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जिंदगी फिर मुस्कुराएगी- भाग 3

इस तरह से आप के बच्चे के जाने के बाद भी उस का दिल इस दुनिया में धड़कता रहेगा,’’ डा. लतिका ने कहा.‘‘नहींनहीं. आप यह कैसी बातें कर रही हैं,’’ मीनल तड़प कर बोली, ‘‘आप मेरे सोनू के शरीर से…आप को एक मां के दर्द का जरा सा भी एहसास नहीं है.’’डा. लतिका ने मीनल के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘मैं भी एक मां हूं, मु?ो तुम्हारे दर्द का पूरा एहसास है, मीनल.

‘‘तुम्हारे सोनू की जगह उस दिन मेरा ही बेटा था. हां, मीनल यह घटना 6 साल पहले की है. मेरे 18 बरस के बेटे का जन्मदिवस था. वह अपने दोस्तों के साथ एक रैस्टोरैंट में गया था. लौटते समय उस की बाइक का ऐक्सीडैंट हो गया. सिर में लगी गंभीर चोट की वजह से उस की ब्रेन डैथ हो चुकी थी. मैं उस के दिल की धड़कन को हमेशा के लिए बरकरार रखना चाहती थी पर देश में उस समय हार्ट ट्रांसप्लांट के लिए मरीज उपलब्ध नहीं था.’’ डा. लतिका ने अपने आंसू पोंछ कर फिर कहना शुरू किया,

‘‘मेरे बेटे की धड़कन तो मैं नहीं बचा पाई लेकिन हम ने उस की दोनों किडनी और आंखें डोनेट कर दीं. आज कहीं न कहीं उस की आंखें यह दुनिया देख रही हैं. उस के गुर्दों ने तब मौत के मुंह में जाते 2 लोगों को बचा लिया था.’’कुछ देर के मौन के बाद प्रशांत ने हिम्मत कर के पूछा, ‘‘आप हार्ट किस को डोनेट करेंगे?’’‘‘क्षमा कीजिएगा, कुछ नियमों के कारण हम आप को यह जानकारी तो नहीं दे सकते. यह बात दोनों ही परिवारों से गुप्त रखी जाती है.

मु?ो भी अपने बेटे के समय ट्रांसप्लांट सर्जन ने यह जानकारी नहीं दी थी. लेकिन ट्रांसप्लांट सफल हुआ है या नहीं, वह सूचना हम आप को अवश्य देंगे,’’ डा. लतिका ने स्पष्ट किया.प्रशांत और मीनल डा. लतिका से विदा ले कर आई.सी.यू. में आ कर सोनू के पास बैठ गए. वैंटीलेटर के मौनिटर पर सोनू की धड़कनों का रिकौर्ड आ रहा था. उसे देखते ही प्रशांत बिलख कर बोले, ‘‘हां कह दो मीनल. अपने सोनू की धड़कनों के सिलसिले को रुकने मत दो. डाक्टर की बात मान लो.’’मीनल हैरानी से पति को देख कर बोली, ‘‘तुम भी यही कह रहे हो, प्रशांत? बताओ, मैं कैसे अपने मासूम बच्चे की चीराफाड़ी…’’

आगे के शब्द मीनल के आंसुओं से बह गए.‘‘जरा सोचो मीनल, कुछ घंटे बाद ब्रेन डैथ कन्फर्म होने के बाद यों भी ये लोग वैंटीलेटर हटा देंगे. तब तो सोनू की सांस और धड़कन सबकुछ खत्म हो जाएगा. हम भी उसे श्मशान ले जा कर जला देंगे. सबकुछ राख हो जाएगा. आज डाक्टर ने हमें कितना बड़ा मौका दिया है कि हम उस की धड़कन को, उस की आंखों की रोशनी को हमेशा के लिए बरकरार रख सकते हैं. हमारा सोनू किसी न किसी रूप में आगे भी जीवित रहेगा.’’ प्रशांत की नजरें अभी भी सोनू की धड़कनों पर थीं.‘‘मु?ो क्या करना है दुनिया से,’’ मीनल बोली, ‘‘मैं अपने मासूम बच्चे के साथ ऐसा नहीं कर सकती.’’‘‘ऐसा न कहो मीनल,’’ प्रशांत ने उस के कंधे पर हाथ रख कर सम?ाया,

‘‘डा. लतिका ने कहा न सोनू जल्द ही तुम्हारे पास आ जाएगा. सोनू को बचाने में हम ने कोई कसर बाकी नहीं रखी. परंतु सोनू के जाने के बाद भी उस की धड़कन और आंखों की रोशनी को बरकरार रख कर हमें मानवता की इतनी बड़ी सेवा करने का मौका मिला है.’’मीनल चुपचाप सुबकती रही. प्रशांत फिर बोले, ‘‘देश और देशवासियों की रक्षा के लिए मांएं अपने जवान बेटों को सीमा पर हंसतेहंसते कुरबान कर देती हैं. क्या उन्हें अपने बेटों को खोने का गम नहीं होता होगा? पर देश, समाज और इंसानियत की रक्षा के लिए वे हंस कर यह दर्द, यह तकलीफ सह लेती हैं. उन का ध्यान करो. अपने बच्चों को खोते समय वे भी तो नहीं जानतीं कि किन लोगों के लिए उन्हें कुरबान कर रही हैं.

जिन की रक्षा में उन के बच्चे अपने प्राण गंवाते हैं उन को सैनिकों की मांएं कहां पहचानती हैं.‘‘तुम भी यह मत सोचो कि सोनू का दिल या आंखें किस में ट्रांसप्लांट होंगी. बस, मानवता के प्रति अपना कर्तव्य सम?ा कर हां कर दो,’’ प्रशांत ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए उसे सम?ाने की आखिरी कोशिश की.मीनल ने अपना हाथ सोनू के सीने पर रखा. उस का दिल अपनी लय में धड़क रहा था. उस की धड़कन महसूस करते ही मीनल फफक पड़ी और रोते हुए बोली, ‘‘आप ठीक कहते हैं. मैं मां हूं. अपने बच्चे की धड़कन को भला कैसे रुकने दे सकती हूं. नहींनहीं, आप डा. लतिका से कह दीजिए कि मेरे सोनू के दिल की धड़कन हमेशा चलती रहेगी. उस की आंखें भी यह दुनिया देखती रहेंगी.’’मीनल को गले लगाते हुए प्रशांत खुद फफक कर रो दिया.प्रशांत के फैसले पर उस का हाथ पकड़ कर डा. लतिका ने आंखों में आंसू भर कर रुंधे गले से कहा, ‘‘तुम ने अपने बच्चे को अंधेरे में खो जाने से बचा लिया. तुम नहीं जानती हो कि तुम ने कितना बड़ा काम किया है. मानवता की कितनी बड़ी सेवा की है. कितने घरों के चिराग रोशन कर दिए. मैं तुम्हें दिल से दुआ देती हूं, तुम्हारा सोनू जल्द ही तुम्हारे पास वापस आएगा,’’

डा. लतिका ने मीनल को गले लगा लिया. अगले दिन प्रशांत और मीनल अपने घर में रिश्तेदारों से घिरे बैठे थे. तभी प्रशांत को डा. लतिका का फोन आया. सोनू का हार्ट उपलब्ध मरीजों में से एक के साथ मैच कर गया तथा उस बच्चे में प्रत्यारोपित कर दिया गया. प्रत्यारोपण सफल रहा है.इस के एक माह बाद डा. लतिका का फिर से फोन आया. सोनू का हार्ट जिस बच्चे में प्रत्यारोपित किया गया था उस के शरीर ने सोनू के दिल को स्वीकार कर लिया है. बच्चा अब पूरी तरह से स्वस्थ हो कर अपने घर जा रहा है. आप के सोनू का दिल सफलतापूर्वक धड़क रहा है और आगे भी धड़कता रहेगा.

सोनू की आंखें भी 2 लोगों को लगाई जा चुकी हैं.प्रशांत और मीनल ने एकदूसरे की ओर देखा. दोनों के मन ने एक अजीब सा संतोष महसूस किया. उन का सोनू आज भी जीवित है, उन्होंने सोनू को राख बन कर बिखर जाने से बचा लिया. उन का सोनू अमर हो गया.इतने दिनों की भागादौड़ी और दुख में मीनल ने अपनी ओर ध्यान ही नहीं दिया था. उस का सोनू तो कभी कहीं गया ही नहीं था. वह तो रूप बदल कर पहले से चुपचाप मीनल की कोख में छिप कर बैठा था. डा. लतिका की दुआ सच हुई.जिंदगी फिर मुसकरा रही थी.

अब बस पापा: जब एक बेटी बनी मां की ढाल

आशा का मन बहुत परेशान था. आज पापा ने फिर मां के ऊपर हाथ उठाया था. विमला, उस की मां 70 साल की हो चली थी. इस उम्र में भी उस के 76 वर्षीय पिता जबतब अपनी पत्नी पर हाथ उठाते थे. अभीअभी मोबाइल पर मां से बात कर के उस का मन आहत हो चुका था. पर उस की मजबूरी यह थी कि वह अपनी यह परेशानी किसी को बता नहीं सकती थी. अपने पति व बच्चों को भी कैसे बताती कि इस उम्र में भी उस के पिता उस की मां पर हाथ उठाते हैं.

मां के शब्द अभी भी उस के दिमाग में गूंज रहे थे, ‘बेटा, अब और नहीं सहा जाता है. इन बूढ़ी हड्डियों में अब इतनी जान नहीं बची है कि तुम्हारे पापा के हाथों से बरसते मुक्कों का वेग सह सकें. पहले शरीर में ताकत थी. मार खाने के बाद भी लगातार काम में लगी रहती थी. कभी तुम लोगों पर अपनी तकलीफ जाहिर नहीं होने दी. पर अब मार खाने के बाद हाथ, पैर, पीठ, गरदन पूरा शरीर जैसे जवाब दे देता है. दर्द के कारण रातरात भर नींद नहीं आती है. कराहती हूं तो भी चिल्लाते हैं. शरीर जैसे जिंदा लाश में तबदील हो गया है. जी करता है, या तो कहीं चली जाऊं या फिर मौत ही आ जाए ताकि इस दर्द से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाए. पर दोनों ही बातें नहीं हो पातीं. चलने तक को मुहताज हो गई हूं.’

आशा मां के दर्द, पीड़ा और बेबसी से अच्छी तरह वाकिफ थी, लेकिन वह कर भी क्या सकती थी. मां को अपने घर ले आना भी तो समस्या का समाधान नहीं था, और आखिर कब तक मां को वह अपने घर रख सकती थी? अपनी घरगृहस्थी के प्रति भी तो उस की कोई जिम्मेदारी थी. ऊपर से भाइयों के ताने सुनने को मिलते, सो अलग. उस के दोनों भाई अपनीअपनी गृहस्थी में व्यस्त थे. अलग रह रहे मांबाप की भी कभीकभी टोह ले लिया करते थे.

वैसे तो बचपन से उस ने अपनी मां को पापा से मार खाते देखा था. घर के हर छोटेबड़े निर्णय पर मां की चुप्पी व पिता के कथन की मुहर लगते देखा था. वह दोनों के स्वभाव से परिचित थी. वह जानती थी कि सदा से ही घरगृहस्थी के प्रति बेपरवाह व लापरवाह पापा के साथ मां ने कितनी तकलीफें सही हैं और बड़ी मेहनत से तिनकातिनका जोड़ कर अपनी गृहस्थी बसाई व बच्चों को पढ़ालिखा कर काबिल बनाया. वरना पापा को तो यह तक नहीं मालूम था कि कौन सा बच्चा किस क्लास में पढ़ रहा है. वे तो अपनी मौजमस्ती में ही सदा रमे रहे.

उन दोनों के व्यक्तित्व व व्यवहार में जमीनआसमान का फर्क था. एक तरफ जहां मां आत्मविश्वासी, ईमानदार, मेहनती, कुशल और सादगीपसंद महिला थीं, वहीं दूसरी ओर उस के पिता मस्तमौला, स्वार्थी, लालची और रसिया किस्म के इंसान थे, जो स्थिति के अनुसार अपना रंग बदलने में भी माहिर थे. आज भी दोनों के व्यक्तित्व में इंचमात्र भी अंतर नहीं आया था. हां, शारीरिक रूप से अस्वस्थ व कमजोर होने के कारण मां थोड़ी चिड़चिड़ी अवश्य हो गई थीं. इसलिए अब जब भी उन के बीच वादविवाद की स्थिति बनती थी तो वे प्रत्युत्तर में पापा को बुराभला जरूर कहती थीं. यह बात पापा को कतई बरदाश्त नहीं होती थी. आखिर सालों से वे उन होंठों पर चुप्पी की मुहर देखते आए थे, सो, इस बात को हजम करने में उन्हें बहुत मुश्किल होती थी कि उन की पत्नी उन से जबान लड़ाती है. दोनों भाई भी यों तो मां को बहुत प्यार करते थे लेकिन उन की आपसी लड़ाई में अकसर पापा का ही पक्ष लिया करते थे.

आशा को मालूम था कि पिछली बार जब पापा ने मां पर हाथ उठाया था तो अत्यधिक आवेश व क्षोभ में मां ने भी उन का हाथ पकड़ कर उन्हें झिंझोड़ दिया था, और सख्त ताकीद की थी कि वे अब ये सब नही सहेंगी. तब आननफानन पापा ने सभी बच्चों को फोन लगा कर उन्हें उन की मां द्वारा की गई इस हरकत के बारे में बताया था. तब छोटे भैया ने घर पहुंच कर मां को खूब लताड़ लगाई थी और यह तक कह दिया था कि आप की बहू आप से सौ गुना अच्छी है, जो अपने पति से इस तरह का व्यवहार तो नहीं करती है. पता नहीं, पर शायद उन की भी पुरुषवादी सोच मां के इस कृत्य से आहत हो गई थी.

आशा को बहुत बुरा लगा था, आखिर इन मर्दों को यह क्यों नहीं समझ आता कि औरत भी हाड़मांस से बनी एक इंसान है, वह कोई मशीन नहीं जिस में कोई संवेदना न हो. उसे भी दर्द और तकलीफ होती है, वह भी कितना और कब तक सहे? और आखिर सहे भी क्यों?

भैया ने उस से भी फोन कर मां की शिकायत की थी, इस उद्देश्य से कि वह मां को समझाए कि इस उम्र में ये बातें उन्हें शोभा नहीं देतीं. बोलना तो वह भी बहुतकुछ चाहती थी, पर इस डर से कि बात कहीं और न बिगड़ जाए, सिर्फ हांहूं कर के फोन रख दिया था. काश, उस वक्त उस ने भी सचाई बोल कर भाई का मुंह बंद कर दिया होता, कि भैया, मां से तो आप की पत्नी की तुलना हो भी नहीं सकती है. क्योंकि न ही वे भाभी जैसे झूठ बोलने में यकीन रखती हैं और न अपना आत्मसम्मान कभी गिरवी रख सकती हैं. उन्होंने तो सदा सिर्फ अपनी जिम्मेदारियां ही निभाई हैं, बिना अपने अधिकारों की परवा किए. पर आप की पत्नी तो हमेशा से ही मस्त व बिंदास रही हैं, जबजब आप ने उन की मरजी के खिलाफ कोई भी काम किया है तबतब उन्होंने क्याक्या तांडव किए हैं, क्या आप को याद नहीं है? और अब जबकि आप उन की जीहुजूरी में हमेशा ही लगे रहते हो तो वे आप का विरोध करेंगी ही क्यों? भाभी की याद करतेकरते आशा के मुंह में जैसे कड़वाहट सी घुल गई.

विचारों के भंवर में इसी तरह गोते लगाती हुई आशा की तंद्रा दरवाजे की घंटी की आवाज से टूट गई. घड़ी की ओर निगाहें घुमा कर वह मन ही मन बुदबुदा उठी, ‘अब कैसे होगा काम, बच्चे आ गए, आज उस का सारा काम पड़ा हुआ है.’ भारी मन से उठते हुए उस ने दरवाजा खोला, तो चहकते हुए दोनों बच्चों ने घर में प्रवेश किया, ‘‘ममा, पता है, आज ड्राइंग टीचर को मेरी ड्राइंग बहुत अच्छी लगी, पूरी क्लास ने मेरे लिए क्लैप किया. टीचर ने मुझे टू स्टार्स भी दिए हैं. देखो,’’ नन्हीं परी ने मां को अपनी ड्राइंग शीट दिखाते हुए कहा.

