Download App

Judicial System : ईश्वर का न्याय बनाम मनुष्य की बनाई कानून व्यवस्था

Judicial System : अलगअलग धार्मिक ग्रंथों में लिखी न्यायिक व्यस्था और इंसानों द्वारा तैयार की गई संविधानरूपी न्यायिक व्यवस्था में जमीन आसमान का अंतर है. लोग भले अपनेअपने धर्मों को मानते हों मगर हकीकत यह है कि वे भी उस में लिखी न्यायिक व्यवस्था पर यकीन नहीं करते. क्या कारण है कि धर्म न्याय दुनियाभर में फेल साबित हुआ?

ईश्वरवादियों का विरोधाभाषी चरित्र

2011 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल 33,120 लोग ही नास्तिक हैं. तकरीबन डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले देश में इन मुट्ठीभर नास्तिकों को छोड़ कर बाकी लोग ईश्वर के कानून को मानते हैं. मुसलमान अपने खुदा के कानून पर यकीन रखते हैं तो हिंदू को अपने ईश्वर के विधान पर भरोसा होता है. ईसाई, सिख, पारसी और बाकी के सभी धर्म को मानने वाले लोग भी अपनेअपने ईश्वर के न्याय पर विश्वास करते हैं. इन सभी धर्मों की किताबों में, मान्यताओं में या कर्मकांडों में सिरफुटौव्वल की हद तक विवाद होता है. इस बात पर सभी में कोई मतभेद नहीं है कि धरती पर होने वाले हर पाप की सजा ईश्वर ही देता है लेकिन अदालतों में मुकदमों की भरमार देख कर धार्मिक लोगों के विरोधभाषी चरित्र की पोल खुल जाती है. धर्म का दावा है कि ईश्वर न्याय करेगा. भागवत कथाओं में और धर्मगुरुओं के सत्संगों में भगवान के न्याय की कहानियों पर भक्त लोग खूब तालियां पीटते नजर आते हैं लेकिन जब खुद के साथ अन्याय होता है तो ईश्वर के न्याय की धज्जियां उड़ाते हुए कोर्ट कचहरी का द्वार खटखटाते हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार देश की राजधानी दिल्ली में ही हर साल लगभग 3 लाख मामले दर्ज होते हैं. देश भर में सवा 5 करोड़ से ज्यादा मुकदमे निचली अदालतों से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक में लंबित पड़े हैं. सुप्रीम कोर्ट में 60 हजार, हाई कोर्ट्स में 58 लाख और निचली अदालतों में तकरीबन 4 करोड़ मुकदमे चल रहे हैं. इन सभी मुकदमों में पीड़ित और आरोपी दोनों ही ईश्वरवादी होते हैं लेकिन न्याय के लिए मरने का इंतजार नहीं करते और धरती की अदालतों से ही न्याय की उम्मीद रखते हैं.

इस्लाम में न्याय की बातें

दुनिया का हर मुसलमान आख़िरत में होने वाले अल्लाह के इंसाफ पर यकीन रखता है. मुसलमानों को यकीन होता है कि हर गुनाह के लिए अल्लाह ने आख़िरत में सजा मुकर्रर कर रखी है. धरती पर जो व्यक्ति जैसा कर्म करेगा उस के हिसाब से आख़िरत में उसे सजा मिलेगी लेकिन यहां भी विरोधाभाष देखिए कि दुनिया का एक भी मुसलिम देश ऐसा नहीं है जहां अदालतें न हों. छोटे बड़े मामलों में भी मुसलमान आख़िरत के इंसाफ को दरकिनार कर सीधे थाने पहुंचते हैं और मुकदमा दर्ज करवा देते हैं. इंडोनेशिया, तुर्की, सऊदी अरब और दुबई जैसे देशों में अगर अपराधों में कमी आई है तो इस का कारण यह नहीं कि यहां के मुसलमान आख़िरत के इंसाफ के भरोसे बैठे हैं बल्कि इस की वजह यह है कि ये देश अपनी कानून व्यवस्था पर ज्यादा भरोसा करते हैं. पाकिस्तान जैसे मुसलिम देश की अदालतों में 90 लाख से ज्यादा मुकदमे चल रहे हैं क्योंकि अल्लाह का न्याय सिर्फ एक कल्पना है और अदालतों का न्याय एक हकीकत है. जब लोगों को न्याय की जरूरत होती है तब वे कल्पनाओं के भरोसे नहीं बैठते.

मुसलमानों का खुदा कहता है, “हम ने क़यामत के दिन के लिए न्याय का तराजू रख दिया है, किसी प्राणी पर अन्याय न होगा.” (सूरा अल-अनबीया 21 आयत 47)

जंगल मे एक शेर अपनी भूख मिटाने के लिए हिरनी के बच्चे को अपना शिकार बनाता है. हिरनी के सामने ही उस के छोटे से बच्चे को शेर चीर और चबा डालता है. हिरनी असहाय है. वो दूर खड़ी इस अन्याय को देखती रहती है. सवाल यह है कि क्या उस हिरनी के साथ आख़िरत में न्याय होगा? शेर ने तो अपनी भूख मिटाने की खातिर हिरनी के बच्चे को निवाला बनाया. क्या उस ने गुनाह किया? क्या इस गुनाह के लिए शेर को नरक की आग में जलना होगा?

सुरः आले इमरान आयत नम्बर 39 में अल्लाह कहता है, “हम जिसे चाहे सीधे मार्ग पर ले आएं और जिसे चाहे मार्ग से भटका दें.”

भटका हुआ आदमी ही गुनाह करता है. जिसे अल्लाह ने ही भटका दिया हो वह धरती पर कोई अपराध करे तो जिम्मेदारी किस की है? एक भटके हुए आदमी ने चोरी की इस के बदले में उस के दोनों हाथ काट दिए गए. इस के बाद वह आदमी मर गया और आख़िरत में उसे उस के गुनाह के लिए जहन्नम की आग में भी जलना पड़ा. क्या इसे इंसाफ माना जा सकता है? क्या इस घटना में भटकाने वाले का दोष नहीं है? अगर दोष है तो फिर उसे दंड कौन देगा?

हिंदू धर्म की न्यायव्यवस्था

हिंदू धर्म में मनुष्य द्वारा धरती पर किए गए पाप का फल अगले जन्म में भुगतना पड़ता है. इस जन्म में अच्छे कर्म करने वाले अगले जन्म में श्रेष्ठ जाती में पैदा होते हैं और बुरे कर्म करने वाले निकृष्ट जाती में जन्म लेते हैं. मनुष्य जाति में पैदा होना इतना दुर्लभ है कि चौरासी लाख योनियों के बाद ही मनुष्य जाति में जन्म होता है हालांकि पुनर्जन्म की इस मान्यता से अलग स्वर्ग नरक का कौन्सेप्ट भी हिंदू धर्म में मौजूद है.

गरुड़ पुराण में अलग अलग पापों के लिए लगभग 28 प्रकार के नरकों का उल्लेख है.

जो लोग ब्राह्मणों की इज्जत नहीं करते ब्राह्मणों के घर चोरी करते हैं, उन्हें तामिस्रम नामक नरक में जाना पड़ता है, एक ऐसी जगह जहां उन्हें यमराज के लोग तब तक कोड़े मारते और पीटते हैं जब तक कि वे अपने पापों का पश्चाताप नहीं कर लेते. तामिस्रम नरक में आत्माओं को बांध कर कोड़े मारे जाते हैं.

धोखा देने वाले पापी को ‘रौरवम’ में ले जाएगा जहां पापी को सर्प द्वारा दंडित किया जाता है.

जो लोग पृथ्वी पर अपने जीवन में जानवरों को मारते हैं और खाते हैं उन्हें ‘कुंभीपाकम’ में भेजा जाएगा, एक नरक जहां उन्हें उसी तरह दंडित किया जाएगा जैसे उन्होंने निर्दोष जानवरों को दंडित किया था पापियों को गरम तेल में वैसे ही उबाला जाएगा जैसे उन्होंने जानवरों के साथ किया था.

अगर आपने अपने बुजुर्गों का अनादर किया है और आप उन के खिलाफ कठोर शब्दों का उपयोग करते हैं, तो आप को कालसूत्रम भेजा जाएगा. कालसूत्रम एक बेहद गरम जगह है जहां पापी को बारबार चिलचिलाती गर्मी में इधरउधर दौड़ाया जाता है.

अंधकूपम उन लोगों के लिए नरक है जो अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हैं और दान नहीं देते. अंधकूप में उन्हें जंगली जानवरों, कीड़ों और सरीसृपों द्वारा सताया जाता है जो लगातार उन पर हमला करते हैं.

सवाल यह है कि धरती पर जिंदा रहते हुए किए गए पाप के लिए मरने के बाद सजा क्यों? नरक का इतना तामझाम खड़ा करने की बजाय ईश्वर धरती से पापों को ही क्यों नहीं मिटा देता? पापियों के मन को क्यों नहीं बदल सकता ताकि वह धरती पर कोई पाप ही न करे?

पापियों को परलोक में दंड देने के इस तरह के डरावने प्रावधानों के बावजूद पाप और पापियों की संख्या में कोई कमी नहीं आई तब न्याय के नाम पर मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ बनाए गए. जिस में न्याय का प्रावधान वर्ण आधारित होता था. एक ही अपराध के लिए ब्राह्मण को अलग और शूद्र को अलग सजा दी जाती थी.

आज जो कानून की नजर में अपराध हैं, धर्म में वह पुण्य हैं.

99 प्रतिशत धार्मिक लोग अपने धर्मग्रंथों को कभी नहीं पढ़ते. आम आदमी की धर्म में आस्था बनी रहे इस के लिए धर्म के पुरोहित धर्मग्रंथों की अच्छीअच्छी बातें निकाल कर सुनाते हैं. यही वजह है कि आम लोग अपने धर्मग्रंथों में वर्णित पाप और पुण्य की फिलौसफी को नहीं समझ पाते. तार्किक दृष्टिकोण से समझें तो सारे धर्मग्रंथ इतिहास के चालाक इंसानों ने ही लिखे हैं और इन चालाक लोगों ने ही अपने लाभ और परिस्थितियों के हिसाब से पाप और पुण्य की व्याख्या की है. यही वजह है कि जो धर्मग्रंथ जितना पुराना है वह आज उतना ही आउट डेटेड है और उस में लिखी बातें उतनी ही अप्रासंगिक हैं. धर्मग्रंथों में जो पाप और पुण्य की बातें हैं उन में ज्यादातर आज की परिस्थितियों में फिट नहीं बैठ पातीं. कई बातें जो धर्म के अनुसार पाप या गुनाह है वह आज की न्याय व्यवस्था में जायज हैं और कई ऐसी बातें जो धर्म के अनुसार पुण्य या सबाब के काम हैं वो आज की न्यायव्यवस्था में अपराध घोषित किए गए हैं.

भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को समानता का अधिकार प्राप्त है और किसी भी नागरिक के साथ उस की जाति के आधार पर भेदभाव अपराध है लेकिन जाती के आधार पर भेदभाव या छुआछूत हिंदुधर्म का अभिन्न हिस्सा है.

संसार की समस्त धन संपत्ति का मालिक ब्राह्मण के सिवा कोई दुसरा नहीं है. (मनु.1/100)

ब्राह्मण शूद्र की संपत्ति को जबरन छीन सकता है क्योंकि शूद्र का अपना कुछ भी नहीं है. (मनु.8/417)

शूद्र को संपत्ति इकट्ठा नहीं करना चाहिए इस से ब्राह्मण को दुख होता है. (मनु.10/129)

जो शूद्र अपने प्राण, धन और स्त्री ब्राह्मण को अर्पित कर दे, उस शूद्र का भोजन ग्रहण करने योग्य है. (विष्णु पुराण 5/11)

मनुष्यों में ब्राह्मण तेजी में सूर्य और संपूर्ण शरीर में मष्तिष्क के समान सब धर्मों में श्रेष्ठ है. (मनु.8/82)

मूर्ख ब्राह्मण का भी श्रेष्ठता में उच्च स्थान है. (मनु.9/317)

पूजिय विप्र सकल गुण हीना, शूद्र न गुनगन ज्ञान प्रवीना. (रामचरित मानस अरण्य कांड)

जो वरणाधम तेलि कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा तथा अभीर यमन किरात खस, स्वपचादि अति अघरुप जे
अर्थात : तेली, कुम्हार, भंगी, आदिवासी, कलवार, अहीर, मुसलमान और खटिक नीच और पापी जातियां होती हैं. (रामचरित मानस उत्तर कांड)

ब्राह्मण दुश्चरित्र हो तब भी पूजनीय है और शूद्र जितेन्द्रिय होने पर भी नहीं. (पराशर स्मृति 8/33)

ब्राह्मण की किसी बात पर शंका नहीं करना चाहिए क्योंकि यह वेद की आज्ञा है. (ऋग्वेद8/4/10)

जिन ब्राम्हणों ने क्रुद्ध हो कर अग्नि को सर्वभक्षी बना दिया, समुद्र का जल खारा कर दिया तथा चंद्रमा को तपेदिक का रोगी बना दिया, उन को कुपित कर के कौन ऐसा है जो नष्ट नहीं हो जाएगा? (मनु.9/314)

ब्राह्मण यदि शूद्र को गाली दे तो कोई दंड न दे परंतु यदि शूद्र ब्राह्मण को गाली दे तो प्राणदंड दिया जाए. (गौतम धर्म शूत्र 12/8/31 तथा मनु.8/268)

ब्राह्मण यदि दूसरे के धन को चोरी करे या किसी का बलात्कार भी करे तो राजा उसे कोई दंड न दे. (मनु.11/9)

भले बुरे किसी भी कर्म को करते हुए ब्राह्मण का तिरस्कार नहीं करना चाहिए. (महाभारत आदि पर्व199/13)

यदि कोई शूद्र किसी द्विज को गाली देता है अथवा मारता है तो उस का वह अंग काट देना चाहिए, झूठा दोष लगाने पर उस की जीभ के टुकड़ेटुकड़े कर के उसे सूली पर चढ़ा दें, अपमान करने पर उस की जीभ काट दें, उच्च वर्ण का नाम घृणा से ले तो 10 अंगुल की कील गरम कर के जीभ में ठोक दी जाए, ब्राह्मण को धर्म सिखाने पर मुख तथा कान में गरम तेल भरवा दिया जाए. (नारद स्मृति412/414)

शूद्र द्वारा अपने को ब्राह्मण कहने पर उस की आंखों में तेजाब डाल कर उन्हें फोड़ देना चाहिए, किसी राजा के राज्य में शूद्र यदि मुकदमा करता है तो उस का राज्य कीचड़ में फंसी गाय की तरह दुखित होता है. (मनु.2/11)

बिल्ली, नेवला, नीलकंठ, मेंढक, कुत्ता, गोहू, उल्लू कौआ इनमें से किसी एक को मार कर शूद्र हत्या का प्रायश्चित करें. (मनु.11/131)

ब्राह्मण विहीन क्षत्रिय कभी वृद्धि नहीं कर सकता और ब्राह्मण भी क्षत्रिय के बिना वृद्धि नहीं पा सकता. ब्राह्मण और क्षत्रिय यदि मिलकर रहते हैं तो इस लोक परलोक दोनों में अपार सुख पाते हैं. (मनु.9/322)

राजा को चाहिए कि वैश्यों और शूद्रों से अपना अपना कार्य करवाता रहे क्योंकि वे अपने कार्यों को छोड़ देंगे तो ये दुनिया तबाह कर देंगे. (मनु.8/418

आज औरतों को जो अधिकार कौन्स्टिट्यूशन से हासिल हुए हैं वो कभी औरतों के लिए पाप की श्रेणी में आते थे. नाबालिग लड़कियों की शादी कर देना धर्म के अनुसार पुण्य का काम है लेकिन कौन्स्टिट्यूशन के अनुसार बाल विवाह जुर्म है.

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005

यह कानून महिलाओं को घरेलू हिंसा से सुरक्षा प्रदान करता है और घरेलू हिंसा के मामलों में मदद के लिए विभिन्न प्रावधान करता है लेकिन धर्म में तो घरेलू हिंसा जायज है. कुरान के सुरह निशा की आयत नम्बर 34 के अनुसार मर्द अपनी औरतों को पीट सकता है. मनुस्मृति अध्याय 18 श्लोक 370 में लिखा है कि जो औरत अपने पति के घर को छोड़ कर पिता के घर को श्रेष्ठ समझे उसे बीच चौराहे पर कुत्तों से नोचवा देना चाहिए.

दहेज निषेध अधिनियम, 1961

यह कानून दहेज प्रथा को गैरकानूनी घोषित करता है और दहेज मांगने या देने पर सजा का प्रावधान करता है लेकिन धार्मिक कहानियों में दहेज प्रथा को खूब महिमामंडित किया गया है. कई भगवानों ने अपनी शादियों में दहेज लिया तो पैगम्बरों ने भी ऐसा किया. यही कारण है कि भारतीय समाज में आज भी कन्या, दान की वस्तु ही मानी जाती है.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 और 21 महिलाओं को समानता, भेदभाव से मुक्ति, सार्वजनिक पद पर रहने और जीवन जीने के अधिकार प्रदान करते हैं लेकिन किसी भी धर्म में नारी को समानता हासिल नहीं है. हर कदम पर भेदभाव है.

मनु स्मृति के अनुसार नारी स्वतंत्रता की अधिकारी नही है. (अध्याय-9 श्लोक-45)

नारी पत्नी, पुत्री, माता सभी रूपों में सिर्फ एक दासी है. (अध्याय-9 श्लोक-416)

नारी हर रूप में अपवित्र है, उस को पढने, लिखने या ज्ञान प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं है. (अध्याय-2 श्लोक-66 और अध्याय-9 श्लोक-17)

नारी नरक का द्वार है. (अध्याय-11 श्लोक-36 और 37)

पढ़नेलिखने वाली नारी अपवित्र है, पढ़ीलिखी नारी के हाथ का भोजन नहीं करना चाहिए. (अध्याय-4 श्लोक-205 और 206)

भारतीय न्याय संहिता की जरूरत क्यों ?

1857 के भारतीय विद्रोह के बाद ब्रिटिश राज में मैकाले के आपराधिक कानून के प्रस्ताव को पास किया गया और 1860 में भारतीय दंड संहिता, 1872 में आपराधिक प्रक्रिया संहिता और 1908 में सिविल प्रक्रिया संहिता लागू हुई. इंडियन पीनल कोड भारत के साथ ब्रिटिश शाशन में आने वाले तमाम देशों में भी लागू की गई और आज तक इंडियन पीनल कोड के अंतर्गत आने वाले कई कानून पाकिस्तान, मलेशिया, म्यांमार, बांग्लादेश, श्रीलंका, नाइजीरिया और जिम्बाब्वे तक में लागू हैं. भारत में न्याय की स्थापना के लिए मैकाले ने जो किया था वह गलत था पर वह तो विदेशी था. धर्मप्रिय सरकार ऐसा कैसे कर सकती है?

भारतीय न्याय संहिता 2023 बना कर धर्मप्रिय सरकार ने साबित कर दिया है कि धर्म से न्याय सम्भव नहीं है. आज की राजनीति धर्म की बैसाखी के सहारे चल रही है. धर्म की किताबें फिर से प्रासंगिक की जा रही हैं तो फिर धर्म पर आधारित न्याय व्यवस्था से परहेज क्यों?

Entertainment : ‘भूल चूक माफ’ के निर्माता दिनेश विजन का कमाल या दुस्साहस

Entertainment : फिल्म इंडस्ट्री में यह चर्चा गरम है कि दिनेश विजन अपनी फिल्म भूल चूक माफ के बौक्स औफिस कलेक्शन को 5 से 20 गुना तक बढ़ा कर दिखा रहे हैं.

