Online Hindi Story : “सुनो, आप ने मांजी से बात की, आज भी पापा का फोन आया था, बहुत परेशान हो रहे थे.”
“मैं तो बिलकुल ही भूल गया…अच्छा हुआ तुम ने याद दिला दिया.”
“कितना मुश्किल होता होगा, पापा के लिए 2-2 बेटे हैं, पर साथ में कोई रखना नहीं चाहता. मां के जाने के बाद पापा वैसे भी अकेले हो गए हैं, अब तो उन्हें साथ की जरूरत है, लेकिन यहां तो कोई बात समझने को तैयार ही नहीं है, पापा से कुछ कहो, तो वे गांव जाने के लिए कहते रहते हैं. अब वहां कौन हैं, जो उन का ध्यान रखेगा, पिछली बार जब गए थे, तो शुगर कितनी बढ़ गई थी, हौस्पिटल में ऐडमिट करवाना पड़ा था. पता नहीं, उम्र बढ़ने के बाद सब बच्चे क्यों बन जाते हैं,” सोनाली अपनेआप ही परिस्थिति का विष्लेषण कर रही थी.”
“क्या हुआ, क्या सोच रही हो, कह तो रहा हूं, कल पक्का बात कर लूंगा.”
“कैसे होगा, दोनों ही जिद्दी हैं, आसानी से बात नहीं मानेंगे, पापा से बात करो तो वे संस्कृति और संस्कारों की दुहाई देने लगते है. हमारे यहां तो बेटी के घर का पानी भी नहीं पीते, बेटियां तो पराया धन होती हैं, उन के घर बारबार आना अच्छा नहीं लगता और मांजी…वे तो मेरे मायके का जिक्र आते ही चिढ़ जाती हैं.”
“न मैं भैया के घर रह सकती हूं और न ही पापा हमारे घर आ कर रह सकते हैं…अजीब मुश्किल हैं,”सोनाली अपनी रौ में बोलती जा रही थी.
सोनाली,“उन की बात अपनी जगह सही है, अब यह पुराने रीतिरिवाज आसानी से पीछा कहां छोड़ते हैं.”
“मैं आप से अपनी परेशानी का हल मांग रही हूं और आप हैं कि मुझे और परेशान किए जा रहे हो,” कहतेकहते सोनाली रुआंसी हो गई.”
“यह तुम्हारा बढ़िया है, कुछ न भी कहो तो भी रोना शुरू कर के मुझे मुजरिम बना देती हो. अब तुम ही बता दो कि मुझे क्या करना है.”
“एक बार आप बात कर के देखो, आप कहोगे तो पापा मना नहीं कर पाएंगे,” कहते हुए सोनाली के चेहरे पर मुसकान फैल गई.
“यह तो है, मैं कहूंगा तो शायद मना नहीं कर पाएंगे. पर मैं एक बात और सोच रहा हूं. मां को कैसे मनाया जाए? मां भी तो पुराने विचारों वाली है और ऊपर से उन का स्वभाव भी थोड़ा गरम है, कहीं उन्होंने कुछ कह दिया तो… मुझे तो डर है कि तुम्हारे पापा की स्थिति ‘आसमान से गिरे खजूर में अटके’ जैसी न हो जाए.”
“जानती हूं मैं, पापा की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं होगा. पर यहां मैं तो रहूंगी न… मैं उन का ध्यान रखूंगी तो सब सही होगा. बस, आप एक बार मांजी से बात कर के देखो, मेरे कहने से तो बात बिगड़ जाएगी.”
अगले दिन शाम को घर लौटते हुए सुधीर गुलाबजामुन और समोसे ले कर आया. दोनों ही चीजें मां को बहुत पसंद हैं. पापा को जब भी अपना मनमाना काम करवाना होता, तो वह यही फौर्मूला अपनाते थे.
“सोनाली, जल्दी से अदरक वाली कड़क चाय बना कर मां के कमरे में ले कर आना. गरमगरम समोसे लाया हूं.”
