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छिताई का कन्यादान- भाग 3

विदाई के समय राजा ने देवगिरि के राजप्रासाद को सज्जित कराने की दृष्टि से एक चित्रकार की मांग की, क्योंकि दिल्ली के महलों में चित्रकारी देख कर वह प्रफुल्लित हुआ था. सुलतान ने अपना खास चित्रकार साथ भेजा. लौट कर राजा ने जब बेटी को देखा तो चौंका. 3 साल में ही राजकुमारी कितनी यौवन संपन्न हो गई थी.

राजा ने पुराने भवनों के साथ नए प्रासाद का भी निर्माण करा कर पौराणिक ग्रंथों के विविध प्रसंगों को अपनी इच्छा से चित्रित कराया. चित्रकार नए चित्रों में नए रंग भरता तथा नई आकृतियां अंकित करता रहता था. मन में बसे चित्रों की छवि को वह तूलिका के जादू से अधिक ललित, जीवंत एवं मनोहर बना कर प्रस्तुत कर देता था.

एक दिन वह तन्मय हो कर चित्र बना रहा था कि उस की दृष्टि पाश्र्व के द्वार पर गई. दमकते सौंदर्य तथा छलकते यौवन की साक्षात स्वामिनी खड़ी थी. उस ने बहुत सुंदरता को सिरजा था, मगर आज विधाता की इस चपल, नवल तथा विरल सृष्टि को निहार कर चकित रह गया था. जिस तन्मयता से वह चित्र की सृष्टि में लीन था, उतना ही वह लालित्य की देवी उस क्षणक्षण संवरती कृति को निहारने में खोई थी. जैसे ही चित्रकार का ध्यान भंग हुआ और उस ने पीछे देखा, वैसे ही वह सुंदरी जल में फिसलती मीन की तरह अंतराल में विलीन हो गई. चित्रकार के मन में उस अनुपम सौंदर्य को चित्रित करने की लालसा घर कर गई.

चित्रकार को यह आभास हो गया था कि वह राजकुमारी छिताई थी. चित्रकार दरबार के साथ ही अंत:पुर में भी चित्र बना रहा था. अतएव उस ने फिर से उस दमकते सौंदर्य का दर्शन कर लिया और इस बार उस ने पूरी सजगता से चुपचाप छिताई की छवि अपनी तूलिका से उतार ली और चित्र को अपने पास रख लिया.

इस बीच राजा ने बेटी हेतु वर की तलाश जारी रखी. उस ने पुत्री का विवाह द्वारसमुद्र के राजा भगवान नारायण के पुत्र राजकुमार सौंरसी के साथ निश्चित कर दिया. चित्रांकन का कार्य समाप्त होने के पश्चात विवाह का मंडप सजाया गया और विवाह कार्य सकुशल संपन्न हो गया.

राजकुमारी पति के साथ डोली में ससुराल चली गई. चित्रकार भी पुरस्कार पा कर और अपने स्वामी हेतु उपहार ले कर दिल्ली चला गया. कुछ ही दिनों बाद प्रिय पुत्री के बिना घर सूना पा कर राजा रामदेव ने छिताई को बुला लिया. छिताई और सौंरसी, दोनों देवगिरि आ गए. वैभव और दुलार की कमी न थी. युवक सौंरसी रात्रि में छिताई के साथ रमण करता और दिन में ऊबने लगता तो आखेट के लिए निकल जाता.

राजा रामदेव दामाद को अनजाने क्षेत्र में अकेले जाने से रोकते थे. मगर नवयौवन के अल्हड़पन में सौंरसी परवाह नहीं करता था. एक दिन मृग के पीछे घोड़ा दौड़ाता वह जंगल में घुस गया. मृग आश्रय पा कर एक आश्रम में घुस गया. आश्रमवासी बाहर निकल आए और दयावश राजकुमार से मृग को छोड़ देने का अनुरोध किया. राजकुमार जोश में था. उस ने हिरण को नहीं छोड़ा. तब उस आश्रमवासी ने कुपित हो कर कहा, ‘‘जैसे तुम ने मृगी को दुखी किया है, उसी प्रकार तुम जिस स्त्री के मोह में पड़े हो, वह दूसरे पुरुष के वश में पड़ेगी और तुम दुख भोगोगे.’’

सुन कर सौंरसी अवाक रह गया. उस के प्रार्थना करने पर आश्रमवासी बोले, ‘‘तुम पश्चाताप करोगे तो तुम्हारा दुख दूर होगा.’’

सौंरसी लौट तो आया मगर उस का मन शंकित रहने लगा. उस ने आखेट पर जाना एकदम बंद कर दिया. इस से छिताई और राजा प्रसन्न रहने लगे. राजकुमार को बचपन से संगीत से लगाव था. अब दिन में वह अपनी वीणा ले कर बैठ जाता और छिताई जहां भी होती, वीणा का स्पंदन सुनते ही हिरणी की तरह खिंच आती. सौंरसी ने अपनी प्रणयिनी छिताई को वीणा सिखाना शुरू किया. धीरेधीरे संगीत ने उन की संगति में ऐसा माधुर्य घोल दिया कि लययुक्त स्वरलहरियां उन के एकांत की निर्विघ्न साधना बन गईं. सुख के ये सरकते दिन आनंद के नित नूतन सोपान बनते चले गए.

उधर चित्रकार जब काम पूरा कर के दिल्ली पहुंचा तो उस ने राजा रामदेव के व्यवहार की प्रशंसा करते हुए राजा के उपहार बादशाह अलाउद्दीन को दिए. अलाउद्दीन ने अपने मित्र की प्रशंसा की. एक दिन अवसर पा कर चित्रकार ने एकांत में संजो कर बनाए और रखे गए राजकुमारी छिताई के चित्र को सम्राट अलाउद्दीन को दिखाया.

बादशाह एकटक उसे निहारते हुए कल्पना के नवीन संसार में विलुप्त हो गया. उस ने तय कर लिया कि ऐसी सुकुमारी सुंदरी कन्या का भोग अवश्य करना चाहिए. वह यह तय नहीं कर पा रहा था कि आक्रमण किस बहाने किया जाए क्योंकि अपनी खुशी से तो अपनी ब्याहता कन्या अथवा पत्नी न राजा रामदेव दे पाते और न सौंरसी. जब उसे पता चला कि सौंरसी और छिताई देवगिरि में हैं तो उसे लगा कि देवगिरि पर इस समय आक्रमण से जहां छिताई मिलेगी, वहीं फिर से दौलत हासिल होगी.

मैं भारतीय हूं- भाग 3

उस के कालेज में ऐसा कुछ ग़लत हो रहा है, उन के कालेज का कोई भी बच्चा ड्रग्स या किसी अन्य गलत गतिविधियों में लिप्त है. इतना ही नहीं, मैनेजमैंट ने साफतौर पर आहान का रूम बदलने से भी इनकार कर दिया. मैनेजमैंट के आगे आहान और उस के अभिभावक को घुटने टेकने पड़े और वे आहान को वहीं कालेज में भारीमन से डरते हुए छोड़ कर चले ग‌ए.

आहान सही होते हुए भी तथा उन सभी लड़कों की गलतियां सिद्ध करने के बावजूद खुद को सही साबित नहीं कर पाया और उसे रोहन व शशांक संग उसी कमरे में मजूबरन रहना पड़ा. आहान के मातापिता को अभी कालेज कैंपस छोड़े चंद घंटे ही हुए थे कि रोहन, शशांक, मोहित, ऋषभ और कुछ लड़के आहान के रूम में आ धमके और पढ़ाई कर रहे आहान से शशांक बोला-

“क्यों बे पाकिस्तानी, तुझे हमारे साथ नहीं रहना है, तू हमारी कंप्लेन मैनेजमैंट से करने गया था कि हम तुझे परेशान करते हैं, हम ड्रग्स लेते हैं.” तभी रोहन बोला-

“साले, तुम सभी आतंकवादी, देशद्रोही हमारे ही देश में रह कर हमें आंख दिखाते हो”

आहान को समझ ही नहीं आ रहा था कि अचानक ये सभी पाकिस्तानी, आंतकवादी और देशद्रोही जैसे शब्दों का इस्तेमाल उस के लिए क्यों कर रहे हैं. उस दिन के बाद आहान को इस तरह से ही पुकारे जाने का सिलसिला शुरू हो गया जो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था बल्कि बढ़ते ही जा रहा था. ये सभी लड़के आहान को मानसिक रूप से परेशान करने लगे. उसे पढ़ने भी नहीं देते. हमेशा उस के आसपास ही मंडराते रहते और जब भी आहान पढ़ने बैठता, उसे परेशान करने की मंशा से कभी लाइट बंद कर देते तो कभी बेवजह शोर मचाने लगते, कभी म्यूजिक चलाने लगते.

आहान मानसिक तौर पर डरने और परेशान रहने लगा. वह डरासहमा सारा दिन अपने कमरे में ही बैठा रहता, किसी से कुछ न कहता. आहान इस डर से कमरे से बाहर भी नहीं निकलता कि कहीं कोई उसे देशद्रोही, पाकिस्तानी या आंतकवादी कह कर न पुकार दे. रोहन, शशांक, मोहित, ऋषभ और उस के सारे बदमाश दोस्त आहान के धर्म को निशाना बना कर उसे भलाबुरा कहने लगे थे. उस के कौम को धोखेबाज और देशद्रोही भी कहते. पूरे कालेज में यह बात फैला दी गई कि आहान टुकड़ेटुकड़े गैंग का सदस्य है और वह उन के साथ इसलिए नहीं रहना चाहता क्योंकि वे उस के धर्म के नहीं हैं, आहान अपने धर्म के लड़कों के संग रहना चाहता है.

रोहन, शशांक, मोहित और ऋषभ ने अपने दोस्तों संग मिल कर खुद को बचाने और निर्दोष सिद्ध करने के लिए पूरे घटनाक्रम को इस तरह से एक सांप्रदायिक रंग दे दिया कि सभी आहान को ही दोषी ठहराने लगे.

आज पूरे देश में जाति, संप्रदाय और धर्म के नाम पर जो जहर कुछ राजनीतिक दलों द्वारा घोला जा रहा है, यहां इस कालेज में उसी की एक झलक दिखाई दे रही थी. बिना सोचेसमझे कालेज के सभी विद्यार्थियों ने आहान को केवल उस के धर्म के आधार पर ग़लत समझ लिया और मैनेजमैंट सारी सचाई जानते हुए भी चुप्पी साधे सारा तमाशा देख रहा था. एक बंदा और था जो सारी सचाई जानता था और वह था अरविंद, जो आहान की मदद भी करना चाहता था लेकिन वह भी मजबूर था क्योंकि न तो वह किसी रसूखदार का बेटा था और न ही किसी उच्च कुल से ताल्लुक रखता था.

दिनप्रतिदिन आहान का मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा था. वह इतना डरासहमा हुआ था कि वह अपने मातापिता से भी फोन पर अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार की खबर देने से घबरा रहा था. आहान की स्थिति देख अरविंद अंदर ही अंदर दुखी व विचलित होने लगा लेकिन वह यह भी जानता था यदि उस ने किसी के विरुद्ध मुंह खोला या किसी से भी कुछ सचाई बताने की कोशिश भी की तो ये सारे लड़के उसे भी नहीं बख्शेंगे. इसी बीच, एक दिन आहान से मिलने और उसे संबल देने की चाह से जब अरविंद उस के रूम में पहुंचा तो उस ने देखा, आहान उस से बड़ी अजीब तरह से व्यवहार कर रहा है, बारबार आहान, बस, यही दोहरा रहा है-

“नहीं, मैं देशद्रोही नहीं हूं, मैं किसी टुकड़ेटुकड़े गैंग का सदस्य नहीं हूं, मैं पाकिस्तानी नहीं, मैं भारतीय हूं.”

