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Bollywood : क्या फिल्मों में कंटैंट क्रिएशंस हो गया है मुश्किल ?

Bollywood : पिछले कुछ सालों में बौलीवुड कलाकारों और फिल्मकारों की एक एक नई फौज खड़ी हो गई है जो कंटैंट के नाम पर धर्म ही परोस रहा है. यह फिल्में गुणवत्ता के स्तर पर वाहियात फिल्में होती हैं. आखिर कटैंट क्रिएशन में बौलीवुड धंसता क्यों जा रहा है?

बौलीवुड में कलाकार, निर्माता, निर्देशक, लेखक, डांस डायरेक्टर सभी एक ही रट लगाए रहते हैं कि कंटैंट इज किंग यानी कि कंटैंट ही राजा है. कंटैंट का मतलब फिल्म की कहानी. इस के बावजूद फिल्में बौक्स औफिस पर बुरी तरह से असफल हो रही हैं. इस का मतलब यही है कि लोग भले ही ‘कंटैंट इज किंग’ चिल्ला रहे हैं, मगर कंटैंट/ कहानी पर किसी का ध्यान नहीं है.

सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या अब बौलीवुड में कंटैंट क्रिएशन बहुत मुश्किल हो गया है. इस का आसान सा जवाब यह है कि बौलीवुड के अंदर कारपोरेट व स्टूडियो सिस्टम के चलते क्रिएटिव काम करने वालों को सही ढंग से काम नहीं करने दिया जा रहा है, काम सिर्फ वही कर पा रहे हैं जो कि कारेपोरेट जगत में एमबीए की पढ़ाई कर आए लोगों के साथ बैठक करते बहुत अच्छी अंगरेजी झाड़ते हों. बातबात में ‘कूल’ शब्द के अलावा भद्दी गाली देना जानते हों.

1937 की बात है. के एल सहगल ने सोहराब मोदी से कमाल अमरोही की मुलाकात कराते हुए बताया था कि कमाल अमरोही हिंदी और उर्दू में बेहतरीन कविताएं व कहानियां लिखते हैं. इस पर सोहराब मोदी ने कमाल अमरोही को दूसरे दिन अपने औफिस में कहानी सुनाने के लिए पूरी स्क्रिप्ट के साथ बुलाया, क्योंकि सोहराब मोदी को अपनी नई फिल्म के लिए एक अच्छी कहानी की तलाश थी. लेकिन कमाल अमरोही के पास लिखी हुई स्क्रिप्ट नहीं थी, तो वह एक खाली डायरी ले कर औफिस पहुंचे, क्योंकि वह जानते थे कि ऐसे ही कहानी सुनाने पर बात नहीं बनेगी.

जब सोहराब मोदी ने उन से कहानी सुनाने को कहा, तो वह खाली डायरी देख कर कहानी सुनाने लगे. वह कहानी सोहराब मोदी को पसंद आई, तो उन्होंने डायरी मांग ली. अब कमाल अमरोही को अपनी डायरी देनी पड़ी. सोहराब मोदी ने वह डायरी ले कर खोला तो उस के सारे पन्ने खाली थे. यह देख वह दंग रह गए, लेकिन इस झूठ में ही सोहराब मोदी, कमाल अमरोही का हुनर भांप गए. उन्होंने कमाल को 750 रुपए दे कर उन के साथ कान्ट्रैक्ट साइन कर लिया था.

कमाल अमरोही ने सोहराब मोदी के लिए पहली फिल्म ‘जेलर’ लिखी थी, जिस ने सफलता के नए आयाम स्थापित किए थे. उस के बाद कमाल अमरोही ने ‘छलिया’, ‘पुकार’, ‘प्यार की ज्योत’, ‘मैं हरी’, ‘भरोसा’, ‘मजाक’, ‘पागल’, ‘फूल’, ‘शहजादिया’, ‘रोमियो एंड जूलिएट’, ‘साकी’, ‘दिल अपना प्रीत पराई’, के आसिफ की फिल्म ‘मुगल ए आजम’, ‘जिंदगी और ख्वाब’ सहित कई सफलतम फिल्मों का लेखन किया.

यह वही कमाल अमरोही हैं, जिन्होंने बाद में भारत की पहली हौरर फिल्म ‘महल’ के अलावा ‘दायरा’, ‘पाकीजा’ व ‘रजिया सुल्तान’ इन 4 फिल्मों का लेखन के साथ निर्देशन भी किया. लेकिन कमाल अमरोही ने अपनी व मीना कुमारी की प्रेम कहानी पर फिल्म ‘दायरा’ लिखी और उस का निर्देशन किया, जिसे दर्शकों ने नकार दिया था. क्योंकि तब तक दर्शक इन की निजी जीवन की प्रेम कहानी से वाकिफ हो चुका था. मतलब दर्शक को अच्छी, मौलिक व मनोरंजक कहानियां चाहिए. दर्शक सिनेमा के परदे पर महज खूंखार एक्शन, खून खराबा या सैक्स नहीं देखना चाहता.

1932 में बौलीवुड से बतौर अभिनेत्री जुड़ने वाली दुर्गा खोटे के नाम से तोसभी परिचित होंगे. यह बौलीवुड की पहली ग्रेजुएट अभिनेत्री थी, जिन का हिंदी, मराठी व अंगरेजी भाषा पर अधिकार था. उन्होंने 1937 में हिंदी फिल्म ‘साथी’ का निर्माण व निर्देशन किया था, जिस ने सफलता के रिकार्ड बनाए थे. उस के बाद वह जब तक जीवित रही, उनका प्रोडक्शन हाउस ‘दुर्गा खोटे प्रोडक्शन’ लगातार फिल्म या सीरियल बनाता रहा, जबकि वह अभिनेत्री के तौर पर सफलता बटोरती रहीं. यह वह दौर था, जब भारतीय सिनेा निरंतर प्रगति करता रहा. इस की मूल वजह यह थी कि दुर्गा खोटे हों या कमाल अमरोही हों, यह सभी अपनी भाषा और अपनी जड़ों से जुड़े रहे. दुर्गा खोटे से तो हमारी कई मुलाकातें रही हैं, वह हमेशा हिंदी में ही बातें करती थीं.

70, 80 और 90 के दशक में ख्वाजा अहमद अब्बास, पंडित नरेंद्र शर्मा, इंदीवर, राजेंद्र सिंह बेदी, सलीम जावेद जैसे लेखक बौलीवुड से जुड़े रहे और इन सभी ने बेहतरीन फिल्मों का लेखन किया. सलीम जावेद ने हमेशा केवल एक पेज की ही कहानी लिख कर निर्माता निर्देशक को दी, पर इन लेखकों के लेखन व कहानियों में वह जादू था कि सिनेमाघर में फिल्म के रिलीज होने पर ब्लैक में टिकटें बिकती थीं.

80 या यों कहें कि कुछ हद तक नब्बे के दशक तक के लेखकों पर नजर दौड़ाई जाए तो यह सभी फिल्म लेखक उच्च शिक्षित, हिंदी व उर्दू भाषा के जानकार थे. इन्हे भारतीय सभ्यता, संस्कृति व इतिहास की भी अच्छी खासी समझ थी. इन्होंने ढेर सारा हिंदी साहित्य पढ़ा हुआ था या लगातार पढ़ रहे थे. यह लेखक हिंदी में ही सोचते और हिंदी में ही लिखते थे. बलदेव राज चोपड़ा उर्फ बी आर चोपड़ा या मेहुल कुमार जैसे कई फिल्म लेखक व निर्देशक पहले पत्रकारिता कर चुके थे, तो इन्हें देश व समाज के हालात की बारीक समझ व गहन जानकारी थी. यही वजह है कि बी आर चोपड़ा या मेहुल कुमार की हर फिल्म बौक्स औफिस पर धमाल मचाती रही.

हम यहां याद दिला दें कि कमाल अमरोही भी लाहोर में एक दैनिक अखबार में लेखन कर चुके थे. कहने का अर्थ यह कि बौलीवुड में कंटैंट की कमी नहीं थी. कटैंट क्रिएशन धड़ल्ले से हो रहा था क्योंकि यह लोग हिंदी में ही सोचते थे. हिंदी में ही काम करते थे और हिंदी में ही बात करते थे. यह सभी हिंदी भाषा की किताबें, साहित्य पढ़ते थे. दूर दराज इलाके की यात्रा किया करते थे.

अंगरेजीदां कौम ने किया कंटैंट का बंटाधार

लेकिन नब्बे के दशक के बाद और खासकर कारपोरेट जगत की बढ़ती भागेदारी व स्टूडियो सिस्टम के आने के बाद कंटैंट क्रिएशन करना बहुत मुश्किल हो गया है. इस की मूल वजह कंटैंट क्रिएटरों की बैक ग्राउंड /पृष्ठभूमि है. नब्बे के दशक के बाद बौलीवुड में अंगरेजीदां जमात का बोलबाला हो गया. बतौर लेखक ऐसे लोग आ गए हैं, जिन का हिंदी भाषा या देश या गांव या समाज से कभी वास्ता नहीं रहा. इन में से कुछ वह हैं जो कि अमरीका या इग्लैंड जा कर वहां अंगरेजी भाषी फिल्म मेकिंग स्कूल व हौलीवुड की अंगरेजीदां फिल्में देखते हुए फिल्म मेकिंग व राइटिंग का कोर्स कर के आ गए. ऐसे लोगों को यही नहीं पता है कि ‘इमोशन’ क्या है? क्योंकि इन्होंने तो मशीनी जिंदगी का ही अनुकरण किया है.

हौलीवुड फिल्मों में भी इमोशनल दृष्य नहीं होते. परिणामतः इन के कंटैंट क्रिएशन / कहानी लेखन में इमोशन कोसों दूर रहता है. कुछ लोग वह हैं जो कि मुंबई या हैदराबाद जैसे महानगरों में रहते हुए अंगरेजी भाषा से उच्च शिक्षा हासिल कर बौलीवुड में कहानियां लिख रहे हैं. कारपोरेट में बैठा एमबीए पास, जिसे खुद सिनेमा की कोई समझ नहीं है, वह इन अंगरेजीदां लेखकों से भर्राटेदार अंगरेजी में कहानी सुन कर इन्हें फिल्म अलोट करता रहता है.

कहानी का खरीददार गायब

कहने का अर्थ यह है कि अच्छी फिल्में बन सके, इस के लिए अच्छा कंटैंट क्रिएशन इसलिए भी मुश्किल हो गया है, क्योंकि कहानी के खरीददार ही खत्म हो गए हैं. कहानी के जो खरीददार हैं, उन का हिंदी भाषा से बैर है. ऐसे में वह कहानियां पढ़ते ही नहीं हैं. वह कहानी इसलिए भी नहीं पढ़़ते, क्योंकि उन्हें कहानी, कल्चर, त्योहार, पहनावे, बोली की कोई जानकारी या समझ ही नहीं है. उन का समय तो एअर कंडीशन कमरों में बैठ कर हुल्लड़बाजी करते हुए या कागज पर बैलेंस सीट बनाते हुए कि फलां कलाकार को लें तो इस टेरेटरी मे फिल्म चल जाएगी या इस ओटीटी पर फिल्म इतने में बिक जाएगी इसी में बीतता है.
उस के बाद वह निर्देशक वगैरह के साथ फाइव स्टार होटलों में मीटिंग करता नजर आता है. कहानी सुनने की बजाय एक ही सवाल करता है कि वह किस कलाकार को ला सकता है वगैरहवगैरह. तो ऐसे में आप यह कल्पना कैसे कर सकते हैं कि यहां लोग अच्छा कंटैंट क्रिएशन करना चाहते हैं अथवा कहानी सुनना व कहानी खरीदना चाहते हैं.

हालात यह हैं कि सारा काम कागज पर दर्ज बायोडाटा से होता है. जिस में यह भी लिखना होता है कि उस के सोशल मीडिया पर कितने फौलोवर्स हैं. बौलीवुड में एक मशहूर फिल्म लेखक व निर्देशक हैं, जो कि 48 सुपरहिट फिल्में बना चुके हैं. एक दिन एक स्टूडियो के सीईओ की उन से मुलाकात हो गई. उस ने उन की फिल्में देख रखी थी. तो उन से फिल्मकार के फिल्म बनाने की इच्छा जाहिर की. फिर उस ने फिल्मकार से अपने औफिस में कहानी भेजने के लिए कह दिया. फिल्मकार ने उस के औफिस में फाइल भेजी तो कंटैंट हेड ने दो बार उस फाइल के पन्ने बड़े गौर से पलटे. फिर फाइल ले कर गए शख्स से कहा कि इस में तो इन का बायोडाटा ही नहीं. ऐसे में इन की योग्यता कैसे पता चलेगी. आप इसे ले जाइए, बायोडाटा के साथ फाइल जमा कीजिए. जब निर्देशक को यह बात पता चली तो उस ने सोचा कि जिस कंटैंट हेड को मेरा नाम ही नहीं पता, उस के हाथ में फिल्म की कहानी देने का कोई अर्थ ही नहीं है.

सारा दोश इन एमबीए पास लोगों का नहीं है, बल्कि शिक्षा का भी है. इन के पास सिर्फ डिग्रियां हैं, जो कि मशीनी तरीके से कमा करना जानती हैं. इन्हें कहानी क्या होती है, यही नहीं पता. हमारे देश में ऐसेऐसे अंगरेजीदां स्कूल आ गए हैं जहां हिंदी में बात करना गुनाह समझा जाता है. ऐसे प्राइमरी अंगरेजीदां स्कूल में मातापिता अपने बच्चों की दो पांच लाख रूपए फीस दे कर शिक्षा दिलाते हैं. फिर विदेश भेजने की सोचने लगते हैं. जब विदेश से शिक्षा ग्रहण कर वह वापस आता है, तो खुद को ही खुदा समझने लगता है.

उसे लगता है कि भारत या यूं कहें कि बौलीवुड के फिल्मकारों को सिनेमा बनाना नहीं आता और वह ऐसा सिनेमा बनाने लगते हैं, जिस में कहानी नहीं होती. सिर्फ एक्शन व वीएफएक्स का कमाल ही होता है. फिलहाल सच यही है कि कहानी चुनने की जिम्मेदारी जिन के कंधों पर कारेपोरेट कंपनियों या स्टूडियो में है, उन्होंने ते ठीक से मुंबई शहर को यहां के लोगों को भी नहीं देखा. ऐसे में इन्हें कहानी की क्या समझ हो सकती है. इसी के चलते यह लोग कहानी की तलाश नहीं करते हैं, बल्कि सिर्फ जोड़तोड़ करते हैं.

लेकिन कुछ लोग हमेशा अच्छी कहानियों या अच्छे लेखकों के अभाव का रोना रोते रहते हैं. पर जब कोई अच्छा लेखक उन के पास अच्छी कहानी ले कर पहुंचता है, तो उन के पास कहानी सुनने का वक्त नहीं होता. वह तो अति व्यस्त होते हैं. ऐसे में वह लेखक से कह देते हैं कि उन्हें कहानी को रोमन इंग्लिश में लिख कर ईमेल कर दें, वह पढ़ कर सूचना देंगें. बेचारा लेखक कहानी को रोमन इंग्लिश में बदल कर ईमेल कर देता है, पर उसे कभी जवाब नहीं मिलता क्योंकि फिल्मकार कहानी पढ़ता ही नहीं है. वह तो कलाकार की या स्टूडियो में या ओटीटी प्लेटफार्म पर बैठे लोगों के साथ नेटवर्किंग में ही व्यस्त रहता है.

कलाकार न कहानी सुनना चाहता है और न ही कहानी या किरदार समझना चाहता है

सिर्फ फिल्म निर्माता व निर्देशक ही नहीं फिल्म कलाकार भी कहानी सुनना पसंद नहीं करते. कलाकार भी एक ही रट लगाता नजर आता है कि कहता है कि उन्हें कहानी ईमेल कर दो या कहानी उन के बिजनेस मैनेजर या सेक्रेटरी को ईमेल कर दो. अब ईमेल पर भेजी गई कहानी कब कौन पढ़ता है, या यूं ही डिलीट हो जाती है किसे पता कहने के लिए तो हर कलाकार के पास लंबीलंबी विदेशी डिग्रियां हैं, मगर इन्हें हिंदी में बात करना पसंद नहीं. पत्रकार हिंदी में सवाल करेगा, तो भी वह जवाब इंग्लिश में ही देता है. कई बार हमें कलाकार से बात करते हुए उस की बुद्धिमत्ता पर शक होने लगता है. अब तो कलाकार पहले से अपने पीआरओ की मदद से कुछ जवाब रट कर रखता है और अगर उस से कुछ अलग सवाल कर दिया जाए तो वह जवाब देने की बजाय पीआरओ का मुंह ताकने लगता है.