‘‘ओहो, मेरी रानी बिटिया तो बड़ी होशियार है, आई एम प्राउड औफ यू,’’ कहते हुए उस ने नन्हीं परी को गले लगा लिया. परी अभी 7 साल की थी व दूसरी कक्षा में पड़ती थी. उस से बड़ा सौरभ था. जो कि 7वीं क्लास में पढ़ता था.

‘‘ममा, बहुत भूख लगी है, मेरे लिए पहले खाना लगा दो प्लीज,’’ सौरभ अपना बैग रखते हुए बोला.

‘‘ओके, बच्चो, आप फ्रैश हो कर आओ, तब तक मैं जल्दी से आप के लिए खाना परोसती हूं,’’ कह कर आशा किचन की तरफ चल दी. उस ने अभी तक कुछ भी खाने को नहीं बनाया था. बस, कामवाली काम कर के जा चुकी थी, लेकिन उस ने घर भी नहीं समेटा था. बच्चों की पसंद ध्यान में रखते हुए उस ने जल्दी से गरमागरम परांठे और आलू फ्राई बना कर सौस के साथ परोस दिया. बच्चों को खिलातेखिलाते भी उस के दिमाग में कुछ उधेड़बुन चल रही थी.

कुछ देर बाद उस ने दोनों बच्चों को तैयार कर अपनी पड़ोसिन सीमा के पास छोड़ा. और खुद सीधा अपनी मां के घर चल दी. वहां पहुंच कर पता चला कि पापा कहीं बाहर गए हैं. मां की हालत देख उस की रुलाई फूट पड़ी, पर अपने आंसुओं को जब्त कर वह बड़े ही शांत स्वर में बोली, ‘‘मां, चलो तैयार हो जाओ, हमें पुलिस स्टेशन चलना है.’’

‘‘लेकिन बेटा, एक बार और सोच

ले. अभी बात ढकी हुई है, कल को आसपड़ोस, समाजबिरादरी, नातेरिश्तेदारों तक फैल जाएगी. लोग क्या कहेंगे? बहुत बदनामी होगी हमारी. सब क्या सोचेंगे?’’ मां ने कुछ अनुनयपूर्वक कहा.

‘‘जिस को जो सोचना है सोच ले, मगर अब मैं आप को और जुल्म सहने नहीं दूंगी. मां, तुम समझती क्यों नहीं हो, जुल्म सहना भी एक बहुत बड़ा अपराध है और आज तक आप सब सहती आई हो. आप की इसी सहनशीलता ने पापा को और प्रोत्साहित किया. मगर अब, पापा को यह बात समझनी ही होगी कि आप पर हाथ उठाना उन के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है.’’

मां को तैयार कर आटो में उन का हाथ थाम कर उन के साथ बैठती आशा ने जैसे मन ही मन ठान लिया था, अब बस, पापा.

फादर्स डे स्पेशल: ताजपोशी- क्या पिता की संपत्ति पर कब्जा कर पाया राहुल

मम्मी की मृत्यु के बाद पिताजी बहुत अकेले हो गए थे, रचिता के साथ राहुल मेरठ पहुंचा, तेरहवीं के बाद बच्चों का स्कूल और अपने बैंक आदि की बात कह कर जाने की जुगत भिड़ाने लगा.

‘‘पापा, आप भी हमारे साथ इंदौर चलें,’’ रचिता ने कह तो दिया किंतु उस का दिल आधा था, इंदौर में उन का 3 कमरों का फ्लैट था, उस में पापा को भी रखना एक समस्या थी.

‘‘मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा,’’ पापा ने जब अपना अंतिम फैसला सुनाया तो उन की जान में जान आई.

‘‘लेकिन पापा तो अस्वस्थ हैं, वे अकेले कैसे रहेंगे?’’ रचिता के प्रश्न ने राहुल को कुछ सोचने पर विवश कर दिया. उसे ननिहाल की रजनी मौसी की याद आई जो विधवा थीं, उन की एक लड़की थी किंतु ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया, भाईभावज ने भी खोजखबर न ली तो अपने परिश्रम से मजदूरी कर के अपना और अपनी बच्ची का पेट पालने लगी.

राहुल ने ननिहाल में एक फोन किया और 2 दिन के अंदर रजनी मौसी मय पुत्री मेरठ हाजिर हो गईं, कृशकाय, अंदर को धंसी आंखों वाली रजनी मौसी के चेहरे पर नौकरी मिल जाने का नूर चमक रहा था, वे लगभग 40 वर्ष की मेहनतकश स्त्री थीं, बोलीं, ‘‘मैं आप की मां को दीदी कहा करती थी, रिश्ते में आप की मौसी हूं, इस घर को अपना मानूंगी और जीजाजी की सेवा में आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’’

‘‘आप चायनाश्ता बनाएंगी, खाना, दवा, देखभाल आप करेंगी, महरी बाकी झाड़ूपोछा, बरतन कर ही लेगी, पगार कितनी लेंगी?’’ रचिता ने पूछा.

‘‘मौसी भी कह रही हैं और पगार पूछ कर शर्मिंदा भी कर रही हैं. हम मांबेटी को खानेरहने का ठौर मिल गया और क्या चाहिए. जो आप की इच्छा हो दे दीजिएगा.’’

रचिता चुप हो गई, बात जितने कम में तय हो उतना अच्छा, राहुल के चेहरे पर भी संतोष था. उस का कर्तव्य था पापा की सेवा करना किंतु वह असमर्थ था, अब कोई मामूली रकम में उस कर्तव्य की भरपाई कर रहा था. पापा गमगीन थे. एक तो पत्नी का शोक, ऊपर से बेटाबहू, बच्चे सब जा रहे थे.

रचिता ने धीरे से राहुल के कान में कहा, ‘‘मम्मी की अलमारी में साडि़यां, जेवर व दूसरे कीमती सामान रखें हैं, पापा अब अकेले हैं. घर में बाहर के लोग भी रहेंगे. सो हमें उस की चाबी ले लेनी चाहिए.’’

‘‘पापा, अलमारी की चाबी कभी नहीं देंगे. अचानक तुम्हें जेवर, कपड़ों की चिंता क्यों होने लगी, धैर्य रखो, सब तुम्हें ही मिलेगा,’’ राहुल मुसकरा कर बोला.

बीचबीच में आने की बात कह कर राहुल, रचिता इंदौर रवाना हो गए, इंदौर में भी वे पापा, घर, अलमारी, बैंक के रुपयों, प्रौपर्टी की बातें करते रहते, उन्हें चिंता होती. चिंताग्रस्त हो कर वे फिर मेरठ रवाना हो गए, लगभग डेढ़ महीने में यह उन की दूसरी यात्रा थी.

घर के बाहर लौन साफसुथरा था, सारे पौधों में पानी डाला गया था, कई नए पौधे भी लगाए गए थे, दरवाजा खुलने पर रजनी मौसी ने मुसकराते हुए स्वागत किया, ‘‘आइए, आप का, फोन मिला था.’’

कुछ ही देर में मिठाई, पानी लिए फिर हाजिर हुईं, पूरा घर साफसुथरा सुव्यवस्थित था, उस की लड़की ने चाय बनाने से पहले सूचित किया, ‘‘बड़े साहब सो रहे हैं.’’

रचिता ने मांबेटी का निरीक्षण किया. दोनों ने बढि़या कपड़े पहने थे, बाल भी सुंदर तरीके से सेट थे, रजनी ने चूडि़यों, टौप्स के साथ बिंदी वगैरह भी लगाई हुई थी.

‘‘तुम्हारी मौसी का तो कायाकल्प हो गया,’’ रचिता फुसफुसाई.

‘‘भूखे, नंगे को सबकुछ मिलने लगेगा तो कायाकल्प तो होगा ही,’’ राहुल ने मुंह बना कर कहा.

दोनों असंतुष्टों की तरह चाय पीते पापा के जगने का इंतजार करते रहे. पापा को देख कर उन्हें और आश्चर्य हुआ. वे पहले से अधिक स्वस्थ और ताजादम लग रहे थे. पहले के झुकेझुके से पापा अब सीधे तन कर चल रहे थे. मम्मी के जाने के बाद हंसना भूल गए पापा ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘बड़ी जल्दी मिलने चले आए?’’

‘‘अब आप अकेले हो गए हैं तो हम ने सोचा…’’

‘‘अकेले कहां, रजनी है, उस की लड़की सरला है, उस को यहीं इंटर कालेज में डाल दिया है, शाम को एक घंटा पढ़ा दिया करता हूं, तेज है.’’

पापा सरला का गुणगान करते रहे फिर उसे पढ़ाने बैठ गए. रजनी मौसी सब के चाय, नाश्ते के बाद रात के खाने में जुट गईं. सबकुछ ठीक चल रहा था किंतु राहुल, रचिता असंतुष्ट मुखमुद्रा में बैठे थे. वे पापा के किसी काम नहीं आ पा रहे थे और अब उन को इन की कोई जरूरत भी नहीं रही.

रात को पापा सीरियल्स देखते हुए रजनी से उस के बारे में पूछताछ करते खूब हंसते रहे. सरला से पढ़ाई संबंधी बातें भी करते रहे, जीवन से निराश पापा को जीने की वजह मिल गई थी. रात में खाना खाते समय सब चुपचाप थे. खाना स्वादिष्ठ और मिर्चमसालेरहित था. रजनी मौसी एकएक गरम रोटी इसरार से खिलाती रहीं, अंत में खीर परोसी गई. पापा संतुष्ट एवं खुश थे. राहुल, रचिता संदेहास्पद दृष्टि से रजनी को घूर रहे थे. रात में टीवी कार्यक्रम की चर्चा रजनी और सरला से करते पापा कई बार बेटेबहू की उपस्थिति ही भूल गए, नातीपोतों का हालचाल भी नहीं पूछा. रात में सोते समय राहुल बोला, ‘‘यदि हम उसी समय अपने साथ पापा को ले चलते तो आज वे इस तरह मांबेटी में इनवौल्व न होते.’’

‘‘अरे, यहां क्या बुरा है, स्वस्थ हट्टेकट्टे हैं, खुश हैं, वहां 3 कमरों के डब्बे में कहां एडजस्ट करते इन्हें,’’ रचिता बोली.

‘‘तुम मूर्ख हो. तुम से बहस करना बेकार है. अब मामला हमारे हाथ से निकल रहा है. मुझे ही बात आगे बढ़ानी होगी.’’

‘‘बात क्या बढ़ाओगे?’’

‘‘अरे, तुम ही न कहती थीं इस बंगले को बेच कर इंदौर में अपने फ्लैट के ऊपर एक शानदार फ्लैट बनाओगी और बाकी रुपया बच्चों के नाम फिक्स कर दोगी?’’

‘‘हां, हां, लेकिन अब यह कहां संभव है?’’

‘‘अब पापा दिनप्रतिदिन स्वस्थ होते जा रहे हैं, उन की मृत्यु की प्रतीक्षा में तो हमारी उम्र बीत जाएगी, उन्हें इंदौर ले चलते हैं.’’

‘‘जैसा तुम उचित समझो, मैं एडजस्ट कर लूंगी,’’ रचिता बोली. उसे सास की अलमारी की भी चिंता थी जिस में कीमती गहने और अन्य महंगे सामान थे. उसे उन्हें देखनेभालने की प्रचुर इच्छा थी किंतु सासूमां के रहते इच्छा पूरी नहीं हुई और अब भी स्थितियां प्रतिकूल हो रही थीं.

अगले दिन दोनों ने रजनी मौसी का सेवाभाव देखा, नाश्ता, खाना, पापा के सारे कपड़े, बैडशीट, तौलिया आदि धोना, पापा के पूरे शरीर और सिर की जैतून की तेल से घंटेभर मालिश करना. उस दौरान पापा के चेहरे पर अपरिमित सुखशांति छाई रहती थी. तुरंत गुनगुने पानी से स्नान जिस में मौसी पूरी मदद करतीं. फिर उन का हलका नाश्ता करना यानी चपाती, सब्जी, ताजा मट्ठा आदि. किंतु रजनी मौसी ने राहुलरचिता के लिए अलग से देशी घी का हलवा और पोहा बनाया था, सब ने मजे ले कर खाया.

राहुल समझ गया था कि पापा के स्वास्थ्य में निरंतर सुधार का कारण क्या है, वह उन की इतनी सेवा कभी कर ही नहीं सकता था तब भी हिम्मत जुटा कर उस ने शब्दों द्वारा पापा को बांधने का प्रयास किया, ‘‘पापा, आप यहां कब तक दूसरों की दया पर निर्भर रहेंगे, हमारे साथ इंदौर चलिए, वहां नातीपोतों का साथ मिलेगा, सब साथ रहेंगे.’’

‘‘मैं किसी की दया पर निर्भर नहीं हूं. रजनी काम करती है, उस का पैसा देता हूं. वहां तुम्हारा घर छोटा है, तुम लोग मुश्किल में पड़ जाओगे.’’

‘‘इसीलिए तो अपने फ्लैट के ऊपर एक और वैसा ही फ्लैट बनवाना चाहता हूं,’’ राहुल ने कहा.

‘‘बिलकुल बनवाओ,’’ पापा ने कहा.

‘‘इस बंगले को बेच कर जो रकम मिलती उसी से फ्लैट बनवाता यदि आप हम लोगों के साथ चल कर रहते.’’

‘‘मैं अपने जीतेजी यह बंगला नहीं बेचूंगा. तुम लोन ले कर अपने बलबूते पर फ्लैट बनवाओ. आखिर बैंक औफिसर हो, अच्छा कमाते हो?’’

‘‘लेकिन 2 घरों की देखभाल…’’

‘‘उस की चिंता तुम मत करो?’’

एक आशा खत्म होने पर राहुल व्यग्र हो गया, ‘‘कम से कम अलमारी की चाबी ही दे दीजिए, रचिता अपने साथ मम्मी के गहने और जेवर ले जाना चाहती है.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी के पास कपड़ों, गहनों का अभाव तो नहीं है, कम से कम मेरे मरने की प्रतीक्षा करो.’’

राहुल, रचिता मायूस हो कर इंदौर लौट आए. रास्ते में रचिता बोली, ‘‘पापा कहीं रजनी मौसी से प्रेम का चक्कर तो नहीं चला रहे?’’

राहुल को रचिता की बातें स्तरहीन लगीं किंतु वह चुप रहा, अगली बार वे बच्चों सहित जल्दी ही मेरठ पहुंचे. वहां रजनी को मां की साड़ी और गले में सोने की जंजीर पहने देख उन्हें शक हुआ. अच्छे खानपान से शरीर भर गया था. वे सुंदर लग रही थीं, उन की लड़की अच्छी शिक्षादीक्षा के कारण संभ्रांत और सुरुचिपूर्ण लग रही थी.

‘‘आप में बड़ा परिवर्तन आया है रजनी मौसी?’’ राहुल बोला. उस वक्त पापा वहां न थे.

‘‘कैसा परिवर्तन, वैसी ही तो हूं,’’ रजनी ने विनम्रता से कहा.

‘‘आप कामवाली कम, घरवाली ज्यादा लग रही हैं.’’

‘‘ऐसा कह कर पाप का भागी न बनाएं, हम तो मालिक की सेवा में प्राणपण एक किए रहते हैं. सो, कभीकभी इनाम मिल जाता है,’’ रजनी मौसी ने उन के घृणास्पद आक्षेप को भी अपनी विनम्रता से ढकने का प्रयास किया,

राहुलरचिता के ईर्ष्या, संदेह से दग्ध हृदय को तनिक राहत मिली, किंतु पापा राहुल की स्वार्थपूर्ण योजनाओं, प्रौपर्टी, धन, संपत्ति की बातों से चिढ़ गए. बोले, ‘‘बेटा, बाप की मृत्यु के बाद ही तो बेटे की ताजपोशी होती है. तू तो मेरे जीतेजी ही व्यग्र हुआ जा रहा है.’’