आहान की हालत देख अरविंद ने यह तय किया कि वह कैसे भी कर के आहान के परिवार को उस की बिगड़ती मानसिक स्थिति की खबर दे कर ही रहेगा. उसी दिन अरविंद ने आहान के पिता को फोन पर सारी बातें विस्तार से कह दीं. आहान की नाज़ुक स्थित की जानकारी मिलते ही दूसरे दिन आहान के पिता होस्टल आ पहुंचे. पिता को सामने देख आहान उन से लिपट गया और कहने लगा-

“पापा, मुझे यहां से ले चलिए, मैं यहां नहीं रहना चाहता. आप सब से कह दीजिए कि मैं इंडियन हूं और मैं अपने वतन से प्यार करता हूं.”

आहान की हालत देख उस के पिता की आंखें नम हो गईं. अपने बेटे को कालेज भेजते वक्त उन्होंने क‌ई सुनहरे ख्वाब अपनी पलकों पर सजा रखे थे लेकिन आज अपने बेटे की यह दशा देखने के बाद उन की सारी उम्मीदें ताश के पत्तों के ढेर की तरह गिर कर बिखर गईं. आहान के पिता के लिए यह वक्त कालेज मैनेजमैंट से सवालजवाब या आहान पर धर्म के नाम पर निशाना साधते उन लड़कों के खिलाफ आवाज़ उठाने का नहीं था. इस वक्त उन के लिए ज्यादा जरूरी आहान को वापस सही स्थिति में लाना था, इसलिए वे भारीमन से आहान को घर ले आए.

साइकोलौजिस्ट के चैंबर के बाहर बैठे आहान के पिता आज 6 महीने बाद भी आहान को सामान्य स्थिति में लाने की जद्दोजहेद में लगे हुए थे. आहान आज भी किसी को अपना नाम बताने से डरता था क्योंकि उसे लगता था कहीं कोई उसे पाकिस्तानी, देशद्रोही या आतंकवादी न समझ बैठे.

आहान की इस स्थिति का जिम्मेदार केवल कालेज मैनेजमैंट ही नहीं है और न ही वे मुठ्ठीभर बदमाश लड़के हैं. इस का जिम्मेदार हमारा वह समाज है, हमारे वे राजनीतिक दल हैं जिन्होंने भाषा, जाति, ऊंचनीच और धर्म के नाम पर पूरे देश को बांट रखा है. जिस की आड़ में चंद स्वार्थी लोग अपना स्वहित साध रहे हैं और लोगों को भ्रमित कर रहे हैं.

रहिमन धागा प्रेम का- भाग 3

मातापिता के सामने वसु के दुविधापूर्ण व्यवहार को भारतीय पुरुषों का डबल स्टैंडर्ड समझ कर झरना के मातापिता ने उसे उस से दूरी बरतने की सलाह दी थी. वे उस पर किसी भी प्रकार की जोरजबरदस्ती करने से बचते थे क्योंकि अंत में उन को अपनी बेटी का जीवन प्यारा था.

इतने सालों के बाद आज इन सब बातों को मन ही मन सोचते हुए कुछ चिंतित और लज्जित होते हुए वसु ने झरना से कहा, “मैं तुम्हारा दोषी हूं झरना. मैं ही कारण हूं तुम्हारे एकाकी जीवन का,” यह सुन कर झरना ने बिना विचलित हुए सधे स्वरों में उत्तर  दिया, “2 बाते हैं बसु- पहला, तुम्हारे कठोर निर्णय से मैं हिल जरूर गई थी पर तुम्हारे साथ संबंध को मैं ने कभी रिग्रेट नहीं किया. तुम्हारे साथ बिताए क्षण मेरे लिए मधुर स्मृतियां बन गए क्योंकि उन पलों को मैं ने तुम्हारे साथ भरपूर जिया था और उस में हम दोनों की स्वीकृति और समर्पण था, दूसरा, तुम ने हमारे विवाह के लिए कोशिश तो की पर तुम मेरे लिए उतनी दृढ़ता से अपने मातापिता के सामने खड़े न हो सके जिस के लिए मैं इस निष्ठुर पितृसत्तात्मक और धनलोलुप समाज को ज्यादा दोषी मानती हूं, जो आज भी तुम्हारे जैसे पुरुषों को जरूरत से ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं और जहां तक मेरे एकाकी जीवन का सवाल है तो मैं अपनी इच्छा से अकेली रह रही हूं।

“मेरा काम, मेरे स्टूडैंट्स, मेरा परिवार मुझे हौसला देते हैं। कम से कम मैं जो कर रही हूं उसे अपनी पूरी क्षमता से और संतोषपूर्ण ढंग से कर रही हूं. वसु, शायद मैं आज भी तुम से उतना ही प्रेम करती हूं जितना पहले करती थी पर अब उस प्रेम की स्वीकृति के लिए बारबार मैं खुद को न्यौछावर नहीं कर सकती. शुरुआती दिनों में मैं ने कभी तुम को कोसा, कभी खुद को और फिर मन आत्मग्लानि से भर गया तो मैं ने प्रण लिया कि मुझे अपनी उड़ान खुद ही भरनी है जिस के लिए मुझे किसी से पंख उधार लेने की जरूरत नहीं।”

वसु को झरना की बात में तंज का आभास हुआ और वह बोल उठा, “ठीक ही कह रही हो, मैं एक असफल व्यक्ति ही रहा, न तो मैं व्यक्तिगत जीवन में अपनी जिम्मेदारियां ठीक से निभा पाया और न ही व्यावसायिक जीवन में कुछ खास अर्जित कर पाया. इस पूरे घटनाक्रम की परिणति यह रही कि मेरे मातापिता मेरी जिंदगी का सब से महत्त्वपूर्ण निर्णय ले कर मुझ से दूर हो गए. किसी समय उन्हें बेटे की खुशियों से ज्यादा उस की उपलब्धियां और उन से मिलता स्टैटस प्यारा था.

“मेरी परेशानियां देख कर उन्होंने मुझे इग्नोर करना शुरू कर दिया. एक समय के बाद तुम ने भी मुझ से दोस्ती छोड़ दी और मैं एक बेमेल शादी में झुंझलाता रहा, अंदर ही अंदर घुटता रहा. पर एक पुरुष होने के नाते मुझे कमजोर दिखने का अधिकार नहीं था.”

सहसा पुणे से दिल्ली की फ्लाइट का अनाउंसमैंट सुन कर दोनों जैसे किसी गहरी निद्रा से जागे और उठ कर लाइन में लग गए और फ्लाइट बोर्ड करी. एक ही प्लेन में सफर करते हुए भी दूरदूर बैठे वे दोनों कितनी ही बातें सोचते रहे. एक तरफ वसु पश्चाताप और ग्लानि की आग में जल रहा था, तो दूसरी तरफ झरना का मन एक बार फिर से पुरानी बातों में पड़ने से उपजी अनचाही कटुता से खिन्न हो आया था. वह सोचने लगी कि क्यों  आती हैं जीवन में ऐसी चुनौतियां? पहले एक असफल प्रेम और फिर उस की हृदय विदारक यादें। कभी अकेलेपन में अपने जीवन के मधुरतम क्षणों को याद कर के जब उसे सुख की अनुभूति होती थी तो वसु से विलगाव उस के हृदय को बेध जाता था. पर विवश थी वह अपने ही स्वभाववश. कभी उस ने किसी अन्य पुरुष को इस योग्य ही न समझा कि उसे अपने प्रेम का अधिकारी बना सकती और दूसरी तरफ वसु से मन इतना फट चुका था कि उसे याद भी न करना पड़े यही कोशिश करती थी पर आज का दिन तो प्रलय से कम नहीं था।

दिल्ली पहुंच कर बैगेज काउंटर से बैग ले कर वे दोनों साथ ही शहर की ओर रवाना हुए. वसु ने अपना नंबर झरना को दिया और उस का अपने मोबाइल में सेव कर किया. फिर तो गाहेबगाहे झरना को उस के फोन आने लगे. कभी चाय पर निमंत्रण, कभी डिनर का निमंत्रण, कभी प्ले देखने के लिए निवेदन इत्यादि कई तरीकों से वसु झरना के हृदय पर चढ़ी कठोरता की परत को पिघलाने की कोशिश करता रहा पर उसे कहीं कोई सफलता न मिली. झरना हर बार विनम्रता से कोई न कोई बहाना बना देती.

एक दिन तो वसु ने हद ही कर दी. वह उस के औफिस में अचानक बुके ले कर पहुंच गया. बिना किसी औपचारिकता के खुद को उस का मित्र बता कर वह उस के सहकर्मियों से भी घुलनेमिलने की कोशिश करने लगा पर झरना अब दोबारा दुख का कड़वा घूंट नहीं पीना चाहती थी, तभी तो उस ने अपनी दिल्ली हाट की मुलाकात में वसु को यह स्पष्ट कर दिया कि एक बार जो क्षति हो गई उस की पूर्ति संभव नहीं थी इसलिए उस दिशा में कोशिश भी नहीं हो.

“वसु, तुम यह समझने की कोशिश क्यों नहीं करते कि मैं अपने जीवन में सुखी हूं. मुझे जीवन में बहुत कम लोगों और चीजों की आवश्यकता है. आज मुझे किसी भी बात से डर नहीं लगता पर अपना आत्मविश्वास और स्वाभिमान खोना मेरे लिए सब से बड़ा दुख का विषय होगा और ताउम्र मैं इस डर में नहीं जीना चाहती हूं कि तुम ने मुझे एक सुविधा के तौर पर या फिर किसी समझौते या सहानुभूतिवश स्वीकार किया है.”

वसु ने अनेक बार से उसे यह विश्वास दिलाना चाहा कि वह भी अपने जीवन में फिर कभी वह सुख नहीं अनुभव कर पाया जो कभी उन दोनों के बीच रहा था. महादेवी की पंक्तियों से अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करते हुए कार्ड पर, “जो तुम आ जाते एक बार, आंखें देती सर्वस्व वार…” और फूलों के गुलदस्ते के साथ उस ने उसे मनाना चाहा पर झरना अपने अकेलेपन में और अपने परिवार के साथ जीवन में खुश थी और उस ने वसु को एक जानपहचान से ज्यादा तवज्जो न देने का मन बना लिया था.

झरना का दिल अब ताल के जल सा थम सा गया था. न तो उस में गुस्से और प्रतिरोध की कोई हिलोरें आती थीं और न ही इच्छाएं और आकांक्षाएं करवट लेती थीं. सब से ज्यादा दुख की बात यह थी कि उस की देह से ज्यादा उस के विश्वास का अतिक्रमण हुआ था और वह इस बात के साथ कोई नई शुरुआत नहीं करना चाहती थी.

जीवन के कितने ही वसंत उस ने अपने प्रेम को समझने में लगा दिए. उसे अब किसी से भी उस प्रीत की कामना भी न रही जो कभी वसु ने उस पर बरसाई थी। सच ही तो है, “रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय। टूटे पे फिर न जुङे, जुङे गांठ परि जाए…”

सहारा- भाग 3 : रुद्रदत्त को अपने बेटों से क्यों थी नफरत ?

