“मैं ने तुम्हें मुलतान से उठाया था और मोहल्ले का नाम था मुमताजाबाद. इस के सिवा मुझे कुछ याद नहीं.”
नरगिस के तनबदन में आग लग रही थी. उस का दिल चाह रहा था कि गुलजार खां का मुंह नोच ले. उस का मुजरिम उस के
सामने था, लेकिन वह कुछ नहीं कर सकती थी.
“अब तुम क्या करोगी?” गुलजार खां ने पूछा.
“करना क्या है. मुलतान जाऊंगी. मुमताजाबाद में कोई तो जानता होगा कि 15 साल पहले वहां किस की दुनिया उजड़ी थी.
कुछ तो मालूम होगा. कुछ भी कर लूंगी, मगर अब यहां नहीं रहूंगी.”
नरगिस बोलती रही और गुलजार खां डिब्बे से जेवर निकाल कर कंधे पर पड़े रूमाल में बांधता रहा. उस ने तमाम जेवर
समेटे और खामोशी से बाहर निकल गया. अब नरगिस सोच रही थी कि यहां से कैसे निकले? जिस घर में उस ने 15 बरस
काट दिए थे, अब वहां 15 मिनट गुजारना भी मुश्किल था.
अगले दिन सुबह हुई, फिर दोपहर हुई और फिर पूरे बाजार में यह खबर फैल गई कि नरगिस भाग गई.
दिलशाद बेगम को रहरह कर गुलजार खां की बात याद आ रही थी. उस ने कहा था, ‘ज्यादा ढील मत दो, वरना खट्टा
खाओगी.’ ठीक कहता था. खा लिया खट्टा. ऐसी हर्राफा निकली कि कानोंकान खबर नहीं होने दी और भाग गई.
नरगिस ने एक बड़ी चादर से अपने जिस्म को अच्छी तरह लपेटा हुआ था. दिन का वक्त था, इसलिए चहलपहल जरा कम
थी. वह गली से निकली और जिधर मुंह उठा, पैदल चल दी. वह गली से निकलते ही तांगे में बैठ सकती थी, लेकिन
खामख्वाह तांगे वाले के फिकरों का निशाना बनना नहीं चाहती थी. जब उसे यकीन हो गया कि वह बहुत दूर निकल आई है
तो उस ने एक तांगे वाले को हाथ दिया.
“स्टेशन चलोगे?”
“क्यों नहीं चलेंगे, सवारियां कहां है?” तांगे वाले ने पूछा.
“मैं अकेली हूं.” नरगिस बोली.
“बैठिए.”
नरगिस तांगे की पिछली सीट पर बैठ गई. तांगे वाले ने चाबुक लहराई और घोड़े ने कदम उठा दिए.
“स्टेशन जा रही हैं, तो किसी दूसरे शहर भी जा रही होंगी, लेकिन यों खाली हाथ…?”
नरगिस का जी चाहा कि उसे डांट दे, लेकिन यह सोच कर गुस्सा पी गई कि बातचीत के दौरान शायद कोई मतलब की बात
हाथ लग जाए, “मेरी सास रावलङ्क्षपडी से सवार हुई होंगी. मेरा सामान उन्हीं के पास है.”
“लेकिन इतनी जल्दी क्यों जा रही हैं? गाड़ी आने में पूरे 2 घंटे बाकी हैं.”
“मेरी घड़ी खराब थी.”
तांगे वाले ने इस बार कोई नया सवाल नहीं उठाया. समझ में नहीं आता था कि वह नरगिस के स्पष्टीकरण से आश्वस्त हो गया
है या मायूस हुआ था. स्टेशन आ गया तो उस ने अजीब अंदाज में कहा, “लो बीबी, स्टेशन आ गया. तुम तो शायद पहली बार
यहां आई होगी?”
नरगिस कुछ नहीं बोली. तांगे वाला पैसे ले कर चलता बना, नरगिस हैरान खड़ी थी. उसे यह तो मालूम था कि टिकट लेना
होता है, लेकिन टिकट कहां से मिलेगा, यह मालूम नहीं था. उस ने एक कुली से पूछा और टिकट लेने के लिए कतार में खड़ी
हो गई. मुलतान का टिकट लिया और प्लेटफार्म पर पहुंच गई.