“मां…मां, कहां हो तुम?”
“मैं कहां जाऊंगी, इन चारों कोनों को छोड़ कर, अब तो घर के चारों कोने ही मेरे लिए चारधाम बन गए हैं.”
“क्या बात है, आज तो तुम्हारा गुस्सा समोसे से भी ज्यादा गरम हो रहा है.”
“कोरोना के कारण पहले ही घर में बंद पड़ी थी. बड़ी मुश्किल से बाहर जाने का एक मौका आया वह भी तेरी पत्नी की वजह से न हो पाया.
“कहां जा रही थी… तुम्हें मना किया है. अभी संकट पूरी तरह से नहीं टला है. रोज 4-5 केस आ ही जाते हैं.”
“कोई बहुत दूर थोड़े जा रही थी. सामने मिश्रा भाभी के पोते का मुंडन था. बस, आसपास के लोगों को ही बुलाया था. उसी दिन से सोच रखा था कि हरी वाली कौटन की साड़ी पहनूंगी, जो तू जयपुर से लाया था. अलमारी खोल कर देखा तो कोने में जैसेतैसे पड़ी थी. तेरी बहू से प्रैस करने के लिए कहा, पर इसे मेरी बात कहां याद रहती है. मेरे हाथ में दर्द नहीं होता तो मैं खुद ही कर लेती.”
“भूल गई होगी, तुम कल मुझे दे देना. औफिस जाते समय प्रैस को देता जाऊंगा.”
“पता नहीं सारा दिन क्या करती रहती है. एक तू ही है, जो मेरा खयाल रखता है, वरना मैं तो कब का हरिद्वार निकल गई होती…”
“समोसे लाया है, तो गुलाबजामुन भी जरूर लाया होगा.”
“कैसे भूल सकता हूं, रात को खाने के बाद गुलाबजामुन भी खाएंगे.”
“कुछ तो गड़बड़ है… जो तू मुझे इतना मक्खन लगा रहा है. बता क्या बात है…”
“कुछ भी तो नहीं, तुम्हें तो हर वक्त दाल में काला ही नजर आता है. अच्छी तरह से जानती हूं तुझे, यह सब ट्रिक तू ने अपने पापा से ही सीखी है. कोई न कोई ऐसी बात होगी, जिस के लिए मैं मंजूरी नहीं दूंगी.”
“मां, आज भी तुम मेरे मन की बात जान लेती हो,” सुधीर भावुक हो गया.
“मां हूं न…मुंह की थोड़ी कड़वी जरूर हूं, पर दिल चाशनी से भी ज्यादा मीठा है.”
“जानता हूं,” सुधीर ने मां का हाथ अपने हाथों में ले कर कहा,” सोनाली के पापा के बारे में बात करनी है. उन को यहां बुलाने की सोच रहे हैं. आप से राय लेनी थी…”
“इस में पूछने वाली क्या बात है, मैं क्यों मना करूंगी?” बात को बीच में काटते हुए मां बोली.
“नहीं, वह बात ऐसी है कि सोनाली की भाभी को उन का घर में रहना पसंद नहीं है. बातबात में घर में झगड़े होते रहते हैं. इसीलिए सोच रहे थे कि…”
“तेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया जो ऐसी बेसिरपैर की बातें कर रहा है. 2-3 दिन की बात अलग थी. यहां रहने लगेगे, तो लोग क्या कहेंगे… जितने मुंह, उतनी बातें… किसकिस को समझाते फिरेंगे.”
“हम लोगों की चिंता क्यों करें? 2-3 दिन बात बना कर सब चुप हो जाएंगे. कोरोना में मै ने सब को देख लिया कि कौन किस का साथ देता है…”
“मेरी बात तो तुम्हें हमेशा ही बुरी लगती है. कुछ कहने का फायदा तो है नहीं, तुम ने जय प्रकाशजी (सोनाली के पापा) से पूछ लिया?”