आज सालों बाद किसी स्त्री का यह स्पर्श उन्हें अंदर से गुदगुदा रहा था. उन की नसों में खून का संचार तेज होने लगा था. उन के भीतर का पुरुष जाग रहा था. उन्होंने गिरिजा को अपनी ओर करते हुए उस का घुंघट उठा दिया और बोले, “तुम ठीक कहती हो गिरिजा, हमें भी अपने लिए जीना चाहिए, जब किसी को हमारी परवाह नहीं, जब समय पर कोई हमारा सहारा नहीं बनना चाहता तो क्यों न हम अपना सहारा खुद ही खोज लें और अपने सहारे का सच्चा सहारा बनें,” कहते हुए रुद्रदत्त ने गिरिजा का माथा चूम लिया.

गिरिजा भी अब उनकी बाहों में सिमट गई थी. रुद्रदत्त जी के होंठ गिरिजा के माथे से आंखों पर फिसलते हुए उस के होंठों पर पहुंच गए थे और उन के हाथ उस के गले से फिसल कर उस की पर्वत चोटियों की बर्फ हटाने लगे थे.

उन के हाथों का गरम स्पर्श पा कर गिरिजा पिघल उठी और रुद्रदत्त उस की पर्वत चोटियों का अमृतरस पीने लगे. गिरिजा को यह सब बहुत अच्छा लग रहा था और वह चाहती थी कि रुद्र उस में समा जाएं और यह रात कभी खत्म ही न हो. वह रुद्रदत्त से लिपटी जा रही थी और उन्होंने उसे किसी लता की भांति मजबूत वृक्ष बन कर सहारा दे रखा था.

उन के चुंबन की गति और दबाब दोनों बढ़ चुके थे. उन के बीच के सारे परदे हट चुके थे. रुद्रदत्त के हाथ अब बिना रुकावट गिरिजा के संगमरमरी जिस्म पर फिसल रहे थे. इन दोनों की ही सांसें बहक चुकी थीं। तूफान अपने चरम पर था। तभी रुद्रदत्त गिरिजा से लिपट कर वह पा गए जिसे पाने के लिए यह सारा तूफान उठाया जा रहा था. वे उस के अंदर समाते चले गए जिसे गिरिजा ने भी पूरे मन से स्वीकार किया और जब यह तूफान थमा तो दोनों के चेहरे संतुष्टि से चमक रहे थे. थोड़ी देर ऐसे ही पड़े रह कर सासें ठीक करने के बाद दोनों को होश आया कि कुछ देर पहले उन के बीच से क्या तूफान गुजरा है, जिस ने एक ज्वालामुखी को पिघला दिया था.

गिरिजा के यौवन पर सालों से जमी बर्फ पिघल चुकी थी. रुद्रदत्त भी काफी सालों बाद अपने पुरुष होने पर गर्व कर रहे थे. इस उम्र में भी उन की शक्ति क्षीण नहीं हुई थी. गिरिजा उन से पूरी तरह खुश थी.

“क्या हम विवाह कर लें गिरिजा?” गिरिजा के बालों में उंगलियां घुमाते हुए रुद्रदत्त ने धीरे से पूछा.

“नहीं, उस की कोई जरूरत नहीं है,” गिरिजा ने उन के सीने पर से अपना सिर उठाते हुए कहा.

“लेकिन क्यों? अब जब हमारे बीच यह संबंध बन ही गया है तो तुम्हें नहीं लगता हमें इस के लिए सामाजिक मान्यताओं को मानते हुए हमारे रिश्ते की औपचारिक घोषणा कर देनी चाहिए?” रुद्रदत्त ने प्रश्न किया.

“नहीं, मुझे नहीं लगता. हमें एकदूसरे का सहारा चाहिए सो हमें मिल गया, इस के लिए हमें हमारे रिश्ते को कोई नाम देने की कोई जरूरत नहीं है और फिर जब हमें भावनात्मक स्पोर्ट चाहिए था तब तो यही जमाना हमारा मजाक उड़ा रहा था न, तो अब हम इस की परवाह क्यों करें…

“ऐसे भी आप विवाह कर के, परिवार बना कर देख चुके हो, कौन है आज आप के पास? मैं ने भी प्रयास किया था लेकिन मेरा प्रेमी विवाह के मंडप तक भी नहीं आया था. तब जब मुझे लोगों से मोरल सपोर्ट की आशा थी, लोग उलटे मेरा ही मजाक उड़ा रहे थे कि शायद उसे मेरी किसी बात का पता चल गया होगा इसलिए वह मुझ से विवाह करने नहीं आया. जिस लड़के के लिए मैं दुनिया से लड़ी, अपने पेरैंट्स को छोड़ दिया, वह उस समय भाग गया जब मुझे सहारा चाहिए था. उस ने मुझे धोखा दिया तो मुझे नफरत हो गई विवाह के नाम से ही,” गिरिजा ने गंभीर आवाज में कहा.

रुद्रदत्त अवाक उस का मुंह ताकते रहे और फिर उसे अपनी बांहों में कसते हुए बोले, “हम हमेशा एकदूसरे का सहारा रहेंगे गिरिजा.”

गिरिजा ने भी उन्हें कस लिया और दोनों सो गए. ये दोनों एकदूसरे का सहारा बन कर बहुत खुश थे। दोनों के हृदय की धड़कनें मानो गा रही थीं, “तुम जो मिल गए हो…”

तेरे जाने के बाद : भाग 3

कमल मुझ से दूर होने लगा था. मैं गृहस्थी चलाने में भी असमर्थ हो गई थी. कमल को अब मेरा फोन भी वाहियात लगने लगा था. मेरा रूप ढलने लगा था. मेरा शृंगार अपनी रंगत खो चुका था. जिस के गले में मैं ने ही बूंदबूंद कर के जहर डाला था, एक दिन तो दम तोड़ना ही था. आखिर मैं गलत ही तो कर रही थी. और गलत कामों का नतीजा तो मु?ो भुगतना ही था.

मैं अब कमल से आरपार का फैसला कर लेना चाहती थी. अंतिम बार जब मैं उस से मिली तो उस ने साफसाफ शब्दों में कह दिया, ‘तु?ा जैसी बाजारू औरत के लिए अपना समय बरबाद नहीं करता कमल. तुम से बढि़या तो वेश्याएं होती हैं, जो पैसों के लिए गैर मर्दों के संग सोया करती हैं. कम से कम किसी को धोखा तो नहीं देतीं. तू जब अपने बाप की, अपने पति की नहीं हुई तो मेरी कैसे हो सकती है?’

मैं अपने प्यार की दुहाई देती रही पर कमल पर कोई असर नहीं हुआ. उस ने आगे स्पष्ट किया, ‘तू न तो मेरी जिंदगी की पहली औरत है और न ही आखिरी.’ मैं फिर भी गिड़गिड़ाती रही पर उस पर कोई असर नहीं हुआ. मैं रूप, जवानी, धनदौलत सब लुटा चुकी थी. कमल अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए मु?ो मां तक बना चुका था. उस के जीवन में कोई और आ चुकी थी. नई चिडि़या को फांसने के लिए पुरानी का घरौंदा उजाड़ चुका था. कमल की हकीकत मेरे सामने थी. मैं चुप नहीं रह सकती थी. मैं होश खो रही थी. मेरी आंखों में गुस्सा उबल रहा था. मैं उस का मर्डर कर देना चाहती थी. मैं आवेश में आ कर कमल पर चाकू फेंक मारने लगी. वह बच निकला. मु?ो गालियां देते वहां से भागते हुए चला गया. उस के हाथ पर चाकू के निशान पड़ गए थे. उस ने हाफमर्डर का केस दर्ज कर दिया. असीम ने मु?ो सचेत करते हुए पुलिस के आने से पहले गुड़गांव छोड़ भाग जाने की सलाह दी.

असीम ने ही आगरा में मेरे और अभिलाषा के रहने का प्रबंध कर दिया. लेकिन साथ ही असीम मोहित के परिवार को भी इस घटना की सूचना दे चुका था. तुम्हारी मां और बहन हमारे भागने से पहले ही आ कर मेरे हाथों से प्रेम को छीन कर ले गईं. मैं आगरा चली आई. कुछ दिनों बाद असीम ने आगरा आ कर अपने पैसों से मेरे लिए एक ब्यूटीपार्लर खुलवा दिया. तब से आज तक मैं आगरा की ही हो कर रह गई.

रातभर मेरे दिलोदिमाग में मेरी पूरी जिंदगी नाचती रही. मैं पछतावे की अग्नि में जले जा रही हूं. मु?ो ग्लानि हो रही है खुद पर.

सुबह उठते ही सब से पहले शादी का पहला कार्ड मैं तुम्हारे परिवार को बाईपोस्ट भेजने कूरियर औफिस के लिए चल दी. शायद एक बार अपने बेटे को देखने की लालसा जाग्रत हो उठी थी. कूरियर करवा कर मैं वापस घर आ कर तुम्हारी और प्रेम की फोटो को ले कर बैठ गई.

मेरी आंखों से आंसू अपनेआप बहने लगे. मैं तुम्हारे फोटो पर गिरे अपने आंसू की बूंदों को अपने आंचल से पोंछने लगी. पता ही नहीं चला कब कमबख्त आंसू आंखों से ढु?लक कर तुम्हारे फोटो पर आ गिरा था. मैं तुम्हारे फोटो से कहने लगी, ‘पहले मैं रोती थी तो तुम या कभी कमल अपना कंधा दे कर चुप करवा दिया करते थे. लेकिन अब मैं नहीं रोती. रोने का दिल भी होता तो भी मैं नहीं रोती. कोई सांत्वना के 2 शब्द बोल कर चुप करवाने वाला जो नहीं है. अब अगर रोती हूं तो उपहास का पात्र बन जाती हूं.’

तुम फिर से जवाब तलब करने आ जाते हो, ‘तुम कमल को अपना लो. अब तो मैं भी नहीं हूं तुम्हारे जीवन में. तुम्हें कमल को अपनाने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए.’

‘दिक्कत तो कुछ नहीं है लेकिन तुम भूल रहे हो शायद कि मैं आज भी तुम्हारी पत्नी हूं. एक परित्यक्ता ही सही पर तलाकशुदा नहीं हूं. और फिर मैं वही गलती दोबारा कैसे दोहरा सकती हूं.’

‘क्या तुम भी गलती कर सकती हो?’

‘तुम्हारे वाक्य में कटाक्ष है. लेकिन फिर भी मैं प्रतिउत्तर दूंगी… हां, मैं गलती कैसे कर सकती हूं. आज से 10 साल पूर्व वाली माया होती तो शायद यही उत्तर देती. लेकिन आज वाली माया जान चुकी है खुद को. खुद के परिवेश को, इस समाज को, सामाजिक आहर्ता को. वक्त सबकुछ सिखा देता है. मैं भी सीख चुकी हूं.’

‘काश कि तुम पहले सम?ा जाती.’