मई माह का तीसरा सप्ताह ख़राब रहा. इस सप्ताह एक भी हिंदी फिल्म रिलीज नहीं हुई. पुरानी फिल्में भी कुछ नहीं कर पाईं. ऐसे में हर किसी की निगाहें चौथे सप्ताह यानी कि 23 मई को रिलीज होने वाली फिल्मों पर थी. हर सिनेमा प्रेमी उम्मीद लगाए बैठा था कि 23 मई को रिलीज होने वाली तीनों फिल्में बौक्स औफिस पर रौनक लौटाने के साथ ही सिनेमा को नई उम्मीदें देंगी. लेकिन अफसोस ऐसा कुछ नहीं हुआ. बल्कि मई माह के चौथे सप्ताह ने एक नई बहस छेड़ दी. सवाल उठा कि ‘छावा’, ‘भूल चूक माफ’ जैसी फिल्मों के निर्माता दिनेश विजन ने जिस घटिया कदम की शुरूआत की है, उसे कोई रोक क्यों नहीं पा रहा है. इसी के साथ पीवीआर सिनेमा ने भी अपनी इज्जत बचाने के लिए इस बार अपनी हदें पार करते हुए बयानबाजी की, जिस की कटु आलोचनाएं हो रही हैं.

मई माह के चौथे सप्ताह यानी कि 23 मई को ‘कपकंपी’, ‘केसरी वीर’ और ‘भूल चूक माफ’ यह 3 फिल्में रिलीज हुई. पिछले कुछ समय से ‘स्त्री 2’ जैसी हौरर कौमेडी फिल्में काफी पसंद की जा रही थीं, तो उम्मीद थी कि 23 मई को निर्माता जयेश पटेल ओर मशहूर निर्देशक संगीत शिवन की फिल्म ‘कपकंपी’ बौक्स औफिस पर हंगामा बरपाएगी. फिल्म में तुषार कपूर, श्रेयश तलपड़े, सिद्धि इडानी, जय ठक्कर, दिब्येंदु भट्टाचार्य जैसे कलाकार हैं. पहले कहा गया था कि फिल्म का बजट 80 करोड़ रूपए है, लेकिन अब निर्माता फिल्म का बजट बताने को तैयार नहीं हैं.

सैकनिल्क की मानें तो पूरे 7 दिन में इस फिल्म ने बौक्स औफिस पर महज एक करोड़ 38 लाख रूपए एकत्र किए. जबकि ट्रेड पंडितों की राय में यह आंकड़ा महज 60 लाख रूपए है. इस फिल्म की बौक्स औफिस पर हालात यह हुई कि निर्माता को अपनी जेब से सिनेमाघरों का किराया व अन्य खर्च देने पड़ गए.

23 मई को ही एक दूसरी फिल्म ‘केसरी वीर’ रिलीज हुई. मेरी निजी राय में ‘केसरी वीर’ जैसी फिल्में बननी चाहिए. फिल्मकार ने एक गुमनाम योद्धा की कहानी को परदे पर लाने का नेक काम किया है. मगर फिल्मकार ने इस फिल्म में जिस तरह से बेवजह धर्म व देवीदेवताओं का महिमा मंडन किया है, उस के चलते फिल्म घटिया हो गई और इसे वाहियात बनाने में फिल्म के निर्देशक प्रिंस धीमान और कनुभाई चौहाण व कलाकारों ने अपना पूरा योगदान दिया. अफसोस की बात यह है कि 13 वर्ष पहले कम बजट में गुजराती भाषा में बनी नीलेश इंदु मारुति मोहिते द्वारा निर्देशित फिल्म ‘वीर हमीरजी’ ने हंगामा बरपाया था. उस वर्ष यह फिल्म ‘औस्कर’ के लिए भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के रूप में प्रबल दावेदार थी, पर फिल्म फेडरेशन ने बड़े नाम वाली फिल्म ‘बर्फी’ को औस्कर में भेजा था.

खैर, दो घंटे 41 मिनट की अवधि की फिल्म ‘केसरी वीर’ की कहानी 14वीं सदी की है. जब मुगल शासक तुगलक के सिपहसालार जफर खान ने गुजरात के सौराष्ट्र इलाके में स्थित सोमनाथ मंदिर को तोड़ने व लूटने के लिए लाखों सैनिकों के साथ हमला किया था. तब एक 16 वर्षीय राजपूत राजकुमार हमीर ने अपने सैकड़ों की टुकड़ी के साथ जफर खान के खिलाफ युद्ध लड़ कर खुद मौत के मुंह जातेजाते जफर खान की हत्या की थी.

इस फिल्म में सूरज पंचोली, सुनील शेट्टी, विवेक ओबेराय, किरण कुमार, आकांक्षा शर्मा जैसे कलाकार हैं. 60 करोड़ रूपए के बजट की इस फिल्म ने 7 दिन में बौक्स औफिस पर केवल एक करोड़ रूपए ही कमाए. यह हालात तब है जब इस फिल्म के निर्माण में निर्माता ने महज अपनी स्वर्गीय पत्नी की इच्छा को पूरा करने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया है.

23 मई को ही निर्माता दिनेश विजन व निर्देशक करण शर्मा की राज कुमार राव और वामिका गब्बी के अभिनय से सजी फिल्म ‘भूल चूक माफ’ रिलीज हुई. पहल यह फिल्म 9 मई को रिलीज होनी थी, लेकिन दिनेश विजन को फिल्म का हाल पता था, इसलिए उन्होंने 8 मई को ऐलान किया कि ‘भूल चूक माफ’ सिनेमाघरों में नहीं आएगी. यह फिल्म सीधे ओटीटी पर जाएगी. इस के खिलाफ पीवीआर ने कोर्ट में दिनेश विजन पर 60 करोड़ रूपए का दावा कर दिया. तब आपसी समझौता कर दिनेश विजन को मजबूरन ‘भूल चूक माफ’ 23 मई को सिनेमाघरों में रिलीज करना पड़ा.

लेकिन इस बार दिनेश विजन ने सारी इथिक्स, सारी मर्यादाएं तोड़ने का मन बना लिया था जिस में पीवीआर आयनौक्स ने भी पूरा साथ देने का वादा किया, ऐसा नजर आ रहा है. निर्माता पहले ‘भूल चूक माफ’ का बजट 100 करोड़ रूपए बता रहे थे, पर अब वह बजट की बात नहीं करना चाहते.

सैकनिल्क के अनुसार पूरे 7 दिन में ‘भूल चूक माफ’ ने बौक्स औफिस पर केवल 44 करोड़ रूपए एकत्र किए. इस में से निर्माता की जेब में 33 करोड़ रूपए आएंगे. लेकिन फिल्म ट्रेड पंडित और फिल्म इंडस्ट्री के लोगों के अनुसार फिल्म ने बामुश्किल 10 करोड़ रूपए ही एकत्र किए. वास्तव में पहले दिन फिल्म की टिकट पर इतनी छूट दी गई कि कुछ लोगों को फिल्म की टिकट मुफ्त में और कुछ लोगों को महज 25 रूप में ही फिल्म देखने को मिली. जब छठे दिन दिनेश विजन ने ‘भूल चूक माफ’ के बौक्स औफिस पर ब्लौक बस्टर होने का ऐलान किया तो इंडस्ट्री में हंगामा बरपा. कुछ पीवीआर आयनौक्स ने ऐलान कर दिया कि फिल्म ‘भूल चूक माफ’ ब्लौकबस्टर हो गई. तब ट्रेड पंडितों व फिल्म इंडस्ट्री से जुड़े लोगों ने पीवीआर आयनौक्स को आड़े हाथों लिया. वासतव में पीवीआर आयनौक्स ‘भूल चूक माफ’ का केवल एक्जबीटर है, डिस्ट्रीब्यूटर भी नहीं है. इसलिए फिल्म को सफल या असफल बताने का हक उसे नहीं बनता. पर पीवीआर आयनौक्स ने अपनी कंपनी के गिरते शेयर के दामों पर कंट्रोल करने के लिए सारी हदें पार कर यह कदम उठाया. फिर भी पीवीआर आयनौक्स के शेयर के दाम गिर रहे हैं.

अब फिल्म इंडस्ट्री में यह चर्चा भी गरम है कि दिनेश विजन जिस तरह अपनी फिल्म के बौक्स औफिस कलेक्शन को 5 से 20 गुना तक बढ़ा कर दिखा रहे हैं, उस पर रोक लगनी चाहिए. इस से सिनेमा इंडस्ट्री सिर्फ बरबाद होगी. फिल्म को सफल बताने के बाद कलाकार दूसरे निर्माता से अधिक फीस मांगता है. जबकि कलाकार की फिल्म बुरी तरह से असफल हो चुकी होती है. इस मुद्दे पर फिल्म इंडस्ट्री के अंदर घमासान मचा हुआ है. देखना है कि आगे क्या होगा.

दिनेश विजन ने ‘भूल चूक माफ’ का निर्माण अमेजान के अलावा उत्तर प्रदेश सरकार की ‘फिल्म बधू’ से सब्सिडी के रूप में करोड़ों रूपए ले कर किया है. फिल्म की कहानी का केंद्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र वाराणसी है. अब सराकरी सब्सिडी ली है तो वाराणसी में क्याक्या है, इस का चित्रण करने के साथ ही फिल्म में गंगा नदी, भगवान शिव के साथ ही धर्म का खूब महिमा मंडन तो होना ही था. फिल्म ‘भूल चूक माफ’ की बौक्स औफिस पर चाहे जो दुर्गति हो रही हो, लेकिन दिनेश विजन की इस बात के लिए तो तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने ‘फिल्म बंधू’ यानी कि उत्तर प्रदेश सरकार से धन लेने के साथ ही फिल्म में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का धन्यवाद अदा करते हुए फिल्म की कहानी में इस बात का चित्रण किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में बिना किसी डिग्री, बिना किसी परीक्षा को दिए महज 6 लाख रूपए घूस दे कर सरकारी नौकरी (सिंचाई विभाग) पा सकते हैं. बाप बड़ा न भईया, सब से बड़ा रूपया.

‘Phule’ Controversy : सैंसर बोर्ड किस के इशारे पर कर रहा काम

‘Phule’ controversy : फिल्म ‘फुले’ की रिलीज से पहले मात्र ट्रेलर देख कर ब्राह्मण संगठनों ने विरोध दर्ज किया तो सैंसर बोर्ड ने फिल्म की कांटछांट कर दी. इसे बहुजन सिनेमा पर ब्राह्मणवादी हमले की तरह देखा गया. मगर यह इकलौता वाकेआ नहीं जो सैंसर बोर्ड की क्रैडिबिलिटी पर प्रश्नचिह्न लगा रहा हो.

11 अप्रैल को महात्मा ज्योतिबा फुले की 197वीं जयंती थी. इसी दिन अनंत नारायण महादेवन निर्देशित फिल्म ‘फुले’ सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली थी. लेकिन पुणे के कुछ ब्राह्मण संगठनों के विरोध के बाद केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सैंसर बोर्ड ने यह फिल्म अटका दी जिसे बाद में 25 अप्रैल को रिलीज किया गया.

हाल के दिनों में बौलीवुड में ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विषयों पर आधारित फिल्मों या वैब सीरीज को धार्मिक संगठनों व राजनीतिक दलों से आई कड़ी प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ा है फिर चाहे वह वैब सीरीज ‘तांडव’ हो या ‘छावा’ या मलयालम फिल्म ‘एल 2 इम्पूरन’ या ‘फुले’ हो.

वास्तव में फिल्म ‘फुले’ का ट्रेलर आने के बाद फिल्म पर जातिवाद को बढ़ाने व इतिहास को तोड़मरोड़ कर पेश करने के आरोप पुणे, महाराष्ट्र के कुछ हिंदू व ब्राह्मण संगठनों के साथ ही परशुराम आर्थिक विकास महामंडल ने लगाए और फिल्म के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया. सिर्फ ट्रेलर के आधार पर ब्राह्मण महासभा के आनंद दवे ने विरोध जताया कि फिल्म में ब्राह्मण को विलेन की तरह दिखाया गया.

उन का कहना था कि ट्रेलर के कुछ दृश्य एकतरफा व इतिहास को गलत तरीके से पेश करते हैं. आनंद दवे को इस तरह के आरोप लगाने से पहले पूरी फिल्म देखनी चाहिए थी. 2 मिनट 18 सैकंड के ट्रेलर में पूरी कहानी समेटी नहीं जा सकती खासकर बात जब ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद के बीच के फर्क की हो.

वास्तव में यह सारा खेल फिल्म ‘फुले’ की आड़ में अपनीअपनी राजनीतिक रोटी सेंकने और अपने वोटबैंक को मजबूत करने का था. फिल्म को ले कर जिन तबकों को दिक्कत हुई, क्या उन पर सवाल नहीं खड़े किए जा सकते कि जब इतिहास गैरबराबर और जातिवादी रहा तो इसे परदे पर दिखाने में क्या दिक्कत? क्या इसे दिखाने से रोकना ब्राह्मणवाद नहीं?

उधर, महाराष्ट्र में सरकार के साथी बने हुए ‘वंचित बहुजन अघाड़ी’ के प्रकाश अंबेडकर भी अपने लोगों के साथ फिल्म के समर्थन में सड़क पर उतर कर फिल्म को टैक्स फ्री करने तक की मांग कर बैठे.

कारण यही था कि निर्माताओं ने फिल्म को 25 अप्रैल को रिलीज करने का निर्णय लिया. कुछ लोगों का आरोप है कि यह खेल कुछ और ही है. ब्राह्मण संगठन अब तक ‘ब्राह्मणवाद’ व ‘ग्राम्हात्व’ और धर्म के अंतर को समझ नहीं पाए या समझना नहीं चाहते.

सीबीएफसी ने ‘फुले’ के निर्माताओं से कहा-

सैंसर बोर्ड ने संवादों को संशोधित करने या बदलने के लिए कहा. पहला, ‘शूद्रों को ?ाड़ू बांध कर चलना चाहिए’ इस की जगह पर ‘सब से दूरी बना के रखनी चाहिए’; दूसरा, ‘3000 साल पुरानी गुलामी’ की जगह ‘कई साल पुरानी गुलामी’; 43 सैकंड का एक संवाद ‘यहां 3 एम हैं और हम वही करने जा रहे हैं’ को हटाया जाए.

फिल्म के एक दृश्य में ब्राह्मण लड़का सावित्री फुले के चेहरे पर गोबर व कीचड़ फेंकता है, इसे हटाया जाए. महार, पेशवाई, मांग जैसे शब्दों को हटाना, जाति व्यवस्था से शूद्रों की दुर्दशा का वौयसओवर हटाया जाए वगैरह. कुछ लोगों ने इस कदम को इतिहास को दबाने व दलितबहुजन की कहानी को कमजोर करने की साजिश बताया. यह सच है कि इतिहास में पहले पढ़नेलिखने का हक ऊंची जातियों को ही था. ऊंची जातियों के ही पढ़लिख पाए तो उन्होंने अपने अनुसार ही आधुनिक इतिहास लिखा. इस के चलते बहुजन इतिहास को कभी स्पेस ही नहीं मिल पाया.

निर्देशक अनंत नारायण महादेवन ने कहा, ‘‘हम ने फिल्म में वही दिखाया है जोकि इतिहास में पहले से लिखा है. मैं खुद ब्राह्मण हूं, फिर मैं अपने समुदाय को क्यों बदनाम करूंगा. हम ने यह भी दिखाया कि किस तरह कुछ ब्राह्मणों ने ज्योतिबा फुले का साथ भी दिया. उन्होंने उन के स्कूल व अस्पताल खोलने में उन की मदद की. हम ने जरूरी सभी कागजात व दस्तावेज जमा कर दिए हैं. यह फिल्म सिर्फ ज्योतिबा या सावित्रीबाई की कहानी ही नहीं है, बल्कि एक प्रेरणा है जोकि हर इंसान को देखनी चाहिए.’’

उठते अहम सवाल

दक्षिण भारत के दलित एक्टिविस्ट व लेखक कांचा इलैया ने सैंसर बोर्ड पर सवाल खड़े किए थे, कहा था, ‘‘सीबीएफसी फिल्म से जाति संबंधी उल्लेखों को हटाने के लिए कैसे कह सकता है जब फुले का संघर्ष जाति और उस समय की ब्राह्मण समुदाय की अमानवीय प्रथाओं के खिलाफ था.’’

कांग्रेस नेता व सांसद राहुल गांधी ने आरएसएस और भाजपा पर गंभीर आरोप लगाते हुए ट्वीट किया था, ‘भाजपा और आरएसएस के नेता एक तरफ फुलेजी को दिखावटी नमन करते हैं, दूसरी तरफ उन के जीवन पर बनी फिल्म को सैंसर करने पर जोर दिया. महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुलेजी ने जातिवाद के खिलाफ लड़ाई में पूरा जीवन समर्पित कर दिया. मगर सरकार उस संघर्ष और उस के ऐतिहासिक तथ्यों को परदे पर नहीं आने देना चाहती.’’

कौन थे महात्मा ज्योतिबा फुले

11 अप्रैल, 1927 को माली जाति यानी कि फूलों का व्यापार करने वाले परिवार में जन्मे ज्योतिबा फुले उन समाज सुधारकों में से हैं जिन्हें भारत में सब से पहले ‘महात्मा’ की उपाधि दी गई थी. वे उच्चशिक्षित व बहुत बड़े कौन्ट्रैक्टर भी थे. उन्होंने मुंबई व पुणे की कई सड़कों का निर्माण किया था. उन्होंने कुछ बांध भी बनाए थे. 1 जनवरी, 1848 को उन्होंने दलितों व महिलाओं की शिक्षा के लिए पहला स्कूल पुणे के बुधवारपेठ में शुरू किया था.

1890 में उन का देहांत हो गया था. उन्होंने 1873 में किताब ‘गुलामगीरी’ लिखी थी और 1873 में ही ‘सत्य शोधक समाज’ की स्थापना की. उस के बाद उन्होंने कई किताबें लिखीं. उन्होंने ब्राह्मण महिला के विधवा होने पर उस का सिर मुंडन करना बंद करवाया और विधवा पुनर्विवाह की वकालत की. इस तरह ज्योतिबा फुले व उन की पत्नी सावित्री फुले ने अपने जीवन में समाज सुधार के कई कार्य किए.

महात्मा ज्योतिबा फुले ने आवाज उठाई थी कि शूद्र और ब्राह्मण कंधे से कंधा मिला कर क्यों नहीं चल सकते? शूद्रों और औरतों को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार क्यों नहीं? उस जमाने में ब्राह्मणों को राजा/ब्रिटिश सरकार की तरफ से ‘दक्षता’/दान मिलता था, जिसे ब्राह्मण समाज धार्मिक मसला मानता था. ज्योतिबा फुले ने इस का विरोध करते हुए ब्राह्मण लेखकों को यह धन देने की बात कही थी. उन का मानना था कि मराठी भाषा का उत्थान भी शूद्रों का उत्थान है.

एक विधवा ब्राह्मण काशीबाई के साथ उस के ही रिश्तेदार ने गलत काम कर उसे गर्भवती कर दिया, तब ज्योतिबा ने उस विधवा काशीबाई को अपने घर में रखा और उस के जन्मे बच्चे यशवंत को खुद गोद लिया. उन्होंने वर्ण व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष किया. वे कहते थे कि धार्मिक कहलाने वाले ग्रंथों ने ही उन्हें शूद्र बनाया.

धार्मिक ग्रंथों का लेखन ईश्वर ने नहीं किया. वेद ईश्वर ने नहीं लिखे. मनु और मनुवादियों ने शूद्रों पर गुलामी मढ़ी. उस वक्त के मशहूर सुधारवादी नेता गोविंद रानाडे ने जब 11 साल की लड़की से दूसरा विवाह किया तो ज्येतिबा फुले ने इस पर विरोध जताया था.