गाड़ी आने में अभी काफी देर थी. प्लेटफार्म पर लोगों की भीड़ देख कर उसे बड़ी खुशी हुई. अगर उसे कोई ढूंढने आया भी तो
इस भीड़ में छिपना बहुत आसान होगा, नरगिस ने सोचा और एक खानदान के साथ इस तरह मिल कर बैठ गई, जैसे उसी
खानदान का हिस्सा हो.
आहिस्ताआहिस्ता भीड़ बढ़ती जा रही थी. शायद गाड़ी आने वाली थी. नरगिस ने चादर से मुंह निकाल कर रेल की खाली
पटरियों की तरफ देखा. फिर अचानक उस की आंखों ने जैसे कोई खौफनाक दृश्य देख लिया. वही तांगे वाला, जो उसे ले कर
आया था, उसे आता हुआ नजर आया. उस के अंदाज से मालूम हो रहा था, जैसे वह किसी को ढूंढ रहा हो. नरगिस के दिल में
एक खौफ ने सिर उठाया, ‘हो न हो, वह मुझे घर से भागी हुई लडक़ी समझ रहा हो.’
नरगिस ने फौरन चादर उतारी और बिछा कर उस पर आराम से बैठ गई. उसे मालूम था कि तांगे वाला उसे चादर से ही
पहचानता है. उस ने चेहरा इतने गौर से नहीं देखा था कि उसे पहचान सकता. हुआ भी वही. तांगे वाला उस के करीब से
गुजरा. लेकिन वह उसे पहचान नहीं सका. इतनी देर में गाड़ी आने का शोर मच गया और नरगिस भी दूसरे मुसाफिरों की
तरह गाड़ी की तरफ लपकी. जिस खानदान के साथ वह बैठी थी, उसी के साथ एक जनाने डिब्बे में दाखिल हो गई. उस ने
चादर फिर ओढ़ ली और एक तरफ सिमट कर खड़ी हो गई.
“अकेली हो?” अचानक एक बूढ़ी औरत ने पूछा.
“हां.” नरगिस बोली.
“यहां बैठ जाओ.” बुढिय़ा अपनी जगह से थोड़ा सा खिसक गई.
नरगिस उस के करीब जा बैठी.
“कहां जा रही हो?” बूढ़ी औरत ने पूछा.
“मुलतान.”
“अच्छा है, साथ रहेगा. मैं भी मुलतान जा रही हूं.”
अभी ये बातें हो रही थीं कि तांगे वाला 2 जनाना पुलिसवालियों के साथ डिब्बे में दाखिल हुआ. अब चादर उतारने का वक्त
नहंीं था. नरगिस ने बूढ़ी औरत से कहा, “मेरे पीछे बदमाश लगे हैं. आप उन से कह दीजिए कि मैं आप की बहू हूं. बाकी बात
मैं आप को बाद में बताऊंगी.”
बुढिय़ा अभी गौर ही कर रही थी कि तांगे वाले ने इशारे से बताया कि यही है वह लडक़ी.
एक पुलिसवाली उस के करीब आई, “ऐ, क्या नाम है तुम्हारा?”
“शाजिया.” नरगिस ने जानबूझ कर गलत नाम बताया.
“घर से भाग कर आई हो?”
“दिमाग तो ठीक है आप का? मेरी सास बैठी हैं. इन से पूछ लें, मैं कैसे आई हूं.”
अब बुढिया को याद आया. नरगिस ने क्या कहा था और अब उसे क्या करना है, “वाह, भई वाह. एक तो तुम मर्द को ले कर
जनाना डिब्बे में घुस आई हो, ऊपर से मेरी बहू पर इल्जाम लगा रही हो. वर्दी में न होती तो चोटी पकड़ कर मारती.”
बुढिय़ा चीखी तो अन्य औरतों की भी हिम्मत हुई. तांगे वाले की मौजूदगी पर औरतों ने ऐसा शोर मचाया कि वह दरवाजे पर
तो खड़ा ही था, घबरा कर नीचे उतर गया. पुलिसवालियां भी इस सूरतेहाल से घबरा गईं और 2-4 सवाल करने के बाद वे
भी रफूचक्कर हो गईं.