‘काश…’

‘तुम में दिक्कत क्या है, तुम जानती हो? तुम किसी को अपने आगे कुछ सम?ाती ही नहीं. तुम्हें तुम्हारी दुनिया सब से ज्यादा प्यारी लगती. तुम इस दुनिया को भी अपने अनुसार चलाना चाहती हो, लेकिन ऐसा नहीं होता. वास्तविकता का धरातल कुछ और ही है, जिसे तुम ने कभी सम?ाने की कोशिश ही नहीं की.’

‘तभी तो आज भुगत रही हूं.’

‘भुगत तो मैं भी रहा हूं. जुदाई का गम. कम से कम तुम्हारे पास तुम्हारा परिवार, हमारा बेटा तो है. मेरे पास कौन है?’

‘हमारा बेटा. शायद तुम भूल रहे हो कि हमारा नहीं, सिर्फ और सिर्फ मेरा बेटा था. मेरे और कमल का बेटा.’

‘मैं जानता हूं. लेकिन शायद तुम भूल रही हो कि दुनिया की नजर में आज भी प्रेम हमारा ही बेटा है. कमल का नहीं. भले उस के शरीर में मेरे खून का कतरा नहीं है लेकिन मेरे प्यार के रंग को कोई कैसे उतार सकता है. नंदजी कान्हा के पिता भले नहीं थे किंतु वासुदेव से पहले नंद का नाम ही लिया जाता है. यह उन का पुत्रप्रेम व समर्पण था. जिसे दुनिया सदैव से ही नमन करती आई है और करती रहेगी.’

‘तुम नंद नहीं हो, पर मु?ो देवकी जरूर बना दिया. क्यों?’

‘देवकी, मैं ने कैसे बनाया?’

‘तुम्हारे घर वाले मेरे बच्चे को मु?ा से छीन कर ले जा चुके हैं. मैं नहीं जानती किस अधिकार से ले गए.’

‘मेरे घर वाले…मैं आश्चर्यचकित हूं. जिन्हें तुम से कभी विशेष मतलब न रहा, वो तुम्हारे बच्चे को क्यों ले कर जाएंगे.’

‘यही बात तो मु?ो सम?ा नहीं आई आज तक. लेकिन मैं तुम्हारे घर वालों के जुल्म के आगे ?ाक गई थी या शायद यहां भी मेरी ही गलती थी. मैं अपनी फिगर खोना नहीं चाहती थी. मैं ब्रैस्ट फीडिंग करवा कर अपने वक्ष को खराब नहीं करना चाहती थी. जो समय मु?ो उस अबोध बालक को देना चाहिए था वह समय मैं कमल को दे दिया करती थी. जिस का लाभ तुम्हें मिलता रहा. मैं अपने ही बच्चे से दूर होती रही और तुम करीब आते चले गए. तुम्हारे करीब, तुम्हारे रिश्तेदारों के करीब, और एक दिन वही बच्चा मु?ो छोड़ उन के साथ चला गया. यहां मैं मां भी नहीं बन सकी.’

मैं विचारों की उधेड़बुन में उल?ा रही. वैमनस्य मन में विवाह की तैयारी करती रही. मैं तुम्हें बारबार भुलाने की कोशिश में लगी रही और तुम बारबार मेरे जेहन में आते रहे. मैं खुद को कामों में उल?ाने की कोशिश में लगी रहती हूं ताकि तुम्हारी यादों से नजात पा सकूं पर फिर भी तुम याद आते रहते हो. मैं टैंट वाला, हलवाई के हिसाबकिताब करती रही और तुम अपनी कमी महसूस करवाते रहे. तुम होते तो ऐसा होता, तुम होते तो वैसा होता. तुम्हें इस तरह के कामों में आनंद जो मिलता था. शादीविवाह हो या कोई सामाजिक काम, तुम सब में बढ़चढ़ कर भाग लेते थे. वह तुम्हारी कोमल हृदय की भावनाएं होती जिसे मैं कभी नहीं सम?ा पाई थी.

एक बात जानते हो, मैं ने मी टू कैंपेन जौइन कर ली है. मैं अब कमल के मामले को पूरी दुनिया को दिखाऊंगी. उस की करतूतों का परदाफाश कर के रहूंगी ताकि कोई और मेरी जैसी औरत उस के चुंगल में न फंसे. बहुत सताया है मु?ो और जाने ही कितनों को. पर अब और नहीं.

शादी की तैयारी करने में वक्त गुजरते देर न लगी और वह समय भी आ गया जब अभिलाषा को विदा कर के लेने दूलहेमियां असीम बरात ले कर आ गये और अब वह हमेशा के लिए अभिलाषा को मु?ा से दूर ले कर चला जाएगा. मेरे अंदर भी बेचैनी होने लगी. क्या मैं अब अकेली रह जाऊंगी? क्या इस दुनिया में मेरे पास रहने वाला अपना कोई नहीं होगा? पर यह तो मेरे कर्मों का ही नतीजा है, फिर क्यों मु?ो घबराहट हो रही है? हां, मु?ो पश्चात्ताप हो रहा है. शायद हां, मु?ो पश्चात्ताप ही हो रहा है. मैं पश्चात्ताप की ही अग्नि में जल रही हूं. मेरा अहंकार जल रहा है. मेरा अस्तित्व जल रहा है. मैं एक कुंठित व महत्त्वाकांक्षी औरत हूं जिस के लिए शायद अब तक सजा मुकर्रर नहीं हुई है. पर यह तय है कि इस की सजा मु?ो मिलेगी जरूर.

तभी दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने दरवाजा खोला. मैं विस्मित देखती रह गई. मेरे सामने मोहित खड़ा था. मु?ो खुद की ही आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था. मु?ो लगता, शायद मैं इतनों दिनों से मोहित के खयालों में डूबी हूं, उसी का असर है. मोहित जब बोला, ‘‘क्या अंदर आने को नहीं कहोगी?’’ मेरी तंद्रा टूटी. वास्तव में मोहित ही है मेरा खयाल नहीं. मैं हड़बड़ाने लगी हूं, मेरी आंखों के कोर में न जाने कहां से आंसू के बादल छाने लगे. मैं रोकना चाहती थी उन आंसुओं की बूंदों को ढुलकने से, पर रोक नहीं पाई. वे लुढ़क कर मेरी नाक तक आ गए है. भर्राए हुए गले से मैं सिर्फ प्रेम बोल पाई हूं. मोहित ने कुछ जवाब नहीं दिया. वे मेरे संगसंग अंदर आ गए. मु?ा से नजर मिलाए बिना ही मोहित बैठ गए. मैं पानी लेने चली गई.

मैं अपने हाथों में पानी का गिलास लिए खड़ी थी.

मोहित ने पानी का गिलास लेते हुए पूछा, ‘‘प्रेम कहां है माया?’’

मैं अपनी रुंधे हुई भर्राए गले से अटकअटक गई, ‘‘वो…वो प्रेम को तो…प्रेम को तो आप की मांबहन ले गईं थी.’’ मैं पहली बार मोहित को आप कह संबोधित कर रही थी. मु?ो नहीं मालूम ऐसा क्यों?

‘‘मां ले गईं प्रेम को, पर क्यों?’’

‘‘क्योंकि मेरी ममता मरणासन्न अवस्था में पहुंच गई थी, मैं वासना के रसातल में विक्षिप्त प्राणी की तरह विलीन हो गई थी. सिर्फ और सिर्फ मेरा तन जाग्रत था, हृदय तो कब का मृत हो चुका था,’’ मैं फफकफफक कर रोते हुए बोली.

‘‘क्या इस का तुम्हें एहसास है?’’

‘‘एहसास, शायद छोटा सा अल्फाज है मु?ा जैसी कलुषित औरत के लिए. मु?ा जैसी औरतों को तो जितनी सजा दी जाए वह कम ही होगी.’’

‘‘तुम्हें पश्चात्ताप हुआ, यह बहुत बड़ी बात है. लेकिन तुम फिर से यह कौन सी गलती दोहराने जा रही हो?’’

‘‘गलती, क्या मतलब?’’

‘‘तुम इतनी भोली भी नहीं हो कि मतलब बताना पड़े. फिर भी बता देता हूं… यह तुम्हारा मी टू कैंपेन क्या है? क्यों तुम किसी की बसीबसाई गृहस्थी में आग लगाने पर तुली हो?’’ ‘‘पर उस ने जो किया, क्या वह सही था?’’

‘‘उस ने जो किया वह गलत जरूर था. लेकिन वह अकेला गलत तो नहीं था, तुम भी तो बराबर की भागीदार रही. तुम्हारी भी उतनी ही हिस्सेदारी रही जितना कमल की. फिर अकेले कमल पर दोषारोपण क्यों?’’

‘‘तो क्या तुम्हारी नजर में कमल सही है और मैं ही पूरी जिम्मेदार थी?’’

‘‘हां, कहीं न कहीं तुम ज्यादा जिम्मेदार थी. यदि तुम खुद को संयमित रखती तो दुनिया के किसी भी पुरुष के बाजू में इतनी ताकत नहीं कि तुम्हारे सतीत्व को छीन ले. तुम्हारा पति तो तुम्हारे संग ही था, फिर तुम कैसे मर्यादा भूल गईं. तुम्हें मेरी परवा भले न हो, अपनी परवा कभी तुम ने की नहीं, कम से कम प्रेम के बारे में तो एक बार सोच लेतीं. बड़ा होगा तो वैसे ही तुम्हारी करतूतों का पता चल जाएगा. लेकिन बारबार एक ही गलती दोहरा कर क्यों उसे जलालतभरी जिंदगी में ?ोंकने की तैयारी कर रही हो?

‘‘माना भारतीय कानून ने पराए मर्दों के संग सोने वाले रिश्तों में पति का दखल बंद करा दिया है लेकिन सभ्यता व संस्कार अभी भी इस प्रकार के औरत या मर्द को चरित्रहीन की ही श्रेणी में रखती हैं, और फिर प्रेम तो तुम्हारा ही बेटा है न, बड़े दंभ से कहती थीं, फिर क्यों उस के भविष्य को खराब करना चाहती हो? भूल जाओ माया पुरानी बातों को. जिंदगी को नए सिरे से शुरू करो. किसी के बसेबसाए घर को उजाड़ना भी ठीक नहीं है माया. बाकी तुम्हारी मरजी. तुम अधिक सम?ादार हो मु?ा से.’’

मैं कुछ भी सोचनेसम?ाने की अवस्था में नहीं रह गईर् थी, मोहित के तर्क के सामने. उन की बातें भी तो सही थीं. मु?ो प्रेम के बारे में तो सोचना चाहिए था. पर प्रेम के बारे में मैं क्यों नहीं सोच पाई? प्रेम कैसा होगा? मेरा बच्चा कहां होगा? और फिर मोहित को कैसे पता मेरे बारे में. शायद सोशल मीडिया से पता चला होगा. मैं कुछ बोलना चाहती थी पर बोल नहीं पाई. बस, प्रेमप्रेमप्रेम करती रह गई.

‘‘प्रेम मेरे पास है.’’

‘‘आप के पास?’’

‘‘तो लेते क्यों नहीं आए? एक बार नजर भर देख लेती,’’ बाकी शब्द मुंह में ही अटक गए. पहली बार महसूस हुआ कि मेरी ममता जागृत हो रही है.

‘‘मां’’, पैर छूते हुए एक 10 वर्षीय बच्चा मु?ा से लिपट कर फिर बोला, ‘‘पापा, मौसी की शादी के बाद हम मां को अपने साथ ले जाएंगे.’’