महात्मा ज्योतिबा फुले पर यह पहली फिल्म नहीं

महात्मा ज्योतिबा फुले पर यह पहली फिल्म नहीं बनी. सब से पहले 1954 में आचार्य प्रह्लाद केशव अत्रे ने महात्मा ज्योतिबा फुले पर फिल्म ‘महात्मा फुले’ बनाई थी, जिस के लेखक डाक्टर बी आर अंबेडकर थे. उस फिल्म को भारत सरकार द्वारा ‘रजत कमल’ के पुरस्कार से नवाजा गया था. फिर 1986 में श्याम बेनेगल ने दूरदर्शन के लिए सीरियल ‘भारत एक खोज’ में एपिसोड नंबर 45 ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले पर बनाया था. यह एपिसोड आज भी यूट्यूब पर मौजूद है.

गत वर्ष प्रवीण तावड़े ने ज्योतिबा फुले और सावित्री फुले पर फिल्म ‘सत्यशोधक’ बनाई थी, जोकि ओटीटी प्लेटफौर्म अमेजन प्राइम पर है. इस का लेखन व निर्देशन नीलेश जालंकर ने किया था. संदीप कुलकर्णी और राजश्री देशपांडे की इस में अहम भूमिकाएं थीं. इन फिल्मों व श्याम बेनेगल के सीरियल में भी ब्राह्मण लड़के द्वारा स्कूल से बाहर निकलते ही सावित्री फुले के चेहरे पर गोबर व कीचड़ फेंकने के दृश्यों के साथ ही वे सभी संवाद हैं, जिन्हें अब अनंत नारायण महादेवन की फिल्म ‘फुले’ से हटाने के लिए सैंसर बोर्ड ने कहा है. हैरानी यह कि पहले इतनी असहिष्णुता नहीं थी. आलोचनाओं के लिए द्वार खुले रहते थे और अपनी बात कहने की आजादी थी. मगर अब यह सिकुड़ता जा रहा है. इस का एक बड़ा उदाहरण ‘फुले’ फिल्म का विवाद है.

अब सवाल उठता है कि जिन दृश्यों के साथ बनी फिल्म को सरकार रजत कमल पुरस्कार दे कर सम्मानित करती है, जिस तरह के दृश्यों को 1986 में दूरदर्शन प्रसारित करता है, उन दृश्यों या संवादों पर ‘ब्राह्मण सभा’ के आनंद दवे या ‘परशुराम मंडल’ को आपत्ति क्यों नहीं हुई थी? तब ये सब कहां थे? अब उन्हीं दृश्यों व संवादों को फिल्म ‘फुले’ में देख कर सैंसर बोर्ड या हिंदू या ब्राह्मण संगठनों को आपत्ति क्यों होने लगी?

यह अहम व अति विचारणीय सवाल है? आखिर आज हम और हमारा देश किस दिशा में जा रहे हैं? हम अपनी भावी पीढ़ी को क्या सिखाना चाहते हैं? हम कैसा समाज बनाना चाहते हैं?

क्रिएटिव फील्ड पर रोक क्यों

मोहनलाल और पृथ्वीराज सुकुमारन अभिनीत फिल्म ‘एल 2 इम्पूरन’ 27 मार्च को रिलीज हुई थी. लेकिन फिल्म के रिलीज होते ही केरल में हिंदू संगठनों व भाजपा ने जबरदस्त विरोध किया. फिल्म में कुछ दृश्य थे, जिन पर लिखा था, इंडिया 2002. फिल्म में कहीं भी गोधरा कांड का जिक्र नहीं था पर हिंदू संगठनों व भाजपा कार्यकर्ताओं ने इन दृश्यों को सीधे 2002 के गोधरा कांड से जोड़ कर देखा. उस के बाद वहां के क्षेत्रीय सैंसर बोर्ड ने फिल्म को ‘री सैंसर’ करते हुए वे सारे दृश्य हटा दिए जिन पर लोगों को आपत्ति थी.

इतना ही नहीं, दबाव में आ कर अभिनेता मोहनलाल ने मीडिया में आ कर उन दृश्यों के लिए अपनी गलती की माफी मांगी. मोहनलाल ने यह सब क्यों कहा, यह सब आसानी से समझ जा सकता है. जब मोहनलाल इन दृश्यों की शूटिंग कर रहे थे तब उन्हें एहसास नहीं था कि वे क्या गलती कर रहे हैं. खैर, इतना सब होने के बावजूद फिल्म ‘एल 2 इम्पूरन’ के निर्माताओं के 78 स्थानों पर ‘ईडी’ ने 2 अप्रैल से 4 अप्रैल तक लगातार छापेमारी की. इस घटना से भी फिल्म ‘फुले’ के निर्माताओं के साथ ही पूरे देश के हर फिल्मकार को एक सबक मिला.

‘एल 2 इम्पूरन’ को वहां के सैंसर बोर्ड द्वारा री सैंसर किया जाना कानून का उल्लंघन नहीं है. 2024 से पहले ही केंद्र सरकार ने कुछ संशोधन कर एक नियम बना दिया है कि फिल्म के रिलीज होने पर अगर फिल्म के कुछ दृश्यों पर समाज या लोगों की आपत्ति सामने आती है तो सैंसर बोर्ड उस फिल्म की रिलीज को रुकवा कर उस फिल्म को फिर मंगवा कर उस की फिर से जांच करने का अधिकार रखता है.

इतना ही नहीं, केंद्र सरकार ने 2014 से 2024 के बीच सिनेमा के विकास के नाम पर कार्यरत 4 संगठनों का विलय करने के साथ ही ‘केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड’ में कुछ नियम बदलने के साथ ही बहुतकुछ बदला. मसलन, पहले हर फिल्म को सब से पहले चार सदस्यीय परीक्षण समिति देख कर अपना निर्णय देती थी. परीक्षण समिति व रिवाइजिंग कमेटी के सदस्यों को केंद्र सरकार का सूचना प्रसारण मंत्रालय ही नौमिनेट करता है. ये 2-2 साल में बदलते रहते हैं. मगर कुछ सदस्य तो लगातार कई साल से कार्यरत हैं.

एफसीएटी का खात्मा: निर्माता के पास अदालत का रास्ता 4 अप्रैल, 2021 को केंद्र सरकार के कानून मंत्रालय ने अध्यादेश जारी कर ‘सिनेमेटोग्राफी एक्ट’ में बदलाव के साथ ही ‘एफसीएटी’ को ही खत्म कर दिया और अब फिल्म निर्माता के पास रिवाजिंग कमेटी के निर्णय से असहमत होने पर अदालत का दरवाजा खटखटाने का ही विकल्प रह गया.

फिल्म ‘फुले’ के निर्माता व निर्देशक ने ‘सीबीएफसी’ की परीक्षण समिति के ही आगे घुटने टेक दिए थे. हो सकता है कि कुछ हद तक राजू पारुलेकर ने जो शंका व्यक्त की है वह सच हो. लेकिन फिल्म ‘फुले’ के निर्देशक अनंत नारायण महादेवन एक बार ‘एक्जामिनिंग कमेटी’ के खिलाफ रिवाइजिंग कमेटी में जा सकते थे पर उन्होंने ऐसा कदम क्यों नहीं उठाया, इस का सच कभी सामने आएगा, ऐसा लगता नहीं क्योंकि वर्तमान समय में जो हालात बने हुए हैं, उसे देखते हुए फिल्म ‘फुले’ से जुड़े लोग खुल कर सच बयां करेंगे, ऐसी उम्मीद करना मूर्खता है.

पर इन दिनों केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के जो मैंबर हैं उन से शायद फिल्म ‘फुले’ के निर्माताओं को उन का पक्ष सुने जाने की उम्मीद कम रही होगी. इस बोर्ड में विवादास्पद मैंबर भी हैं. ऐसे मैंबर कितना निष्पक्ष हो कर रचनात्मक स्वतंत्रता का साथ देते हैं, इस का दावा कोई नहीं कर सकता.

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के चेयरमैन का कार्यकाल 3 वर्ष का होता है. मगर इस पद पर गीतकार व पटकथा लेखक व एक ऐड एजेंसी के मालिक प्रसून जोशी 12 अगस्त, 2017 से आसीन हैं. प्रसून जोशी कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में कविताएं लिख चुके हैं.

कुल मिला कर फिल्म ‘फुले’ का विवाद इस ओर इंगित करता है कि जब भी आप इतिहास, समाज व संस्कृति पर कुछ बोलने की कोशिश करेंगे तो किसी न किसी कोने से विरोध के स्वर उभरेंगे, जोकि सही अर्थों में देखा जाए तो लेखक या फिल्मकार की रचनात्मक स्वतंत्रता पर बंदिश ही है.

दूसरी बात, 2025 के घटनाक्रम इस बात की ओर इशारा करते हैं कि आज की तारीख में हर फिल्मकार डर के साए में जी रहा है.

Political Parties : टीवी सीरियलों जैसे हो गए राजनीतिक दलों के फैसले

Political Parties : राजनीतिक दलों के फैसले देख कर लग रहा है जैसे टीवी में सास बहू वाले सीरियल देख रहे हों. ऐसे नेता आदर्श नहीं कीचड़ में सने नजर आते हैं.

बहुजन समाज पार्टी की स्थापना कांशीराम ने बहुत सोच विचार कर की थी. वो इस के जरिए दलित और वंचित समाज को जाग्रत करना चाहते थे. विचारों में बड़ी ताकत होती है. इस का परिणाम यह हुआ की 1995 से ले कर 2007 तक 12 सालों में 4 बार बसपा की नेता मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी. मायावती से जो आपेक्षा कर के कांशीराम ने उन को अपना उत्तराधिकारी बनाया था वह निराशा में बदल गई. मायावती ने अपने काडर वाले पुराने नेताओं को पार्टी से बाहर करना शुरू कर दिया. जिस का परिणाम यह हुआ कि 2012 की हार के बाद पार्टी सत्ता में वापसी नहीं कर पाई.

2019 में मायावती को समाजवादी पार्टी से गठबंधन करना पड़ा. इस के बाद भी राजनीति में जो धमक बननी चाहिए थी वह बनी नहीं. 13 साल का समय हो गया बसपा चुनाव में फकत तमाशाई की नजर आती है. इस की सब से बड़ी वजह मायावती की सोच और फैसले हैं. जिन के कारण विरोधी दल बसपा को भाजपा की बी टीम कहने लगे हैं. मायावती के फैसले विचारधारा और पार्टी के हित वाले नहीं रह गए हैं. इस का सब से बड़ा प्रमाण उन के भतीजे आकाश आनंद का प्रकरण है.

आकाश आंनद मायावती के भाई आनंद कुमार के बेटे हैं. मायावती ने उन को 2019 में पार्टी में शामिल किया. आकाश आंनद की शादी बसपा के ही नेता डाक्टर अशोक सिद्वार्थ की बेटी डाक्टर प्रज्ञा से बड़ी धूमधाम से कराई. उस शादी में मायावती शामिल हुई थी. शुरूआती दौर में मायावती पर परिवारवाद के आरोप लगे. सवाल यह भी उठे कि अगर कांशीराम ने अपना उत्तराधिकारी अपने घर से लिया होता तो क्या बसपा को मायावती जैसी नेता मिलती ?

यह सवाल इसलिए जायज था क्योंकि जब तक राजनीतिक दल अपने घर परिवार में नेता तलाश करते रहेंगे पार्टी का भला नहीं होगा. एक ही परिवार में दूसरी पीढ़ी का नेता भी काबिल निकले यह जरूरी नहीं है. 2024 के लोकसभा चुनाव के प्रचार में ही बीच चुनाव मायावती ने आकाश आनंद को पार्टी से निकाल दिया. इस की वजह यह सामने आई कि आकाश आनंद अपने ससुर डाक्टर अशोक सिद्वार्थ और पत्नी डाक्टर प्रज्ञा की सलाह से काम कर रहे थे. जिस से बसपा को नुकसान पहुंच रहा था. यह लगा कि अब आकाश आनंद की राजनीति खत्म हो गई है.

आकाश आनंद के दूसरी पार्टियों में शामिल होने की खबरें भी उड़ने लगी थी. इसी बीच बड़ा उलटफेर हुआ. मायावती ने वापस आकाश आनंद को बसपा में वापस कर बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी. इस बार कहा गया कि आकाश आंनद ने मायावती से माफी मांग ली है और कहा है कि वह अपने सोच विचार से काम करेंगे किसी की राय नहीं लेंगे. जिसv का अर्थ यह है कि आकाश आनंद अब अपने ससुर और पत्नी की सलाह से कोई राजनीतिक फैसले नहीं लेंगे. बसपा जिस में फैसले विचारधारा और समाज के हित को ले कर होते थे वहां फैसला इस बात का ले कर हो रहा है कि आकाश आंनद अपनी पत्नी और ससुर की सलाह से काम नहीं करेंगे.

बसपा ‘बुआ, भतीजा और पत्नी’ जैसा टीवी सीरियल बना रही है. 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष ने संविधान और आरक्षण के बल पर चुनाव लड़ा. उस को बड़ी सफलता मिली. भाजपा तीसरी बार बहुमत से सरकार नहीं बना पाई. उस को 400 पार का नारा ध्वस्त हो गया. अगर बसपा ने जोर लगाया होता तो शायद नरेन्द्र मोदी तीसरी बार देश के प्रधानमंत्री नहीं बनते. बसपा मुद्दों से हट कर ‘बुआ, भतीजा और पत्नी’ के आधार पर अपने फैसले ले रही है. अब कौन मायावती को अपना आदर्ष बनाएगा? और क्यों बनाएगा ?

बसपा में आकाश आनंद की वापसी में भी उन की पत्नी डाक्टर प्रज्ञा की भूमिका सब से अहम रही है. डाक्टर प्रज्ञा ने खुद पहल की और मायावती से बात की. जिस के बाद मायावती को लगा कि वह नाहक ही डाक्टर प्रज्ञा को दोश दे रही थी. प्रज्ञा तो बिना मायावती से पूछे कोई बड़ा फैसला नहीं लेती है. प्रज्ञा और मायावती की मुलाकात के बाद ही आकाश आनंद की वापसी हो सकी. जो फैसले पार्टी के पदाधिकारियों के बीच होनी चाहिए वह घर के भीतर किचन कैबिनेट में हो रहे हैं. यह पार्टी के लिए बहुत फायदेमंद नहीं है. इस से पार्टी पर परिवार की छाप साफ दिखती है. पार्टी के भीतर लोकतंत्र खत्म सा हो गया है.

बात एक मायावती की ही नहीं है. बहुत सारे दल इसी तरह के फैसले कर रहे हैं. बिहार में लालू प्रसाद यादव के फैसले भी इसी तरह के हो रहे हैं. वहां भी ‘पति पत्नी और वो’ वाले सीरियलों की तर्ज पर फैसले हो रहे हैं. लालू यादव ने अपने बड़े बेटे तेज प्रताप को राष्ट्रीय जनता दल से छह साल के लिए निकाल दिया है. राजनीति में परिवारवाद लंबे अरसे से विमर्श का हिस्सा रहा है. लालू ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर पोस्ट कर तेज प्रताप यादव को गैर जिम्मेदाराना, पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों के खिलाफ आचरण के लिए यह कार्रवाई करने की बात कही. तेज प्रताप के खिलाफ पार्टी निकाला की यह कार्रवाई उन के सोशल मीडिया हैंडल्स से हुई उस पोस्ट को ले कर हुई, जिस में उन के 12 साल से अनुष्का यादव के साथ 12 साल से रिलेशनशिप में होने की बात कही गई थी.

तेज प्रताप यादव ने बाद में यह पोस्ट डिलीट कर एक अन्य पोस्ट में अकाउंट हैक किए जाने की बात कही थी. तेज प्रताप ने यह भी कहा था कि उन्हें और परिवार को बदनाम करने के लिए तस्वीरें एडिट कर पोस्ट की गई थीं. तेज प्रताप की सफाई काम न आई और लालू यादव ने उन्हें 6 साल के लिए पार्टी से निकालने का ऐलान कर दिया. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव ने कहा कि निजी जीवन में नैतिक ईमानदारी की कमी सामाजिक न्याय के लिए पार्टी की व्यापक लड़ाई को कमजोर करती है. तेज प्रताप का व्यवहार उन के पारिवारिक मूल्यों या परंपराओं को नहीं दर्शाता है.

उत्तर प्रदेश में भी करीब 9 साल पहले 30 दिसंबर 2016 को सपा के तत्कालीन प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने अपने ही बेटे अखिलेश यादव को 6 साल के लिए पार्टी से निकालने का ऐलान कर दिया था. सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने लखनऊ में एक प्रेस कान्फ्रेंस कर कहा था कि हम ने पार्टी को बचाने के लिए अखिलेश यादव को 6 साल के लिए निष्कासित करने का फैसला किया है. हमारे लिए पार्टी सब से महत्वपूर्ण है.

अखिलेश तब यूपी के मुख्यमंत्री थे, जब उन को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था. मुलायम ने उसी प्रेस कान्फ्रेंस में यह भी कहा था कि अखिलेश अब सीएम नहीं हैं. सीएम कौन होगा, यह पार्टी तय करेगी. उन्हें सीएम मैं ने ही बनाया था और वह अब मेरी सलाह भी नहीं लेते. मुलायम सिंह यादव के इस ऐलान के बाद अखिलेश ने अगले ही दिन सपा विधायक दल की बैठक बुला ली थी.

अखिलेश की बैठक में तब सपा के 229 में से 200 से ज्यादा विधायक पहुंचे थे और मुख्यमंत्री के लिए उन के समर्थन की प्रतिबद्धता व्यक्त की थी. विधायक दल की बैठक में बहुमत को ले कर आश्वस्त हो जाने के बाद अखिलेश ने 1 जनवरी 2017 को सपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक बुला ली थी. इस कार्यकारिणी के बाद राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से मुलायम सिंह यादव को हटा कर अखिलेश की ताजपोशी का ऐलान कर दिया गया. मामला कोर्ट भी गया लेकिन पार्टी का निशान और कमान अखिलेश के ही पास रहे.

बाद में मुलायम सिंह यादव भी नाराजगी छोड़ कर बेटे अखिलेश के साथ आ खड़े हुए थे. परिवार में झगड़े का असर यह हुआ कि पिता मुलायम और चाचा शिवपाल के समर्थन देने के बाद भी 2017 और 2022 का विधानसभा चुनाव अखिलेश यादव हार गए. बिहार में भी परिवार के घमासान का प्रभाव विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा. लालू यादव भले ही नाटक कर रहे हों क्योंकि सोशल मीडिया पोस्ट से किसी का उत्तराधिकार बनता बिगड़ता नहीं है. उस के लिए कानूनी रास्ते होते हैं.

लालू प्रसाद यादव हो या मायावती पुराने फैसलों से उनको समझना चाहिए कि राजनीतिक दल विचारधारा के लिए बने हैं. इन से पूरे समाज को उम्मीद होती है. अगर इन दलों के फैसले विचारधारा की जगह टीवी सीरियलों की कहानी ‘सास बहू और साजिश’ की तर्ज पर होंगे तो राजनीतिक दलों का नुकसान तो होगा ही उन के पूरे समाज को नुकसान होगा. इतिहास जब भी समीक्षा करेगा यह नेता आदर्श पुरूष नहीं कीचड़ में सने लोग नजर आएंगे.

Union Territories : सस्ता सामान और स्मार्ट सिटी दोनों सपने एकसाथ नहीं देखे जा सकते

Union Territories : फुटपाथ आम लोगों के चलने के लिए बनाई जाती हैं मगर खुमचे, रेहड़ी, पटरी वालों के चलते ये पूरे जाम रहते हैं. होता यह है कि लोगों को सड़क पर चलते हुए परेशानी होती है और कभीकभार दुर्घटनाएं भी हो जाती हैं. अगर स्मार्ट सिटी की चाह है तो सिटी प्लान होना जरूरी है.

पैदल यात्रियों की सुरक्षा को ले कर चिंता जताने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 14 मई को सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को पैदल यात्रियों के लिए उचित फुटपाथ सुनिश्चित करने के लिए गाइडलाइन तैयार करने का निर्देश दिया है. जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने कहा कि फुटपाथों की गैरमौजूदगी में पैदल यात्रियों को सड़कों पर चलने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिस से वे हादसों और जोखिमों के शिकार होते हैं. अतिक्रमण मुक्त फुटपाथ लोगों के जीवन और स्वतन्त्रता का हिस्सा है.