राहुल कैसे कहता जीर्णशीर्ण, कुम्हलाए पापा को रजनी मौसी अपने परिश्रम से दिनोंदिन स्वस्थ, प्रसन्न करती जा रही हैं. सो, दूरदूर तक उन की मृत्यु के आसार नजर नहीं आ रहे थे और उस के गाड़ीवाड़ी, बैंक बैलेंस आदि के सपने धराशायी हो गए थे. पापा के जीवित रहते ही उन्हें हथियाना चाह रहा था तो पापा के अडि़यल रवैये से वह सब संभव नहीं लग रहा था. रात के खाने के बाद साधारण बातचीत ने झगड़े का रूप ले लिया. राहुल अपनी असलियत पर उतर आया, बोला, ‘‘पापा, कहीं आप दूसरी शादी के चक्कर में तो नहीं हैं? यदि ऐसा है तो इस से शर्मनाक कुछ हो ही नहीं सकता.’’

पापा की बोलती बंद हो गई. वे हक्केबक्के इकलौते पुत्र का मुंह देखते रह गए लेकिन फिर जल्दी ही संभल गए, बोले, ‘‘आज तुझे अपना पुत्र कहते लज्जा का अनुभव होता है. एक निस्वार्थ स्त्री, जिस ने तेरे मरते हुए बाप को आराम और सुख के दो पल दिए, उसे तू ने गाली दी. साथ ही, अपने जन्मदाता को शर्मसार किया. मैं तुझे एक पल यहां बरदाश्त नहीं कर सकता. सुबह होते ही अपने परिवार सहित यहां से कूच कर जाओ. ऐसे पुत्र से तो निसंतान होना बेहतर है.’’

पापा के रुख को देख कर राहुल की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. अगले ही दिन वे इंदौर लौट गए. फिर 1 वर्ष तक उस ने मेरठ का रुख नहीं किया. रजनी मौसी स्वयं फोन कर के पापा की खबर देती रहती थीं.

एक दिन पता चला, पापा बाथरूम में गिर गए हैं और उन के कूल्हे की हड्डी टूट गई है. राहुल एक दिन के लिए आया अवश्य किंतु कूल्हे की हड्डी के औपरेशन के कारण उन्हें हाई डोज एनीस्थीसिया दी गई थी, सो पापा से भेंट नहीं हुई. औपरेशन के बाद राहुल अगले ही दिन लौट आया, उस का एक वकील मित्र था मनमोहन, उस ने और रजनी मौसी ने बढ़चढ़ कर पापा की सेवा की इसलिए राहुल निश्ंिचत भी था. चूंकि मनमोहन पापा की प्रौपर्टी और धन की देखभाल करता था इसलिए राहुल उस से संपर्क बनाए रखता था.

पापा फिर बिस्तर से उठ नहीं पाए. वे बिस्तर के हो कर रह गए थे. रजनी, मनमोहन ने राहुल, रचिता को आने के लिए कहा किंतु उन्होंने बच्चों की परीक्षा और अन्य व्यस्तताओं का बहाना बनाया. अंत में उन्हें पापा की मृत्यु का समाचार मिला और राहुल, पत्नी व बच्चों सहित तुरंत मेरठ पहुंच गया.

वहां पिता के निस्पंद शरीर को देख कर उस की आंखों में आंसू नहीं आए. लोग रजनी मौसी की बहुत प्रशंसा कर रहे थे कि उस ने जितनी पापा की सेवा की वह घर का सदस्य नहीं कर सकता था. किंतु राहुल कुछ सुन नहीं रहा था. एक अजीब सा भाव उस के मनमस्तिष्क और शरीर में छाया था, गुरुत्तर भाव, सबकुछ मेरा. मैं इस घर, खेतखलिहान, बैंकबैलेंस सब का मालिक. मेरे ऊपर कोई नहीं, जो इच्छा हो, करो. कोई डांटडपट, आदेश, अवज्ञा नहीं. राहुल को लगा कि वह सिंहासन पर बैठा है और उस की ताजपोशी हो रही है. यह एहसास नया नहीं था, एक पीढ़ी के गुजर जाने के बाद दूसरी पीढ़ी के ‘बड़े’ को यह ‘सत्तासुख’ हमेशा ही ऐसा आनंदित करता है. तब बच्चे बुजुर्गों की मृत्यु से दुख नहीं वरन संतोष का अनुभव करते हैं. अचानक उस की वक्रदृष्टि रजनी मौसी पर पड़ी, उस ने धीरे किंतु विषपूर्ण स्वर में कहा, ‘‘तेरहवीं के बाद तुम मांबेटी को मैं एक क्षण यहां नहीं देखना चाहता.’’

इस तरह पिता की मृत देह की उपस्थिति में उस ने रजनी मौसी, जिस ने उस के और रचिता के कर्तव्यों का बखूबी निर्वाह किया था, का पत्ता काट दिया. मनमोहन ने कुछ बोलने का प्रयास किया किंतु उस ने इशारों से उसे चुप करा दिया. वह अंतिम संस्कार के पूर्व किसी प्रकार का ‘तमाशा’ नहीं चाहता था, रजनी चुपचाप रोती रहीं.

अंतिम संस्कार के बाद राहुल की महत्ता जैसे और बढ़ गई. पिता को मुखाग्नि दे कर वह समाज के संभ्रांत लोगों के बीच बैठा दीनदुनिया की बातें करता रहा. उन के जाते ही उस के भीतर शांत बैठा परिवार का मुखिया फिर जाग गया. वह मनमोहन से पिता की संपत्ति का ब्यौरा लेने लगा और रजनी मौसी को अगले ही दिन जाने का आदेश सुना दिया. मनमोहन ने उसे समझाया, ‘‘राहुल, रुक जाओ, तेरहवीं तो हो जाने दो.’’

‘‘बिलकुल नहीं, तुम्हें नहीं पता इस स्त्री के कारण ही मेरे पिता मुझ से दूर हो गए, मुझे अंतिम समय कुछ न कर पाने का पितृकर्ज चढ़ गया.’’

‘‘किंतु रजनी मौसी ने अथक परिश्रम तो किया. तो कम से कम तेरहवीं की रस्म…’’

‘‘कैसी तेरहवीं? उस के लिए हम फिर आएंगे, इतनी लंबी छुट्टी न मुझे मिलेगी न बच्चों को स्कूल से, पर उस के पूर्व मैं घर लौक कर के जाऊंगा, लौकर से गहने निकलवा लूंगा, रुपए अपने खाते में ट्रांसफर करवा लूंगा, घर, अलमारी के कीमती सामान ठिकाने लगा दूंगा.’’

‘‘किंतु तुम ऐसा नहीं कर सकते.’’

‘‘अच्छा, भला कौन रोकेगा मुझे?’’

‘‘तुम्हारे पिता की वसीयत. उन्होंने तेरहवीं के दिन मुझ से वसीयत पढ़ने को कहा था. किंतु तुम्हारी जल्दबाजी के कारण आज ही मुझे तुम को बताना है कि यह घर वे रजनी मौसी के नाम कर गए हैं, बैंक के रुपयों का 50 प्रतिशत वे किसी अनाथाश्रम को दे कर गए हैं और बाकी 50 प्रतिशत तुम्हारे बच्चों के नाम कर गए हैं जो उन्हें बालिग होने पर मिलेगा. अलमारी और लौकर के जेवर वे तुम्हारी पत्नी को दे कर गए हैं.’’

राहुल के पैरों तले जमीन खिसक गई, वह विस्मय से मुंह खोले मनमोहन को ताकता रहा.

‘‘स्त्रीपुरुष का केवल एक ही रिश्ता नहीं होता, तुम ने उन पर, एक वृद्ध व्यक्ति पर चरित्रहीनता का आक्षेप लगा कर अंतिम समय में उन्हें बहुत कष्ट पहुंचाया जिस का तुम्हें पश्चात्ताप करना होगा,’’ मनमोहन ने अपनी वाणी को विराम दिया और उसे हिकारत से देखते हुए चला गया, सिसकसिसक कर रोती रजनी के सामने आंखें उठाने की हिम्मत नहीं रह गई थी राहुल में, वह वैसे ही सिर झुकाए बैठा रह गया.

फादर्स डे स्पेशल: खाली घोंसला- जब घर छोड़ कर चले जाएं बच्चे

पढ़ाई हो या नौकरी, अब बच्चे दूरदूर के शहरों तक जाने लगे हैं. कई बार तो कक्षा 12 के बाद ही अपनी पढ़ाई पूरी करने दूसरे शहर जाने लगे हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि अब शहर से शहर और देश से देश की दूरियां कम हो गई हैं. आनेजाने और वहां रहनेखाने के तमाम सरल उपाय उपलब्ध हैं.

लड़के ही नहीं, बड़ी तादाद में लड़कियां भी दूर शहरों तक जाने लगी हैं. वैसे तो दूर शहर जाना कोई बड़ी समस्या अब नहीं है, लेकिन इधर कुछ सालों में जिस तरह से कोरोना के कारण तालाबंदी हुई और तरहतरह की पाबंदियां लगीं उस से बाहर जाने वाले बच्चों और उन के घरपरिवार के लोगों के मन में डर बैठ गया है.

केवल कोरोना ही नहीं, रूस और यूक्रेन युद्ध के दौरान भी वहां पढ़ाई कर रहे बच्चों को कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ा. इस की वजह से अब नौकरी या पढ़ाई के लिए घर छोड़ कर जाने में बच्चों व परिवार को चिंता होने लगी है. वैसे देखें तो लोग बहुत जल्द इन हालात से बाहर भी निकल रहे हैं. बच्चों के कैरियर को प्राथमिकता देते हुए घर वाले फैसले करने लगे हैं. यही वजह है कि छोटे शहरों के बच्चे भी अब नएनए मुकाम हासिल करने लगे हैं. इस में बच्चों के साथसाथ उन के परिवार के लोगों के फैसले महत्त्वपूर्ण होते हैं. कोरोना और यूक्रेन युद्ध के बाद के हालात से बाहर निकल कर लोग बच्चों को फिर से बाहर भेजने लगे हैं.

इंजीनियरिंग और डाक्टरी की पढ़ाई के लिए ही नहीं बल्कि आर्ट, कौमर्स, कानून और मैनेजमैंट की पढ़ाई के लिए भी बच्चे अब दूरदूर जाने लगे हैं. इस की वजह यह है कि जमाना कंपीटिशन का है. आज हर बच्चा अच्छी से अच्छी शिक्षा हासिल करना चाहता है और अपने कैरियर को नई उंचाइयों तक ले जाना चाहता है. अपने शहर से दूर दूसरे शहर में जाना कोई अजूबा नहीं है. कोशिश इस बात की हो कि दूर जा कर भी घर और परिवार के बीच की दूरी न रहे और न ही अकेलेपन का अनुभव हो.

बेटियां बना रहीं कैरियर

डाक्टर श्वेता सिंह के पिता ने उन की शादी ग्रेजुएट करतेकरते कर दी थी. वे अपनी बेटी को कहीं बाहर दूर पढने नहीं भेजना चाहते थे. अब दौर बदल गया है. डाक्टर श्वेता सिंह अब अपनी बेटी को उस की पसंद का कैरियर चुनने और पढ़ाई के लिए बाहर भेजने में कोई दिक्कत का अनुभव नहीं करती हैं.

वे कहती हैं, ‘‘यह सच बात है कि बेटियों को दूर भेजने में दिल को कठोर करना पड़ता है. तमाम तरह के डर सामने होते हैं. इस के बाद भी हम ने बेटी के कैरियर को ले कर कोई सम?ाता नहीं किया. वह यूके में रह कर अपनी पढ़ाई पूरी कर रही है और अपने खर्चे उठाने के लिए खुद ही जौब भी कर रही है. यह देख कर अच्छा लगता है. अपनी बेटी पर गर्व होता है. कोरोना के दौरान जब तालाबंदी हुई तो दिक्कत हुई थी. उस समय वह घर वापस आ गई थी. लेकिन जैसे ही हालात सामान्य हुए, वह वापस गई और हम ने भी उसे जाने दिया.’’

अनीता मिश्रा भी उन पेरैंट्स में से हैं जिन की बेटी और बेटा दोनों विदेश में रह कर पढ़ाई पूरी कर रहे हैं और जौब भी कर रहे हैं. अनीता मिश्रा कहती हैं, ‘‘हमारी पीढ़ी के सामने अपने कैरियर को मनचाहे ढंग से आगे बढ़ाने के अवसर कम मिले. हम अपने बच्चों के कैरियर बनाने के लिए खुला आसमान दे रहे हैं. हर पेरैंट्स अपने लैवल पर बच्चों को अवसर देने लगे हैं. पेरैंट्स बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने लगे हैं. इस वजह से उन के लिए शहरों की दूरी माने नहीं रखती है. हर शहर और देश ऐसे बच्चों के लिए अपने यहां ऐसा माहौल बनाने लगे हैं कि बच्चों को दूरी का एहसास ही नहीं होता है.’’

डाक्टर गिरीश चंद्र मक्कड़ का बेटा यूएसए में रहता है. वहां वह डाक्टरी पेशे में है. उसे छुटिट्यां कम मिलती हैं. ऐसे में डाक्टर गिरीश मक्कड़ खुद पतिपत्नी साल में एकदो बार 15-20 दिनों के लिए वहां छुटिट्यां मनाने चले जाते हैं. वे कहते हैं, ‘‘हम ने बेटे से कहा कि जब तक हम लोग यहां आ कर तुम से मिलने में आनेजाने की दिक्कतों का अनुभव नहीं करते, आते रहेंगे. जब हमें दिक्क्त होगी, तो तुम आ जाना.’’

इस तरह ही दूसरे पेरैंट्स को सोचना और करना चाहिए. सब से ज्यादा सम?ादारी तब दिखानी होती है जब बच्चे की शादी हो जाए और वह पत्नी के साथ दूर शहर में रहने लगे. तालमेल बैठा कर ही दोनों आराम से जीवन गुजरबसर कर सकते हैं.

अकेलापन न सम?ों

बच्चों के दूर शहर में पढ़ने या नौकरी करने जाने के बाद पेरैंट्स और बच्चे दोनों ही अकेलापन अनुभव करने लगते हैं. कई बार बच्चे नए माहौल में खुद को ढाल नहीं पाते हैं और कई बार पेरैंट्स बच्चों की याद में अकेलापन अनुभव करने लगते हैं.

मनोविज्ञानी डाक्टर नेहा आनंद कहती हैं, ‘‘कुछ बच्चे घर के माहौल में ऐसे घुलेमिले होते हैं कि बाहर जा कर उन को घर की, मातापिता की बहुत याद आती रहती है. उन के मन में असुरक्षा की भावना भी रहती है. इस को मन से बाहर निकलने में वक्त लगता है. बच्चा परेशान है, यह सोच कर पेरैंट्स परेशान होते हैं. ऐसे में जरूरी यह होता है कि दोनों ही अकेलापन अनुभव न करें. आज सोशल मीडिया का जमाना है. बात करना, एकदूसरे को देखना, उन के हालचाल लेना बेहद सरल हो गया है. दूर रह कर भी एकदूसरे के बेहद करीब रहा जा सकता है.’’

बातें शेयर करते रहें

दूर रह कर भी एकदूसरे के पास रहें. आपस में बातें शेयर करते रहें. आमतौर पर यह देखा जाता है कि पेरैंट्स ज्यादातर यह पूछते हैं कि खाना खा लिया, कब सोए, कब क्या किया…? ऐसे रूटीन सवाल कम से कम करें. एकदूसरे की परेशानियों के बारे में बात करते रहें. किस तरह से वह परेशानी से बाहर निकले, यह बताएं. आपस में ऐसा माहौल रखें कि एकदूसरे से बातें होती रहें.