प्रेम अपनी दादीदादा के साथ अभिलाषा के लिए गहनेकपड़े खरीदने बाजार चला गया था. सब लोग साथ ही आए थे. लेकिन मोहित मेरे पास पहले आ गए, बाकी लोग बाजार चले गए थे.

मोहित की मां के जब मैं पैर छूने लगी तो वे उठ कर बोलीं, ‘‘बेटा, एक पत्नी गलत हो सकती है, हार भी सकती है दुनिया से, लेकिन एक मां न तो कभी हारती है और न ही गलत होती है. प्रेम तुम्हारा बेटा था, है और रहेगा. बस, उस में अच्छे संस्कार के खादपानी की जरूरत है. अब हम भी बूढ़े हो गए हैं. तुम अभिलाषा की विदाई के साथ ही हमारे साथ आ कर अपना संसार संभालो, तेरे जाने के बाद तेरा घर बिखर गया है, आ कर समेट ले बेटा.’’ मैं कुछ बोल नहीं पाई, बस सहमति में सिर हिलाती रह गई.

चालबाजी- भाग 3 : कृष्ण कुमार की अद्भुत लीला

मैं बस स्टैंड के पास पहुंचा. अनुपम वहां नहीं था. उस की जगह खाली थी. मैं काफी देर खड़ा रहा कि शायद अनुपम आ जाए. हफ्ते के छहों दिन, सिर्फ रविवार को छोड़ कर, वह वहीं रहता था. पर आज वो नहीं आया था. पता नहीं क्यों नहीं आया. क्या मालूम कहीं बीमार न हो गया हो. या कहीं और न बैठने लगा हो. पर उस का तो चार सौ रुपया मेरे पास जमा है. चलो हो सकता है कल आ जाए. तभी मेरी बस आती दिखाई दी. मैं जल्दी से बढ़ कर बस में चढ़ गया.

अनुपम दूसरे दिन भी नहीं आया. यहां तक कि तीसरे चौथे दिन भी नहीं दिखाई दिया. मुाझे बेचैनी होने लगी. चार सौ की राशि एक बड़ी राशि थी. कम से कम अनुपम के लिए तो बड़ी राशि थी ही. मैं ने आने के दूसरे दिन ही बैंक से रुपए निकाल लिए थे व पर्स के पीछे वाले खाने में चार सौ रुपए संभाल कर रख दिए थे. अपना पर्स मुझे भारी लगने लगा था. दूसरा दिन शनिवार था. मैं ने तय किया कि अगर अनुपम कल भी नहीं आया तो मैं स्टेशन पर जा कर देखुंगा. रात आठ बजे तक वह वहां बैठता है ऐसा उस ने बताया था. शनिवार को भी अनुपम अपनी जगह नीम के पेड़ के नीचे नहीं आया. आफिस के बाद मैं ने कुछ खाने के लिए बनाया. खाना खत्म होतेहोते फिर धुआंधार बारिश होने लगी. कुछ करने को था नहीं सो मैं खाट पर लेट कर एक उपन्यास पढ़तेपढ़ते जो सोया तो सात बजे नींद खुली. लाइट गायब थी. मैं ने लालटेन जलाई.

साढ़े आठ बज गये. मैं ने उठ कर अंडे उठाए व आमलेट बनाने के लिए दो अंडे एक कटोरे में तोड़े. उस में प्याज, धनिया, मिर्चा काट कर मिलाया व फेंट कर तैयार किया. मैं स्टोव जलाने ही जा रहा था कि दरवाजे की कुंडी खटकी.

मैं चौंक पड़ा. इस समय कौन हो सकता था.

मैं ने स्टोव वैसे ही छोड़ कर खिडक़ी खोली. बाहर घटाटोप अंधकार था. जैसे हाथ को हाथ न सुझाई दे रहा हो. बीच में चमकती बिजली के प्रकाश में दरवाजे के सामने बुरी तरह से पानी में भीगते खड़े किसी का आभास हुआ.

‘कौन है.’ मैं ने जोर से कहा.

उस ने धीरे से सर उठा कर मेरी तरफ देखा और कुछ कहा. पर  निचाट अंधकार के कारण न तो मुझे उस का चेहरा ही दिखाई दिया और तेज बरसते पानी के शोर और बादलों की गडग़ड़ाहट में न ही उस की आवाज ही सुनाई दी.

‘रुको. खोलता हूं.’ मैं ने कहा व खिडक़ी बंद कर दी. लालटेन उठा कर उस की बत्ती थोड़ी तेज की व दरवाजा खोला. लालटेन सामने कर के मैं ने उस का चेहरा देखा.

‘अरे तुम… अनुपम. इतने पानी में… तुम तो…अच्छा अंदर आओ.’

वह जल्दी से अंदर आया और मैं ने तुरंत दरवाजा बंद कर लिया. अनुपम पानी में बुरी तरह से सराबोर था. उस के सर से, बालों से, चेहरे से, टी शर्ट से, जींस से पानी चूचू कर फर्श को गीला कर रहा था. उस के पांवों में रबर की चप्पलें थीं. मैं अपने को रोक ना पाया. उठ कर गया व एक अंगौछा ला कर उसे दिया.

‘लो जल्दी से पानी पोंछ डालो. तुम तो सर्दी खा जाओगे भाई.’

उस ने अंगौछा मेरे हाथों से ले लिया व झिझकते हुए अपने बालों व चेहरे से पानी पोंछने लगा. फिर उस ने अपने हाथपांव का पानी भी सुखाया पर उस के कपड़ों में इतना पानी भरा हुआ था कि अभी भी उस के पैरों पर चू रहा था. मैं फिर अंदर गया व अपना एक कुर्तापाजामा ले आया.

‘लो उधर बाथरूम है. जा कर इसे बदल लो’

‘नहीं सर. इस की जरूरत नहीं है. ठीक है.’

‘क्या ठीक है.’ मैं ने जोर दिया, ‘अपने कपड़े बदल लो और पैंटशर्ट निचोड़ कर वहीं फैला देना. सूखेगा तो क्या पर पानी निकल जाएगा.’

मैं ने जोर दे कर कुर्तापाजामा उसे दे दिया. वह थोड़ा सहम सा गया था पर उस ने कुर्तापाजामा पकड़ लिया व धीरेधीरे बाथरूम की ओर बढ़ा. अपनी चप्पलें उस ने दरवाजे के बगल में उतार दी थीं.

मैं ने स्टोव में हवा भरनी शुरू की अनुपम इतना भीगा था कि उस को ठंड लग सकती थी. थोड़ा स्टोव की आग में हाथ सेंक ले तो बचत हो सकती थी. मैं ने स्टोव को माचिस दिखाई और आग जल उठी. मैं ने पेंचकस कर स्टोव व्यवस्थित किया.

‘सर आप का कुर्तापाजामा खराब हो गया.’ मैं ने देखा अनुपम ने कुर्तापाजामा पहन लिया था जो उस को लगभग ठीक आया था.

‘कोई बात नहीं. अब इधर यहां आ कर बैठो और अपने हाथपांव थोड़ा सेंक लो.’

वह तुरंत आ कर स्टोव के पास उकडूं हो कर बैठ गया व हाथ सेंकने लगा. लगता है कि उसे वाकई ठंड लग रही थी.

‘मैं आमलेट बनाने जा रहा हूं. मैं तुम्हारे लिए भी बना लेता हूं.’

‘नहींनहीं सर. आप मेरे लिए परेशान न होइए. आप अपने लिए बना लीजिए. मैं नहीं खाऊंगा.’

‘क्यों. इस में परेशानी क्या है. आमलेट बनाने में क्या परेशानी. मैं बना रहा हूं.’

‘आप इधर खाट पर बैठ जाइये सर.’ अब वह थोड़ा ठीक लग रहा था, ‘मैं आमलेट बना देता हूं. मुझे आमलेट बनाना अच्छे से आता है.’

‘अरे नहीं.’ मैं हिचक गया, ‘तुम वैसे ही बैठे रहो. मैं बना रहा हूूं.’

उस ने जोर नहीं दिया. मैं ने उस के व अपने लिए आमलेट बनाया व एक प्लेट में रख कर उसे दिया व आ कर खाट पर बैठ गया.

‘चलो शुरू करो.’ मैं ने आधा आमलेट दो स्लाइज के बीच रख कर कहा, ‘हां अब बताओ. इस आंधी पानी में भीगते हुए तुम कैसे आए. कोई काम था क्या.’

‘मुझे आप से एक काम था सर.’ उस ने ब्रेड का एक कोना कुतरते हुए सर झुका कर कहा.

‘ओ…हां.’ मेरा हाथ रुक गया, ‘एक मिनट रुको.’

मैं ने प्लेट खाट पर रख दी व उठ कर आलमारी से पर्स निकाला. उस के पीछे वाले खाने से चार सौ रुपए निकाले. फिर कुछ सोच कर उस में पचास रुपए और मिला दिए.

‘ये लो अपने रुपए रख लो.’ मैं ने उसे रुपए दिए, ‘तुम्हें लगा होगा कि सर जी तुम्हारे रुपए ले कर भाग तो नहीं गए. इसीलिए तुम इतनी आंधी पानी में भीगते हुए आए.’ मैं हंस पड़ा.

वह ना हंसा. उस ने रुपए ले कर स्टोव के नीचे दबा दिए व ब्रेड में आमलेट मिला कर खाता रहा.

‘आप दो तीन से दिखाई नहीं किए थे सर. कहीं बाहर चले गए थे क्या.’

‘हां अनुपम.’ मैं गंभीर हो गया, उस दिन जब तुम से आखिरी बार पालिश कराई थी ना तब उसी दिन औफिस में ही खबर मिली. मेरी मां की तबियत खराब हो गई थी. उन के दिमाग की नस फट गई थी. उन के दिमाग में खून का थक्का जम गया था. उन की जान को खतरा हो गया था. मुझे तुरंत जाना पड़ा.

‘दिमाग की नस फटना और खून का थक्का जमना.’ उस ने स्पष्ट कहा, ‘ये तो सेरेब्रल थ्राम्बासिस है ना सर यह तो खतरनाक है.’

‘तुम जानते हो.’ मैं ने आश्चर्य से कहा, ‘तुम सेरेब्रल थ्राम्बोसिस जानते हो.’

‘मैं ने कहीं पढ़ा था.’ उस ने फिर आमलेट का टुकड़ा तोड़ा, ‘अब मां जी का क्या हाल है सर.’

‘जान बच गई है.’ मैं ने कहा, ‘घर भी आ गई हैं. पर अभी दिमाग उतना काम नहीं कर रहा है. बस बैठी रहती हैं. दवाई चल रही है.’

‘इस में तो दवाई लंबी चलेगी सर.’

‘तुम बताओ. क्या तुम ने पौलिश का काम छोड़ दिया. तुम यहां बस स्टैंड के पास भी नहीं बैठते और स्टेशन पर भी नहीं बैठते.’

उस ने प्रश्नसूचक निगाहों से मेरी ओर देखा.

‘मैं गया था.’ मैं ने जल्दी से कहा, ‘जब तुम यहां मुझे दो दिन नहीं दिखाई दिए तो मैं तुम्हें देखने स्टेशन गया था. तुम्हारा रुपए मेरे पास था ना. पर तुम वहां भी नहीं थे.’

‘मुझे आप से एक काम था सर.’ उस ने ब्रैड आमलेट समाप्त कर लिया था पर प्लेट हाथ में पकड़े था.