“अभी तो कुछ दिन रहने के लिए बुलाएंगे, फिर धीरेधीरे…”
“मतलब की सारी खिचड़ी पक चुकी है, बस मेरे ही नाम का बघार लगाना बाकी है. जब तुम दोनों अपना मन बना चुके हो तो मुझ से पूछने की क्या जरूरत है… घर तुम्हारा… जिसे चाहे रखो, मैं कौन होती हूं मना करने वाली.”
“पर एक बात अच्छे से समझ लो, मैं अपना कमरा नहीं छोडूंगी जिसे जहां रहना है रहे… मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.”
रात को डाइनिंग टेबल पर मौन ही पसरा रहा. किसी को गुलाबजामुन भी याद नहीं आए.
“क्या हुआ… मांजी मान गईं?” सुधीर के कमरे में आते ही सोनाली ने पूछा.
दरवाजे के पीछे खड़ी सब सुन तो रही थी, अब मैं अलग से क्या बताऊं? मैं ने पहले ही कहा था, मां नहीं मानेगी.”
“सोनाली ने बात को वहीं खत्म करते हुए कहा,” इस का भी समाधान मैं ने सोच लिया है, उन्हें अपना कमरा छोड़ने की जरूरत नहीं है. मैं ने विहान से बात कर ली, वह ड्राइंगरूम में दीवान पर सो जाएगा. आप पापा से बात कर लो, वह ट्रेन का टिकट करवा लेंगे. परसों रविवार है आप भी घर पर होंगे. हम उन्हें स्टेशन से ले आएंगे.”
“ठीक है, जैसा तुम कहो, हम तो तुम्हारे गुलाम हैं, जैसा आदेश दोगी, मानना तो वही पड़ेगा. पर पापा के आने के बाद हमें भूल मत जाना,” कह कर सुधीर ने सोनाली को अपनी बांहों में भर लिया.
कुछ दिनों के लिए पापा घर आने के लिए राजी हो गए. पर मां की तेवर बदले हुए थे, उन्होंने एक बार भी पापा से ढंग से बात नहीं की. शायद लता बहनजी को मेरा यहां आना अच्छा नहीं लगा. पहले तो उन्होंने कभी ऐसा व्यवहार नहीं किया. सोनाली बहुत कोशिश करती कि घर का माहौल सामान्य रहे, पर कभी बिजली कड़कने लगती तो कभी ओलों के साथ तेज बौछारें… इतनी ठंडक होने के बावजूद भी घर का तापमान हमेशा गरम रहता. हर कदम फूंकफूंक कर रखना पड़ता. पता नहीं कब तूफान आ जाए…
“बहू, यह गीजर खराब हो गया क्या? गरम पानी नहीं आ रहा…”
“आज शायद पापा पहले नहाने चले गए इसीलिए पानी खत्म हो गया होगा. आप मेरे बाथरूम में नहा लीजिए.”
“कोई नहीं, आज कान्हाजी को थोड़ी देर में भोग लगा लूंगी. अब तो यह सब चलता ही रहेगा.”
“सोनाली, कहां हो तुम… मेरा लंच तैयार हुआ कि नहीं?”
“ला रही हूं, डाइनिंग टेबल पर रखा है. आज तो आप ने बचा लिया, वरना मांजी का गुस्सा… जाने कितनी देर और सुनना पड़ता.”
“पता है… इसीलिए तो तुम्हें आवाज दे कर बुला लिया, वरना थोड़ी देर में तुम्हारी गंगाजमुना दोनों धाराएं एकसाथ बहनी शुरू हो जातीं और हमारी रात काली…”
“बहुत बुरे हो आप, हर वक्त एक ही ओर आप का दिमाग घूमता रहता है.”
“फिर रात की बात पक्की,” सलोनी के गालों पर हलकी से चिकोटी काटते हुए सुधीर ने कहा. आज कहानी यहीं खत्म नहीं हुई थी. शायद आज सोनाली का दिन ही खराब था.