पीआरओ कह देता है कि इस सवाल का जवाब नहीं मिलेगा. 2000 से पहले तक धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन, जीतेंद्र, गुलशन ग्रोवर, प्रेम चोपड़ा, प्राण, शत्रुघ्न सिंन्हा या शाहरुख खान जैसे लगभग सभी कलाकार अपनी फिल्म को ले कर कहानी व किरदार पर कई घंटे तक पत्रकार से बात करते थे क्योंकि वह स्वयं फिल्म में अभिनय करना स्वीकार करने से पहले कहानी व स्क्रिप्ट विस्तार में सुनते व समझते थे. वर्तमान समय में हर कलाकार फिल्म प्रमोशन के नाम पर शहर शहर दौड़ लगाते हुए ईवेंट में सिर्फ नाचगा कर घर में डुबक जाता है. वह अपनी फिल्म को ले कर पत्रकार को इंटरव्यू ही नहीं देना चाहता. अगर मजबूरन किसी पत्रकार से बात करनी पड़़ जाए, तो एक लाइन में फिल्म की कहानी को ले कर एक लाइन ही बोलता है.

किरदार के बारे में भी एक ही लाइन बताता है. उस के बाद वह कहता है कि इस से ज्यादा बता कर वह दर्शकों का फिल्म देखने का मजा किरकिरा नहीं करना चाहता. कलाकार के इस रवैए की मूल वजह यह है कि अब कलाकार सिर्फ पैसा देखता है. बिजनेस मैनेजर या बिजनेस संभालने वाली कंपनी पैसा तय कर देती हैं. कलाकार सेट पर जाता है, निर्देशक ने जो कहा, उस में से जो समझ में आया वह कर दिया. क्योंकि उस ने न कहानी सुनी होती है और न किरदार जानता है. सेट पर भी पूरी यूनिट केवल अंगरेजी झाड़ती रहती है.

हम नाम नहीं लेना चाहते अभी कुछ दिन पहले की बात है. एक मशहूर स्टार कलाकार अपना बिजनेस संभालने वाली कंपनी के मुखिया से कह रहा था, ‘‘आप मेरे लिए फिल्म की तलाश करने की बाजय हर माह दोतीन एड दिलाओ, जिन की दो तीन दिन में शूटिंग करने के बाद 25 30 करोड़़ घर ले जा कर आराम करुं. मुझे कहानी सुनना बहुत बोरिंग लगता है तो वहीं इन दिनों एक सुपरस्टार का बेटा विदेशों में अभिनय व फिल्म मेकिंग की शिक्षा ले कर आया है, उसे हिंदी बोलनी नहीं आती. किसी भी सवाल का जवाब देने पर वह फौंडी हंसी हंसता है, फिर अंगरेजी में ऐसे बोलता है जैसे वह पत्थर तोड़ रहा हो.

एक सुपरस्टार के बेटे को तो यह तमीज नहीं है कि किसी बड़े इंसान के सामने किस तरह बैठा जाए. एक दिन एक अति मशहूर निर्देशक उस सुपरस्टार के बेटे को कहानी सुनाने उस के औफिस में गया, तो वह अदना सा कलाकार जिस की एक भी फिल्म रिलीज नहीं हुई थी, वह उस मशहूर निर्देशक की तरफ टेबल पर अपने पैर रख कर बैठते हुए अंगरेजी कहा कि ‘बताएं आप किस तरह की कहानी सुनाना चाहते हैं.’ उस निर्देशक की समझ में आ गया कि उस के सामने बैठा कलाकार कहानी को कितना समझेगा और वह बिना कहानी सुनाए वापस लौट गया.

यदि यह कहा जाए कि पहली फिल्म सुपर स्टार ने अपने बेटे के लिए बनाई थी, जिस ने बौक्स औफिस पर पानी नहीं मांगा और उस के बाद उस ने खुद अपने लिए दूसरी फिल्म का निर्माण किया जिसे ओटीटी पर बेच कर इतिश्री कर ली. उस के बाद से उसे कोई फिल्म नहीं मिली. मतलब यह कि यह कहना गलत होगा कि हमारे यहां अच्छी कहानियां नहीं हैं. सच यह है कि कहानी के खरीददार नहीं हैं. कहानी को समझने वाले फिल्मकार व कलाकार नहीं हैं.

कंटैंट या कहानी पर धर्म का कब्जा किसी को भी पसंद नहीं

2014 के बाद बौलीवुड कलाकारों और फिल्मकारो की एक नई फौज खड़ी हो गई है. यह नई फौज कहानी व कंटैंट के नाम पर फिल्मों में धर्म ही परोस रहा है. यह फिल्में गुणवत्ता के स्तर पर वाहियात फिल्में होती हैं. सिर्फ ऐन केन प्रकारेण धर्म को ठूंसा जाता है, जिन से दर्शक दर्शक ने धीरेधीरे दूरी बनानी शुरू कर दिया. यही वजह है कि पिछले तीन वर्ष के दौरान 95 प्रतिशत हिंदी फिल्मों ने बौक्स औफिस पर पानी तक नहीं मांगा. इस तरह देखा जाए तो हिंदी सिनेमा की विनाश की वजह वह अंगरेजीदां जमात के फिल्मकार, कलाकार, स्टूडियो में बैठे ठेकेदार हैं, जिन्हें कहानी व कंटैंट की न समझ है और न वह समझ विकसित करना चाहते हैं. यह अच्छी कहानी भी खरीदना नहीं चाहते. केवल कहानी के नाम पर नौटंकी करना इन का पेशा बन गया है.

Box Office : ‘मेरे हसबैंड की बीवी’ का बुरा हाल, ‘छावा’ के कलेक्शन पर सवाल

Box Office : फरवरी माह के तीसरे सप्ताह यानी कि 21 फरवरी को वासु भगनानी और जैकी भगनानी निर्मित तथा लेखक व निर्देशक मुदस्सर अजीज की वाहियात फिल्म ‘मेरे हसबैंड की बीवी’ सिनेमाघरों में रिलीज हुई. यूं तो तीसरे सप्ताह में ‘कौशलजी वर्सेस कौशल’ फिल्म के साथ ही ‘क्राइम बीट’ और ‘उप्स! अब क्या?’ जैसी वेब सीरीज भी रिलीज हुईं, पर यह सब सिनेमाघर की बजाय ‘ओटीटी’ पर घिसट रही हैं.

फरवरी माह के दूसरे सप्ताह 14 फरवरी को शिवाजी सावंत के उपन्यास ‘छावा’ पर आधारित पीरियड फिल्म ‘छावा’ रिलीज हुई थी, जिस ने अच्छा व्यापार किया था. दूसरे व तीसरे सप्ताह यानी कि 15 दिन में इस फिल्म ने सकनिल्क की रिपोर्ट के अनुसार 399 करोड़ रूपए बौक्स औफिस पर एकत्र किए.

इस रिर्पोट के अनुसार हम कह सकते हैं कि अब तक ‘छावा’ अपनी लागत वसूल करने में विफल रही है. मगर फिल्म के पीआरओ ने प्रेस रिलीज भेज कर दावा किया है कि फिल्म ने दो हफ्ते के अंदर 555 करोड़ तीस लाख रूपए एकत्र किए. अब सवाल उठ रहे हैं कि निर्माता के पास यह आंकड़े कहां से आए?

मध्य प्रदेश में फिल्म टैक्स फ्री है. इतना ही नहीं फिल्म में इतिहास को गलत ढंग से पेश करने के शिर्क समाज के नेताओं द्वारा 100 करोड़ रूपए की मानहानि का केस करने की धमकी के बाद फिल्म के निर्देशक लक्ष्मण उतेकर ने माफी मांगते हुए यह भी कह दिया कि उन्होंने इतिहास नहीं, बल्कि शिवाजी सावंत द्वारा लिखित उपन्यास पर फिल्म बनाई है. लक्ष्मण उतेकर ने यह भी याद दिलाया कि उन्होंने फिल्म में डिस्क्लेमर भी दिया है कि वह सिनेमाई स्वतंत्रता व नाटकीयता के लिए बदलाव कर रहे हैं.

फरवरी माह के तीसरे सप्ताह, 21 फरवरी को सिनेमाघरों में फिल्म ‘मेरे हसबैंड की बीवी’ रिलीज हुई, जिस में फिल्म के निर्माता जैकी भगनानी की पत्नी रकूल प्रीत सिंह, अर्जुन कपूर और भूमि पेडणेकर की अहम भूमिकाएं हैं. अर्जुन कपूर व भूमि पेडणेकर के अभिनय से सजी पिछली फिल्म ‘लेडी किलर’ 45 करोड़ की लागतसे बनी थी, जिस ने बौकस औफिस पर 60 हजार रूपए कमाए थे. इसलिए इन दोनों कलाकारों से कोई उम्मीद नहीं थी.

फिल्म में भूमि पेडणेकर तो हौरर फिल्मों की हीरोईन नजर आती हैं. सारा दारोमदार रकूल प्रीत सिंह पर था. लेकिन निर्माता ठहरे उन के पति तो रकूल प्रीत सिंह ने सोच लिया कि ‘‘जब सैंया भए केातवाल तो डर काहे का’. तो इस फिल्म में जितना वाहियात अभिनय वह कर सकती थी, वह उन्होने किया. परिणामतः 7 दिन के अंदर यह फिल्म 6 करोड़ रूपए भी बौक्स औफिस पर एकत्र न कर सकी. इस फिल्म से निर्माता की जेब में शून्य रकम ही जाएगी. क्योंकि निर्माता ने एक टिकट पर एक टिकट मुफ्त का औफर दे रखा था. मजेदार बात यह है कि निर्माता अपनी इस फिल्म की लागत बताने को तैयार नहीं हैं.

Love Story : अपने लोग – आनंद क्या रानी को कर पाया खुश

Love Story : ‘‘आखिर ऐसा कितने दिन चलेगा? तुम्हारी इस आमदनी में तो जिंदगी पार होने से रही. मैं ने डाक्टरी इसलिए तो नहीं पढ़ी थी, न इसलिए तुम से शादी की थी कि यहां बैठ कर किचन संभालूं,’’ रानी ने दूसरे कमरे से कहा तो कुछ आवाज आनंद तक भी पहुंची. सच तो यह था कि उस ने कुछ ही शब्द सुने थे लेकिन उन का पूरा अर्थ अपनेआप ही समझ गया था. आनंद और रानी दोनों ने ही अच्छे व संपन्न माहौल में रह कर पढ़ाई पूरी की थी. परेशानी क्या होती है, दोनों में से किसी को पता ही नहीं था. इस के बावजूद आनंद व्यावहारिक आदमी था. वह जानता था कि व्यक्ति की जिंदगी में सभी तरह के दिन आते हैं. दूसरी ओर रानी किसी भी तरह ये दिन बिताने को तैयार नहीं थी. वह बातबात में बिगड़ती, आनंद को ताने देती और जोर देती कि वह विदेश चले. यहां कुछ भी तो नहीं धरा है.

आनंद को शायद ये दिन कभी न देखने पड़ते, पर जब उस ने रानी से शादी की तो अचानक उसे अपने मातापिता से अलग हो कर घर बसाना पड़ा. दोनों के घर वालों ने इस संबंध में उन की कोई मदद तो क्या करनी थी, हां, दोनों को तुरंत अपने से दूर हो जाने का आदेश अवश्य दे दिया था. फिर आनंद अपने कुछ दोस्तों के साथ रानी को ब्याह लाया था. तब वह रानी नहीं, आयशा थी, शुरूशुरू में तो आयशा के ब्याह को हिंदूमुसलिम रंग देने की कोशिश हुई थी, पर कुछ डरानेधमकाने के बाद बात आईगई हो गई. फिर भी उन की जिंदगी में अकेलापन पैठ चुका था और दोनों हर तरह से खुश रहने की कोशिशों के बावजूद कभी न कभी, कहीं न कहीं निकटवर्तियों का, संपन्नता का और निश्ंिचतता का अभाव महसूस कर रहे थे.

आनंद जानता था कि घर का यह दमघोंटू माहौल रानी को अच्छा नहीं लगता. ऊपर से घरगृहस्थी की एकसाथ आई परेशानियों ने रानी को और भी चिड़चिड़ा बना दिया था. अभी कुछ माह पहले तक वह तितली सी सहेलियों के बीच इतराया करती थी. कभी कोईर् टोकता भी तो रानी कह देती, ‘‘अपनी फिक्र करो, मुझे कौन यहां रहना है. मास्टर औफ सर्जरी (एमएस) किया और यह चिडि़या फुर्र…’’ फिर वह सचमुच चिडि़यों की तरह फुदक उठती और सारी सहेलियां हंसी में खो जातीं. यहां तक कि वह आनंद को भी अकसर चिढ़ाया करती. आनंद की जिंदगी में इस से पहले कभी कोई लड़की नहीं आई थी. वह उन क्षणों में पूरी तरह डूब जाता और रानी के प्यार, सुंदरता और कहकहों को एकसाथ ही महसूस करने की कोशिश करने लगता था.

आनंद मास्टर औफ मैडिसिन (एमडी) करने के बाद जब सरकारी नौकरी में लगा, तब भी उन दोनों को शादी की जल्दी नहीं थी. अचानक कुछ ऐसी परिस्थितियां आईं कि शादी करना जरूरी हो गया. रानी के पिता उस के लिए कहीं और लड़का देख आए थे. अगर दोनों समय पर यह कदम न उठाते तो निश्चित था कि रानी एक दिन किसी और की हो जाती.

फिर वही हुआ, जिस का दोनों बरसों से सपना देख रहे थे. दोनों एकदूसरे की जिंदगी में डूब गए. शादी के बाद भी इस में कोई फर्क नहीं आया. फिर भी क्षणक्षण की जिंदगी में ऐसे जीना संभव नहीं था और रानी की बड़बड़ाहट भी इसी की प्रतिक्रिया थी.

आनंद ने यह सब सुना और रानी की बातें उस के मन में कहीं गहरे उतरती गईं. रानी के अलावा अब उस का इतने निकट था ही कौन? हर दुखदर्द की वह अकेली साथी थी. वह सोचने लगा, ‘चाहे जैसे भी हो, विदेश निकलना जरूरी है. जो यहां बरसों नहीं कमा सकूंगा, वहां एक साल में ही कमा लूंगा. ऊपर से रानी भी खुश हो जाएगी.’ आखिर वह दिन भी आया जब आनंद का विदेश जाना लगभग तय हो गया. डाक्टर के रूप में उस की नियुक्ति इंगलैंड में हो गई थी और अब उन के निकलने में केवल उतने ही दिन बाकी थे जितने दिन उन की तैयारी के लिए जरूरी थे. जाने कितने दिन वहां लग जाएं? जाने कब लौटना हो? हो भी या नहीं? तैयारी के छोटे से छोटे काम से ले कर मिलनेजुलने वालों को अलविदा कहने तक, सभी काम उन्हें इस समय में निबटाने थे.

रानी की कड़वाहट अब गायब हो चुकी थी. आनंद अब देर से लौटता तो भी वह कुछ न कहती, जबकि कुछ महीनों पहले आनंद के देर से लौटने पर वह उस की खूब खिंचाई करती थी. अब रात को सोने से पहले अधिकतर समय इंगलैंड की चर्चा में ही बीतता, कैसा होगा इंगलैंड? चर्चा करतेकरते दोनों की आंखों में एकदूसरे के चेहरे की जगह ढेर सारे पैसे और उस से जुड़े वैभव की चमक तैरने लगती और फिर न जाने दोनों कब सो जाते.

चाहे आनंद के मित्र हों या रानी की सहेलियां, सभी उन का अभाव अभी से महसूस करने लगे थे. एक ऐसा अभाव, जो उन के दूर जाने की कल्पना से जुड़ा हुआ था. आनंद का तो अजीब हाल था. आनंद को घर के फाटक पर बैठा रहने वाला चौकीदार तक गहरा नजदीकी लगता. नुक्कड़ पर बैठने वाली कुंजडि़न लाख झगड़ने के बावजूद कल्पना में अकसर उसे याद दिलाती, ‘लड़ लो, जितना चाहे लड़ लो. अब यह साथ कुछ ही दिनों का है.’ और फिर वह दिन भी आया जब उन्हें अपना महल्ला, अपना शहर, अपना देश छोड़ना था. जैसेजैसे दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़ने का समय नजदीक आ रहा था, आनंद की तो जैसे जान ही निकली जा रही थी. किसी तरह से उस ने दिल को कड़ा किया और फिर वह अपने महल्ले, शहर और देश को एक के बाद एक छोड़ता हुआ उस धरती पर जा पहुंचा जो बरसों से रानी के लिए ही सही, उस के जीने का लक्ष्य बनी हुई थी.

