्रमाण है. आधार कार्ड की मान्यता बैंकिंग, स्कूल एडमिशन, सरकारी योजनाओं का लाभ लेने से ले कर अस्पतालों में इलाज तक सभी जगहों पर है. वोट देने के समय भी यह पहचान पत्र के रूप में मान्य था. सवाल उठता है कि जब आधार पहचान पत्र के रूप में वोट डालने के लिए प्रयोग किया जा सकता है तो वोटर लिस्ट की जांच में इस को क्यों माना नहीं जा रहा है ? चुनाव आयोग का कहना है कि वोटर लिस्ट अपडेशन में आधार कार्ड को प्रमाण नहीं माना जा सकता क्योंकि यह नागरिकता का प्रमाण पत्र नहीं है.

कोर्ट और आयोग आमने सामने

बिहार में वोटर लिस्ट संशोधन विवाद में सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से कई सवाल पूछे. सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से कहा कि आयोग ने मतदाता सूची में संशोधन का जो समय चुना है वह चिंताजनक है. आधार जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेज को संशोधन प्रक्रिया के सत्यापन से बाहर रखना बहुत ही चिंताजनक है. यदि विशेश सूचना रिपोर्ट का उद्देश्य नागरिकता सत्यापित करना है तो यह प्रक्रिया इतनी देर से शुरू क्यों हुई ? इस को चुनाव से जोड़ कर क्यों देखा जा रहा है ?

चुनाव आयोग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा कि मतदाता सूची में संशोधन की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत संवैधानिक रूप से अनिवार्य है. अनुच्छेद 326 में यह कहा गया है कि केवल भारतीय नागरिकों को ही मतदाता के रूप में नामांकित किया जा सकता है. इसी वजह से मतदाता सूची को दुरुस्त करने के लिए और सभी योग्य नागरिकों को वोट का अधिकार दिलाने के लिए नागरिकता की पुष्टि हो रही है.

चुनाव आयोग ने कहा कि इस से पहले 2003 में यह प्रक्रिया की गई थी. चुनाव आयोग के वकील ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है जिस का मतदाताओं से सीधा संबंध है और अगर मतदाता ही नहीं होंगे तो हमारा अस्तित्व ही नहीं होगा. आयोग किसी को भी मतदाता सूची से बाहर करने का न तो इरादा रखता है और न ही कर सकता है, जब तक कि आयोग को कानून के प्रावधानों द्वारा ऐसा करने के लिए बाध्य न किया जाए. हम धर्म, जाति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकते.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘गैर नागरिकों को मतदाता सूची से बाहर करना केंद्रीय गृह मंत्रालय का विशेषाधिकार है. चुनाव आयोग का नहीं. आयोग क्यों इस मसले पर ध्यान दे रहा है. यह उन का काम नहीं है. चुनाव आयोग ने सूची के सत्यापन के लिए जो समय चुना है, वह सही नहीं है. सब से बड़ी चिंता यह है कि आधार को सत्यापन के लिए जरूरी दस्तावेजों में शामिल न करना है.

समस्या यह है कि पहले कोर्ट ने ही आधार को नागरिकता का प्रमाणपत्र नहीं माना था. जस्टिस एस पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2018) के केस में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कहा था कि आधार एक विशिष्ट पहचान पत्र है, लेकिन यह भारतीय नागरिकता का प्रमाण नहीं है. सरकार की ओर से भी यह स्पष्ट कहा गया था कि आधार कार्ड को नागरिकता और जन्मतिथि का प्रमाण पत्र नहीं माना जा सकता है. यह सिर्फ और सिर्फ एक व्यक्ति का पहचान पत्र है और उस के निवास स्थान की जानकारी देता है. भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के अनुसार अगर कोई विदेशी नागरिक 182 दिन तक भारत में लगातार रहता है, तो उस का आधार कार्ड बन सकता है, लेकिन यह सिर्फ पहचान पत्र है उस की नागरिकता का प्रमाण नहीं.

यह बात अब साफ होती नजर आ रही है कि आधार कार्ड नागरिकता को प्रमाणपत्र नहीं माना जा सकता. इस का लाभ उठा कर हिंदू राष्ट्र बनाने वाले उन लोगों को वोट के अधिकार से वंचित कर रहे हैं जो गरीब हैं. जिन की कोई सुनने वाला नहीं है. जिस से केवल वह लोग वोट दे सकें जो वोटर लिस्ट में दर्ज हैं. जिन लोगों से विरोध का डर है उन को इस बहाने वोटर लिस्ट से बाहर किया जा सकता है. वोटर लिस्ट में उन के नाम ही होंगे जो हिंदू राष्ट्र को मानने वाले होंगे. भले ही घुसपैठियों को देश से बाहर न किया जाए पर वोट देने के अधिकार से उन को वंचित किया जा सकता है.

Romantic Story In Hindi : समर्थन – क्या बंजारीलाल को मिल पाया मनचाहा प्यार?

Romantic Story In Hindi : बंजारीलाल कुछ सालों से कैंसर से जूझ रहा था. बहुत से लोगों को यह एहसास नहीं होता है कि पुरुष जब कैंसर से पीड़ित होते हैं, तो उन्हें भी उतनी ही सहानुभूति की आवश्यकता होती है जितनी औरतों को. जब लोगों को बंजारीलाल के कैंसर के बारे में पता चला तो ज्यादातर ने यह मान लिया कि यह कैंसर का कोई रूप होगा, लेकिन विस्तारपूर्वक जानना उचित नहीं समझा.

इस का यह मतलब नहीं था कि बंजारीलाल को लोगों का समर्थन नहीं मिला. उस की पत्नी, बच्चे, परिवारजन, दोस्तयार और जो पहले सहकर्मी थे, सभी से समर्थन प्राप्त हुआ, विशेषरूप से पोतेपोतियां अद्भुत रूप से अपना समर्थन दिखाते थे,“दादाजी, क्या आप को चोट लगी है? दादाजी, क्या आप को खानेपीने के लिए कुछ चाहिए? आप को आराम से बैठने के लिए एक तकिया चाहिए? कहां दर्द होता है दादाजी,” वगैरह…

बंजारीलाल के सभी बच्चे महानगरों में रहते थे. कोई मैनेजर के पद पर था, कोई सौफ्टवेयर इंजीनियर था. ट्रेन के सफर में कम से कम 1 दिन तो लग ही जाता, इसलिए उन्होंने तब तक उन्हें नहीं देखा जब तक कि अपना इलाज शुरू नहीं कर दिया और सिर के बाल झड़ नहीं गए. अपने इलाज के दौरान भी बंजारीलाल ने अपना काम करना जारी रखा और कभीकभार अपने बच्चों और पोतेपोतियों से मिलने उन के शहरों तक चले जाया करता था.

जब उस ने कीमोथेरैपी शुरू की थी और बाल निकाल दिए, तब उस का एक बेटा और बेटे का परिवार उस से मिलने आया था. बेटे का लगभग 3 साल का बेटा था जो चाहता था कि उस के दादाजी उस के साथ खेलें. अपने घर से अपने साथ वह अपने खिलौने भी ले कर आया था. जब दादाजी उस के साथ खेलते, तो हंसीमजाक में वह दादाजी की टोपी उतार कर उन के गंजे सिर पर हाथ फेरता. फिर दादाजी को टोपी वापस पहना कर फिर से खेल में जुट जाता. पोता पता नहीं इस हरकत से क्या करना चाहता था, मगर बंजारीलाल को पोते की इस हरकत से बड़ा सुकून मिलता था.