दोपहर को खाने के समय…
“बहू, आज खाने में चनेलौकी की दाल क्यों बनाई है? भूल गईं क्या… मुझे यह दाल बिलकुल पसंद नहीं. क्या अब मेरी यह स्थिति हो गई है कि मुझे घर में अपनी पसंद का खाना भी नसीब नहीं होगा.”
“नहीं मांजी, ऐसा नहीं है. मैं ने प्याज की भिंडी बनाई थी. आज यह दीपक भैया का खाना भी ले गए हैं, इसलिए सब्जी खत्म हो गई.”
“मतलब… खत्म हो गई. क्या दूसरी सब्जी नहीं बन सकती थी या बाजार में सब्जी वालों की हड़ताल है…”
“उबले आलू रखे हैं, अभी भून कर लाती हूं,” सोनाली ने उन्हें मनाने की पुरजोर कोशिश की.
“रहने दे, मुझे दिखाने के लिए बातें न बना. अब मेरा खाना खाने का मन नहीं है. उबले आलू की 2-4 पकौड़ियां तल कर लिया.”
“तली हुई चीजें खाने से आप की तबीयत खराब हो जाएगी,” सोनाली कहना चाहती थी, पर कह नहीं सकी…
वही हुआ, जिस का डर था. शाम होतेहोते मांजी की तबीयत खराब हो गई. आज तो उलटी रुकने का नाम ही नहीं ले रही, क्या करूं… अब तक तो सुधीर बंगलुरु के लिए निकल गए होंगे. इन्हें भी आज ही बाहर जाना था. पिछली बार तो अस्पताल ले जाना पड़ा था,” सोनाली घबराहट में बड़बड़ाने लगी.
“पहले तो तू शांत हो, सब ठीक हो जाएगा. अपनी सास को ओआरएस का घोल लगातार पिलाती रह. इस से शरीर में नमक और चीनी की कमी नहीं रहेगी और जान भी बनी रहेगी, और हां… मुझे पिछली बार की दवाई का पर्चा दे दे. मैं विहान के साथ जा कर दवाई ले आता हूं.”
रात होतेहोते लताजी की तबीयत में काफी सुधार आ चुका था.
“अब आप कैसा महसूस कर रही हैं?”
“पहले से ठीक हूं…”
“कुछ खाने का मन है, खिचड़ी बनवा दे,” लताजी ने सिर हिला कर हामी भरी.
लता जी ने सोनाली और उस के पापा की बातें सुन ली थी, इसलिए शांतिपूर्वक हां कह दिया.
“मुझे भी अकसर ऐसिडिटी हो जाती है. डाक्टर ने तलाभुना खाने से बिलकुल मना कर रखा है, पर जब मन करता है तो कुछ ध्यान नहीं रहता. आखिर जिंदगी सिर्फ लौकीतोरी खा कर तो नहीं गुजारी जा सकती,” लताजी के चेहरे पर फीकी मुसकान आ गई.
“विहान बेटा, ताश ले आ. तेरी दादी का मन भी लगा रहेगा. अकेले लेटेलेटे तो मन और भी घबराता है.”
“आप को ताश खेलना पसंद है?”
“जी, पहले तो बहुत पसंद था. सोनाली की मां और मैं रोज ही खेला करते थे, पर जब से वह साथ छोड़ कर गई है, तब से केवल समय गुजारने का साधनमात्र बन गया है.
विहान जिद कर रहा था कि मुझे भी ताश खेलना सिखाओ इसीलिए… अगर आप को पसंद न हो तो हम नहीं खेलते.”
“नानू, आप को पता नहीं… दादी तो ताश में चैंपियन है. आज तक उन्हें कोई नहीं हरा पाया. क्या जबरदस्त रमी खेलती हैं, मैं इसीलिए तो आप से ट्रिक सीख रहा हूं. मुझे एक दिन दादी को जरूर हराना है. है न दादी… जल्दी से ठीक हो जाओ फिर मैं तुम्हें हराऊंगा.”