लंदन का हीथ्रो हवाईअड्डा, यांत्रिक जिंदगी का दूर से परिचय देता विशाल शहर. जिंदगी कुछ इस कदर तेज कि हर 2 मिनट बाद कोई हवाईजहाज फुर्र से उड़ जाता. चारों ओर चकमदमक, उसी के मुकाबले लोगों के उतरे या फिर कृत्रिम मुसकराहटभरे चेहरे. जहाज से उतरते ही आनंद को लगा कि उस ने बाहर का कुछ पाया जरूर है, पर साथ ही अंदर का कुछ ऐसा अपनापन खो दिया है, जो जीने की पहली शर्त हुआ करती है. रानी उस से बेखबर इंगलैंड की धरती पर अपने कदमों को तोलती हुई सी लग रही थी और उस की खुशी का ठिकाना न था. कई बार चहक कर उस ने आनंद का भी ध्यान बंटाना चाहा, पर फिर उस के चेहरे को देख अकेले ही उस नई जिंदगी को महसूस करने में खो जाती.

अब उन्हें इंगलैंड आए एक महीने से ऊपर हो रहा था. दिनभर जानवरों की सी भागदौड़. हर जगह बनावटी संबंध. कोई भी ऐसा नहीं, जिस से दो पल बैठ कर वे अपना दुखदर्द बांट सकें. खानेपीने की कोई कमी नहीं थी, पर अपनेपन का काफी अभाव था. यहां तक कि वे भारतीय भी दोएक बार लंच पर बुलाने के अलावा अधिक नहीं मिलतेजुलते जिन के ऐड्रैस वह अपने साथ लाया था. जब भारतीयों की यह हालत थी, तो अंगरेजों से क्या अपेक्षा की जा सकती थी. ये भारतीय भी अंगरेजों की ही तरह हो रहे थे. सारे व्यवहार में वे उन्हीं की नकल करते. ऐसे में आनंद अपने शहर की उन गलियों की कल्पना करता जहां कहकहों के बीच घडि़यों का अस्तित्व खत्म हो जाया करता था. वे लंबीचौड़ी बहसें अब उसे काल्पनिक सी लगतीं. यहां तो सबकुछ बंधाबंधा सा था. ठहाकों का सवाल ही नहीं, हंसना भी हौले से होता, गोया उस की भी राशनिंग हो. बातबात में अंगरेजी शिष्टाचार हावी. आनंद लगातार इस से आजिज आता जा रहा था. रानी कुछ पलों को तो यह महसूस करती, पर थोड़ी देर बाद ही अंगरेजी चमकदमक में खो जाती. आखिर जो इतनी मुश्किल से मिला है, उस में रुचि न लेने का उसे कोई कारण ही समझ में न आता.

कुछ दिनों से वह भी परेशान थी. बंटी यहां आने के कुछ दिनों बाद तक चौकीदार के लड़के रामू को याद कर के काफी परेशान रहा था. यहां नए बच्चों से उस की दोस्ती आगे नहीं बढ़ सकी थी. बंटी कुछ कहता तो वे कुछ कहते और फिर वे एकदूसरे का मुंह ताकते. फिर बंटी अकेला और गुमसुम रहने लगा था. रानी ने उस के लिए कई तरह के खिलौने ला दिए, लेकिन वे भी उसे अच्छे न लगते. आखिर बंटी कितनी देर उन से मन बहलाता.

और आज तो बंटी बुखार में तप रहा था. आनंद अभी तक अस्पताल से नहीं लौटा था. आसपास याद करने से रानी को कोई ऐसा नजर नहीं आया, जिसे वह बुला ले और जो उसे ढाढ़स बंधाए. अचानक इस सूनेपन में उसे लखनऊ में फाटक पर बैठने वाले रग्घू चौकीदार की याद आई, जो कई बार ऐसे मौकों पर डाक्टर को बुला लाता था. उसे ताज्जुब हुआ कि उसे उस की याद क्यों आई. उसे कुंजडि़न की याद भी आई, जो अकसर आनंद के न होने पर घर में सब्जी पहुंचा जाती थी. उसे उन पड़ोसियों की भी याद आई जो ऐसे अवसरों पर चारपाई घेरे बैठे रहते थे और इस तरह उदास हो उठते थे जैसे उन का ही अपना सगासंबंधी हो. आज पहली बार रानी को उन की कमी अखरी. पहली बार उसे लगा कि वह यहां हजारों आदमियों के होने के बावजूद किसी जंगल में पहुंच गई है, जहां कोई भी उन्हें पूछने वाला नहीं है. आनंद अभी तक नहीं लौटा था. उसे रोना आ गया.

तभी बाहर कार का हौर्न बजा. रानी ने नजर उठा कर देखा, आनंद ही था. वह लगभग दौड़ सी पड़ी, बिना कुछ कहे आनंद से जा चिपटी और फफक पड़ी. तभी उस ने सुबकते हुए कहा, ‘‘कितने अकेले हैं हम लोग यहां, मर भी जाएं तो कोई पूछने वाला नहीं. बंटी की तबीयत ठीक नहीं है और एकएक पल मुझे काटने को दौड़ रहा था.’’

आनंद ने धीरे से बिना कुछ कहे उसे अलग किया और अंदर के कमरे की ओर बढ़ा, जहां बंटी आंखें बंद किए लेटा था. उस ने उस के माथे पर हाथ रखा, वह तप रहा था. उस ने कुछ दवाएं बंटी को पिलाईं. बंटी थोड़ा आराम पा कर सो गया. थका हुआ आनंद एक सोफे पर लुढ़क गया. दूसरी ओर, आरामकुरसी पर रानी निढाल पड़ी थी. आनंद ने देखा, उस की आंखों में एक गलती का एहसास था, गोया वह कह रही हो, ‘यहां सबकुछ तो है पर लखनऊ जैसा, अपने देश जैसा अपनापन नहीं है. चाहे वस्तुएं हों या आदमी, यहां केवल ऊपरी चमक है. कार, टैलीविजन और बंगले की चमक मुझे नहीं चाहिए.’

तभी रानी थके कदमों से उठी. एक बार फिर बंटी को देखा. उस का बुखार कुछ कम हो गया था. आनंद वैसे ही आंखें बंद किए हजारों मील पीछे छूट गए अपने लोगों की याद में खोया हुआ था. रानी निकट आई और चुपचाप उस के कंधों पर अपना सिर टिका दिया, जैसे अपनी गलती स्वीकार रही हो.

 

Best Short Story : बाप होना – आखिर यह हुनर का काम है

Best Short Story : बाप बनता है. बाप होता है. जो बाप बनता है सो एक ही कारण से बनता है. कारण, बड़ा मासूम सा है. इधर एक मासूम पैदा हुआ, उधर दूसरा जो अब तक मासूम था, बाप बन गया.

बाप बनना एक साधारण घटना है. बाप बनाना उस से भी साधारण, यानी जिस से गरज पड़ी उसी को बाप बना लिया और मुहावरा हो गया ‘गधे को बाप बनाना.’ यह बात अलग है कि बिना गधा बने इनसान बाप नहीं बन सकता क्योंकि बाप बनने की एक जरूरी शर्त शादी करना  है. अत: साबित यही होता है कि बिना गधा हुए कोई शादी नहीं कर सकता और बिना शादी किए कोई बाप नहीं बन सकता.

जैसे सब नियमों में अपवाद की आशंका होती है वैसे ही इस में भी अपवाद की आशंका होती है.

गधों का बाप बनना या गधों को बाप बनाना कमोबेश बड़ी ही साधारण घटना है. हर खास और आम के जीवन में यह घटना घट जाती है. एक बार, कईकई बार और बारबार. कोईकोई अपनी एक ही भूल को बारबार दोहराते रहते हैं.

खास बात है, बाप होना. बनने और होने के भेद में वर्षों की साधना है. यह हुनर का काम है. कारीगरी का कमाल है. इनसान वर्षों तपस्या करता है तब कहीं जा कर बाप हो पाता है. यह गहन साधना का काम है. वर्षों नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है या कहें ‘रंग लाती है हिना पत्थर पर घिस जाने के बाद’ और इनसान जब, जिस के कारण बाप बना होता है वह बेल फैल जाती है.

बेल बालिका है, बाप विनम्रता की काया व दीनता की मूर्ति. बालिका को जन्म देना उस का अपराध, जिस की सजा उसे भुगतनी ही है. यानी एक बाप हाथ बांधे दूसरे बाप के सामने जीहुजूरी में खड़ा है.

हुजूर जो हैं सो बेटे के बाप हैं. ऐसेवैसे बेटे के नहीं बल्कि विवाह योग्य बेटे के. चाल में तिरछा बांकपन, आवाज में खनक. कौन कहता है कि राजामहाराजा समाप्त हो गए या उन का प्रिवीपर्स बंद कर दिया गया. सरकार ने बंद किया और बेटी वालों के यहां खुल गया. नाम अलग हैं, नजराना, शुकराना, जुर्माना, जबराना. कारण एक है, बेटी.

विनम्रतापूर्वक खुद दिया तो नजराना, अर्जी स्वीकार करने पर दिया तो शुकराना, कह कर तय किया तो जुर्माना और जबर्दस्ती वसूल किया तो जबराना. कई दुष्टों की गाड़ी जबराने के बेरिकेटर पर भी नहीं रुकती. इस के आगे लाललाल आग दहकती है, कभी लकडि़यों की, कभी देह की. जब आग नहीं दहकती तो राख सुलगती है. इस की चिंगारी पहचानने वाले शुरू में ही भांप जाते हैं. बाप नवाब की अदा से मसनद का सहारा लिए अधलेटा पड़ा है-‘हूं.’ वह ठकुरसुहाती सुन रहा है. उस के ‘हूं’ के विस्तार पर होने वाले रिश्ते का फैसला टिका है.

कई अपने सुत को श्रवणकुमार बताते हुए कहते हैं कि वह मेरी मर्जी के बगैर कुछ नहीं करता है. मां अभिमान के इस गोवर्धन में लाठी लगाती है, ‘‘उस ने तो कह दिया कि सब्जी क्या मुझ से पूछ कर लाती हो, जैसी चाहिए वैसी बहू ले आओ.’’ आज्ञाकारी सुत बुलाने पर आता है और झलक दिखा कर चला जाता है.

बाप की निगाहों में सवाल है. जवाब में बेटी के अपराधी बाप को अपनी सामर्थ्य का अंदाज लगा कर एक बोली उचारनी है. यह एक ऐसा अकेला बाजार है जिस में बेचने वाला मनमर्जी का दाम ले कर भी सामान की डिलीवरी नहीं देता. दाम गल्ले में, सामान भी पल्ले में. इस के साथ ही अपनी तमाम पूंजी भी उसी की गांठ में बांध खाली हाथ रखता है. वह भी खुले नहीं, जुड़े. इस के बाद भी रिकरिंग एक्सपेंडीचर यानी ब्याह के बाद भी. यह सावन, वह सनूना, तीजत्योहार, होलीदीवाली, सकटसंक्रांति तमाम कुलखानदान के जन्मदिन और वर्षदिवस, कहां जाओगे. जन्मजन्मांतर तक यही करो.

इस में लेने वाला धन्यवाद आदि की औपचारिकता निभाने के झमेले में नहीं पड़ता. उस की अदा पिंडारियों जैसी है. चौथ वसूल करनी है, करते रहनी है. हक का मामला है.

दोनों पक्ष निमित्त मात्र होने की भंगिमा बना लेते हैं. एक वकोध्यानम्के साथ कि बड़ी मछली को ताड़ ले और झट से दबोच ले और दूसरा कबूतर की तरह आंख मूंद ले कि आ बिल्ली, मुझे खा. बगुले और कबूतर में नियति का ही भेद है. कबूतर सफेद हो तो शांति के नाम उड़ा दिया जाए या खेल के नाम पर. बगुले के तमाम उजलेपन के बावजूद कोई न उसे फांसता है न उड़ाता है. करम की गति न्यारी.

न्यारी तो वह चाल भी है कि आप को बताते हैं. बताना क्या है, भांपना है, टटोलना है. यह सिद्धि वर्षों में प्राप्त की है. किश्ती नैप्पी बदलबदल कर इस हैप्पी तट तक आई है. अब मछेरा जाल डाले बैठा है. वह जो गणित के सवाल कल नहीं हल कर पाता था, आज हुंडी हो गया है. बाप अपनी हुंडी की असलियत जानता है. यह नौबत 10 दिन बजनी है फिर न यह पुर हैं, न पाटन, न गैल न गली. उस के बाद चमन उजड़ कर सहरा हो जाना है जिस में कईकई उच्छ्वासों में एक उच्छ्वास और मिलना है, ‘पूत पड़ोसी हो गए.’

उच्छ्वास बाहर तब निकलती है जब पहले सीने फूले हुए हों, इतने फूले रहें और इतनी देर फूले रहें कि काया से हवा का बोझ न सहा जाए. हवा नहीं गुब्बारा पिचके और बस्स…

यही है बाप होना.

Hindi Kahani : अनोखा बदला – निर्मला ने कैसे लिया संतोष से बदला

Hindi Kahani : निर्मला से सट कर बैठा संतोष अपनी उंगली से उस की नंगी बांह पर रेखाएं खींचने लगा, तो वह कसमसा उठी. जिंदगी में पहली बार उस ने किसी मर्द की इतनी प्यार भरी छुअन महसूस की थी.

निर्मला की इच्छा हुई कि संतोष उसे अपनी बांहों में भर कर इतनी जोर से भींचे कि…

निर्मला के मन की बात समझ कर संतोष की आंखों में चमक आ गई. उस के हाथ निर्मला की नंगी बांहों पर फिसलते हुए गले तक पहुंच गए, फिर ब्लाउज से झांकती गोलाइयों तक.

तभी बाहर से आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘दीदी, चाय बन गई है…’’

संतोष हड़बड़ा कर निर्मला से अलग हो गया, जिस का चेहरा एकदम तमतमा उठा था, लेकिन मजबूरी में वह होंठ काट कर रह गई. नीचे वाले कमरे में छोटी बहन उषा ने नाश्ता लगा रखा था.

चायनाश्ता करने के बाद संतोष ने उठते हुए कहा, ‘‘अब चलूं… इजाजत है? कल आऊंगा, तब खाना खाऊंगा… कोई बढि़या सी चीज बनाना. आज बहुत जरूरी काम है, इसलिए जाना पड़ेगा…’’

‘‘अच्छा, 5 मिनट तो रुको…’’ उषा ने बरतन समेटते हुए कहा, ‘‘मुझे अपनी एक सहेली से नोट्स लेने हैं. रास्ते में छोड़ देना. मैं बस 5 मिनट में तैयार हो कर आती हूं.’’

उषा थोड़ी देर में कपड़े बदल कर आ गई. संतोष उसे अपनी मोटरसाइकिल पर बैठा कर चला गया. उधर निर्मला कमरे में बिस्तर पर गिर पड़ी और प्यास अधूरी रह जाने से तड़पने लगी.

निर्मला की आंखों के आगे एक बार फिर संतोष का चेहरा तैर उठा. उस ने झपट कर दरवाजा बंद कर दिया और बिस्तर पर गिर कर मछली की तरह छटपटाने लगी.

निर्मला को पहली बार अपनी बहन उषा और मां पर गुस्सा आया. मां चायनाश्ता बनाने में थोड़ी देर और लगा देतीं, तो उन का क्या बिगड़ जाता. उषा कुछ देर उसे और न बुलाती, तो निर्मला को वह सबकुछ जरूर मिल जाता, जिस के लिए वह कब से तरस रही थी.

जब पिता की मौत हुई थी, तब निर्मला 22 साल की थी. उस से बड़ी कोई और औलाद न होने के चलते बीमार मां और छोटी बहन उषा को पालने की जिम्मेदारी बिना कहे ही उस के कंधे पर आ पड़ी थी.

निर्मला को एक प्राइवेट फर्म में अच्छी सी नौकरी भी मिल गई थी. उस समय उषा 10वीं जमात के इम्तिहान दे चुकी थी, लेकिन उस ने धीरेधीरे आगे पढ़ कर बीए में दाखिला लेते समय निर्मला से कहा था, ‘‘दीदी, मां की दवा में बड़ा पैसा खर्च हो रहा है. तुम अकेले कितना बोझ उठाओगी…

‘‘मैं सोच रही हूं कि 2-4 ट्यूशन कर लूं, तो 2-3 हजार रुपए बड़े आराम से निकल जाएंगे, जिस से मेरी पढ़ाई के खर्च में मदद हो जाएगी.’’

‘‘तुझे पढ़ाई के खर्च की चिंता क्यों हो रही है? मैं कमा रही हूं न… बस, तू पढ़ती जा,’’ निर्मला बोली थी.