बुढिय़ा नरगिस के लिए बड़ी मददगार साबित हुई. उसी बीच गाड़ी ने प्लेटफार्म छोड़ दिया और तेज रफ्तार से दौडऩे लगी.
नरगिस की परेशानी कुछकुछ दूर हो गई थी. लिहाजा वह अपने खयालों में खो गई. घर और घर वालों के बारे में
सोचतेसोचते नरगिस की आंखों के कोने भीग गए.
“अब मुलतान आने वाला है,” बूढ़ी औरत ने कहा, “संभल कर बैठ जाओ. मेरा बेटा मुझे लेने आएगा. सिर ढांप कर उस के
सामने आना. वह गुस्से का जरा तेज है.”
“अच्छा मांजी.” नरगिस ने बूढ़ी को मां कह कर मुखातिब किया.
नरगिस को रहरह कर उस बूढ़ी औरत पर प्यार आ रहा था. वह बूढ़ी औरत थोड़ी ही देर में उसे मां जैसी लगने लगी थी. वह
सोच रही थी, यह बूढ़ी या तो कामयाब ड्रामा कर रही है या फिर वाकई इतनी स्नेहशील है. इस के साथ जो लोग रहते होंगे,
खुशकिस्मत होंगे. वे लड़कियां कितनी नसीब वाली होंगी, जो इस की सरपरस्ती में रहती होंगी. गाड़ी की रफ्तार कम हो गई
थी. कुछ औरतें यह कहती हुई उठीं कि मुलतान आ रहा है. नरगिस ने भी साथ लाए हुए कपड़ों की पोटली संभाली. इस के
सिवा उस के पास कोई और सामान था ही नहीं.
मुलतान आ गया. उस वक्त रात हो रही थी और नरगिस को मुमताजाबाद के सिवा पते के नाम पर कुछ भी मालूम नहीं था.
न मकान नंबर मालूम था, न बाप या भाई में से किसी का नाम. वह सोच रही थी कि काश, यह रात उसे उस बूढ़ी औरत के
साथ गुजारनी नसीब हो जाए. फिर सुबह वह मुमताजाबाद चली जाएगी, लेकिन अपनी जुबान से वह कैसे कहती?
गाड़ी से उतर कर नरगिस जैसे ही प्लेटफार्म पर खड़ी हुई, बूढ़ी औरत ने कहा, “इतनी रात को कहां घर ढूंढती फिरोगी? सुबह
चली जाना. अभी मेरे साथ चलो. तुम्हें अभी अपनी कहानी भी तो मुझे सुनानी है. ऐ, वह लो, मेरा बेटा आ गया.” बूढ़ी ने
नरगिस का हाथ इस तरह थाम रखा था, जैसे उसे डर हो कि इस भीड़ का फायदा उठा कर वह गायब न हो जाए.
एक नौजवान लडक़ा तेजी के साथ आया और उस बूढ़ी औरत के पास जो छोटा सा संदूक था, उसे उठा कर एक तरफ को चल
दिया. नरगिस भी उस बूढ़ी औरत के साथसाथ चलती हुई स्टेशन के बाहर आ गई. बाहर तांगा तैयार था. लडक़े ने सामान
तांगे पर रखा. इस का मतलब था, उसी तांगे पर बैठना है. बूढ़ी औरत ने नरगिस का हाथ थामा और तांगे में बैठ गई.
“अम्मां यह कौन है?” लडक़े ने पूछा.
“क्या खबर कौन है?” बूढ़ी औरत ने मजाक के अंदाज में कहा.
“मखौल न किया करो. तुम्हारे साथ आई है. तुम्हीं को मालूम नहीं कौन है?”
“सच्ची बात तो यही है. अब घर चल कर पूछूंगी. वैसे तुझे इस से क्या? चुप बैठा रह.”
रास्तेभर उन तीनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई. कभीकभी लडक़ा पीछे पलट कर देख लेता था. नरगिस को अंदाजा हो
रहा था कि वह शहर लाहौर के मुकाबले छोटा है. एक बार फिर इस खयाल ने उसे घेर लिया कि वह आज बहुत सालों बाद
अपने शहर में है.