बंजारीलाल अपने अन्य बच्चों और पोतेपोतियों से मिलने उन के शहरों में भी गया. उन के शहर अपनी यात्रा शुरू करने से पूर्व, वह सब को फोन पर बता देता था. साथ ही यह भी कहता कि उस के वहां पहुंचने से पहले पोतेपोतियों को वे लोग बता दें कि दादाजी अब गंजे हो गए थे. हो सके तो कारण भी बता दें. फिर बच्चों को चाहे जितना समझ में आए.

अपने बेटेबेटियों के जिस किसी परिवार में वह जाता, वहां आमतौर पर पहले तो सभी बैठ कर सामान्य पारिवारिक बातों पर चर्चा करते, लेकिन बीमारी के बारे में कोई कुछ नहीं कहता. मगर जैसे ही मातापिता कमरे से बाहर निकलते, पोतेपोतियां दादाजी को पकड़ लेते और उन से तरहतरह के सवाल पूछने लगते. अगर मातापिता बीच में ही लौट आते, तो बातचीत वापस स्कूल के पाठ्यक्रम, पोतेपोतियों की पढ़ाई, किसी के जन्मदिन या फिर कार्टून चैनल पर आ जाती.

बच्चों की ओर से यह उन का दादाजी की देखभाल करने का तरीका था. वे सवाल पूछने से नहीं डरते थे, न ही उन सवालों से शर्मिंदा होने से, जिन्हें वयस्क पूछने में अकसर संकोच करते हैं. बंजारीलाल को इस रोग के बाद ही पता चला कि कैंसर रोगी के प्रति चिंता दिखाने और समर्थन व्यक्त करने का सब से अच्छा तरीका है कि दिमाग में जो प्रश्न आ रहे हैं, सब पूछ लिए जाएं और हो सके तो सहायता प्रदान करें. इस का नतीजा यह निकलेगा कि अन्य लोग भी उन के साथ सहजतापूर्वक वार्तालाप कर सकेंगे.

बंजारीलाल को अपने इलाज के दौरान और ठीक होने तक कई लोगों से बहुत समर्थन मिला. कई कैंसर रोगियों के पास बात करने के लिए कोई नहीं आता था. भले ही वे अपनी बीमारी के बारे में बातचीत करने के लिए हमेशा तैयार हों. वे स्वयं चाहते थे कि किसी को बताएं कि वे किस दौर से गुजर रहे हैं या डाक्टर के अनुसार जल्द ही उन्हें किनकिन चीजों का सामना करना पड़ेगा. बंजारीलाल के पोतेपोतियों ने वह सच्ची ईमानदारी दिखाई जो बच्चों में होती है और उस के पूरे परिवार को यह सिखाया कि उन्हीं की तरह सादगी से दूसरों की चिंताजनक स्थिति में किस प्रकार का बरताव होना चाहिए. ऐसे सादगीपूर्ण व्यवहार से ही कठिन परिस्थितियों से गुजरता इंसान अपने मन के नजरिए को बदल कर अपना जीवन बदल सकता है.

पहली बार कैंसर की विनाशकारी खबर सुनने के कुछ दिनों बाद जब बंजारीलाल की बहन का फोन आया, तो अपनी बहन की एक बात उसे विचित्र लगी. बहन ने साधारणतया कहा,“जिंदगी में जितना प्यार अब तक तुम ने महसूस न किया होगा, उतना प्यार अब मिलेगा,” बंजारीलाल इस से बिलकुल विपरीत उम्मीद कर रहा था. इसलिए उस समय उसे यह पता नहीं चला कि इस बात के क्या मायने हो सकते हैं. यहीं से उस की वह यात्रा शुरू हो गई जो हर कैंसर रोगी को करनी पड़ती है.

बंजारीलाल को अपनी बहन के कथन में तब सचाई प्रतीत हुई जब कुछ दिनों के बाद उस ने अपनी बेटी को अपनी बीमारी के निदान और आने वाली सर्जरी से अवगत कराया.

दूर शहर में रहने वाली बेटी को जब फोन पर कहा तो बेटी ने उस प्रकार के उलटे सवाल नहीं किए जैसे हम आजकल की युवा पीढ़ी से उम्मीद करते हैं. उस ने यह नहीं पूछा कि मैं क्या कर सकती हूं आप के लिए? न ही ऐसा संवेदनहीन प्रश्न किया कि क्या मेरा आना जरूरी है? न ही यह कहा कि मैं आने की कोशिश करूंगी. बल्कि तपाक से कहा कि आप चिंता मत कीजिए. मैं रास्ते पर हूं. उस ने फौरन एअरप्लेन की ही टिकट कटा ली.

अपने पति के पक्ष लेने और उस का प्रोत्साहन मिलने पर बंजारीलाल की बेटी तब तक उस के साथ रही जब तक बंजारीलाल को उस की मदद लगती रही. अपनी बेटी का साथ और उस का प्यार मिलने से बंजारीलाल को ऐसा लगा जैसे किसी बेपनाह को सहारा मिल गया हो.

अगले दिन जब बंजारीलाल ने अपने मित्र से इस बात का जिक्र किया, तो आधे घंटे में ही उस का मित्र अपना सारा कामकाज छोड़ कर दौड़ताभागता चला आया. बंजारीलाल के साथ दवा की दुकान तक भी गया, यहां तक कि जब बंजारीलाल डाक्टर से बातचीत कर रहा था, तो भी उस के साथ ही रहा कि अगर बंजारीलाल को किसी बात को समझने में असुविधा महसूस होती हो, तो वह उसे समझा दें. जब कभी बंजारीलाल को अपनी हालत के चलते रोना आ जाता, तो उस का मित्र उसे सांत्वना देता. उस के मित्र ने कैंसर के केस अपने ही घर में देखे थे, इसलिए उस ने भी डाक्टर से कई तरह के सवाल किए और बंजारीलाल से सारी बातों की जानकारी ली ताकि उसे भी यह समझने में मदद मिले कि बंजारीलाल के साथ क्या हो रहा है. अपनी बेटी और मित्र में बंजारीलाल को जैसे किसी ने कोई तोहफा उपहार में दे दिया हो. उस ने कभी सोचा भी न था कि दोनों को उस की इतनी परवाह हो सकती है.

जब शरीर तमाम तरह के भयावह, भयानक चीजों से गुजरने लगा तो एकबारगी उसे लगा कि हिम्मत जवाब दे जाएगी. लेकिन जैसेजैसे पोतेपोतियों, बेटेबेटियों और मित्रों का साथ मजबूत होने लगा, वैसेवैसे उसे समझ में आने लगा कि इन्हीं लोगों का प्यार किस प्रकार उस के जिंदा रहने के हौसले को कायम रख सकता है. इसी हौसले के चलते उसे विश्वास हो गया कि वह कैंसर जैसी चीज पर भी विजय प्राप्त कर सकेगा. लोगों के न केवल सांत्वना, बल्कि सद्भावना संदेश भी व्हाट्सऐप पर आते रहे. भोजन की तो कभी दिक्कत हुई ही नहीं. किसी के द्वारा कहा गया एक छोटा सा वाक्य भी उसे पूरे दिनभर प्रफुल्लित रखता.