‘हांहां बोलो, प्लेट वहां किनारे पर रख दो.’ मैं ने कहा पर थोड़ा सोचने लगा. अब उस को मेरे से क्या काम हो सकता था. उस के रुपए तो मैं ने उसे दे ही दिए थे. बल्कि पचास रुपए ज्यादा भी दे दिए थे. अब भला उसे मुझ से क्या काम हो सकता था.

वह उठा. उस ने प्लेट दीवार के साथ किनारे रख दिया व घूम कर बाथरूम में चला गया. जब वह वापस आया तो उस के हाथों में अच्छी तरह से पालीथीन में लपेटे कुछ कागज थे. लगता है कि कागजों को अच्छी तरह से पालीथीन में लपेट कर अपनी टीशर्ट के अंदर रख कर लाया था. वह फिर आ कर वहीं जमीन पर बैठ गया व संभाल कर पालीथीन से कागज निकाले. कागज भीगने से बच गए थे. उस ने कागज मेरी तरफ बढ़ाए.

‘ये क्या है अनुपम.’ मैं पूछे बिना ना रह सका.

‘सर जी. बहन का नौवीं में एडमिशन कराना है. एडमिशन हो भी गया है. उस ने टेस्ट में बहुत अच्छा किया था. पर उस के फार्म में दो लोगों से चरित्र प्रमाणपत्र लगाना है. क्या आप उस के लिए चरित्र प्रमाणपत्र पर हस्ताक्षर कर देंगे.’

मैं अनुपम की बहन को तो क्या अनुपम को ही अच्छी तरह से कहां जानता था. बहन को तो देखा भी नहीं था. वे कहां रहते हैं ये भी नहीं जानता था. चरित्र प्रमाणपत्र में तो यही प्रमाणित करना होता है कि मैं उसे अच्छी तरह से जानता हूं सो पते की तसदीक करता हूं व चालचलन की भी गारंटी लेता हूं. पर चलो मैं कोई कचहरी में जमानत तो ले नहीं रहा हूं, स्कूल में ही तो प्रमाणपत्र दे रहा हूं. इस की  ज्यादा अहमियत नहीं होगी. मैं ने यह सब सोच डाला व कागज उस के हाथ से ले लिए. कागज पर निगाह डालते ही मैं बुरी तरह से चौंका.

‘पर…ये तो…ये किस का है अनुपम.’

‘ये मेरी बहन का है सर.’

‘पर ये तो…मतलब…तुम लोग…क्या तुम लोग…,’ मैं कह ना सका.

‘हम रैदास नहीं है सर.’ वह सीधे मेरी तरफ देख रहा था.

‘अगर तुम रैदास नहीं हो तो तुम ये…ये…जता पालिश का काम क्यों करते हो.’

‘काम करने में क्या बुराई है सर.’ उस का सर अभी भी सीधा था- ‘हाथ से काम करना क्या बुरा है. जीने के लिए आय चाहिए और इस काम में ठीकठाक आय लायक पैसा है.’

अनुपम ने मुझे निरूत्तर कर दिया. आगे क्या बोलूं समझ में न आया. मैं ने फिर से कागज उठा लिया. उस की बहन का नाम सीमा था. फोटो में वह सभ्रांत घराने की लडक़ी लग रही थी. वह सुंदर थी. फार्म में पूरा पता दिया था. वे सीतापुर के थे. सीतापुर यहां से चालीस किलोमीटर दूर शहर था. इस शहर में बड़ा शहर था. वहां रेलवे का जंक्शन था. बड़ा बाजार था. अगर अनुपम का वहां पुश्तैनी मकान था तो उस की कीमत काफी होगी. मैं ने कागज खाट पर रख दिए व अपनी प्लेट उठाई. अनुपम ने लपक कर मेरे हाथ से प्लेट ले ली व दीवार के पास रख कर फिर वहीं आ कर बैठ कर मेरी तरफ देखने लगा.

‘इस पर मैं दस्तखत तो कर ही दूंगा अनुपम.’ मैं ने उस से कहा- ‘पर तुम अपने लोगों के बारे में जरा विस्तार से बताओ.’

‘अब क्या बताऊं सर.’ अनुपम ने सर झुका लिया – ‘अब तो आप को सब पता चल ही गया है. मेरी असली जाति भी पता चल गई है. बाकी बताने का रह ही क्या गया है. हमारी किस्मत ने हमें धोखा दिया है बस. और कुछ नहीं है.’

‘तुम अपने लोगों के बारे में बताओ. अपने पिता के बारे में बताओ. पर पहले एक बात बताओ. एक चरित्र प्रमाणपत्र के लिए तुम यहां इतनी दूर चले आए. ये तो तुम वहीं किसी से भी करा सकते थे. भाई.’

‘किसी ने नहीं किया सर. हमारे चाचा लोगों के करने का तो सवाल ही नहीं था. उन की वजह से और कोई भी तैयार नहीं हुआ. एक तो पिता जी के उन्हीं वकील दोस्त ने कर दिया था पर दूसरा बाकी रह गया था. हमारा वक्त खराब है ना सर.’

‘तुम ने पढ़ाई कहां तक किया है अनुपम.’

‘मैं ने हाई स्कूल पास किया है.’ थोड़ा रुक कर अनुपम बोला – ‘मेरे पिता जी चाहते थे कि मैं इंजीनियर बनूं.’

गहरी साजिश, भाग 3 : नक्सली दंपती ने पुलिस से क्या कहा ?

आंदोलन में खास बात यही कि यह आरंभ से उग्र था, किंतु केंद्रीय नेतृत्व के देहांत के बाद हिंसक हो उठा. इस के नेता जब बंगाल से बाहर निकले, तब बिहार, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश के बीहड़ों में फैलने लगे.

‘चंद सालों में यह भारत का लिट्टे बन गया. वही लिट्टे, जो छापामार रणनीति के तहत बरसोंबरस श्रीलंका सरकार के नाक में दम किए हुए था और एक पीएम की जान ले कर बेदम हुआ.’

‘राज्यों के वनांचलों में कलेक्टर दर निर्धारण के बाद भी कारोबारी महुआ, चिरौंजी, साल बीज, कोसा, टोरा, तेंदूपत्ता, झाड़ू आदि वन्य निवासियों से नमक, तेल व कपड़े के बदले में कौड़ियों के मोल ले लिया करते थे. तब हमारे साथियों के दबदबे, धमक व धौंस के चलते इस तरह का शोषण थम गया. मजदूरी भी बराबर मिलने लगी. इस से प्रशासन व वनांचल वासियों पर हमारी धाक जम गई.

‘लिहाजा, अब हम गरीब, मजदूर, आदिवासी, किसान, दलित व वंचित वर्ग के सब से बड़े हिमायती व मसीहा बन कर उभरे. लेकिन, हमें सड़क, पूलपुलिया, आंगनबाड़ी, स्कूल, अस्पताल, पंचायत भवन आदि नहीं चाहिए क्योंकि इस से ग्रामीणों में जागरूकता आती है, जो हमारे ऊसूलों के खिलाफ ठहरती है.

‘गए 50 सालों में 13 प्रांतों के 194 जिलों के लगभग 40,000 हजार वर्ग किलोमीटर के दायरे में हमारा दबदबा कायम हो चुका है, जिसे हम ‘लाल गलियारा’ कहते हैं, जो भारत के कुल भूभाग का एकतिहाई है और नेपाल से केरल तक विस्तृत. ये प्रदेश हैं- मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार, असम, ओडिशा, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, केरल व कर्नाटक. इन में से भी 58 जिले पूर्णतया हमारी गिरफ्त में हैं, जहां हमारा ‘लाल कानून’ चलता है. हमारे लीडर यहां ‘जनअदालतें’ लगाते हैं, और ‘जनताना सरकार’ चलाते हैं.

‘हम ‘मुखबिर’ शब्द का इस्तेमाल बखूबी करते हैं और हमारी राह में रोड़े अटकाने वालों का काम झटके में तमाम कर देते हैं. ऐसा ही भयावह अंजाम अधिकारीकर्मचारी, व्यापारीठेकेदार, सैनिकसिपाही भी पकड़ में आने पर भुगतते हैं. अपने बहादुर लीडरों ने ‘लाल गलियारे’ में जमीन के नीचे हजारों टन बारूदें बिछा कर तकरीबन हजारों वर्ग किलोमीटर इलाके को बांध कर रख दिया है.’

अंत में, सुरेंद्र ने जानना चाहा कि इस पर किसी का कोई सवाल हो, तो कृपया पूछें. नही तो, लंच के बाद हम द्वितीय प्रशिक्षक महेंद्र को सुनेंगे.

किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया, तो शांति से खानापीना हुआ. खाने का इंतजाम देख कर उस के मुंह में पानी भर आया. पास के शहर से दलालों के मारफत दालचावल, दही, पापड़, सब्जीअचार, सलाद, फल, बेसन और गेहूं का आटा मंगवाया गया था और खास हलवाई से बनवाया गया था.

लंच के थोड़ी बाद ‘लाल सलाम, जिंदाबाद’ के नारों के साथ प्रशिक्षण फिर से शुरू हो गया.

महेंद्र धन प्रबंध और शस्त्र इंतजाम पर बोल रहा था, ‘विश्वभर के आतंकी संगठन, जिन में हम भी शामिल हैं, क्रांति, आजादी व विद्रोह के नाम पर जहां मादक पदार्थों, गांजा, अफीम की खेती करते हैं, वहीं इन की तस्करी भी करते हैं.

‘हम मुफलिस एवं अनपढ़ जनों का ‘ब्रेन वौश’ कर पहले आतंकी बनाते हैं, फिर करते हैं मादक द्रव्य से रुपयेपैसों का इंतजाम. आप लोगों को जान कर अचरज होगा कि अपने संगठन को चलाने के लिए हमारा सालाना बजट 15 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा है.

‘गौर करने वाली बात यह भी कि मुल्क के कई राज्यों का आम बजट 15 से 20 हजार करोड़ रुपए वार्षिक है. इसी से मालूम चलता है कि हम कितने ताकतवर संगठन के लड़ाके हैं. वजह, हमें अपने लोगों को कैडर और रैंक के मुताबिक वेतन, भत्ता, पदोन्नति व बोनस देना होता हैं. यह भी कि मुठभेड़ों में जान से हाथ धो बैठे संगियों के स्वजनों को इनाम दे कर ‘लाल सरकार’ उन का महिमामंडन करती है. हम शहीद साथियों के सम्मान में आयोजित ‘शहीदी’ समारोहों में ऐसे परिजनों को सम्मानित भी करते रहते हैं.

‘इतना ही नहीं, अपने प्रभाव वाले एरिया में रंगदारी, फिरौती, तस्करी, अपहरण को लगातार अंजाम देते रहते हैं. ‘लाल गलियारे’ में हम हर उस कारोबारी, ठेकेदार, अधिकारी, कर्मचारी, पदधारी व जनप्रतिनिधि से रंगदारी वसूलते हैं, जो हमारे इलाके में काम करते हैं. यहां तक कि हम बस, ट्रक व पैट्रोल पंप के मालिकों से, सड़क, पूलपुलिया निर्माणकर्ताओं से, ठेकेदारों और काली कमाई करने वाले अफसरों से महीना बंधवाते हैं. साथ ही, कोयला, सोना, हीरा, कोरंडम, टीन, लौह अयस्क, पत्थर व बालू वगैरह की खदानों के ठेकेदारों से मोटी रकम सोंठते है. फेक मजदूरी में भी कमीशन बंधाते हैं, सो अलग.