बूढ़ी का मकान शायद स्टेशन से काफी फासले पर था. तांगा बहुत देर तक चलता रहा. तब कहीं मकान आया, जहां उस बूढ़ी
औरत को उतारना था. उस घर में उस बूढ़ी के अलावा 3 औरतें और थीं. उस के 3 बेटे थे, 2 बहुएं थीं और एक बेटी थी, जो
लडक़ा उन्हें ले कर आया था, वह कुंवारा था.
“पहले नहा कर कपड़े बदलो, फिर खाना खाएंगे. उस के बाद तुम्हारी कहानी सुनूंगी.” बूढ़ी औरत ने नरगिस से कहा.
इन सब कामों से निपटने के बाद वह बूढ़ी औरत नरगिस को ले कर एक कमरे में चली गई. बोली, “हो सकता है, तुम्हारी
कहानी में कोई ऐसी बात हो, जो सब के सुनने की न हो, इसलिए मैं तुम्हें यहां ले आई. अब सुनाओ, तुम कौन हो और तुम पर
क्या बीती है?”
नरगिस ने शुरू से अब तक की अपनी पूरी कहानी उसे सुना दी.
“बस, इतनी सी बात पर परेशान हो?” बूढ़ी औरत बोली.
“मांजी, यह इतनी सी बात है? मैं किसी शरीफ घराने में रहने के लायक हूं?”
“क्यों, क्या हो गया तुम्हें? तुम जहां भी रही, उस में तुम्हारा क्या कसूर? तुम तो शरीफ घरानों की लड़कियों से भी शरीफ हो.
वे तो अच्छेभले माहौल में भी बिगड़ जाती हैं और तुम उस गंदगी से बच कर निकल आई.”
“लेकिन मेरे मांबाप, भाईबहन?”
“अल्लाह फजल करेगा. मेरा बेटा सरफराज, जो हमें स्टेशन से ले कर आया है, पत्रकार है. अखबार वालों के बड़े लंबे हाथ
होते हैं. मैं उस से कहूंगी, वह ढूंढ़ निकालेगा.”
“मुझे आप एक बार मुमताजाबाद ले चलें. शायद मैं अपना घर पहचान लूं.”
“हांहां, क्यों नहीं… मैं कल ही तुम्हें ले जाऊंगी. मेरी एक मिलने वाली वहां रहती है.”
इस के बाद नरगिस इस तरह सोने के लिए लेट गई, जैसे चांदरात को बच्चे ईद के इंतजार में सोते हैं.
उस बूढ़ी के साथ सुबह मुमताजाबाद पहुंचते ही नरगिस की आंखें उस के हाथों से निकल गईं. आंसू थे कि थमने का नाम ही
नहीं लेते थे. उसे महसूस हो रहा था, जैसे वह 4 साल की बच्ची है. घर का रास्ता भूल गई है और रास्ते में खड़ी रो रही है.
“हौसला करो बेटी. क्या सडक़ पर तमाशा बनोगी. लोग कहेंगे, मैं तुम्हें चुरा कर ले जा रही हूं.” बूढ़ी ने समझाया.
नरगिस ने आंसुओं को हौसले की मुट्ठी में बंद किया और बूढ़ी के साथसाथ चलने लगी. किसी गली में भी उसे यह महसूस नहीं
हुआ कि वह यहां पहले भी आ चुकी है. हर मकान को भूखों की तरह देखती हुई चल रही थी.
बड़ी बी उसे ले कर एक से दूसरी, तीसरी और चौथी गली में घूमती रही. कई गलियां घूमने के बाद उन्होंने कहा, “भई, तुम
तो जवान हो, मेरी टांगें जवाब दे गईं. आधा मुमताजाबाद रह गया है. वह फिर कभी देख लेंगे. अब चल कर कुछ देर बैठते हैं.
मैं ने कहा था न मेरी एक मिलने वाली यहां रहती है. चलो, वहां चलते हैं.”
“चलिए.” नरगिस बेदिली से बोली.
वहां जाते हुए नरगिस ने एक जगह को बड़े गौर से देखा. फिर वह एकदम से चीखी, “अम्मा, यह है मेरा घर. मुझे याद आ
गया. यही तो है. मुझे तुम यहां ले चलो. मुझे सब याद आ गया. यही है मेरा घर.”