अब निर्मला 30 साल की होने वाली है. 1-2 साल में उषा भी पढ़लिख कर ससुराल चली जाएगी, तो अकेलापन पहाड़ बन जाएगा. लेकिन एक दिन अचानक मौका हाथ आ लगा था, तो निर्मला की सोई इच्छाएं अंगड़ाई ले कर जाग उठी थीं.

उस दिन दफ्तर में काम निबटाने के बाद सब चले गए थे. निर्मला देर तक बैठी कागजों को चैक करती रही थी. संतोष उस की मदद कर रहा था. आखिरकार रात के 10 बजे फाइल समेट कर वह उठी, तो संतोष ने हंस कर कहा था, ‘‘इस समय तो आटोरिकशा या टैक्सी भी नहीं मिलेगी, इसलिए मैं आप को मोटरसाइकिल से घर तक छोड़ देता हूं.’’ निर्मला ने कहा था, ‘‘ओह… एडवांस में शुक्रिया?’’

निर्मला को उस के घर के सामने उतार कर संतोष फिर मोटरसाइकिल स्टार्ट करने लगा, तो उस ने हाथ बढ़ा कर हैंडल थाम लिया और कहने लगी, ‘‘ऐसे कैसे जाएंगे… घर तक आए हैं, तो कम से कम एक कप चाय…’’

‘‘हां, चाय चलेगी, वरना घर जा कर भूखे पेट ही सोना पड़ेगा. रात भी काफी हो गई है. मैं जिस होटल में खाना खाता हूं, अब तो वह भी बंद हो चुका होगा.’’

‘‘आप होटल में खाते हैं?’’

‘‘और कहां खाऊंगा?’’

‘‘क्यों? आप के घर वाले?’’

‘‘मेरा कोई नहीं है. मैं मांबाप की एकलौती औलाद था. वे दोनों भी बहुत कम उम्र में ही मेरा साथ छोड़ गए, तब से मैं अकेला जिंदगी काट रहा हूं.’’

संतोष ने बहुत मना किया, लेकिन निर्मला नहीं मानी थी. उस ने जबरदस्ती संतोष को घर पर ही खाना खिलाया था.

अगले दिन शाम के 5 बजे निर्मला को देख कर मोटरसाइकिल का इंजन स्टार्ट करते हुए संतोष ने कहा था, ‘‘आइए… बैठिए.’’

निर्मला ने बिना कुछ बोले ही पीछे की सीट पर बैठ कर उस के कंधे पर हाथ रख दिया था. घर पहुंच कर उस ने फिर चाय पीने की गुजारिश की, तो संतोष ने 1-2 बार मना किया, लेकिन निर्मला उसे घर के अंदर खींच कर ले गई थी.

इस के बाद रोज का यही सिलसिला हो गया. संतोष को निर्मला के घर आने या रुकने के लिए कहने की जरूरत नहीं पड़ती थी, खासतौर से छुट्टी वाले दिन तो वह निर्मला के घर पड़ा रहता था. सब ने उसे भी जैसे परिवार का एक सदस्य मान लिया था.

एक दिन अचानक निर्मला का सपना टूट गया. उस दिन उषा अपनी सहेली के यहां गई थी. दूसरे दिन उस का इम्तिहान था, इसलिए वह घर पर बोल गई थी कि रातभर सहेली के साथ ही पढ़ेगी, फिर सवेरे उधर से ही इम्तिहान देने यूनिवर्सिटी चली जाएगी. उस दिन भी संतोष निर्मला के साथ ही उस के घर आया था और खाना खा कर रात के तकरीबन 10 बजे वापस चला गया था.

उस के जाने के बाद निर्मला बाहर वाला दरवाजा बंद कर के अपने कमरे में लौट रही थी, तभी मां ने टोक दिया, ‘‘बेटी, तुझ से कुछ जरूरी बात करनी है.’’

निर्मला का मन धड़क उठा. मां के पास बैठ कर आंखें चुराते हुए उस ने पूछा, ‘‘क्या बात है मां?’’

‘‘बेटी, संतोष कैसा लड़का है. वह तेरे ही दफ्तर में काम करता है… तू तो उसे अच्छी तरह जानती होगी.’’

निर्मला एकाएक कोई जवाब नहीं दे सकी. मां ने कांपते हाथों से निर्मला का सिर सहलाते हुए कहा, ‘‘मैं तेरे मन का दुख समझती हूं बेटी, लेकिन इज्जत से बढ़ कर कुछ नहीं होता, अब पानी सिर से ऊपर जा रहा है, इसलिए…’’

निर्मला एकदम तिलमिला उठी. वह घबरा कर बोली, ‘‘ऐसा क्यों कहती हो मां? क्या तुम ने कभी कुछ देखा है?’’

‘‘हां बेटी, देखा है, तभी तो कह रही हूं. कल जब तू बाजार गई थी, तब दो घड़ी के लिए संतोष आया था. वह उषा के साथ कमरे में था.

‘‘मैं भी उन के साथ बातचीत करने के लिए वहां पहुंची, लेकिन दरवाजे पर पहुंचते ही मैं ने उन दोनों को जिस हालत में देखा…’’ निर्मला चिल्ला पड़ी, ‘‘मां…’’ और वह उठ कर अपने कमरे की ओर भाग गई.

निर्मला के कानों में मां की बातें गूंज रही थीं. उसे विश्वास नहीं हुआ. मां को जरूर धोखा हो गया है. ऐसा कभी नहीं हो सकता. लेकिन यही हो रहा था. अगले दिन निर्मला दफ्तर गई जरूर, लेकिन उस का किसी काम में मन नहीं लगा. थोड़ी देर बाद ही वह सीट से उठी. उसे जाते देख संतोष ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

निर्मला ने भर्राई आवाज में कहा, ‘‘मेरी एक खास सहेली बीमार है. मैं उसे ही देखने जा रही हूं.’’

‘‘कितनी देर में लौटोगी?’’

‘‘मैं उधर से ही घर चली जाऊंगी.’’

बहाना बना कर निर्मला जल्दी से बाहर निकल आई. आटोरिकशा कर के वह सीधे घर पहुंची. मां दवा खा कर सो रही थीं. उषा शायद अपने कमरे में पढ़ाई कर रही थी. बाहर का दरवाजा अंदर से बंद नहीं था. इस लापरवाही पर उसे गुस्सा तो आया, लेकिन बिना कुछ बोले चुपचाप दरवाजा बंद कर के वह ऊपर अपने कमरे में चली गई.

इस के आधे घंटे बाद ही बाहर मोटरसाइकिल के रुकने की आवाज सुनाई पड़ी. निर्मला को समझते देर नहीं लगी कि जरूर संतोष आया होगा. निर्मला कब तक अपने को रोकती. आखिर नहीं रहा गया, तो वह दबे पैर सीढि़यां उतर कर नीचे पहुंची. मां सो रही थीं.

वह बिना आहट किए उषा के कमरे के सामने जा कर खड़ी हो गई और दरवाजे की एक दरार से आंख सटा कर झांकने लगी. भीतर संतोष और उषा दोनों एकदूसरे में डूबे हुए थे. उषा ने इठलाते हुए कहा, ‘‘छोड़ो मुझे… कभी तो इतना प्यार दिखाते हो और कभी ऐसे बन जाते हो, जैसे मुझे पहचानते नहीं.’’

संतोष ने उषा को प्यार जताते हुए कहा, ‘‘वह तो तुम्हारी दीदी के सामने मुझे दिखावा करना पड़ता है.’’

उषा ने हंस कर कहा, ‘‘बेचारी दीदी, कितनी सीधी हैं… सोचती होंगी कि तुम उन के पीछे दीवाने हो.’’

संतोष उषा को प्यार करता हुआ बोला, ‘‘दीवाना तो हूं, लेकिन उन का नहीं तुम्हारा…’’

कुछ पल के बाद वे दोनों वासना के सागर में डूबनेउतराने लगे. निर्मला होंठों पर दांत गड़ाए अंदर का नजारा देखती रही… फिर एकाएक उस की आंखों में बदले की भावना कौंध उठी. उस ने दरवाजा थपथपाते हुए पूछा, ‘‘संतोष आए हैं क्या? चाय बनाने जा रही हूं…’’

संतोष उठने को हुआ, तो उषा ने उसे भींच लिया, ‘‘रुको संतोष… तुम्हें मेरी कसम…’’

‘‘पागल हो गई हो. दरवाजे पर तुम्हारी दीदी खड़ी हैं…’’ और संतोष जबरदस्ती उठ कर कपड़े पहनने लगा.

उस समय उषा की आंखों में प्यार का एहसास देख कर एक पल के लिए निर्मला को अपना सारा दुख याद आया. मां के कमरे के सामने नींद की गोलियां रखी थीं. उन्हें समेट कर निर्मला रसोईघर में चली गई. चाय छानने के बाद वह एक कप में ढेर सारी नींद की गोलियां डाल कर चम्मच से हिलाती रही, फिर ट्रे में उठाए हुए बाहर निकल आई.

संतोष ने चाय पी कर उठते हुए आंखें चुरा कर कहा, ‘‘मुझे बहुत तेज नींद आ रही है. अब चलता हूं, फिर मुलाकात होगी.’’

इतना कह कर संतोष बाहर निकला और मोटरसाइकिल स्टार्ट कर के घर के लिए चला गया.

दूसरे दिन अखबारों में एक खबर छपी थी, ‘कल मोटरसाइकिल पेड़ से टकरा जाने से एक नौजवान की दर्दनाक मौत हो गई. उस की जेब में मिले पहचानपत्रों से पता चला कि संतोष नाम का वह नौजवान एक प्राइवेट कंपनी में काम करता था’.

Romantic Story : भयानक सपना – क्या मनोहर जानता था कि आगे क्या होने वाला है

Romantic Story : हमेशा की तरह इस बार फिर धुंध गहरी होने लगी और चारों ओर सन्नाटा छा गया. मनोहर अच्छी तरह जानता था कि आगे क्या होने वाला है, पर फिर भी न जाने किस डर के कारण उस के दिल की धड़कन तेज होने लगी. धुंध के साथसाथ ठंड भी बढ़ने लगी और मनोहर कांपने लगा. लगता था कि सारी दुनिया एक सफेद बर्फीली चादर से ढक गई है. कोहरे के बीच में अचानक एक काला साया नजर आया, जो मनोहर की ओर धीरेधीरे बढ़ने लगा. यह जानते हुए भी कि उसे कोई खतरा नहीं है, मनोहर वहां से घूम कर भागना चाहता था, पर उसे लगा कि उस के पैर वहां जम ही गए थे.

साया मनोहर के पास आया और उस का चेहरा साफ दिखाई देने लगा. यह वही चेहरा था जो उस ने पहली बार कभी न भूलने वाली रात को देखा था. मासूम सा चेहरा था. एक 16-17 साल के लड़के का. मनोहर की तरफ उस ने उंगली से इशारा किया. ठंड के बावजूद मनोहर पसीनापसीना हो गया. 

‘तुम ने मुझे मारा. तुम ही मेरी मौत के जिम्मेदार हो. तुम्हें इस का प्रायश्चित्त करना पड़ेगा. तुम्हें मेरी मौत की कीमत चुकानी पड़ेगी,’ लड़के ने मनोहर पर इलजाम लगाया.

‘पर गलती मेरी नहीं थी,’ मनोहर ने अपने ऊपर लगे अभियोग का विरोध किया.

‘गलती चाहे जिस की भी थी पर मारा तो तुम ने ही मुझे,’ लड़के ने दबाव डालना जारी रखा.

‘मैं क्या करता. तुम अचानक बिना कोई चेतावनी दिए…’ मनोहर ने जवाब देना शुरू किया, पर हमेशा की तरह उस की बात पूरी तरह बिना सुने लड़का धुंध में गायब हो गया. मनोहर चौंक कर उठा. पसीने से उस का बदन गीला था. वह जानता था कि अब कम से कम डेढ़दो घंटे तक वह सो नहीं पाएगा. यही सपना उसे हफ्ते में 2 या 3 बार आता था, उस हादसे के बाद से. मनोहर ने सोचा कि वह उस रात को कभी भूल नहीं सकेगा. धीरेधीरे वह गहरी सोच में डूबता गया…हौल खचाखच भरा था. पार्टी खूब जोरशोर से चल रही थी. लोग विदेशी संगीत पर नृत्य कर रहे थे पर बातचीत के शोर के कारण ठीक से कुछ भी सुनाई नहीं पड़ रहा था. जितने लोग मौजूद थे, चाहे मर्द हों या औरत, तकरीबन सब ने हाथ में गिलास पकड़ रखा था. शराब पानी की तरह बह रही थी. एक कोने में खड़ा मनोहर बिना कोई खास रुचि के तमाशा देख रहा था. मनोहर का दोस्त अशोक उस के पास आया और उस ने उसे एक गिलास पकड़ाने की कोशिश की.

‘तुझे अकेले खड़े बोर होते हुए देख कर मुझे बहुत दुख होता है,’ उस ने कहा, ‘यह ले व्हिस्की, पी. शायद यह तुझे किसी लड़की से बात करने की हिम्मत दे.’ मनोहर ने सिर हिलाया, ‘तुम जानते हो कि मैं शराब बहुत कम पीता हूं. और पार्टी के बाद, जब कार खुद चला कर घर जाना होता है, जैसाकि आज, तब तो मैं शराब की तरफ देखता भी नहीं हूं.’

‘छोड़ यार,’ अशोक ने फिर गिलास मनोहर की ओर बढ़ाया, ‘एक पैग से क्या होता है. मैं तो हर पार्टी में 5-6 पैग पी कर भी कार चला कर सहीसलामत घर पहुंचता हूं.’ मनोहर मना करता गया, पर अशोक नहीं माना. आखिर में तंग आ कर मनोहर ने काफी अनिच्छा से गिलास ले लिया. शामभर मनोहर ने बस वही एक पैग धीरेधीरे पिया, जिस का असर उस पर तकरीबन न के बराबर था. रात काफी हो चुकी थी. जब मनोहर ने होटल की पार्किंग से अपनी गाड़ी निकाली और घर की तरफ चला, हलका कोहरा छाया हुआ था, पर सड़क साफ दिखाई दे रही थी. वाहनों की भीड़ कम थी. मनोहर ने अपनी कार की रफ्तार 50 और 60 किलोमीटर प्रति घंटे के बीच में ही रखी थी. उसे सामने चौराहे पर बत्ती हरी दिखाई दी. इसलिए मनोहर ने रफ्तार कम नहीं की. अचानक उस के बिलकुल सामने सैलफोन पर बात करता एक युवक सड़क पार करने लगा.

मनोहर ने ब्रैकपैडल जोर से दबाया पर तब तक देर हो चुकी थी. कार युवक से टकराई और वह तकरीबन 5 मीटर आगे जा कर गिरा. मनोहर ने कार रोकी और युवक के पास दौड़ कर पहुंचा. मनोहर ने उस का चेहरा गौर से देखा. उस की आंखें बंद थीं और वह बेहोश लग रहा था. मनोहर ने उसे उठा कर कार में रखा और नजदीक वाले अस्पताल की ओर चला. पर तब उसे खयाल आया कि अगर वह स्वीकार कर ले, और पुलिस को उस की सांस में शराब मिले, तो उसे शायद जेल जाना पड़े, यह सोचते हुए मनोहर ने अस्पताल के एमरजैंसी वार्ड से कुछ दूरी पर कार रोकी और युवक को उठा कर अंदर ले गया. वहां एक वार्ड बौय को सौंप कर बोला, ‘ऐक्सिडैंट हुआ है. मैं इस की मां को लेने जा रहा हूं,’ और वहां से भाग गया. 2 दिन के बाद अखबार के अंदर के कोने में उस ने पढ़ा कि उस रात, किसी अज्ञात व्यक्ति ने एक अधमरे युवक का शव अस्पताल में छोड़ा था और फिर वहां से लापता हो गया था. उसी रात से मनोहर को धुंध वाला सपना आने लगा. मनोहर अपनी विधवा मां के साथ रहता था. इन सपनों के कारण उस की रोजमर्रा की जिंदगी में थोड़ाबहुत बदलाव जो आया, वह उस की मां की नजरों से छिप तो नहीं सकता था, पर जब भी वे इस मामले में कोई सवाल करती थीं, तो मनोहर बात टाल जाता था.