‘हम हरेक दल से महीना 20 से 30 लाख रुपए की उगाही करवाते हैं. एक लाख रुपए दल के खर्च के लिए रखवा कर, बाकी रुपयों से बड़े नेता शान से संगठन चलाते हैं. अपने संगठन में शुमार हमारे ऊर्जावान लीडर गांवों में कविता, कहानी, किस्सा सुनाते हैं. नाटकों का भावपूर्ण मंचन कर युवाओं को लुभाते हैं और भरती करते हैं.

‘लिहाजा, आप में से जो साथी ऐसी कलाओं में निपुण हों, वे अपना नाम हमें लिखा सकते हैं, ताकि उन की कलाकारी का बेहतरीन उपयोग किया जा सके.’

इस के बाद स्नैक्स हुआ. अब की महेंद्र ने नक्सली संगठन के ढांचे के बारे में बताया, ‘हमारे सांगठनिक ढांचे में कई डिवीजन हैं. सभी डिवीजनों में एकएक मिलिट्री कंपनी एवं 5 तक प्लाटून हैं. ‘कंपनी में 60 से 80 लड़ाके होते हैं, तो प्लाटून में 15 से 20. दरअसल, हम पीपल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के जांबाज हैं, जो 3 हिस्सों में बंटे हुए हैं.

‘सब से नीचे जन मिलिशिया है, जो स्थानीय समस्याओं का समाधान करता है. इसी में सर्वाधिक संख्याबल है. इस के बाद द्वितीय बल है, जो गोरिल्ला स्क्वैड कहलाता है. यह दस्ता एक तयशुदा इलाके में हथियारबंद हमला करता है. सब से ऊपर मुख्य बल है, जिस में कंपनियां हैं. यही संगठन को नियंत्रित करता है.

‘दरअसल, यह एक पिरामिड की शक्ल में है. हालांकि हमारे संगठन को सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है लेकिन इस से हमारी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता. हम पूर्ववत अपना काम कर रहे हैं और करते रहेंगे.’

इस के बाद उस ने हथियारों के बारे में बताना आरंभ किया, ‘हम ने सैन्यबलों पर हमला करने और उन्हें नुकसान पहुंचाने के लिए ‘रैम्बो एरो’ और ‘रौकेट बम’ जैसे खतरनाक असलहे विकसित कर रखे हैं.

‘हम ने फौजियों के खोजी कुत्तों को चकमा देने के लिए देशी बम को ‘गोबर’ में छिपाने का स्मार्ट तरीका ईजाद किया है. हमें ऐसे अनेक मौके मिले हैं जब सैन्यबलों के खोजी कुत्ते या तो मारे गए या घायल हुए; जब वे देशी बम का पता छिपाई गई जगह पर खड़े हो कर लगा रहे थे, तब उन्हें ‘गोबर की बदबू से झंझलाहट’ हुई और देशी बम अचानक ब्लास्ट हो गए.

‘हमारे द्वारा अब ‘रैम्बो एरो’ का इस्तेमाल किया जा रहा है. इस में एरो के अगले हिस्से पर कम क्षमता वाला गन पाउडर या पटाखा रखा जाता है, जिस से निशाने पर लगने के बाद फौरी धमाका होता है.

‘यह रैम्बो एरो बहुत ज्यादा नुकसान नहीं करता, पर ढेर सारी उष्मा एवं धुआं छोड़ कर सुरक्षाकर्मियों का ध्यान बंटाता है. ऐसे हालात में हमारे लिए उन पर घातक वार करने और हथियार लूटने में सरलता होती है.

‘हम सब को एके-47 के अलावा लेड डिटैक्ट करने वाली मशीनें तथा इंसास रायफल जैसे घातक हथियारों को न केवल चलाना आना चाहिए, बल्कि उस की पूरी जानकारी भी रखनी चाहिए.’

इस के बाद वहां मौजूद डौक्टर और नर्स ने सब का स्वास्थ्य परीक्षण किया और सब को ताकत का इंजैक्शन लगा दिया, ताकि सब ताकतवर रहें और दुश्मनों से लड़ते वक्त उन के हाथ न कंपकंपाएं.

लेकिन, यह क्या? इंजैक्शन लगने के चंद घंटे के बाद सब के सब सुधबुध खोने लगे. जो महिलाएं गर्भवती थीं, उन का भयावह पीड़ा के साथ गर्भपात हो गया और पुरुषों की जबरिया नसबंदी कर दी गई.

तभी थाने में थानेदार के साथसाथ एसडीओपी का आगमन हुआ. एक आरक्षक द्वारा उन को बुलाने पर बी मरकाम की तंद्रा टूटी और वह उनींदे से जाग उठी. फिर आदतन उस ने एके-47 को कस कर पकड़ ली.

उस ने आंखें खोल कर भौचक देखा. उस का पति बैंच में सिर टिकाए व एक हाथ में गन पकड़े जमीन पर मायूस बैठा हुआ है.

वह उस की जांघ में सिर रख कर उसी तरह सोई हुई है, जिस तरह वह गर्भ धारण करने के बाद सुस्ताने के लिए जंगलों में अकसर सोया करती थी, जिसे देख कर नक्सली लीडरों के दिलों में सांप लोटा करता था.

अब वे दोनों पतिपत्नी उठ कर उदास मन से थानेदार व एसडीओपी के सम्मुख आत्मसमर्पण फौर्म पर साइन करने लगे, ताकि धोखेबाजों व साजिशकर्ताओं के चंगुल से सदासदा के लिए मुक्त हो सकें.

इस सफर की कोई मंजिल नहीं- भाग 1

“कैसी हो रजनी?” खुशी से मैं आगे बढ़ी और उसे गले लगा लिया।

“मनोज कहां है? तुम ने कभी फोन क्यों नहीं किया? न ही कभी कोई बात ही की…शादी में भी नहीं बुलाई और न ही मेरी शादी में आई…” मैं ने सवालों की झड़ी लगा दी मगर रजनी चुप थी। मैं ने उस के चेहरे को देखा। यह क्या? हमेशा खुश दिखने वाला चेहरा मलीन था। जीवन से भरी आंखें आज थकीथकी सी थीं। आंखों के चारों तरफ झाइयां। न मेहंदी न चूड़ियां और रंगीन कपड़ों ने सादगी का स्थान ले लिया था।

“रजनी क्या हो गया है तुम्हें? यह तुम ही हो न?” मैं ने उत्तेजित हो कर पूछा।

“हां…मैं ही हूं। आप कहा करती थीं न कि सत्य के साथ जियो। आज मैं ने सत्य को ही जीवन मान लिया है। मगर देखिए न, इस सत्य ने मेरा क्या हाल बना दिया है…” एक पतली सी हंसी की रेखा उस के होंठों तक आई और फिर गुम हो गई ।

मैं भौंचक्की उसे देखती रह गई। रजनी जा चुकी थी। ‘यह वही रजनी  है? हंसतीखिलखिलाती, गुनगुनाती…’ मैं ने सोचा।

आज 4 साल बाद मैं इस शहर में लौटी थी। पति का तबादला इसी शहर में हो गया था। मैं ने फिर से उसी स्कूल को जौइन कर लिया था जहां पहले पढ़ाती थी। मगर इन सालों में कुछ भी नहीं बदला था इस शहर में। अगर बदली थी तो सिर्फ रजनी। इस  अप्रत्याशित बदलाव को मैं स्वीकार नहीं कर पा रही थी।

मनुष्य बडा ही विचित्र प्राणी है। वह जीवन में हरसंभव परिवर्तन चाहता है और जब अचानक परिवर्तन मिलता है तो वह चौंक उठता है और फिर सवाल यह उठता है कि उसे स्वीकार करने में इतना समय और कष्ट क्यों होता है?

मैं बीते दिनों को याद करतेकरते खो सी गई…

एमए करने के बाद लैक्चररशिप की बहुत तैयारी की मगर सफलता नहीं मिली। बहुत निराश हुई मैं। इसी सिलसिले में मैं ने स्कूल की एक जगह वैकेंसी देखी और मुझे नौकरी  मिल गई। नौकरी में व्यस्त रहने लगी तो मेरी निराशा भी कुछ कम हुई। वहां का माहौल बहुत अच्छा था। सभी लोग वहां बहुत अच्छे थे, सिवा ‘एक’ के। मैं स्वभाव से अंतर्मुखी थी। स्कूल का काम करना और सीधे घर लौटना मेरी दिनचर्या थी। सभी से मेरे संबंध अच्छे थे मगर दोस्त कोई नहीं था। सभी मुझे अच्छे लगते मगर ‘वह’ अच्छी नहीं लगती।

स्कूल आते मुझे 1 सप्ताह हो चुके थे। एक दिन स्टाफरूम में बैठी कुछ काम कर रही थी कि बगल से जोर से गाना गाने की आवाज आ रही थी। मुझे परेशानी हो रही थी। बारबार मेरा ध्यान उस तरफ चला जाता और मुझ से गलतियां हो जातीं। अंत में मैं उठी और परदा उठाया,”यह क्या तरीका है? इतने जोर से गाना क्यों गा रही हो? यह स्कूल है। गाना गाने का इतना ही शौक है तो जा कर सड़क पर गाओ,” मैं गुस्से में थी। यह थी मेरी ‘उस से’ पहली मुलाकात। जिसे मैंने डांटा, उस ने मुसकरा दिया। मेरे सामने दुबलीपतली, लंबी, सांवली एक लड़की खड़ी थी। उस ने अपना हाथ बढ़ाया,”मेरा नाम रजनी है। मैं यहां ड्राईंग टीचर हूं। पिछले 1 सप्ताह से छुट्टी पर थी, इसलिए आज आप को पहली बार देख रही हूं। अपना परिचय नहीं देंगी?” फिर वह हंसने लगी, “वैसे, मैं आप के बारे में सबकुछ जानती हूं।” मैं ने कुछ नहीं कहा। वापस अपने काम में लग गई।

रजनी की आदत थी हर समय गुनगुनाते रहना, हमेशा खुश रहना, काम के बोझ से कितनी ही दबी क्यों न रहती मगर हमेशा मुसकराना उस की आदत थी। उस का चेहरा मलीन होते मैं ने कभी नहीं देखा था। मैं उस से जितना खींची रहती, वह मेरे उतना ही करीब आना चाहती थी। मेरी उस से बहुत औपचारिक बातें होती। मुझे उस की हर बातों से चिढ़ थी। उस की लंबीलंबी उंगलियों में बढ़े हुए आकार में काटे गए नाखूनों और उस पर हमेशा नेलपौलिश का रंग चढ़ा रहता था। वह अविवाहित थी मगर हाथों में  हर समय मेहंदी और चूड़ियां देख कर ही मुझे गुस्सा आता था।

धीरेधीरे समय बीत रहा था। स्कूल में रहते मुझे 2 महीने हो चुके थे। अब मैं रजनी से खुलने लगी थी मगर उस से बात करने के बदले में उस की हर बातों का विरोध करती या उस पर  व्यंग्य करती।