बूढ़ी चौंकी, “यही तो है वह मकान, जहां मैं तुझे लाने वाली थी, इसी में तो मेरी वह जानने वाली रहती है. चलो, पहचान
लेना, वरना मैं उन से खुद पूछ लूंगी.”
दोनों अंदर चली गईं. अंदर एक औरत सिल पर मसाला पीस रही थी. एक औरत अपने बच्चे को लिए बैठी थी. वे अंदर पहुंचीं
तो 4 नौजवान लड़कियां कमरे से निकल कर सेहन में आ गईं.
“आओ खाला, बहुत दिनों बाद आईं.” उस औरत ने कहा, जो मसाला पीस रही थी.
“हां, तू तो बहुत आ गई मेरे यहां.” बूढ़ी औरत ने ताना दिया.
नरगिस दीवानों की तरह एकएक दीवार को ताक रही थी. उसे यह भी खयाल नहीं आया कि वह वहां मेहमान बन कर आई
है. वह भाग कर जीने की तरफ गई. बिलकुल ऐसा ही जीना था. इस में अब दरवाजा लग गया है, मगर यह तो बाद में भी लग
सकता है. उस वक्त नहीं होगा, लेकिन ये लोग तो कोई और हैं. फिर मुझे ऐसा क्यों लग रहा है, जैसे मैं यहां आ चुकी हूं?
औरतें उसे गौर से देख रही थीं और इशारों से पूछ रही थीं, यह कौन है? नरगिस इन सब से बेपरवाह कोनेखुदरे झांकती फिर
रही थी. कुछ कोने उस के लिए अजनबी थे. कुछ हिस्से ख्वाब की तरह नजर आ रहे थे. यकीन नहीं आ रहा था, मगर उस का
दिल कहता था, इस घर में कोई खास बात जरूर है.
“खाला, यह कौन है?” एक औरत ने पूछा.
“है एक बेचारी. बचपन में अगवा हो गई थी. अब 15 सालों बाद किसी तरह भाग कर आई है. इतने से बच्चे को याद रहता है.
घंटाभर से मुझे लिए फिर रही है. हर मकान को समझ बैठती है, यही उस का घर है.” बूढ़ी ने कहा.
“अल्लाह इस की मुश्किल आसान करे. इसे इस के मांबाप से मिलवाए.”
सब ने ‘आमीन’ कहा. इतनी देर में नरगिस भी आ कर बैठ गई. उसे देख कर सब चुप हो गए.
“अम्मा, यहां से चलो. यहां मेरा जी घबराता है.” नरगिस ने कहा.
“तू तो जिद कर के यहां आई थी, अब जी घबराने लगा.”
“अच्छा आप बैठें. मैं जा रही हूं.”
“अरी सुन तो, मैं भी चल रही हूं. अच्छा बहन, फिर आऊंगी. यह लडक़ी तो हवा के घोड़े पर सवार है.” बूढ़ी ने कहा और
बुरका संभाल कर उठ गई.
“क्या हुआ, मकान देख लिया?” बूढ़ी ने रास्ते में पूछा.
“नहीं, यह वह घर नहीं है, लेकिन न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है, जैसे यही है.”
“तू जी हलकान मत कर. मैं आज ही सरफराज से कहूंगी. वह सब पता लगा देगा.”
“नहीं अम्मा, दुनिया की भीड़ में गुम हो कर कोई नहीं मिलता. इंसान हो या मकान, सब गुम हो जाते हैं.”
“अल्लाह की जात से मायूस नहीं होते बेटी.”
“अच्छा एक बात बताइए.”
“पूछ बेटी.”
“अगर मेरे घर वाले मुझे नहीं मिले तो आप मुझे अपने घर में रख लेंगी? मैं आप की नौकरी करूंगी.”
“कैसी बातें करती है बेटी, तू काहे को नौकरी करने लगी? तू तो मेरी बेटी जमीला की तरह है. खैर से तेरे वारिस तुझे मिल
जाएं. अगर नहीं मिलते तो तू भी मेरी जमीला है.”