मनोहर 28 साल का हो चुका था. अच्छी नौकरी कर रहा था. उस की मां चाहती थीं कि वे जल्दी से जल्दी मनोहर की शादी कर दें, ताकि दिनभर बात करने के लिए उन्हें एक बहू मिल जाए और साल के अंदर वंश चलाने के लिए एक पोता. मनोहर भी शादी करने की सोच रहा था, पर हादसे के बाद से उस का मिजाज बदल गया. शादी की बात उस के दिमाग से निकल सी गई. बस, एक बात बारबार उस के मन में आती, ‘मेरी लापरवाही के कारण किसी ने अपना बेटा खो दिया था.’ अपने दोष को भुलाने के लिए मनोहर दिनरात काम में जुटा रहने लगा. दिन में तो दफ्तर की चहलपहल में उस का ध्यान बंट जाता था पर रात को, खासकर धुंध वाला सपना आने के बाद, उस पर उदासी छा जाती थी. उस रात के बाद उस ने कभी शराब को हाथ न लगाया और कंपनी की पार्टियों में भी शराब परोसना बंद कर दिया. हादसे के 6 महीने बाद मनोहर के दफ्तर में एक नई लड़की भरती हुई. उस का नाम मीना था और वह सीधे कालेज से बीए करने के बाद नौकरी करने आई थी. मीना को उस का काम समझाने की जिम्मेदारी मनोहर को सौंपी गई. मीना काफी बुद्धिमान थी और उस में काम सीखने का जोश भी था. मनोहर उस की लगन से बहुत खुश था. धीरेधीरे मनोहर मीना की ओर आकर्षित होने लगा और उसे लगने लगा कि मीना उस के लिए एक आदर्श जीवनसाथी बन सकती है. उस के साथ शादी कर के जिंदगी काफी मजे में कट सकेगी. पर शराफत के भी कुछ नियम होते हैं. मनोहर ने अपनी भावनाओं के बारे में मीना को तनिक भी ज्ञान होने नहीं दिया.

एक दिन सुबह मीना मनोहर के केबिन में आई.

‘‘गुड मौर्निंग, सर.’’

‘‘गुड मौर्निंग, मीना,’’ मनोहर ने जवाब दिया.

‘‘जन्मदिन मुबारक हो, सर. हैप्पी बर्थडे.’’

‘‘धन्यवाद,’’ मनोहर बोला, ‘‘पर मैं हैरान हूं. आज तक तो इस दफ्तर में किसी ने मुझे जन्मदिन की बधाई नहीं दी. तुम्हें कैसे पता चला कि आज मेरा बर्थडे है?’’ मीना पहले थोड़ा शरमाई और फिर उस ने जवाब दिया, ‘‘आप को याद होगा कि पिछले हफ्ते आप ने मुझे अपना ड्राइविंग लाइसैंस दिया था उस की फोटोकौपी बनवाने के लिए. मैं ने उसी में देख लिया था कि आप का जन्मदिन कब है.’’ उस की बात सुन कर मनोहर को बहुत अच्छा लगा. वह सोचने लगा कि शायद मीना उसे पसंद करने लगी है. उसी दिन दोपहर को बारिश हुई और फिर लगातार काफी तेज होती ही रही. मनोहर जानता था कि मीना लोकल बस से घर जाती थी. उस ने मीना को बुलाया और पूछा, ‘‘तुम्हारे पास छतरी है?’’

‘‘नहीं, सर,’’ मीना ने जवाब दिया, ‘‘आज सुबह तो आसमान बिलकुल साफ था, इसलिए मैं अपनी छतरी घर पर ही छोड़ आई.’’

‘‘तब तो तुम घर जातेजाते बिलकुल भीग जाओगी.’’

‘‘कोई बात नहीं, सर. मैं बारिश में कई दफे भीगी हूं.’’

‘‘पर तुम बीमार पड़ सकती हो,’’ मनोहर के स्वर में चिंता भरी हुई थी, ‘‘तुम रहती कहां हो?’’

‘‘बापूनगर में, सर,’’ मीना ने बताया.

‘‘वह मेरे घर जाने के रास्ते से कोई खास दूरी पर नहीं है. आज मैं तुम्हें कार से तुम्हारे घर पर छोड़ूंगा.’’

‘‘नहीं, सर, इस की जरूरत नहीं है,’’ मीना ने मनोहर की बात का विरोध किया, ‘‘आप को खामखां दिक्कत होगी. मैं खुद चली जाऊंगी रोज की तरह.’’ पर मनोहर ने मीना की एक न सुनी, और उसे अपनी कार से घर पहुंचाया. अगले दिन मीना ने मनोहर से कहा, ‘‘सर, मैं ने आप के बारे में अपने मातापिता को बताया. वे बहुत खुश थे कि आप जैसे बड़े अफसर ने मुझ पर एहसान किया और मुझे भीगने से बचाया. वे आप से मिलना चाहते हैं. हमारे यहां किसी दिन चाय पीने आइए.’’

‘‘जरूर आऊंगा,’’ मनोहर ने जवाब दिया. मन ही मन उस ने सोचा कि यह अच्छा मौका होगा, यह तय करने के लिए कि मीना से मेरी शादी करने की कितनी संभावना है. कुछ दिन बाद मनोहर को मीना के साथ चाय पीने का मौका मिला. उन के दफ्तर में यह ऐलान हुआ कि अगले दिन शाम को शहर में बड़े जुलूस के कारण सड़कें बंद कर दी जाएंगी, इसलिए दफ्तर में 2 घंटे पहले छुट्टी होगी. मनोहर ने मौके का फायदा उठा कर मीना को सूचित कर दिया कि अगले दिन वह मीना के साथ उस के घर जाएगा. अगली शाम 4 बजे जब छुट्टी मिली तो मनोहर मीना को ले कर उस के घर की ओर चला. रास्ते में उस ने मीना के बारे में उस से जानकारी हासिल करने की कोशिश की.

‘‘तुम्हें किस तरह की फिल्में पसंद आती हैं?’’ उस ने पूछा.

‘‘जो टीवी में आ जाएं, वही देखती हूं, सर,’’ मीना ने जवाब दिया, ‘‘सिनेमाहौल में जाने का मौका सिर्फ वीकेंड पर मिलता है और तब भीड़ के कारण टिकट नहीं मिलता.’’

‘‘तुम्हारे कितने भाईबहन हैं?’’ मनोहर ने आगे बढ़ कर सवाल किया.

‘‘मेरा एक भाई था, पर पिछले साल एक हादसे में उस का देहांत हो गया,’’ यह कहतेकहते मीना की आवाज कुछ टूट सी गई. मनोहर को लगा कि जैसे उस ने कोई पुराना घाव कुरेद दिया है. उस ने ‘आई एम सौरी’ कहा और बाकी रास्तेभर चुप ही रहा. मीना का घर एक मिडल क्लास दो बैडरूम का अपार्टमैंट था. उस के मातापिता बड़े प्यार से मनोहर से मिले. मीना के पिता ने तकरीबन 35 साल नौकरी करने के बाद भारतीय रेलवे से अवकाश प्राप्त किया था. बैठक में बैठ कर वे और मनोहर आने वाले चुनाव के बारे में बात करने लगे. मीना और उस की मां अंदर जा कर चाय का बंदोबस्त करने लगीं. बात करतेकरते मनोहर की नजर इधरउधर घूम रही थी. अचानक उसे बड़े जोर का झटका लगा और वह हैरान रह गया. सामने दीवार पर एक बड़ी सी तसवीर लगी हुई थी, जिस पर पुष्पमाला पड़ी हुई थी. और तसवीर उसी नौजवान की थी जो मनोहर की कार के नीचे आ गया था. मनोहर अपनी आंखों पर विश्वास खो बैठा.

‘‘आज के नेता अपनी कुरसी की ज्यादा और जनता की खुशहाली की चिंता कुछ कम ही करते हैं…’’

‘‘माफ करना सर,’’ मनोहर ने उन की बात काटी, ‘‘पर क्या मैं पूछ सकता हूं कि दीवार पर लगी यह फोटो किस की है?’’

मीना के पिता एकदम चुप हो गए. फिर कुछ रुक कर बोले, ‘‘यह हमारा इकलौता बेटा प्रशांत था, मीना का भाई. पिछले साल एक दुर्घटना में इस का देहांत हो गया. पर इस के बारे में तुम मीना या उस की मां के सामने कुछ नहीं पूछना. वे दोनों अपना गम अभी तक भुला नहीं पाई हैं. इस के बारे में सोच कर वे आज भी बहुत भावुक हो जाती हैं.’’

मनोहर का सिर चकराने लगा. उस ने सोचा, ‘जिस लड़की से मैं शादी करना चाहता हूं, उसी के इकलौते भाई की मौत का जिम्मेदार मैं ही हूं.’ बाकी शाम कैसे कटी, मनोहर को ठीक से याद नहीं. कुछ खाया, कुछ बोला, सबकुछ स्वचालित था. मीना की मां ने उस की फैमिली के बारे में पूछा. जब उस ने यह बताया कि उस की शादी अभी तक नहीं हुई है, तो मीना के मांबाप ने नजरें मिलाईं. पर खयालों में डूबे हुए मनोहर ने कुछ नहीं देखा. मीना के साथ एक आनंदमय जिंदगी बिताने के उस के सपने चूरचूर हो गए थे. तकरीबन 1 महीना बीत गया. एक दिन, बातचीत के दौरान, मीना ने मनोहर से कहा, ‘‘सर, मेरे मातापिता मेरी शादी कराना चाहते हैं. वे मेरे लिए दूल्हा ढूंढ़ रहे हैं. अगर आप की नजर में कोई योग्य लड़का हो तो उन्हें सूचित कर दें. वे जातिपांति को नहीं मानते हैं, न ही कुंडली मिलवाना जरूरी समझते हैं, पर लड़का कामकाजी होना चाहिए. और यह भी खयाल रखें कि हम कोई खास दहेज नहीं दे सकेंगे.’’

‘‘मैं देखता हूं. अगर कोई मिल गया तो अवश्य उन्हें बता दूंगा,’’ मनोहर ने जवाब दिया, पर मन ही मन वह अपनेआप को कोसने लगा. वह जानता था कि वह मीना के लिए लड़का कभी नहीं ढूंढ़ेगा. कुछ दिन बाद मीना ने अपनी शादी की बात फिर छेड़ी. उस ने कहा, ‘‘मेरी शादी के दौरान मुझे बस एक ही गम रहेगा.’’

‘‘वह क्या?’’ मनोहर ने पूछा.

‘‘वह यह कि मेरा प्यारा भाई प्रशांत मुझे दुलहन के रूप में देखने के लिए वहां नहीं होगा. वह हमेशा कहता था कि मेरी शादी में वह खूब नाचेगा,’’ मीना की आवाज में निराशा थी.

‘‘यह तो उचित है,’’ मनोहर ने माना.

‘‘काश, वह उस दिन दोपहर के खाने के तुरंत बाद अपने दोस्तों के साथ स्विमिंग पूल नहीं गया होता.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मनोहर ने पूछा.

‘‘आप को पता नहीं कि प्रशांत की मौत कैसे हुई?’’ मीना ने पूछा. और बात को आगे बढ़ाते हुए बोली, ‘‘वह लंच के फौरन बाद तैरने गया. पूल में अचानक उस के पेट में मरोड़ उठने लगी और वह डूब कर मर गया. उस के दोस्तों ने और वहां मौजूद लाइफगार्ड ने उसे बचाने की बहुत कोशिश की, पर शायद उस की मौत का वक्त आ चुका था. एक हफ्ते पहले ही वह सैलफोन पर बात में व्यस्त हालत में एक कार के रास्ते में आ गया था. पर लगता है कार कोई शरीफ आदमी चला रहा था क्योंकि उस की गलती नहीं होने पर भी उस ने प्रशांत को अस्पताल पहुंचाया. और फिर गायब हो गया. उस हादसे में तो वह बच गया लेकिन…’’ मनोहर को लगा कि जैसे एक पहाड़ उस के सिर पर से उठ गया हो. मन ही मन उस ने अपनेआप से वादा किया कि अगले ही दिन वह मीना के घर जा कर उस के मांबाप से मिल कर मीना का हाथ मांगेगा. और उस को यकीन था कि उस दिन के बाद वह डरावना सपना उसे फिर कभी नहीं आएगा.

Hindi Story : शादी का लड्डू – अवनी की सहेलियों ने निर्वी को लेकर क्या सलाह दिया ?

Hindi Story :  “अरे मनिता! यह मेरे सामने के फ्लैट में पिछले माह ही जो लड़की किराए पर आई है ना, किसी एमएनसी में काम करती है। निर्वी नाम है उसका। सुबह सवेरे आठ बजे तक घर से निकल जाती है, और फिर रात के आठ नौ बजे तक घर लौटती है। हर छुट्टी के दिन इसके फ़्लैट में कई लड़के और लड़कियां आए रहते हैं, जो देर रात घर वापस जाते हैं। जितने वक्त वे लोग रहते हैं, मरा कानफोड़ू म्यूजिक चला कर रखती है। धम्म धम्म नाचने की आवाज आती है। यह भला कोई शरीफ घरानों के बच्चों की निशानी है?”
“हाँ हाँ, अवनी! मैंने भी उसे कॉलोनी कैंपस में कई बार आते जाते देखा है। अरे आज कल के लड़के लड़कियों के यही ढंग हैं। अरे जो हंगामा करती है, अपने घर में करती है। तो तू अपने मस्त रह।” मनिता ने कहा।

“पता नहीं मां बाप कैसे अपनी जवान जहान लड़कियों को यूं दूसरे शहरों में अकेले रहने देते हैं। दूर रह कर उन्हें क्या पता चले कि उनकी बेटी किसके साथ उठ बैठ रही है।वैसे देखने भालने में तो शरीफ घराने की लगती है। एक छोटा सा, बड़ा प्यारा सा डौगी भी पाल रखा है उसने। रोज सुबह मेरे जागने से पहले और शाम को उसे घुमाने ले जाती है।आते जाते मुस्कुराकर हाय, हेलो, गुड मॉर्निंग तो करती ही है, लेकिन जितनी देर घर में रहती है दरवाजा बंद ही रखती है।

यह नहीं कि भली मानुष की तरह तनिक बाहर निकले… हम सब से मेलजोल बढ़ाए। तनिक अपनी कहे तनिक हमारी सुने!”“अरे अवनी! यह आजकल की नई पौध हम हाउस वाइव्स को आउटडेटेड और बेकार समझती है। मैं भी उसे एकआध बार कॉलोनी में आते जाते देख कर मुस्कुराई, लेकिन मुस्कुराना तो दूर उसने तो पलट कर मेरी तरफ देखा तक नहीं। खटखट हील चटकाते यह जा और वह जा, पल भर में ही आंखों से ओझल हो गई। उसके बाद से शाम को कभी कभार अपने ड़ौगी को चुम्माचाटी करती दिख जाती है, लेकिन भई मैं तो फिर उससे बोली नहीं।”

मनिता के जाने के बाद अवनी अपनी बाल्कनी में बैठी यूं ही अखबार पढ़ रही थी, कि उसने देखा उसके सामने आसमानी नीले रंग की फॉर्मल शर्ट और ब्लैक ट्राउजर्स में वह एक लंबे, खासे हैंडसम युवक के साथ आ रही थी। अवनी की ओर एक फ्लाइंग किस उछालकर वह अपने फ्लैट में बंद हो गई।दिन दहाड़े निर्वी को एक जवान जहान लड़के के साथ अकेले घर में बंद होते देख उसकी हैरानी का ठिकाना नहीं था। उसका शक पक्के यकीन में बदल गया कि निर्वी का चाल चलन ठीक नहीं।शाम के पाँच बजे थे। अवनी अपने घर से पार्क में शाम की वॉकिंग के लिए घर से निकली ही थी, कि उसके सामने निर्वी एक रद्दी वाले को बहुत सारी शराब की बोतलें थमाती दिखी। उसने उसे यह कहते सुना, “भैया, मुझे इन बोतलों के बदले कोई पैसा नहीं चाहिए। बस आप हर महीने किसी भी संडे की छुट्टी के दिन आकर ये बोतलें ले जाया करो।”

मध्यम वर्गीय मानसिकता वाली अवनी से उससे यह कहे बिना नहीं रहा गया, “निर्वी! ये तो तुम इन रद्दी वालों की आदत बिगाड़ दोगी। ये हमसे भी यही एक्स्पेक्ट करेंगे कि हम भी इन्हें मुफ्त में रद्दी और बोतलें दे दें।”अरे आंटी, बेचारा गरीब है। इससे क्या पैसे लूँगी? आंटी मेरी मम्मा भी इन गरीब रद्दी वालों से पैसे नहीं लेतीं। वह कहती हैं कि ये लोग हमारे घर से कचरा सामान ले जाते हैं। तो इनसे पैसे क्यों लेने?”
निर्वी के घर से इतनी शराब की बोतलें निकलती देख कर अवनी ने मन ही मन सोचा, “तो यह दारू भी पीती है! जरूर इस की पार्टियों में भी दारू चलती होगी।”