“मुझे क्या हुआ… मैं तो ठीक हूं, तू पत्ते बांट…”
“आप की तबीयत…” कहतेकहते जयप्रकाशजी चुप हो गए, शायद खेलने से मन बदल जाए.
“पापा, सुधीर ने कल डॉक्टर का अपौइंटमैंट ले लिया है. मुझे तो विहान की पेरैंट्स मीटिंग में जाना है. क्या आप मांजी को दिखा लाएंगे?”
“हां… हां, क्यों नहीं… मैं चला जाऊंगा.”
“बहू, सुधीर कब तक आएगा?”
“वे तो आज औफिस से ही बंगलुरु चले गए हैं, 2 दिन बाद आएंगे.”
“कोई बात नहीं, जब वह आ जाएगा, तब दिखा लेंगे,” शायद लताजी को सोनाली के पापा के साथ जाने में संकोच हो रहा था.
“कैसी बातें कर रही हैं आप, तबीयत आप की खराब है और आप डाक्टर को दिखाने कुछ दिन बाद जाएंगी. शायद आप को मेरे साथ जाने में संकोच हो रहा है.”
“आप तो जानते हैं, जैसे ही बाहर निकलेंगे गलीमोहल्ले वाले, सब की नजर पड़ेगी. पता नहीं क्याक्या बातें बनाएंगे. 2-3 दिन की ही तो बात है, जैसे ही सुधीर वापस आएगा, मैं डाक्टर को दिखा आऊंगी. अब तो मैं सही भी हो गई हूं,” लताजी ने बात को संभालने की पूरी कोशिश की.
“आप मेरा मतलब नहीं समझीं, आप को इन्फैक्शन है. कभी भी बढ़ सकता है. अब तो संभाल में आ गया, नहीं तो बहुत परेशानी हो सकती थी. आप को मेरे साथ जाने में परेशानी है, तो इस का भी हल है.
“आप सुधीरजी की कार में चले जाइएगा. ड्राइवर आप को डाक्टर के यहां छोड़ देगा. मैं थोड़ी देर में औटो से आ जाऊंगा,” जयप्रकाशजी ने जब अधिकारपूर्वक कहा, तो लताजी को उन की बात माननी ही पड़ी.
सुबह, जैसा निश्चित हुआ था, उसी के अनुसार लताजी ड्राइवर के साथ चली गई और थोड़ी देर बाद जयप्रकाशजी भी औटो के साथ वहां पहुंच गए.
“आप आ गए…बहुत देर हो गई, मुझे तो घबराहट होने लगी थी.”
“पता नहीं, दोपहर का समय है, फिर भी ट्रैफिक बहुत मिला. अब तो सड़कों पर आदमी से ज्यादा वाहन हो गए हैं. क्या आप का नंबर आ गया?”
“नहीं, अभी 2 लोगों के बाद है.”
“आप कुछ लेंगी, पानी या चाय… मैं भी जल्दी में घर से लाना भूल गया,”लताजी मन ही मन खुश हो रही थी. अपनी फिक्र होते देख उन्हें बहुत अच्छा लग रहा था. डाक्टर साहब से भी सारी बातें जयप्रकाशजी ने ही की.
आप ने सही समय पर दवाई और ओआरएस का घोल दे दिया, जिस से पेट में इन्फैक्शन नहीं फैला. अब मैं 3 दिन की दवाई लिख रहा हूं और कुछ टेस्ट भी आप करवा लीजिए. और हां… मांजी, आप भी थोड़ा घूमना शुरू कर दीजिए, इस से डाइजेशन दुरुस्त रहता है.”
क्लीनिक से बाहर निकल कर जयप्रकाश जी औटो ढूंढ़ने लगे.