बड़ी बी ने सरफराज से जिक्र किया तो उस ने वादा किया कि वह नरगिस के सरपरस्तों की तलाश के लिए जो कुछ होगा,
करेगा.
नरगिस को यहां रहते हुए 3 दिन हो गए थे. एक नई ङ्क्षजदगी से उस का परिचय हुआ था. उस ने पहली बार शरीफ घरों के
आदाब देखे थे. उसे पहली बार अहसास हुआ था कि घर की दहलीज हर एक के लिए नहीं होती. इन औरतों की आंखों में जो
शरमोहया थी, नरगिस ने पहले नहीं देखी थी. चिराग जलने के बाद यहां पराए मर्दों के कदमों की आवाजें नहीं गूंजती थीं.
औरतें मुसकराती थीं, कहकहे नहीं लगाती थीं. सिरों पर आंचल न भी हो, तो लगता था, शरमोहया का साया सिर पर है.
नमाज की चौकी पर बैठी हुई बड़ी बी रहमत का फरिश्ता लगती थीं. शौहरों के सामने दस्तरख्वान सजाती हुई बीवियां,
भाइयों से जिद करती हुई बहनें कितनी अच्छी, कितनी प्यारी लगती थीं.
सरफराज बराबर कोशिश में लगा हुआ था. आखिरकार एक दिन वह कामयाब हो गया. उस ने बड़ी बी के सामने एक
अखबार रखते हुए कहा, “पहचानिए तो, किस की तसवीर है?”
“कोई बच्ची है, जमीला को दिखाओ.”
“अम्मा, यह उसी लडक़ी की बचपन की तसवीर है, जो आप के घर में ठहरी है.”
“नरगिस की?” हैरानी से बड़ी बी की आंखें फैल गईं.
“हां, इस का उस वक्त का नाम नजमा था. नरगिस बाद में रखा गया होगा.”
“मगर यह कैसे मालूम हुआ कि यह नरगिस की ही तसवीर है.”
“अम्मा, मैं ने 15 साल पहले के अखबार खंगाले. दरअसल मुझे यकीन था कि नरगिस के वालिदैन ने गुमशुदगी का इश्तिहार
जरूर दिया होगा. वही हुआ. यह इश्तिहार मुझे नजर आ गया. इस में जो पता दिया गया है, वह मुमताजाबाद का है. यह भी
लिखा है कि शादी के हंगामे में किसी संगदिल ने इसे अगवा कर लिया था. नरगिस ने भी यही बताया था. तसदीक उस वक्त
हो जाएगी, जब हम उस पते पर जाएंगे, जो इस इश्तिहार में दिया गया है.”
“देखें, तो अपनी बच्ची की तसवीर,” बड़ी बी ने अखबार उठा लिया, “ऐ हां, है तो यह नरगिस ही. वही नाक, वही नक्शा.
हाथ टूटें उस के, जिस ने उसे उस के मांबाप से जुदा किया.” फिर बड़ी बी ने नरगिस को आवाज दी, “नरगिस, जरा इधर तो
आ.”
“जी अम्मा.” नरगिस लगभग दौड़ती हुई आ गई.
“मैं तुझे एक चीज दिखाऊंगी, लेकिन तू वादा कर कि रोएगी नहीं.”
“नहीं रोऊंगी.” नरगिस बोली.
“यह देख, क्या है?” बड़ी बी ने अखबार में छपी हुई तसवीर पर उंगली रखते हुए कहा.
“तसवीर है किसी की.” नरगिस बोली.
“किसी की नहीं, तुम्हारी तसवीर है.”
अब नरगिस की समझ में आया, वह क्या दिखाना चाहती हैं. उस ने तसवीर देखी. ऊपर ‘गुमशुदा की तलाश’ और नीचे
मुमताजाबाद का पता छपा हुआ था.
नरगिस कुछ देर तक उस तसवीर को गौर से देखती रही, फिर चीख मार कर बेहोश हो गई.
जब तक नरगिस होश में आई, तब तक सरफराज तय कर चुका था कि वह पहले खुद उस के मांबाप के पास जाएगा. जो
लडक़ी तसवीर को देख कर बेहोश हो सकती है, वालिदैन को देख कर खुशी से मरने के करीब पहुंच जाएगी.