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर में पली बढ़ी, कस्बाई मानसिकता वाली अवनी अभी कुछ ही माह पहले एक आईटी एंजीनियर सोहम से विवाह के बाद पुणे के उस अपार्टमेंट के फ्लैट में रहने आई थी। सो उसके हिसाब से लड़कियों का दारू पीना परले दर्जे की अजूबा भरी गलत हरकत थी।घर लौट कर उसके पेट में इस गरिष्ठ खबर से मरोड़ें उठने लगीं, और उसने पहले तो फोन करके अपनी कस्बे में रहने वाली मां और छोटी बहन को फोन पर यह हैरतअंगेज़ खबर सुनाई। उन्होंने मिलकर नशा करने वाली, मां बाप की छत्रछाया से दूर घर से बाहर रहने वाली आज कल की लड़कियों लड़कों को जी भर कर कोसा।

इस पर भी उसकी बेचैनी खत्म न हुई और उसने फोन कर अपनी दो तीन घनिष्ठ सहेलियों मनिता, कुशा और रावी को अपने घर बुला लिया, और बड़े ही रहस्यमय अंदाज़ में आँखें गोल गोल घुमा उससे कहा कि “यह निर्वी अच्छे चालचलन की नहीं है। मैंने उसे कबाड़ी को बहुत सारी दारू की बोतलें देते देखा। साथ ही अभी शाम को वह एक लड़के के साथ अकेली अपने घर में है।”इस पर मनिता, कुशा और रावी तीनों एक दूसरे की ओर देख कर ज़ोर से यूं हंस पड़ीं, जैसे अवनी ने कोई जोरदार जोक मारा हो।फिर कुशा ने उसे हँसते हँसते कहा, “ओ मेरी झल्ली रानी, आप किस ग्रह से आईं हैं कि आपको यह भी नहीं पता कि अब सोशल ड्रिंकिंग को बुरी नज़रों से नहीं देखा जाता। आज की हर मॉडर्न लड़की वाइन पीती है। वाइन में बस 5 या 6 प्रतिशत अल्कोहल होता है। अतः उससे बहुत कम नशा होता है।

हां, अकेले एक लड़के का घर आना थोड़ा ठीक नहीं लगता, लेकिन आज कल के खुले माहौल में यह भी कोई बड़ी बात नहीं।”फिर उसने उनसे एक ऐसा सीक्रेट शेयर किया जिसे सुनकर अवनी बेहोश होते होते बची।उसने उससे कहा, “हम तीनों भी वाइन पीती हैं। पर कभी कभी, पार्टीज़ में बस। वाइन पीकर इंसान अपने सारे गम भूल जाता है। दिलो दिमाग पर ऐसा सुरूर छाता है कि पूछो मत। दुनिया के जंजालों से परे वह एक ऐसी दुनिया में पहुँच जाता है जहां किसी तरह की चिंता, फिक्र और तनाव नहीं होता।”

उन्होंने उससे कहा कि अगली किसी पार्टी में वे उसे भी इस करामाती ड्रिंक को पिला कर रहेंगी।
आज अवनी का जी न जाने क्यूँ उसके बस में नहीं था। कल सुबह सुबह सोहम से उसका जबर्दस्त झगड़ा हुया था। कल शनिवार था और सोहम सुबह दस बजे जो निकला तो साँझ ढले घर आया। पिछले एक महीने से हर वीक एन्ड पर सोहम का यही रूटीन चल रहा था।अवनी का विवाह हुए मात्र एक वर्ष हुआ था और पूरे सप्ताह पूरे पूरे दिन घर में बस चंद सहेलियों, टीवी और मोबाइल के भरोसे जिंदा रह वीकेंड में उसे पति से अपेक्षा होती कि वह उसे घर के बाहर तनिक आउटिंग पर ले जाये, शौपिंग पर ले जाये, सिनेमा पिकनिक पर ले जाये, लेकिन सोहम के रंग ढंग तो कुछ और ही नज़र आ रहे थे। वह एक बेहद आत्मकेन्द्रित इंसान था। उसे बस अपने सुख, अपने आराम की परवाह थी।

बस इसी बात को लेकर वह उससे उस दिन खूब झगड़ी, लेकिन उसके चीखने, चिल्लाने का कोई असर उसपर नहीं हुआ और वह उसे रोता छोड़ उस दिन भी चला गया।बारह बजे तक अवनी रोती बिसुरती रही। फिर नहा धो कर वह अपना मूड बदलने मनिता के घर चली गई। उसने उसके सामने जो सोहम का दुखड़ा रोया, तो मनिता भी अपने मन का गुबार उसके सामने निकालने लगी, यह कहते हुए कि “ये मर्द सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे होते हैं। अधिकतर सब को अपनी ही पड़ी रहती है। शादी कर के बस अपनी ज़िंदगी को आरामदेह बनाने के लिए बीबी के रूप में एक अदद नौकरानी ले आते हैं और खुद अपनी मन मर्ज़ी ज़िंदगी के मज़े लूटते हैं। मेरे पति तो निहायत ही गैर जिम्मेदार हैं। मुझे घर की सारी जिम्मेदारियाँ उठाने के साथ साथ बाहर की सारी जिम्मेदारियाँ भी उठानी पड़ती हैं। मैं तो सुबह से शाम तक भागती दौड़ती रहती हूँ। इनकी आमदनी इतनी है नहीं कि कोई हेल्प लगा सकूँ। सो घर बाहर दोनों के काम करते करते हलकान हो जाती हूँ। शादी के बाद इसी वजह से इतनी चिड़चिड़ी हो गई हूँ कि पूछो मत। हर वक़्त हर बात पर गुस्सा आया हुआ रहता है।”

तभी मनिता के घर के सामने रहने वाली कुशा भी वहाँ आगई और सबका पति पुराण सुन कर
वह भी अपने पति का राग ले बैठी और कहने लगी, “मेरे हस्बैन्ड मुझे घुमाने फिराने तो ले जाते हैं, लेकिन वह इतने फिजूलखर्च हैं कि आधा महीना बीतते बीतते पूरी तन्ख़्वाह खर्च कर बैठते हैं। पंद्रह तारीख के बाद मुझे हर खर्चा अगले माह के लिए टालना पड़ता है। इस वजह से मैं महीने के आखिरी दिनों में इतनी परेशान रहती हूँ कि पूछो मत।”तभी मनिता का बेटा स्कूल से घर वापस आया। हाथ मुंह धोने के लिए जो उसने नल खोला तो पानी नदारद था।

पड़ौस में अन्य घरों से पता लगाया तो पता चला कि कहीं किसी के घर में पानी नहीं आरहा था।
सोसाइटी के रेजीडेंट्स वेल्फेयर असोशियेशन के प्रेसीडेंट ने सब को बताया कि सोसाइटी को पानी की आपूर्ति करने वाला पंप खराब हो गया है। उन्होंने सब को आश्वासन दिया कि एक घंटे में पंप ठीक हो जाएगा, लेकिन घड़ी की सुइयाँ निरंतर आगे बढ़ती रहीं, पर पंप ठीक करने वाला प्लम्बर नहीं आया।
शाम के सात बज गए। रात का खाना बनाने के लिए पानी की घर घर जरूरत थी। घर घर हाहाकार मच रहा था।रात के नौ बजे जो निर्वी अपने बॉयफ्रेंड के साथ घर लौटी, तो सोसायटी की सभी लेडीज़ घर के बाहर अलग अलग झुंडों में खड़ी सोसाइटी के रेजीडेंट्स वेल्फेयर असोशियेशन के प्रेसीडेंट को पानी पी पी कर कोस रही थीं, अलबत्ता पानी नलों से नदारद था।

अवनी ने निर्वी को पूरी बात बताई तो वह अवनी से बोली, “आप मुझे फ़ोन पर पूरी बात बता देतीं, तो मैं पंप ठीक करने वाली पूरी टीम को अपने साथ ही ले आती। खैर परेशान मत हों। मैं और विहान अभी देखते हैं, कहाँ क्या खराबी है।”सबके देखते देखते निर्वी और विहान ने एक डेढ़ घंटे के अंदर पंप पूरी तरह से ठीक कर दिया।घरों में पानी की सप्लाई बहाल होते देख कॉलोनी की महिलाओं ने राहत की सांस ली। उन्हें आश्चर्य इस बात का था, कि छुई मुई सी दिखने वाली निर्वी ने अपने दोस्त के साथ मिलकर उनकी इतनी बड़ी समस्या का समाधान देखते देखते कर दिया था।तभी अवनी ने निर्वी से अपने मन की बात कह डाली, “भई निर्वी और विहान, एक बात तो बताओ, यह तुम दोनों ने पंप पर कौन सी जादू की छड़ी घुमाकर उसे ठीक कर दिया? हम सबके मन में रह रह कर बस यही सवाल उठ रहा है।”

इसपर निर्वी उससे बोली, ‘अवनीजी! मैं इलेक्र्ट्रिकल एंजिनियर हूँ और यह मेरा मंगेतर विहान मेकेनिकल एंजिनियर है। ये बिगड़े सुगड़े पंप ठीक करवाना तो हमारा रोज़ का काम है।“ओह, तुम दोनों की सगाई हो चुकी है? दोनों ही एंजिनियर हो।”“अवनी! एंजिनियरिंग के साथ साथ हम दोनों ने इंडिया के टॉप मोस्ट बिजनेस स्कूल से एमबीए भी किया हुआ है।”“ओह तुम दोनों इतने हाईली क्वालिफाइड हो?”तभी कस्बाई मानसिकता से मजबूर अवनी, जो उनसब में सबसे ज्यादा मुंहफट थी, बोल पड़ी, “अरे भई निर्वी, तुमने तो हमें खासा सर्प्राइज़ दे डाला, लेकिन भई एक बात हमारी समझ में नहीं आई।”
“वह क्या अवनी?”

“तुम दोनों इतने हाइली क्वालिफाइड हो, अच्छे परिवारों से हो तो तुम दोनों यूं छड़े क्यूँ घूम रहे हो? अरे भई, मेरा मतलब है, तुम दोनों के पेरेंट्स तुम पर शादी करने का दवाब नहीं डालते? तुम दोनों भले मानसों की तरह घर गृहस्थी क्यूँ नहीं बसाते? क्या स्यापा है तुम दोनों के साथ?”यह बात सुन कर अवनी और विहान पल भर को मुस्कुराए। फिर निर्वी अवनी से बोली, “अवनी! यह आप घर गृहस्थी वाले नहीं समझोगे, यह एक बहुत बड़ा राज है!”यह कहते हुए दोनों ने दरवाज़े की ओर कदम बढ़ाए ही थे कि तभी अवनी निर्वी का हाथ थाम फिर से बोल पड़ी, “भई निर्वी, अब तुमने यह राज की बात करके मेरी तो रात की नींद ही चुरा ली। बता भी दो, अगर तुमने यह बात नहीं बताई तो पूरी रात मेरे पेट में दर्द होता रहेगा। फिर भई, आधी रात को मैं तुम्हें ही नींद से जगा कर पेट दर्द की दवाई मांगने आऊंगी।”

अवनी की इस बात पर खिलखिलाता विहान बोल पड़ा, “अवनी, मैं आपको वह राज बताता हूँ। यह तो आप मानोगी, हर शादी में कोई न कोई प्रोब्लेम होती है।”“इस बार मनिता मुस्कुरा कर बोल पड़ी, ठीक कह रहे हो बच्चे, अरे मैं तो कहती हूँ, प्रौब्लेम का दूसरा नाम ही शादी है।”“ऐक्ज़ेक्टली, मैं यही आपके मुंह से सुनना चाह रहा था। इसी शादी बनाम बर्बादी के चक्र व्यूह में फंस कर आपसबके और हमारे आदरणीय भाईजानों के मुखारविदों पर कितनी सलवटें आ गई हैं।

तो भई मेरी स्वीट दीदियों और भाभियों, आप लोग क्यूँ चाहते हैं कि हम इस तबाही के मकड़जाल में इतनी जल्दी फँसें? हम शादी के खिलाफ कतई नहीं हैं। लेकिन अपने हाथों में शादी की हथकड़ी लगने तक हम लाइफ को भरपूर एंजॉय करना चाहते हैं।”“विहान की यह बात सुन कर वहाँ मौजूद सभी महिलाओं के मुंह से एक लंबी उसाँस निकली ही थी, कि तभी विहान फिर से बोल पड़ा, “मैंने और निर्वी ने फैसला लिया है कि हम दोनों शादी के बंधन में 35 की उम्र में फंसेंगे। अभी मैं और निर्वी तीस बरस के हैं। अपनी लाइफ इतना एंजॉय कर रहे हैं कि पूछिये मत। हम दोनों बस वीक एंड पर मिलते हैं। पूरे हफ़्ते एक दूसरे से मिलने की बेकरारी रहती है। आप देख ही रहे होंगे, हम दोनों एक दूसरे की कंपनी कितना एंजॉय करते हैं। हमने साथ साथ देश के ऑल्मोस्ट अधिकतर हैपिनिंग शहरों की साथ साथ सैर कर ली। हम दोनों का तीसवाँ बर्थडे बस इसी साल है और 15 दिनों के अंतर पर है। आपको पता है, हम दोनों अपना अपना तीसवाँ जन्मदिन पैरिस और स्विट्जरलैंड में मनाएंगे।”

सब के मुंह से समवेत स्वरों में निकाला था, “वाओ।”तभी मनिता बोल पड़ी, “बच्चू! तुम दोनों की कहानी का यह पार्ट तो वाकई में बेहद इंट्रेस्टिंग है, लेकिन यह बताओ, 35 साल की पकी उम्र में शादी करोगे तो बच्चे कब करोगे? या बच्चों का कोई रोल ही नहीं है तुम दोनों की फिल्म में?”इस बार विहान बोला, “अरे मनिताजी हमने यह भी सोच लिया है। शादी के बाद हम बच्चे पैदा करने में एक दिन की देर भी नहीं लगाएंगे। हम दोनों को ही बच्चे बेहद पसंद हैं, और हम एक नहीं दो बच्चे चाहते हैं।”

चलिये अवनीजी! अब हम चलते हैं। थोड़ा रिलैक्स करते हैं।”
“काश… हमने भी शादी का लड्डू इतनी जल्दी नहीं खाया होता,” इस बार अवनी बोल पड़ी और उसके साथ सब ज़ोर का ठहाका मार कर हंस दिये।

Best Hindi Story : अलमारी का ताला – कैसे खुला रितु के मन का ताला

Best Hindi Story :  हर मांबाप का सपना होता है कि उन के बच्चे खूब पढ़ेंलिखें, अच्छी नौकरी पाएं. समीर ने बीए पास करने के साथ एक नौकरी भी ढूंढ़ ली ताकि वह अपनी आगे की पढ़ाई का खर्चा खुद उठा सके. उस की बहन रितु ने इस साल इंटर की परीक्षा दी थी. दोनों की आयु में 3 वर्ष का अंतर था. रितु 19 बरस की हुई थी और समीर 22 का हुआ था. मां हमेशा से सोचती आई थीं कि बेटे की शादी से पहले बेटी के हाथ पीले कर दें तो अच्छा है. मां की यह इच्छा जानने पर समीर ने मां को समझाया कि आजकल के समय में लड़की का पढ़ना उतना ही जरूरी है जितना लड़के का.

सच तो यह है कि आजकल लड़के पढ़ीलिखी और नौकरी करती लड़की से शादी करना चाहते हैं. उस ने समझाया, ‘‘मैं अभी जो भी कमाता हूं वह मेरी और रितु की आगे की पढ़ाई के लिए काफी है. आप अभी रितु की शादी की चिंता न करें.’’ समीर ने रितु को कालेज में दाखिला दिलवा दिया और पढ़ाई में भी उस की मदद करता रहता. कठिनाई केवल एक बात की थी और वह थी रितु का जिद्दी स्वभाव. बचपन में तो ठीक था, भाई उस की हर बात मानता था पर अब बड़ी होने पर मां को उस का जिद्दी होना ठीक नहीं लगता क्योंकि वह हर बात, हर काम अपनी मरजी, अपने ढंग से करना चाहती थी.

पढ़ाई और नौकरी के चलते अब समीर ने बहुत अच्छी नौकरी ढूंढ़ ली थी. रितु का कालेज खत्म होते उस ने अपनी जानपहचान से रितु की नौकरी का जुगाड़ कर दिया था. मां ने जब दोबारा रितु की शादी की बात शुरू की तो समीर ने आश्वासन दिया कि अभी उसे नौकरी शुरू करने दें और वह अवश्य रितु के लिए योग्य वर ढूंढ़ने का प्रयास करेगा. इस के साथ ही उस ने मां को बताया कि वह अपने औफिस की एक लड़की को पसंद करता है और उस से जल्दी शादी भी करना चाहता है क्योंकि उस के मातापिता उस के लिए लड़का ढूंढ़ रहे हैं. मां यह सब सुन घबरा गईं कि पति को कैसे यह बात बताई जाए. आज तक उन की बिरादरी में विवाह मातापिता द्वारा तय किए जाते रहे थे. समीर ने पिता को सारी बात खुद बताना ठीक समझा. लड़की की पिता को पूरी जानकारी दी. पर यह नहीं बताया कि मां को सारी बात पता है. पिता खुश हुए पर कहा, ‘‘अपना निर्णय वे कल बताएंगे.’’