कई बार बच्चे अपने मन की बातें करने में संकोच करते हैं. यह संकोच कभी न करें. बच्चों को चाहिए कि वे अपनी बातें छिपाएं नहीं. कई तरह की दिक्कतें बाते छिपाने के कारण बढ़ जाती हैं. समय पर किसी परेशानी का पता चलता है तो उस का निदान सरल होता है. ये बातें कैरियर, प्रेम संबंध, हैल्थ और दोस्तों से जुड़ी हो सकती हैं. अगर कोई गलती हो गई है तो उस को स्वीकार कर के बात करें.

कई पेरैंट्स यह सोचते हैं कि अगर बच्चे दूर शहर गए तो वे बिगड़ सकते हैं, किसी गलत संगत में फंस सकते हैं. एक और डर होता है कि बच्चे शादी कर के अलग घर बसा लेंगे. ऐसे डर से बाहर निकलने की जरूरत होती है. बच्चों

पर भरोसा रखें और उन के अंदर आत्मविश्वास भरें. अपने प्रति लगाव रखें और जिम्मेदारी का एहसास कराते रहें. तभी बच्चों को मनचाहे ढंग से कैरियर को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी.

जमाना बदल रहा है. पेरैंट्स और बच्चों दोनों को ही घर, परिवार और समाज की जिम्मेदारियों को सम?ाते हुए काम करना पड़ेगा. तभी हर तरह की बाधाएं दूर होंगी और बच्चे आगे बढ़ सकेंगे.

फादर्स डे स्पेशल: नहाने जाओ न पापा- क्योंं पापा से परेशान थी वो?

सुबह से दस बार नहाने को कह चुकी पापा से. अभी किचन से निबटी तो देखा फिर मोबाइल हाथ में लिए चेस खेल रहे. अब मेरा पारा सातवें आसमान पर था. “पापा 11 बज गए, अभी मोबाइल से मन नही भरा. नहाते क्यों नहीं, फिर खाने का वक्त हो जाएगा.” कुछ तेज आवाज में मैंने पापा को डांट सी लगाई.

“हां भई, जा रहा हूं. गेम से एक्जिट तो करने दो. हमेशा हवा के घोड़े पर सवार रहती हो. काम निबटा लिया है तो दो मिनट चैन की सांस ले लो. आराम से बैठो, बातें करो. घड़ी तो रोज ही 11 बजाती है, इस में क्या ख़ास है बताने को. सच कहते हैं बच्चे, बातबात पर चिड़चिड़ाती हो. उम्र हो चली है तुम्हारी. यों बातबेबात गुस्सा करोगी तो बीपी बढ़ जाएगा.” मेरी बात को हवा में उड़ाते हुए पापा ने मुझे ही चार बातें पकड़ा दीं. उफ़्फ़ क्या करूं, कैसे पार पाऊं इन से. मन ही मन बड़बड़ाती हुई मैं ने माथा पकड़ लिया.

मम्मी को गए 2 साल बीत चुके थे. 64 सालों बाद जब जीवनसंगिनी बिछड़ी तभी शायद वे इस रिश्ते की गहराई समझ पाए थे. मम्मी के सामने बुढ़ापे तक मस्तमौला बने रहने वाले पापा, उन की बड़ी से बड़ी चिंता को भी हंस कर उड़ा देने वाले पापा अब ज्यादातर खामोश रहने लगे थे. पहले तो वे कभी किसी बात की टैंशन ही नहीं लेते थे. इन सब कामों के लिए तो मम्मी थीं. पापा का काम तो सिर्फ अपनी कमाई को मम्मी के हाथ में रखना भर था. उस के बाद वे पलट कर यह भी नहीं पूछते थे कि कितना पैसा कहां खर्च किया, महीने के आखिरी में कुछ बचा या नही, अगर नहीं तो कैसे काम चल रहा है? उन्हें इन सब बातों से कोई मतलब न था. ये सारी जिम्मेदारियां उठाने के लिए उन की श्रीमतीजी यानी हमारी मम्मी जो थीं.

अपनी ही दुनिया मे मस्त रहने वाले पापा औफिस के बाद शाम को रैकेट हाथ में घुमाते हुए फैक्ट्री के क्लब जा पहुंचते थे. वहां से लौटते तो दोचार दोस्त साथ में होते. अब जमती देररात तक चेस की बाजियां और बीचबीच में आती आवाज, ‘बिटिया इंदू, जरा चाय बना लाओ.’ अब उस ज़माने में बिस्कुट और नमकीन तो कभीकभार की बात होती, लिहाज़ा घर में बना नाश्ता या तरहतरह के पकौड़ों का दौर चाय के संग चालू रहता. मम्मी कभीकभार चिढ़ भी जातीं, ‘पूछते भी नहीं हैं कि घर में चायपत्ती, बेसन है या नहीं. बस, बैठेबैठे फरमान जारी कर दिया, बिटिया चाय दे जाना.’

उन की इस शिकायत पर वे जोर से हंस पड़ते, ‘भई, हम तो अपनी सारी तनख्वाह अपनी होम मिनिस्टर के हाथों में सौंप देते हैं. अब क्या सामान है, क्या नहीं, इस की चिंता हम क्यों पालें.’ उन के ऐसे जुमलों पर मम्मी देर तक बड़बड़ाती रहतीं.

पापा की बेख़बरी का आलम यह था कि कई बार तो उन्हें हम बच्चों की क्लास तक पता नहीं होती थी. किसी मेहमान के पूछने पर वे हमें आवाज़ लगाते और अपनी क्लास बताने को कहते. इधर पापा से बिलकुल उलट मम्मी की दुनिया सिर्फ अपने घर और बच्चों तक ही सीमित थी. उन्हें अपने अलावा सभी की फिक्र थी. सांवलेसलोने मुखड़े और आकर्षक नैननक्श की स्वामिनी हमारी मम्मी बेहद सरल, सुगढ़, मेहनती और मितभाषी थीं.

मम्मी की तसवीर जेहन में आते ही आंखें सजल हो उठीं. मेरी जननी, प्रथम गुरु, मार्गदर्शक, राजदार, सखीसहेली और भी न जाने वे क्याक्या थीं. जब तक वे रहीं, कभीकभार घरगृहस्थी के फेर में यादों व नजरों से ओझल हो भी जाया करती थीं लेकिन जब से वे गईं, एक भी पल मैं ने उन्हें अपने से अलग नहीं पाया. मां का रिश्ता शायद होता ही ऐसा है कि जब तक हमारे पास होता है, हम उस की महत्ता से अनजान रहते हैं लेकिन उस के खो जाने के बाद पलपल उस की कमी का गम हमें सालता है. “क्या हुआ बेटा?” पापा की आवाज ने मेरी तंद्रा भंग की. नहाधो कर वे मेरे सामने खड़े थे.

“कुछ नहीं, पापा.” अपने आंसुओं को जब्त करती मैं उठ खड़ी हुई. 85 साल के दिनोंदिन वृद्ध होते पापा को मैं एक भी पल उदास नहीं देखना चाहती थी. उन्हें खाना दे कर मैं अपने कमरे में चली आई. मन बहुत भारी हो रहा था तो अलमारी से पुरानी अलबम खोल कर बैठ गई. जैसेजैसे उसे पलटती जा रही थी, अनगिनत यादों का ज़खीरा सा आंखों के आगे तैर रहा था.

नौकर जब्बार के साथ आलू के चिप्स बनातीं मम्मी, गाय का बच्चा होने के समय उसे गुड़ की दलिया बना कर खिलातीं मम्मी, अपनी सखियों संग होली के रंगों में रंगी मम्मी, मेरी शादी में हर फंक्शन, में खासकर कन्यादान के वक्त मंडप के नीचे, पापा के साथ बैठीं मम्मी… हर फोटो के साथ उस वक्त की यादों ने मेरे अंदर भावनाओं का ज्वार ला दिया था. अलबम के पन्ने पलटते हुए मैं हिचकियां ले कर रोने लगी.

तभी पीछे से कंधे पर किसी ने हाथ रखा. “तुम्हारी मां ने तुम्हें इस तरह रोते देखा तो जहां भी होंगी, दुखी हो जाएंगी. जाओ मुंहहाथ धो लो. चाय बना कर लाया हूं. पियो और तरोताजा हो जाओ,” पापा मुसकराते हुए मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फेर रहे थे. पता नहीं, पर उन्हें देख उन की समझाइश पर अमल कर मैं जल्द ही सहज हो मुसकराने लगी.

“अच्छा, अब मैं जाता हूं, आराम करूंगा थोड़ा,” कहते हुए पापा हौल में सोने चले गए. सच कितने बदल गए हैं पापा. व्यवहार में भी कुछ मम्मी सी झलक आने लगी है. उन का चेहरा देख कर लग रहा था कि अभी फफक पड़ेंगे. इसीलिए शायद मैं ने खुद को तुरंत कंट्रोल कर लिया था. अचानक ही दिमाग में मम्मी की शिकायतें घूमने लगीं.

‘बिटिया, देखो तुम्हारे पापा मेरी जरा भी सुध नहीं लेते. कितनी बार कहा मोबाइल में भजन लगा दो मगर नहीं, समाचार देखते रहेंगे. ये न्यूज चैनल वाले भी एक ही खबर पचासों बार दिखाते हैं. नहीं तो बैठ कर चारछह लोग बहस के नाम पर लड़ते ही रहेंगे. अब बच्चों को तो फुरसत है नहीं मेरे पास बैठ कर बात करने की. कभी कहती हूं, साहब तनिक बैठ जाओ मेरे संग, कुछ बातें करो. मगर नहीं दिनभर चेस की किताब पढ़ेंगे, कोई पकड़ में आ गया तो रात 11 बजे तक खेलते रहेंगे. मगर क्या मजाल जो मेरे पास दो मिनट भी बैठ कर प्यार से बतिया लें.’ मां की उम्र के साथ पापा से उन की शिकायतों की फेहरिस्त भी बढ़ती जा रही थी. पापा को समझाने जाओ तो वे उलटे मां पर ही सारा ठीकरा फोड़ देते.

‘तुम्हारी मम्मी का कुछ नहीं किया जा सकता. धीरे बोलो तो सुन नहीं पातीं और जोर से बोल दो तो कहती हैं चिल्ला काहे रहे हो, बहरी हूं का? अब बताओ बेटा, क्या करूं. जब भी पास बैठो, पुरानी कहानियां ले कर बैठ जाएंगी और गड़े मुर्दे उखाड़ती हुई मुझ से लड़ने लगेंगी. फिर मनाते बैठो इन्हें पूरा दिन.’ तो अगर पापा का पक्ष लो तो मम्मी को और मम्मी का पक्ष लो तो पापा को बुरा लग जाता. फिर मेरे पास सिवा चुप होने के कोई चारा न बचता.

दरअसल, पहले मम्मी के पास इन सब बातों के लिए वक्त ही नहीं रहता था. शरीर में भी भरपूर शक्ति थी, पूरा दिन काम करती थीं और रात को बिस्तर पर लेटते ही नींद की आगोश में समा जाती थीं. लेकिन बुढ़ापे में दिनोंदिन अशक्त होती काया के कारण उन से ज्यादा काम सधता न था. तिस पर वर्षों से घरगृहस्थी की चिंता झेल रहा उन का शरीर भी हाई बीपी, शुगर, शारीरिक सूजन आदि कई बीमारियों का शिकार हो चुका था. इधर हम बच्चे भी बड़े हो कर अपनीअपनी उड़ान ले चुके थे. बस, कभीकभार वारत्योहार या किसी अन्य जरूरत पर ही घर जाना हो पाता था. ऐसे में पापा के साथ अकेली रह रहीं मम्मी किसी से दो बातें करने को भी तरस जाती थीं. ऊपर से उन्हें कानों से भी कम सुनाई देने लगा था, इसलिए ज्यादा टीवी वगैरह भी नहीं देख पाती थीं.

शारीरिक अक्षमता के चलते बीमारी और अकेलेपन का दंश झेलतीं मम्मी की सहनशक्ति धीरेधीरे जवाब देने लगी थी. लिहाज़ा, छोटीछोटी बातों पर अकसर ही वे चिड़चिड़ा उठतीं. हालांकि, उन की ऐसी हालत देख पापा में, थोड़ा सा ही सही, बदलाव तो आया था. जिंदगीभर एक गिलास पानी भी अपने हाथ से उठा कर न पीने वाले पापा अब घर के छोटेमोटे काम स्वयं ही निबटा लेते थे. जिन में सुबह की चाय बनाना, कपड़े सुखाना, बिस्तर तहा कर रखना, सागसब्जी वगैरह काट देना आदि शामिल थे. फिर भी पूरा जीवन जिम्मेदारी से परे गुजारने वाले पापा मम्मी की उम्मीदों पर पूरी तरह से खरा नहीं उतर पाते थे. सो, उन की आपसी खटरपटर चलती ही रहती.

बावजूद इस के, उन दोनों के बीच बेशुमार प्यार था जो एकदूसरे की चिंता में झलकता दिखाई देता. जहां तबीयत में जरा सा सुधार होते ही मम्मी उन का मनपसंद खाना बना कर उन्हें प्यारमनुहार कर खिलातीं. वहीं, हम लोगों का मम्मी को जरा सा भी कुछ कह देना पापा को बिलकुल बरदाश्त न होता. इस तरह समय के साथ उन का प्यार और भी गहरा हो चला था. “ओफ्हो नाना, थोड़ा धीरे गाओ न, मैं पढाई कर रही हूं.” तभी मिकी की तेज आवाज़ से मेरा ध्यान भटका.

“….तुझ को देखा है मेरी नजरों ने ….तेरी तारीफ हो मगर कैसे…” पापा ऊंची आवाज़ में तान ले रहे थे.

“मम्मा, प्लीज नाना को समझाओ न, परसों से मेरे एक्जाम हैं,” बेटी ने अब मुझे आवाज लगाई.

उठने ही लगी थी कि पापा की बड़बड़ाहट सुनाई दी, “चैन से गाना गाना भी मुश्किल है.” यह सुन कर हंसी आ गई.

सच पापा के इस शौक को कैसे भूल गई मैं. इस खूबसूरत गीत ने मुझे उस प्यारी शाम की याद दिला दी जिस दिन मम्मीपापा की शादी की 64वीं सालगिरह थी. पापा ने मम्मी की आंखों में झांकते हुए यह प्यारा गीत हम सभी को सुनाया था और मम्मी ने शर्माते हुए “तेरे नैनों ने मोह लिया…मेरा छोटा सा जिया परदेसिया हाय तेरे नैनों ने…’ गाया था. कितनी सुंदर लग रही थीं वे उस दिन.

दीदी की बेटी ने मेरी दोनों बेटियों के संग मिल कर उन्हें तैयार किया था. मम्मी ने जिद कर के पापा की लाई अपनी बरसों पुरानी औरेंज कलर की साड़ी पहनी थी. सच्चे सीपों और सितारों से कढ़ी इस साड़ी की चमक आज भी जस की तस बरकरार थी. दोनों हाथों में सुंदर सी मेहंदी लगाए हलका सा मेकअप कर के यह साड़ी पहन जब वे पापा के सामने आई थीं तो वे उन्हें अपलक निहारते रह गए थे. इतनी बीमारी के बीच भी उन का चेहरा लाज की स्वर्णिम आभा से दीपायमान हो चला था. फिर तो डीएसएलआर से तरहतरह के पोज बनवा कर बच्चों ने उन दोनों की ढेरों तसवीरें लीं. एकदूसरे की आंखों में निहारते, मम्मी की मेहंदी देखते, एकदूसरे को माला पहनाते, केक काटते, खीर खिलाते और जाने कितनी ही प्यारी तसवीरें उन पलों में कैद हो गईं. गाने चला कर हम सब ने खूब डांस किया, खानापीना हुआ और वह शाम हमारी कभी न भूल सकने वाली खूबसूरत यादों में तबदील हो गई.