एक दिन रजनी मेरे बगल में बैठी डायरी में किसी का फोन नंबर ढूंढ़ रही थी।

“इतने लोगों का फोन नंबर रख कर क्या करती हो रजनी?” मैं ने उस से पूछा।

“बातें… ” वह एक शब्द बोल कर चुप हो गई।

“स्कूल में सारा दिन बोलती हो, फिर भी बातों से मन नहीं भरता?” मैं ने पूछा।

“मन वैसी चीज ही नहीं होती जो भर जाए, ” यह कह कर उस ने ठहाका लगाया।

उस की यह बात मुझे अच्छी नहीं लगी। उस की जरूरत से ज्यादा स्त्रीसुलभ गुणों को देख कर तो मुझे इतनी खुंदक होती कि क्या कहूं। स्कूल में दम मारने की फुरसत नहीं होती मगर वह पता नहीं कहां से समय निकाल लेती कि कभी नाखूनों को रंगती, कभी मेहंदी लगाती या  फिर अपने काले लंबे बालों को खोल कंघी करती। उस के भड़कीले वस्त्र उस पर बिलकुल भी नहीं फबते, मगर  फिर भी वह उसे पहनती। सीढ़ियों से कभी भी उतरती तो अपने लालपीले दुपट्टे को लहराती हुई उतरती।

यह सब देख कर मैं यही सोचती कि पता नहीं यह सुंदर होती तो क्या करती…” कभीकभी मुझे बरदाश्त नहीं होता तो पूछ बैठती,”इतने रंगीन कपङे क्यों पहनती हो? तुम पर बिलकुल नहीं फबते।” उस की जगह कोई और होता तो बुरा मान जाता मगर वह हंसती हुई अपनी आंखें बंद कर लेती और कहती, “जानती हैं आप, मैं जितने रंगीन कपड़े पहनती हूं मुझे अपनी जिंदगी उतनी ही रंगों से भरी दिखाई पड़ती है। उस एहसास के आगे यह सोचना कि मैं इस में भद्दी लगूंगी बहुत छोटा पड़ जाता है।”

मुखौटा, भाग 3 : ड्राइवर को क्यों हो रही थी बेचैनी?

नईम ने अपने मालिक बाबू सेठ को सम?ाने की कोशिश की लेकिन सेठ को नईम पर बहुत गुस्सा आया.

रात के 2 बजे तक भी उस जख्मी को होश नहीं आया. मैं ने भी घर फोन कर के बता दिया कि मैं देरी से घर लौटूंगा. घर पर सभी चिंतित हो गए.

नईम ने एक पुलिस वाले को 50 रुपए का नोट दे कर ट्रक के सामने की भीड़ कम करने के लिए कहा. पुलिस हवलदार ने नोट जेब में डाल कर हाथ की लाठी पटक कर ट्रक के सामने जमा भीड़ को कम कर दिया.

नईम मेरी ओर देख कर कहने लगा, ‘‘साहब, आप मेरा साथ नहीं छोड़ना, आप तो मेरे गवाह हो. मैं ने कोई बुरा काम नहीं किया है और एक आदमी की जान बचाने से कोई बड़ा काम नहीं हो सकता,’’ फिर वह अपने हाथ में मेरा हाथ ले कर बोला, ‘‘पुलिस का कोई भरोसा नहीं. वे यह आरोप मु?ा पर डाल देंगे.’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं होगा,’’ मैं ने नईम को धीरज बंधाने की कोशिश की.

मैं उस का हाथ पकड़ कर जख्मी के बिस्तर की ओर बढ़ गया. जख्मी व्यक्ति की सांस ठीक चल रही थी.

उसी समय 5-7 औरतें चीखती- चिल्लाती आईं. एक औरत अपना सिर पीटपीट कर रो रही थी और दूसरी 2 औरतें उसे धीरज बंधाने की कोशिश कर रही थीं. कोलाहल बढ़ने लगा तो एक नर्स ने आ कर उन सब को वहां से हटा दिया.

नईम और मैं मुर?ाए चेहरे से वहीं खड़े थे. अब 4 बजने वाले थे. हम अस्पताल के मुख्यद्वार की ओर बढ़े तो हवलदार ने हमें वापस बुला लिया. हार कर हम मरीजों के वार्ड में जा कर बैठ गए.

थोड़ी ही देर में घायल मरीज को होश आ गया. नईम के चेहरे का तनाव कुछ कम हुआ. मैं ने उस का हाथ पकड़ कर दिलासा देने का प्रयास किया. पलभर में हवलदार आ गया और मरीज के रिश्तेदार भी पलंग के चारों ओर जमा हो गए.

‘‘तुम्हारी मोटरसाइकिल को किस ने टक्कर मारी?’’ हवलदार ने पूछा.

घायल मरीज ने बड़ी मुश्किल से अपना मुंह खोला और बताया, ‘‘यावल से आने वाली जीप ने हमें टक्कर मार दी,’’ उस के चेहरे से असहनीय वेदना ?ालक रही थी.

इधर नईम का चेहरा खिल गया क्योंकि एक बड़ी मुसीबत से उस का छुटकारा होने वाला था.

‘‘देखा साहब, अब तो आप को यकीन आ गया होगा,’’ नईम ने धीरे से अपनी बात हवलदार से कही.

पहली बार हवलदार ने उस की तरफ नरमी से देखा. वह घायल मरीज का बयान ले कर पंचनामा करने लगा.

‘‘देखो साहब, अब हमें बहुत देरी हो गई है. ट्रक में केला भरा है, अब हमें जाने दो,’’ नईम ने दूसरे हवलदार से अपनी बात कही.

‘‘ऐसे कैसे जाने दूं? बड़े साहब आएंगे, उन से पूछ कर फिर जाना.’’

‘‘हवलदार साहब, अब काहे को लफड़े में डाल रहे हो. कहो तो आप के चायपानी का इंतजाम कर दूं.’’

‘‘पूरी रात जागता रहा तो किसी ने हमें चायपानी के लिए नहीं पूछा,’’ हवलदार ने नरमी से मेरी ओर देखा.

नईम ने जेब से 50 रुपए का नोट निकाल उस के हाथ में पकड़ाया.

‘‘तू क्या हम को भीख दे रहा है?’’ हवलदार ने गुस्से का नाटक किया.

‘‘नईम दादा, जाने दो. हिसाब से दे दो. हम यहां कब तक पड़े रहेेंगे?’’

मेरी बात पर हवलदार मुसकराया. नईम ने जेब में हाथ डाल कर 50 रुपए का एक और नोट हवलदार की हथेली पर रखा.

हवलदार ने जरा नाराज हो कर सिर हिला दिया और नोट जेब में ठूंस लिए. मैं ट्रक की ओर बढ़ने लगा. नईम ने उस्मान को आवाज दे कर अपने पास बुलाया तो वह दीवार के पीछे से निकल कर वापस आ गया.

‘‘चल, बैठ गाड़ी में.’’

जब हम सभी ट्रक पर सवार हो कर चलने लगे तब सुबह के 5 बज चुके थे. सड़क पर आवाजाही शुरू हो गई थी.

‘‘साहब, 2 मिनट रुको, मैं अपने बाबू सेठ को फोन कर के आता हूं,’’ कह कर वह फोन बूथ पर गया और जल्दी में नंबर घुमाया.

फोन पर सेठ बिना रुके उसे डांटे जा रहा था. नईम अपने सेठ की बात बड़ी शांति से सुनता रहा. उस की बात खत्म होने के बाद शुरू हुई हमारी बाकी बची यात्रा.

ट्रक पूरी तेजी के साथ अमलनेर की ओर बढ़ा. सुबह की ठंडक में भी नईम का चेहरा पसीने से तरबतर था. वह सावधान हो कर तेजी से ट्रक दौड़ाने लगा. मैं ने घबराते हुए नईम की ओर देखा. ट्रक चलाते हुए बकबक करने वाला ट्रक ड्राइवर अब बड़ी शांति से ट्रक चला रहा था.

ट्रक की स्पीड इतनी ज्यादा थी कि पीछे कौन सा गांव जा रहा है इस का भी पता नहीं चल रहा था. सावरखेड़ा का पुल तो कब का पीछे छूट चुका था. आखिर मैं ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘क्या दादा, तुम्हारे सेठ ने क्या बोला?’’

‘‘सेठ बहुत नाराज हो गया है. यार, वह कह रहा था कि आइंदा कभी ऐसा ऐक्सीडैंट हो जाए और मरने वाला प्यास के मारे तड़पता हो तो उस तड़पते आदमी की तरफ देखना भी नहीं.’’

हमारा ट्रक अब रेल फाटक पार कर के आगे बढ़ रहा था. रास्ता खुला था. थोड़ी देर में हम एस.टी. स्टैंड पर पहुंच गए. मैं ने उतरने की तैयारी की.

‘‘नईम दादा, अब तो हमें वैसे ही काफी देर हो गई है. चलो, थोड़ीथोड़ी चाय पी ली जाए.’’

उस ने एक छोटे से ढाबे पर गाड़ी रोकी. साढ़े 5 बज चुके थे. हम होटल में गए. वहां मैं ने चाय का और्डर दिया. चाय वाले ने हमारे सामने 2 कप चाय ला कर रखी. चाय का कप उठा कर नईम बोला, ‘‘जाने दो साहब, हम ने कोई बुरा काम नहीं किया. एक इंसान मर रहा था, उस को बचाना हमारा फर्ज था. इसी को इंसानियत कहते हैं.’’

‘‘हां भाई, यही नेकी तुम्हारे बालबच्चों के काम आएगी,’’ मैं सिर्फ इतना ही बोल पाया.

चाय पी कर मैं अपने घर की ओर जाने लगा तो वह भी ट्रक की ओर चल दिया.

कल की पूरी रात मैं ने जाग कर बिताई थी. इस एक रात में इंसानी स्वभाव के अलगअलग पहलू देखने के अवसर मिले थे.

नईम की इस इंसानियत की कहानी किसी इतिहास में नहीं लिखी जाएगी, लेकिन टिमटिमाते दीए की तरह इंसानियत अब भी जिंदा है यह सोच कर ही मैं उत्साहित था.

मैं अपनी भतीजी से 2 साल से प्यार करता हूं, क्या हम दोनों का विवाह संभव नहीं है?

सवाल
मैं 28 वर्षीय युवक हूं. एक लड़की से 2 साल से प्यार करता हूं. वह भी मुझे चाहती है. हम दोनों शादी करना चाहते हैं. लड़की के घर वालों को एतराज नहीं है, परंतु मेरे घर वाले इस शादी का विरोध कर रहे हैं. कारण लड़की दूर के रिश्ते में मेरी भतीजी लगती है. क्या हम दोनों का विवाह संभव नहीं है? यदि है तो मैं अपने घर वालों को कैसे मनाऊं?

जवाब
लड़की से चूंकि आप की दूर की रिश्तेदारी है, इसलिए यह आप के रिश्ते में आड़े नहीं आएगी. खासकर तब जब लड़की वालों को इस रिश्ते से कोई एतराज नहीं है. आप को अपने घर वालों पर दबाव बनाना होगा. यदि आप की बात वे नहीं सुन रहे तो किसी सगेसंबंधी या पारिवारिक मित्र से मदद ले सकते हैं. वे उन्हें समझा सकते हैं कि इतनी दूर की रिश्तेदारी माने नहीं रखती. यदि लड़की आप के लिए उपयुक्त जीवनसंगिनी है और विवाह के लिए गंभीर है, तो घर वाले देरसवेर मान ही जाएंगे. लड़की के घर वाले भी उन्हें मना सकते हैं.

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