अगले दिन जब पिता ने अपने कमरे से आवाज दी तो वहां पहुंच समीर ने मां को भी वहीं पाया. हैरानी की बात कि बिना लड़की को देखे, बिना उस के परिवार के बारे में जाने पिता ने कहा, ‘‘ठीक है, तुम खुश तो हम खुश.’’ यह बात समीर ने बाद में जानी कि पिता के जानपहचान के एक औफिसर, जो उसी के औफिस में ही थे, से वे सब जानकारी ले चुके थे. एक समय इस औफिसर के भाई व समीर के पिता इकट्ठे पढ़े थे. औफिसर ने बहाने से लड़की को बुलाया था कुछ काम समझाने के लिए, कुछ देर काम के विषय में बातचीत चलती रही और समीर के पिता को लड़की का व्यवहार व विनम्रता भा गई थी. ‘उल्टे बांस बरेली को’, लड़की वालों के यहां से कुछ रिश्तेदार समीर के घर में बुलाए गए. उन की आवभगत व चायनाश्ते के साथ रिश्ते की बात पक्की की गई और बहन रितु ने लड्डुओं के साथ सब का मुंह मीठा कराया. हफ्ते के बाद ही छोटे पैमाने पर दोनों का विवाह संपन्न हो गया. जोरदार स्वागत के साथ समीर व पूनम का गृहप्रवेश हुआ. अगले दिन पूनम के मायके से 2 बड़े सूटकेस लिए उस का मौसेरा भाई आया. सूटकेसों में सास, ससुर, ननद व दामाद के लिए कुछ तोहफे, पूनम के लिए कुछ नए व कुछ पहले के पहने हुए कपड़े थे. एक हफ्ते की छुट्टी ले नवदंपती हनीमून के लिए रवाना हुए और वापस आते ही अगले दिन से दोनों काम पर जाने लगे. पूनम को थोड़ा समय तो लगा ससुराल में सब की दिनचर्या व स्वभाव जानने में पर अधिक कठिनाई नहीं हुई. शीघ्र ही उस ने घर के काम में हाथ बटाना शुरू कर दिया. समीर ने मोटरसाइकिल खरीद ली थी, दोनों काम पर इकट्ठे आतेजाते थे.

समीर ने घर में एक बड़ा परिवर्तन महसूस किया जो पूनम के आने से आया. उस के पिता, जो स्वभाव से कम बोलने वाले इंसान थे, अपने बच्चों की जानकारी अकसर अपनी पत्नी से लेते रहते थे और कुछ काम हो, कुछ चाहिए हो तो मां का नाम ले आवाज देते थे. अब कभीकभी पूनम को आवाज दे बता देते थे और पूनम भी झट ‘आई पापा’ कह हाजिर हो जाती थी. समीर ने देखा कि पूनम पापा से निसंकोच दफ्तर की बातें करती या उन की सलाह लेती जैसे सदा से वह इस घर में रही हो या उन की बेटी ही हो. समीर पिता के इतने करीब कभी नहीं आ पाया, सब बातें मां के द्वारा ही उन तक पहुंचाई जाती थीं. पूनम की देखादेखी उस ने भी हिम्मत की पापा के नजदीक जाने की, बात करने की और पाया कि वह बहुत ही सरल और प्रिय इंसान हैं. अब अकसर सब का मिलजुल कर बैठना होता था. बस, एक बदलाव भारी पड़ा. एक दिन जब वे दोनों काम से लौटे तो पाया कि पूनम की साडि़यां, कपड़े आदि बिस्तर पर बिखरे पड़े हैं. पूनम कपड़े तह कर वापस अलमारी में रख जब मां का हाथ बटाने रसोई में आई तो पूछा, ‘‘मां, आप कुछ ढूंढ़ रही थीं मेरे कमरे में.’’

‘‘नहीं तो, क्या हुआ?’’

पूनम ने जब बताया तो मां को समझते देर न लगी कि यह रितु का काम है. रितु जब काम से लौटी तो पूनम की साड़ी व ज्यूलरी पहने थी. मां ने जब उसे समझाने की कोशिश की तो वह साड़ी बदल, ज्यूलरी उतार गुस्से से भाभी के बैड पर पटक आई और कई दिन तक भाईभाभी से अनबोली रही. फिर एक सुबह जब पूनम तैयार हो साड़ी के साथ का मैचिंग नैकलैस ढूंढ़ रही थी तो देर होने के कारण समीर ने शोर मचा दिया और कई बार मोटरसाइकिल का हौर्न बजा दिया. पूनम जल्दी से पहुंची और देर लगने का कारण बताया. शाम को रितु ने नैकलैस उतार कर मां को थमाया पूनम को लौटाने के लिए. ‘हद हो गई, निकाला खुद और लौटाए मां,’ समीर के मुंह से निकला.

ऐसा जब एकदो बार और हुआ तो मां ने पूनम को अलमारी में ताला लगा कर रखने को कहा पर उस ने कहा कि वह ऐसा नहीं करना चाहती. तब मां ने समीर से कहा कि वह चाहती है कि रितु को चीज मांग कर लेने की आदत हो न कि हथियाने की. मां के समझाने पर समीर रोज औफिस जाते समय ताला लगा चाबी मां को थमा जाता. अब तो रितु का अनबोलापन क्रोध में बदल गया. इसी बीच, पूनम ने अपने मायके की रिश्तेदारी में एक अच्छे लड़के का रितु के साथ विवाह का सुझाव दिया. समीर, पूनम लड़के वालों के घर जा सब जानकारी ले आए और बाद में विचार कर उन्हें अपने घर आने का निमंत्रण दे दिया ताकि वे सब भी उन का घर, रहनसहन देख लें और लड़कालड़की एकदूसरे से मिल लें. पूनम ने हलके पीले रंग की साड़ी और मैचिंग ज्यूलरी निकाल रितु को उस दिन पहनने को दी जो उस ने गुस्से में लेने से इनकार कर दिया. बाद में समीर के बहुत कहने पर पहन ली. रिश्ते की बात बन गई और शीघ्र शादी की तारीख भी तय हो गई. पूनम व समीर मां और पापा के साथ शादी की तैयारी में जुट गए. सबकुछ बहुत अच्छे से हो गया पर जिद्दी रितु विदाई के समय भाभी के गले नहीं मिली.

रितु के ससुराल में सब बहुत अच्छे थे. घर में सासससुर, रितु का पति विनीत और बहन रिचा, जिस ने इसी वर्ष ड्रैस डिजाइनिंग का कोर्स शुरू किया था, ही थे. रिचा भाभी का बहुत ध्यान रखती थी और मां का काम में हाथ बटाती थी. रितु ने न कोई काम मायके में किया था और न ही ससुराल में करने की सोच रही थी. एक दिन रिचा ने भाभी से कहा कि उस के कालेज में कुछ कार्यक्रम है और वह साड़ी पहन कर जाना चाहती है. उस ने बहुत विनम्र भाव से रितु से कोई भी साड़ी, जो ठीक लगे, मांगी. रितु ने साड़ी तो दे दी पर उसे यह सब अच्छा नहीं लगा. रिचा ने कार्यक्रम से लौट कर ठीक से साड़ी तह लगा भाभी को धन्यवाद सहित लौटा दी और बताया कि उस की सहेलियों को साड़ी बहुत पसंद आई. रितु को एकाएक ध्यान आया कि कैसे वह अपनी भाभी की चीजें इस्तेमाल कर कितनी लापरवाही से लौटाती थी. कहीं ननद फिर कोई चीज न मांग बैठे, इस इरादे से रितु ने अलमारी में ताला लगा दिया और चाबी छिपा कर रख ली.

एक दिन शाम जब रितु पति के साथ घूमने जाने के लिए तैयार होने के लिए अलमारी से साड़ी निकाल, फिर ताला लगाने लगी तो विनीत ने पूछा, ‘‘ताला क्यों?’’ जवाब मिला-वह किसी को अपनी चीजें इस्तेमाल करने के लिए नहीं देना चाहती. विनीत ने समझाया, ‘‘मम्मी उस की चीजें नहीं लेंगी.’’

रितु ने कहा, ‘‘रिचा तो मांग लेगी.’’ अगले हफ्ते रितु को एक सप्ताह के लिए मायके जाना था. उस ने सूटकेस तैयार कर अपनी अलमारी में ताला लगा दिया. सास को ये सब अच्छा नहीं लगा. सब तो घर के ही सदस्य हैं, बाहर का कोई इन के कमरे में जाता नहीं, पर वे चुप ही रहीं. मायके पहुंची तो मां ने ससुराल का हालचाल पूछा. रितु ने जब अलमारी में ताला लगाने वाली बात बताई तो मां ने सिर पकड़ लिया उस की मूर्खता पर. मां ने बताया कि यहां ताला पूनम ने नहीं बल्कि मां के कहने पर उस के भाई समीर ने लगाना शुरू किया था और चाबी हमेशा मां के पास रहती थी. ताला लगाने का कारण रितु का लापरवाही से भाभी की चीजों का बिना पूछे इस्तेमाल करना और फिर बिगाड़ कर लौटाना था. यह सब उस की आदतों को सुधारने के लिए किया गया था. वह तो सुधरी नहीं और फिर कितनी बड़ी नादानी कर आई वह ससुराल में अपनी अलमारी में ताला लगा कर. मां ने समझाया कि चीजों से कहीं ऊपर है एकदूसरे पर विश्वास, प्यार और नम्रता. ससुराल में अपनी जगह बनाने के लिए और प्यार पाने के लिए जरूरी है प्यार व मान देना. रितु की दोपहर तो सोच में डूबी पर शाम को जैसे ही भाईभाभी नौकरी से घर लौटे उस ने भाभी को गले लगाया. भाभी ने सोचा शायद काफी दिनों बाद आई है, इसलिए ऐसा हुआ पर वास्तविकता कुछ और थी.

रितु ने देखा यहां अलमारी में कोई ताला नहीं लगा हुआ, वह भी शीघ्र ससुराल वापस जा ताले को हटा मन का ताला खोलना चाहती है ताकि अपनी भूल को सुधार सके, सब की चहेती बन सके जैसे भाभी हैं यहां. एक हफ्ता मायके में रह उस ने बारीकी से हर बात को देखासमझा और जाना कि शादी के बाद ससुराल में सुख पाने का मूलमंत्र है सब को अपना समझना, बड़ों को आदरमान देना और जिम्मेदारियों को सहर्ष निभाना. इतना कठिन तो नहीं है ये सब. कितनी सहजता है भाभी की अपने ससुराल में, जैसे वह सब की और सब उस के हैं. मां के घुटनों में दर्द रहने लगा था. रितु ने देखा कि भाभी ने सब काम संभाल लिया था और रात को सोने से पहले रोज वे मां के घुटनों की मालिश कर देती थीं ताकि वे आराम से सो सकें. अब वही भाभी, जिस के लिए उस के मन में इतनी कटुता थी, उस की आदर्श बनती जा रही थीं.

एक दिन जब पूनम और समीर को औफिस से आने में देर हो गई तब जल्दी कपड़े बदल पूनम रसोई में पहुंची तो पाया रात का खाना तैयार था. मां से पता चला कि खाना आज रितु ने बनाया है, यह बात दूसरी थी कि सब निर्देश मां देती रही थीं. रितु को अच्छा लगा जब सब ने खाने की तारीफ की. पूनम ने औफिस से देर से आने का कारण बताया. वह और समीर बाजार गए थे. उन्होंने वे सब चीजें सब को दिखाईं जो रितु के ससुराल वालों के लिए खरीदी गई थीं. इस इतवार दामादजी रितु को लिवाने आ रहे थे. खुशी के आंसुओं के साथ रितु ने भाईभाभी को गले लगाया और धन्यवाद दिया. मां भी अपने आंसू रोक न सकीं बेटी में आए बदलाव को देख कर. रितु ससुराल लौटी एक नई उमंग के साथ, एक नए इरादे से जिस से वह सब को खुश रखने का प्रयत्न करेगी और सब का प्यार पाएगी, विशेषकर विनीत का.

रितु ने पाया कि उस की सास हर किसी से उस की तारीफ करती हैं, ननद उस की हर काम में सहायता करती है और कभीकभी प्यार से ‘भाभीजान’ बुलाती है, ससुर फूले नहीं समाते कि घर में अच्छी बहू आई और विनीत तो रितु पर प्यार लुटाता नहीं थकता. रितु बहुत खुश थी कि जैसे उस ने बहुत बड़ा किला फतह कर लिया हो एक छोटे से हथियार से, ‘प्यार का हथियार’.

Film Review : ‘मेरे हसबैंड की बीवी’, लेखक व निर्देशक मुदस्सर अजीज का रचनात्मक दिवालियापन

Film Review : रेटिंग – एक स्टार

15 अगस्त 2024 को मुदस्सर अजीज निर्देशित तथा तापसी पन्नू, वाणी कपूर, अक्षय कुमार सहित कई सितारों से सजी फिल्म ‘खेलखेल में’ रिलीज हुई थी, जिसे बौक्स औफिस पर सफलता नसीब नहीं हुई थी. उस वक्त फिल्म के निर्देशक ने कहा था, ‘‘रिश्तों के बारे में एक निश्चित मानसिक बुद्धिमत्ता और जागरूकता है जो खेलखेल में जैसी फिल्म को समझने के लिए आवश्यक शर्तें हैं.’’ खेलखेल में फिल्म एक रीमेक फिल्म थी.

इस बार वही मुदस्सर अजीज बतौर लेखक व निर्देशक 20 से 30 वर्ष की उम्र के दर्शकों को ध्यान में रख कर मौलिक कहानी पर रोमकोम कौमेडी फिल्म ‘मेरे हसबैंड की बीवी’ ले कर आए हैं, जो कि बेसिर पैर की कहानी से युक्त अति बेतुकी फिल्म है.

कहानी

फिल्म ‘मेरे हसबैंड की बीवी’ की कहानी अंकुर (अर्जुन कपूर) की है, जिस का अपनी पत्नी प्रभलीन कौर (भूमि पेडनेकर) से तलाक हो चुका है. इस के बावजूद उस पर अपनी पूर्व पत्नी का हैंगओवर है. उसे जबजब अपनी बीवी के डरावने सपने आते हैं, तबतब सपने में उस की पत्नी उसे प्रताड़ित करती रहती है. यही वजह है कि वह दोबारा प्यार में पड़ने या शादी करने की सोचना तक नहीं चाहता. उस का दोस्त रेहान (हर्ष गुजराल) उसे लगातार किसी दूसरी लड़की से दिल लगाने को प्रेरित करता रहता है, मगर अंकुर अपनी पूर्व पत्नी प्रभलीन के बुरे ख्यालों के चलते यह हिम्मत नहीं कर पाता.

अंकुर अपने पारिवारिक बिजनेस के सिलसिले में ऋषिकेश आता है. वहां कालेज के दिनों में आकर्षण का केंद्र रहीं अंतरा खन्ना (रकुल प्रीत सिंह) से उस की मुलाकात होती है. अंतरा एक हैंगग्लाइडिंग ट्रेनर है. वह मिलते हैं और अंकुर अंतरा के साथ घूमने की हिम्मत भी करता है. वह हैंगग्लाइडिंग की सवारी भी करता है. लेकिन उतरने पर, एक्रोफोबिक अंकुर को मिचली महसूस होती है, जबकि अंतरा मुसकराती है.

रेहान के कहने पर अंकुर अंतरा के सामने शादी का प्रस्ताव रखता है, जिसे वह ठुकरा देती है. रेहान की सलाह पर अंकुर उसे प्रभावित करने के लिए एक अजीब तरीका अपनाता है. वह एक आलीशान मौल में अंतरा और उस के सख्त, असभ्य भाई, रिकी (डिनो मोरिया) के ठीक सामने पहुंचता है. कुछ नाटकीय संवादों के बाद अंतरा और उस का भाई प्रभावित होता है. बात बन जाती है.

इधर अंतरा, अंकुर के साथ स्कौटलैंड में एक भव्य समारोह और रिसैप्शन के साथ शादी करने की योजना बनाती है. तभी प्रभलीन उन की जिंदगी में लौट आती है. दरअसल, एक्सीडैंट के कारण प्रभलीन रेट्रोग्रेड एम्नेसिया जैसी बीमारी की शिकार हो चुकी है.