बेंच ने कहा कि नागरिकों के लिए सही फुटपाथ होना बहुत जरूरी है. ये इस तरह बने होने चाहिए कि दिव्यांग व्यक्तियों के चलने के लिए भी सुलभ हों. इसलिए फुटपाथों पर हुए अतिक्रमण को हटाना जरूरी है. फुटपाथ पैदल यात्रियों के लिए उन का संवैधानिक अधिकार है. फुटपाथ का इस्तेमाल करने का पैदल यात्रियों का अधिकार संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत संरक्षित है. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को 2 महीने के भीतर पैदल यात्रियों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपनी गाइडलाइंस रिकौर्ड पर लाने का निर्देश देते हुए कहा है कि पैदल यात्रियों की सुरक्षा बेहद अहम है. आएदिन लोग सड़कों पर हादसों का शिकार हो रहे हैं क्योंकि उन के चलने के लिए फुटपाथ पर जगह नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है. एक आंकड़े के अनुसार देश में प्रतिदिन औसतन 46 पैदल यात्रियों की जान सिर्फ इस वजह से जा रही है क्योंकि फुटपाथों पर अतिक्रमण के कारण वे सड़क पर चलने के लिए मजबूर हैं. दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के आंकड़ों के अनुसार 2025 में सिर्फ 4 महीने में ही दिल्ली में पैदल चलने वाले 184 लोगों की सड़क हादसे में मौत हो गई.

दिल्ली में लगभग 80 प्रतिशत से अधिक फुटपाथों पर रेहड़ी-पटरी, ठेलों, दुकानदारों और गाड़ी वालों ने अतिक्रमण कर रखा है. ऐसे में लोग मजबूरी में सड़क पर चलने के लिए मजबूर हैं. अतिक्रमण का शिकार सिर्फ दिल्ली ही नहीं है, बल्कि तमाम छोटेबड़े शहर के फुटपाथ ऐसे अतिक्रमण से भरे पड़े हैं.

दिल्ली की बात करें तो यहां लुटियंस दिल्ली और एयरपोर्ट को कनेक्ट करने वाली द्वारका सब सिटी रोड नंबर-201 के फुटपाथ पर इस कदर अतिक्रमण है कि कोई इस पर पैदल नहीं चल सकता. लोग फुटपाथ से नीचे सड़क पर ही चलते हैं. मधु विहार बस टर्मिनल से ले कर आकाश हौस्पिटल तक रोड नंबर-201 पर करीब एक किमी दूरी तक फुटपाथ और सर्विस लेन दोनों में अतिक्रमण है. बस टर्मिनल से आकाश हौस्पिटल तक दोनों तरफ के फुटपाथ पर रेहड़ी-पटरी और खोमचे वालों ने कब्जा कर रखा है.

सर्विस लेन के ठीक सामने ही गाड़ियों के कई शोरूम हैं. वहां फुटपाथ और सर्विस लेन दोनों पर अवैध कब्जा है. सर्विस लेन में गाड़ियों की अवैध पार्किंग है. फुटपाथ पर ही बिजली कंपनी ने ट्रांसफार्मर लगा रखा है. एक जगह फुटपाथ पर पुलिस बूथ भी बना हुआ है. इसी रोड पर जहां पेट्रोल पंप है, वहां सर्विस लेन में लोगों ने झुग्गियां बना रखी हैं, इन में रहने वाली औरतें और बच्चे फुटपाथ पर ही चारपाइयां डाल कर लेटते बैठते हैं. ऐसे में पैदल यात्री इस फुटपाथ पर चढ़ता ही नहीं है. फुटपाथ पर ही उन्होंने खाना पकाने का इंतजाम भी कर रखा है. जगहजगह उन के चूल्हे जल रहे होते हैं.

मजे की बात है कि सर्विस लेन में जहां झुग्गियां बनी हैं, ठीक उसी के बगल में एमसीडी के मेंटेनेंस विभाग का औफिस है. रोड नंबर-201 के फुटपाथ का सौंदर्यीकरण करते हुए कुछ साल पहले ही डीडीए ने 60-70 लाख रुपए की लागत से उस पर बढ़िया टाइल्स लगाई थी. मगर अतिक्रमण के चलते अब टाइल्स टूट कर बिखर चुकी हैं. फुटपाथ पर ग्रीनरी के लिए जितने पेड़ लगाए गए थे वे भी अब सूख कर खत्म हो चुके हैं.

जहांगीरपुरी मेट्रो स्टेशन के बाहर आधे फुटपाथ पर स्ट्रीट वेंडर्स का कब्जा है. अतिक्रमण करने में पुलिस भी पीछे नहीं है. मेट्रो स्टेशन के गेट के लगभग 50 मीटर की दूरी पर दिल्ली पुलिस ने अपना बूथ बना लिया है, जो पूरे फुटपाथ को घेरे हुए हैं. यहां अतिक्रमण के खिलाफ लंबे समय से लोग शिकायत करते आ रहे हैं, लेकिन संबंधित विभाग कोई एक्शन नहीं लेता है. जहांगीरपुरी मेट्रो स्टेशन के चारों गेट पर कहीं लोगों ने अवैध पार्किंग की हुई है, तो कहीं पर स्ट्रीट वेंडर्स और रेहड़ी पटरी वालों ने अतिक्रमण किया हुआ है. यहां तो दिव्यांग भी सड़क पर चलने को मजबूर हैं, जिस से हर पल हादसे का डर बना रहता है.

आजादपुर टर्मिनल के बाहर फुटपाथ पर भी ऐसा ही हाल है. मौडल टाउन की तरफ जाने वाली सड़क पर सालों से फुटपाथ पर कपड़े की दुकानें लगती हैं. दुकानदारों ने सड़क को इस कदर घेर लिया है कि कोई वहां से पैदल निकल ही नहीं सकता है. इतना ही नहीं, अतिक्रमण कर रहे लोग अपना आधा सामान सड़क पर फैला देते हैं, जिस के कारण लोगों को पता ही नहीं चलता कि यहां फुटपाथ भी है. इस के अलावा मेट्रो स्टेशन के आगे इसी सड़क पर फुटपाथ पर वाटर एटीएम भी लगा दिया गया है. आदर्श नगर में भी ऐसी ही स्थिति देखने को मिलती है.

आईएसबीटी कश्मीरी गेट बस अड्डे के बाहर सड़क पर चौबीसों घंटे पैदल चलने वालों की भीड़ रहती है. चाहे रिंग रोड हो या उस के अपोजिट जीटी करनाल रोड और उस से सटी लोठियान रोड, इन तीनों सड़कों से दिनभर बस अड्डे में आनेजाने वाले लोग सामान ले कर पैदल गुजरते हैं. इस के अलावा कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन से आनेजाने वाले लोगों की भीड़ भी यहां होती है. ऐसे में कायदे से यहां सड़क के दोनों तरफ के फुटपाथ बहुत अच्छी हालत में होने चाहिए, लेकिन इस के उलट यहां स्थिति अत्यंत खराब है. रेहड़ी पटरी वालों ने फुटपाथ पर इतनी अधिक जगह घेर रखी है कि लोगों को लाइन बना कर निकलना पड़ता है. कुछ लोगों ने तो यहां फुटपाथ पर ही ढाबे खोल रखे हैं. फुटपाथ के बीचों-बीच बिजली के खंभे और साइनेज लगा दिए गए हैं. रही सही कसर नालों की सफाई के बाद निकाली गई गाद ने पूरा कर दिया है. जो फुटपाथ पर जम जम कर जगहजगह उभरे हुए टीलों सदृश्य लगती है.

जगतपुरी चौक और मेट्रो स्टेशन को पार कर के थोड़ा आगे बढ़ने पर फुट ओवरब्रिज दिखता है. इसी पोइंट से एक सड़क कृष्णा नगर की ओर जाती है. इसे हंसराज मार्ग कहते हैं. यहां फुटपाथ के साथसाथ सड़क के एक बड़े हिस्से पर कार गैराज जैसा माहौल देखने को मिलता है. इस वजह से न केवल सड़क पर चलने वाली गाड़ियों बल्कि पैदल चलने वालों के लिए भी सुरक्षित जगह नहीं मिलती.

दक्षिण दिल्ली की तरफ निकल जाएं तो दिल्ली का यह क्षेत्र कुछ साफ सुथरा तो है मगर फुटपाथों पर अतिक्रमण यहां भी हैं. अधिकांश जगह तो अब फुटपाथ गायब ही हो चुके हैं. तमाम बड़ी कोठियों ने सामने फुटपाथ वाली जगह पर कब्ज़ा कर के लोगों ने अपने छोटेछोटे गार्डन बना लिए हैं. कई जगह जहां पहले घरों के सामने फुटपाथ थे वहां लोगों ने अपने घरों के आगे सीमेंट के चबूतरे बना लिए हैं. जिस की वजह से नीचे पानी की निकासी के लिए बनाई गई नालियां भी बंद हो गई हैं. नतीजा ज़रा सी बारिश में सड़कें तालाब बन जाती हैं. खाने पीने की दुकानों के आगे जहां फुटपाथ बचे हैं वहां दुकानदारों ने कुर्सियां डाल कर ग्राहकों को बैठ कर खाने की सुविधा दे दी है. अब उन के बीच से पैदल यात्री कैसे गुजरे?

पूर्वी दिल्ली के तमाम क्षेत्र अतिक्रमण से त्रस्त हैं. यहां फुटपाथों पर फलों के ठेले, कपड़ों के ठेले, खोमचे वाले, मोची, नकली जेवर बेचने वालों ने अपने पक्के ठिकाने बना लिए हैं. झंडेवालान के फुटपाथ स्ट्रीट फ़ूड के ठेलों से भरे पड़े हैं. बाकी जगह साइकिल और मोटर ठीक करने वालों ने हथिया रखी है. यहां तो कहीं फुटपाथ के दर्शन ही नहीं होते. पैदल चलने वाले लोग सड़क पर गाड़ी-मोटर-टेम्पो-रिक्शा के बीच बचते बचाते चलते हैं. किसी को किसी गाड़ी ने टच कर लिया तो होहल्ला-गालीगलौच मचता है और भीड़ जुटने से ट्रैफिक जाम हो जाता है.

कमोबेश ऐसी हालत से पूरा देश जूझ रहा है. मगर करें क्या. हम हैं भी तो 140 करोड़. लोग ज्यादा हैं जगह कम है. अतिक्रमण से सड़कों को मुक्त करने की जिम्मेदारी जिन अधिकारियों और जिन विभागों पर है वे अदालतों की फटकार खा लेते हैं मगर करते कुछ भी नहीं हैं. करें भी क्या? इतनी बड़ी संख्या में सड़कों पर जो लोग अपना धंधा कर रहे हैं, दो जून की रोटी कमा रहे है, किसी तरह अपना परिवार पाल रहे हैं, उन का धंधा भी बंद नहीं किया जा सकता है. क्योंकि यही लोग वोटर भी हैं. सरकार बनाते गिराते हैं. इन का ख़याल भी रखना होगा. फिर हर किसी को तो सरकार नौकरी दे नहीं सकती. लोग छोटेमोटे धंधे नहीं करेंगे तो परिवार कैसे पालेंगे? दुकानें खरीदने की सबकी औकात नहीं है. लिहाजा ठेला ही लगाना पड़ता है. जमीन पर ही चादर बिछा कर सामान बेचना पड़ता है. अब नगर निगम या पुलिस ऐसे मजबूर और गरीब लोगों के पेट पर लात मारे, यह भी सुप्रीम कोर्ट नहीं चाहेगा. फिर नगर निगम और पुलिस की जेबखर्ची भी इन्ही लोगों से निकलती है.

फुटपाथों पर सामान बेचने वालों से नगर निगम के कर्मचारियों और पुलिस के सिपाहियों को प्रतिदिन बंधी बंधाई रकम मिलती है. यदि एक फुटपाथ पर सौ वेंडर्स अपना सामान बेच रहे हैं और हर दिन उन्हें वहां बैठने के 100 रूपए उस बीट के कांस्टेबल को देने पड़ रहे हैं तो उन की आमदनी का अंदाजा लगा लीजिए. यह पैसा थाने तक पहुंचता है. और यह कोई ढकी छुपी बात नहीं है. कोई भी वेंडर बता देगा कि उक्त स्थान पर बैठ कर अपना सामान बेचने के लिए वह कितना पैसा पुलिस को और कितना नगर निगम के आदमी को देता है.

हां, कभी कभी जब स्थिति ज्यादा बिगड़ती है या कोई वीवीआईपी मूवमेंट होना होता है, तब जरूर नगर निगम की गाड़ियां इन ठेलेवालों को उजाड़ने पहुंच जाती हैं. उन के ठेले जब्त कर ले जाती हैं मगर कुछ दिन बाद जुर्माना भर कर वे अपने ठेले छुड़वा लेते हैं और फिर अपनी पुरानी जगह पर आबाद हो जाते हैं.

इन ठेले वालों के बिना आम जनता का काम भी नहीं चल सकता है. देश की 70 प्रतिशत आबादी की आमदनी इतनी नहीं है कि वह हर दिन होटल का खाना अफोर्ड कर सके. घर छोड़ कर दूसरे शहरों में रह कर पढ़ने वाले बच्चे, मजदूर तबका, छोटेछोटे दफ्तरों में काम करने वाले लोग, अकेले जीवन बसर करने वाले अनेकानेक लोग अपने भोजन के लिए इन्हीं ठेले वालों, खोमचे वालों, फल वालों, ढाबे वालों पर निर्भर हैं. गरीब तबका तो पूरी तरह से इन्हीं पर निर्भर है. वे किसी बड़े शोरूम में नहीं जा सकते, तो फुटपाथ पर लगने वाले कपड़े के ठेलों से तन ढंकने के लिए सस्ता कपड़ा खरीदते हैं. खाने-पीने के लिए स्ट्रीट फ़ूड पर निर्भर होते हैं. जहां 20 रूपए में उन को रोटी सब्जी नसीब हो जाती है. 50 रुपये में छोले भठूरे की दावत हो जाती है. यही नहीं बल्कि छोटे बड़े तमाम औफिस के लोग भी लंच के वक़्त इन्हीं खोमचे वालों, ढाबे वालों, चाय वालों, फल वालों के इर्दगिर्द ही नजर आते हैं. मेट्रो स्टेशनों के नीचे, बस अड्डों पर, रेलवे स्टेशनों पर यदि रेहड़ी वाले-ठेले वाले ना हों तो भारी मुसीबत खड़ी हो जाए. आखिर लोग खाने के लिए हर दिन तो होटल नहीं जा सकते. सस्ता खाना, सस्ती चाय, सस्ता कपड़ा सभी की जरूरत है. ऐसे में स्ट्रीट वेंडर्स तो चाहिए ही.

फुटपाथों पर सस्ता सामान बेचने वालों को सरकार हटा कर किसी अन्य स्थान पर शिफ्ट भी नहीं कर सकती है. क्योंकि वे तो वहीं अपना धंधा करेंगे जहां उनकी बिक्री होगी. जहां उन के ग्राहक होंगे. ऐसे में जब भी सरकार वेंडर्स के लिए कोई ऐसी योजना लाती है जिस में उन को किसी बड़े मैदान में जगह दे दी जाए तो ऐसी योजनाएं फ्लॉप हो जाती हैं. आम जनता को भी अपनी जरूरत की चीज बस दो कदम की दूरी पर ही चाहिए, न कि किसी दूरदराज के मैदान में. तो अगर यह ठेलेवाले फुटपाथों को घेर कर बैठे हैं तो इस का जिम्मेदार कोई और नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ उपभोक्ता है. अब उपभोक्ता को सस्ता सामान भी दो कदम की दूरी पर चाहिए और वह स्मार्ट सिटी का सपना भी देखे, तो ऐसा संभव नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के कहने पर सरकार फुटपाथ पर धंधा करने वालों के लिए क्या गाइडलाइन तय करेगी और वह कितनी कारगर साबित होगी, यह देखना दिलचस्प होगा.

Hindi Kahani : नाक – अपनी इज्जत बचाने का ये कैसा था तरीका

Hindi Kahani : मां की बात सुन कर रूपबाई ठगी सी खड़ी रह गई. उसे अपने पैरों के नीचे से धरती खिसकती नजर आई. उस के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला.

रूपबाई ने तो समझा था कि यह बात सुन कर मां उस की मदद करेगी, समाज में फैली गंदी बातों से, लोगों से लड़ने के लिए उस का हौसला बढ़ाएगी और जो एक नई परेशानी उस के पेट में पल रहे बच्चे की है, उस का कोई सही हल निकालेगी. पर मां ने तो उस से सीधे मुंह बात तक नहीं की. उलटे लाललाल आंखें निकाल कर वे चीखीं, ‘‘किसी कुएं में ही डूब मरती. बापदादा की नाक कटा कर इस पाप को पेट में ले आई है, नासपीटी.’’

मां की बातें सुन कर रूपबाई जमीन पर बैठ गई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए. उसे केवल मां का ही सहारा था और मां ही उस से इस तरह नफरत करने लगेंगी, तो फिर कौन उस का अपना होगा इस घर में. पिताजी तो उसी रामेश्वर के रिश्तेदार हैं, जिस ने जबरदस्ती रूपबाई की यह हालत कर दी. अगर पिताजी को पता चल गया, तो न जाने उस के साथ क्या सुलूक करेंगे.

रूपबाई की मां सोनबाई जलावन लेने खेत में चली गई. रूपबाई अकेली घर के आंगन में बैठी आगे की बातों से डर रही थी. हर पल उस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. उस की आंखों में आंसू भर आए थे. मन हो रहा था कि वह आज जोरजोर से रो कर खुद को हलका कर ले.

रामेश्वर रूपबाई का चाचा था. वह और रामेश्वर चारा लाने रोज सरसों के खेत में जाते थे. रामेश्वर चाचा की नीयत अपनी भतीजी पर बिगड़ गई और वह मौके की तलाश में रहने लगा. एक दिन सचमुच रामेश्वर को मौका मिल गया. उस दिन आसपास के खेतों में कोई नहीं था.

रामेश्वर ने मौका देख कर सरसों के पत्ते तोड़ती रूपबाई को जबरदस्ती खेत में पटक दिया. वह गिड़गिड़ाती रही और सुबकती रही, पर वह नहीं माना और उसे अपनी हवस का शिकार बना कर ही छोड़ा.

घर आने के बाद रूपबाई के मन में तो आया कि वह मां और पिताजी को साफसाफ सारी बातें बता दे, पर बदनामी के डर से चुप रह गई.

इस के बाद रामेश्वर रोज जबरदस्ती उस के साथ मुंह काला करने लगा. इस तरह चाचा का पाप रूपबाई के पेट में आ गया.

कुछ दिन बाद रूपबाई ने महसूस किया कि उस का पेट बढ़ने लगा है. मशीन से चारा काटते समय उस ने यह बात रामेश्वर को भी बताई, ‘‘तू ने जो किया सो किया, पर अब कुछ इलाज भी कर.’’

‘‘क्या हो गया?’’ रामेश्वर चौंका.

‘‘मेरे पेट में तेरा बच्चा है.’’

‘‘क्या…?’’

‘‘हां…’’

‘‘मैं तो कोई दवा नहीं जानता, अपनी किसी सहेली से पूछ ले.’’

अपनी किसी सहेली को ऐसी बात बताना रूपबाई के लिए खतरे से खाली नहीं था. हार कर उस ने यह बात अपनी मां को ही बता दी, पर मां उसे हिम्मत देने के बजाय उलटा डांटने लगीं.

शाम को रूपबाई का पिता रतन सिंह काम से वापस आ गया. वह दूर पहाड़ी पर काम करने जाता था. आते ही वह चारपाई पर बैठ गया. उसे देख कर रूपबाई का पूरा शरीर डर के मारे कांप रहा था. खाना खाने के बाद सोनबाई ने सारी बातें अपने पति को बता दीं.