“आप भी कार में बैठ जाइए. बाहर कितनी चिलचिलाती धूप हो रही है. पता नहीं आप को औटो कब मिलेगा?”
“पर लोग…”
“आप उन की चिंता न करें. मैं सब देख लूंगी,” अचानक से लताजी का ह्रदय परिवर्तन देख कर जयप्रकाशजी हैरान हो गए.
“फिर क्या था, सारे रास्ते दोनों में बातचीत होती रही. कहीं से भी आभास नहीं हो रहा था कि अभी साथ दिखने मात्र से ही उन को परेशानी हो रही थी.
“अरे, मैं आप को बताना ही भूल गया. आप सुबह 8 बजे तक कुछ नहीं खाएंगे. पैथोलौजी लैब से आप का ब्लड सैंपल लेने आएगा. जब मैं आप की दवाई लेने गया था, तभी उसे बुक कर दिया था.”
‘भाई साहब कितने सरल और सहज हैं. सब काम चुपचाप निबटा दिया. मैं ने कितना गलत समझा,’लताजी मन ही मन विचार करने लगी.
“कहां खो गईं आप, घर आ गया है.”
“भाई साहब, आप का बहुतबहुत धन्यवाद. कल से आप मेरी इतनी अधिक देखभाल कर रहे हैं और मैं अब तक आप से परायों जैसा व्यवहार कर रही थी. मैं अपने व्यवहार पर बहुत शर्मिंदा हूं.”
“ऐसा न कहिए बहनजी, घरपरिवार में तो यह सब चलता ही रहता है.”
“धीरेधीरे घर का मौसम बदलने लगा, पहले जहां लू के थपेड़ों ने आपसी रिश्तों को झुलसा दिया था, वहीं अब रोज पड़ने वाली बूंदों ने मौसम को खुशनुमा बना दिया. पापा भी धीरेधीरे घर का हिस्सा बन गए थे. मैं ने विहान को पढ़ाने की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी. सब को एकसाथ देख कर कितना सुकून मिलता है. किसी प्रकार की कोई टैंशन नहीं… पता नहीं हमारे समाज में इतनी पाबंदियां क्यों हैं? लड़की का मायका और ससुराल एक जगह मिल कर क्यों नहीं रह सकते?”
“सोनाली क्या सोच रही हैं?” पापा ने आवाज दी.
“एक कोफ्ता और मिल सकता है क्या.. आज लौकी के कोफ्ते बहुत स्वादिष्ठ बने हैं. पेट भर गया है पर मन अभी तृप्त नहीं हुआ है,” पापा ने खाने की तारीफ की, तो सोनाली ने बताया कि आज कोफ्ते मांजी ने बनाए हैं. लताजी ने तो रसोई से सन्यास ले लिया था. आज अचानक मन किया या शायद धन्यवाद कहने का उन्हें यह तरीका समझ आया…पर इतनी तारीफ सुनने को मिलेगी, ऐसा सोचा न था, अब तो हर दूसरे दिन लताजी रसोई के चक्कर लगाने लगीं.धीरेधीरे उन दोनों के बीच संकोच की दूरी घटने लगी. पहले शाम को तिकड़ी जमा होती थी, फिर विहान के ऐग्जाम शुरू होने के बाद दोनों ही ताश खेलते रहते. अब सब अच्छा चल रहा था लेकिन खुशियां कभी भी एक जगह ज्यादा देर तक नहीं ठहरतीं. सोनाली को अपनी ही नजर लग गई. अभी बहार आई थी कि पतझड़ ने भी दस्तक देने शुरू कर दिए.
“पापा देखो न, आज मम्मी सुबह से ही बिना बात के गुस्सा हो रही है. मैं ने अपना सारा होमवर्क निबटा दिया, फिर भी जबरदस्ती पढ़ने के लिए बैठा दिया,” विहान ने सुधीर के आते ही सोनाली की शिकायत करना शुरू कर दिया.”