पर इतनी सारी खुशियों के पल बिताने के दूसरे दिन ही मम्मी को घबराहट और बेचैनी के चलते हौस्पिटल में एडमिट करना पड़ा था. करीब हफ्तेभर बाद वहां से डिस्चार्ज हुईं मम्मी फिर कभी पूरी तरह ठीक न हो सकीं और उस के करीब 2 महीने बाद ही वे चल बसी थीं. उन का इस तरह चले जाना पापा के लिए एक बहुत बड़ा सदमा था. वे सूनी आंखों से अंतरिक्ष की ओर निहारा करते. उस के बाद भैया ने उन्हें अकेले न रहने दिया था और जबरदस्ती अपने साथ लिवा लाए थे. वे और भाभी उन का पूरा ध्यान रखते थे. कुछ महीनों में पापा का जीवन पटरी पर लौटने लगा था. इस बीच किसी बच्चे ने स्मार्टफोन पर उन्हें चेस खेलना सिखा दिया था. नई तकनीक से चेस खेलने में उन्हें काफी मज़ा आने लगा. इधर कुछ समय से वे मां की याद में कुछ कविताएं, गज़ल आदि भी लिखने लगे थे. उन की लगन देख कर भैया ने उन का काव्य संग्रह प्रकाशित करवाने का निर्णय लिया था.

तकरीबन एक महीने से वे मेरे पास थे. सुबह उठ कर हलकीफुलकी ऐक्सरसाइज़ करने के बाद वे थोड़ा टहलते, फिर नाश्ता वगैरह करते. दोपहर में खाना खा कर आराम करते और बीच में अपने लेखन का कार्य करते. पर अभी भी उन का चेस खेलने का मोह जस का तस था. और बच्चों के साथ लड़ते वक्त तो वे पूरी तरह से बच्चे नजर आते थे. पर यह देख कर मैं बहुत खुश थी कि, थोड़ा ही सही, पापा अपने पुराने अंदाज में लौटने लगे हैं.

यादों का कारवां बढ़ता जाता अगर मेरी नजर तह किए हुए कपड़ों के साइड में रखे मोबाइल पर न पड़ती. देखा तो भैया के दो मिसकौल थे. ओहो, जाने कितनी देर से बज रहा था. बच्चों को पढ़ाई में डिस्टर्ब न हो, इसीलिए मैं उसे ज्यादातर म्यूट पर ही रखती थी. झपट कर फोन उठाया तो भैया बोले, “बेटा खुशखबरी है, पापा की किताब को हिंदी साहित्य अकादमी से प्रकाशन की मंजूरी मिल गई है और जानती हो, पापा की किताब में भूमिका कौन लिख रहा है? उन्होंने आगे कहा कि अकादमी के निदेशक ने ही पापा की किताब की भूमिका को लिखने का निर्णय लिया है. दरअसल, वे पापा के 85 साल में लिखने के हौसले और प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए हैं. अब देखो, शायद कुछ दिनों में हम पापा के हाथों में उन की किताब दे सकें.”

“सच भैया, यह आप की अथक मेहनत का परिणाम है. पापा के हाथ में उन की किताब देखना हम सभी के लिए गौरवशाली पल होगा,” कहते हुए मेरी आवाज़ भर्रा गई. भैया से बात कर के बाहर आई तो देखा पापा सो रहे हैं. गहरी नींद में उन का चेहरा किसी मासूम बच्चे की भांति निश्च्छल और शांत दिखाई दे रहा था.

उस पल मन में, बस, यही खयाल आया कि प्रकृति बिना कारण किसी को कुछ नहीं देती. बुजुर्गियत के दौर में अपने जीवनसाथी को खो देना किसी मानसिक संत्रास से कम नहीं. बहुत ही मुश्किल हो जाता है बुढ़ापे का जीवन अकेले जीना. कल तक पापा के जिस बेफिक्र और शौक़ीन नेचर से मम्मी सहित हम सभी को एक शिकायत सी रही, आज उन की वही बेफिक्री, जिंदादिली उन के काम आ रही थी. मम्मी की याद तो हर पल उन के मन में बसती है पर फिर भी अपने अकेलेपन को वे एक सकारात्मक उर्जा के साथ हंसतेगाते आज भी जी रहे हैं.

पापा का माथा सहलाते हुए मैं ने मन ही मन उन्हें उन की किताब की अग्रिम बधाई दी. कोने में रखी मम्मी की तसवीर भी मुसकराती हुई जैसे हम सभी पर अपना आशीष लुटा रही थी.

मैं कहां आ गई- भाग 2

“मैं ने तुम्हें मुलतान से उठाया था और मोहल्ले का नाम था मुमताजाबाद. इस के सिवा मुझे कुछ याद नहीं.”

नरगिस के तनबदन में आग लग रही थी. उस का दिल चाह रहा था कि गुलजार खां का मुंह नोच ले. उस का मुजरिम उस के

सामने था, लेकिन वह कुछ नहीं कर सकती थी.

“अब तुम क्या करोगी?” गुलजार खां ने पूछा.

“करना क्या है. मुलतान जाऊंगी. मुमताजाबाद में कोई तो जानता होगा कि 15 साल पहले वहां किस की दुनिया उजड़ी थी.

कुछ तो मालूम होगा. कुछ भी कर लूंगी, मगर अब यहां नहीं रहूंगी.”

नरगिस बोलती रही और गुलजार खां डिब्बे से जेवर निकाल कर कंधे पर पड़े रूमाल में बांधता रहा. उस ने तमाम जेवर

समेटे और खामोशी से बाहर निकल गया. अब नरगिस सोच रही थी कि यहां से कैसे निकले? जिस घर में उस ने 15 बरस

काट दिए थे, अब वहां 15 मिनट गुजारना भी मुश्किल था.

अगले दिन सुबह हुई, फिर दोपहर हुई और फिर पूरे बाजार में यह खबर फैल गई कि नरगिस भाग गई.

दिलशाद बेगम को रहरह कर गुलजार खां की बात याद आ रही थी. उस ने कहा था, ‘ज्यादा ढील मत दो, वरना खट्टा

खाओगी.’ ठीक कहता था. खा लिया खट्टा. ऐसी हर्राफा निकली कि कानोंकान खबर नहीं होने दी और भाग गई.

नरगिस ने एक बड़ी चादर से अपने जिस्म को अच्छी तरह लपेटा हुआ था. दिन का वक्त था, इसलिए चहलपहल जरा कम

थी. वह गली से निकली और जिधर मुंह उठा, पैदल चल दी. वह गली से निकलते ही तांगे में बैठ सकती थी, लेकिन

खामख्वाह तांगे वाले के फिकरों का निशाना बनना नहीं चाहती थी. जब उसे यकीन हो गया कि वह बहुत दूर निकल आई है

तो उस ने एक तांगे वाले को हाथ दिया.

“स्टेशन चलोगे?”

“क्यों नहीं चलेंगे, सवारियां कहां है?” तांगे वाले ने पूछा.

“मैं अकेली हूं.” नरगिस बोली.

“बैठिए.”

नरगिस तांगे की पिछली सीट पर बैठ गई. तांगे वाले ने चाबुक लहराई और घोड़े ने कदम उठा दिए.

“स्टेशन जा रही हैं, तो किसी दूसरे शहर भी जा रही होंगी, लेकिन यों खाली हाथ…?”

नरगिस का जी चाहा कि उसे डांट दे, लेकिन यह सोच कर गुस्सा पी गई कि बातचीत के दौरान शायद कोई मतलब की बात

हाथ लग जाए, “मेरी सास रावलङ्क्षपडी से सवार हुई होंगी. मेरा सामान उन्हीं के पास है.”

“लेकिन इतनी जल्दी क्यों जा रही हैं? गाड़ी आने में पूरे 2 घंटे बाकी हैं.”

“मेरी घड़ी खराब थी.”

तांगे वाले ने इस बार कोई नया सवाल नहीं उठाया. समझ में नहीं आता था कि वह नरगिस के स्पष्टीकरण से आश्वस्त हो गया

है या मायूस हुआ था. स्टेशन आ गया तो उस ने अजीब अंदाज में कहा, “लो बीबी, स्टेशन आ गया. तुम तो शायद पहली बार

यहां आई होगी?”

नरगिस कुछ नहीं बोली. तांगे वाला पैसे ले कर चलता बना, नरगिस हैरान खड़ी थी. उसे यह तो मालूम था कि टिकट लेना

होता है, लेकिन टिकट कहां से मिलेगा, यह मालूम नहीं था. उस ने एक कुली से पूछा और टिकट लेने के लिए कतार में खड़ी

हो गई. मुलतान का टिकट लिया और प्लेटफार्म पर पहुंच गई.

गाड़ी आने में अभी काफी देर थी. प्लेटफार्म पर लोगों की भीड़ देख कर उसे बड़ी खुशी हुई. अगर उसे कोई ढूंढने आया भी तो

इस भीड़ में छिपना बहुत आसान होगा, नरगिस ने सोचा और एक खानदान के साथ इस तरह मिल कर बैठ गई, जैसे उसी

खानदान का हिस्सा हो.

आहिस्ताआहिस्ता भीड़ बढ़ती जा रही थी. शायद गाड़ी आने वाली थी. नरगिस ने चादर से मुंह निकाल कर रेल की खाली

पटरियों की तरफ देखा. फिर अचानक उस की आंखों ने जैसे कोई खौफनाक दृश्य देख लिया. वही तांगे वाला, जो उसे ले कर

आया था, उसे आता हुआ नजर आया. उस के अंदाज से मालूम हो रहा था, जैसे वह किसी को ढूंढ रहा हो. नरगिस के दिल में

एक खौफ ने सिर उठाया, ‘हो न हो, वह मुझे घर से भागी हुई लडक़ी समझ रहा हो.’

नरगिस ने फौरन चादर उतारी और बिछा कर उस पर आराम से बैठ गई. उसे मालूम था कि तांगे वाला उसे चादर से ही

पहचानता है. उस ने चेहरा इतने गौर से नहीं देखा था कि उसे पहचान सकता. हुआ भी वही. तांगे वाला उस के करीब से

गुजरा. लेकिन वह उसे पहचान नहीं सका. इतनी देर में गाड़ी आने का शोर मच गया और नरगिस भी दूसरे मुसाफिरों की

तरह गाड़ी की तरफ लपकी. जिस खानदान के साथ वह बैठी थी, उसी के साथ एक जनाने डिब्बे में दाखिल हो गई. उस ने

चादर फिर ओढ़ ली और एक तरफ सिमट कर खड़ी हो गई.

“अकेली हो?” अचानक एक बूढ़ी औरत ने पूछा.

“हां.” नरगिस बोली.

“यहां बैठ जाओ.” बुढिय़ा अपनी जगह से थोड़ा सा खिसक गई.

नरगिस उस के करीब जा बैठी.

“कहां जा रही हो?” बूढ़ी औरत ने पूछा.

“मुलतान.”

“अच्छा है, साथ रहेगा. मैं भी मुलतान जा रही हूं.”

अभी ये बातें हो रही थीं कि तांगे वाला 2 जनाना पुलिसवालियों के साथ डिब्बे में दाखिल हुआ. अब चादर उतारने का वक्त

नहंीं था. नरगिस ने बूढ़ी औरत से कहा, “मेरे पीछे बदमाश लगे हैं. आप उन से कह दीजिए कि मैं आप की बहू हूं. बाकी बात

मैं आप को बाद में बताऊंगी.”

बुढिय़ा अभी गौर ही कर रही थी कि तांगे वाले ने इशारे से बताया कि यही है वह लडक़ी.

एक पुलिसवाली उस के करीब आई, “ऐ, क्या नाम है तुम्हारा?”

“शाजिया.” नरगिस ने जानबूझ कर गलत नाम बताया.

“घर से भाग कर आई हो?”

“दिमाग तो ठीक है आप का? मेरी सास बैठी हैं. इन से पूछ लें, मैं कैसे आई हूं.”

अब बुढिया को याद आया. नरगिस ने क्या कहा था और अब उसे क्या करना है, “वाह, भई वाह. एक तो तुम मर्द को ले कर

जनाना डिब्बे में घुस आई हो, ऊपर से मेरी बहू पर इल्जाम लगा रही हो. वर्दी में न होती तो चोटी पकड़ कर मारती.”

बुढिय़ा चीखी तो अन्य औरतों की भी हिम्मत हुई. तांगे वाले की मौजूदगी पर औरतों ने ऐसा शोर मचाया कि वह दरवाजे पर

तो खड़ा ही था, घबरा कर नीचे उतर गया. पुलिसवालियां भी इस सूरतेहाल से घबरा गईं और 2-4 सवाल करने के बाद वे

भी रफूचक्कर हो गईं.

बुढिय़ा नरगिस के लिए बड़ी मददगार साबित हुई. उसी बीच गाड़ी ने प्लेटफार्म छोड़ दिया और तेज रफ्तार से दौडऩे लगी.

नरगिस की परेशानी कुछकुछ दूर हो गई थी. लिहाजा वह अपने खयालों में खो गई. घर और घर वालों के बारे में

सोचतेसोचते नरगिस की आंखों के कोने भीग गए.

“अब मुलतान आने वाला है,” बूढ़ी औरत ने कहा, “संभल कर बैठ जाओ. मेरा बेटा मुझे लेने आएगा. सिर ढांप कर उस के

सामने आना. वह गुस्से का जरा तेज है.”

“अच्छा मांजी.” नरगिस ने बूढ़ी को मां कह कर मुखातिब किया.

नरगिस को रहरह कर उस बूढ़ी औरत पर प्यार आ रहा था. वह बूढ़ी औरत थोड़ी ही देर में उसे मां जैसी लगने लगी थी. वह

सोच रही थी, यह बूढ़ी या तो कामयाब ड्रामा कर रही है या फिर वाकई इतनी स्नेहशील है. इस के साथ जो लोग रहते होंगे,

खुशकिस्मत होंगे. वे लड़कियां कितनी नसीब वाली होंगी, जो इस की सरपरस्ती में रहती होंगी. गाड़ी की रफ्तार कम हो गई

थी. कुछ औरतें यह कहती हुई उठीं कि मुलतान आ रहा है. नरगिस ने भी साथ लाए हुए कपड़ों की पोटली संभाली. इस के

सिवा उस के पास कोई और सामान था ही नहीं.

मुलतान आ गया. उस वक्त रात हो रही थी और नरगिस को मुमताजाबाद के सिवा पते के नाम पर कुछ भी मालूम नहीं था.

न मकान नंबर मालूम था, न बाप या भाई में से किसी का नाम. वह सोच रही थी कि काश, यह रात उसे उस बूढ़ी औरत के

साथ गुजारनी नसीब हो जाए. फिर सुबह वह मुमताजाबाद चली जाएगी, लेकिन अपनी जुबान से वह कैसे कहती?

गाड़ी से उतर कर नरगिस जैसे ही प्लेटफार्म पर खड़ी हुई, बूढ़ी औरत ने कहा, “इतनी रात को कहां घर ढूंढती फिरोगी? सुबह

चली जाना. अभी मेरे साथ चलो. तुम्हें अभी अपनी कहानी भी तो मुझे सुनानी है. ऐ, वह लो, मेरा बेटा आ गया.” बूढ़ी ने

नरगिस का हाथ इस तरह थाम रखा था, जैसे उसे डर हो कि इस भीड़ का फायदा उठा कर वह गायब न हो जाए.

एक नौजवान लडक़ा तेजी के साथ आया और उस बूढ़ी औरत के पास जो छोटा सा संदूक था, उसे उठा कर एक तरफ को चल

दिया. नरगिस भी उस बूढ़ी औरत के साथसाथ चलती हुई स्टेशन के बाहर आ गई. बाहर तांगा तैयार था. लडक़े ने सामान

तांगे पर रखा. इस का मतलब था, उसी तांगे पर बैठना है. बूढ़ी औरत ने नरगिस का हाथ थामा और तांगे में बैठ गई.

“अम्मां यह कौन है?” लडक़े ने पूछा.

“क्या खबर कौन है?” बूढ़ी औरत ने मजाक के अंदाज में कहा.

“मखौल न किया करो. तुम्हारे साथ आई है. तुम्हीं को मालूम नहीं कौन है?”

“सच्ची बात तो यही है. अब घर चल कर पूछूंगी. वैसे तुझे इस से क्या? चुप बैठा रह.”