यह सुन कर रतन सिंह की आंखें अंगारों की तरह दहक उठीं. वह चिल्लाया, ‘‘किस का पाप है तेरे पेट में?’’

‘‘तुम्हारे भाई का.’’

‘‘रामेश्वर का?’’

‘‘हां, रामेश्वर का. तुम्हारे सगे भाई का,’’ सोनबाई दबी जबान में बोली.

‘‘अब तक क्यों नहीं बताया?’’

‘‘शर्म से नहीं बताया होगा, पर अब तो बताना जरूरी हो गया है.’’

इस बात पर रतन सिंह का गुस्सा थोड़ा शांत हुआ, फिर उस ने पूछा, ‘‘अब…?’’

‘‘अब क्या… किसी को पता चल गया, तो पुरखों की इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी.’’

‘‘फिर…?’’

‘‘फिर क्या, इसे जहर दे कर मार डालो. गोली मेरे पास रखी हुई है.’’

‘‘और रामेश्वर…’’

‘‘उस से कुछ मत कहो. वह तो मर्द है. लड़की मर जाए, तो क्या जाता है?

‘‘अगर दोनों को जहर दोगे, तो सब को पता चल जाएगा कि दाल में कुछ काला है.’’

‘‘तो बुला उसे.’’

सोनबाई उठी और दूसरे कमरे में सो रही रूपबाई को बुला लाई. वह आंखें झुकाए चुपचाप बाप की चारपाई के पास आ कर खड़ी हो गई.

रतन सिंह चारपाई पर बैठ गया. रूपबाई उस के पैरों पर गिर कर फफक कर रो पड़ी.

रतन सिंह ने उस की कनपटी पर जोर से एक थप्पड़ मारते हुए कहा, ‘‘अब घडि़याली आंसू मत बहा. एकदम चुप हो जा और चुपचाप जहर की इस गोली को खा ले.’’

यह सुन कर रूपबाई का गला सूख गया. उसे अपने पिता से ऐसी उम्मीद नहीं थी. वह थरथर कांप उठी और अपने बाएं हाथ को कनपटी पर फेरती रह गई. झन्नाटेदार थप्पड़ से उस का सिर चकरा गया था.

रात का समय था. सारा गांव सन्नाटे में डूबा हुआ था. अपनेअपने कामों से थकेहारे लोग नींद के आगोश में समाए हुए थे. गांव में सिर्फ उन तीनों के अलावा एक रामेश्वर ही था, जो जाग रहा था. वह दूसरे कमरे में चुपचाप सारी बातें सुन रहा था.

पिता की बात सुन कर कुछ देर तक तो रूपबाई चुप रही, फिर बोली, ‘‘जहर की गोली?’’

तभी उस की मां चीखी, ‘‘हां… और क्या कुंआरी ही बच्चा जनेगी? तू ने नाक काट कर रख दी हमारी. अगर ऐसा काम हो गया था, तो किसी कुएं में ही कूद जाती.’’

‘‘मगर इस में मेरी क्या गलती है? गलती तो रामेश्वर चाचा की है. मैं उस के पैर पड़ी थी, खूब आंसू रोई थी, लेकिन वह कहां माना. उस ने तो जबरदस्ती…’’

‘‘अब ज्यादा बातें मत बना…’’ रतन सिंह गरजा, ‘‘ले पकड़ इस गोली को और खा जा चुपचाप, वरना गरदन दबा कर मार डालूंगा.’’

रूपबाई समझ गई कि अब उस का आखिरी समय नजदीक है. फिर शर्म या झिझक किस बात की? क्यों न हिम्मत से काम ले?

वह जी कड़ा कर के बोली, ‘‘मैं नहीं खाऊंगी जहर की गोली. खिलानी है, तो अपने भाई को खिलाओ. तुम्हारी नाक तो उसी ने काटी है. उस ने जबरदस्ती की थी मेरे साथ, फिर उस के किए की सजा मैं क्यों भुगतूं?’’

‘‘अच्छा, तू हमारे सामने बोलना भी सीख गई है?’’ कह कर रतन सिंह ने उस के दोनों हाथ पकड़ कर उसे चारपाई पर पटक दिया.

सोनबाई रस्सी से उस के हाथपैर बांधने लगी. रूपबाई ने इधरउधर भागने की कोशिश की, चीखीचिल्लाई, पर सब बेकार गया. उस बंद कोठरी में उस की कोई सुनने वाला नहीं था.

जब रूपबाई के हाथपैर बंध गए, तो वह अपने पिता से गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘‘मुझे मत मारिए पिताजी, मैं आप के पैर पड़ती हूं. मेरी कोई गलती नहीं है.’’ मगर रतन सिंह पर इस का कोई असर नहीं हुआ.

रूपबाई छटपटाती रही. रस्सी से छिल कर उस की कलाई लहूलुहान हो गई थी. वह भीगी आंखों से कभी मां की ओर देखती, तो कभी पिता की ओर.

अचानक रतन सिंह ने रूपबाई के मुंह में जहर की गोली डाल दी. लेकिन उस ने जोर लगा कर गोली मुंह से बाहर फेंक दी. गोली सीधी रतन सिंह की नाक से जा टकराई. वह गुस्से से तमतमा गया. उस ने रूपबाई के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया.

रूपबाई के गाल पर हाथ का निशान छप गया. उस का सिर भन्ना उठा. वह सोचने लगी, ‘आदमी इतना निर्दयी क्यों हो जाता है? वहां मेरे साथ जबरदस्ती बलात्कार किया गया और यहां इस पाप को छिपाने के लिए जबरदस्ती मारा जा रहा है. अब तो मर जाना ही ठीक रहेगा.’

मरने की बात सोचते ही रूपबाई की आंखों में आंसू भर आए. आंसुओं पर काबू पाते हुए वह चिल्लाई, ‘‘पिताजी, डाल दो गोली मेरे मुंह में, ताकि मेरे मरने से तुम्हारी नाक तो बच जाए.’’

रतन सिंह ने उस के मुंह में गोली डाल दी. वह उसे तुरंत निगल गई. पहले उसे नशा सा आया और फिर जल्दी ही वह हमेशा के लिए गहरी नींद में सो गई.

रतन सिंह और सोनबाई ने उस के हाथपैर खोले और उस की लाश को दूसरे कमरे में रख दिया.

सारी रात खामोशी रही. रामेश्वर बगल के कमरे में अपने किए के लिए खुद से माफी मांगता रहा.

सुबह होते ही रतन सिंह और सोनबाई चुपके से रूपबाई के कमरे में गए और दहाड़ें मार कर रोने लगे. रामेश्वर भी अपने कमरे से निकल आया. फिर वे तीनों रोने लगे.

रोनेधोने की आवाज सुन कर आसपास के लोग इकट्ठा हो गए कि क्या हो गया?

‘‘कोई सांप डस गया मेरी बच्ची को,’’ सोनबाई ने छाती पीटते हुए कहा और फिर वह दहाड़ें मार कर रो पड़ी.

Social Story : चेहरे – क्या था महिमा का असली चेहरा

Social Story : नीति ने अपना पर्स उठाया और औफिस से बाहर निकल गई.

“ठंडे दिमाग से सोचना मैडम, ऐसी नौकरी आप को दूसरी नहीं मिलेगी. लौटने का विचार बने तो फ़ोन कर देना” मधुकर ने चलतेचलते उस से कहा.

नीति ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. पैर पटकती चली गई. बाहर आ कर औटो लिया और सीधे अपने कमरे पर आ गई. पर्स बिस्तर पर फेंक कर वहीं पसर गई और रोती रही. रोतेरोते कब उस की आंख लग गई, पता नहीं चला.

अगले दिन निधि का फ़ोन आया तो उठी. रोज़ निधि के साथ ही औफिस जाती थी. दोनों एक ही जगह से बस पकड़ती थीं. आज़ नीति को नहीं देखा तो निधि ने फ़ोन कर के पूछा, “औफिस में नहीं आई है क्या? सब जगह देखा, सब से पूछा, कहीं मिली नहीं?”

“तबीयत ठीक नहीं है, घर पर ही हूं,” कह कर नीति ने फोन काट दिया. वह जानती थी कि औफिस से निधि को पता चल जाएगा कि क्यों वह वहां नहीं है. पता लगते ही वह उस से मिलने ज़रूर आएगी. कल निधि छुट्टी पर थी नहीं तो शायद वह नीति को इस तरह नौकरी छोड़ कर न आने देती.

अब तक भी कल की बात दिमाग से उतरी नहीं थी. बाथरूम में जा कर मुंह धोया और चाय बनाने रसोई में चली गई. चाय भी अच्छी नहीं बनी. दिमाग में तो उधेड़बुन चल रही थी.

नई नौकरी ढूंढनी पड़ेगी. पता नहीं अनुभव प्रमाणपत्र भी मधुकर देगा या नहीं. जब तक नौकरी नहीं मिल जाती तब तक कैसे काम चलेगा ? अकेली ही रहती है इस शहर में. दोस्त भी कोई इस हाल में नहीं है कि मदद कर पाए. सब उस के ही जैसे हैं.

चाय पी कर बिस्तर पर लेट गई. कब नींद आई, पता ही नहीं चला. दरवाजे की घंटी ज़ोरज़ोर से बज रही थी. नीति ने नींद में ही जा कर दरवाज़ा खोला.

“दिन में इतनी गहरी नींद में कौन सोता है, कब से घंटी बजा रही हूं? मुझे भी घर वापस जाना होगा,” निधि एक ही बार में सबकुछ बोल गई.

“तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए दवाई ले कर नींद आ गई,” नीति ने बहाना बनाया.

“दवाई तो तुम कभी इतनी जल्दी लेती नहीं हो. कल तो औफिस गई थी, फिर अचानक इतनी बीमार कैसे हो गई? बीमारी है या कोई और बात है जो बताना नहीं चाहती हो?” निधि ने सवाल किया.

“तुम से क्या छिपा है?” नीति ने कहा और कल की पूरी घटना निधि को बताई.

“तुझे क्या पड़ी है किसी को सुधारने की? लोग इतने अच्छे होते तो इन निकेतनों की ज़रूरत ही क्या होती? कुछ लोग पाप करते हैं. कुछ लोग उन के पाप को पनाह देते हैं.”

नीति चुपचाप सब सुन रही थी. निधि की बातें व्यावहारिक थीं. लेकिन वह उस जगह वापस लौट कर नहीं जाना चाहती थी. निकेतन चलाने वालों का सच उस के सामने आ चुका था. वहां पल रहे अधिकतर बच्चों के अभिभावकों को वे जानते थे. बड़ी पहुंच वाले, पैसे वाले लोग थे और उस पैसे से ही सब का मुंह बंद कर दिया गया था. उसी पैसे के बलबूते पर कई लोगों का घर चल रहा था. उन बच्चों के सहारे कुछ और बच्चों को भी जीवनदान मिला हुआ था. उन का जीवन भी चल रहा था. निकेतन में काम करने वाले सभी लोग इस बात को जानते हुए भी चुप रहते थे. नीति ने मुंह खोला तो नौकरी छोड़नी पड़ी.

“एक बार वापस सोच लेना. देख, अकेले तेरे काम छोड़ने से कुछ बदलने वाला नहीं है. अभी अपने बारे में सोच. नौकरी के बिना तू इस शहर में नहीं रह पाएगी.”

निधि जातेजाते भी अपनी सहेली को समझाते हुए गई. नीति ने ध्यान से उस की बात सुनी और सोचसमझ कर निर्णय लेने का वादा किया. लेकिन मन ही मन उस ने तय कर लिया था कि वापस लौट कर नहीं जाना है. उस में काबिलीयत है और काम करने का जनून भी. वह कोई दूसरी नौकरी ढूंढ ही लेगी. अपनी आंखों से सबकुछ देखते हुए गलत सहन नहीं करेगी.

दस दिन गुज़र गए पर कहीं भी बात बनी नहीं. पैसे भी धीरेधीरे ख़त्म हो रहे थे. घर पर अभी कुछ भी बताया नहीं था पर हालात घर लौटने के ही हो रहे थे. वापस जाने के बाद मम्मी, पापा की वही रट कि शादी की उम्र निकली जा रही है.

एक दिन सो कर उठी तो फ़ोन बज रहा था. किसी अनजान नंबर से कौल आ रहा था. इतनी जगह सीवी दिया है, शायद किसी कंपनी से ही हो.

“मैडम, आप आज़ ही इंटरव्यू के लिए आ जाइए.” फ़ोन पर एक लड़की बोल रही थी. नीति के कुछ पूछने से पहले ही फ़ोन कट गया. जल्दी से उठ कर नहाने गई और तैयार हो कर फ़ोन पर बताए ऐड्रेस पर पहुंची.

उम्मीद के विपरीत नौकरी मिल गई और अगले ही दिन से फिर वही पुरानी दिनचर्या शुरू हो गई. नए औफिस में जैसे उस का इंतज़ार ही हो रहा था. समय ही नहीं लगा घुलनेमिलने में. काम कुछ विशेष नहीं था, बस, फ्रंट डैस्क संभालनी थी. बौस से रोज़ ही मिलना होता. बहुत शांत और सौम्य व्यक्तित्व. जितना ज़रूरी हो उतना ही बोलते, पूरे औफिस पर उन का राज़ था.

एक दिन मधुकर को औफिस में देखा तो नीति का दिमाग घूम गया.

‘शायद डोनेशन के लिए आए होंगे,’ उस ने मन ही मन सोचा. औफिस में उस ने सुना था कि अपने प्रौफिट का एक निर्धारित प्रतिशत बौस दान कर देते हैं. कितनी ही स्वयंसेवी संस्थाओं को उन से वार्षिक अनुदान मिलता था. मधुकर नीति को नहीं देख पाया, उस ने शुक्र मनाया. वह नहीं चाहती थी कि वह उस से  बात करे या नए औफिस में कोई जान पाए कि वह मधुकर को जानती है.

दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे. नीति मस्त हो गई थी. पुराने औफिस को, मधुकर को, यहां तक कि निधि को भी लगभग भूल चुकी थी. बौस का रंग उस पर भी चढ़ने लगा था. पूरे औफिस में कोई था ही नहीं जो बौस के बारे में कुछ भी उलटासीधा बोले या उन की बुराई करे. सभी जैसे उन के एहसान तले दबे हुए थे. उन के मोहक व्यक्तित्व का प्रभाव था या धन ऐश्वर्य का, जो भी संपर्क में आता था वही गुलाम हो जाता था. बौस की सैक्रेटरी राज़ी से भी नीति की अच्छी दोस्ती हो गई थी. राज़ी ने ही बताया था कि बौस अगले हफ़्ते विदेश जाने वाले हैं एक मीटिंग के लिए. औफिस से भी एकदो लोग उन के साथ जाएंगे.

‘अच्छा होता अगर मेरा नंबर लग जाता,’ नीति ने मन ही मन सोचा. और अगले ही दिन पता चला कि बौस के साथ राज़ी और नीति का ही जाना तय हुआ है. पूरे दिन नीति खयालों में ही उड़ रही थी. उस ने कभी सोचा ही नहीं था कि किसी दिन अपने बलबूते पर वह विदेश यात्रा करने के काबिल बन पाएगी. अभी तक सुनती ही आई थी कि औफिस की मीटिंग के लिए लोग विदेश यात्रा करते हैं. जिस में अपना कुछ भी खर्च नहीं होता उलटे दोगुनी तनख्वाह मिलती है. घर पर बताने का मन हुआ लेकिन फिर खयाल आया जाने के दिन ही बता कर चौंकाएगी. पहले से बता दिया तो मम्मीपापा की हिदायतें शुरू हो जाएंगी. शंकाएं उमड़ने लगेंगी. औफिस से अकेली वही क्यों जा रही है? इन सभी खयालों के आते ही उस ने अभी नहीं बताने का पक्का इरादा बना लिया.

शाम को अपने कमरे पर पहुंची ही थी कि मधुकर का फ़ोन आया. अनमने से उस ने फ़ोन उठाया.

“नीति, आप से एक बात कहनी है अगर आप फ़ोन न काटें तो.” नीति कुछ समझ नहीं पाई, इसलिए उस ने कह दिया, “जल्दी बोलो जो बोलना है, अभी औफिस से आई हूं, ज्यादा लंबा भाषण मत देना.”

“ठीक है, सीधे ही कह देता हूं. आप इस विदेश यात्रा के लिए मना कर दीजिए.” मधुकर ने कहा तो नीति लगभग चीखते हुए बोली, “पहले तो यह बताओ तुम्हें कैसे पता कि मैं विदेश जा रही हूं?”

मधुकर ने गुस्सा नहीं किया.

“नीति जी, यह स्वयंसेवी संस्था भी आप के बौस की ही है. उन के पिताजी ने शुरू की थी लेकिन वो रिटायर हो कर अपने गांव चले गए तो अब आप के बौस ही कर्ताधर्ता हैं.”

“तुम्हें क्या समस्या है मेरे विदेश जाने से?” नीति अब भी गुस्से में ही बोल रही थी.

“समस्या मुझे नहीं, आप को होने वाली है. हर साल एक विदेश यात्रा होती है आप के बौस की. औफिस में पता करना. राज़ी तय करती है कि बौस किस के साथ जाएंगे?”

मधुकर की बात बीच में ही काट कर नीति बोली, “वो सैक्रेटरी है बौस की. उस का काम है यह. तुम्हें क्या परेशानी है? मेरी इतनी चिंता क्यों हो रही है?”

नीति फोन काटने ही वाली थी कि मधुकर ने बात पूरी सुनने का आग्रह किया.

“नीति जी, अभी आप को कुछ नहीं बता पाऊंगा, बस, इतना कह सकता हूं कि कोई बहाना बना कर मना कर देंगी तो आप का ही फ़ायदा होगा.”

फ़ोन कट गया पर नीति के दिमाग में हलचल मचा गया. पलंग पर बैठ गई. जिस दिन से मधुकर से मिली थी उस दिन से ले कर नौकरी छोड़ देने तक उसे उस के विरुद्ध कुछ भी ऐसा नहीं याद आ रहा था कि वह उस की बात पर विश्वास नहीं करे. रातभर दिमाग में द्वंद्व चलता रहा. सो भी नहीं पाई. सुबह उठते ही राज़ी को मैसेज किया.

“मम्मी की तबीयत अचानक ख़राब हो गई तो रात में ही घर के लिए निकलना पड़ा. अभी आईसीयू में हैं. जब तक तबीयत संभल नहीं जाती तब तक औफिस नहीं आ पाऊंगी.”

राज़ी का लगातार फोन आ रहा था लेकिन नीति ने बात नहीं की. घर तो नहीं गई लेकिन जब तक विदेश जाने की तारीख़ नहीं निकल गई, औफिस नहीं गई. कोई फोन भी नहीं किया. एक हफ़्ते बाद औफिस गई तो माहौल बदलाबदला सा लग रहा था. राज़ी ख़ुद को कुछ ज्यादा ही व्यस्त दिखाने में लगी हुई थी. बाकी लोग भी जैसे खिंचेखिंचे से लग रहे थे. पहली बार बौस ने किसी बात को ले कर डांट लगाई. कुल मिला कर सबकुछ बदल गया था. कोई भी ठीक से बात करने को तैयार नहीं था. नीति ने राज़ी को समझाना चाहा अपने नहीं जाने की वजह पर उस ने कोई ध्यान ही नहीं दिया.

“नीति आज़ बौस का मूड उखड़ा हुआ है और काम भी बहुत है. तुम नहीं गई, कोई बड़ी बात नहीं. वह मीटिंग वैसे भी कैंसिल हो गई थी.”

नीति ने और कुछ नहीं पूछा. अपने काम में व्यस्त हो गई. बौस के किसी काम को मना करने का क्या मतलब होता है, उसे समझ आ गया था. मधुकर से मैसेज कर के पूछा कि उस ने मना क्यों किया तो उस ने टाला नहीं, बस, छुट्टी वाले दिन मिल कर बताने को कहा.