“ठीक है, मैं बात करता हूं. क्या हुआ, आज बिन बादल, बिजली और बरसात दोनों एक साथ…”
“अमित भैया का फोन आया था. कह रहे हैं कि अब कोरोना का प्रभाव कम होने लगा है, इसीलिए कंपनी वाले औफिस बुला रहे हैं. उन्हें और रीना दोनों को ही जाना पड़ेगा. बच्चों के स्कूल अभी नहीं खुलेंगे, इसलिए वे दोनों घर पर ही रहेंगे. पापा घर पर आ जाते, तो उन्हें बच्चों की कोई चिंता नहीं रहती. कितने खुदगर्ज हो गए हैं भैया… इतने दिन हो गए, पापा को यहां आए हुए. मगर एक भी फोन नहीं… और आज जब उन्हें जरूरत पड़ी तो तुरंत फोन कर दिया. कहीं नहीं जा रहे पापा… अब तो उन का यहां मन भी लग गया है.”
“वह तो ठीक है, पर एक बार पापा को भी बता दो, अगर उन का वहां जाने का मन नहीं होगा तो मैं खुद अमित को मना कर दूंगा.”
“रात को डिनर के समय अमित का फोन आया था, घर वापस आने के लिए कह रहा हैं,” जयप्रकाशजी ने सब को बताया.
“पता है मुझे, पर अब आप वहां नहीं जाएंगे. यह क्या बात हुई, पहले तो उन्हें आप का ध्यान नहीं आया और अब जरूरत पड़ी तो…”
“बेटी, ऐसा नहीं कहते, समय पर अपने ही अपनों के काम नहीं आएंगे तो…” अभी जय प्रकाशजी की बात खत्म नहीं हुई थी कि लताजी ने भी सोनाली का समर्थन किया,”सही तो कह रही है सोनाली, यह क्या बात हुई, अब उन्हें जरूरत है, तो बुला रहे हैं. कल को जब जरूरतें खत्म हो जाएंगी, तब क्या होगा…आप को वहां नहीं जाना चाहिए. बच्चों को भी तो आप की अहमियत का पता चले,” सब लताजी की बात सुन कर आश्चर्यचकित रह गए. कहां तो मां उन के आने का विरोध कर रही थीं और जब वह जाने के लिए कह रहे हैं तो मना कर रही हैं. शायद इतने दिनों से जिस अकेलेपन को वह झेल रही थी, वह अब भरने लगा था.
“नहीं लताजी, मुझे जाना ही पड़ेगा. बेटा खुदगर्ज हो सकता है, पर एक पिता नहीं… अगर मैं भी उस की तरह व्यवहार करूंगा, तो उस में और मुझ में क्या अंतर रह जाएगा. मैं अपने बेटे को सही संस्कार देने में नाकामयाब रहा. पर कोशिश करूंगा कि आने वाली पीढ़ी को संभाल सकूं.
“पापा अपनी जगह सही थे और हम सबकी चिंता भी वाजिब थी. सबके मन दुखी थे, कोई नहीं चाहता था कि पापा वापस जाएं. आप के घर में आने से रौनक आ गई थी. अब आप चले जाएंगे, तो फिर से…”
“जाना तो पड़ेगा, आप भी समझती हैं कि बच्चे गलती कर सकते हैं, पर मांबाप नहीं. मैं आप से रोज फोन पर बात करूंगा.”
सोनाली कभी मां की ओर देखती और कभी अपने पापा की ओर… शायद इस उम्र में व्यक्ति को भौतिक संसाधनों से ज्यादा संग साथ की आवश्यकता अधिक होती है.
“ठीक है नानू, आप मामा के घर जा सकते हैं. पर आप वादा करो, कि गरमियों की छुट्टी में आप हमारे साथ रहेंगे. सही कहा न दादी?”
विहान की बात सुन कर सब लताजी की ओर देख कर मुसकरा उठे.
लेखिका : अपर्णा गर्ग