रास्तेभर उन तीनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई. कभीकभी लडक़ा पीछे पलट कर देख लेता था. नरगिस को अंदाजा हो

रहा था कि वह शहर लाहौर के मुकाबले छोटा है. एक बार फिर इस खयाल ने उसे घेर लिया कि वह आज बहुत सालों बाद

अपने शहर में है.

बूढ़ी का मकान शायद स्टेशन से काफी फासले पर था. तांगा बहुत देर तक चलता रहा. तब कहीं मकान आया, जहां उस बूढ़ी

औरत को उतारना था. उस घर में उस बूढ़ी के अलावा 3 औरतें और थीं. उस के 3 बेटे थे, 2 बहुएं थीं और एक बेटी थी, जो

लडक़ा उन्हें ले कर आया था, वह कुंवारा था.

“पहले नहा कर कपड़े बदलो, फिर खाना खाएंगे. उस के बाद तुम्हारी कहानी सुनूंगी.” बूढ़ी औरत ने नरगिस से कहा.

इन सब कामों से निपटने के बाद वह बूढ़ी औरत नरगिस को ले कर एक कमरे में चली गई. बोली, “हो सकता है, तुम्हारी

कहानी में कोई ऐसी बात हो, जो सब के सुनने की न हो, इसलिए मैं तुम्हें यहां ले आई. अब सुनाओ, तुम कौन हो और तुम पर

क्या बीती है?”

नरगिस ने शुरू से अब तक की अपनी पूरी कहानी उसे सुना दी.

“बस, इतनी सी बात पर परेशान हो?” बूढ़ी औरत बोली.

“मांजी, यह इतनी सी बात है? मैं किसी शरीफ घराने में रहने के लायक हूं?”

“क्यों, क्या हो गया तुम्हें? तुम जहां भी रही, उस में तुम्हारा क्या कसूर? तुम तो शरीफ घरानों की लड़कियों से भी शरीफ हो.

वे तो अच्छेभले माहौल में भी बिगड़ जाती हैं और तुम उस गंदगी से बच कर निकल आई.”

“लेकिन मेरे मांबाप, भाईबहन?”

“अल्लाह फजल करेगा. मेरा बेटा सरफराज, जो हमें स्टेशन से ले कर आया है, पत्रकार है. अखबार वालों के बड़े लंबे हाथ

होते हैं. मैं उस से कहूंगी, वह ढूंढ़ निकालेगा.”

“मुझे आप एक बार मुमताजाबाद ले चलें. शायद मैं अपना घर पहचान लूं.”

“हांहां, क्यों नहीं… मैं कल ही तुम्हें ले जाऊंगी. मेरी एक मिलने वाली वहां रहती है.”

इस के बाद नरगिस इस तरह सोने के लिए लेट गई, जैसे चांदरात को बच्चे ईद के इंतजार में सोते हैं.

उस बूढ़ी के साथ सुबह मुमताजाबाद पहुंचते ही नरगिस की आंखें उस के हाथों से निकल गईं. आंसू थे कि थमने का नाम ही

नहीं लेते थे. उसे महसूस हो रहा था, जैसे वह 4 साल की बच्ची है. घर का रास्ता भूल गई है और रास्ते में खड़ी रो रही है.

“हौसला करो बेटी. क्या सडक़ पर तमाशा बनोगी. लोग कहेंगे, मैं तुम्हें चुरा कर ले जा रही हूं.” बूढ़ी ने समझाया.

नरगिस ने आंसुओं को हौसले की मुट्ठी में बंद किया और बूढ़ी के साथसाथ चलने लगी. किसी गली में भी उसे यह महसूस नहीं

हुआ कि वह यहां पहले भी आ चुकी है. हर मकान को भूखों की तरह देखती हुई चल रही थी.

बड़ी बी उसे ले कर एक से दूसरी, तीसरी और चौथी गली में घूमती रही. कई गलियां घूमने के बाद उन्होंने कहा, “भई, तुम

तो जवान हो, मेरी टांगें जवाब दे गईं. आधा मुमताजाबाद रह गया है. वह फिर कभी देख लेंगे. अब चल कर कुछ देर बैठते हैं.

मैं ने कहा था न मेरी एक मिलने वाली यहां रहती है. चलो, वहां चलते हैं.”

“चलिए.” नरगिस बेदिली से बोली.

वहां जाते हुए नरगिस ने एक जगह को बड़े गौर से देखा. फिर वह एकदम से चीखी, “अम्मा, यह है मेरा घर. मुझे याद आ

गया. यही तो है. मुझे तुम यहां ले चलो. मुझे सब याद आ गया. यही है मेरा घर.”

बूढ़ी चौंकी, “यही तो है वह मकान, जहां मैं तुझे लाने वाली थी, इसी में तो मेरी वह जानने वाली रहती है. चलो, पहचान

लेना, वरना मैं उन से खुद पूछ लूंगी.”

दोनों अंदर चली गईं. अंदर एक औरत सिल पर मसाला पीस रही थी. एक औरत अपने बच्चे को लिए बैठी थी. वे अंदर पहुंचीं

तो 4 नौजवान लड़कियां कमरे से निकल कर सेहन में आ गईं.

“आओ खाला, बहुत दिनों बाद आईं.” उस औरत ने कहा, जो मसाला पीस रही थी.

“हां, तू तो बहुत आ गई मेरे यहां.” बूढ़ी औरत ने ताना दिया.

नरगिस दीवानों की तरह एकएक दीवार को ताक रही थी. उसे यह भी खयाल नहीं आया कि वह वहां मेहमान बन कर आई

है. वह भाग कर जीने की तरफ गई. बिलकुल ऐसा ही जीना था. इस में अब दरवाजा लग गया है, मगर यह तो बाद में भी लग

सकता है. उस वक्त नहीं होगा, लेकिन ये लोग तो कोई और हैं. फिर मुझे ऐसा क्यों लग रहा है, जैसे मैं यहां आ चुकी हूं?

औरतें उसे गौर से देख रही थीं और इशारों से पूछ रही थीं, यह कौन है? नरगिस इन सब से बेपरवाह कोनेखुदरे झांकती फिर

रही थी. कुछ कोने उस के लिए अजनबी थे. कुछ हिस्से ख्वाब की तरह नजर आ रहे थे. यकीन नहीं आ रहा था, मगर उस का

दिल कहता था, इस घर में कोई खास बात जरूर है.

“खाला, यह कौन है?” एक औरत ने पूछा.

“है एक बेचारी. बचपन में अगवा हो गई थी. अब 15 सालों बाद किसी तरह भाग कर आई है. इतने से बच्चे को याद रहता है.

घंटाभर से मुझे लिए फिर रही है. हर मकान को समझ बैठती है, यही उस का घर है.” बूढ़ी ने कहा.

“अल्लाह इस की मुश्किल आसान करे. इसे इस के मांबाप से मिलवाए.”

सब ने ‘आमीन’ कहा. इतनी देर में नरगिस भी आ कर बैठ गई. उसे देख कर सब चुप हो गए.

“अम्मा, यहां से चलो. यहां मेरा जी घबराता है.” नरगिस ने कहा.

“तू तो जिद कर के यहां आई थी, अब जी घबराने लगा.”

“अच्छा आप बैठें. मैं जा रही हूं.”

“अरी सुन तो, मैं भी चल रही हूं. अच्छा बहन, फिर आऊंगी. यह लडक़ी तो हवा के घोड़े पर सवार है.” बूढ़ी ने कहा और

बुरका संभाल कर उठ गई.

“क्या हुआ, मकान देख लिया?” बूढ़ी ने रास्ते में पूछा.

“नहीं, यह वह घर नहीं है, लेकिन न जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है, जैसे यही है.”

“तू जी हलकान मत कर. मैं आज ही सरफराज से कहूंगी. वह सब पता लगा देगा.”

“नहीं अम्मा, दुनिया की भीड़ में गुम हो कर कोई नहीं मिलता. इंसान हो या मकान, सब गुम हो जाते हैं.”

“अल्लाह की जात से मायूस नहीं होते बेटी.”

“अच्छा एक बात बताइए.”

“पूछ बेटी.”

“अगर मेरे घर वाले मुझे नहीं मिले तो आप मुझे अपने घर में रख लेंगी? मैं आप की नौकरी करूंगी.”

“कैसी बातें करती है बेटी, तू काहे को नौकरी करने लगी? तू तो मेरी बेटी जमीला की तरह है. खैर से तेरे वारिस तुझे मिल

जाएं. अगर नहीं मिलते तो तू भी मेरी जमीला है.”

बड़ी बी ने सरफराज से जिक्र किया तो उस ने वादा किया कि वह नरगिस के सरपरस्तों की तलाश के लिए जो कुछ होगा,

करेगा.

नरगिस को यहां रहते हुए 3 दिन हो गए थे. एक नई ङ्क्षजदगी से उस का परिचय हुआ था. उस ने पहली बार शरीफ घरों के

आदाब देखे थे. उसे पहली बार अहसास हुआ था कि घर की दहलीज हर एक के लिए नहीं होती. इन औरतों की आंखों में जो

शरमोहया थी, नरगिस ने पहले नहीं देखी थी. चिराग जलने के बाद यहां पराए मर्दों के कदमों की आवाजें नहीं गूंजती थीं.

औरतें मुसकराती थीं, कहकहे नहीं लगाती थीं. सिरों पर आंचल न भी हो, तो लगता था, शरमोहया का साया सिर पर है.

नमाज की चौकी पर बैठी हुई बड़ी बी रहमत का फरिश्ता लगती थीं. शौहरों के सामने दस्तरख्वान सजाती हुई बीवियां,

भाइयों से जिद करती हुई बहनें कितनी अच्छी, कितनी प्यारी लगती थीं.

सरफराज बराबर कोशिश में लगा हुआ था. आखिरकार एक दिन वह कामयाब हो गया. उस ने बड़ी बी के सामने एक

अखबार रखते हुए कहा, “पहचानिए तो, किस की तसवीर है?”

“कोई बच्ची है, जमीला को दिखाओ.”

“अम्मा, यह उसी लडक़ी की बचपन की तसवीर है, जो आप के घर में ठहरी है.”

“नरगिस की?” हैरानी से बड़ी बी की आंखें फैल गईं.

“हां, इस का उस वक्त का नाम नजमा था. नरगिस बाद में रखा गया होगा.”

“मगर यह कैसे मालूम हुआ कि यह नरगिस की ही तसवीर है.”

“अम्मा, मैं ने 15 साल पहले के अखबार खंगाले. दरअसल मुझे यकीन था कि नरगिस के वालिदैन ने गुमशुदगी का इश्तिहार

जरूर दिया होगा. वही हुआ. यह इश्तिहार मुझे नजर आ गया. इस में जो पता दिया गया है, वह मुमताजाबाद का है. यह भी

लिखा है कि शादी के हंगामे में किसी संगदिल ने इसे अगवा कर लिया था. नरगिस ने भी यही बताया था. तसदीक उस वक्त

हो जाएगी, जब हम उस पते पर जाएंगे, जो इस इश्तिहार में दिया गया है.”

“देखें, तो अपनी बच्ची की तसवीर,” बड़ी बी ने अखबार उठा लिया, “ऐ हां, है तो यह नरगिस ही. वही नाक, वही नक्शा.

हाथ टूटें उस के, जिस ने उसे उस के मांबाप से जुदा किया.” फिर बड़ी बी ने नरगिस को आवाज दी, “नरगिस, जरा इधर तो

आ.”

“जी अम्मा.” नरगिस लगभग दौड़ती हुई आ गई.

“मैं तुझे एक चीज दिखाऊंगी, लेकिन तू वादा कर कि रोएगी नहीं.”

“नहीं रोऊंगी.” नरगिस बोली.

“यह देख, क्या है?” बड़ी बी ने अखबार में छपी हुई तसवीर पर उंगली रखते हुए कहा.

“तसवीर है किसी की.” नरगिस बोली.

“किसी की नहीं, तुम्हारी तसवीर है.”

अब नरगिस की समझ में आया, वह क्या दिखाना चाहती हैं. उस ने तसवीर देखी. ऊपर ‘गुमशुदा की तलाश’ और नीचे

मुमताजाबाद का पता छपा हुआ था.

नरगिस कुछ देर तक उस तसवीर को गौर से देखती रही, फिर चीख मार कर बेहोश हो गई.

जब तक नरगिस होश में आई, तब तक सरफराज तय कर चुका था कि वह पहले खुद उस के मांबाप के पास जाएगा. जो

लडक़ी तसवीर को देख कर बेहोश हो सकती है, वालिदैन को देख कर खुशी से मरने के करीब पहुंच जाएगी.

फ्रंटियर मेल, भाग 2: क्या था मंजू का कारगर हथियार ?

लगता है, उधर कुछ असर हुआ. दबी सी आवाज में वह बोला, ‘‘आप तो मजाक कर रहे हैं. चौहान साहब के सैक्रेटरी से साहब कुछ खास बातें कर रहे हैं. ऐसे में आप का संदेश दे कर क्या मुझे अपनी शामत बुलानी है.’’

वह ठीक ही कह रहा था. दिनेश में कोई दोष था तो, बस, उस का क्रोध, जो मानो परशुराम से सीधा उस को विरासत में मिला था. सदा नाक पर चढ़ा रहने वाला उस का गुस्सा जरा टोकने से सीधा आसमान पर पहुंचता था और फिर उसे कुछ नहीं दिखाई देता था. योजना आयोग के उस के कमरे के सामने से गुजरते समय यदि कभी किसी को मछली बाजार का सा भ्रम हो तो इस में आश्चर्य ही क्या है. शायद मैं ही एक ऐसा व्यक्ति था जिस ने कभी उस के क्रोध को महत्त्व नहीं दिया. साइकिल के आगे डंडे पर बैठने वाले को चालक से सदा दबना ही पड़ा है.

‘‘अच्छा तो सुनो,’’ उस को मुसीबत से बचाने के लिए मैं ने कहा, ‘‘अपनी मेम साहब को बुलाओ.’’

निश्चिंतता की जो गहरी सांस उस ने छोड़ी, उस के झटके से टैलीफोन मेरे हाथ से छूटतेछूटते बचा.

मंजू से बात हुई, आदेश हुआ कि बंगले पर हाजिर हो जाऊं, जब तक ट्रेन का समय पक्का न हो जाए. लंच का समय था, इसलिए दिनेश भी कुछ घंटे खाली रहेगा.

अपना सामान क्लौकरूम में रख कर, टैक्सी ले कर मैं सीधा उस के घर चल पड़ा.

दिनेश बड़ी तपाक से मिला. इतने लंबे समय से न मिलने का लेखाजोखा कुछ ही सैकंडों में पूरा हो गया.

लंच टेबल पर हम दोनों बैठे थे और मंजू खाना लगाने में व्यस्त थी. दिनेश की चुटकी लेते हुए मैं ने कहा, ‘‘यार, बड़ा आदमी हो गया है. फोन पर बात नहीं करेगा, जब तक उधर वाले की जन्मपत्री सामने न हो.’’

‘‘यह बात नहीं,’’ उस ने कहा, ‘‘चमचागिरी करने वालों की संख्या इधर कुछ अधिक ही बढ़ गई है. ऐसेवैसे फोन बहुत आने लगे हैं.’’

‘‘पर आज यह गुपचुप चौहान के सैक्रेटरी से क्या षड्यंत्र रच रहे थे?’’

‘‘तुम्हें कैसे पता चला?’’

‘‘अमा, समझा क्या है हमें,’’ छाती फुला कर मैं ने कहा, ‘‘हमारा गुप्तचर विभाग भी कुछ मामूली नहीं है,’’ और सुबह का टैलीफोन का किस्सा उसे सुनाया. साइकिल वाले प्रसंग पर वह भी हंसे बिना नहीं रह सका.

‘‘यह तो रोज का ढर्रा है,’’ उस ने बात पर लौटते हुए कहा, ‘‘कभी चौहान साहब, कभी दीक्षितजी, सभी पीछे पड़े हुए हैं. परसों इंदिराजी भी जोर दे रही थीं.’’

‘‘कौन इंदिराजी?’’ मैं ने जानबूझ कर अनजान बनते हुए कहा.

‘‘बड़े अहमक हो यार,’’ वह कुछ तेज कर बोला, ‘‘इंदिरा गांधी का नाम नहीं सुना. कहते हैं, वे इस देश की प्रधानमंत्री हैं.’’

‘‘अच्छा, अच्छा,’’ मैं ने कुछ समझते हुए से ढंग से कहा, ‘‘मैं समझा था कि तुम अपनी कालेज वाली इंद्रा की बात कर रहे हो. अरे, वह काली, मोटी सी चश्मेवाली लडक़ी जिस ने बेपरवाही से अपना दिल तुम पर फेंक दिया था. क्या हाथ धो कर पीछे पड़ी थी मुटैल. मालूम है, मंजू, वह लडक़ी तो दिनेश के पीछेपीछे अमेरिका जाने की तैयारी कर चुकी थी.’’

‘‘हूं…’’ बनावटी ढंग से दिनेश को आंखों से घूरते हुए मंजू बोली.

‘‘खैर, जाने दो,’’ मैं ने समझाया, ‘‘गलती मेरी समझ की थी. भला उसे यह इंद्राजी क्यों कहने लगा. वह तो इंदो थी इंदो. हां, तो यह इंदिराजी तुम से चाहती क्या हैं?’’ मैं ने दिनेश से पूछा.

‘‘अरे, सब यही चाहते हैं कि मैं मंत्रिमंडल में शामिल हो जाऊं. जानते हो, देश की आर्थिक हालत कितनी उलझी हुई है. सख्त कदम उठाए बिना कुछ होना बहुत मुश्किल है. और फिर मैं कुछ जादू तो कर ही नहीं दूंगा. आजकल…’’

‘‘पर कुछ प्रयत्न कर के तो देख सकते हो,’’ मंजू बात काट कर बोली.

मंजू का टोकना था कि दिनेश की नाक फडफ़ड़ाने लगी.

‘‘क्या प्रयत्न कर सकते हो,’’ वह झल्ला कर बोला, ‘‘तुम औरतों को कुछ मालूम भी है. यह भी कोई नानखटाई की रैसिपी है जो काशिश कर के देख लो.’’

मंजू ने मुंह बनाया, ‘‘ज्यादा से ज्यादा बिगड़ ही तो जाएगी. हुंह…’’

पर पुरुष के सामने डांट खाना भला किस स्त्री को अच्छा लगता है. दिनेश का स्वभाव जानते हुए भी वह चुप न रह सकी. ‘‘तो फिर रहने दो,’’ उस ने ताना मारते हुए कहा, ‘‘बिगडऩे से इतना डरते हो तो हाथ मत लगाओ. सब से कह दो कि यह रोग तुम्हारे बस का नहीं है.’’

दिनेश का पारा सातवें आसमान पर था. वह चिल्लाया, ‘‘तुम तो जाहिल हो जाहिल, अनपढ़, गंवार. तुम्हें मालूम है कि इनफ्लेशन क्या बला है और उसे काबू में कैसे किया जा सकता है. खानदान में किसी ने किताब उठाई हो तो जानो.’’ उस का चेहरा बिलकुल लाल मुंह के बंदर जैसा हो रहा था.

स्थिति कुछ काबू से बाहर होती जा रही थी और कुसूर शायद मेरा ही था. बेहतर इस के कि मैं कुछ कहूं कि मंजू फिर बोल पड़ी, ‘‘तो चल पड़ा फ्रंटियर मेल.’’

कल्पना कीजिए कि आप एक बच्चे हैं, जो मां की निगाह बचा कर फ्रिज में से बरफी चुरा कर खा रहे हैं. एकाएक आप की बड़ी बहन आप को देख लेती है और आप भी देख लेते हैं कि उस ने देख लिया. अब आप की क्या हालत होगी. क्या आप नहीं चाहेंगे कि धरती फट जाए और आप उस में समां जाएं, खासतौर पर तब जब कि आप हर समय अपनी बहन को मारते रहते हों. दिनेश की हालत भी मंजू का वाक्य सुन कर कुछ ऐसी ही हो गई. उस का चेहरा पीला पड़ गया, नेत्र जो कुछ समय पहले अंगारे बरसा रहे थे, एकदम नीचे झुक गए और ‘एक्सक्यूज मी’ कह कर वह सीधा बाथरूम में घुस गया. पलक मारते ही उस का गुस्सा हवा हो चुका था.

मुंह पर रूमाल रख कर उभरती हुई हंसी को दबाते हुए मंजू ने मुझ से कहा, ‘‘देखा, अपने मंत्र का प्रभाव.’’

और एकाएक मुझे वह घटना याद आ गई.

मंजू और दिनेश बच्चों के साथ पहली बार मुंबई घूमने आए थे और मेरे पास ही ठहरे थे. एक सप्ताह का समय होता ही क्या है, विशेषकर यारदोस्ती के बीच में, हंसतेबोलते ही निकल गया और देखते ही देखते जाने का समय आ गया. फ्रंटियर मेल से फर्स्ट क्लास के उन के टिकट मैं ने पहले से ही रिजर्व करा रखे थे.

मेरा औफिस क्योंकि फोर्ट में था, इसलिए मैं वहीं से सीधा स्टेशन पहुंचने वाला था. मंजू को मैं ने खासतौर पर समझा दिया था कि गाड़ी रात को 9 बजे जाती है और उन सब को घर से 7 बजे चल देना चाहिए. चेंबूर से रास्ता काफी लंबा है, फिर रास्ते में ट्रैफिक ज्यादा तथा अनगिनत सिगनलों पर भी ठहरना पड़ता है और टैक्सी का भी आजकल कुछ भरोसा नहीं किया जा सकता, न जाने कब खराब हो जाए. यदि जल्दी स्टेशन पहुंच भी गए तो वहीं गपशप करेंगे.

दफ्तर में उस दिन काम कुछ ऐसा अटका कि जल्द छूट नहीं पाया. जिस समय मैं मुंबई सैंट्रल के स्टेशन पर पहुंचा. साढ़े 8 बज रहे थे और गाड़ी प्लेटफौर्म पर खड़ी थी. डीजल की लंबी ट्रेन तिस पर दसियों पहले दरजे के कई डब्बे. रिजर्वेशन चार्ट से उन के डब्बे का पता कर के जो वहां पहुंचा, तो सब नदारद पाया. सारी ट्रेन एक सिरे से दूसरे सिरे तक झांक गया कि कहीं और तो नहीं बैठ गए, पर वे हों वहां तब तो मिलें.

जल्दीजल्दी भाग कर टैलीफोन बूध से घर का नंबर मिलाया. मालूम पड़ा कि वे सब घर से 7 ही बजे निकल चुके थे. ऐसे समय में जब मामला अपने प्रियजनों का हो तो बुरे विचार ही अधिक आते हैं, सोचा ,कि कहीं टैक्सी की दुर्घटना न हो गई हो पर उस समय कुछ कर भी नहीं सकता था. घबराहट में इधरउधर घूम रहा था और निगाहें अंदर आने वालों पर लगी थीं. बारबार घड़ी देखता था, पर समय था कि कंबख्त एकएक मिनट पहाड़ की तरह कट रहा था.

जैसेतैसे पौने 9 बजे. फिर 9 बजने में 10 मिनट हुए पर किसी का कुछ पता नहीं. 5 मिनट और बीते और माइक पर आवाज आई. ‘फ्रंटियर मेल जाने को तैयार खड़ी है.’

एकाएक दूर दिनेश को प्लेटफौर्म में घुसते देखा. एक बच्चे को गोदी में लिए वह तेजी से भागा आ रहा था. पीछेपीछे दूसरे बच्चे को पकड़े अपनी अधखुली साड़ी संभालती हुई मंजू दौड़ी आ रही थी, और उन के पीछे था कुली.

गार्ड सीटी बजाने वाला ही था.

‘‘क्षमा करें,’’ मैं ने उस से निवेदन किया, ‘‘एक मिनट ठहर जाएं. मेरा मित्र भागा आ रहा है. उसे सपरिवार इस ट्रेन से जाना है.’’

चश्मे के अंदर से आंखें तरेर कर गार्ड ने मुझे देखा और बोला, ‘‘एक मिनट ऐसे सब के लिए रुका तो गाड़ी यहां से चलेगी ही नहीं. आप के दोस्त कुछ पहले नहीं आ सकते. ऐसे क्या लाट साहब हैं.’’ पर न जाने क्यों सीटी उस ने नहीं बजाई.

लपक कर मैं ने मंजू से बच्चे को लिया. अपने डब्बे में पहुंचना असंभव था. सामने जो डब्बा था, उस में सामान रख कर हांफतेहांफते वे लोग चढ़ ही पाए थे कि ट्रेन चल पड़ी.

मैं भारतीय हूं- भाग 2

आहान और अरविंद चौंक गए, सामने कुछ सीनियर के साथ अरविंद के रूममेट्स मोहित और ऋषभ थे. अरविंद कुछ कहता, इस से पहले ही एक सीनियर ने कहा-

“अबे साले, तू अभी तक पढ़ रहा है. तू तो कोटा वाला है न बे. तुझे काहे की चिंता, तू तो सरकारी दामाद है. तुझे तो नौकरी ऐसे ही मिल जाएगी, फिर क्यों इतना पढ़ता है, साले. चल आ जा, आज तुझे हम दूसरी दुनिया की सैर कराते हैं.” यह कहते हुए उस ने अपने पौकेट से एक पैकेट निकाला. तभी दूसरा सीनियर आहान को देख उसे बिस्तर पर से उठाते हुए बोला-

“अबे साले आहान, तू यहां क्या कर रहा है बे, तेरा रूम तो बगल में है?”

अरविंद थोड़ा डरते हुए बोला- “भैया, इसे अपने रूम में डर लग रहा था, इसलिए ये यहां आ गया.”

वह हंसता हुआ बोला- “अच्छा, इसे डर लग रहा था और तुझे डर नहीं लगता क्या?”

अरविंद ने सिर झुका लिया. तभी वहां 2 लड़कियां भी आ गईं. उन में से एक लड़की उस सीनियर, जो अरविंद को धमका रहा था, को हजार रुपए का नोट देती हुई बोली, “ये लो रुपए, अब दो हमारा सामान.”

उन लड़कियों से रुपए ले कर उस सीनियर ने उन्हें एक पैकेट दे दिया. यह कोई साधारण या आम पैकेट नहीं, बल्कि ड्रग्स का पैकेट था जिसे ले कर लड़कियां वहां से चली गईं. यह सब दृश्य देख कर आहान को समझने में ज्यादा वक्त नहीं लगा कि अरविंद इतना परेशान और डरा हुआ क्यों रहता है और वह बारबार यह क्यों कहता है कि वह अपने रूम में पढ़ नहीं पा रहा है.

उन लड़कियों के जाते ही मोहित, ऋषभ और बाकी सीनियर मिल कर आहान और अरविंद पर ड्रग्स लेने का दबाव डालने लगे. दोनों के मना करने पर अरविंद को जातिसूचक गाली और अपमानित करते हुए ऋषभ बोला-

“तुम साले छोटी जाति के लोग चाहे कितनी ही बड़ी जगह या पोस्ट पर क्यों न पहुंच जाओ, तुम हमारी बराबरी कभी कर ही नहीं सकते. तुम छोटे लोग भला क्या जानों हम बड़े लोगों के शौक भी बड़े होते हैं.”

इस पर मोहित अरविंद का मजाक उड़ाते हुए बोला- “ये साले छोटी जाति के लोग रिज़र्वेशन के बल पर हमारा मुकाबला करना चाहते हैं लेकिन हमारी तरह जिगरा कहां से लाएंगे वह तो रिज़र्वेशन में नहीं मिलता न.”

मोहित के ऐसा कहने के बाद सभी एकसाथ हंसने लगे और अपने लिए जातिसूचक गाली सुन अरविंद का खून खौल उठा लेकिन वह शांत रहा क्योंकि वह पढ़ना चाहता था, कुछ बनना चाहता था, वह किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहता था और न ही इन सवर्ण जातियों के र‌ईस बिगडै़ल लड़कों की तरह अपने मातापिता की गाढ़ी कमा‌ई सिगरेट,शराब और ड्रग्स जैसी नशीले पदार्थों में फूंकना चाहता था.

आहान और अरविंद पर उन सभी लड़कों ने ड्रग्स लेने का बहुत दवाब डाला, उन्हें अपमानित और गालीगलौज भी किया लेकिन जब वे दोनों नहीं माने तो उन्हें रूम से बाहर जाने को कह दिया और फिर दोनों आहान के रूम में आ गए. पूरे कालेज में उन सभी लड़कों का दबदबा था. कोई उन से कुछ नहीं कहता. सभी लड़के रसूखदार घरों के थे. और शायद इसलिए मैनेजमैंट भी सब जानते हुए अनजान बना हुआ था.

उस रात आहान और अरविंद ठीक से सो भी नही पाए. दीपावली की छुट्टियों के आखरी 2 दिन ही बचे थे और ये दोनों दिन आहान और अरविंद ने बड़ी मुश्किल से निकाले क्योंकि हर रात ये सभी लड़के उन के रूम में घुस आते, उन्हें डराते, धमकाते और परेशान करते. कभी सिगरेट पीने को कहते तो कभी शराब और कभी उन्हें शराब का पैग बनाने को कहते. इस तरह बड़ी मुश्किल से एक सप्ताह की छुट्टियां कटीं.

अब आहान के रूममेट्स रोहन और शशांक लौट आए थे. अब तक केवल अरविंद अपने रूममेट्स मोहित और ऋषभ से परेशान था लेकिन छुट्टी से लौटने के बाद रोहन और शशांक भी उन्हीं बदमाश लड़कों से जा मिले और आहान को परेशान करने लगे, उसे ड्रग्स लेने के लिए दबाव डालने ग‌ए.

जब उन लड़कों की बदसुलूकी और छेड़छाड़ दिनप्रतिदिन बढ़ने लगी और आहान की बरदाश्त से बाहर होने लगा तब वह रूम चेंज या फिर रूममेट्स को चेंज करने का आवेदन ले कर मैनेजमैंट के पास गया. आहान के लाख आग्रह के बावजूद मैनेजमैंट ने न तो आहान का रूम बदला और न ही रूममेट्स. जब स्थिति आहान को अपने हाथों से बाहर जाती दिखाई देने लगी तब उस ने अपने मातापिता को इस की सूचना दे दी‌. सारी वस्तुस्थिति से अवगत होने के बाद उन्होंने जल्द ही कालेज आ कर मैनेजमैंट से मिलने का फैसला लिया.

आहान की ही तरह अरविंद भी अपने दोनों रूममेट्स से परेशान तो था लेकिन वह यह भी जानता था कि यहां इस कालेज में उन का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, इसलिए अरविंद बिना आवाज़ उठाए चुपचाप उन की ज्यादतियों को बरदाश्त कर रहा था. लेकिन आहान ऐसा नहीं करना चाहता था. वह चाहता था कि वह या फिर कोई और क्यों बेवजह उन बदमाश लड़कों के अन्याय या ज्यादतियों को सहन करे.

रहिमन धागा प्रेम का- भाग 2

यह सोच कर भी खीझ सी उठती थी. किसी बहस या शिकायत का भी क्या मतलब था अब. इतने सालों के अंतराल के बाद भी एकदूसरे की देह की गंध उन्हें वापस किसी और कालचक्र में ले कर जा रही थी.

अनायास पुरानी बातें दिलोदिमाग में घूमने लगीं. पुरानी यादों ने धावा सा बोल कर झकझोर दिया था। अब यह एक विडंबना ही थी कि कभी जो इतना आत्मीय, इतना प्रिय और सर्वस्व था, आज उस के ही प्रति ही झरना इतनी उदासीन थी.