“फ़ोन पर कही हुई या लिखी गई बात कभी भी सब के सामने आ सकती है, इसलिए बेहतर है कि आमनेसामने बात हो. कई बातों का मतलब तो मैसेज या कौल में गलत ही मान लिया जाता है क्योंकि कहने वाले के चेहरे के भाव छिप जाते हैं. आने वाले रविवार को मिलना तय हुआ.

इस मुलाकात ने मधुकर के प्रति जो गुस्सा था उसे ख़त्म कर दिया. मुलाकात एक स्वयंसेवी संस्था में ही हुई. जगह मधुकर ने ही बताई थी. वहां उस ने महिमा से मिलवाया. उस के गांव की ही लड़की थी. इस शहर में अपना कैरियर बनाने आई थी मगर एक दुर्घटना ने उसे अवसादग्रत बना दिया और नारी निकेतन पहुंचा दिया था. मधुकर उस से मिलने जाता रहता था. महिमा से मिल कर अच्छा लगा लेकिन कुछ ऐसा था जो नीति को नहीं बताया गया था. नीति बारबार यही सोच रही थी.

‘यह पूरी जानकारी नहीं है. बहुतकुछ छिपा है महिमा के चेहरे के पीछे,’ अपने मन की इस बात पर विश्वास कर के नीति ने ठान लिया था कि पता लगा कर रहेगी कि क्यों मधुकर ने महिमा से उसे मिलवाया?

अगले रविवार को फिर से नीति उसी निकेतन में जा पहुंची जहां महिमा रहती थी. वह जानती थी कि मधुकर इतनी जल्दी महिमा से मिलने नहीं जाएगा, इसलिए समय मिलते ही निकल गई. महिमा से इस बार और भी बातें हुई और उसे पता चल गया कि वह यहां कैसे पहुंची. महिमा मधुकर के साथ उस से मिली थी, इसलिए नीति पर उसे विश्वास हो गया था. दूसरे नीति ने अपने आने की सूचना मधुकर को भी नहीं दी थी, इसलिए बिना किसी रोकटोक या सलाह के वह खुल कर नीति से बात कर पाई. वह सबकुछ बता दिया जो मधुकर जानते हुए भी उस से छिपा गया था.

“महिमा तुम्हारी बहन है और व्योम उसी का बेटा है. यही कारण था कि उस का बाकी बच्चों से ज्यादा खयाल रखा जाता था. तुमने अधिराज से इस बारे में बात क्यों नहीं की?”

शाम को फोन पर नीति ने मधुकर से सीधे पूछा. कई महीनों से वह इन बातों के चंगुल में फंसी हुई थी. बाल निकेतन को छोड़ने पर भी उस की जड़ों ने उस का पीछा नहीं छोड़ा था.

“अभी समय नहीं आया है सीधे बात करने का. जब आ जाएगा, ज़रूर करूंगा. मैं तो इस शहर में आया ही उस से बात करने के लिए हूं.”

मधुकर ने दृढ़ता से उत्तर दिया. नीति ने एक और सवाल पूछा.

“मुझ से क्या चाहते हो?”

“अधिराज के मुंह से कबूलनामा कि उस ने मेरी बहन की ज़िंदगी बरबाद की है और व्योम की परवरिश.”

मधुकर ने तुरंत उत्तर दिया.

“यह कैसे संभव होगा?” कुछ सोचते हुए नीति ने पूछा.

“जल्दी ही तुम्हें बताऊंगा कि तुम्हारी ज़रूरत कहां पड़ेगी. तब तक निश्चय कर लो कि तुम इस लड़ाई में महिमा और व्योम के साथ हो.”

कहकर मधुकर ने फ़ोन काट दिया. नीति सोच रही थी कि कैसे बौस के असली चेहरे को देखे क्योंकि मधुकर की योजना में शामिल होने से पहले वह तय करना चाहती थी कि क्या मधुकर सही है? उस ने जो कहानी बताई और दिखाई है वह सच है या फिर अधिराज से मधुकर की कोई व्यक्तिगत दुश्मनी है.

नए साल की शुरुआत के साथ ही औफिस में नए कर्मचारियों की नियुक्तियां शुरू हो गईं. एक लड़की भी आई, सृष्टि. बला की खूबसूरत और बिंदास. उस के आते ही औफिस के पुरुष कर्मचारियों की कार्यक्षमता दोगुनी हो गई. पहले समय पर औफिस पहुंचना और पहले ही निकल जाना एक आम बात थी लेकिन अब सब जल्दी औफिस आते और जब तक सृष्टि नहीं चली जाती, कोई भी नहीं जाता था. पूरे औफिस का माहौल बदल गया था. थोड़े ही दिन बीते कि राज़ी को कंपनी के दूसरे औफिस में भेज दिया गया और उस की जगह सृष्टि ने ले ली. अब बौस से उस का सीधा संपर्क होने लगा तो औफिस में कानाफूसी भी बढ़ने लगी. वह कुछ देर बौस के केबिन में रुक जाती तो सब घड़ियां देखने लगते. एकएक मिनट का हिसाब रखा जाता. जब बाहर आती तो ऐसी नज़रों से उसे देखते जैसे कोई अपराध कर के आई हो.

कई बार नीति का मन होता कि इस माहौल से ख़ुद को निकाल ले पर दूसरी नौकरी मिले बिना, इसे छोड़ नहीं सकती थी. पहली नौकरी छोड़ने के बाद की हालत उसे  अभी भी भूली नहीं थी.

मधुकर का फ़ोन आया और सृष्टि पर नज़र रखने के लिए बोला. कारण, अभी नहीं बता सकता. अगले दिन बौस ने केबिन में बुलाया. उन्होंने भी सृष्टि पर नज़र रखने के लिए ही कहा. एक बार तो नीति को शक हुआ कहीं अधिराज और मधुकर मिले हुए तो नहीं हैं? पर उस का भी कोई सबूत उस के पास नहीं था. दोनों का जितना चरित्र उस के सामने आया था उस में ऐसा कुछ भी नहीं था कि उन दोनों पर शक किया जा सके. फिर गुत्थी क्या है ? बाल निकेतन, नारी निकेतन और यह औफिस जिस में वह काम करती है, कैसे एकदूसरे से जुड़े हुए हैं? महिमा, राज़ी और सृष्टि की क्या भूमिका है? व्योम क्यों बाल निकेतन में रह रहा है? दूसरे बच्चों से ज्यादा खयाल उस का क्यों रखा जाता है? बहुत सारे प्रश्न थे जिन के जवाब नीति चाहती थी लेकिन जितना इन सब के बारे में सोचती उतना ही उलझती जाती थी. नौकरी करनी है तो इस असमंजस की स्थिति में रहना सीखना ही होगा. शायद समय आने पर इन सवालों के जवाब मिल जाएं. इसी उम्मीद में वह काम कर रही थी. साथ ही, दूसरी नौकरी के लिए भी तलाश जारी थी.

नए साल का पहला दिन तो और भी चौंका कर गया. महिमा भी औफिस में वापस आ गई. वापस इसलिए कि पहले वह इसी औफिस में काम करती थी. फिर उस के साथ कुछ दुखद हुआ और वह 2 साल नारी निकेतन में थी. क्या हुआ था, यह कोई भी खुल कर नहीं बोलता था. उस के आने से औफिस में 2 दल बन गए थे. एक था जो समय मिलते ही उस की आलोचना करता और दूसरा जिस में एकदो लोग ही थे या तो चुप रहते या उस के काम की तारीफ़ किया करते. नीति ने महिमा को पहचान लिया था लेकिन उस ने ऐसा ही दिखाया जैसे नीति से वह पहली बार ही मिल रही हो. नीति को थोड़ा अजीब लगा लेकिन उस ने यही समझ लिया कि आजकल सबकुछ अजीब ही घट रहा है उस के जीवन में.

मधुकर के फ़ोन आते और वही चुप रह कर सभी पात्रों पर दृष्टि गड़ाए रखने के निर्देश दिए जाते. बौस से भी अब लगभग रोज़ ही मिलना होता. औफिस के काम के सिवा सृष्टि क्या करती है दिनभर, यह भी रिपोर्ट देनी पड़ती. सृष्टि अभी तक बिंदास फुदकती थी. काम तो दूसरे लोगों से करवा लेती और खुद सजधज, गपशप में व्यस्त रहती. बाकी की कसर बौस की तारीफों के पुल बांध कर पूरी कर लेती. उस का रुतबा बढ़ता ही जाता था. औफिस में कोई ऐसा नहीं था जो दिन में एक बार सृष्टि से मिल न लेता हो. औफिस की महिलाएं भी उस से ज़रूर मिलतीं और बात भी करतीं. यह अलग बात है कि पीठपीछे उस की हमेशा बुराई ही करतीं. सृष्टि को चर्चाओं में बने रहना बखूबी आता था. इस के पीछे उस का क्या मकसद था, यह नीति नहीं समझ पा रही थी. उसे मधुकर और बौस के कहने पर सृष्टि पर नज़र बना कर रखनी पड़ती थी. नौकरी अब दूसरों पर नज़र रखने की ही हो गई थी. कोई विशेष काम उसे नहीं करना पड़ता था. महीने के अंत में तनख्वाह मिल जाती थी. बस, यही एक मकसद बचा था इस नौकरी का. न सीखने को कुछ था और न ही करने को. लगातार दूसरी कंपनियों में आवेदन दे रही थी लेकिन कहीं से भी कोई बुलावा नहीं आता था. उसे कई बार लगता कि इस कंपनी की कोई न कोई नीति ऐसी है कि जब तक कंपनी कर्मचारी को नहीं निकाल देती तब तक दूसरी कंपनी उस के रिज्यूमे पर नज़र नहीं डालती है. दूसरे शहर में आवेदन करने का भी कई बार खयाल आता था पर फिर से नई शुरुआत करने से मन पीछे हट जाता था. मम्मीपापा हर बार बोलते कि सरकारी नौकरी के लिए भी आवेदन करो. थोड़ी तैयारी होगी तो कोई न कोई परीक्षा पास हो ही जाएगी. औफिस के साथ तैयारी का समय ही नहीं बचता था. बड़ी दुविधा में पड़ गई थी नीति.

“नीति, फौरेन इन्वैस्टर्स के साथ एक मीटिंग है. तुम्हें कंपनी में आए हुए एक साल से ज्यादा का समय हो चुका है. कंपनी के बारे में काफ़ीकुछ जान चुकी हो. तुम्हारा नाम भी औफिस से भेजा गया है. तैयार रहना. इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा.”

बौस ने सुबहसुबह बुला कर साफ़ शब्दों में आदेश दिया. न कहने की कोई गुंजाइश नहीं थी. एक बार तो बहुत गुस्सा आया, किसी भी आदेश को बिना जांचेपरखे कैसे माना जा सकता है? पहले से कोई बात नहीं. अचानक से तलवार सिर पर रख दी.

‘इस बार चल कर देखते हैं. ऐसा क्या है इन विदेशी दौरों में?’ इस खयाल ने दिमाग को थोड़ा शांत किया.

आखिर वह दिन भी आया जब नीति एयरपोर्ट पर पहुंच गई. आज़ मन में डर नहीं था बल्कि खुशी थी. उसे खुद समझ नहीं आ रहा था कि उस के साथ ऐसा क्यों हो रहा था. प्लेन में बोर्ड करने की घोषणा हो चुकी थी. जैसे ही नीति बैग उठा कर आगे बढ़ी, फोन बजने लगा. मधुकर का फ़ोन था. वापस आना था क्योंकि अंतिम समय पर मीटिंग कैंसिल होने की सूचना मिली थी.

एयरपोर्ट पर ही एक हौल में पूरी टीम इकट्ठा थी. पुलिस भी आई हुई थी. एकएक कर के सब से पूछताछ चल रही थी. सृष्टि और बौस महिमा और मधुकर.

“हुआ क्या है?” नीति ने मधुकर के पास जा कर पूछा.

“कल पेपर में पढ़ लेना. अभी पुलिस की कार्यवाही पूरी हो जाए, तो घर चले जाना.”

रात जागतेजागते बीती. बहुत दिनों बाद निधि से भी बात की. बारह बजते ही गुगल पर देखा. कुछ नहीं था. सुबह उठते ही पड़ोस वाली आंटी से पेपर ले कर आई.

“स्वयंसेवी संस्था का अध्यक्ष गिरफ्तार”

नीति पूरी ख़बर तेज़ी से पढ़ रही थी लेकिन बौस का नाम नहीं था. किसी वीरेन का नाम लिखा था.

‘शायद नाम बदल दिया है,’ उस ने सोचा. औफिस के ग्रुप में कोई मैसेज नहीं था. डरतेडरते औफिस पहुंची लेकिन सब सामान्य था.

“शुक्रिया नीति मेरी मदद करने के लिए,” महिमा पास आ कर बोली.

“पर किया क्या है मैं ने?” नीति ने थोड़ा दूर हट कर पूछा.

“मधुकर की बात मान कर औफिस में रुकने के लिए,” महिमा ने कृतज्ञता के भाव से कहा.

लेकिन नीति के चेहरे पर शिकन बरकरार थी. उस ने शिकायती लहजे में कहा, “मैं ने तो कुछ किया नहीं. क्या हुआ है, यह भी अभी तक पता नहीं है.”

“वीरेन को पकड़वाने के लिए यह सब चाल चली गई थी. एक नंबर का ऐयाश है. वह संस्था जिस में तुम काम करती थीं उस की और उस के जैसे कुछ ऐयाशों की औलादों को ही पाल रही थी.”

बौस कब आए, नीति को पता ही नहीं चला. उन्होंने आगे कहा, “महिमा उस के चंगुल में फंसी तो हम ने उस की चाल से ही उसे मात दी. कोई भी कांड कर के विदेश भाग जाता था. सृष्टि के जाल में फंस गया और नशे में सबकुछ बोल गया.”

अब नीति को कुछकुछ समझ आ रहा था. सृष्टि पहले चली गई थी. उसी होटल में थी जिस में वीरेन ठहरा हुआ था. उसी ने उस की असलियत उजागर की.

“मुझे आप सृष्टि पर नज़र रखने के लिए क्यों बोलते थे?” नीति ने सीधे पूछ ही लिया.

“यह जानने के लिए कि औफिस में किसी को कुछ पता तो नहीं चला है कि सृष्टि कौन है? वह मेरी दोस्त है, मेरी मदद कर रही थी. अब उस के पापा ने इस कंपनी को खरीद लिया है.”

नीति के दिमाग में एक और प्रश्न था उस स्वयंसेवी संस्था को ले कर.

“पापा रिटायर हो गए हैं तो उस संस्था को संभालेंगे. वीरेन के जाल को हम सब ने मिल कर काट दिया है,” सृष्टि चहकती हुई बोली.

“मैं भी वहीं हूं. वापस आना चाहो, तो आ जाना,” यह मधुकर की आवाज़ थी.

नीति सारी जानकारी जोड़ कर उसे घटना से मिलाने की कोशिश कर रही थी. जो गुनाहगार था वह चेहरा तो देख ही नहीं पाई थी वह.

लेखिका : अर्चना त्यागी

Love Story : दिल की दहलीज पर

Love Story : ‘‘आहा,चूड़े माशाअल्लाह, क्या जंच रही हो,’’ नवविवाहिता मधुरा की कलाइयों पर सजे चूड़े देख दफ्तर के सहकर्मी, दोस्त आह्लादित थे. मधुरा का चेहरा शर्म से सुर्ख पड़ रहा था. शादी के 15 दिनों में ही उस का रूप सौंदर्य और निखर गया था. गुलाबी रंगत वाले चेहरे पर बड़ीबड़ी कजरारी आंखें और लाल रंगे होंठ…

कुछ गहने अवश्य पहने थे मधुरा ने, लेकिन उस के सौंदर्य को किसी कृत्रिम आवरण की आवश्यकता न थी. नए प्यार का खुमार उस की खूबसूरती को चार चांद लगा चुका था.

‘‘और यार, कैसी चल रही है शादीशुदा जिंदगी कूल या हौट?’’ सहेलियां आंखें मटकामटका कर उसे छेड़ने लगीं. सच में मनचाहा जीवनसाथी पा मानों उसे दुनिया की सारी खुशियां मिल गई थीं. मातापिता के चयन और निर्णय से उस का जीवन खिल उठा था.

‘‘वैसे क्या बढि़या टाइम चुना तुम ने अपनी शादी का. क्रिसमस के समय वैसे भी काम कम रहता है… सभी जैसे त्योहार को पूरी तरह ऐंजौय करने के मूड में होते हैं,’’ सहेलियां बोलीं.

‘‘इसीलिए तो इतनी आसानी से छुट्टी मिल गई 15 दिनों की,’’ मधुरा की हंसी के साथसाथ सभी सहकर्मियों की हंसी के ठहाकों से सारा दफ्तर गुंजायमान हो उठा.

तभी बौस आ गए. उन्हें देख सभी चुप हो अपनीअपनी सीट पर चले गए.

‘‘बधाई हो, मधुरा. वैलकम बैक,’’ कहते हुए उन्होंने मधुरा का दफ्तर में पुन: स्वागत किया.

सभी अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए.

‘‘मधुरा, शादी की छुट्टी से पहले जो तुम ने टर्न की प्रोजैक्ट किया था कैरी ऐंड संस कंपनी के साथ, उस का क्लोजर करना शेष है. तुम्हें तो पता हैं हमारी कंपनी के नियम… जो रिसोर्स कार्य आरंभ करता है वही कार्य को पूरी तरह समाप्त कर वित्तीय विभाग से उस का पूर्ण भुगतान करवा कर, फाइल क्लोज करता है. लेकिन बीच में ही तुम्हारे छुट्टी पर जाने के कारण उन का भुगतान अटका हुआ है. उस काम को जल्दी पूरा कर देना,’’ कह कर बौस ने फोन काट दिया.

मधुरा ने फाइल एक बार फिर से देखी. भुगतान के सिवा और कार्य शेष न था. फाइल पूरी करने हेतु उसे कैरी ऐंड संस कंपनी के प्रबंधक जितेन से एक बार फिर मिलना होगा और फिर वह जितेन के विचारों में खो गई.

शाम को घर लौट कर रात के भोजन की तैयारी कर मधुरा अपने कमरे में हृदय के दफ्तर से लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी. समय काटने के लिए उस ने अपनी डायरी उठा ली. पुराने पन्ने पलटने लगी. पुराने पन्ने उसे स्वत: ही पुरानी यादों में ले गए…

29 जुलाई

आज इंप्लोई मीटिंग में बौस ने मेरे काम की तारीफ की. कितनी खुशी हुई, मेरे परिश्रम का परिणाम दिखने लगा है. नए क्लाइंट कैरी ऐंड संस कंपनी का प्रोजैक्ट भी मुझे मिल गया. इस प्रोजैक्ट को मैं निर्धारित समयसीमा में पूरा कर अपने परफौर्मैंस अप्रेजल में पूरे अंक लाऊंगी.

30 जुलाई

क्या बढि़या दफ्तर है कैरी ऐंड संस कंपनी का. मुझे आज तक अपना दफ्तर कितना एवन लगता था, लेकिन आज उन का दफ्तर देख कर मेरे होश फाख्ता हो गए. इंटीरियर डिजाइनर का काम लाजवाब है. इतने बढि़या दफ्तर में अकसर आनाजाना लगा रहेगा. मजा आ जाएगा.

31 जुलाई

सारे विभाग बहुत अच्छी तरह नियंत्रित हैं और आपस में अच्छा समन्वय स्थापित है. कैरी ऐंड संस कंपनी का आईटी विभाग प्रशंसा के काबिल है. आज अपने काम की शुरुआत की मैं ने. लोगों से मिल ली. किंतु जिन के साथ मिल कर काम करना है यानी जितेन, उन से मिलना रह गया. कल उन से भी मिल लूंगी.