सब से बड़ी पोती 12वीं कक्षा में होने के बावज़ूद कभीकभार चली आती और किताबों से कहानियां और लेख दादाजी को पढ़ कर सुनाती. बेटोंबहुओं ने दादाजी के सामने अपने बच्चों की चंचलता को दुत्कारा नहीं और उन्हें सामान्य व्यवहार ही करने दिया. यही बात बंजारीलाल को छू गई. कृत्रिम व्यवहार से या व्यवहार परिवर्तन से उसे जरूर अटपटा महसूस होता और अपने परिवार वालों से उस की दूरी बन जाती. जाने क्यों किताबों की कहानियां सुन कर उसे भी बहुत मजा आता. पढ़ने की उस की शक्ति क्षीण हो चुकी थी, शायद इसलिए भी उसे खुशी होती थी. उन के बचपन में उस ने पोतेपोतियों को बहुत कहानियां पढ़ कर सुनाईं, शायद उसी की भरपाई थी. बङी पोती ने कक्षा 8वीं से 12वीं तक की सारी हिंदी पुस्तकें पढ़ कर दादाजी को सुना दीं. कहानी और कविताएं पढ़ कर दोनों एकसाथ हंसे और रोए.

जिन व्यक्तियों से वह कभी मिला नहीं, उन्होंने भी उस के बारे में पूछा. सेवानिवृत्त हो जाने के बाद उस का एक पूर्वसहकर्मी कार्यालय के मित्रों द्वारा भेजे गए संदेश और उपहार ले कर आया. किसी ने सिर को ढंकने के लिए गरम टोपी भेजी, किसी ने प्रेरणादायक किताबें, किसी ने अगरबत्तियों के पैकेट, किसी ने मालिश वाले तेल की शीशी, किसी ने पेनड्राइव में गाने भर कर भेजे, किसी ने थरमस भेजा, किसी ने शौल और भी बहुत कुछ. उन्होंने उसे याद करने की पर्याप्त परवाह की, इसी से बंजारीलाल को जिंदादिली का अनुभव हुआ.

जरूरत के समय में सारा परिवार साथ देगा, यह कोई जरूरी नहीं है. लेकिन जिस तरह से तत्काल रूप से संपूर्ण परिवार उस के साथ हो लिया, उस से बंजारीलाल भावविह्वल हो उठा. कई अद्भुत तरीकों से उन्होंने उस का समर्थन किया और उसे प्रोत्साहित किया. सभी एकसाथ शामिल हुए. वे हर कदम पर उस के साथ थे. बेटी तो तब भी उस के साथ थी जब उस का आखिरी कीमोथेरैपी सत्र था और बेटों ने उपचार के अंत का जश्न मनाने के लिए सभी परिवार वालों को घर पर इकट्ठा कर लिया.

मंझली बहू बिना पूछे ही चली आती और घर की साफसफाई की ओर ध्यान देती. अब घर को सिर्फ नौकरानी के बल पर नहीं छोड़ा जा सकता था. पूरी प्रक्रिया के दौरान उस ने दिलासा देने वाले शब्द ही कहे, कभी भी कङवे शब्द नहीं कहे. ऐसा कुछ भी नहीं कहा जिस से बंजारीलाल स्वयं को जरा सा भी असहज महसूस करे. पड़ोसी और दोस्त तो कईयों बार खाना ले कर आए. उन के द्वारा भेजे गए फूलों के गुच्छे और अनगिनत अन्य अपरिचित कामनाएं देने वाले लोगों से उस ने स्वास्थ्य लाभ अनुभव किया. उसे ऐसा लगा कि ये सारी चीजें उसे हमेशा याद रहेंगी क्योंकि इन्हीं की वजह से उस का कठिन समय गुजर गया. ऐसे अपरिचित लोगों के बारे में सोचने से ही उस का जी कृतज्ञता से भर जाता था.

अब जब भी वह पीछे मुड़ कर देखता, तो अपनी बहन के साधारणतया कहे हुए शब्द उस के कानों में गूंजते. जिस असीम प्यार की उसे प्राप्ती हुई थी, उसी की वजह से अब तक वह जीवित था और कैंसर जैसी बीमारी से लड़ने में सक्षम हो पाया था. हां, डाक्टरों के अद्भुत उपचार और डाक्टरी सलाह तथा कई अन्य लोगों की कामनाओं ने उस की जान बचाने में मदद की, लेकिन उसे पूरा विश्वास था कि शरीर का ठीक होना संभव न हो पाता यदि उन का प्यार उस के भीतर न समा जाता. जिस प्रेम की तलाश में वह जिंदगी भर भटकता रहा, वह उसे इस प्रकार से मिलेगा, इस की उस ने कल्पना भी न की थी.

आखिरी दम तक बंजारीलाल अपने ही पैरों पर खडा रहा और अपना घर छोड़ कर किसी के घर जा कर उन पर बोझ न बना. शायद उसे मिले असीमित प्यार का यही कारण था. अपनी कठिन यात्रा के दौरान उसे जो प्रेमरूपी खजाना मिला था, उस का मूल्य सिर्फ वही जान सकता था जो उस रास्ते से गुजर रहा हो. Romantic Story In Hindi 

Samajik Kahani : मेरा राष्ट्रभाषा प्रेम

Samajik Kahani : मेरा राष्ट्रभाषा प्रेम चाहो तो आप मुझे ओल्ड फैशंड कह लो. चाहे इसे मेरा लैक औफ कान्फिडेंस मान लो पर मैं हमेशा हिंदी में ही बात करना पसंद करती हूं. इंगलिश मीडियम स्कूलों में पढ़े होने के बावजूद, ऐक्चुअली हमारे बचपन में घर का एनवायरमैंट ही बहुत पैट्रिऔटिक था. हार्ड वर्क, औनेस्टी आदि पर बहुत स्टै्रस दिया जाता था. इंडिया को नईनई फ्रीडम मिली थी. तब पैट्रिऔटिज्म तो जैसे हमारे ब्लड में ही घुला हुआ था. हाई मौरेल वैल्यूज के साथ ही हमारे पेरैंट्स इस बात के लिए भी बहुत पर्टिकुलर थे कि घर में अपनी नैशनल लैंग्वेज में ही बात की जाए, एंड यू नो, उस वक्त के पेरैंट्स कितने स्ट्रिक्ट हुआ करते थे.

मेरे ग्रैंडफादर फेमस फ्रीडमफाइटर थे और फादर आर्मी आफिसर. हमारी फैमिली में पैट्रिऔटिज्म का एक लंबा टै्रडिशन है, जो हमारे गे्रट ग्रैंडफादर तक जाता है. इस के साथ ही हमारी फैमिली बहुत आर्थोडौक्स थी. घर में सर्वेंट्स और मेड होने के बावजूद हम बच्चों की अपब्रिंगिंग हमारी मदर ने स्वयं ही की. हालांकि वे हाइली ऐजुकेटेड लेडी थीं बट उन्होंने हाउसवाइफ बन कर रहना ही प्रिफर किया. यह उन का पर्सनल डिसीजन था, फादर अथवा ग्रैंडपेरैंट्स का दबाव नहीं. कुछ भी कहो, कामकाजी महिला घरपरिवार को उतना समय नहीं दे सकती जितना कि फुलटाइम हाउसवाइफ.

हांहां, मालूम है अब उन्हें ‘होममेकर’ कहा जाता है. बात तो एक ही है. हमारी मदर ने अपनी पूरी लाइफ घर, बच्चों को ही डिवोट कर दी. वे हमसब की हैल्थ का भी भरपूर खयाल रखती थीं. घर में जंकफूड बिलकुल एलाउड नहीं था सिर्फ और सिर्फ हैल्दी फूड ही खाया जाता था. बे्रकफास्ट में हम डेली एग, मिल्क और पोरिज में से ही कुछ खाते. लंच में ट्वाइस ए वीक तो हम नौनवेज खाते थे यानी मीट, चिकन, फिश कुछ भी. हां, डिनर हम लाइट ही करते. स्नैक्स में भी फ्राइड की जगह हम फ्रैश फू्रट ही लेते.