वसु और झरना बीए और एमए के दिनों से सहपाठी थे. 5 सालों की घनिष्ठता ऐसी ही थी जैसे फूल के साथ सुगंधि, सूरज के साथ धूप, बादलों के साथ बारिश, सुबह के साथ चिड़ियों का चहचहाना. कैंपस में कक्षाओं से ले कर दूसरे कालेजों में प्रतियोगिताओं, फेस्ट, होस्टल, बंगलो रोड, कमला नगर, कोचिंग, राजीव चौक, मंडी हाउस में नाटक देखने तक की गतिविधियों में वे दोनों एक ही मित्र मंडली के साथ घूमा करते थे.

पहले दोनों के बीच मित्रता हुई और फिर अंतरंगता इतनी बढ़ गई कि विश्वविद्यालय से लाइब्रेरी और घर के रास्ते में दोनों एकदूसरे तक ही सिमट गए और अन्य दोस्तसहपाठी उन के परवान चढ़ते प्रेम के मूक समर्थक और साक्षी बन के रह गए.

नजदीकियां कब बढ़ती गईं और कब उन्होंने शेष जीवन साथ बिताने की पहल करते हुए एकदूसरे को अपना लिया, पता ही नहीं चला. पर जैसे कहते हैं कि आवेग में आती नदी की जलधारा एक समय के बाद संकुचित हो जाती है और कुछ समय के बाद थम जाती है, बस कुछ वैसा ही वसु और झरना के प्रसंग में भी हुआ, जिन्हें एकदूसरे से 1 मिनट की भी दूरी बरदाश्त नहीं थी, वे ही जीवनभर के लिए एकदूसरे से दूर रहने के लिए विवश हो गए.

एमए फाइनल ईयर में झरना आगे पीएचडी करने का सपना देख रही थी तो प्रशासनिक सेवाओं में रुझान के कारण वसु सिविल सर्विसेज की तैयारी के बारे में सोचता रहा. दोनों ने हर स्थिति में एकदूसरे के सपनों और महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने में एकदूसरे का साथ देने का फैसला लिया था. सुख हो या दुख, स्थितियां  अनुकूल हों या प्रतिकूल, एकदूसरे के साथ आगे की जिंदगी के अनेक साल साथ बिताने की ठान ली थी उन्होंने. उन की सांसें एकसाथ धड़कनें लगी थीं. दोनों एकदूसरे के प्रति तनमन से समर्पित थे मगर इसे कुदरत का क्रूर मजाक कहें कि समय एक जैसा नहीं रहता। सुख के बाद दुख और वसंत के बाद ग्रीष्म ऋतु का आना अवश्यंभावी है।

नवंबर का महीना था. वसु पहले ही कोशिश में सिविल सर्विसेज की परीक्षा के सभी चरणों में सफलता के बाद ट्रैनिंग के लिए मसूरी रवाना हो रहा था और झरना पीएचडी प्रोग्राम में रजिस्टर्ड हो गई थी. पहली बार उन्हें एहसास हो रहा था कि उन के बीच दूरियां बननी शुरू हो गई थीं. सब से बड़ा सदमा झरना को तब लगा जब उसे मालूम हुआ कि पहली पोस्टिंग के बाद वसु के घर पर उस के विवाह के लिए एक से बढ़ कर एक संभ्रांत और प्रतिष्ठित परिवारों के रिश्तों की भीड़ सी लग गई थी और उन दोनों के आपसी संबंधों के विषय में जानते हुए भी वसु के मातापिता भारी दहेज और प्रतिष्ठित परिवारों से संबंध के लोभ को निकाल नहीं कर पा रहे थे.

विश्वास न होता था कि झरना जैसी तेज और सुलझे दिमाग की लङकी को अपने बेटे की पत्नी के रूप में वसु के मातापिता को अपनाने में क्या आपत्ति हो सकती थी पर जैसाकि सामाजिक परिवेश था, अधिकांश मातापिता अपने नौकरीपेशा साधन संपन्न बेटों को मैरिज मार्केट में ट्रौफी की तरह ही लौंच करते थे. झरना को जैसे ही पता लगा कि वसु के मातापिता आए हुए रिश्तों की जांचपड़ताल में लग गए हैं, उसे गहरा आघात सा लगा और उस ने वसु को कौल कर के अपनी चिंताएं जाहिर कीं पर उस समय वसु ने उन सारी बातों को सुनीसुनाई अफवाहें कह कर खारिज कर दिया। आज पहली बार उस का आत्मविश्वास और धैर्य उस का साथ नहीं दे रहे थे। वह सोच में पड़ गई कि इतनी अच्छी शिक्षा और स्वाभिमान के बावजूद कैसे इतनी आसानी से मैं ने अपना सर्वस्व किसी और को समर्पित कर दिया? सच में अपने अच्छे और बुरे के निर्माता हम स्वयं ही होते हैं।

पहली बार उसे अपने चाहे हुए रिश्ते में घुटन सी महसूस होने लगी थी। सच ही तो कहते थे लोग कि हाथ पर हाथ रख देना एक बात थी पर किसी का हाथ हाथ में ले कर साथ में चलने का प्रण निभाना कोई आसान बात न थी. फिर तो कुछ दिनों में अलगअलग सी अनेक बातें सुनने में आईं पर वे सभी उन के संबंध के प्रतिकूल ही थीं.

वसु ने अपने मातापिता से नाराजगी दिखाई तो उन्होंने अपने अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण से आपत्ति. वसु झरना के मातापिता से भी मिला और झरना के मातापिता नम्र निवेदन ले कर वसु के घर भी गए पर वसु के मातापिता पुत्र की क्लासवन की नौकरी और उस के मद में चूर किसी निम्न मध्यवर्गीय परिवार की शिक्षिका को अपने घर की बहू बनाने को बिलकुल राजी नहीं हुए। 21वीं सदी में भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, प्रसन्नता पारिवारिकसामाजिक दबाव में कसमसा कर रह गए थे.

धीरेधीरे समय बीता और वसु और झरना के बीच बातचीत बंद हो गई. झरना के जीवन से वसंत चला गया और चेहरे से मुसकान. अपना सर्वस्व वसु पर वार कर उस ने खुद को खाली कर लिया था पर समय सारे जख्म भर देता है… पहले जो वियोग पहाड़ सा लगता था उस ने ही झरना को जीवन का एक मकसद दे दिया और वह पूरी तरह से अपनी लाइफ में व्यस्त हो गई. वसु के लिए अब उस के मन में एक कड़वाहट जरूर घर कर गई और उस का एक स्थायी प्रभाव यह हुआ कि वह किसी भी पुरुष पर फिर विश्वास करने की हिम्मत कभी न कर पाई और कितने ही दबावों के बावजूद उस ने अपना जीवन अपनी शर्तों पर अपने मातापिता के साथ ही बिताने का निर्णय कर लिया.

सहारा- भाग 2 : रुद्रदत्त को अपने बेटों से क्यों थी नफरत ?

पिछले कुछ समय से गिरिजा रोज सुबह इस पार्क में दौड़ने आती थी और दूर से रुद्रदत्त को कसरत करते हुए देखती थी. उस दिन उस से रहा नहीं गया और गिरिजा ने रुद्रदत्त से परिचय बढ़ा लिया था.

“अभी आप कहां रहती हैं टीचरजी?” रुद्रदत्त ने प्रश्न किया और विशेष भाव से मुसकरा दिए.

“अरे सर, हमारा नाम है, आप हमें टीचरजी की जगह गिरिजा कहेंगे तो हमें ज्यादा अच्छा लगेगा. आप को नहीं लगता कि यह टीचरजी, यह लालाजी बहुत पराए से लगते हैं. वैसे अभी तो मैं एक होटल में ही रहती हूं, कोई अच्छा सा रूम मिल जाए तो वहां शिफ्ट हो कर सैटल हो जाऊं. आप की नजर में है कोई अच्छा कमरा?” गिरिजा ने रुद्रदत्त की आंखों में देखते हुए प्रश्न किया. इस समय गिरिजा के चेहरे पर बहुत भोली मुसकान थी.

“आप ठीक समझो तो मेरे घर… इतना बड़ा घर है और रहने वाला मैं अकेला. आप कोई किराया भी मत देना बस भोजन…आप को रहने का सहारा हो जाएगा और मुझे भोजन का,” रुद्रदत्त ने धीरे से कहा.

“सहारा…ठीक है, तो मैं कल ही अपना सामान ले कर आ जाती हूं। कल संडे है, आराम से रूम सैट हो जाएगा,” गिरिजा ने कुछ सोच कर कहा और दोनों मुसकराते हुए चले गए.

गिरिजा अब रुद्रदत्त के बड़े से घर में आ गई थी. रविवार का दिन था तो आराम से वह अपना सामान जमा सकती थी. ऐसे भी गिरिजा के पास ज्यादा सामान नहीं था. बस कुछ कपड़े थोड़े से बरतन और कुछ किताबें.

“आप यह न समझना कि बस यह एक कमरा ही आप का है, मेरी ओर से यह पूरा घर आप का है। आप जहां चाहें रह सकती हैं, जहां चाहें जो चाहे कर सकती हैं,” रुद्रदत्त ने गिरिजा की किताबें जमाते हुए कहा.

आज रुद्रदत्त भी दुकान नहीं गए थे. पत्नी के जाने के बाद यह पहली बार था जब उन्होंने दुकान समय पर नहीं खोली थी. हालांकि पहले तो यह अकसर हुआ करता था. खासकर उन की शादी के शुरुआती दिनों में. आज न जाने क्यों रुद्रदत्त को वे दिन बहुत याद आ रहे थे.

“आप का कमरा कौन सा है, चलो मुझे दिखाओ,” अचानक किताब रख कर गिरिजा रुद्रदत्त की ओर घूमी और उन की आंखों में देखते हुए गंभीर हो कर बोली.

“वह… उधर, वहां है मेरा कमरा,” रुद्रदत्त ने हकलाते हुए उंगली से इशारा कर के बताया.

“अच्छा…चलो मुझे देखना है,” गिरिजा ने कहा और उस रूम की ओर बढ़ गई.

रुद्रदत्त भी उस के पीछे आने लगे.

कमरे में आ कर कुछ देर इधरउधर देखने के बाद गिरिजा नजर एक तसवीर पर जा कर अटक गई. कमरे में दीवार पर एक बड़े से फ्रेम में किसी महिला की तसवीर लगी थी.

“यह मेरी पत्नी गंगा की तसवीर है. बीच राह में ही मुझे छोङ कर चली गई,” रुद्रदत्त गिरिजा की आंखों का मतलब समझ कर उसे बताते हुए बोले.

“अच्छा, फिर आप ने इन की तसवीर यहां क्यों लगा रखी है? अरे, यदि आप ऐसे इन्हें तसवीर में कैद कर के रखोगे तो किस तरह आप इन्हें अपनी यादों से आजाद कर पाएंगे?” गिरिजा ने गंभीर हो कर कहा और रुद्रदत्त की आंखों में देखने लगी.

रुद्रदत्त ने कुछ नहीं कहा और बस गिरिजा की आंखों में देखने लगे. अचानक गिरिजा ने उन का हाथ पकड़ लिया. यह स्पर्श रुद्रदत्त को डूबते को तिनके का सहारा सा लगा और उन का ध्यान टूट गया.

“अच्छा, अब आप दुकान पर जाइए, यहां मैं सब ठीक कर दूंगी,” गिरिजा ने कहा और रुद्रदत्त बिना कुछ कहे दुकान के लिए निकल गए.

शाम को गिरिजा ने भोजन में कई तरह के पकवान बनाए थे। पत्नी के देहांत के बाद रुद्रदत्त ने पहली बार मन और पेट दोनों की तृप्ति की थी.

“वाह, क्या स्वाद है। जादू है आप के हाथों में गिरिजा. आप को बायोलौजी का नहीं कुकिंग का टीचर होना चाहिए था,” भोजन के बाद रुद्रदत्त ने गिरिजा की तारीफ करते हुए कहा.

“अच्छाजी, चलो कोई बात नहीं, यहां मैं आप को कुकिंग सिखाने का जौब कर लेती हूं लेकिन केवल आप को ही सिखाएंगे,” गिरिजा ने मुसकराते हुए कहा.

“केवल मुझे ही क्यों?” रुद्रदत्त ने गिरिजा की आंखों में देखते हुए पूछा.

“सहारे के लिए लालाजी, अब कभी अगर मैं बीमार पड़ी तो मुझे भी तो 2 रोटी का सहारा चाहिए होगा न, तब आप मेरे लिए खाना बनाना,” गिरिजा ने हंसते हुए कहा लेकिन तभी रुद्रदत्त ने गिरिजा के मुंह पर हाथ रख दिया और धीरे से बोले, “बीमार पड़ें आप के दुश्मन.”

तभी गिरिजा ने रुद्रदत्त के हाथ को चूम लिया और मुसकराते हुए उन की आंखों में देखने लगी.

“क्या देख रही हो ऐसे?” रुद्रदत्त ने उस से नजरें चुरा कर अपने हाथ को देखते हुए कहा.

“क…कुछ नहीं…बस ऐसे ही,” गिरिजा ने कहा और बरतन समेटने लगी.

“अरे गिरिजा, यह हमारे कमरे का हुलिया किस ने बदल दिया? और गंगा की तसवीर कहां है?”कुछ ही देर बाद कमरे से रुद्रदत्त की आवाज आई.

“हम ने किया है और गंगाजी को हम ने उन की तस्वीर की कैद से मुक्त कर दिया। अब आप भी उन्हें अपनी यादों से मुक्त कर दो और इस काम के लिए जो सहारा चाहिए आप को मैं देने के लिए तैयार हूं,” गिरिजा ने अर्थपूर्ण स्वर में कहा और मुसकराते हुए वापस जाने लगी.

“कैसा सहारा गिरिजा?” रुद्रदत्त ने उस की आंखों की चमक देखते हुए पूछा.

“आती हूं अभी, थोड़ा इंतजार कीजिए,” गिरिजा ने हंस कर कहा और रसोई की ओर बढ़ गई.

रुद्रदत्त सोच रहे थे कि गिरिजा आज न जाने क्या करने वाली है। कुछ देर बाद जब गिरिजा उन के सामने आई तो वे हक्केबक्के से उसे देखते रह गए.

गिरिजा ने बहुत सुंदर लहंगा और चोली पहनी हुई थी. उस ने एक जड़ाऊ चुनरी से अपने सिर को भी ढंका हुआ था. वह आगे आई और रुद्रदत्त के सामने आ कर खड़ी हो गई. रुद्रदत्त तो समझ ही नहीं पा रहे थे कि क्या करें. इन कपड़ों में गिरिजा बिलकुल अप्सरा लग रही थी. उस का रूप, उस का यौवन किसी नवविवाहित नवयौवना को भी फेल कर रहा था. रुद्रदत्त तो पलकें तक झपकाना भूल गए थे.

“ऐसे क्या देख रहे हैं रुद्र, क्या मैं अच्छी नहीं लग रही?” गिरिजा ने धीरे से मुसकराते हुए पूछा.

“बहुत अच्छी लग रही हो गिरिजा मगर यह सब…?” रुद्रदत्त ने फिर उस की ओर देखते हुए पूछा.

“यह सब आप को सहारा देने के लिए ताकि आप गंगाजी को भुला सको और भुला सको उन कुपुत्रों को जिन्हें अपने सुख के आगे अपने पिता की पलकों में रोज सूखते आंसू कभी दिखाई नहीं दिए,” गिरिजा ने कहा और रुद्रदत्त के पास बिस्तर पर बैठ गई.

गिरिजा की सुंदरता रुद्रदत्त को मोहित कर रही थी. उस के शरीर की मादक गंध उन्हें मदहोश कर रही थी. वे सोच नहीं पा रहे थे कि क्या करें, तभी गिरिजा ने उन का हाथ अपने हाथों में ले लिया और बोली, “जब इस दुनिया में सभी अपने हिसाब से जीना चाहते हैं, सभी को बस अपनेआप से मतलब है तो हम इस मतलबी दुनिया की परवाह क्यों करें. क्यों नाम आज से हम एकदूसरे का भावनात्मक सहारा बनें? क्यों न हम एकदूसरे की कमी पूरी करें? क्यों न हम सबकुछ भूल कर बस अपने सुख के लिए जीना शुरू करें,” गिरिजा रुद्रदत्त के हाथों को दबा रही थी.

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