1 अगस्त

मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसे हीरो जैसा बंदा दफ्तर में टकराएगा मुझ से.

उफ, कितना खूबसूरत नौजवान है जितेन. लंबाचौड़ा, सुंदर… लगता है सीधे ‘मिल्स ऐंड बून्स’ के उपन्यासों से बाहर आया है… मेरे सपनों का राजकुमार.

6 अगस्त

आज पूरे हफ्ते भर बाद फिर से जितेन से मुलाकात हुई. वे इतना व्यस्त रहते हैं कि मुलाकात ही नहीं हो पाती. इतने ऊंचे पद पर हैं… अभी तक ठीक से बात भी नहीं हो पाई है. पता नहीं कब हम दोनों को बातचीत करने का मौका मिलेगा. अभी तो मैं जितेन को अपने कार्य के बारे में भी ढंग से नहीं बता पाई हूं.

16 अगस्त

जितना देखती हूं उतना ही दीवानी होती जा रही हूं मैं जितेन की. एक बार मेरी ओर देख भर ले वह… मेरी सांस गले में ही अटक जाती है. लगता है जो बोल रही हूं, जो काम कर रही हूं, सब भूल जाऊंगी. इतना स्वप्निल मैं ने स्वयं को कभी नहीं पाया पहले. यह क्या हो जाता है मुझे जितेन के समक्ष. लेकिन वह है कि मुझे समय

ही नहीं देता. बस 4-5 मिनट कुछ काम के बारे में पूछ कर चला जाता है. कब समझेगा वह मेरे दिल का हाल? क्या मेरी आंखों में कुछ नहीं दिखता उसे?

3 सितंबर

आज घर लौटते समय एफएम, पर ‘सत्ते पे सत्ता’ मूवी का गाना सुना, ‘प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया. कि दिल करे हाय, कोई तो बताए क्या होगा… गाड़ी चलाते समय पूरा गला खोल कर गाना गाने का मजा ही कुछ और है…’ फिर आज तो गाना भी मेरे दिल का हाल बयां कर रहा था. न जाने जितेन के साथ पल दो पल कब मिलेंगे और मैं अपने दिल का हाल कब कह पाऊंगी.

हृदय के कमरे में आने की आहट से मधुरा अतीत की स्मृतियों से वर्तमान में लौट आई.

‘‘कैसा रहा दफ्तर में शादी के बाद पहला दिन?’’ हृदय ने पूछा.

मधुरा को हृदय की यह बात भी बहुत भाती थी कि वह उस की हर गतिविधि, हर भावना, हर बात का खयाल रखता है. दोनों ने बातचीत की, खाना खाया और अगली सुबह के लिए अलार्म लगा कर सो गए.

अगले दिन मधुरा अपने क्लाइंट कैरी ऐंड संस कंपनी पहुंची. आज उस ने फाइल क्लोजर की पूरी तैयारी कर ली थी. फाइनल पेमैंट का चैक देने वह जितेन के कक्ष में पहुंची. उस के हाथों में चूड़े देख जितेन ने उसे बधाई दी, ‘‘मुझे आप की कंपनी से पता चला था कि आप अपनी शादी हेतु छुट्टियों पर गई हैं.’’

कार्य पूरा करने के बाद मधुरा ने अपने दफ्तर लौटने के लिए कैब बुला ली. सारे रास्ते उस के मनमस्तिष्क में जितेन घूमता रहा. किस औपचारिकता से बात कर रहा था आज… उसे याद हो आया वह समय जब जितेन और मधुरा की मित्रता भी हो गई थी और वह ‘सिर्फ अच्छे दोस्त’ की श्रेणी से कुछ आगे भी बढ़ चुके थे.

मधुरा तब कैरी ऐंड संस कंपनी जाने के बहाने खोजती रहती. जितेन भी हर शाम उसे उस के दफ्तर से पिक करता और दोनों कहीं कौफी पीते समय व्यतीत करते. दोनों को ही एकदूसरे का साथ बेहद भाता था. मधुरा के चेहरे की चमक बढ़ती रहती और जितेन कुछ गंभीर स्वभाव का होने के बावजूद उसे देख मुसकराता रहता. जितेन आए दिन मधुरा को तोहफे देता रहता. कभी ‘शैनेल’ का परफ्यूम तो कभी ‘हाई डिजाइन’ का हैंडबैग.

‘‘जितेन, क्यों इतने महंगे तोहफे लाते हो मेरे लिए? मैं हर बार घर और दफ्तर में झूठ बोल कर इन की कीमत नहीं छिपा सकती.’’

‘‘तो सच बता दिया करो न… मैं ने कब रोका है तुम्हें?’’

‘‘तुम तो जानते हो कि हमारी कंपनी में भरती के समय हर मुलाजिम से कौंफिडैंशियलिटी ऐग्रीमैंट भरवाया जाता है. चूंकि तुम एक क्लाइंट हो, मैं तुम्हें न तो डेट कर सकती हूं और न ही तुम से शादी. इतना ही नहीं मैं तुम्हारी कंपनी अगले 2 वर्षों तक भी जौइन नहीं कर सकती हूं… तुम से शादी के बाद मैं नौकरी से त्यागपत्र दे कहीं और नौकरी ढूंढ़ूंगी…’’

‘‘शादी के बाद? हैंग औन,’’ मधुरा की बात को बीच में ही काटते हुए जितेन ने कहा, ‘‘शादी तक कहां पहुंच गईं तुम? हम एक कपल हैं, बस, मैं अभी शादीवादी के बारे में सोच भी नहीं सकता… वैसे भी शादी तो मां अपने सर्कल की किसी लड़की से करवाना चाहेंगी… तुम समझ रही हो न?’’

मधुरा के माथे पर चिंता की लकीरें और चेहरे पर असमंजस के भाव पढ़ कर जितेन ने आगे कहा, ‘‘तुम इस समय का लुत्फ उठाओ न… ये महंगे तोहफे, ये बढि़या रेस्तरां, अथाह शौंपिंग… ये सब तुम्हें खुश करने के लिए ही तो हैं… कूल?’’

उस शाम मधुरा को पता चला कि सामाजिक स्तर का भेदभाव केवल कहानियों में नहीं, अपितु वास्तविक जीवन में भी है. उस ने सोचा न था कि उसे भी इस भेदभाव का सामना करना पड़ेगा. उस के बाद जब कभी जितेन टकराया, बस एक फीकी सी मुसकान मधुरा के पाले में आई. खैर, उस का भी मन नहीं हुआ कि जितेन से बात करे. उस का मन खट्टा हो चुका था.

फिर उस की मम्मी ने उसे रमा आंटी के बेटे से मिलवाया. अच्छा लगा था मधुरा को वह. खास कर उस का नाम-हृदय. शांत, सुशील और विनम्र. घरपरिवार तो देखाभाला था ही, रहता भी इसी शहर में था. चलो, ‘मिल्स ऐंड बून्स’ के हीरो को भी देख लिया और अब वास्तविकता के नायक को भी. पर क्या करें. जीवन तो वास्तविक है. इस में सपनों से अधिक वास्तविकता का पलड़ा भारी रहना स्वाभाविक है.

जब से मधुरा की मुलाकात हृदय से हुई थी तभी से कितने अच्छे और मिठास भरे मैसेज भेजने लगा था वह. हृदय ने उस का मन पिघला दिया था. जल्दी ही हामी भर दी उस ने इस रिश्ते के लिए. उस की मम्मी और आंटी कितनी खुश हुईं. उस का मन भी खुश था. मन की तहों ने जहां एक तरफ जितेन को छाना था वहीं दूसरी तरफ हृदय को भी टटोल कर देखा था. मधुरा जैसी रुचिर, लुभावनी और मेधावी लड़की आगे बढ़ चुकी थी.

हर अनुभव जीवन में कुछ सबक लाता है और कुछ यादें छोड़ जाता है. चलते रहने का नाम ही जीवन है. मधुरा अपने दफ्तर पहुंच चुकी थी. आज वह अपने परफौर्मैंस अप्रेजल में अपने पूरे किए प्रोजैक्ट को भरने वाली थी.

Hindi Story : अभिषेक – मानस का सवाल सुन अम्मा क्यों विचलित हो गई ?

Hindi Story : ‘बमबम भोले…’ के जयजयकारे लग रहे थे. आगे से आवाज आई तो पीछे से भी जोर से सुर में सुर मिलाया गया.

‘हरहर महादेव…’ भीड़ के बीचोंबीच फंसी लगभग 80 साल की वृद्धा ने सम्मोहन की स्थिति में पुकार लगाई. ऐसा लगता था, वह इस अवस्था में काल पर विजय प्राप्त करने के लिए ही रातभर से भूखीप्यासी लाइन में लगी है.

मानस इस लाइन में 10वें नंबर पर खड़ा था. उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था कि वह यहां क्यों खड़ा है? दर्शन व अभिषेक कर वह ऐसा क्या प्राप्त कर लेगा जो उसे अभी तक नहीं मिल पाया? और जो नहीं भी मिला है, वह क्या आज के ही दिन दर्शन करने से मिलेगा, अन्य किसी दिन क्यों नहीं? ऐसी कई तार्किक बातें थीं जिन पर उस का विचारमंथन चल रहा था. वह था तो तार्किक पर अपनी पत्नी के अंधविश्वासी स्वभाव के सामने असहाय हो जाता था. इसलिए अनमने ही सही, वह भी एक हाथ में पानी से भरा तांबे का लोटा और दूसरे हाथ में बिल्व पत्र लिए रात 12 बजे से ही लाइन में धक्के खा रहा था. उसे स्वयं पर कोफ्त भी हो रही थी कि क्योंकर वह इस कुचक्र में फंस गया. उसे रहरह कर मां पर गुस्सा और पत्नी पर चिढ़ आती थी. उसे लगा कि उस के सारे तर्क मां व पत्नी की आस्था के सामने ढेर हो गए हैं.

लाइन में खड़ेखड़े मानस के पांव दुखने लगे, रहरह कर लगने वाले धक्के उस के विचारों के क्रम को तोड़ डालते थे. वह क्रम जोड़ता पर कुछ ही देर में वह फिर से टूट जाता था. इस टूटने व जुड़ने के क्रम के साथसाथ दर्शनार्थियों की लाइन भी इंच दर इंच आगे रेंग रही थी. मानस ने गति के साथ इस का तालमेल बिठाया तो पाया कि 1 घंटे में वह मात्र 2 फुट ही आगे बढ़ पाया है. उस दिन सोमवती अमावस्या थी. वैसे तो कई सोमवती अमावस्याओं पर उस ने रंगबिरंगे परिधानों से सजे ग्रामीण भक्तों की भीड़ देखी थी पर आज 27 वर्षों बाद बने दुर्लभ संयोग ने भीड़ को कई गुना बढ़ा दिया था. मानस 11 बजे रामघाट पहुंचा. तब घाट पर कीड़ेमकोड़ों की तरह भीड़ नजर आ रही थी जो सिर्फ इस बात का इंतजार कर रही थी कि जैसे ही 12 बजे अमावस लगे वैसे ही क्षिप्रा के पवित्र जल में डुबकी लगा ली जाए. लेकिन नहाने के विचार से ही मानस को उबकाई आने लगी. उसे लगा कि जरा से पानी में लाखों लोग हर डुबकी के साथ अपनी गंदगी पानी में धो लेंगे और उसी पानी में उसे नहाना होगा. वह अचकचा गया. वैसे भी, क्षिप्रा का पानी कब साफ रहता है. सारे शहर की गंदगी का नाला इस ‘पवित्र’ नदी में मिलता ही है, ऊपर से इतने लोगों का स्नान.

उस का जी वापस जाने को हुआ था. सोचा, ‘मां या पत्नी उसे देखने तो आ नहीं रहे हैं, कह दूंगा कि नहा लिया था.’

उस का मन फिरने ही लगा था कि वह एक बार फिर आस्था के आगे नतमस्तक हो गया.

एक जोर के धक्के ने उस की तंद्रा भंग की. वह जोर से चिल्ला पड़ा, ‘‘अरे भाई, धक्के मत मारो, बच्चे और बूढ़े भी लाइन में लगे हैं. ये भक्तों की लाइन है, कोई घासलेट, शक्कर की नहीं.’’

परंतु उस की आवाज संकरे गलियारे के मोड़ को भी पार न कर सकी. मानस ने पीछे गरदन घुमा कर देखा, कतार का कोई ओरछोर नजर नहीं आ रहा था. शायद पीछे वाले मोड़ के बाद खुले मैदान में भी चक्राकार कतार होगी. एकदूसरे को ठेल कर आगे बढ़ने का प्रयास करती भीड़ को पुलिस की लाठी ही संयमित कर सकती थी. फिर से मानस पर तक हावी हो गया. उस ने सोचा, क्या चाहती है यह भीड़? क्या ‘भगवान’ इतने सस्ते हैं कि एक बार चलतेचलते 2 बिल्व पत्रों और छटांकभर जल चढ़ाने से प्रसन्न हो जाएंगे? उस का मन किया कि इस भीड़ में फंसे लोगों में से किसी बनिए से पूछे कि ‘क्या वह आज के इस महादर्शन के बाद कभी डंडी नहीं मारेगा या किसी सूदखोर से पूछे कि क्या वह आज सूद न लेने का प्रण करेगा या फिर किसी वृद्धा से पूछे कि वह ऐसा प्रण कर सकती है कि आज के बाद वह अपनी बहू पर अत्याचार नहीं करेगी? पर अंधश्रद्धा से सराबोर इस भीड़ से इस तरह के प्रश्न करना मूर्खता ही होती, इसलिए वह चुप रहा.

मंदिर के एक ओर बना प्रवेशद्वार 5 मीटर चौड़े गलियारे में खुलता था. यह गलियारा, जिस में कि मानस खड़ा था, डेढ़ सौ मीटर की दूरी पर मंदिर के गर्भगृह में जाने के लिए इस द्वार को 2 मोड़ दिए गए थे. बीचबीच में छोटेछोटे मंदिरों के कारण गलियारा और भी संकरा हो गया था. गलियारा, जहां पर गर्भगृह के लिए खुलता था, वहां नीचे जाने के लिए सीढि़यां थीं. संगमरमर की होने से सीढि़यां धवल प्रकाश में जगमग चमकती थीं. सुबह 4 बजे का समय हो चला था. मानस अपनी जगह से मात्र 5 फुट ही आगे बढ़ पाया था. धक्कामुक्की में थकान के कारण कुछ शिथिलता आ गई थी. हलकीहलकी बारिश भी गरमी को कम नहीं कर पा रही थी. गलियारे में गरमी बढ़ती ही जा रही थी. लोगों के गले खुश्क और कपड़े तरबतर हो रहे थे. लाइन में लगे बच्चों की हिम्मत जवाब दे गई. 10 साल की एक बच्ची बेहाल हो कर गिर गई, शायद गरमी और प्यास के कारण ऐसा हुआ था. पर आगेपीछे खड़े किसी भी भक्त ने अभिषेक के लिए साथ में लिए लोटे से उसे पानी पिलाना उचित न समझा.

‘‘माताजी, इस बच्ची को पानी क्यों नहीं दे देतीं?’’ मानस बोला. माताजी कुछ सोचविचार में पड़ गईं, शायद धर्म का प्रश्न उन के मस्तिष्क में घूम रहा होगा. मानस ने देर न करते हुए अपने लोटे में से थोड़ा सा पानी उस लड़की को पिला दिया. चंद मिनटों बाद ही वह होश में आ गई. ‘‘दादी, दादी, भूख लगी है,’’ लड़की बोली.

अपनी धार्मिक भावना का बलपूर्वक पालन करवाने की गरज से दादी अपनी पोती को भी साथ लेती आई थी, अपने साथसाथ उस से भी उपवास करवाया लगता था. पर नन्ही बच्ची कब तक भूख सहती?

‘‘कहां से आई हो, अम्मा?’’ मानस ने समय गुजारने के लिए पूछा.

वृद्ध महिला कुछ संकोच में पड़ी हुई थी, बोली, ‘‘बेटा, औरंगाबाद से आई हूं.’’

‘‘कोई खास मन्नतवन्नत है क्या?’’ मानस ने बात बढ़ाई.

‘‘हां, इस ‘अभागी’ लड़की का भाई गूंगा है, उसी के लिए आई हूं,’’ वृद्धा ने थकी आवाज में कहा.

‘‘अम्मा, इस में लड़की कैसे अभागी हुई?’’ मानस की आवाज से हलका सा क्रोध झलक रहा था.

‘‘काहे नहीं, बहनों के ‘भाग’ से ही तो भाई का भाग होवे है,’’ वृद्धा ने जोर दे कर कहा.

मानस का जी तो किया कि इस बात पर वृद्धा को खरीखोटी सुना दे पर वह वक्त इस बात के लिए उसे ठीक न जान पड़ा. उस ने एक बार फिर उस समाज को मन ही मन कोसा जो सारे परिवार के दुख के कारण को नारी जाति से जोड़ देता है.

तभी जोर का एक धक्का आया और मानस ने अपनेआप को गलियारे के मोड़ पर खड़ा पाया, जहां से नीचे गर्भगृह में जाने की सीढि़यां शुरू होती हैं. पहले से ही संकरी जगह को बैरिकैड लगा कर और संकरा कर दिया गया था. 2 सालों के बाद ही मानस वहां गया था, उसे वहां की व्यवस्था पर आश्चर्य हो रहा था. इतनी बड़ी भीड़ को संभालने के लिए गलियारे में होमगार्ड के केवल 2 जवान थे, धक्कामुक्की पर नियंत्रण करना उन के वश में नहीं था. मानस के ठीक आगे औरंगाबाद वाली वृद्धा थी. मानस ने जानबूझ कर उस की पोती को बीच में खड़ा कर लिया था, उस के पीछे 3-4 वृद्ध और थे, जिन से वह बीचबीच में बतिया कर रातभर से उन की आस्था की थाह लेने का प्रयास कर रहा था. इसी बीच, जो लाइन धीरेधीरे रेंग रही थी, वह भी बंद हो गई. बताया जा रहा था कि भस्मारती शुरू हो गई है. भोले से रूबरू होने का समय 2 घंटे और आगे खिसक गया. संकरा मोड़ और ऊपर से उमस, उस पर शरीरों की आपसी रगड़, तपिश और जलन को मानस का पोरपोर महसूस कर रहा था. उस ने सोचा, जब उस की यह हालत है तो बच्चों और वृद्धों का क्या हाल होगा. लगता है, ये प्राणी आज ही भोले के दरबार में आवागमन चक्र से मुक्त हो जाएंगे.

भीड़ पर एकएक मिनट भारी था. व्याकुलता बढ़ती ही जाती थी. मुक्त होने पर वह और भीड़ कैसा महसूस करेगी, खुली हवा में कितनी शांति और शीतलता होगी, इस विचार ने कुछ क्षणों का कष्ट कम कर दिया. तभी बाहर दालान में तेजी से बूटों के चलने की आवाजें आईं, उसी के पीछे कई पैरों की पदचाप सुनाई पड़ी. मानस ने महज अंदाजा लगाया, कोई वीआईपी इस दुर्लभ अवसर के पुण्य को अपने खाते में डालने आया होगा. भीड़ की मुक्ति का समय कुछ और आगे बढ़ गया. आधे घंटे बाद फिर उन्हीं बूटों की आवाज गूंजी. ठीक उसी समय लोगों के लिए आगे का मार्ग खोल दिया गया. अकुलाई भीड़ ने बिना आगापीछा सोचे जोर का धक्का मारा. मानस ने आगे खड़ी लड़की का हाथ कस कर पकड़ लिया. बूढ़ी दादी को वह सहारा देता, लेकिन तब तक वह सीढि़यों पर लुढ़क गई थी. मानस ने स्वयं और लड़की को पूरा जोर लगा कर एक तरफ कर लिया. उस के बाद तो एक के बाद एक पके फल की तरह लोग गिरने लगे. मानस को कुछ सूझता, इस के पहले ही एक बड़ा रेला उन सब लोगों के ऊपर से गुजर गया.