आर्मी आफिसर की वाइफ होने से मदर एक आर्डिनरी वाइफ से ज्यादा स्मार्ट तो थीं ही, सुंदर भी बहुत थीं. अपनी गे्रसफुल फिगर, विट और इंटैलिजैंस के कारण अपने फ्रैंड्स में बहुत पापुलर थीं वे. और हम दोनों बहनों की तो आइडियल वे थीं ही.

खैर, मैं ने भी अपने बच्चों को हाई मौरेल वैल्यूज तो दी ही हैं उन्हें अपनी मदरटंग की रिस्पैक्ट करना भी सिखाया है. अलगअलग फील्ड में प्रोफैशनली क्वालीफाइड होने पर भी वे अपने घर में मदरटंग में ही बातें करते हैं. वरना आजकल तो अंगरेजी में बात करना स्टेटस सिंबल ही बन गया है. अगर आप हिंदी स्पीकिंग कैटेगरी को बिलौंग करते हैं तो आप हाई सोसाइटी में खुद को अनफिट पाते हैं. आप न तो अच्छी नौकरी ही पा सकते हैं न ही अपने फ्रैंड्स सर्कल अथवा पार्टी आदि में बोलने का आत्मविश्वास ही.

पिछले साल मैं अपनी बेटी का ऐडमिशन कराने विश्वविद्यालय गई, वहां का एनवायरमैंट देख कर तो भौचक ही रह गई. सब लड़कियों ने जीन्स और टौप ही पहन रखे थे. हेयर सब के शौर्ट, लड़की और लड़कों में भेद करना हमारे लिए डिफिकल्ट हो गया. वहां सब यों फर्राटेदार इंगलिश बोल रहे थे कि एक बार तो मु  झे लगा मैं यूरोप के किसी देश में पहुंच गई हूं, टाइम कितना चेंज हो गया है न. जब हम छोटे थे तो सलवारसूट के ऊपर दुपट्टा ओढ़ा जाता था. वह भी प्रौपरली, न कि एक शोल्डर पर रखा हुआ. आजकल तो ऐसी लड़कियों पर टौंट करते हुए उन्हें ‘बहनजी’ टाइप कहा जाता है.

जिस तरह इंगलिश स्पीकिंग कोर्स चलते हैं, इंगलिश स्पीकिंग जैसी पुस्तकें धड़ाधड़ बिकती हैं, वक्त आ गया है कि उसी लाइन पर हमें हिंदी स्पीकिंग कोर्स भी स्टार्ट करने चाहिए. देखा जाए तो हिंदी सीखना उतना मुश्किल है भी नहीं. अंगरेजी के मुकाबले में तो बहुत इजी है. ग्रामर के फिक्स्ड नियम हैं. कोई भी साइलैंट लैटर नहीं, उच्चारण एकदम सहज. स्पीकिंग एंड राइटिंग एकदम सेम. जैसा बोलते हो ज्यों का त्यों लिख डालो. शौर्ट में यह कि अगर आप करैक्टवे में बोलते हैं तो करैक्ट ही सीखोगे भी. सो सिंपल. हमें चाहिए कि हम हिंदी को ज्यादा से ज्यादा प्रौपोगेट करें. अगर हम हिंदी में बोलेंगे तो सामने वाला हिंदी में जवाब देने को ओबलाइज्ड भी रहेगा, और इस से हमारी हिंदी की लोकप्रियता बढ़ेगी.

मैं ने देशविदेश में बहुत टै्रवल किया है. दुनिया भर में लोगों को अपनी राष्ट्रभाषा में ही बोलते पाया है. चाहे वह जरमनी, जापान हो या फ्रांस, रशिया या ईरान. वहां के प्रोफैशनल कालेजों में भी अपनी भाषा में पढ़ाई कराई जाती है. बीजिंग ओलिंपिक का तो उद्घाटन समारोह ही चीनी भाषा में कंडक्ट किया गया था. हमारा देश होता तो हिंदी का एक वर्ड भी सुनने को नहीं मिलता आप को. अगर वे लोग अपनी लैंग्वेज बोलने में इतना गर्व फील कर सकते हैं तो हम क्यों हिंदी को पीछे पुश करते जा रहे हैं? किसी से कम है क्या हमारी लैंग्वेज? कितना धनी है हमारा लिटरेचर. ढेर सारे क्षेत्रीय भाषाओं के अनुवाद मिला कर तो हिंदी और भी रिच हो जाती है. हमें तो प्राउड फील करना चाहिए अपने रिच हैरिटेज पर. अपनी प्राचीन सिविलाइजेशन और कल्चर पर.

जी हां, बहुत प्रेम है मु  झे अपनी राष्ट्रभाषा से. तभी तो मैं हमेशा हिंदी में ही बोलतीलिखती हूं. आप को कुछ शक है मेरी हिंदी पर. पर आजकल तो हिंदी ऐसे ही बोली जाती है न. यकीन नहीं हो रहा तो अपने कान खुले रख कर कहीं भी बैठ जाओ, जो लोग अंगरेजी बोल रहे हैं तो वे तो अंगरेजी ही बोल रहे हैं पर जो लोग तथाकथित हिंदी में बातचीत कर रहे हैं उन्हें सुनो, व्याकरण हिंदी की, वाक्य संरचना हिंदी की पर मुख्य शब्द अंगरेजी के होंगे. मसलन, लास्ट वीक हम अपने कजिन की मैरिज अटेंड करने जयपुर गए थे. मित्रमंडली में, ब्याहशादी में, पार्टी में यही भाषा चलती है. जो व्यक्ति जितना पढ़ालिखा होगा उस की बोलचाल की भाषा में अंगरेजी के शब्दों का योगदान भी उतना अधिक होगा. निपट गंवार ही होगा जो शुद्ध हिंदी में बात करेगा. ‘टाइम क्या है?’ की जगह पूछेगा ‘समय क्या हुआ है?’

मेरे विचार से यह भाषा का निरादर है. क्या वे यह कहना चाहते हैं कि इन शब्दों का हिंदी रूपांतर है ही नहीं? अथवा वह कर्ण मधुर नहीं? शायद उन्हें लगता है कि अंगरेजी शब्दों का प्रयोग नहीं करेंगे तो लोग हमें अनपढ़ सम  झेंगे? तकनीकी अथवा प्रौद्योगिक शब्दों के लिए कभी अंगरेजी शब्दों का सहारा लेना भी पड़ सकता है. दरअसल, हर जीवंत भाषा अपने में दूसरी भाषाओं के शब्द समेटती चलती है पर हिंदी में उपलब्ध शब्दों के बदले अंगरेजी शब्दों का प्रयोग हास्यास्पद ही लगता है.

आप किसी के घर भोजन पर आमंत्रित हैं और गृहिणी आप से मनुहार कर रही है, ‘राइस तो आप ने लिए नहीं, कर्ड भी लीजिए न.’ भई, पुलाव और दही कहने में क्यों शर्म आती है, पर नहीं साहब, आप को पता कैसे चलेगा कि उन्हें अंगरेजी भाषा का भी ज्ञान है. आधुनिकता के नाम पर अंगरेजी शब्दों का प्रयोग पढ़ालिखा होने का प्रमाणपत्र ही बन गया है. आजकल यदि हम कभी हिंदी में स्वयं को व्यक्त नहीं कर पाते तो दोष भाषा का नहीं हमारे सीमित ज्ञान का है.

हमारी एक परिचिता हिंदी की अध्यापिका हैं. उच्च कक्षाओं में हिंदी पढ़ाती हैं पर आप की हर बात का उत्तर वे अंगरेजी में ही देने का प्रयत्न करेंगी चाहे टांगटूटी अंगरेजी बोलें क्योंकि कहीं आप यह न सम  झ लें कि वे अंगरेजी बोलना नहीं जानतीं.

किसी कवि की उक्ति याद आ रही है :

‘कितने शहरी हो गए

लोगों के जज्बात

हिंदी भी करने लगी

अंगरेजी में बात.’

हम क्यों हिंदी बोलने में हीनता का अनुभव करते हैं? यह खिचड़ी भाषा भी तो यही हीनता ही दर्शाती है? इतना व्यापक हो चुका है इस खिचड़ी भाषा का प्रभाव कि यदि मैं अपनी अंगूठाछाप काम वाली बाई से कहूं कि ‘प्याला मेज पर रख दो’ तो वह असमंजस में खड़ी मेरा मुंह ताकती है और सम  झाने पर हैरान हो कहती है, ‘कप टेबल पर रखने को बोलो न?’ वह लाइट को ‘लेट’ और चांस को ‘चानस’ भले ही कहे पर अंगरेजी शब्द उस की अनपढ़ बुद्धि में भी घुसपैठ कर चुके हैं अच्छी तरह से.

कहां पहुंचा दिया है हम ने हिंदी को? ध्यान रहे, अंगरेजी शब्द को नागरी में लिख देने मात्र से ही वे हिंदी के शब्द नहीं बन जाते. केवल अंगरेजी ही क्यों, आप जितनी भाषाएं सीख सकते हैं सीखिए, पर अपनी भाषा में अंगरेजी भाषा के शब्द घुसेड़ने का हक आप को कतई नहीं है. Samajik Kahani

Parivarik Kahani : कशमकश – सीमा के चेहरे से मुस्कान क्यों गायब हो गई थी ?

Parivarik Kahani : ‘‘वाहभई, मजा आ गया… भाभी के हाथों में तो जैसे जादू की छड़ी है… बस खाने पर घुमा देती हैं और खाने वाला समझ ही नहीं पाता कि खाना खाए या अपनी उंगलियां चाटे,’’ मयंक ने 2-4 कौर खाते ही हमेशा की तरह खाने की तारीफ शुरू कर दी तो रसोई में फुलके सेंकती सीमा भाभी के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई.

पास ही खड़ी महिमा के भीतर कुछ दरक सा गया, मगर उस ने हमेशा की तरह दर्द की उन किरचों को आंखों का रास्ता नहीं दिखाया, दिल में उतार लिया.

‘‘अरे भाभी, महिमा को भी कुछ बनाना सिखा दो न… रोजरोज की सादी रोटीसब्जी से हम ऊब गए… बच्चे तो हर तीसरे दिन होटल की तरफ भागते हैं,’’ मयंक ने अपनी बात आगे बढ़ाई तो लाख रोकने की कोशिशों के बावजूद महिमा की पलकें नम हो आईं.

इस के पास कहां इतना टाइम होता है जो रसोई में खपे… एक ही काम होगा… या तो कलम पकड़ लो या फिर चकलाबेलन… सीमा की चहक में छिपे व्यंग्यबाण महिमा को बेंध गए, मगर बात तो सच ही थी, भले कड़वी सही.

महिमा एक कामकाजी महिला है. सरकारी स्कूल में अध्यापिका महिमा को मलाल रहता है कि वह आम गृहिणियों की तरह अपने घर को वक्त नहीं दे पाती. ऐसा नहीं है कि उसे अच्छा खाना बनाना नहीं आता, मगर सुबह उस के पास टाइम नहीं होता और शाम को वह थक कर इतनी चूर हो चुकी होती है कि कुछ ऐक्स्ट्रा बनाने की सोच भी नहीं पाती.

महिमा सुबह 5 बजे उठती है. सब का नाश्ता, खाना बना कर 8 बजे तक स्कूल पहुंचती है. दोपहर 3 बजे तक स्कूल में व्यस्त रहती है. उस के बाद घर आतेआते इतनी थक जाती है कि यदि घंटाभर आराम न करे तो रात तक चिड़चिड़ाहट बनी रहती है. रात को रसोई समेटतेसमटते 11 बज जाते हैं. अगले दिन फिर वही दिनचर्या.

इतनी व्यस्तता के बाद महिमा चाह कर भी सप्ताह के 6 दिन पति या बच्चों की खाने, नाश्ते की फरमाइशें पूरी नहीं कर पाती. एक रविवार का दिन उसे छुट्टी के रूप में मिलता है, मगर यह एक दिन बाकी 6 दिनों पर भारी पड़ता है. सब से पहले तो वह खुद ही इस दिन थोड़ा देर से उठती. फिर सप्ताह भर के कल पर टलने वालेकाम भी इसी दिन निबटाने होते हैं. मिलनेजुलने वाले दोस्तरिश्तेदार भी इसी रविवार की बाट जोहते हैं. इस तरह रविवार का दिन मुट्ठी में से पानी की तरह फिसल जाता है.

क्या करे महिमा… अपनी ग्लानि मिटाने के लिए वह बच्चों को हर रविवार होटल में खाने की छूट दे देती है. धीरेधीरे बच्चों को भी इस आजादी और रूटीन की आदत सी हो गई है.

महिमा महसूस करती है कि उस का घर सीमा भाभी के घर की तरह हर वक्त सजासंवरा नहीं दिखता. घर के सामान पर धूलमिट्टी की परत भी दिख जाती है. कई बार छोटेछोटे मकड़ी के जाले भी नजर आ जाते हैं. इधरउधर बिखरे कपड़े और जूते तो रोज की बात है. लौबी में रखी डाइनिंगटेबल भी खाने के कम, बच्चों की किताबों, स्कूल बैग, हैलमेट आदि रखने के ज्यादा काम आती है.

कई बार जब महिमा झुंझला कर साफसफाई में जुट जाती है, तो बच्चे पूछ बैठते हैं, ‘‘आज अचानक यह सफाई का बुखार कैसे चढ़ गया? कोई आने वाला है क्या?’’ तब वह और भी खिसिया जाती.

हालांकि महिमा ने अपनी मदद के लिए कमला को रखा हुआ है, मगर वह उस के स्कूल जाने के बाद आती है, इसलिए जो जैसा कर जाती है उसी में संतुष्ट होना पड़ता है.

स्कूल में आत्मविश्वास से भरी दिखने वाली महिमा भीतर ही भीतर अपना आत्मविश्वास खोती जा रही थी. यदाकदा अपनी तुलना सीमा भाभी से करने लगती कि कितने आराम से रहती हैं सीमा भाभी. घर भी एकदम करीने से सजा हुआ… अच्छे खाने से पतिबच्चे भी खुश.

दिन में 2-3 घंटे एसी की ठंडी हवा में आराम… और एक मैं हूं…. चाहे हजारों रुपए महीना कमाती हूं… कभी अपने पैसे का रोब नहीं झाड़ती… जेठानी के सामने हमेशा देवरानी ही बनी रहती हूं… कभी भी रानी बनने का गरूर नहीं दिखाती… फिर भी मयंक ने कभी मेरी काबिलियत पर गर्व नहीं किया. बच्चे भी अपनी ताई के ही गुण गाते रहते हैं.

वैसे देखा जाए तो वे सब भी कहां गलत हैं. कहते हैं कि दिल तक पहुंचने का रास्ता पेट से हो कर गुजरता है. मगर मैं कहां इन दूरियों को तय कर पाई हूं… जल्दीजल्दी जो कुछ बना पाती हूं बस बना देती हूं. एक सा नाश्ता और खाना खाखा कर बेचारे ऊब जाते होंगे… कैसी मां और पत्नी हूं… अपने परिवार तक को खुश नहीं रख पाती… महिमा खुद को कोसने लगती और फिर अवसाद के दलदल में थोड़ा और गहरे धंस जाती.

क्या करूं? क्या इतनी मेहनत से लगी नौकरी छोड़ दूं? मगर अब यह सिर्फ नौकरी कहां रही… यह तो मेरी पहचान बन चुकी है. स्कूल के बच्चे जब मुझे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं. उन के अभिभावक बच्चों के सामने मेरा उदाहरण देते हैं तो वे कितने गर्व के पल होते हैं… वह अनमोल खुशी को क्या सिर्फ इतनी सी बात के लिए गंवा दूं कि पति और बच्चों को उन का मनपसंद खाना खिला सकूं. महिमा अकसर खुद से ही सवालजवाब करने लगती, मगर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाती.

इसी बीच महिमा की स्कूल में गरमी की छुट्टियां हो गईं. उस ने तय कर लिया कि इन पूरी छुट्टियों में वह सब की शिकायतें दूर करने की कोशिश करेगी. सब का मनपसंद खाना बनाएगी. नईनई डिशेज बनाना सीखेगी… घर को एकदम साफसुथरा और सजा कर रखेगी…

छुट्टी का पहला दिन. नाश्ते में गरमगरम आलू के परांठे देखते ही सब के चेहरे खिल उठे. भूख से अधिक ही खा लिए सब ने. उन्हें संतुष्ट देख कर महिमा का दिल भी खुश हो गया. मयंक टिफिन ले कर औफिस निकल गया और बच्चे कोचिंग क्लास. महिमा घर को समेटने में जुट गई.

दोपहर ढलतेढलते पूरा घर चमक उठा. लगा मानो दीवाली आने वाली है. मयंक और बच्चे घर लौट आए. आते ही बच्चों ने अपनी किताबें और बैग व मयंक ने अपनी फाइलें और हैलमेट लापरवाही से डाइनिंगटेबल पर पटक दिया. महिमा का मूड उखड़ गया, मगर उस ने एक लंबी सास ली और सारा सामान यथास्थान पर रख कर डाइनिंगटेबल फिर से सैट कर दी.

महिमा ने रात के खाने में भी 2 मसालेदार सब्जियों के अलावा रायता और सूजी का हलवा भी बनाया. सजी डाइनिंगटेबल देख कर मयंक और बच्चे खुश हो गए. उन्हें खुश देख कर महिमा भी खुश हो उठी.

अब रोज यही होने लगा. नाश्ते में अकसर मैदा, बेसन, आलू और अधिक तेलमिर्च मसाले का इस्तेमाल होता था. रात में भी महिमा कई तरह के व्यंजन बनाती थी. अधिक वैरायटी बनाने के चक्कर में अकसर रात का खाना लेट हो जाता था और गरिष्ठ होने के कारण ठीक से हजम भी नहीं हो पाता था.

अभी 15 दिन भी नहीं बीते थे कि मयंक ने ऐसिडिटी की शिकायत की. रातभर खट्टी डकारों और सीने में जलन से परेशान रहा. सुबह डाक्टर को दिखाया तो उस ने सादे खाने और कई तरह के दूसरे परहेज बताने के साथसाथ क्व2 हजार का दवाओं का बिल थमा दिया.

दूसरी तरफ घर को साफसुथरा और व्यवस्थित रखने के प्रयास में बच्चों की आजादी छिनती जा रही थी. महिमा उन्हें हर वक्त टोकती रहती कि इस्तेमाल करने के बाद अपना सामान प्रौपर जगह पर रखें. मगर बरसों की आदत भला एक दिन में छूटती है और फिर वैसे भी अपना घर इसीलिए तो बनाया जाता है ताकि वहां अपनी मनमरजी से अपने तरीके से रहा जाए. मां की टोकाटाकी से बच्चे घर वाली फीलिंग के लिए तरसने लगे, क्योंकि घर अब होटल की तरह लगने लगा था.

घर को संवारने और सब को मनपसंद खाना खिलाने की कवायद में महिमा पूरा दिन उलझी रहने लगी. हर वक्त कोई न कोई नई डिश या नया आइडिया उस के दिमाग में पकता रहता. साफसफाई के लिए भी दिन भर परेशान होती, कभी कमला पर झल्लाती तो कभी बच्चों को टोकती. नतीजन, एक दिन रसोई में खड़ीखड़ी महिमा गश खा कर गिर पड़ी. मयंक ने उसे उठा कर बिस्तर में लिटाया. बेटे ने तुरंत डाक्टर को फोन किया.

चैकअप करने के बाद पता चला कि महिमा का बीपी बहुत ज्यादा बढ़ा हुआ है. डाक्टर ने आराम करने की सलाह के साथसाथ मसालेदार, ज्यादा घी व तेल वाले खाने से परहेज करने की सलाह दी. साथ ही लंबाचौड़ा बिल थमाया वह अलग.

‘‘सौरी मयंक मैं एक अच्छी पत्नी और मां की कसौटी पर खरी नहीं उतर सकी,’’ महिमा ने मायूसी से कहा.

‘‘पगली यह तुम से किस ने कहा? तुम ने तो हमेशा अपनी जिम्मेदारियां पूरी शिद्दत के साथ निभाई है. मुझे गर्व है तुम पर,’’ मयंक ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘तो फिर वे हमेशा सीमा भाभी की तारीफें… वह सब क्या है?’’ महिमा ने संशय से पूछा.

‘‘अरे बावली, तुम भी गजब करती हो… पता नहीं किस आसमान तक अपनी सोच के घोड़े दौड़ा लेती हो,’’ मयंक ने ठहाका लगाते हुए कहा. महिमा अचरज के भाव लिए मुंह खोले उसे देख रही थी.

जब हमारी सगाई हुई थी उस के बाद से ही सीमा भाभी के व्यवहार में परिवर्तन नजर आने लगा था. उन्हें लगने लगा था कि नौकरीपेशा बहू आने के बाद घर में उन की अहमियत कम हो जाएगी. यह भी हो सकता है कि तुम उन पर अपने पैसे का रोब दिखाओ.

बातबात में उन की तारीफ करते हैं ताकि वे किसी हीनभावना से ग्रस्त न हो जाएं. मगर इस सारे गणित में अनजाने में ही सही, हम से तुम्हारा पक्ष नजरअंदाज होता रहा. हम सब तुम्हारे गुनाहगार हैं,’’ मयंक ने शर्मिंदा होते हुए अपने कान पकड़ लिए.

यह देख महिमा खिलखिला पड़ी, ‘‘तो अब सजा तो आप को मिलेगी ही… आप सब को अगले 20 दिन और इसी तरह का चटपटा और मसालेदार खाना खाना पड़ेगा.’’

‘‘न बाबा न… इतनी बड़ी सजा नहीं… हमें तो वही सादी रोटीसब्जी चाहिए ताकि हमारा पेट भी हैप्पी रहे और जेब भी. क्यों बच्चो?’’ मयंक ने नाटकीयता से कहा. अब तक बच्चे भी वहां आ चुके थे.

‘‘ठीक है, मगर सप्ताह में एक दिन तो होटल जाने दोगे और हमें अपनी मनपसंद डिशेज खाने दोगे न?’’ दोनों बच्चे एकसाथ चिल्लाए तो महिमा के होंठों पर भी मुसकराहट तैर गई. Parivarik Kahani

Social Story In Hindi : सावित्री और सत्य

Social Story In Hindi : सावित्री को नींद नहीं आ रही थी. अभी पिछले साल ही उस के पति की मौत हुई थी. उस की शादीशुदा जिंदगी का सुख महज एक साल का था. सावित्री ससुराल में ही रह रही थी. उस का पति ही बूढ़े सासससुर की एकलौती औलाद था. ससुराल और मायका दोनों ही पैसे वाले थे. सावित्री अपने मायके में 4 बच्चों में सब से छोटी और एकलौती लड़की थी. मांबाप और भाइयों की दुलारी…

मैट्रिक पास होते ही सावित्री की शादी हो गई थी. पति की मौत के बाद उस का बापू उसे लेने आया था, पर वह मायके नहीं गई. उस ने बापू से कहा था कि आप के तो 3 बच्चे और हैं, पर मेरे सासससुर का तो कोई नहीं है. पहाड़ी की तराई में एक गांव में सावित्री का ससुराल था. गांव तो ज्यादा बड़ा नहीं था, फिर भी सभी खुशहाल थे. उस के ससुर उस इलाके के सब से धनी और रसूखदार शख्स थे. वे गांव के सरपंच भी थे. पहाडि़यों पर रात में ठंडक रहती ही है. थोड़ी देर पहले ही बारिश रुकी थी. सावित्री कंबल ओढ़े लेटी थी, तभी अचानक ही जोर के धमाके की आवाज से वह चौंक पड़ी थी. वह बिस्तर से नीचे उतर आई. शाल से अपने को ढकते हुए बगल में सास के कमरे में गई. वहां उस ने देखा कि सासससुर दोनों ही जोरदार धमाके की आवाज से जाग गए थे. उस के ससुर स्वैटर पहन कर टौर्च व छड़ी उठा कर बाहर जाने के लिए निकलने लगे, तो सावित्री ने कहा, ‘‘बाबूजी, मैं आप को रात में अकेले नहीं जाने दूंगी. मैं भी आप के साथ चलूंगी.’’

काफी मना मरने के बावजूद सावित्री भी उन के साथ चल पड़ी थी. जब सावित्री बाहर निकली, तो थोड़ी दूरी पर ही खेतों के बीच उस ने आग की ऊंची लपटें देखीं. गांव के कुछ और लोग भी धमाके की आवाज सुन कर जमा हो चुके थे. करीब जाने पर देखा कि एक छोटे हवाईजहाज के टुकड़े इधरउधर जल रहे थे. लपटें काफी ऊंची और तेज थीं. किसी में पास जाने की हिम्मत नहीं थी. देखने से लग रहा था कि सबकुछ जल कर राख हो चुका है. तभी सावित्री की नजर मलबे से दूर पड़े किसी शख्स पर गई, जिस के हाथपैरों में कुछ हरकत हो रही थी. वह अपने ससुर के साथ उस के नजदीक गई. कुछ और लोग भी साथ हो लिए थे. उस नौजवान का चेहरा जलने से काला हो गया था. हाथपैरों पर भी जलने के निशान थे. वह बेहोश पड़ा था, पर रहरह कर अपने हाथपैर हिला रहा था. तभी एक गांव वाले ने उस की नब्ज देखी और फिर नाक के पास हाथ ले जा कर सावित्री के ससुर से बोला, ‘‘सरपंचजी, इस की सांसें चल रही हैं. यह अभी जिंदा है, पर इस की हालत नाजुक दिखती है. इस को तुरंत इलाज की जरूरत है.’’ सरपंच ने कहा, ‘‘हां, इसे जल्द ही अस्पताल ले जाना होगा. प्रशासन को अभी इस की सूचना भी शायद न मिली हो. सूचना मिलने के बाद भी सुबह के पहले यहां पर किसी के आने की उम्मीद नहीं है. तुम में से कोई मेरी मदद करो. मेरा ट्रैक्टर ले कर आओ. इसे शहर के अस्पताल ले चलते हैं.’’

थोड़ी देर में ही 2-3 नौजवान ट्रैक्टर ले कर आ गए थे. उस घायल नौजवान को ट्रैक्टर से ही शहर के बड़े अस्पताल ले गए. सावित्री भी सरपंचजी के साथ शहर तक गई थी. अस्पताल में डाक्टर ने देख कर कहा कि हालत नाजुक है. पुलिस को भी सूचित करना होगा. यह काम सरपंच ने खुद किया और डाक्टर को तुरंत इलाज शुरू करने को कहा. इमर्जैंसी वार्ड में चैकअप करने के बाद डाक्टर ने उसे इलाज के लिए आईसीयू में भेज दिया. पर उस शख्स के पास से कोई पहचानपत्र या बोर्डिंग पास भी नहीं मिला. हादसे की जगह के पास से एक बुरी तरह जला हुआ पर्स मिला था. उस पर्स में ऐसा कुछ भी सुबूत नहीं मिला था, जिस से उस की पहचान हो सके. डाक्टर ने इलाज तो शुरू कर दिया था. सरपंचजी खुद गारंटर बने थे यानी इलाज का खर्च उन्हें ही उठाना था. सुबह होते ही इस हादसे की खबर रेडियो और टैलीविजन पर फैल चुकी थी.

पुलिस भी आ गई थी. पुलिस को सारी बात बता कर उस की सहमति ले कर सरपंचजी अपनी बहू सावित्री के साथ अपने घर लौट आए थे. शहर के एयरपोर्ट पर अफरातफरी का सा माहौल था. एयरपोर्ट शहर से 20 किलोमीटर दूर और गांव की विपरीत दिशा में था. लोग उस उड़ान से आने वाले अपने रिश्तेदारों का हाल जानने के लिए बेचैन थे. एयरलाइंस के मुलाजिमों ने तो सभी सवारियों और हवाईजहाज के मुलाजिमों की लिस्ट लगा रखी थी, जिस में सब को ही मरा ऐलान किया गया था. थोड़ी ही देर में टैलीविजन पर एक ब्रेकिंग न्यूज आई कि एक मुसाफिर इस हादसे में बच गया है, जिस की हालत नाजुक है, पर उस की पहचान नहीं हो सकी है. सब के मन में उम्मीद की एक किरण जग रही थी कि शायद वह उन्हीं का सगा हो. अस्पताल में भीड़ उमड़ पड़ी थी. डाक्टर ने कहा कि अभी वह वैंटिलेटर पर है और हालत नाजुक है. मरीज के पास तो अभी कोई नहीं जा सकता है, उसे सिर्फ बाहर से शीशे से देखा जा सकता है. लोग बाहर से ही उस को देख कर पहचानने की कोशिश कर रहे थे, पर यह मुमकिन नहीं था. उस का चेहरा काफी जला हुआ था. उस पर दवा का लेप भी लगा था.

इधर सरपंच रोज सुबह अस्पताल आते थे, अकसर सावित्री भी साथ होती थी. वह उन को अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी, क्योंकि सरपंच खुद दिल के मरीज थे. कुछ दिनों के बाद डाक्टर ने सरपंच से कहा, ‘‘मरीज खतरे से बाहर तो है, पर वह कोमा में जा चुका है. कोमा से बाहर निकलने में कितना समय लगेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता है. कुछ ही दिनों में उसे आईसीयू से निकाल कर स्पैशल वार्ड में भेज देंगे.

‘‘दूसरी बात यह कि उस का चेहरा बहुत खराब हो चुका है. अगर वह कोमा से बाहर भी आता है, तो आईने में अपनेआप को देख कर उसे गहरा सदमा लगेगा.’’

सरपंच ने पूछा, ‘‘तो इस का इलाज क्या है?’’

डाक्टर बोला, ‘‘उस के चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करनी होगी, पर इस में काफी खर्च होगा. अभी तक के इलाज का खर्च तो आप देते आए हैं.’’

सरपंच ने कहा, ‘‘आप पैसे की चिंता न करें. अगर यह ठीक हो जाता है, तो मैं समझूंगा कि मेरा बेटा मुझे दोबारा मिल गया है.’’ कुछ दिनों के बाद उस मरीज को स्पैशल वार्ड में शिफ्ट किया गया था. वहां उस की देखभाल दिन में तो अकसर सावित्री ही किया करती थी, लेकिन रात में सरपंच के कहने पर गांव से भी कोई न कोई आ जाता था. तकरीबन 2 महीने बाद उस की प्लास्टिक सर्जरी भी हुई. उस आदमी को नया चेहरा मिल गया था. इसी बीच सरपंच के ट्रैक्टर की ट्रौली पर एक बैल्ट मिली. हादसे के बाद उस नौजवान को इसी ट्रौली से अस्पताल पहुंचाया गया था. शायद किसी ने उसे आराम पहुंचाने के लिए बैल्ट निकाल कर ट्रौली के एक कोने में रख दी थी, जिस पर अब तक किसी की नजर नहीं पड़ी थी. बैल्ट पर 2 शब्द खुदे थे एसके. उस बैल्ट को देख कर सरपंच को लगा कि उस आदमी की पहचान में यह एक अहम कड़ी साबित हो.

इस की सूचना उन्होंने पुलिस को दे दी. साथ ही, लोकल टैलीविजन चैनल और रेडियो पर भी इसे प्रसारित किया गया. अगले ही दिन एक बुजुर्ग दंपती उसे देखने अस्पताल आए थे. उन का शहर में काफी बड़ा कारोबार था, पर चेहरा बदल जाने के चलते वे उसे पहचान नहीं पा रहे थे. बैल्ट भी पुलिस को दे दी गई थी. वहां पर उन्होंने सावित्री को देखा, जो मन लगा कर मरीज की सेवा कर रही थी. अस्पताल से निकल कर वे सीधे पुलिस स्टेशन गए और वहां उस बैल्ट को देख कर कहा कि ऐसी ही एक बैल्ट उन के बेटे की भी थी, जिस पर एसके लिखा था. यह बैल्ट जानबूझ कर उन के बेटे ने खरीदी थी, क्योंकि एसके उस के नाम ‘सत्य कुमार’ से मिलती थी. फिर भी संतुष्ट हुए बिना उसे अपना बेटा मानने में कुछ ठीक नहीं लग रहा था. फिलहाल वे अपने घर लौट गए थे. पर सरपंच का मन कह रहा था कि यह सत्य कुमार ही है.

तकरीबन एक महीना गुजर चुका था. सरपंच और सावित्री दोनों ही सत्य कुमार की देखभाल कर रहे थे. एक दिन अचानक सावित्री ने देखा कि सत्य कुमार के होंठ फड़फड़ा रहे थे और हाथ से कुछ इशारा कर रहा था. उस ने तुरंत डाक्टर को यह बात कही. डाक्टर ने कहा कि दवा अपना काम कर रही है और उन्हें पूरी उम्मीद है कि अब वह बिलकुल ठीक हो जाएगा. कुछ दिन बाद सावित्री उसे जब अपने हाथ से खाना खिला रही थी, सत्य कुमार ने उस का हाथ पकड़ कर कुछ बोलने की कोशिश की थी. उसी शाम जब सावित्री अपने घर जाने के लिए उठी, तो सत्य कुमार ने उस का हाथ पकड़ कर बहुत कोशिश के बाद लड़खड़ाती जबान में बोला, ‘‘रुको, मैं यहां कैसे आया हूं? मैं तो हवाईजहाज में था. मैं तो कारोबार के सिलसिले में बाहर गया हुआ था.’’ फिर अपने बारे में उस ने कुछ जानकारी दी थी. सरपंच और सावित्री दोनों की खुशी का ठिकाना न था. उन्होंने डाक्टर को बुलाया. डाक्टर ने उसे चैक कर कहा, ‘‘मुबारक हो. अब यह होश में आ गया है. इस के मातापिता को सूचना दे दें.’’ सावित्री और सरपंच अस्पताल में ही रुक कर सत्य कुमार के मातापिता का इंतजार कर रहे थे. वे लोग भी

खबर मिलते ही दौड़े आए थे. सत्य कुमार ने अपने मातापिता को पहचान लिया था और हादसे के पहले तक की बात बताई. उस के बाद का उसे कुछ याद नहीं था. सत्य कुमार के पिता ने सरपंच और सावित्री का शुक्रिया अदा करते हुए कहा, ‘‘आप के उपकार के लिए हम लोग हमेशा कर्जदार रहेंगे. यह लड़की आप की बेटी है न?’’

सरपंच बोले, ‘‘मेरे लिए तो बेटी से भी बढ़ कर है. है तो मेरी बहू, पर शादी के एक साल के अंदर ही मेरा एकलौता बेटा हम लोगों को अकेला छोड़ कर चला गया, पर सावित्री ने हमारा साथ नहीं छोड़ा.

‘‘मैं तो चाहता था कि यह अपने मांबाप के पास चली जाए और दूसरी शादी कर ले, पर यह तैयार नहीं थी.’’

सत्य कुमार के पिता ने कहा, ‘‘अगर आप को कोई एतराज नहीं है, तो मैं सावित्री को अपनी बहू बनाने को तैयार हूं, क्यों सत्य कुमार? ठीक रहेगा न?’’ सत्य कुमार ने सहमति में सिर हिला कर अपनी हामी भर दी थी. फिर सेठजी ने सत्य कुमार की मां की ओर देख कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘अरे सेठानी, तुम भी तो कुछ कहो.’’ सेठानी बोलीं, ‘‘आप लोगों ने तो मेरे मुंह की बात छीन ली है. मेरे बोलने को कुछ बचा ही नहीं है.’’

फिर वे सावित्री की ओर देख कर बोलीं, ‘‘तुम्हें कोई एतराज तो नहीं है?’’

सावित्री की आंखों से आंसू की कुछ बूंदें छलक कर उस के गालों पर आ गई थीं. वह बोली, ‘‘मैं आप लोगों की भावनाओं का सम्मान करती हूं, पर मैं अपने सासससुर को अकेला छोड़ कर नहीं जा सकती.’’ सरपंच ने सावित्री को समझाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें एतराज नहीं होना चाहिए, क्योंकि हम सभी लोगों की खुशी इसी में है. और हम लोगों को अब जीना ही कितने दिन है, जबकि तुम्हारी सारी जिंदगी आगे पड़ी है.’’ सेठजी ने भी सरपंच की बातों को सही ठहराते हुए कहा, ‘‘तुम जब भी चाहो और जितने दिन चाहो, सरपंचजी के यहां बीचबीच में आती रहना.’’ सावित्री सेठजी से बोली, ‘‘सत्यजी को आप ने जन्म दिया है और बाबूजी ने इन्हें दोबारा जन्म दिया है, तो इन की भी तो कुछ जिम्मेदारी बनती है मेरे ससुरजी के लिए.’’

सेठजी बोले, ‘‘मैं मानता हूं और मेरा बेटा भी इतनी समझ रखता है. सत्य कुमार को तो 2-2 पिताओं का प्यार मिलेगा. सत्य कुमार सरपंचजी का उतना ही खयाल रखेगा, जितना वह हमारा रखता है.’’ सावित्री और सत्य दोनों एकदूसरे को देख रहे थे. उन लोगों की बातें सुन कर वह कुछ संतुष्ट लग रही थी. उस दिन सारी रात लोगों ने अस्पताल में ही बिताई थी. सावित्री के मायके में भी सरपंच ने यह बात बता दी थी. सभी को यह रिश्ता मंजूर था. सरपंच ने धूमधाम से अपने घर से ही सावित्री की शादी की थी. Social Story In Hindi

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