इस में उसे अपनी शादी याद है लेकिन अलगाव नहीं. डाक्टरों की सलाह के कारण अंकुर अपने अतीत की दुखद सच्चाई प्रभलीन को बता नहीं पाता. मगर यहां अंतरा और अंकुर अपने भविष्य के सपने बुन चुके हैं. ऐसे हालात में प्रभलीन और अंतरा के बीच अंकुर को पाने की एक होड़ मच जाती है, जिस के तहत वह दोनों किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं. सभी स्कौटलैंड पहुंच जाते हैं. उस के बाद क्या होता है, यह बताने की जरुरत नहीं.

असहनीय और थकाऊ है फिल्म की पटकथा

निर्देशक मुदस्सर अजीज ने इस फिल्म को पूरी तरह से बरबाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. फिल्म की पटकथा के साथ ही संवाद भी असहनीय, थकाऊ और शुद्ध यातनापूर्ण हैं. पिछले 20 वर्षों में उन की एकमात्र सफल फिल्म ‘हैप्पी भाग जाएगी’ थी. हीरो को पाने के लिए दो हीरोइनें जितनी चालें चलती हैं, वह सब हम ‘पतिपत्नी और वो’, ‘साजन चले ससुराल’, ‘जुदाई’, ‘सैंडविच’, ‘गोविंदा नाम मेरा’ ही नहीं लेखक व निर्देशक मुदस्सर अजीज की 2019 में कार्तिक आर्यन, भूमि पेडनेकर और अनन्या पांडे को ले कर आई फिल्म ‘पतिपत्नी और वो’ में देख चुके हैं.

लेखक व निर्देशक मुदस्सर अजीज की समझदारी की मिसाल यह है कि फिल्म के अंदर एक बैचलर पार्टी है, जिस में लड़कों के पिता भी शामिल हैं, शायद निर्देशक व लेखक मुदस्सर के अनुसार युवा लड़कों के पिता भी बैचलर होते होंगे. ‘मेरे हसबैंड की बीवी’ की कहानी में बिखराव ही बिखराव है.

लगता है कि लेखक व निर्देशक ने लोकेशन के अनुसार कुछ दृश्य फिल्माए और फिल्म के रूप में परोस दिया. उन्हें यही नहीं पता कि वह बताना क्या चाहते हैं. इंटरवल से पहले अचानक बैचलर पार्टी और मारपीट के दृश्य जबरन ठूंस कर फिल्म को खींचा गया है. तो वहीं फिल्म में जबरन एक दृश्य में मस्जिद और कबूतर उड़ते हुए दिखाया गया, जबकि वहां पर फिल्म से जुड़ा कोई किरदार मौजूद नही है. पर निर्देशक ने सोचा कम से कम इस तरह फिल्म की लंबाई में 5 से 10 मिनट की बढ़ोत्तरी हो जाएगी.

भूमि पेडनेकर के किरदार द्वारा अंकुर को डराने का उन का विचार हास्यास्पद रूप से बुरा है. अंतरा लंदन व दिल्ली के बीच रहती है, पर वह रिषिकेश में पेरा ग्लाइडिंग क्यों सिखा रही है, पता नहीं. हौट, खूबसूरत और सैक्सी अंतरा खन्ना लंदन में रहती है. डाक्टर है, पर वह सेकंड हैंड यानी कि तलाकशुदा इंसान अंकुर से शादी करने को तैयार हो जाती है, यह बात कम हास्यास्पद नहीं है?

इतना ही नहीं क्या आपने कभी किसी डाक्टर को अपने क्लिनिक में मिनीशौर्ट्स में मरीजों का इलाज करते देखा है? इस फिल्म की बेहूदगी मुदस्सर अजीज के रचनात्मक दिवालियापन का सबूत है. अंकुर व प्रभलीन के बीच तलाक की वजह साफ नहीं है. जब अंकुर, अंतरा के साथ शादी करने वाला होता है, तो प्रभलीन को अचानक अंकुर चाहिए होता है, जबकि उस के साथ उस का बौयफ्रैंड राजवीर (आदित्य सील) है. उस की वजह स्पष्ट नहीं है. अंत में प्रभलीन अचानक से क्यों अपनी गलती मान लेती है? सब कुछ बहुत ही बेसिर पैर की बाते भरी गई है. फिल्म का संगीत भी कर्णप्रिय नहीं है.

लंबे समय से हो रही है अर्जुन कपूर के अभिनय की आलोचना

पिछले लंबे समय से अर्जुन कपूर के अभिनय की आलोचना हो रही है, पर अर्जुन है कि अपने अभिनय को सुधारना ही नहीं चाहते. बामुश्किल कुछ भावनात्मक दृश्यों में उन का अभिनय ठीकठाक है. रोमांस करते हुए वह बिलकुल नही जंचते. प्रभलीन के किरदार में भूमि पेडनेकर हैं, इस फिल्म में वह ओवरएक्टिंग ही कर रही हैं. सर्जरी करा कर वह अपना चेहरा व लुक पहले ही खराब कर चुकी हैं.

मुदस्सर ने क्या सोच कर ‘मेरे हसबैंड की बीबी’ में अर्जुन कपूर व भूमि पेडणेकर को लिया. इन दोनों की आखिरी फिल्म, द लेडी किलर, 45 करोड़ के बजट पर बनी थी और अपने जीवनकाल में केवल 60 हजार की कमाई की थी. सिर्फ ‘लेडी किलर’ ही नहीं भूमि पेडनेकर अब तक रक्षाबंधन, गोविंदा नाम मेरा, भिड, अफवाह, थैंक यू फौर कमिंग सहित कई असफल फिल्में दे चुकी हैं.

फिल्म में अंतरा के किरदार में रकुल प्रीत सिंह अपना प्रभाव छोड़ने में असफल रहती हैं. 15 साल में वह अय्यारी, रनवे 34, डाक्टर जी, कठपुतली, थैंक गौड, छत्रीवाली, इंडियन 2 सहित कई असफल फिल्मों का वह हिस्सा रही हैं. फिल्म ‘मेरे हसबैंड की बीवी’ का निर्माण तो रकूल प्रीत सिंह के पति जैकी भगनानी ने किया है, ऐसे में वह क्यों भला मेहनत करती! रकूल प्रीत सिंह सिर्फ सुंदर हैं, अभिनय के मामले में वह जीरो हैं.

स्टैंडअप कमेडियन हर्ष गुजराल ने पहली बार एक्टिंग में रखा कदम

अंकुर के दोस्त रेहान के किरदार में स्टैंडअप कमेडियन और इंफ्लुएंसर हर्ष गुजराल ने पहली बार एक्टिंग में कदम रखा है. जबकि वह इस फिल्म की कमजोर कड़ी साबित होते हैं. हर्ष गुजराल को अभी काफी मेहनत करने की जरूरत है. आदित्य सील का किरदार जबरन ठूंसा हुआ लगता है. शक्ति कपूर की तीसरी या चौथी पारी जो भी हो फिल्म ‘एनिमल’ के बाद जमने लगी है. बस ये ‘आऊ’ वाला बैकग्राउंड म्यूजिक अब उन पर सूट नहीं करता. अनीता राज, टीकू टलसानिया आदि ठीकठाक हैं.

Hindi Kahani : मुझे जवाब दो – हर कुसूर की माफी नहीं होती

Hindi Kahani : ‘‘प्रिय अग्रज, ‘‘माफ करना, ‘भाई’ संबोधन का मन नहीं किया. खून का रिश्ता तो जरूर है हम दोनों में, जो समाज के नियमों के तहत निभाना भी पड़ेगा. लेकिन प्यार का रिश्ता तो उस दिन ही टूट गया था जिस दिन तुम ने और तुम्हारे परिवार ने बीमार, लाचार पिता और अपनी मां को मत्तैर यानी सौतेला कह, बांह पकड़ कर घर से बाहर निकाल दिया था. पैसे का इतना अहंकार कि सगे मातापिता को ठीकरा पकड़ा कर तुम भिखारी बना रहे थे.

‘‘लेकिन तुम सबकुछ नहीं. अगर तुम ने घर से बाहर निकाला तो उन की बांहें पकड़ सहारा देने वाली तुम्हारी बहन के हाथ मौजूद थे. जिन से नाता रखने वाले तुम्हारे मातापिता ने तुम्हारी नजर में अक्षम्य अपराध किया था और यह उसी का दंड तुम ने न्यायाधीश बन दिया था.

‘‘तुम्हीं वह भाई थे जिस ने कभी अपनी इसी बहन को फोन कर मांपिता को भेजने के लिए मिन्नतें की थीं, फरियाद की थी. बस, एक साल भी नहीं रख पाए, तुम्हारे चौकीदार जो नहीं बने वो.

‘‘तुम से तो मैं ने जिंदगी के कितने सही विचार सीखे. कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि तुम बुरी संगत में पड़, ऐशोआराम की जिंदगी जीने के लिए अपने खून के रिश्तों की जड़ें काटने पर तुल जाओगे.

‘‘एक ही शहर में, दो कदम की दूरी पर रहने वाले तुम, आज पत्र लिख अपने मन की शांति के लिए मेरे घर आना चाहते हो. क्यों, क्या अब तुम्हारे परिवार को एतराज नहीं होगा?

‘‘अब समझ आया न. पैसा नहीं, रिश्ते, अपनापन व प्यार अहम होते हैं. क्या पैसा अब तुम्हें मन की शांति नहीं दे सकता? अब खरीद लो मांबाप क्योंकि अपनों को तो तुम ने सौतेला बना दिया था.

‘‘तुम्हीं ने छोटे भाईभावज को लालच दिया था अपने बिजनैस में साझेदारी कराने का लेकिन इस शर्त पर कि मातापिता को बहन के घर से बुला अपने पास रखो, घर अपने नाम करवाओ और इतना तंग किया करो कि वे घर छोड़ कर भाग जाएं. तुम ने उन से यह भी कहा था कि वे बहन से नाता तोड़ लें. इतनी शर्तों के साथ करोड़ों के बिजनैस में छोटे भाई को साझेदारी मिल जाएगी, लेकिन साझेदारी दी क्या?

‘‘हमें क्या फर्क पड़ा. अगर पड़ा तो तुम दोनों नकारे व सफेद खून रखने वाले पुत्रों को पड़ा. पुलिस व समाज में जितनी थूथू और जितना मुंह काला छोटे भाईभावज का हुआ उतना ही तुम्हारा भी क्योंकि तुम भी उतने ही गुनाहगार थे. मत भूलो कि झूठ के पैर नहीं होते और साजिश का कभी न कभी तो परदाफाश होता है.

‘‘ठीक है, तुम कहते हो कि इतना सब होने के बाद भी मांपिताजी ने तुम्हें व छोटे को माफ कर दिया था. सो, अब हम भी कर दें, यह चाहते हो? वो तो मांबाप थे ‘नौहां तो मांस अलग नईं कर सकदे सी’, (नाखूनों से मांस अलग नहीं कर सकते थे.) पर, हम तुम्हें माफ क्यों करें?

‘‘क्या तुम अपने बीवीबच्चों को घर से बाहर निकाल सकते हो? नहीं न. क्या मांबाप लौटा सकते हो?

‘‘अब तुम भी बुढ़ापे की सीढ़ी पर पैर जमा चुके हो. इतिहास खुद को दोहराता है, यह मत भूलना. अब चूंकि तुम्हारा बेटा बिजनैस संभालने लगा है तो तुम्हारी स्थिति भी कुछकुछ मांपिताजी जैसी होने लगी है. अगर बबूल बोओगे तो आम नहीं लगेंगे. सो, अपने बुरे कृत्यों का दंश व दंड तो तुम्हें सहना ही पड़ेगा. क्षमा करना, मेरे पास तुम्हारे लिए जगह व समय नहीं है.

‘‘बेरहम नहीं हूं मैं. तुम मुझे मेरे मातापिता लौटा दो, मैं तुम्हें बहन का रिश्ता दे दूंगी, तुम्हें भाई कहूंगी. मुझे पता है उन के आखिरी दिन कैसे कटे. आज भी याद करती हूं तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. वो दशरथ की तरह पुत्रवियोग में बिलखतेविलापते, पर तुम राम न बन सके. निर्मोही, निष्ठुर यहां तक कि सौतेला पुत्र भी ऐसा व्यवहार नहीं करता होगा जैसा तुम ने किया.

‘‘तुम लिखते हो, ‘बेहद अकेले हो.’ फोन पर भी तो ये बातें कर सकते थे पर शायद इतिहास खुद को दोहराता… तुम उन के फोन की बैटरी निकाल देते थे. खैर, जले पर क्या नमक छिड़कना. जरा बताओ तो, तुम्हें अकेला किस ने बनाया? तुम्हें तो बड़ा शौक था रिश्ते तोड़ने का. अरे, ये तो मांपिताजी के चलते चल रहे थे. तुम तो रिश्ते हमेशा पैसों पर तोलते रहे. बहन, बूआ, बेटी, ननद इन सभी रिश्तों की छीछालेदर करने वाले तुम और तुम्हारी पत्नी व बेटी अब किस बात के लिए शिकायत करती फिर रही हैं. जो रिश्तेनाते अपनापन जैसे शब्द व इन की अहमियत तुम्हारी जिंदगी की किताब में कभी जगह नहीं रखते थे, उन के बारे में अब इतना क्यों तड़पना. अब इन रिश्तों को जोड़ तो नहीं सकते. उस के लिए अब नए समीकरण बनाने होंगे व नई किताब लिखनी होगी. क्या कर पाओगे ये सब?

‘‘ओह, तो तुम्हें अब शिकायत है अपने बेटेबहू से कि वे तुम्हें व तुम्हारी पत्नी को बूढ़ेबुढि़या कह कर बुलाते हैं. ये शब्द तुम ही लाए थे होस्टल से सौगात में. चलो, कम से कम पीढ़ीदरपीढ़ी यह सम्मानजनक संबोधन तुम्हारे परिवार में चलता रहेगा. बधाई हो, नई शुरुआत के लिए और रिश्तों को छीजने के लिए.

‘‘खैर, छोड़ो इन कड़वी बातों को. मीठा तो तुरंत मुंह में घुल जाता है पर कड़वा स्वाद काफी देर तक रहता है और फिर कुछ खाने का मन भी नहीं करता. सो, अब रोना काहे का. कहां गई तुम्हारी वह मित्रमंडली जिस के सामने तुम मांपिता को लताड़ते थे. क्यों, क्या वे तुम्हारे अकेलेपन के साथी नहीं या फिर आजकल महफिलें नहीं जमा पाते. बेटे को पसंद नहीं होगा यह सब?

‘‘छोड़ो वह राखीवाखी, टीकेवीके की दुहाई देना, वास्ता देना. सब लेनदेन बराबर था. शुक्र है, कुछ बकाया नहीं रहा वरना उसी का हिसाबकिताब मांग बैठते तुम.

‘‘अपने रिश्ते तो कच्चे धागे से जुड़े थे जो कच्चे ही रह गए. खुदगर्जी व लालच ही नहीं, बल्कि तुम्हारे अहंकार व दंभ ने सारे परिवार को तहसनहस कर डाला.

‘‘अब जुड़ाव मत ढूंढ़ो. दरार भरने से भी कच्चापन रह जाता है. वह मजबूती नहीं आ पाएगी अब. इस जुड़ाव में तिरस्कार की बू ताजा हो जाती है. वैसे, याद रखना, गुजरा वक्त कभी लौट कर नहीं आता.

‘‘वक्त और रिश्ते बहुत नाजुक व रेत की तरह होते हैं. जरा सी मुट्ठी खोली नहीं कि वे बिखर जाते हैं. इन्हें तो कस कर स्नेह व खुद्दारी की डोर में बांध कर रखना होता है.

‘‘कभी वक्त मिले तो इस पत्र को ध्यान से पढ़ना व सारे सवालों का जवाब ढूंढ़ना. अगर जवाब ढूंढ़ पाए तो जरूर सूचना देना. तब वक्त निकाल कर मिलने की कोशिश करूंगी. अभी तो बहुतकुछ बाकी है भा…न न…भाई नहीं कहूंगी.

‘‘मुझ बहन के घर में तो नहीं, पर हमारे द्वारा संचालित वृद्धाश्रम के दरवाजे तुम्हारे जैसे ठोकर खाए लोगों के लिए सदैव खुले हैं.

‘‘यह पनाहघर तुम्हारी जैसी संतानों द्वारा फेंके गए बूढ़े व लाचार मातापिता के लिए है. सो, अब तुम भी पनाह ले सकते हो. कभी भी आ कर रजिस्ट्रेशन करवा लेना.

‘‘तुम्हारी सिर्फ चिंतक

शोभा.’’

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