वह पागलों की तरह चिल्ला रहा था, ‘‘अरे, आगे… मत बढ़ो. तुम्हारे भाईबंधु दब कर मर रहे हैं.’’

पर उस की कौन सुनता, सभी को भूतभावन के दरबार में जाने की जल्दी थी. जब तक भीड़ को होश आता, तब तक तो अनर्थ हो चुका था. जहां मंदिर में घंटियों का मधुर स्वर गूंजना चाहिए था वहां चारों ओर लोगों का करुणक्रंदन और चीत्कार गूंज रही थी. सभी हतप्रभ थे. मानस एक हाथ से उस लड़की को थामे था, उस के दूसरे हाथ में अभी भी जल से आधा भरा तांबे का लोटा था, जिस से शिवलिंग का अभिषेक करने का उस का मन था.

पर वह कैसे आगे बढ़ता, किस मन से करता अभिषेक? जबकि उस के इर्दगर्द व भीतर प्रलयंकारी तांडव हो रहा था. उस ने पास ही कराह रहे घायल के मुंह में अभिषेक करने की मुद्रा में जलधारा छोड़ दी. यही सच्चा अभिषेक था.

Online Hindi Story : कभी अपने लिए

Online Hindi Story : विमान ने उड़ान भरी तो मैं ने खिड़की से बाहर देखा. मुंबई की इमारतें छोटी होती गईं, बाद में इतनी छोटी कि माचिस की डब्बियां सी लगने लगीं. प्लेन में बैठ कर बाहर देखना मुझे हमेशा बहुत अच्छा लगता है. बस, बादल ही बादल, उन्हें देख कर ऐसा लगता है कि रुई के गोले चारों तरफ बिखरे पड़े हों. कई बार मन होता है कि हाथ बढ़ा कर उन्हें छू लूं.

मुझे बचपन से ही आसमान का हलका नीला रंग और कहींकहीं बादलों के सफेद तैरते टुकड़े बहुत अच्छे लगते हैं. आज भी इस तरह के दृश्य देखती हूं तो सोचती हूं कि काश, इस नीले आसमान की तरह मिलावट और बनावट से दूर इनसानों के दिल भी होते तो आपस में दुश्मनी मिट जाती और सब खुश रहते.

दिल्ली पहुंचने में 2 घंटे का समय लगना था. बाहर देखतेदेखते मन विमान से भी तेज गति से दौड़ पड़ा, एअरपोर्ट से बाहर निकलूंगी तो अभिराम भैया लेने आए हुए होंगे, वहां से हम दोनों संपदा दीदी को पानीपत से लेंगे और फिर शाम तक हम तीनों भाईबहन मां के पास मुजफ्फरनगर पहुंच जाएंगे.

हम तीनों 10 साल के बाद एकसाथ मां के पास पहुंचेंगे. वैसे हम अलगअलग तो पता नहीं कितनी बार मां के पास चक्कर काट लेते हैं. अभिराम भैया दिल्ली में हृदयरोग विशेषज्ञ हैं. संपदा दीदी पानीपत में गर्ल्स कालेज की पिं्रसिपल हैं और मैं मुंबई में हाउसवाइफ हूं. 10 साल से मुंबई में रहने के बावजूद यहां के भागदौड़ भरे जीवन से अपने को दूर ही रखती हूं. बस, पढ़नालिखना मेरा शौक है और मैं अपना समय रोजमर्रा के कामों को करने के बाद अपने शौक को पूरा करने में बिताती हूं. शशांक मेरे पति हैं. मेरे दोनों बच्चे स्नेहा और यश मुंबई के जीवन में पूरी तरह रम गए हैं. मां के पास तीनों के पहुंचने का यह प्रोग्राम मैं ने ही बनाया है. कुछ दिनों से मन नहीं लग रहा था. लग रहा था कि रुटीन में कुछ बदलाव की जरूरत है.

स्नेहा और यश जल्दी कहीं जाना नहीं चाहते, वे कहीं भी चले जाते हैं तो दोनों के चेहरों से बोरियत टपकती रहती है, शशांक सेल्स मैनेजर हैं, अकसर टूर पर रहते हैं. एक दिन अचानक मन में आया कि मां के पास जाऊं और शांति से कम से कम एक सप्ताह रह कर आऊं. शशांक या बच्चों के साथ कभी जाती हूं तो जी भर कर मां के साथ समय नहीं बिता पाती, इन्हीं तीनों की जरूरतों का ध्यान रखती रह जाती हूं, इस बार सोचा अकेली जाती हूं. मां वहां अकेली रहती हैं, हमारे पापा का सालों पहले देहांत हो चुका है. मां टीचर रही हैं. अभी रिटायर हुई हैं.

हम तीनों भाईबहनों ने उन्हें साथ रहने के लिए कई बार कहा है लेकिन वे अपना घर छोड़ना नहीं चाहतीं, उन्हें वहीं अच्छा लगता है. सुबहशाम काम के लिए राधाबाई आती है. सालों से वैसे भी मां ने अपने अकेलेपन का रोना कभी नहीं रोया, वे हमेशा खुश रहती हैं, किसी न किसी काम में खुद को व्यस्त रखती हैं.

हां, तो मैं ने ही दीदी और भैया के साथ यह कार्यक्रम बनाया है कि हम तीनों अपनेअपने परिवार के बिना एक सप्ताह मां के साथ रहेंगे. अपनी हर व्यस्तता, हर जिम्मेदारी से स्वयं को दूर रख कर. कभी अपने लिए, अपने मन की खुशी के लिए भी तो कुछ सोच कर देखें, बस कुछ दिन.

अभिराम भैया को अपने मरीजों से समय नहीं मिलता, दीदी कालेज की गतिविधियों में व्यस्त रह कर कभी अपने स्वास्थ्य की भी चिंता नहीं करतीं, मेरा एक अलग निश्चित रुटीन है लेकिन मेरे प्रस्ताव पर दोनों सहर्ष तैयार हो गए, शायद हम तीनों ही कुछ बदलाव चाह रहे थे. शशांक तो मेरा कार्यक्रम सुनते ही हंस पड़े, बोले, ‘हम लोगों से इतनी परेशान हो क्या, सुखदा?’

मैं ने भी छेड़ा था, ‘हां, तुम लोगों को भी तो कुछ चेंज चाहिए, मैं जा रही हूं, मेरा भी चेंज हो जाएगा और तुम लोगों का भी, बोर हो गई हूं एक ही रुटीन से,’ शशांक ने हमेशा की तरह मेरी इच्छा का मान रखा और मैं आज जा रही हूं.

एअरहोस्टैस की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, मैं काफी देर से अपने विचारों में गुम थी. दिल्ली पहुंच कर जैसे ही एअरपोर्ट से बाहर आई, अभिराम भैया खड़े थे, उन्होंने हाथ हिलाया तो मैं तेजी से बढ़ कर उन के पास पहुंच गई, उन्होंने हमेशा की तरह मेरा सिर थपथपाया, बैग मेरे हाथ से लिया. बोले, ‘‘कैसी हो सुखदा, मान गए तुम्हें, यह योजना तुम ही बना सकती थीं, मैं तो अभी से एक हफ्ते की छुट्टी के लिए ऐक्साइटेड हो रहा हूं, पहले घर चलते हैं, तुम्हारी भाभी इंतजार कर रही हैं.’’

रास्ते भर हम आने वाले सप्ताह की प्लानिंग करते रहे. भैया के घर पहुंच कर स्वाति भाभी के हाथ का बना स्वादिष्ठ खाना खाया. अपने भतीजे राहुल के लिए लाए उपहार मैं ने उसे दिए तो वह चहक उठा. भैया बोले, ‘‘सुखदा, थोड़ा आराम कर लो.’’

मैं ने कहा, ‘‘बैठीबैठी ही आई हूं, एकदम फ्रैश हूं, कब निकलना है?’’

भाभी ने कहा, ‘‘1-2 दिन मेरे पास रुको.’’

‘‘नहीं भाभी, आज जाने दो, अगली बार रुकूंगी, पक्का’’

‘‘हां भई, मैं कुछ नहीं बोलूंगी बहनभाई के बीच में,’’ फिर हंस कर कहा, ‘‘वैसे कुछ अलग तरह का ही प्रोग्राम बना है इस बार, चलो, जाओ तुम लोग, मां को सरप्राइज दो.’’

मैं ने भाभी से विदा ले कर अपना बैग उठाया, भैया ने अपना सामान तैयार कर रखा था. हम भैया की गाड़ी से ही पानीपत बढ़ चले. वहां संपदा दीदी हमारा इंतजार कर रही थीं. ढाई घंटे में दीदी के पास पहुंच गए, वहां चायनाश्ता किया, जीजाजी हमारे प्रोग्राम पर हंसते रहे, अपनी टिप्पणियां दे कर हंसाते रहे, बोले, ‘‘हां, भई, ले जाओ अपनी दीदी को, इस बहाने थोड़ा आराम मिल जाएगा इसे,’’ फिर धीरे से बोले, ‘‘हमें भी.’’ सब ठहाका लगा कर हंस पड़े. दीदी की बेटियों के लिए लाए उपहार उन्हें दे कर हम मां के पास जाने के लिए निकल पड़े. पानीपत से मुजफ्फरनगर तक का समय कब कट गया, पता ही नहीं चला.

मुजफ्फरनगर में गांधी कालोनी में  जब कार मुड़ी तो हमें दूर से ही  अपना घर दिखाई दिया, तो भैया बच्चों की तरह बोले, ‘‘बहुत मजा आएगा, मां के लिए यह बहुत बड़ा सरप्राइज होगा.’’

हम ने धीरे से घर का दरवाजा खोला. बाहरी दरवाजा खोलते ही गेंदे के फूलों की खुशबू हमारे तनमन को महका गई. दरवाजे के एक तरफ अनगिनत गमले लाइन से रखे थे और मां अपने बगीचे की एक क्यारी में झुकी कुछ कर रही थीं. हमारी आहट से मुड़ कर खड़ी हुईं तो खड़ी की खड़ी रह गईं, इतना ही बोल पाईं, ‘‘तुम तीनों एकसाथ?’’

हम तीनों ही मां के गले लग गए और मां ने अपने मिट्टी वाले हाथ झाड़ कर हमें अपनी बांहों में भरा तो पल भर के लिए सब की आंखें भर आईं, फिर हम चारों अंदर गए, दीदी ने कहा, ‘‘यह कार्यक्रम सुखदा ने मुंबई में बनाया और हम आप के साथ पूरा एक हफ्ता रहेंगे.’’

मां की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, हमारे सुंदर से खुलेखुले घर में मां अकेली ही तो रहती हैं. हां, एक हिस्सा उन के किराएदार के पास है. मां के मना करने पर भी हम दोनों मां के साथ किचन में लग गईं और भैया थोड़ी देर सो गए. इतनी देर गाड़ी चलाने से उन्हें कुछ थकान तो थी ही. फिर हम चारों ने डिनर किया, अपनेअपने घर सब के हालचाल लिए. सोने को हुए तो बिजली चली गई, मां को फिक्र हुई, बोलीं, ‘‘तुम तीनों को दिक्कत होगी अब, इनवर्टर भी खराब है, तुम लोगों को तो ए.सी.  की आदत है. मैं तो छत पर भी सो जाती हूं.’’

संपदा  दीदी ने कहा, ‘‘मां, मुझ से छत पर नहीं सोया जाएगा.’’

भैया बोले, ‘‘फिक्र क्यों करती हो दीदी, चल कर देखते हैं.’’ और हम चारों अपनीअपनी चटाई ले कर छत पर चले गए. हम छत पर क्या गए, तनमन खुशी से झूम उठा. क्या मनमोहक दृश्य था, फूलों की मादक खुशबू छाई हुई थी, संदली हवाओं के बीच धवल चांदनी छिटकी हुई थी. हम सब खुले आसमान के नीचे चटाई बिछा कर लेट गए, फ्लैटों में तो कभी छत के दर्शन ही नहीं हुए थे. खुले आकाश के आंचल में तारों का झिलमिल कर टिमटिमाना बड़ा ही सुखद एहसास था. बचपन में मां ने कई बार बताया था, ठीक 4 बजे भोर का तारा निकल आता है.

‘‘प्रकृति में कितना रहस्य व आनंद है लेकिन आज का मनुष्य तो बस, मशीन बन कर रह गया है. अच्छा किया तुम लोग आ गए, रोज की दौड़भाग से तुम लोगों को कुछ आराम मिल जाएगा,’’ मां ने कहा.

प्राकृतिक सुंदरता को देखतेदेखते हम कब सो गए, पता ही नहीं चला जबकि ए.सी. में भी इतना आनंद नहीं था. सब ने सुबह बहुत ही तरोताजा महसूस किया. जैसे हम में नई चेतना, नए प्राण आ गए थे. गमले के पौधों की खुशबू से पूरा वातावरण महक रहा था. रजनीगंधा व बेले की खुशबू ने तनमन दोनों को सम्मोहित कर लिया था. हम नीचे आए, मां नाश्ता तैयार कर चुकी थीं. भैया अपनी पसंद के आलू के परांठे देख कर खुश हो गए. उत्साह से कहा, ‘‘आज तो खा ही लेता हूं, बहुत हो गया दूध और कौर्नफ्लेक्स का नाश्ता.’’

मैं ने कहा, ‘‘मां, मुझे तो कुछ हलका ही दे दो, मुझे सुबह कुछ हलका ही लेने की आदत है.’’

दीदी भी बोलीं, ‘‘हां, मां, एक ब्रैडपीस ही दे दो.’’

अभिराम भैया ने टोका, ‘‘यह पहले ही तय हो गया था कि कोई खानेपीने के नखरे नहीं करेगा, जो बनेगा सब एकसाथ खाएंगे.’’

मां हंस पड़ीं, ‘‘क्या यह भी तय कर के आए हो?’’

दीदी बोलीं, ‘‘हां, मां, सुखदा ने ही कहा था, दीदी आप अपना माइग्रेन भूल जाना और मैं कमरदर्द तो मैं ने इस से कहा था, तू भी फिगर और ऐक्सरसाइज की चिंता मुंबई में ही छोड़ कर आना.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, चलो, चारों नाश्ता करते हैं.’’

हम ने डट कर नाश्ता किया और फिर मां के साथ किचन समेट कर खूब बातें कीं.

राधाबाई आई तो हम तीनों बाजार घूमने चले गए. दिल्ली, मुंबई के मौल्स में घूमना अलग बात है और यहां दुकानदुकान जा कर खरीदारी करना अलग बात है. हम तीनों ने अपनेअपने परिवार के लिए कुछ न कुछ खरीदा, फोन पर सब के हालचाल लिए और फिर अपनी मनपसंद जगह ‘गोल मार्किट’ चाट खाने पहुंच गए. हमारा डाक्टर भाई जिस तरह से हमारे साथ चाट खा रहा था, कोई देखता तो उसे यकीन ही नहीं होता कि वह अपने शहर का प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ है. ढीली सी ट्राउजर पर एक टीशर्ट पहने दीदी को देख कर कौन कह सकता है कि वे एक सख्त पिं्रसिपल हैं, मैं ये पल अपने में संजो लेना चाहती थी, दीदी ने मुझे कहीं खोए हुए देख कर पूछा भी, ‘‘चाट खातेखाते हमारी लेखिका बहन कोई कहानी ढूंढ़ रही है क्या?’’ मैं हंस पड़ी.

हम तीनों ने मां के लिए साडि़यां खरीदीं और खाने का काफी सामान पैक करवा कर घर आए. बस, अब हम तीनों मां के साथ बातें करते, चारों कभी घूमतेफिरते ‘शुक्रताल’ पहुंच जाते कभी बाजार. भैया ने अपने मरीजों से, दीदी ने कालेज से और मैं ने अपने गृहकार्यों से जो समय निकाल लिया था, उसे हम जी भर कर जी रहे थे. शाम होते ही हम अपनी चटाइयां ले कर छत पर पहुंच जाते, इनवर्टर ठीक हो चुका था लेकिन छत पर सोने का सुख हम खोना नहीं चाहते थे. अपनी मां के साथ हम तीनों छत पर साथ बैठ कर समय बिताते तो हमें लगता हम किसी और ही दुनिया में पहुंच गए हैं.

मैं सोचती महानगर में सोचने का वक्त भी कहां मिलता है, अपनी भावनाओं को टटोलने की फुरसत भी कहां मिलती है. शाम की लालिमा को निहार कर कल्पनाओं में डूबने का समय कहां मिलता है, सुबह सूरज की रोशनी से आंखें चार करने का पल तो कैद हो जाता है कंकरीट की दीवारों में.

दीदी अपना माइग्रेन और मैं अपना कमरदर्द भूल चुकी थी. आंगन में लगे अमरूद के पेड़ से जब भैया अमरूद तोड़ कर खाते तो दृश्य बड़ा ही मजेदार होता.

छठी रात थी. कल जाना था, छत पर गए तो लेटेलेटे सब चुप से थे, मेरा दिल भी भर आया था, ये दिन बहुत अच्छे बीते थे, बहुत सुकून भरे और निश्चिंत से दिन थे, ऐसा लगता रहा था कि फिर से बचपन में लौट गए थे, वही बेफिक्री के दिन. सच ही है किसी का बचपन उम्र बढ़ने के साथ भले ही बीत जाए लेकिन वह उस के सीने में सदैव सांस लेता रहता है. यह संसार, प्रकृति तो नहीं बदलती, धूपछांव, चांदतारे, पेड़पौधे जैसे के तैसे अपनी जगह खड़े रहते हैं और अपनी गति से चलते रहते हैं. वह तो हमारी ही उम्र कुछ इस तरह बढ़ जाती है कि बचपन की उमंग फिर जीवन में दिखाई नहीं देती.

मां ने मुझे उदास और चुप देखा तो मेरे लेखन और मेरी प्रकाशित कहानियों की बातें छेड़ दीं क्योेंकि मां जानती हैं यही एक ऐसा विषय है जो मुझे हर स्थिति में उत्साहित कर देता है. मुझे मन ही मन हंसी आई, बच्चे कितने भी बड़े हो जाएं, मां हमेशा अपने बच्चों के दिल की बात समझ जाती है. मां ने मेरी रचनाओं की बात छेड़ी तो सब उठ कर बैठ गए. मां, दीदी, भैया वे सब पत्रिकाएं जिन में मेरी रचनाएं छपती रहती हैं जरूर पढ़ते हैं और पढ़ते ही सब मुझे फोन करते हैं और कभीकभी तो किसी कहानी के किसी पात्र को पढ़ते ही समझ जाते हैं कि वह मैं ने वास्तविक जीवन के किस व्यक्ति से लिया है. फिर सब मुझे खूब छेड़ते हैं. कुछ हंसीमजाक हुआ तो फिर सब का मन हलका हो गया.

जाने का समय आ गया, दिल्ली से ही फ्लाइट थी. मां ने पता नहीं क्याक्या, कितनी चीजें हम तीनों के साथ बांध दी थीं. हम तीनों की पसंद के कपड़े तो पहले ही दिलवा लाईं. अश्रुपूर्ण नेत्रों से मां से विदा ले कर हम तीनों पानीपत निकल गए, रास्ते में ही अगले साल इसी तरह मिलने का कार्यक्रम बनाया, यह भी तय किया परिवार के साथ आएंगे, यदि बच्चे आ पाए तो अच्छा होगा, हमें भी तो अपने बच्चों का प्रकृति से परिचय करवाना था, हमें लगा कहीं महानगरों में पलेबढ़े हमारे बच्चे प्रकृति के उस रहस्य व आनंद से वंचित न रह जाएं जो मां की बगिया में बिखरा पड़ा था और अगर बच्चे आना नहीं चाहेंगे तो हम तीनों तो जरूर आएंगे, पूरे साल से बस एक हफ्ता तो हम कभी अपने लिए निकाल ही सकते हैं, मां के साथ बचपन को जीते हुए, प्रकृति की छांव में.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें