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Union Territories : सस्ता सामान और स्मार्ट सिटी दोनों सपने एकसाथ नहीं देखे जा सकते

Union Territories : फुटपाथ आम लोगों के चलने के लिए बनाई जाती हैं मगर खुमचे, रेहड़ी, पटरी वालों के चलते ये पूरे जाम रहते हैं. होता यह है कि लोगों को सड़क पर चलते हुए परेशानी होती है और कभीकभार दुर्घटनाएं भी हो जाती हैं. अगर स्मार्ट सिटी की चाह है तो सिटी प्लान होना जरूरी है.

पैदल यात्रियों की सुरक्षा को ले कर चिंता जताने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 14 मई को सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को पैदल यात्रियों के लिए उचित फुटपाथ सुनिश्चित करने के लिए गाइडलाइन तैयार करने का निर्देश दिया है. जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने कहा कि फुटपाथों की गैरमौजूदगी में पैदल यात्रियों को सड़कों पर चलने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जिस से वे हादसों और जोखिमों के शिकार होते हैं. अतिक्रमण मुक्त फुटपाथ लोगों के जीवन और स्वतन्त्रता का हिस्सा है.

बेंच ने कहा कि नागरिकों के लिए सही फुटपाथ होना बहुत जरूरी है. ये इस तरह बने होने चाहिए कि दिव्यांग व्यक्तियों के चलने के लिए भी सुलभ हों. इसलिए फुटपाथों पर हुए अतिक्रमण को हटाना जरूरी है. फुटपाथ पैदल यात्रियों के लिए उन का संवैधानिक अधिकार है. फुटपाथ का इस्तेमाल करने का पैदल यात्रियों का अधिकार संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत संरक्षित है. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को 2 महीने के भीतर पैदल यात्रियों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपनी गाइडलाइंस रिकौर्ड पर लाने का निर्देश देते हुए कहा है कि पैदल यात्रियों की सुरक्षा बेहद अहम है. आएदिन लोग सड़कों पर हादसों का शिकार हो रहे हैं क्योंकि उन के चलने के लिए फुटपाथ पर जगह नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है. एक आंकड़े के अनुसार देश में प्रतिदिन औसतन 46 पैदल यात्रियों की जान सिर्फ इस वजह से जा रही है क्योंकि फुटपाथों पर अतिक्रमण के कारण वे सड़क पर चलने के लिए मजबूर हैं. दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के आंकड़ों के अनुसार 2025 में सिर्फ 4 महीने में ही दिल्ली में पैदल चलने वाले 184 लोगों की सड़क हादसे में मौत हो गई.

दिल्ली में लगभग 80 प्रतिशत से अधिक फुटपाथों पर रेहड़ी-पटरी, ठेलों, दुकानदारों और गाड़ी वालों ने अतिक्रमण कर रखा है. ऐसे में लोग मजबूरी में सड़क पर चलने के लिए मजबूर हैं. अतिक्रमण का शिकार सिर्फ दिल्ली ही नहीं है, बल्कि तमाम छोटेबड़े शहर के फुटपाथ ऐसे अतिक्रमण से भरे पड़े हैं.

दिल्ली की बात करें तो यहां लुटियंस दिल्ली और एयरपोर्ट को कनेक्ट करने वाली द्वारका सब सिटी रोड नंबर-201 के फुटपाथ पर इस कदर अतिक्रमण है कि कोई इस पर पैदल नहीं चल सकता. लोग फुटपाथ से नीचे सड़क पर ही चलते हैं. मधु विहार बस टर्मिनल से ले कर आकाश हौस्पिटल तक रोड नंबर-201 पर करीब एक किमी दूरी तक फुटपाथ और सर्विस लेन दोनों में अतिक्रमण है. बस टर्मिनल से आकाश हौस्पिटल तक दोनों तरफ के फुटपाथ पर रेहड़ी-पटरी और खोमचे वालों ने कब्जा कर रखा है.

सर्विस लेन के ठीक सामने ही गाड़ियों के कई शोरूम हैं. वहां फुटपाथ और सर्विस लेन दोनों पर अवैध कब्जा है. सर्विस लेन में गाड़ियों की अवैध पार्किंग है. फुटपाथ पर ही बिजली कंपनी ने ट्रांसफार्मर लगा रखा है. एक जगह फुटपाथ पर पुलिस बूथ भी बना हुआ है. इसी रोड पर जहां पेट्रोल पंप है, वहां सर्विस लेन में लोगों ने झुग्गियां बना रखी हैं, इन में रहने वाली औरतें और बच्चे फुटपाथ पर ही चारपाइयां डाल कर लेटते बैठते हैं. ऐसे में पैदल यात्री इस फुटपाथ पर चढ़ता ही नहीं है. फुटपाथ पर ही उन्होंने खाना पकाने का इंतजाम भी कर रखा है. जगहजगह उन के चूल्हे जल रहे होते हैं.

मजे की बात है कि सर्विस लेन में जहां झुग्गियां बनी हैं, ठीक उसी के बगल में एमसीडी के मेंटेनेंस विभाग का औफिस है. रोड नंबर-201 के फुटपाथ का सौंदर्यीकरण करते हुए कुछ साल पहले ही डीडीए ने 60-70 लाख रुपए की लागत से उस पर बढ़िया टाइल्स लगाई थी. मगर अतिक्रमण के चलते अब टाइल्स टूट कर बिखर चुकी हैं. फुटपाथ पर ग्रीनरी के लिए जितने पेड़ लगाए गए थे वे भी अब सूख कर खत्म हो चुके हैं.

जहांगीरपुरी मेट्रो स्टेशन के बाहर आधे फुटपाथ पर स्ट्रीट वेंडर्स का कब्जा है. अतिक्रमण करने में पुलिस भी पीछे नहीं है. मेट्रो स्टेशन के गेट के लगभग 50 मीटर की दूरी पर दिल्ली पुलिस ने अपना बूथ बना लिया है, जो पूरे फुटपाथ को घेरे हुए हैं. यहां अतिक्रमण के खिलाफ लंबे समय से लोग शिकायत करते आ रहे हैं, लेकिन संबंधित विभाग कोई एक्शन नहीं लेता है. जहांगीरपुरी मेट्रो स्टेशन के चारों गेट पर कहीं लोगों ने अवैध पार्किंग की हुई है, तो कहीं पर स्ट्रीट वेंडर्स और रेहड़ी पटरी वालों ने अतिक्रमण किया हुआ है. यहां तो दिव्यांग भी सड़क पर चलने को मजबूर हैं, जिस से हर पल हादसे का डर बना रहता है.

आजादपुर टर्मिनल के बाहर फुटपाथ पर भी ऐसा ही हाल है. मौडल टाउन की तरफ जाने वाली सड़क पर सालों से फुटपाथ पर कपड़े की दुकानें लगती हैं. दुकानदारों ने सड़क को इस कदर घेर लिया है कि कोई वहां से पैदल निकल ही नहीं सकता है. इतना ही नहीं, अतिक्रमण कर रहे लोग अपना आधा सामान सड़क पर फैला देते हैं, जिस के कारण लोगों को पता ही नहीं चलता कि यहां फुटपाथ भी है. इस के अलावा मेट्रो स्टेशन के आगे इसी सड़क पर फुटपाथ पर वाटर एटीएम भी लगा दिया गया है. आदर्श नगर में भी ऐसी ही स्थिति देखने को मिलती है.

आईएसबीटी कश्मीरी गेट बस अड्डे के बाहर सड़क पर चौबीसों घंटे पैदल चलने वालों की भीड़ रहती है. चाहे रिंग रोड हो या उस के अपोजिट जीटी करनाल रोड और उस से सटी लोठियान रोड, इन तीनों सड़कों से दिनभर बस अड्डे में आनेजाने वाले लोग सामान ले कर पैदल गुजरते हैं. इस के अलावा कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन से आनेजाने वाले लोगों की भीड़ भी यहां होती है. ऐसे में कायदे से यहां सड़क के दोनों तरफ के फुटपाथ बहुत अच्छी हालत में होने चाहिए, लेकिन इस के उलट यहां स्थिति अत्यंत खराब है. रेहड़ी पटरी वालों ने फुटपाथ पर इतनी अधिक जगह घेर रखी है कि लोगों को लाइन बना कर निकलना पड़ता है. कुछ लोगों ने तो यहां फुटपाथ पर ही ढाबे खोल रखे हैं. फुटपाथ के बीचों-बीच बिजली के खंभे और साइनेज लगा दिए गए हैं. रही सही कसर नालों की सफाई के बाद निकाली गई गाद ने पूरा कर दिया है. जो फुटपाथ पर जम जम कर जगहजगह उभरे हुए टीलों सदृश्य लगती है.

जगतपुरी चौक और मेट्रो स्टेशन को पार कर के थोड़ा आगे बढ़ने पर फुट ओवरब्रिज दिखता है. इसी पोइंट से एक सड़क कृष्णा नगर की ओर जाती है. इसे हंसराज मार्ग कहते हैं. यहां फुटपाथ के साथसाथ सड़क के एक बड़े हिस्से पर कार गैराज जैसा माहौल देखने को मिलता है. इस वजह से न केवल सड़क पर चलने वाली गाड़ियों बल्कि पैदल चलने वालों के लिए भी सुरक्षित जगह नहीं मिलती.

दक्षिण दिल्ली की तरफ निकल जाएं तो दिल्ली का यह क्षेत्र कुछ साफ सुथरा तो है मगर फुटपाथों पर अतिक्रमण यहां भी हैं. अधिकांश जगह तो अब फुटपाथ गायब ही हो चुके हैं. तमाम बड़ी कोठियों ने सामने फुटपाथ वाली जगह पर कब्ज़ा कर के लोगों ने अपने छोटेछोटे गार्डन बना लिए हैं. कई जगह जहां पहले घरों के सामने फुटपाथ थे वहां लोगों ने अपने घरों के आगे सीमेंट के चबूतरे बना लिए हैं. जिस की वजह से नीचे पानी की निकासी के लिए बनाई गई नालियां भी बंद हो गई हैं. नतीजा ज़रा सी बारिश में सड़कें तालाब बन जाती हैं. खाने पीने की दुकानों के आगे जहां फुटपाथ बचे हैं वहां दुकानदारों ने कुर्सियां डाल कर ग्राहकों को बैठ कर खाने की सुविधा दे दी है. अब उन के बीच से पैदल यात्री कैसे गुजरे?

पूर्वी दिल्ली के तमाम क्षेत्र अतिक्रमण से त्रस्त हैं. यहां फुटपाथों पर फलों के ठेले, कपड़ों के ठेले, खोमचे वाले, मोची, नकली जेवर बेचने वालों ने अपने पक्के ठिकाने बना लिए हैं. झंडेवालान के फुटपाथ स्ट्रीट फ़ूड के ठेलों से भरे पड़े हैं. बाकी जगह साइकिल और मोटर ठीक करने वालों ने हथिया रखी है. यहां तो कहीं फुटपाथ के दर्शन ही नहीं होते. पैदल चलने वाले लोग सड़क पर गाड़ी-मोटर-टेम्पो-रिक्शा के बीच बचते बचाते चलते हैं. किसी को किसी गाड़ी ने टच कर लिया तो होहल्ला-गालीगलौच मचता है और भीड़ जुटने से ट्रैफिक जाम हो जाता है.

कमोबेश ऐसी हालत से पूरा देश जूझ रहा है. मगर करें क्या. हम हैं भी तो 140 करोड़. लोग ज्यादा हैं जगह कम है. अतिक्रमण से सड़कों को मुक्त करने की जिम्मेदारी जिन अधिकारियों और जिन विभागों पर है वे अदालतों की फटकार खा लेते हैं मगर करते कुछ भी नहीं हैं. करें भी क्या? इतनी बड़ी संख्या में सड़कों पर जो लोग अपना धंधा कर रहे हैं, दो जून की रोटी कमा रहे है, किसी तरह अपना परिवार पाल रहे हैं, उन का धंधा भी बंद नहीं किया जा सकता है. क्योंकि यही लोग वोटर भी हैं. सरकार बनाते गिराते हैं. इन का ख़याल भी रखना होगा. फिर हर किसी को तो सरकार नौकरी दे नहीं सकती. लोग छोटेमोटे धंधे नहीं करेंगे तो परिवार कैसे पालेंगे? दुकानें खरीदने की सबकी औकात नहीं है. लिहाजा ठेला ही लगाना पड़ता है. जमीन पर ही चादर बिछा कर सामान बेचना पड़ता है. अब नगर निगम या पुलिस ऐसे मजबूर और गरीब लोगों के पेट पर लात मारे, यह भी सुप्रीम कोर्ट नहीं चाहेगा. फिर नगर निगम और पुलिस की जेबखर्ची भी इन्ही लोगों से निकलती है.

फुटपाथों पर सामान बेचने वालों से नगर निगम के कर्मचारियों और पुलिस के सिपाहियों को प्रतिदिन बंधी बंधाई रकम मिलती है. यदि एक फुटपाथ पर सौ वेंडर्स अपना सामान बेच रहे हैं और हर दिन उन्हें वहां बैठने के 100 रूपए उस बीट के कांस्टेबल को देने पड़ रहे हैं तो उन की आमदनी का अंदाजा लगा लीजिए. यह पैसा थाने तक पहुंचता है. और यह कोई ढकी छुपी बात नहीं है. कोई भी वेंडर बता देगा कि उक्त स्थान पर बैठ कर अपना सामान बेचने के लिए वह कितना पैसा पुलिस को और कितना नगर निगम के आदमी को देता है.

हां, कभी कभी जब स्थिति ज्यादा बिगड़ती है या कोई वीवीआईपी मूवमेंट होना होता है, तब जरूर नगर निगम की गाड़ियां इन ठेलेवालों को उजाड़ने पहुंच जाती हैं. उन के ठेले जब्त कर ले जाती हैं मगर कुछ दिन बाद जुर्माना भर कर वे अपने ठेले छुड़वा लेते हैं और फिर अपनी पुरानी जगह पर आबाद हो जाते हैं.

इन ठेले वालों के बिना आम जनता का काम भी नहीं चल सकता है. देश की 70 प्रतिशत आबादी की आमदनी इतनी नहीं है कि वह हर दिन होटल का खाना अफोर्ड कर सके. घर छोड़ कर दूसरे शहरों में रह कर पढ़ने वाले बच्चे, मजदूर तबका, छोटेछोटे दफ्तरों में काम करने वाले लोग, अकेले जीवन बसर करने वाले अनेकानेक लोग अपने भोजन के लिए इन्हीं ठेले वालों, खोमचे वालों, फल वालों, ढाबे वालों पर निर्भर हैं. गरीब तबका तो पूरी तरह से इन्हीं पर निर्भर है. वे किसी बड़े शोरूम में नहीं जा सकते, तो फुटपाथ पर लगने वाले कपड़े के ठेलों से तन ढंकने के लिए सस्ता कपड़ा खरीदते हैं. खाने-पीने के लिए स्ट्रीट फ़ूड पर निर्भर होते हैं. जहां 20 रूपए में उन को रोटी सब्जी नसीब हो जाती है. 50 रुपये में छोले भठूरे की दावत हो जाती है. यही नहीं बल्कि छोटे बड़े तमाम औफिस के लोग भी लंच के वक़्त इन्हीं खोमचे वालों, ढाबे वालों, चाय वालों, फल वालों के इर्दगिर्द ही नजर आते हैं. मेट्रो स्टेशनों के नीचे, बस अड्डों पर, रेलवे स्टेशनों पर यदि रेहड़ी वाले-ठेले वाले ना हों तो भारी मुसीबत खड़ी हो जाए. आखिर लोग खाने के लिए हर दिन तो होटल नहीं जा सकते. सस्ता खाना, सस्ती चाय, सस्ता कपड़ा सभी की जरूरत है. ऐसे में स्ट्रीट वेंडर्स तो चाहिए ही.

फुटपाथों पर सस्ता सामान बेचने वालों को सरकार हटा कर किसी अन्य स्थान पर शिफ्ट भी नहीं कर सकती है. क्योंकि वे तो वहीं अपना धंधा करेंगे जहां उनकी बिक्री होगी. जहां उन के ग्राहक होंगे. ऐसे में जब भी सरकार वेंडर्स के लिए कोई ऐसी योजना लाती है जिस में उन को किसी बड़े मैदान में जगह दे दी जाए तो ऐसी योजनाएं फ्लॉप हो जाती हैं. आम जनता को भी अपनी जरूरत की चीज बस दो कदम की दूरी पर ही चाहिए, न कि किसी दूरदराज के मैदान में. तो अगर यह ठेलेवाले फुटपाथों को घेर कर बैठे हैं तो इस का जिम्मेदार कोई और नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ उपभोक्ता है. अब उपभोक्ता को सस्ता सामान भी दो कदम की दूरी पर चाहिए और वह स्मार्ट सिटी का सपना भी देखे, तो ऐसा संभव नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के कहने पर सरकार फुटपाथ पर धंधा करने वालों के लिए क्या गाइडलाइन तय करेगी और वह कितनी कारगर साबित होगी, यह देखना दिलचस्प होगा.

Hindi Kahani : नाक – अपनी इज्जत बचाने का ये कैसा था तरीका

Hindi Kahani : मां की बात सुन कर रूपबाई ठगी सी खड़ी रह गई. उसे अपने पैरों के नीचे से धरती खिसकती नजर आई. उस के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला.

रूपबाई ने तो समझा था कि यह बात सुन कर मां उस की मदद करेगी, समाज में फैली गंदी बातों से, लोगों से लड़ने के लिए उस का हौसला बढ़ाएगी और जो एक नई परेशानी उस के पेट में पल रहे बच्चे की है, उस का कोई सही हल निकालेगी. पर मां ने तो उस से सीधे मुंह बात तक नहीं की. उलटे लाललाल आंखें निकाल कर वे चीखीं, ‘‘किसी कुएं में ही डूब मरती. बापदादा की नाक कटा कर इस पाप को पेट में ले आई है, नासपीटी.’’

मां की बातें सुन कर रूपबाई जमीन पर बैठ गई. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए. उसे केवल मां का ही सहारा था और मां ही उस से इस तरह नफरत करने लगेंगी, तो फिर कौन उस का अपना होगा इस घर में. पिताजी तो उसी रामेश्वर के रिश्तेदार हैं, जिस ने जबरदस्ती रूपबाई की यह हालत कर दी. अगर पिताजी को पता चल गया, तो न जाने उस के साथ क्या सुलूक करेंगे.

रूपबाई की मां सोनबाई जलावन लेने खेत में चली गई. रूपबाई अकेली घर के आंगन में बैठी आगे की बातों से डर रही थी. हर पल उस की बेचैनी बढ़ती जा रही थी. उस की आंखों में आंसू भर आए थे. मन हो रहा था कि वह आज जोरजोर से रो कर खुद को हलका कर ले.

रामेश्वर रूपबाई का चाचा था. वह और रामेश्वर चारा लाने रोज सरसों के खेत में जाते थे. रामेश्वर चाचा की नीयत अपनी भतीजी पर बिगड़ गई और वह मौके की तलाश में रहने लगा. एक दिन सचमुच रामेश्वर को मौका मिल गया. उस दिन आसपास के खेतों में कोई नहीं था.

रामेश्वर ने मौका देख कर सरसों के पत्ते तोड़ती रूपबाई को जबरदस्ती खेत में पटक दिया. वह गिड़गिड़ाती रही और सुबकती रही, पर वह नहीं माना और उसे अपनी हवस का शिकार बना कर ही छोड़ा.

घर आने के बाद रूपबाई के मन में तो आया कि वह मां और पिताजी को साफसाफ सारी बातें बता दे, पर बदनामी के डर से चुप रह गई.

इस के बाद रामेश्वर रोज जबरदस्ती उस के साथ मुंह काला करने लगा. इस तरह चाचा का पाप रूपबाई के पेट में आ गया.

कुछ दिन बाद रूपबाई ने महसूस किया कि उस का पेट बढ़ने लगा है. मशीन से चारा काटते समय उस ने यह बात रामेश्वर को भी बताई, ‘‘तू ने जो किया सो किया, पर अब कुछ इलाज भी कर.’’

‘‘क्या हो गया?’’ रामेश्वर चौंका.

‘‘मेरे पेट में तेरा बच्चा है.’’

‘‘क्या…?’’

‘‘हां…’’

‘‘मैं तो कोई दवा नहीं जानता, अपनी किसी सहेली से पूछ ले.’’

अपनी किसी सहेली को ऐसी बात बताना रूपबाई के लिए खतरे से खाली नहीं था. हार कर उस ने यह बात अपनी मां को ही बता दी, पर मां उसे हिम्मत देने के बजाय उलटा डांटने लगीं.

शाम को रूपबाई का पिता रतन सिंह काम से वापस आ गया. वह दूर पहाड़ी पर काम करने जाता था. आते ही वह चारपाई पर बैठ गया. उसे देख कर रूपबाई का पूरा शरीर डर के मारे कांप रहा था. खाना खाने के बाद सोनबाई ने सारी बातें अपने पति को बता दीं.

यह सुन कर रतन सिंह की आंखें अंगारों की तरह दहक उठीं. वह चिल्लाया, ‘‘किस का पाप है तेरे पेट में?’’

‘‘तुम्हारे भाई का.’’

‘‘रामेश्वर का?’’

‘‘हां, रामेश्वर का. तुम्हारे सगे भाई का,’’ सोनबाई दबी जबान में बोली.

‘‘अब तक क्यों नहीं बताया?’’

‘‘शर्म से नहीं बताया होगा, पर अब तो बताना जरूरी हो गया है.’’

इस बात पर रतन सिंह का गुस्सा थोड़ा शांत हुआ, फिर उस ने पूछा, ‘‘अब…?’’

‘‘अब क्या… किसी को पता चल गया, तो पुरखों की इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी.’’

‘‘फिर…?’’

‘‘फिर क्या, इसे जहर दे कर मार डालो. गोली मेरे पास रखी हुई है.’’

‘‘और रामेश्वर…’’

‘‘उस से कुछ मत कहो. वह तो मर्द है. लड़की मर जाए, तो क्या जाता है?

‘‘अगर दोनों को जहर दोगे, तो सब को पता चल जाएगा कि दाल में कुछ काला है.’’

‘‘तो बुला उसे.’’

सोनबाई उठी और दूसरे कमरे में सो रही रूपबाई को बुला लाई. वह आंखें झुकाए चुपचाप बाप की चारपाई के पास आ कर खड़ी हो गई.

रतन सिंह चारपाई पर बैठ गया. रूपबाई उस के पैरों पर गिर कर फफक कर रो पड़ी.

रतन सिंह ने उस की कनपटी पर जोर से एक थप्पड़ मारते हुए कहा, ‘‘अब घडि़याली आंसू मत बहा. एकदम चुप हो जा और चुपचाप जहर की इस गोली को खा ले.’’

यह सुन कर रूपबाई का गला सूख गया. उसे अपने पिता से ऐसी उम्मीद नहीं थी. वह थरथर कांप उठी और अपने बाएं हाथ को कनपटी पर फेरती रह गई. झन्नाटेदार थप्पड़ से उस का सिर चकरा गया था.

रात का समय था. सारा गांव सन्नाटे में डूबा हुआ था. अपनेअपने कामों से थकेहारे लोग नींद के आगोश में समाए हुए थे. गांव में सिर्फ उन तीनों के अलावा एक रामेश्वर ही था, जो जाग रहा था. वह दूसरे कमरे में चुपचाप सारी बातें सुन रहा था.

पिता की बात सुन कर कुछ देर तक तो रूपबाई चुप रही, फिर बोली, ‘‘जहर की गोली?’’

तभी उस की मां चीखी, ‘‘हां… और क्या कुंआरी ही बच्चा जनेगी? तू ने नाक काट कर रख दी हमारी. अगर ऐसा काम हो गया था, तो किसी कुएं में ही कूद जाती.’’

‘‘मगर इस में मेरी क्या गलती है? गलती तो रामेश्वर चाचा की है. मैं उस के पैर पड़ी थी, खूब आंसू रोई थी, लेकिन वह कहां माना. उस ने तो जबरदस्ती…’’

‘‘अब ज्यादा बातें मत बना…’’ रतन सिंह गरजा, ‘‘ले पकड़ इस गोली को और खा जा चुपचाप, वरना गरदन दबा कर मार डालूंगा.’’

रूपबाई समझ गई कि अब उस का आखिरी समय नजदीक है. फिर शर्म या झिझक किस बात की? क्यों न हिम्मत से काम ले?

वह जी कड़ा कर के बोली, ‘‘मैं नहीं खाऊंगी जहर की गोली. खिलानी है, तो अपने भाई को खिलाओ. तुम्हारी नाक तो उसी ने काटी है. उस ने जबरदस्ती की थी मेरे साथ, फिर उस के किए की सजा मैं क्यों भुगतूं?’’

‘‘अच्छा, तू हमारे सामने बोलना भी सीख गई है?’’ कह कर रतन सिंह ने उस के दोनों हाथ पकड़ कर उसे चारपाई पर पटक दिया.

सोनबाई रस्सी से उस के हाथपैर बांधने लगी. रूपबाई ने इधरउधर भागने की कोशिश की, चीखीचिल्लाई, पर सब बेकार गया. उस बंद कोठरी में उस की कोई सुनने वाला नहीं था.

जब रूपबाई के हाथपैर बंध गए, तो वह अपने पिता से गिड़गिड़ाते हुए बोली, ‘‘मुझे मत मारिए पिताजी, मैं आप के पैर पड़ती हूं. मेरी कोई गलती नहीं है.’’ मगर रतन सिंह पर इस का कोई असर नहीं हुआ.

रूपबाई छटपटाती रही. रस्सी से छिल कर उस की कलाई लहूलुहान हो गई थी. वह भीगी आंखों से कभी मां की ओर देखती, तो कभी पिता की ओर.

अचानक रतन सिंह ने रूपबाई के मुंह में जहर की गोली डाल दी. लेकिन उस ने जोर लगा कर गोली मुंह से बाहर फेंक दी. गोली सीधी रतन सिंह की नाक से जा टकराई. वह गुस्से से तमतमा गया. उस ने रूपबाई के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया.

रूपबाई के गाल पर हाथ का निशान छप गया. उस का सिर भन्ना उठा. वह सोचने लगी, ‘आदमी इतना निर्दयी क्यों हो जाता है? वहां मेरे साथ जबरदस्ती बलात्कार किया गया और यहां इस पाप को छिपाने के लिए जबरदस्ती मारा जा रहा है. अब तो मर जाना ही ठीक रहेगा.’

मरने की बात सोचते ही रूपबाई की आंखों में आंसू भर आए. आंसुओं पर काबू पाते हुए वह चिल्लाई, ‘‘पिताजी, डाल दो गोली मेरे मुंह में, ताकि मेरे मरने से तुम्हारी नाक तो बच जाए.’’

रतन सिंह ने उस के मुंह में गोली डाल दी. वह उसे तुरंत निगल गई. पहले उसे नशा सा आया और फिर जल्दी ही वह हमेशा के लिए गहरी नींद में सो गई.

रतन सिंह और सोनबाई ने उस के हाथपैर खोले और उस की लाश को दूसरे कमरे में रख दिया.

सारी रात खामोशी रही. रामेश्वर बगल के कमरे में अपने किए के लिए खुद से माफी मांगता रहा.

सुबह होते ही रतन सिंह और सोनबाई चुपके से रूपबाई के कमरे में गए और दहाड़ें मार कर रोने लगे. रामेश्वर भी अपने कमरे से निकल आया. फिर वे तीनों रोने लगे.

रोनेधोने की आवाज सुन कर आसपास के लोग इकट्ठा हो गए कि क्या हो गया?

‘‘कोई सांप डस गया मेरी बच्ची को,’’ सोनबाई ने छाती पीटते हुए कहा और फिर वह दहाड़ें मार कर रो पड़ी.

Social Story : चेहरे – क्या था महिमा का असली चेहरा

Social Story : नीति ने अपना पर्स उठाया और औफिस से बाहर निकल गई.

“ठंडे दिमाग से सोचना मैडम, ऐसी नौकरी आप को दूसरी नहीं मिलेगी. लौटने का विचार बने तो फ़ोन कर देना” मधुकर ने चलतेचलते उस से कहा.

नीति ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. पैर पटकती चली गई. बाहर आ कर औटो लिया और सीधे अपने कमरे पर आ गई. पर्स बिस्तर पर फेंक कर वहीं पसर गई और रोती रही. रोतेरोते कब उस की आंख लग गई, पता नहीं चला.

अगले दिन निधि का फ़ोन आया तो उठी. रोज़ निधि के साथ ही औफिस जाती थी. दोनों एक ही जगह से बस पकड़ती थीं. आज़ नीति को नहीं देखा तो निधि ने फ़ोन कर के पूछा, “औफिस में नहीं आई है क्या? सब जगह देखा, सब से पूछा, कहीं मिली नहीं?”

“तबीयत ठीक नहीं है, घर पर ही हूं,” कह कर नीति ने फोन काट दिया. वह जानती थी कि औफिस से निधि को पता चल जाएगा कि क्यों वह वहां नहीं है. पता लगते ही वह उस से मिलने ज़रूर आएगी. कल निधि छुट्टी पर थी नहीं तो शायद वह नीति को इस तरह नौकरी छोड़ कर न आने देती.

अब तक भी कल की बात दिमाग से उतरी नहीं थी. बाथरूम में जा कर मुंह धोया और चाय बनाने रसोई में चली गई. चाय भी अच्छी नहीं बनी. दिमाग में तो उधेड़बुन चल रही थी.

नई नौकरी ढूंढनी पड़ेगी. पता नहीं अनुभव प्रमाणपत्र भी मधुकर देगा या नहीं. जब तक नौकरी नहीं मिल जाती तब तक कैसे काम चलेगा ? अकेली ही रहती है इस शहर में. दोस्त भी कोई इस हाल में नहीं है कि मदद कर पाए. सब उस के ही जैसे हैं.

चाय पी कर बिस्तर पर लेट गई. कब नींद आई, पता ही नहीं चला. दरवाजे की घंटी ज़ोरज़ोर से बज रही थी. नीति ने नींद में ही जा कर दरवाज़ा खोला.

“दिन में इतनी गहरी नींद में कौन सोता है, कब से घंटी बजा रही हूं? मुझे भी घर वापस जाना होगा,” निधि एक ही बार में सबकुछ बोल गई.

“तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए दवाई ले कर नींद आ गई,” नीति ने बहाना बनाया.

“दवाई तो तुम कभी इतनी जल्दी लेती नहीं हो. कल तो औफिस गई थी, फिर अचानक इतनी बीमार कैसे हो गई? बीमारी है या कोई और बात है जो बताना नहीं चाहती हो?” निधि ने सवाल किया.

“तुम से क्या छिपा है?” नीति ने कहा और कल की पूरी घटना निधि को बताई.

“तुझे क्या पड़ी है किसी को सुधारने की? लोग इतने अच्छे होते तो इन निकेतनों की ज़रूरत ही क्या होती? कुछ लोग पाप करते हैं. कुछ लोग उन के पाप को पनाह देते हैं.”

नीति चुपचाप सब सुन रही थी. निधि की बातें व्यावहारिक थीं. लेकिन वह उस जगह वापस लौट कर नहीं जाना चाहती थी. निकेतन चलाने वालों का सच उस के सामने आ चुका था. वहां पल रहे अधिकतर बच्चों के अभिभावकों को वे जानते थे. बड़ी पहुंच वाले, पैसे वाले लोग थे और उस पैसे से ही सब का मुंह बंद कर दिया गया था. उसी पैसे के बलबूते पर कई लोगों का घर चल रहा था. उन बच्चों के सहारे कुछ और बच्चों को भी जीवनदान मिला हुआ था. उन का जीवन भी चल रहा था. निकेतन में काम करने वाले सभी लोग इस बात को जानते हुए भी चुप रहते थे. नीति ने मुंह खोला तो नौकरी छोड़नी पड़ी.

“एक बार वापस सोच लेना. देख, अकेले तेरे काम छोड़ने से कुछ बदलने वाला नहीं है. अभी अपने बारे में सोच. नौकरी के बिना तू इस शहर में नहीं रह पाएगी.”

निधि जातेजाते भी अपनी सहेली को समझाते हुए गई. नीति ने ध्यान से उस की बात सुनी और सोचसमझ कर निर्णय लेने का वादा किया. लेकिन मन ही मन उस ने तय कर लिया था कि वापस लौट कर नहीं जाना है. उस में काबिलीयत है और काम करने का जनून भी. वह कोई दूसरी नौकरी ढूंढ ही लेगी. अपनी आंखों से सबकुछ देखते हुए गलत सहन नहीं करेगी.

दस दिन गुज़र गए पर कहीं भी बात बनी नहीं. पैसे भी धीरेधीरे ख़त्म हो रहे थे. घर पर अभी कुछ भी बताया नहीं था पर हालात घर लौटने के ही हो रहे थे. वापस जाने के बाद मम्मी, पापा की वही रट कि शादी की उम्र निकली जा रही है.

एक दिन सो कर उठी तो फ़ोन बज रहा था. किसी अनजान नंबर से कौल आ रहा था. इतनी जगह सीवी दिया है, शायद किसी कंपनी से ही हो.

“मैडम, आप आज़ ही इंटरव्यू के लिए आ जाइए.” फ़ोन पर एक लड़की बोल रही थी. नीति के कुछ पूछने से पहले ही फ़ोन कट गया. जल्दी से उठ कर नहाने गई और तैयार हो कर फ़ोन पर बताए ऐड्रेस पर पहुंची.

उम्मीद के विपरीत नौकरी मिल गई और अगले ही दिन से फिर वही पुरानी दिनचर्या शुरू हो गई. नए औफिस में जैसे उस का इंतज़ार ही हो रहा था. समय ही नहीं लगा घुलनेमिलने में. काम कुछ विशेष नहीं था, बस, फ्रंट डैस्क संभालनी थी. बौस से रोज़ ही मिलना होता. बहुत शांत और सौम्य व्यक्तित्व. जितना ज़रूरी हो उतना ही बोलते, पूरे औफिस पर उन का राज़ था.

एक दिन मधुकर को औफिस में देखा तो नीति का दिमाग घूम गया.

‘शायद डोनेशन के लिए आए होंगे,’ उस ने मन ही मन सोचा. औफिस में उस ने सुना था कि अपने प्रौफिट का एक निर्धारित प्रतिशत बौस दान कर देते हैं. कितनी ही स्वयंसेवी संस्थाओं को उन से वार्षिक अनुदान मिलता था. मधुकर नीति को नहीं देख पाया, उस ने शुक्र मनाया. वह नहीं चाहती थी कि वह उस से  बात करे या नए औफिस में कोई जान पाए कि वह मधुकर को जानती है.

दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे. नीति मस्त हो गई थी. पुराने औफिस को, मधुकर को, यहां तक कि निधि को भी लगभग भूल चुकी थी. बौस का रंग उस पर भी चढ़ने लगा था. पूरे औफिस में कोई था ही नहीं जो बौस के बारे में कुछ भी उलटासीधा बोले या उन की बुराई करे. सभी जैसे उन के एहसान तले दबे हुए थे. उन के मोहक व्यक्तित्व का प्रभाव था या धन ऐश्वर्य का, जो भी संपर्क में आता था वही गुलाम हो जाता था. बौस की सैक्रेटरी राज़ी से भी नीति की अच्छी दोस्ती हो गई थी. राज़ी ने ही बताया था कि बौस अगले हफ़्ते विदेश जाने वाले हैं एक मीटिंग के लिए. औफिस से भी एकदो लोग उन के साथ जाएंगे.

‘अच्छा होता अगर मेरा नंबर लग जाता,’ नीति ने मन ही मन सोचा. और अगले ही दिन पता चला कि बौस के साथ राज़ी और नीति का ही जाना तय हुआ है. पूरे दिन नीति खयालों में ही उड़ रही थी. उस ने कभी सोचा ही नहीं था कि किसी दिन अपने बलबूते पर वह विदेश यात्रा करने के काबिल बन पाएगी. अभी तक सुनती ही आई थी कि औफिस की मीटिंग के लिए लोग विदेश यात्रा करते हैं. जिस में अपना कुछ भी खर्च नहीं होता उलटे दोगुनी तनख्वाह मिलती है. घर पर बताने का मन हुआ लेकिन फिर खयाल आया जाने के दिन ही बता कर चौंकाएगी. पहले से बता दिया तो मम्मीपापा की हिदायतें शुरू हो जाएंगी. शंकाएं उमड़ने लगेंगी. औफिस से अकेली वही क्यों जा रही है? इन सभी खयालों के आते ही उस ने अभी नहीं बताने का पक्का इरादा बना लिया.

शाम को अपने कमरे पर पहुंची ही थी कि मधुकर का फ़ोन आया. अनमने से उस ने फ़ोन उठाया.

“नीति, आप से एक बात कहनी है अगर आप फ़ोन न काटें तो.” नीति कुछ समझ नहीं पाई, इसलिए उस ने कह दिया, “जल्दी बोलो जो बोलना है, अभी औफिस से आई हूं, ज्यादा लंबा भाषण मत देना.”

“ठीक है, सीधे ही कह देता हूं. आप इस विदेश यात्रा के लिए मना कर दीजिए.” मधुकर ने कहा तो नीति लगभग चीखते हुए बोली, “पहले तो यह बताओ तुम्हें कैसे पता कि मैं विदेश जा रही हूं?”

मधुकर ने गुस्सा नहीं किया.

“नीति जी, यह स्वयंसेवी संस्था भी आप के बौस की ही है. उन के पिताजी ने शुरू की थी लेकिन वो रिटायर हो कर अपने गांव चले गए तो अब आप के बौस ही कर्ताधर्ता हैं.”

“तुम्हें क्या समस्या है मेरे विदेश जाने से?” नीति अब भी गुस्से में ही बोल रही थी.

“समस्या मुझे नहीं, आप को होने वाली है. हर साल एक विदेश यात्रा होती है आप के बौस की. औफिस में पता करना. राज़ी तय करती है कि बौस किस के साथ जाएंगे?”

मधुकर की बात बीच में ही काट कर नीति बोली, “वो सैक्रेटरी है बौस की. उस का काम है यह. तुम्हें क्या परेशानी है? मेरी इतनी चिंता क्यों हो रही है?”

नीति फोन काटने ही वाली थी कि मधुकर ने बात पूरी सुनने का आग्रह किया.

“नीति जी, अभी आप को कुछ नहीं बता पाऊंगा, बस, इतना कह सकता हूं कि कोई बहाना बना कर मना कर देंगी तो आप का ही फ़ायदा होगा.”

फ़ोन कट गया पर नीति के दिमाग में हलचल मचा गया. पलंग पर बैठ गई. जिस दिन से मधुकर से मिली थी उस दिन से ले कर नौकरी छोड़ देने तक उसे उस के विरुद्ध कुछ भी ऐसा नहीं याद आ रहा था कि वह उस की बात पर विश्वास नहीं करे. रातभर दिमाग में द्वंद्व चलता रहा. सो भी नहीं पाई. सुबह उठते ही राज़ी को मैसेज किया.

“मम्मी की तबीयत अचानक ख़राब हो गई तो रात में ही घर के लिए निकलना पड़ा. अभी आईसीयू में हैं. जब तक तबीयत संभल नहीं जाती तब तक औफिस नहीं आ पाऊंगी.”

राज़ी का लगातार फोन आ रहा था लेकिन नीति ने बात नहीं की. घर तो नहीं गई लेकिन जब तक विदेश जाने की तारीख़ नहीं निकल गई, औफिस नहीं गई. कोई फोन भी नहीं किया. एक हफ़्ते बाद औफिस गई तो माहौल बदलाबदला सा लग रहा था. राज़ी ख़ुद को कुछ ज्यादा ही व्यस्त दिखाने में लगी हुई थी. बाकी लोग भी जैसे खिंचेखिंचे से लग रहे थे. पहली बार बौस ने किसी बात को ले कर डांट लगाई. कुल मिला कर सबकुछ बदल गया था. कोई भी ठीक से बात करने को तैयार नहीं था. नीति ने राज़ी को समझाना चाहा अपने नहीं जाने की वजह पर उस ने कोई ध्यान ही नहीं दिया.

“नीति आज़ बौस का मूड उखड़ा हुआ है और काम भी बहुत है. तुम नहीं गई, कोई बड़ी बात नहीं. वह मीटिंग वैसे भी कैंसिल हो गई थी.”

नीति ने और कुछ नहीं पूछा. अपने काम में व्यस्त हो गई. बौस के किसी काम को मना करने का क्या मतलब होता है, उसे समझ आ गया था. मधुकर से मैसेज कर के पूछा कि उस ने मना क्यों किया तो उस ने टाला नहीं, बस, छुट्टी वाले दिन मिल कर बताने को कहा.

“फ़ोन पर कही हुई या लिखी गई बात कभी भी सब के सामने आ सकती है, इसलिए बेहतर है कि आमनेसामने बात हो. कई बातों का मतलब तो मैसेज या कौल में गलत ही मान लिया जाता है क्योंकि कहने वाले के चेहरे के भाव छिप जाते हैं. आने वाले रविवार को मिलना तय हुआ.

इस मुलाकात ने मधुकर के प्रति जो गुस्सा था उसे ख़त्म कर दिया. मुलाकात एक स्वयंसेवी संस्था में ही हुई. जगह मधुकर ने ही बताई थी. वहां उस ने महिमा से मिलवाया. उस के गांव की ही लड़की थी. इस शहर में अपना कैरियर बनाने आई थी मगर एक दुर्घटना ने उसे अवसादग्रत बना दिया और नारी निकेतन पहुंचा दिया था. मधुकर उस से मिलने जाता रहता था. महिमा से मिल कर अच्छा लगा लेकिन कुछ ऐसा था जो नीति को नहीं बताया गया था. नीति बारबार यही सोच रही थी.

‘यह पूरी जानकारी नहीं है. बहुतकुछ छिपा है महिमा के चेहरे के पीछे,’ अपने मन की इस बात पर विश्वास कर के नीति ने ठान लिया था कि पता लगा कर रहेगी कि क्यों मधुकर ने महिमा से उसे मिलवाया?

अगले रविवार को फिर से नीति उसी निकेतन में जा पहुंची जहां महिमा रहती थी. वह जानती थी कि मधुकर इतनी जल्दी महिमा से मिलने नहीं जाएगा, इसलिए समय मिलते ही निकल गई. महिमा से इस बार और भी बातें हुई और उसे पता चल गया कि वह यहां कैसे पहुंची. महिमा मधुकर के साथ उस से मिली थी, इसलिए नीति पर उसे विश्वास हो गया था. दूसरे नीति ने अपने आने की सूचना मधुकर को भी नहीं दी थी, इसलिए बिना किसी रोकटोक या सलाह के वह खुल कर नीति से बात कर पाई. वह सबकुछ बता दिया जो मधुकर जानते हुए भी उस से छिपा गया था.

“महिमा तुम्हारी बहन है और व्योम उसी का बेटा है. यही कारण था कि उस का बाकी बच्चों से ज्यादा खयाल रखा जाता था. तुमने अधिराज से इस बारे में बात क्यों नहीं की?”

शाम को फोन पर नीति ने मधुकर से सीधे पूछा. कई महीनों से वह इन बातों के चंगुल में फंसी हुई थी. बाल निकेतन को छोड़ने पर भी उस की जड़ों ने उस का पीछा नहीं छोड़ा था.

“अभी समय नहीं आया है सीधे बात करने का. जब आ जाएगा, ज़रूर करूंगा. मैं तो इस शहर में आया ही उस से बात करने के लिए हूं.”

मधुकर ने दृढ़ता से उत्तर दिया. नीति ने एक और सवाल पूछा.

“मुझ से क्या चाहते हो?”

“अधिराज के मुंह से कबूलनामा कि उस ने मेरी बहन की ज़िंदगी बरबाद की है और व्योम की परवरिश.”

मधुकर ने तुरंत उत्तर दिया.

“यह कैसे संभव होगा?” कुछ सोचते हुए नीति ने पूछा.

“जल्दी ही तुम्हें बताऊंगा कि तुम्हारी ज़रूरत कहां पड़ेगी. तब तक निश्चय कर लो कि तुम इस लड़ाई में महिमा और व्योम के साथ हो.”

कहकर मधुकर ने फ़ोन काट दिया. नीति सोच रही थी कि कैसे बौस के असली चेहरे को देखे क्योंकि मधुकर की योजना में शामिल होने से पहले वह तय करना चाहती थी कि क्या मधुकर सही है? उस ने जो कहानी बताई और दिखाई है वह सच है या फिर अधिराज से मधुकर की कोई व्यक्तिगत दुश्मनी है.

नए साल की शुरुआत के साथ ही औफिस में नए कर्मचारियों की नियुक्तियां शुरू हो गईं. एक लड़की भी आई, सृष्टि. बला की खूबसूरत और बिंदास. उस के आते ही औफिस के पुरुष कर्मचारियों की कार्यक्षमता दोगुनी हो गई. पहले समय पर औफिस पहुंचना और पहले ही निकल जाना एक आम बात थी लेकिन अब सब जल्दी औफिस आते और जब तक सृष्टि नहीं चली जाती, कोई भी नहीं जाता था. पूरे औफिस का माहौल बदल गया था. थोड़े ही दिन बीते कि राज़ी को कंपनी के दूसरे औफिस में भेज दिया गया और उस की जगह सृष्टि ने ले ली. अब बौस से उस का सीधा संपर्क होने लगा तो औफिस में कानाफूसी भी बढ़ने लगी. वह कुछ देर बौस के केबिन में रुक जाती तो सब घड़ियां देखने लगते. एकएक मिनट का हिसाब रखा जाता. जब बाहर आती तो ऐसी नज़रों से उसे देखते जैसे कोई अपराध कर के आई हो.

कई बार नीति का मन होता कि इस माहौल से ख़ुद को निकाल ले पर दूसरी नौकरी मिले बिना, इसे छोड़ नहीं सकती थी. पहली नौकरी छोड़ने के बाद की हालत उसे  अभी भी भूली नहीं थी.

मधुकर का फ़ोन आया और सृष्टि पर नज़र रखने के लिए बोला. कारण, अभी नहीं बता सकता. अगले दिन बौस ने केबिन में बुलाया. उन्होंने भी सृष्टि पर नज़र रखने के लिए ही कहा. एक बार तो नीति को शक हुआ कहीं अधिराज और मधुकर मिले हुए तो नहीं हैं? पर उस का भी कोई सबूत उस के पास नहीं था. दोनों का जितना चरित्र उस के सामने आया था उस में ऐसा कुछ भी नहीं था कि उन दोनों पर शक किया जा सके. फिर गुत्थी क्या है ? बाल निकेतन, नारी निकेतन और यह औफिस जिस में वह काम करती है, कैसे एकदूसरे से जुड़े हुए हैं? महिमा, राज़ी और सृष्टि की क्या भूमिका है? व्योम क्यों बाल निकेतन में रह रहा है? दूसरे बच्चों से ज्यादा खयाल उस का क्यों रखा जाता है? बहुत सारे प्रश्न थे जिन के जवाब नीति चाहती थी लेकिन जितना इन सब के बारे में सोचती उतना ही उलझती जाती थी. नौकरी करनी है तो इस असमंजस की स्थिति में रहना सीखना ही होगा. शायद समय आने पर इन सवालों के जवाब मिल जाएं. इसी उम्मीद में वह काम कर रही थी. साथ ही, दूसरी नौकरी के लिए भी तलाश जारी थी.

नए साल का पहला दिन तो और भी चौंका कर गया. महिमा भी औफिस में वापस आ गई. वापस इसलिए कि पहले वह इसी औफिस में काम करती थी. फिर उस के साथ कुछ दुखद हुआ और वह 2 साल नारी निकेतन में थी. क्या हुआ था, यह कोई भी खुल कर नहीं बोलता था. उस के आने से औफिस में 2 दल बन गए थे. एक था जो समय मिलते ही उस की आलोचना करता और दूसरा जिस में एकदो लोग ही थे या तो चुप रहते या उस के काम की तारीफ़ किया करते. नीति ने महिमा को पहचान लिया था लेकिन उस ने ऐसा ही दिखाया जैसे नीति से वह पहली बार ही मिल रही हो. नीति को थोड़ा अजीब लगा लेकिन उस ने यही समझ लिया कि आजकल सबकुछ अजीब ही घट रहा है उस के जीवन में.

मधुकर के फ़ोन आते और वही चुप रह कर सभी पात्रों पर दृष्टि गड़ाए रखने के निर्देश दिए जाते. बौस से भी अब लगभग रोज़ ही मिलना होता. औफिस के काम के सिवा सृष्टि क्या करती है दिनभर, यह भी रिपोर्ट देनी पड़ती. सृष्टि अभी तक बिंदास फुदकती थी. काम तो दूसरे लोगों से करवा लेती और खुद सजधज, गपशप में व्यस्त रहती. बाकी की कसर बौस की तारीफों के पुल बांध कर पूरी कर लेती. उस का रुतबा बढ़ता ही जाता था. औफिस में कोई ऐसा नहीं था जो दिन में एक बार सृष्टि से मिल न लेता हो. औफिस की महिलाएं भी उस से ज़रूर मिलतीं और बात भी करतीं. यह अलग बात है कि पीठपीछे उस की हमेशा बुराई ही करतीं. सृष्टि को चर्चाओं में बने रहना बखूबी आता था. इस के पीछे उस का क्या मकसद था, यह नीति नहीं समझ पा रही थी. उसे मधुकर और बौस के कहने पर सृष्टि पर नज़र बना कर रखनी पड़ती थी. नौकरी अब दूसरों पर नज़र रखने की ही हो गई थी. कोई विशेष काम उसे नहीं करना पड़ता था. महीने के अंत में तनख्वाह मिल जाती थी. बस, यही एक मकसद बचा था इस नौकरी का. न सीखने को कुछ था और न ही करने को. लगातार दूसरी कंपनियों में आवेदन दे रही थी लेकिन कहीं से भी कोई बुलावा नहीं आता था. उसे कई बार लगता कि इस कंपनी की कोई न कोई नीति ऐसी है कि जब तक कंपनी कर्मचारी को नहीं निकाल देती तब तक दूसरी कंपनी उस के रिज्यूमे पर नज़र नहीं डालती है. दूसरे शहर में आवेदन करने का भी कई बार खयाल आता था पर फिर से नई शुरुआत करने से मन पीछे हट जाता था. मम्मीपापा हर बार बोलते कि सरकारी नौकरी के लिए भी आवेदन करो. थोड़ी तैयारी होगी तो कोई न कोई परीक्षा पास हो ही जाएगी. औफिस के साथ तैयारी का समय ही नहीं बचता था. बड़ी दुविधा में पड़ गई थी नीति.

“नीति, फौरेन इन्वैस्टर्स के साथ एक मीटिंग है. तुम्हें कंपनी में आए हुए एक साल से ज्यादा का समय हो चुका है. कंपनी के बारे में काफ़ीकुछ जान चुकी हो. तुम्हारा नाम भी औफिस से भेजा गया है. तैयार रहना. इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा.”

बौस ने सुबहसुबह बुला कर साफ़ शब्दों में आदेश दिया. न कहने की कोई गुंजाइश नहीं थी. एक बार तो बहुत गुस्सा आया, किसी भी आदेश को बिना जांचेपरखे कैसे माना जा सकता है? पहले से कोई बात नहीं. अचानक से तलवार सिर पर रख दी.

‘इस बार चल कर देखते हैं. ऐसा क्या है इन विदेशी दौरों में?’ इस खयाल ने दिमाग को थोड़ा शांत किया.

आखिर वह दिन भी आया जब नीति एयरपोर्ट पर पहुंच गई. आज़ मन में डर नहीं था बल्कि खुशी थी. उसे खुद समझ नहीं आ रहा था कि उस के साथ ऐसा क्यों हो रहा था. प्लेन में बोर्ड करने की घोषणा हो चुकी थी. जैसे ही नीति बैग उठा कर आगे बढ़ी, फोन बजने लगा. मधुकर का फ़ोन था. वापस आना था क्योंकि अंतिम समय पर मीटिंग कैंसिल होने की सूचना मिली थी.

एयरपोर्ट पर ही एक हौल में पूरी टीम इकट्ठा थी. पुलिस भी आई हुई थी. एकएक कर के सब से पूछताछ चल रही थी. सृष्टि और बौस महिमा और मधुकर.

“हुआ क्या है?” नीति ने मधुकर के पास जा कर पूछा.

“कल पेपर में पढ़ लेना. अभी पुलिस की कार्यवाही पूरी हो जाए, तो घर चले जाना.”

रात जागतेजागते बीती. बहुत दिनों बाद निधि से भी बात की. बारह बजते ही गुगल पर देखा. कुछ नहीं था. सुबह उठते ही पड़ोस वाली आंटी से पेपर ले कर आई.

“स्वयंसेवी संस्था का अध्यक्ष गिरफ्तार”

नीति पूरी ख़बर तेज़ी से पढ़ रही थी लेकिन बौस का नाम नहीं था. किसी वीरेन का नाम लिखा था.

‘शायद नाम बदल दिया है,’ उस ने सोचा. औफिस के ग्रुप में कोई मैसेज नहीं था. डरतेडरते औफिस पहुंची लेकिन सब सामान्य था.

“शुक्रिया नीति मेरी मदद करने के लिए,” महिमा पास आ कर बोली.

“पर किया क्या है मैं ने?” नीति ने थोड़ा दूर हट कर पूछा.

“मधुकर की बात मान कर औफिस में रुकने के लिए,” महिमा ने कृतज्ञता के भाव से कहा.

लेकिन नीति के चेहरे पर शिकन बरकरार थी. उस ने शिकायती लहजे में कहा, “मैं ने तो कुछ किया नहीं. क्या हुआ है, यह भी अभी तक पता नहीं है.”

“वीरेन को पकड़वाने के लिए यह सब चाल चली गई थी. एक नंबर का ऐयाश है. वह संस्था जिस में तुम काम करती थीं उस की और उस के जैसे कुछ ऐयाशों की औलादों को ही पाल रही थी.”

बौस कब आए, नीति को पता ही नहीं चला. उन्होंने आगे कहा, “महिमा उस के चंगुल में फंसी तो हम ने उस की चाल से ही उसे मात दी. कोई भी कांड कर के विदेश भाग जाता था. सृष्टि के जाल में फंस गया और नशे में सबकुछ बोल गया.”

अब नीति को कुछकुछ समझ आ रहा था. सृष्टि पहले चली गई थी. उसी होटल में थी जिस में वीरेन ठहरा हुआ था. उसी ने उस की असलियत उजागर की.

“मुझे आप सृष्टि पर नज़र रखने के लिए क्यों बोलते थे?” नीति ने सीधे पूछ ही लिया.

“यह जानने के लिए कि औफिस में किसी को कुछ पता तो नहीं चला है कि सृष्टि कौन है? वह मेरी दोस्त है, मेरी मदद कर रही थी. अब उस के पापा ने इस कंपनी को खरीद लिया है.”

नीति के दिमाग में एक और प्रश्न था उस स्वयंसेवी संस्था को ले कर.

“पापा रिटायर हो गए हैं तो उस संस्था को संभालेंगे. वीरेन के जाल को हम सब ने मिल कर काट दिया है,” सृष्टि चहकती हुई बोली.

“मैं भी वहीं हूं. वापस आना चाहो, तो आ जाना,” यह मधुकर की आवाज़ थी.

नीति सारी जानकारी जोड़ कर उसे घटना से मिलाने की कोशिश कर रही थी. जो गुनाहगार था वह चेहरा तो देख ही नहीं पाई थी वह.

लेखिका : अर्चना त्यागी

Love Story : दिल की दहलीज पर

Love Story : ‘‘आहा,चूड़े माशाअल्लाह, क्या जंच रही हो,’’ नवविवाहिता मधुरा की कलाइयों पर सजे चूड़े देख दफ्तर के सहकर्मी, दोस्त आह्लादित थे. मधुरा का चेहरा शर्म से सुर्ख पड़ रहा था. शादी के 15 दिनों में ही उस का रूप सौंदर्य और निखर गया था. गुलाबी रंगत वाले चेहरे पर बड़ीबड़ी कजरारी आंखें और लाल रंगे होंठ…

कुछ गहने अवश्य पहने थे मधुरा ने, लेकिन उस के सौंदर्य को किसी कृत्रिम आवरण की आवश्यकता न थी. नए प्यार का खुमार उस की खूबसूरती को चार चांद लगा चुका था.

‘‘और यार, कैसी चल रही है शादीशुदा जिंदगी कूल या हौट?’’ सहेलियां आंखें मटकामटका कर उसे छेड़ने लगीं. सच में मनचाहा जीवनसाथी पा मानों उसे दुनिया की सारी खुशियां मिल गई थीं. मातापिता के चयन और निर्णय से उस का जीवन खिल उठा था.

‘‘वैसे क्या बढि़या टाइम चुना तुम ने अपनी शादी का. क्रिसमस के समय वैसे भी काम कम रहता है… सभी जैसे त्योहार को पूरी तरह ऐंजौय करने के मूड में होते हैं,’’ सहेलियां बोलीं.

‘‘इसीलिए तो इतनी आसानी से छुट्टी मिल गई 15 दिनों की,’’ मधुरा की हंसी के साथसाथ सभी सहकर्मियों की हंसी के ठहाकों से सारा दफ्तर गुंजायमान हो उठा.

तभी बौस आ गए. उन्हें देख सभी चुप हो अपनीअपनी सीट पर चले गए.

‘‘बधाई हो, मधुरा. वैलकम बैक,’’ कहते हुए उन्होंने मधुरा का दफ्तर में पुन: स्वागत किया.

सभी अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए.

‘‘मधुरा, शादी की छुट्टी से पहले जो तुम ने टर्न की प्रोजैक्ट किया था कैरी ऐंड संस कंपनी के साथ, उस का क्लोजर करना शेष है. तुम्हें तो पता हैं हमारी कंपनी के नियम… जो रिसोर्स कार्य आरंभ करता है वही कार्य को पूरी तरह समाप्त कर वित्तीय विभाग से उस का पूर्ण भुगतान करवा कर, फाइल क्लोज करता है. लेकिन बीच में ही तुम्हारे छुट्टी पर जाने के कारण उन का भुगतान अटका हुआ है. उस काम को जल्दी पूरा कर देना,’’ कह कर बौस ने फोन काट दिया.

मधुरा ने फाइल एक बार फिर से देखी. भुगतान के सिवा और कार्य शेष न था. फाइल पूरी करने हेतु उसे कैरी ऐंड संस कंपनी के प्रबंधक जितेन से एक बार फिर मिलना होगा और फिर वह जितेन के विचारों में खो गई.

शाम को घर लौट कर रात के भोजन की तैयारी कर मधुरा अपने कमरे में हृदय के दफ्तर से लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी. समय काटने के लिए उस ने अपनी डायरी उठा ली. पुराने पन्ने पलटने लगी. पुराने पन्ने उसे स्वत: ही पुरानी यादों में ले गए…

29 जुलाई

आज इंप्लोई मीटिंग में बौस ने मेरे काम की तारीफ की. कितनी खुशी हुई, मेरे परिश्रम का परिणाम दिखने लगा है. नए क्लाइंट कैरी ऐंड संस कंपनी का प्रोजैक्ट भी मुझे मिल गया. इस प्रोजैक्ट को मैं निर्धारित समयसीमा में पूरा कर अपने परफौर्मैंस अप्रेजल में पूरे अंक लाऊंगी.

30 जुलाई

क्या बढि़या दफ्तर है कैरी ऐंड संस कंपनी का. मुझे आज तक अपना दफ्तर कितना एवन लगता था, लेकिन आज उन का दफ्तर देख कर मेरे होश फाख्ता हो गए. इंटीरियर डिजाइनर का काम लाजवाब है. इतने बढि़या दफ्तर में अकसर आनाजाना लगा रहेगा. मजा आ जाएगा.

31 जुलाई

सारे विभाग बहुत अच्छी तरह नियंत्रित हैं और आपस में अच्छा समन्वय स्थापित है. कैरी ऐंड संस कंपनी का आईटी विभाग प्रशंसा के काबिल है. आज अपने काम की शुरुआत की मैं ने. लोगों से मिल ली. किंतु जिन के साथ मिल कर काम करना है यानी जितेन, उन से मिलना रह गया. कल उन से भी मिल लूंगी.

1 अगस्त

मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसे हीरो जैसा बंदा दफ्तर में टकराएगा मुझ से.

उफ, कितना खूबसूरत नौजवान है जितेन. लंबाचौड़ा, सुंदर… लगता है सीधे ‘मिल्स ऐंड बून्स’ के उपन्यासों से बाहर आया है… मेरे सपनों का राजकुमार.

6 अगस्त

आज पूरे हफ्ते भर बाद फिर से जितेन से मुलाकात हुई. वे इतना व्यस्त रहते हैं कि मुलाकात ही नहीं हो पाती. इतने ऊंचे पद पर हैं… अभी तक ठीक से बात भी नहीं हो पाई है. पता नहीं कब हम दोनों को बातचीत करने का मौका मिलेगा. अभी तो मैं जितेन को अपने कार्य के बारे में भी ढंग से नहीं बता पाई हूं.

16 अगस्त

जितना देखती हूं उतना ही दीवानी होती जा रही हूं मैं जितेन की. एक बार मेरी ओर देख भर ले वह… मेरी सांस गले में ही अटक जाती है. लगता है जो बोल रही हूं, जो काम कर रही हूं, सब भूल जाऊंगी. इतना स्वप्निल मैं ने स्वयं को कभी नहीं पाया पहले. यह क्या हो जाता है मुझे जितेन के समक्ष. लेकिन वह है कि मुझे समय

ही नहीं देता. बस 4-5 मिनट कुछ काम के बारे में पूछ कर चला जाता है. कब समझेगा वह मेरे दिल का हाल? क्या मेरी आंखों में कुछ नहीं दिखता उसे?

3 सितंबर

आज घर लौटते समय एफएम, पर ‘सत्ते पे सत्ता’ मूवी का गाना सुना, ‘प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया. कि दिल करे हाय, कोई तो बताए क्या होगा… गाड़ी चलाते समय पूरा गला खोल कर गाना गाने का मजा ही कुछ और है…’ फिर आज तो गाना भी मेरे दिल का हाल बयां कर रहा था. न जाने जितेन के साथ पल दो पल कब मिलेंगे और मैं अपने दिल का हाल कब कह पाऊंगी.

हृदय के कमरे में आने की आहट से मधुरा अतीत की स्मृतियों से वर्तमान में लौट आई.

‘‘कैसा रहा दफ्तर में शादी के बाद पहला दिन?’’ हृदय ने पूछा.

मधुरा को हृदय की यह बात भी बहुत भाती थी कि वह उस की हर गतिविधि, हर भावना, हर बात का खयाल रखता है. दोनों ने बातचीत की, खाना खाया और अगली सुबह के लिए अलार्म लगा कर सो गए.

अगले दिन मधुरा अपने क्लाइंट कैरी ऐंड संस कंपनी पहुंची. आज उस ने फाइल क्लोजर की पूरी तैयारी कर ली थी. फाइनल पेमैंट का चैक देने वह जितेन के कक्ष में पहुंची. उस के हाथों में चूड़े देख जितेन ने उसे बधाई दी, ‘‘मुझे आप की कंपनी से पता चला था कि आप अपनी शादी हेतु छुट्टियों पर गई हैं.’’

कार्य पूरा करने के बाद मधुरा ने अपने दफ्तर लौटने के लिए कैब बुला ली. सारे रास्ते उस के मनमस्तिष्क में जितेन घूमता रहा. किस औपचारिकता से बात कर रहा था आज… उसे याद हो आया वह समय जब जितेन और मधुरा की मित्रता भी हो गई थी और वह ‘सिर्फ अच्छे दोस्त’ की श्रेणी से कुछ आगे भी बढ़ चुके थे.

मधुरा तब कैरी ऐंड संस कंपनी जाने के बहाने खोजती रहती. जितेन भी हर शाम उसे उस के दफ्तर से पिक करता और दोनों कहीं कौफी पीते समय व्यतीत करते. दोनों को ही एकदूसरे का साथ बेहद भाता था. मधुरा के चेहरे की चमक बढ़ती रहती और जितेन कुछ गंभीर स्वभाव का होने के बावजूद उसे देख मुसकराता रहता. जितेन आए दिन मधुरा को तोहफे देता रहता. कभी ‘शैनेल’ का परफ्यूम तो कभी ‘हाई डिजाइन’ का हैंडबैग.

‘‘जितेन, क्यों इतने महंगे तोहफे लाते हो मेरे लिए? मैं हर बार घर और दफ्तर में झूठ बोल कर इन की कीमत नहीं छिपा सकती.’’

‘‘तो सच बता दिया करो न… मैं ने कब रोका है तुम्हें?’’

‘‘तुम तो जानते हो कि हमारी कंपनी में भरती के समय हर मुलाजिम से कौंफिडैंशियलिटी ऐग्रीमैंट भरवाया जाता है. चूंकि तुम एक क्लाइंट हो, मैं तुम्हें न तो डेट कर सकती हूं और न ही तुम से शादी. इतना ही नहीं मैं तुम्हारी कंपनी अगले 2 वर्षों तक भी जौइन नहीं कर सकती हूं… तुम से शादी के बाद मैं नौकरी से त्यागपत्र दे कहीं और नौकरी ढूंढ़ूंगी…’’

‘‘शादी के बाद? हैंग औन,’’ मधुरा की बात को बीच में ही काटते हुए जितेन ने कहा, ‘‘शादी तक कहां पहुंच गईं तुम? हम एक कपल हैं, बस, मैं अभी शादीवादी के बारे में सोच भी नहीं सकता… वैसे भी शादी तो मां अपने सर्कल की किसी लड़की से करवाना चाहेंगी… तुम समझ रही हो न?’’

मधुरा के माथे पर चिंता की लकीरें और चेहरे पर असमंजस के भाव पढ़ कर जितेन ने आगे कहा, ‘‘तुम इस समय का लुत्फ उठाओ न… ये महंगे तोहफे, ये बढि़या रेस्तरां, अथाह शौंपिंग… ये सब तुम्हें खुश करने के लिए ही तो हैं… कूल?’’

उस शाम मधुरा को पता चला कि सामाजिक स्तर का भेदभाव केवल कहानियों में नहीं, अपितु वास्तविक जीवन में भी है. उस ने सोचा न था कि उसे भी इस भेदभाव का सामना करना पड़ेगा. उस के बाद जब कभी जितेन टकराया, बस एक फीकी सी मुसकान मधुरा के पाले में आई. खैर, उस का भी मन नहीं हुआ कि जितेन से बात करे. उस का मन खट्टा हो चुका था.

फिर उस की मम्मी ने उसे रमा आंटी के बेटे से मिलवाया. अच्छा लगा था मधुरा को वह. खास कर उस का नाम-हृदय. शांत, सुशील और विनम्र. घरपरिवार तो देखाभाला था ही, रहता भी इसी शहर में था. चलो, ‘मिल्स ऐंड बून्स’ के हीरो को भी देख लिया और अब वास्तविकता के नायक को भी. पर क्या करें. जीवन तो वास्तविक है. इस में सपनों से अधिक वास्तविकता का पलड़ा भारी रहना स्वाभाविक है.

जब से मधुरा की मुलाकात हृदय से हुई थी तभी से कितने अच्छे और मिठास भरे मैसेज भेजने लगा था वह. हृदय ने उस का मन पिघला दिया था. जल्दी ही हामी भर दी उस ने इस रिश्ते के लिए. उस की मम्मी और आंटी कितनी खुश हुईं. उस का मन भी खुश था. मन की तहों ने जहां एक तरफ जितेन को छाना था वहीं दूसरी तरफ हृदय को भी टटोल कर देखा था. मधुरा जैसी रुचिर, लुभावनी और मेधावी लड़की आगे बढ़ चुकी थी.

हर अनुभव जीवन में कुछ सबक लाता है और कुछ यादें छोड़ जाता है. चलते रहने का नाम ही जीवन है. मधुरा अपने दफ्तर पहुंच चुकी थी. आज वह अपने परफौर्मैंस अप्रेजल में अपने पूरे किए प्रोजैक्ट को भरने वाली थी.

Hindi Story : अभिषेक – मानस का सवाल सुन अम्मा क्यों विचलित हो गई ?

Hindi Story : ‘बमबम भोले…’ के जयजयकारे लग रहे थे. आगे से आवाज आई तो पीछे से भी जोर से सुर में सुर मिलाया गया.

‘हरहर महादेव…’ भीड़ के बीचोंबीच फंसी लगभग 80 साल की वृद्धा ने सम्मोहन की स्थिति में पुकार लगाई. ऐसा लगता था, वह इस अवस्था में काल पर विजय प्राप्त करने के लिए ही रातभर से भूखीप्यासी लाइन में लगी है.

मानस इस लाइन में 10वें नंबर पर खड़ा था. उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था कि वह यहां क्यों खड़ा है? दर्शन व अभिषेक कर वह ऐसा क्या प्राप्त कर लेगा जो उसे अभी तक नहीं मिल पाया? और जो नहीं भी मिला है, वह क्या आज के ही दिन दर्शन करने से मिलेगा, अन्य किसी दिन क्यों नहीं? ऐसी कई तार्किक बातें थीं जिन पर उस का विचारमंथन चल रहा था. वह था तो तार्किक पर अपनी पत्नी के अंधविश्वासी स्वभाव के सामने असहाय हो जाता था. इसलिए अनमने ही सही, वह भी एक हाथ में पानी से भरा तांबे का लोटा और दूसरे हाथ में बिल्व पत्र लिए रात 12 बजे से ही लाइन में धक्के खा रहा था. उसे स्वयं पर कोफ्त भी हो रही थी कि क्योंकर वह इस कुचक्र में फंस गया. उसे रहरह कर मां पर गुस्सा और पत्नी पर चिढ़ आती थी. उसे लगा कि उस के सारे तर्क मां व पत्नी की आस्था के सामने ढेर हो गए हैं.

लाइन में खड़ेखड़े मानस के पांव दुखने लगे, रहरह कर लगने वाले धक्के उस के विचारों के क्रम को तोड़ डालते थे. वह क्रम जोड़ता पर कुछ ही देर में वह फिर से टूट जाता था. इस टूटने व जुड़ने के क्रम के साथसाथ दर्शनार्थियों की लाइन भी इंच दर इंच आगे रेंग रही थी. मानस ने गति के साथ इस का तालमेल बिठाया तो पाया कि 1 घंटे में वह मात्र 2 फुट ही आगे बढ़ पाया है. उस दिन सोमवती अमावस्या थी. वैसे तो कई सोमवती अमावस्याओं पर उस ने रंगबिरंगे परिधानों से सजे ग्रामीण भक्तों की भीड़ देखी थी पर आज 27 वर्षों बाद बने दुर्लभ संयोग ने भीड़ को कई गुना बढ़ा दिया था. मानस 11 बजे रामघाट पहुंचा. तब घाट पर कीड़ेमकोड़ों की तरह भीड़ नजर आ रही थी जो सिर्फ इस बात का इंतजार कर रही थी कि जैसे ही 12 बजे अमावस लगे वैसे ही क्षिप्रा के पवित्र जल में डुबकी लगा ली जाए. लेकिन नहाने के विचार से ही मानस को उबकाई आने लगी. उसे लगा कि जरा से पानी में लाखों लोग हर डुबकी के साथ अपनी गंदगी पानी में धो लेंगे और उसी पानी में उसे नहाना होगा. वह अचकचा गया. वैसे भी, क्षिप्रा का पानी कब साफ रहता है. सारे शहर की गंदगी का नाला इस ‘पवित्र’ नदी में मिलता ही है, ऊपर से इतने लोगों का स्नान.

उस का जी वापस जाने को हुआ था. सोचा, ‘मां या पत्नी उसे देखने तो आ नहीं रहे हैं, कह दूंगा कि नहा लिया था.’

उस का मन फिरने ही लगा था कि वह एक बार फिर आस्था के आगे नतमस्तक हो गया.

एक जोर के धक्के ने उस की तंद्रा भंग की. वह जोर से चिल्ला पड़ा, ‘‘अरे भाई, धक्के मत मारो, बच्चे और बूढ़े भी लाइन में लगे हैं. ये भक्तों की लाइन है, कोई घासलेट, शक्कर की नहीं.’’

परंतु उस की आवाज संकरे गलियारे के मोड़ को भी पार न कर सकी. मानस ने पीछे गरदन घुमा कर देखा, कतार का कोई ओरछोर नजर नहीं आ रहा था. शायद पीछे वाले मोड़ के बाद खुले मैदान में भी चक्राकार कतार होगी. एकदूसरे को ठेल कर आगे बढ़ने का प्रयास करती भीड़ को पुलिस की लाठी ही संयमित कर सकती थी. फिर से मानस पर तक हावी हो गया. उस ने सोचा, क्या चाहती है यह भीड़? क्या ‘भगवान’ इतने सस्ते हैं कि एक बार चलतेचलते 2 बिल्व पत्रों और छटांकभर जल चढ़ाने से प्रसन्न हो जाएंगे? उस का मन किया कि इस भीड़ में फंसे लोगों में से किसी बनिए से पूछे कि ‘क्या वह आज के इस महादर्शन के बाद कभी डंडी नहीं मारेगा या किसी सूदखोर से पूछे कि क्या वह आज सूद न लेने का प्रण करेगा या फिर किसी वृद्धा से पूछे कि वह ऐसा प्रण कर सकती है कि आज के बाद वह अपनी बहू पर अत्याचार नहीं करेगी? पर अंधश्रद्धा से सराबोर इस भीड़ से इस तरह के प्रश्न करना मूर्खता ही होती, इसलिए वह चुप रहा.

मंदिर के एक ओर बना प्रवेशद्वार 5 मीटर चौड़े गलियारे में खुलता था. यह गलियारा, जिस में कि मानस खड़ा था, डेढ़ सौ मीटर की दूरी पर मंदिर के गर्भगृह में जाने के लिए इस द्वार को 2 मोड़ दिए गए थे. बीचबीच में छोटेछोटे मंदिरों के कारण गलियारा और भी संकरा हो गया था. गलियारा, जहां पर गर्भगृह के लिए खुलता था, वहां नीचे जाने के लिए सीढि़यां थीं. संगमरमर की होने से सीढि़यां धवल प्रकाश में जगमग चमकती थीं. सुबह 4 बजे का समय हो चला था. मानस अपनी जगह से मात्र 5 फुट ही आगे बढ़ पाया था. धक्कामुक्की में थकान के कारण कुछ शिथिलता आ गई थी. हलकीहलकी बारिश भी गरमी को कम नहीं कर पा रही थी. गलियारे में गरमी बढ़ती ही जा रही थी. लोगों के गले खुश्क और कपड़े तरबतर हो रहे थे. लाइन में लगे बच्चों की हिम्मत जवाब दे गई. 10 साल की एक बच्ची बेहाल हो कर गिर गई, शायद गरमी और प्यास के कारण ऐसा हुआ था. पर आगेपीछे खड़े किसी भी भक्त ने अभिषेक के लिए साथ में लिए लोटे से उसे पानी पिलाना उचित न समझा.

‘‘माताजी, इस बच्ची को पानी क्यों नहीं दे देतीं?’’ मानस बोला. माताजी कुछ सोचविचार में पड़ गईं, शायद धर्म का प्रश्न उन के मस्तिष्क में घूम रहा होगा. मानस ने देर न करते हुए अपने लोटे में से थोड़ा सा पानी उस लड़की को पिला दिया. चंद मिनटों बाद ही वह होश में आ गई. ‘‘दादी, दादी, भूख लगी है,’’ लड़की बोली.

अपनी धार्मिक भावना का बलपूर्वक पालन करवाने की गरज से दादी अपनी पोती को भी साथ लेती आई थी, अपने साथसाथ उस से भी उपवास करवाया लगता था. पर नन्ही बच्ची कब तक भूख सहती?

‘‘कहां से आई हो, अम्मा?’’ मानस ने समय गुजारने के लिए पूछा.

वृद्ध महिला कुछ संकोच में पड़ी हुई थी, बोली, ‘‘बेटा, औरंगाबाद से आई हूं.’’

‘‘कोई खास मन्नतवन्नत है क्या?’’ मानस ने बात बढ़ाई.

‘‘हां, इस ‘अभागी’ लड़की का भाई गूंगा है, उसी के लिए आई हूं,’’ वृद्धा ने थकी आवाज में कहा.

‘‘अम्मा, इस में लड़की कैसे अभागी हुई?’’ मानस की आवाज से हलका सा क्रोध झलक रहा था.

‘‘काहे नहीं, बहनों के ‘भाग’ से ही तो भाई का भाग होवे है,’’ वृद्धा ने जोर दे कर कहा.

मानस का जी तो किया कि इस बात पर वृद्धा को खरीखोटी सुना दे पर वह वक्त इस बात के लिए उसे ठीक न जान पड़ा. उस ने एक बार फिर उस समाज को मन ही मन कोसा जो सारे परिवार के दुख के कारण को नारी जाति से जोड़ देता है.

तभी जोर का एक धक्का आया और मानस ने अपनेआप को गलियारे के मोड़ पर खड़ा पाया, जहां से नीचे गर्भगृह में जाने की सीढि़यां शुरू होती हैं. पहले से ही संकरी जगह को बैरिकैड लगा कर और संकरा कर दिया गया था. 2 सालों के बाद ही मानस वहां गया था, उसे वहां की व्यवस्था पर आश्चर्य हो रहा था. इतनी बड़ी भीड़ को संभालने के लिए गलियारे में होमगार्ड के केवल 2 जवान थे, धक्कामुक्की पर नियंत्रण करना उन के वश में नहीं था. मानस के ठीक आगे औरंगाबाद वाली वृद्धा थी. मानस ने जानबूझ कर उस की पोती को बीच में खड़ा कर लिया था, उस के पीछे 3-4 वृद्ध और थे, जिन से वह बीचबीच में बतिया कर रातभर से उन की आस्था की थाह लेने का प्रयास कर रहा था. इसी बीच, जो लाइन धीरेधीरे रेंग रही थी, वह भी बंद हो गई. बताया जा रहा था कि भस्मारती शुरू हो गई है. भोले से रूबरू होने का समय 2 घंटे और आगे खिसक गया. संकरा मोड़ और ऊपर से उमस, उस पर शरीरों की आपसी रगड़, तपिश और जलन को मानस का पोरपोर महसूस कर रहा था. उस ने सोचा, जब उस की यह हालत है तो बच्चों और वृद्धों का क्या हाल होगा. लगता है, ये प्राणी आज ही भोले के दरबार में आवागमन चक्र से मुक्त हो जाएंगे.

भीड़ पर एकएक मिनट भारी था. व्याकुलता बढ़ती ही जाती थी. मुक्त होने पर वह और भीड़ कैसा महसूस करेगी, खुली हवा में कितनी शांति और शीतलता होगी, इस विचार ने कुछ क्षणों का कष्ट कम कर दिया. तभी बाहर दालान में तेजी से बूटों के चलने की आवाजें आईं, उसी के पीछे कई पैरों की पदचाप सुनाई पड़ी. मानस ने महज अंदाजा लगाया, कोई वीआईपी इस दुर्लभ अवसर के पुण्य को अपने खाते में डालने आया होगा. भीड़ की मुक्ति का समय कुछ और आगे बढ़ गया. आधे घंटे बाद फिर उन्हीं बूटों की आवाज गूंजी. ठीक उसी समय लोगों के लिए आगे का मार्ग खोल दिया गया. अकुलाई भीड़ ने बिना आगापीछा सोचे जोर का धक्का मारा. मानस ने आगे खड़ी लड़की का हाथ कस कर पकड़ लिया. बूढ़ी दादी को वह सहारा देता, लेकिन तब तक वह सीढि़यों पर लुढ़क गई थी. मानस ने स्वयं और लड़की को पूरा जोर लगा कर एक तरफ कर लिया. उस के बाद तो एक के बाद एक पके फल की तरह लोग गिरने लगे. मानस को कुछ सूझता, इस के पहले ही एक बड़ा रेला उन सब लोगों के ऊपर से गुजर गया.

वह पागलों की तरह चिल्ला रहा था, ‘‘अरे, आगे… मत बढ़ो. तुम्हारे भाईबंधु दब कर मर रहे हैं.’’

पर उस की कौन सुनता, सभी को भूतभावन के दरबार में जाने की जल्दी थी. जब तक भीड़ को होश आता, तब तक तो अनर्थ हो चुका था. जहां मंदिर में घंटियों का मधुर स्वर गूंजना चाहिए था वहां चारों ओर लोगों का करुणक्रंदन और चीत्कार गूंज रही थी. सभी हतप्रभ थे. मानस एक हाथ से उस लड़की को थामे था, उस के दूसरे हाथ में अभी भी जल से आधा भरा तांबे का लोटा था, जिस से शिवलिंग का अभिषेक करने का उस का मन था.

पर वह कैसे आगे बढ़ता, किस मन से करता अभिषेक? जबकि उस के इर्दगर्द व भीतर प्रलयंकारी तांडव हो रहा था. उस ने पास ही कराह रहे घायल के मुंह में अभिषेक करने की मुद्रा में जलधारा छोड़ दी. यही सच्चा अभिषेक था.

Online Hindi Story : कभी अपने लिए

Online Hindi Story : विमान ने उड़ान भरी तो मैं ने खिड़की से बाहर देखा. मुंबई की इमारतें छोटी होती गईं, बाद में इतनी छोटी कि माचिस की डब्बियां सी लगने लगीं. प्लेन में बैठ कर बाहर देखना मुझे हमेशा बहुत अच्छा लगता है. बस, बादल ही बादल, उन्हें देख कर ऐसा लगता है कि रुई के गोले चारों तरफ बिखरे पड़े हों. कई बार मन होता है कि हाथ बढ़ा कर उन्हें छू लूं.

मुझे बचपन से ही आसमान का हलका नीला रंग और कहींकहीं बादलों के सफेद तैरते टुकड़े बहुत अच्छे लगते हैं. आज भी इस तरह के दृश्य देखती हूं तो सोचती हूं कि काश, इस नीले आसमान की तरह मिलावट और बनावट से दूर इनसानों के दिल भी होते तो आपस में दुश्मनी मिट जाती और सब खुश रहते.

दिल्ली पहुंचने में 2 घंटे का समय लगना था. बाहर देखतेदेखते मन विमान से भी तेज गति से दौड़ पड़ा, एअरपोर्ट से बाहर निकलूंगी तो अभिराम भैया लेने आए हुए होंगे, वहां से हम दोनों संपदा दीदी को पानीपत से लेंगे और फिर शाम तक हम तीनों भाईबहन मां के पास मुजफ्फरनगर पहुंच जाएंगे.

हम तीनों 10 साल के बाद एकसाथ मां के पास पहुंचेंगे. वैसे हम अलगअलग तो पता नहीं कितनी बार मां के पास चक्कर काट लेते हैं. अभिराम भैया दिल्ली में हृदयरोग विशेषज्ञ हैं. संपदा दीदी पानीपत में गर्ल्स कालेज की पिं्रसिपल हैं और मैं मुंबई में हाउसवाइफ हूं. 10 साल से मुंबई में रहने के बावजूद यहां के भागदौड़ भरे जीवन से अपने को दूर ही रखती हूं. बस, पढ़नालिखना मेरा शौक है और मैं अपना समय रोजमर्रा के कामों को करने के बाद अपने शौक को पूरा करने में बिताती हूं. शशांक मेरे पति हैं. मेरे दोनों बच्चे स्नेहा और यश मुंबई के जीवन में पूरी तरह रम गए हैं. मां के पास तीनों के पहुंचने का यह प्रोग्राम मैं ने ही बनाया है. कुछ दिनों से मन नहीं लग रहा था. लग रहा था कि रुटीन में कुछ बदलाव की जरूरत है.

स्नेहा और यश जल्दी कहीं जाना नहीं चाहते, वे कहीं भी चले जाते हैं तो दोनों के चेहरों से बोरियत टपकती रहती है, शशांक सेल्स मैनेजर हैं, अकसर टूर पर रहते हैं. एक दिन अचानक मन में आया कि मां के पास जाऊं और शांति से कम से कम एक सप्ताह रह कर आऊं. शशांक या बच्चों के साथ कभी जाती हूं तो जी भर कर मां के साथ समय नहीं बिता पाती, इन्हीं तीनों की जरूरतों का ध्यान रखती रह जाती हूं, इस बार सोचा अकेली जाती हूं. मां वहां अकेली रहती हैं, हमारे पापा का सालों पहले देहांत हो चुका है. मां टीचर रही हैं. अभी रिटायर हुई हैं.

हम तीनों भाईबहनों ने उन्हें साथ रहने के लिए कई बार कहा है लेकिन वे अपना घर छोड़ना नहीं चाहतीं, उन्हें वहीं अच्छा लगता है. सुबहशाम काम के लिए राधाबाई आती है. सालों से वैसे भी मां ने अपने अकेलेपन का रोना कभी नहीं रोया, वे हमेशा खुश रहती हैं, किसी न किसी काम में खुद को व्यस्त रखती हैं.

हां, तो मैं ने ही दीदी और भैया के साथ यह कार्यक्रम बनाया है कि हम तीनों अपनेअपने परिवार के बिना एक सप्ताह मां के साथ रहेंगे. अपनी हर व्यस्तता, हर जिम्मेदारी से स्वयं को दूर रख कर. कभी अपने लिए, अपने मन की खुशी के लिए भी तो कुछ सोच कर देखें, बस कुछ दिन.

अभिराम भैया को अपने मरीजों से समय नहीं मिलता, दीदी कालेज की गतिविधियों में व्यस्त रह कर कभी अपने स्वास्थ्य की भी चिंता नहीं करतीं, मेरा एक अलग निश्चित रुटीन है लेकिन मेरे प्रस्ताव पर दोनों सहर्ष तैयार हो गए, शायद हम तीनों ही कुछ बदलाव चाह रहे थे. शशांक तो मेरा कार्यक्रम सुनते ही हंस पड़े, बोले, ‘हम लोगों से इतनी परेशान हो क्या, सुखदा?’

मैं ने भी छेड़ा था, ‘हां, तुम लोगों को भी तो कुछ चेंज चाहिए, मैं जा रही हूं, मेरा भी चेंज हो जाएगा और तुम लोगों का भी, बोर हो गई हूं एक ही रुटीन से,’ शशांक ने हमेशा की तरह मेरी इच्छा का मान रखा और मैं आज जा रही हूं.

एअरहोस्टैस की आवाज से मेरी तंद्रा भंग हुई, मैं काफी देर से अपने विचारों में गुम थी. दिल्ली पहुंच कर जैसे ही एअरपोर्ट से बाहर आई, अभिराम भैया खड़े थे, उन्होंने हाथ हिलाया तो मैं तेजी से बढ़ कर उन के पास पहुंच गई, उन्होंने हमेशा की तरह मेरा सिर थपथपाया, बैग मेरे हाथ से लिया. बोले, ‘‘कैसी हो सुखदा, मान गए तुम्हें, यह योजना तुम ही बना सकती थीं, मैं तो अभी से एक हफ्ते की छुट्टी के लिए ऐक्साइटेड हो रहा हूं, पहले घर चलते हैं, तुम्हारी भाभी इंतजार कर रही हैं.’’

रास्ते भर हम आने वाले सप्ताह की प्लानिंग करते रहे. भैया के घर पहुंच कर स्वाति भाभी के हाथ का बना स्वादिष्ठ खाना खाया. अपने भतीजे राहुल के लिए लाए उपहार मैं ने उसे दिए तो वह चहक उठा. भैया बोले, ‘‘सुखदा, थोड़ा आराम कर लो.’’

मैं ने कहा, ‘‘बैठीबैठी ही आई हूं, एकदम फ्रैश हूं, कब निकलना है?’’

भाभी ने कहा, ‘‘1-2 दिन मेरे पास रुको.’’

‘‘नहीं भाभी, आज जाने दो, अगली बार रुकूंगी, पक्का’’

‘‘हां भई, मैं कुछ नहीं बोलूंगी बहनभाई के बीच में,’’ फिर हंस कर कहा, ‘‘वैसे कुछ अलग तरह का ही प्रोग्राम बना है इस बार, चलो, जाओ तुम लोग, मां को सरप्राइज दो.’’

मैं ने भाभी से विदा ले कर अपना बैग उठाया, भैया ने अपना सामान तैयार कर रखा था. हम भैया की गाड़ी से ही पानीपत बढ़ चले. वहां संपदा दीदी हमारा इंतजार कर रही थीं. ढाई घंटे में दीदी के पास पहुंच गए, वहां चायनाश्ता किया, जीजाजी हमारे प्रोग्राम पर हंसते रहे, अपनी टिप्पणियां दे कर हंसाते रहे, बोले, ‘‘हां, भई, ले जाओ अपनी दीदी को, इस बहाने थोड़ा आराम मिल जाएगा इसे,’’ फिर धीरे से बोले, ‘‘हमें भी.’’ सब ठहाका लगा कर हंस पड़े. दीदी की बेटियों के लिए लाए उपहार उन्हें दे कर हम मां के पास जाने के लिए निकल पड़े. पानीपत से मुजफ्फरनगर तक का समय कब कट गया, पता ही नहीं चला.

मुजफ्फरनगर में गांधी कालोनी में  जब कार मुड़ी तो हमें दूर से ही  अपना घर दिखाई दिया, तो भैया बच्चों की तरह बोले, ‘‘बहुत मजा आएगा, मां के लिए यह बहुत बड़ा सरप्राइज होगा.’’

हम ने धीरे से घर का दरवाजा खोला. बाहरी दरवाजा खोलते ही गेंदे के फूलों की खुशबू हमारे तनमन को महका गई. दरवाजे के एक तरफ अनगिनत गमले लाइन से रखे थे और मां अपने बगीचे की एक क्यारी में झुकी कुछ कर रही थीं. हमारी आहट से मुड़ कर खड़ी हुईं तो खड़ी की खड़ी रह गईं, इतना ही बोल पाईं, ‘‘तुम तीनों एकसाथ?’’

हम तीनों ही मां के गले लग गए और मां ने अपने मिट्टी वाले हाथ झाड़ कर हमें अपनी बांहों में भरा तो पल भर के लिए सब की आंखें भर आईं, फिर हम चारों अंदर गए, दीदी ने कहा, ‘‘यह कार्यक्रम सुखदा ने मुंबई में बनाया और हम आप के साथ पूरा एक हफ्ता रहेंगे.’’

मां की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था, हमारे सुंदर से खुलेखुले घर में मां अकेली ही तो रहती हैं. हां, एक हिस्सा उन के किराएदार के पास है. मां के मना करने पर भी हम दोनों मां के साथ किचन में लग गईं और भैया थोड़ी देर सो गए. इतनी देर गाड़ी चलाने से उन्हें कुछ थकान तो थी ही. फिर हम चारों ने डिनर किया, अपनेअपने घर सब के हालचाल लिए. सोने को हुए तो बिजली चली गई, मां को फिक्र हुई, बोलीं, ‘‘तुम तीनों को दिक्कत होगी अब, इनवर्टर भी खराब है, तुम लोगों को तो ए.सी.  की आदत है. मैं तो छत पर भी सो जाती हूं.’’

संपदा  दीदी ने कहा, ‘‘मां, मुझ से छत पर नहीं सोया जाएगा.’’

भैया बोले, ‘‘फिक्र क्यों करती हो दीदी, चल कर देखते हैं.’’ और हम चारों अपनीअपनी चटाई ले कर छत पर चले गए. हम छत पर क्या गए, तनमन खुशी से झूम उठा. क्या मनमोहक दृश्य था, फूलों की मादक खुशबू छाई हुई थी, संदली हवाओं के बीच धवल चांदनी छिटकी हुई थी. हम सब खुले आसमान के नीचे चटाई बिछा कर लेट गए, फ्लैटों में तो कभी छत के दर्शन ही नहीं हुए थे. खुले आकाश के आंचल में तारों का झिलमिल कर टिमटिमाना बड़ा ही सुखद एहसास था. बचपन में मां ने कई बार बताया था, ठीक 4 बजे भोर का तारा निकल आता है.

‘‘प्रकृति में कितना रहस्य व आनंद है लेकिन आज का मनुष्य तो बस, मशीन बन कर रह गया है. अच्छा किया तुम लोग आ गए, रोज की दौड़भाग से तुम लोगों को कुछ आराम मिल जाएगा,’’ मां ने कहा.

प्राकृतिक सुंदरता को देखतेदेखते हम कब सो गए, पता ही नहीं चला जबकि ए.सी. में भी इतना आनंद नहीं था. सब ने सुबह बहुत ही तरोताजा महसूस किया. जैसे हम में नई चेतना, नए प्राण आ गए थे. गमले के पौधों की खुशबू से पूरा वातावरण महक रहा था. रजनीगंधा व बेले की खुशबू ने तनमन दोनों को सम्मोहित कर लिया था. हम नीचे आए, मां नाश्ता तैयार कर चुकी थीं. भैया अपनी पसंद के आलू के परांठे देख कर खुश हो गए. उत्साह से कहा, ‘‘आज तो खा ही लेता हूं, बहुत हो गया दूध और कौर्नफ्लेक्स का नाश्ता.’’

मैं ने कहा, ‘‘मां, मुझे तो कुछ हलका ही दे दो, मुझे सुबह कुछ हलका ही लेने की आदत है.’’

दीदी भी बोलीं, ‘‘हां, मां, एक ब्रैडपीस ही दे दो.’’

अभिराम भैया ने टोका, ‘‘यह पहले ही तय हो गया था कि कोई खानेपीने के नखरे नहीं करेगा, जो बनेगा सब एकसाथ खाएंगे.’’

मां हंस पड़ीं, ‘‘क्या यह भी तय कर के आए हो?’’

दीदी बोलीं, ‘‘हां, मां, सुखदा ने ही कहा था, दीदी आप अपना माइग्रेन भूल जाना और मैं कमरदर्द तो मैं ने इस से कहा था, तू भी फिगर और ऐक्सरसाइज की चिंता मुंबई में ही छोड़ कर आना.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है, चलो, चारों नाश्ता करते हैं.’’

हम ने डट कर नाश्ता किया और फिर मां के साथ किचन समेट कर खूब बातें कीं.

राधाबाई आई तो हम तीनों बाजार घूमने चले गए. दिल्ली, मुंबई के मौल्स में घूमना अलग बात है और यहां दुकानदुकान जा कर खरीदारी करना अलग बात है. हम तीनों ने अपनेअपने परिवार के लिए कुछ न कुछ खरीदा, फोन पर सब के हालचाल लिए और फिर अपनी मनपसंद जगह ‘गोल मार्किट’ चाट खाने पहुंच गए. हमारा डाक्टर भाई जिस तरह से हमारे साथ चाट खा रहा था, कोई देखता तो उसे यकीन ही नहीं होता कि वह अपने शहर का प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ है. ढीली सी ट्राउजर पर एक टीशर्ट पहने दीदी को देख कर कौन कह सकता है कि वे एक सख्त पिं्रसिपल हैं, मैं ये पल अपने में संजो लेना चाहती थी, दीदी ने मुझे कहीं खोए हुए देख कर पूछा भी, ‘‘चाट खातेखाते हमारी लेखिका बहन कोई कहानी ढूंढ़ रही है क्या?’’ मैं हंस पड़ी.

हम तीनों ने मां के लिए साडि़यां खरीदीं और खाने का काफी सामान पैक करवा कर घर आए. बस, अब हम तीनों मां के साथ बातें करते, चारों कभी घूमतेफिरते ‘शुक्रताल’ पहुंच जाते कभी बाजार. भैया ने अपने मरीजों से, दीदी ने कालेज से और मैं ने अपने गृहकार्यों से जो समय निकाल लिया था, उसे हम जी भर कर जी रहे थे. शाम होते ही हम अपनी चटाइयां ले कर छत पर पहुंच जाते, इनवर्टर ठीक हो चुका था लेकिन छत पर सोने का सुख हम खोना नहीं चाहते थे. अपनी मां के साथ हम तीनों छत पर साथ बैठ कर समय बिताते तो हमें लगता हम किसी और ही दुनिया में पहुंच गए हैं.

मैं सोचती महानगर में सोचने का वक्त भी कहां मिलता है, अपनी भावनाओं को टटोलने की फुरसत भी कहां मिलती है. शाम की लालिमा को निहार कर कल्पनाओं में डूबने का समय कहां मिलता है, सुबह सूरज की रोशनी से आंखें चार करने का पल तो कैद हो जाता है कंकरीट की दीवारों में.

दीदी अपना माइग्रेन और मैं अपना कमरदर्द भूल चुकी थी. आंगन में लगे अमरूद के पेड़ से जब भैया अमरूद तोड़ कर खाते तो दृश्य बड़ा ही मजेदार होता.

छठी रात थी. कल जाना था, छत पर गए तो लेटेलेटे सब चुप से थे, मेरा दिल भी भर आया था, ये दिन बहुत अच्छे बीते थे, बहुत सुकून भरे और निश्चिंत से दिन थे, ऐसा लगता रहा था कि फिर से बचपन में लौट गए थे, वही बेफिक्री के दिन. सच ही है किसी का बचपन उम्र बढ़ने के साथ भले ही बीत जाए लेकिन वह उस के सीने में सदैव सांस लेता रहता है. यह संसार, प्रकृति तो नहीं बदलती, धूपछांव, चांदतारे, पेड़पौधे जैसे के तैसे अपनी जगह खड़े रहते हैं और अपनी गति से चलते रहते हैं. वह तो हमारी ही उम्र कुछ इस तरह बढ़ जाती है कि बचपन की उमंग फिर जीवन में दिखाई नहीं देती.

मां ने मुझे उदास और चुप देखा तो मेरे लेखन और मेरी प्रकाशित कहानियों की बातें छेड़ दीं क्योेंकि मां जानती हैं यही एक ऐसा विषय है जो मुझे हर स्थिति में उत्साहित कर देता है. मुझे मन ही मन हंसी आई, बच्चे कितने भी बड़े हो जाएं, मां हमेशा अपने बच्चों के दिल की बात समझ जाती है. मां ने मेरी रचनाओं की बात छेड़ी तो सब उठ कर बैठ गए. मां, दीदी, भैया वे सब पत्रिकाएं जिन में मेरी रचनाएं छपती रहती हैं जरूर पढ़ते हैं और पढ़ते ही सब मुझे फोन करते हैं और कभीकभी तो किसी कहानी के किसी पात्र को पढ़ते ही समझ जाते हैं कि वह मैं ने वास्तविक जीवन के किस व्यक्ति से लिया है. फिर सब मुझे खूब छेड़ते हैं. कुछ हंसीमजाक हुआ तो फिर सब का मन हलका हो गया.

जाने का समय आ गया, दिल्ली से ही फ्लाइट थी. मां ने पता नहीं क्याक्या, कितनी चीजें हम तीनों के साथ बांध दी थीं. हम तीनों की पसंद के कपड़े तो पहले ही दिलवा लाईं. अश्रुपूर्ण नेत्रों से मां से विदा ले कर हम तीनों पानीपत निकल गए, रास्ते में ही अगले साल इसी तरह मिलने का कार्यक्रम बनाया, यह भी तय किया परिवार के साथ आएंगे, यदि बच्चे आ पाए तो अच्छा होगा, हमें भी तो अपने बच्चों का प्रकृति से परिचय करवाना था, हमें लगा कहीं महानगरों में पलेबढ़े हमारे बच्चे प्रकृति के उस रहस्य व आनंद से वंचित न रह जाएं जो मां की बगिया में बिखरा पड़ा था और अगर बच्चे आना नहीं चाहेंगे तो हम तीनों तो जरूर आएंगे, पूरे साल से बस एक हफ्ता तो हम कभी अपने लिए निकाल ही सकते हैं, मां के साथ बचपन को जीते हुए, प्रकृति की छांव में.

Best Hindi Story : गूंगी गूंज – एक मांं की बेबसी की कहानी

Best Hindi Story : “रिमझिम के तराने ले के आई बरसात, याद आई किसी से वो पहली मुलाकात,” जब भी मैं यह गाना सुनती हूं, तो मन बहुत विचलित हो जाता है, क्योंकि याद आती है, पहली नहीं, पर आखिरी मुलाकात उस के साथ. आज फिर एक तूफानी शाम है. मुझे सख्त नफरत है वर्षा  से. वैसे तो यह भुलाए न भूलने वाली बात है, फिर भी जबजब वर्षा होती है तो मुझे तड़पा जाती है.

मुझे याद आती है मूक मीनो की, जो न तो मेरे जीवन में रही और न ही इस संसार में. उसे तकदीर ने सब नैमतों से महरूम रखा था. जिन चीजों को हम बिलकुल सामान्य मानते हैं, वह मीनो के लिए बहुत अहमियत रखती थीं. वह मुंह से तो कुछ नहीं बोल सकती थी, पर उस के नयन उस के विचार प्रकट कर देते थे.

कहते हैं, गूंगे की मां ही समझे गूंगे की बात. बहुतकुछ समझती थी, पर मैं अपनी कुछ मजबूरियों के कारण मीनो को न चाह कर भी नाराज कर देती थी.

बारिश की पहली बूंद पड़ती और वह भाग कर बाहर चली जाती और खामोशी से आकाश की ओर देखती, फिर नीचे पांव के पास बहते पानी को, जिस में बहती जाती थी सूखें पत्तों की नावें. ताली मार कर खिलखिला कर हंस पड़ती थी वह.

बादलों को देखते ही मेरे मन में एक अजीब सी उथलपुथल हो जाती है और एक तूफान सा उमड़ जाता है जो मुझे विचलित कर जाता है और मैं चिल्ला उठती हूं मीनो, मीनो…

मीनो जन्म से ही मानसिक रूप से अविकसित घोषित हुई थी. डाक्टरों की सलाह से बहुत जगह ले गई, पर कहीं उस के पूर्ण विकास की आशा नजर नहीं आई.

मीनो की अपनी ही दुनिया थी, सब से अलग, सब से पृथक. सब सांसारिक सुखों से क्या, वह तो शारीरिक व मानसिक सुख से भी वंचित थी. शायद इसीलिए वह कभीकभी आंतरिक भय से प्रचंड रूप से उत्तेजित हो जाती थी. सब को उस का भय था और उसे भय था अनजान दुनिया का, पर जब वह मेरे पास होती तो हमेशा सौम्य, बहुत शांत व मुसकराती रहती.

बहुत कोशिश की थी उस रोज कि मुझे गुस्सा न आए, पर 6 वर्षों की सहनशीलता ने मानसिक दबावों के आगे घुटने टेक दिए थे और क्रोध सब्र का बांध तोड़ता हुआ उमड़ पड़ा था. क्या करती मैं? सहनशीलता की भी अपनी सीमाएं होती हैं.

एक तरफ मीनो, जिस ने सारी उम्र मानसिक रूप से 3 साल का ही रहना था और दूसरी ओर गोद में सुम्मी. दोनों ही बच्चे, दोनों ही अपनी आवश्यकताओं के लिए मुझ पर निर्भर.

उस दिन एहसास हुआ था मुझे कि कितना सहारा मिलता है एक संयुक्त परिवार से. कितने ही हाथ होते हैं आप का हाथ बंटाने को और इकाई परिवार में स्वतंत्रता के नाम पर होती है आत्मनिर्भरता या निर्भर होना पड़ता है मनमानी करती नौकरानी पर. नौकर मैं रख नहीं सकती थी, क्योंकि मेरी 2 बेटियां थीं और कोई उन पर बुरी नजर नहीं डालेगा, इस की कोई गारंटी नहीं थी.

आएदिन अखबारों में ऐसी खबरें छपती रहती हैं. मीनो के साथसाथ मेरा भी परिवार सिकुड़ कर बहुत सीमित हो गया था. संजीव, मीनो, सुम्मी और मैं. कभीकभी तो संजीव भी अपने को उपक्षित महसूस करते थे. हमारी कलह को देख कर कई लोगों ने मुझे सलाह दी कि मीनो को मैं पागलखाने में दाखिल करा दूं और अपना ध्यान अपने पति और दूसरी बच्ची पर पूरी तरह दूं, पर कैसे करती मैं
मीनो को अपने से दूर. उस का संसार तो मैं ही थी और मैं नहीं चाहती थी कि उसे कोई तकलीफ हो, पर अनचाहे ही सब तकलीफों से छुटकारा दिला दिया मैं ने.

उस दिन मेरा और संजीव का बहुत झगड़ा हुआ था. फुटबाल का ‘विश्व कप’ का फाइनल मैच था. मैं ने संजीव से सुम्मी को संभालने को कहा, तो उस ने मना तो नहीं किया, पर बुरी तरह बोलना शुरू कर दिया.

यह देख मुझे बहुत गुस्सा आया और मैं ने भी उलटेसीधे जवाब दे दिए. फुटबाल मैच में तो शायद ब्राजील जीता था, परंतु उस मौखिक युद्ध में हम दोनों ही पराजित हुए थे. दोनों भूखे ही लेट गए और रातभर करवटें बदलते रहे.

सुबह भी संजीव नाराज थे. वे कुछ बोले या खाए बिना दफ्तर चले गए. जैसेतैसे बच्चों को कुछ खिलापिला कर मैं भी अपनी पीठ सीधी करने के लिए लेट गई. हलकीहलकी ठंडक थी. मैं कंबल ले कर लेटी ही थी कि मीनो, जो खिलौने से खेल रही थी, मेरे पास आ गई. मैं ने हाथ बाहर निकाल उसे अपने पास लिटाना चाहा, पर मीनो बाहर बारिश देखना चाहती थी.

मैं ने 2-3 बार मना किया, मुझे डर था कि कहीं मेरी ऊंची आवाज सुन कर सुम्मी न जाग जाए. उस समय मैं कुछ भी करने के मूड में नहीं थी. मैं ने एक बार फिर मीनो को गले लगाने के लिए बांह आगे की और उस ने मुझे कलाई पर काट लिया.

गुस्से में मैं ने जोर से उस के मुंह पर एक तमाचा मार दिया और चिल्लाई, ‘‘जानवर कहीं की. कुत्ते भी तुम से ज्यादा वफादार होते हैं. पता नहीं कितने साल तेरे लिए इस तरह काटने हैं मैं ने अपनी जिंदगी के.’’ कहते हैं, दिन में एक बार जबान पर सरस्वती जरूर बैठती है. उस दिन दुर्गा क्यों नहीं बैठी मेरी काली जबान पर. अपनी तलवार से तो काट लेती यह जबान.

थप्पड़ खाते ही मीनो स्तब्ध रह गई. न रोई, न चिल्लाई. चुपचाप मेरी ओर बिना देखे ही बाहर निकल गई मेरे कमरे से और मुंह फेर कर मैं भी फूटफूट कर रोई थी अपनी फूटी किस्मत पर कि कब मुक्ति मिलेगी आजीवन कारावास से, जिस में बंदी थी मेरी कुंठाएं. किस जुर्म की सजा काट रही हैं हम मांबेटी?

एहसास हुआ एक खामोशी का, जो सिर्फ आतंरिक नहीं थी, बाह्य भी थी. मीनो बहुत खामोश थी. अपनी आंखें पोंछती मैं ने मीनो को आवाज दी. वह नहीं आई, जैसे पहले दौड़ कर आती थी. रूठ कर जरूर खिलौने पर निकाल रही होगी अपना गुस्सा.

मैं उस के कमरे में गई. वहां का खालीपन मुझे दुत्कार रहा था. उदासीन बटन वाली आंखों वाला पिंचू बंदर जमीन पर मूक पड़ा मानो कुछ कहने को तत्पर था, पर वह भी तो मीनो की तरह मूक व मौन था.

घबराहट के कारण मेरे पांव मानो जकड़ गए थे. आवाज भी घुट गई थी. अचानक अपने पालतू कुत्ते भीरू की कूंकूं सुन मुझे होश सा आया. भीरू खुले दरवाजे की ओर जा कूंकूं करता, फिर मेरी ओर आता. उस के बाल कुछ भीगे से लगे.

यह देख मैं किसी अनजानी आशंका से भयभीत हो गई. कितने ही विचार गुजर गए पलछिन में. बच्चे उठाने वाला गिरोह, तेज रफ्तार से जाती मोटर कार का मीनो को मारना.

भीरू ने फिर कूंकूं की तो मैं उस के पीछे यंत्रवत चलने लगी. ठंडक के बावजूद सब पेड़पौधे पानी की फुहारों में झूम रहे थे. मेरा मजाक उड़ा रहे
थे. मानव जीवन पा कर भी मेरी स्थिति उन से ज्यादा दयनीय थी.

भीरू भागता हुआ सड़क पर निकल गया और कालोनी के पार्क में घुस गया. मैं उस के पीछेपीछे दौड़ी. भीरू बैंच के पास रुका. बैंच के नीचे मीनो सिकुड़ कर लेटी हुई थी. मैं ने उसे उठाना चाहा, पर वह और भी सिकुड़ गई. उस ने कस कर बैंच का सिरा पकड़ लिया. मैं बहुत झुक नहीं सकती. हैरानपरेशान मैं इधरउधर देख रही थी, तभी संजीव को अपनी ओर आते देखा.

संजीव ने घर फोन किया, लेकिन घंटी बजती रही, इसलिए परेशान हो कर दफ्तर से घर आया था. खुले दरवाजे व सुम्मी को अकेला देख बहुत परेशान था कि मिसेज मेहरा ने संजीव को मेरा पार्क की तरफ भागने का बताया. वे भी अपना दरवाजा बंद कर आ रही थीं.

संजीव ने झुक कर मीनो को बुलाया तो वह चुपचाप बाहर घिसट कर आ गई. मीनो को इस प्रव्यादेश का जिंदगी में सब से बड़ा व पहला धक्का लगा था. पर मैं खुश थी कि कोई और बड़ा हादसा नहीं हुआ और मीनो सुरक्षित मिल गई.

घर आ कर भी वह वैसे ही संजीव से चिपटी रही. संजीव ने ही उस के कपड़े बदले और कहा, ‘‘इस का शरीर तो तप रहा है. शायद, इसे बुखार है,” मैं ने जैसे ही हाथ लगाना चाहा, मीनो फिर संजीव से लिपट गई और सहमी हुई अपनी बड़ीबड़ी आंखों से मुझे देखने लगी.

मैं ने उसे प्यार से पुचकारा, “आ जा बेटी, मैं नही मारूंगी,” पर उस के दिमाग में डर घर कर गया था. वह मेरे पास नहीं आई.

”ठंड लग गई है. गरम दूध के साथ क्रोसीन दवा दे देती हूं,“ मैं ने मायूस आवाज में कहा.

“सिर्फ दूध दे दो. सुबह तक बुखार नहीं उतरा, तो डाक्टर से पूछ कर दवा दे देंगे,” संजीव का सुझाव था.

मैं मान गई और दूध ले आई. थोड़ा सा दूध पी मीनो संजीव की गोद में ही सो गई. अनमने मन से हम ने खाना खाया. सुबह का तूफान थम गया था. शांति थी हम दोनों के बीच.

संजीव ने प्यार भरे लहजे से पूछा, “उतरा सुबह का गुस्सा?” उस का यह पूछना था और मैं रो पड़ी.

“पगली सब ठीक हो जाएगा?” संजीव ने प्यार से सहलाया. मेरी रुलाई और फूटी. मन पर एक पत्थर का बोझ जो था मीनो को तमाचा मारने का.

मीनो सुबह उठी तो सहज थी. मेरे उठाने पर गले भी लगी. मैं खुश थी कि मुझे माफ कर वह सबकुछ भूल गई है. मुझे क्या पता था कि उस की माफी ही मेरी सजा थी.

मीनो को बुखार था, इसलिए हम उसे डाक्टर के पास ले गए. डाक्टर ने सांत्वना दी कि जल्दी ही वह ठीक हो जाएगी, पर मानो मीनो ने न ठीक होने की जिद पकड़ ली हो. 4 दिन बाद बुखार टूटा और मीनो शांति से सो गई- हमेशाहमेशा के लिए, चिरनिद्रा में. मुक्त कर गई मुझे जिंदगीभर के बंधनों से. और अब जब भी बारिश होती है, तो मुझे उलाहना सा दे जाती है और ले आती है मीनो का एक मूक संदेश, ”मां तुम आजाद हो मेरी सेवा से. मैं तुम्हारी कर्जदार नहीं बनना चाहती थी. सब ऋणों से मुक्त हूं मैं.

‘‘मीनो मुझे मुक्त कर इस सजा से. यादों के साथ घुटघुट कर जीनेमरने की सजा.”

Online Hindi Story : हयात – कथा अपने को बिखरने न देने वाली युवती की

Online Hindi Story : किस के जीवन में क्या घट रहा है, यह देख कर अंदाजा लगाना मुश्किल ही होता है. कुछ ऐसा ही हुआ था हयात के साथ.

‘‘कल जल्दी आ जाना.’’

‘‘क्यों?’’ हयात ने पूछा.

‘‘कल से रेहान सर आने वाले हैं और हमारे मिर्जा सर रिटायर हो रहे हैं.’’

‘‘कोशिश करूंगी,’’ हयात ने जवाब तो दिया लेकिन उसे खुद पता नहीं था कि वह वक्त पर आ पाएगी या नहीं.

दूसरे दिन रेहान सर ठीक 10 बजे औफिस में पहुंचे. हयात अपनी सीट पर नहीं थी. रेहान सर के आते ही सब लोगों ने खड़े हो कर गुडमौर्निंग कहा. रेहान सर की नजरों से एक खाली चेयर छूटी नहीं.

‘‘यहां कौन बैठता है?’’

‘‘मिस हयात, आप की असिस्टैंट, सर,’’ क्षितिज ने जवाब दिया.

‘‘ओके, वह जैसे ही आए उन्हें अंदर भेजो.’’

रेहान लैपटौप खोल कर बैठा था. कंपनी के रिकौर्ड्स चैक कर रहा था. ठीक 10 बज कर 30 मिनट पर हयात ने रेहान के केबिन का दरवाजा खटखटाया.

‘‘में आय कम इन, सर?’’

‘‘यस प्लीज, आप की तारीफ?’’

‘‘जी, मैं हयात हूं. आप की असिस्टैंट?’’

‘‘मुझे उम्मीद है कल सुबह मैं जब आऊंगा तो आप की चेयर खाली नहीं होगी. आप जा सकती हैं.’’

हयात नजरें झका कर केबिन से बाहर निकल आई. रेहान सर के सामने ज्यादा बात करना ठीक नहीं होगा, यह बात हयात को समझ में आ गई थी. थोड़ी ही देर में रेहान ने औफिस के स्टाफ की एक मीटिंग ली.

‘‘गुडआफ्टरनून टू औल औफ यू. मुझे आप सब से बस इतना कहना है कि कल से कंपनी के सभी कर्मचारी वक्त पर आएंगे और वक्त पर जाएंगे. औफिस में अपनी पर्सनल लाइफ को छोड़ कर कंपनी के काम को प्रायोरिटी देंगे. उम्मीद है कि आप में से कोई मुझे शिकायत का मौका नहीं देगा. बस, इतना ही, अब आप लोग जा सकते हैं.’’

‘कितना खड़ूस है. एकदो लाइंस ज्यादा बोलता तो क्या आसमान नीचे आ जाता या धरती फट जाती,’ हयात मन ही मन रेहान को कोस रही थी.

नए बौस का मूड देख कर हर कोई कंपनी में अपने काम के प्रति सजग हो गया. दूसरे दिन फिर से रेहान औफिस में ठीक 10 बजे दाखिल हुआ और आज फिर हयात की चेयर खाली थी. रेहान ने फिर से क्षितिज से मिस हयात को आते ही केबिन में भेजने को कहा. ठीक 10 बज कर 30 मिनट पर हयात ने रेहान के केबिन का दरवाजा खटखटाया.

‘‘मे आय कम इन, सर?’’

‘‘जी, जरूर, मुझे आप का ही इंतजार था. अभी हमें एक होटल में मीटिंग में जाना है. क्या आप तैयार हैं?’’

‘‘जी हां, कब निकलना है?’’

‘‘उस मीटिंग में आप को क्या करना है, यह पता है आप को?’’

‘‘जी, आप मुझे कल बता देते तो मैं तैयारी कर के आती.’’

‘‘मैं आप को अभी बताने वाला था. लेकिन शायद वक्त पर आना आप की आदत नहीं. आप की सैलरी कितनी है?’’

‘‘जी, 30 हजार.’’

‘‘अगर आप के पास कंपनी के लिए टाइम नहीं है तो आप घर जा सकती हैं और आप के लिए यह आखिरी चेतावनी है. ये फाइल्स उठाएं और अब हम निकल रहे हैं.’’

हयात रेहान के साथ होटल में पहुंच गई. आज एक हैदराबादी कंपनी के साथ मीटिंग थी. रेहान और हयात दोनों ही टाइम पर पहुंच गए. लेकिन सामने वाली पार्टी ने बुके और वो आज आएंगे नहीं, यह मैसेज अपने कर्मचारी के साथ भेज दिया. उस कर्मचारी के जाते ही रेहान ने वो फूल उठा कर होटल के गार्डन में गुस्से में फेंक दिए. ‘‘आज का तो दिन ही खराब है,’’ यह बात कहतेकहते वह अपनी गाड़ी में जा कर बैठ गया.

रेहान का गुस्सा देख कर हयात थोड़ी परेशान हो गई और सहमीसहमी सी गाड़ी में बैठ गई. औफिस में पहुंचते ही रेहान ने हैदराबादी कंपनी के साथ पहले किए हुए कौंट्रैक्ट के डिटेल्स मांगे. इस कंपनी के साथ 3 साल पहले एक कौंट्रैक्ट हुआ था लेकिन तब हयात यहां काम नहीं करती थी, इसलिए उसे वह फाइल मिल नहीं रही थी.

‘‘मिस हयात, क्या आप शाम को फाइल देंगी मुझे’’ रेहान केबिन से बाहर आ कर हयात पर चिल्ला रहा था.

‘‘जी…सर, वह फाइल मिल नहीं रही.’’

‘‘जब तक मुझे फाइल नहीं मिलेगी, आप घर नहीं जाएंगी.’’

यह बात सुन कर तो हयात का चेहरा ही उतर गया. वैसे भी औफिस में सब के सामने डांटने से हयात को बहुत ही इनसल्टिंग फील हो रहा था. शाम के 6 बज चुके थे. फाइल मिली नहीं थी.

‘‘सर, फाइल मिल नहीं रही है.’’

रेहान कुछ बोल नहीं रहा था. वह अपने कंप्यूटर पर काम कर रहा था. रेहान की खामोशी हयात को बेचैन कर रही थी. रेहान का रवैया देख कर वह केबिन से निकल आईर् और अपना पर्स उठा कर घर निकल गई. दूसरे दिन हयात रेहान से पहले औफिस में हाजिर थी. हयात को देखते ही रेहान ने कहा, ‘‘मिस हयात, आज आप गोडाउन में जाएं. हमें आज माल भेजना है. आई होप, आप यह काम तो ठीक से कर ही लेंगी.’’

हयात बिना कुछ बोले ही नजर झुका कर चली गई. 3 बजे तक कंटेनर आए ही नहीं. 3 बजने के बाद कंटेनर में कंपनी का माल भरना शुरू हुआ. रात के 8 बजे तक काम चलता रहा. हयात की बस छूट गई. रेहान और उस के पापा कंपनी से बाहर निकल ही रहे थे कि कंटेनर को देख कर वे गोडाउन की तरफ मुड़ गए. हयात एक टेबल पर बैठी थी और रजिस्टर में कुछ लिख रही थी.

तभी मिर्जा साहब के साथ रेहान गोडाउन में आया. हयात को वहां देख कर रेहान को, कुछ गलत हो गया, इस बात का एहसास हुआ.

‘‘हयात, तुम अभी तक घर नहीं गईं,’’ मिर्जा सर ने पूछा.

‘‘नहीं सर, बस अब जा ही रही थी.’’

‘‘चलो, जाने दो, कोई बात नहीं. आओ, हम तुम्हें छोड़ देते हैं.’’

अपने पापा का हयात के प्रति इतना प्यारभरा रवैया देख कर रेहान हैरान हो रहा था, लेकिन वह कुछ बोल भी नहीं रहा था. रेहान का मुंह देख कर हयात ने ‘नहीं सर, मैं चली जाऊंगी’ कह कर उन्हें टाल दिया. हयात बसस्टौप पर खड़ी थी. मिर्जा सर ने फिर से हयात को गाड़ी में बैठने की गुजारिश की. इस बार हयात न नहीं कह सकी.

‘‘हम तुम्हें कहां छोड़ें?’’

‘‘जी, मुझे सिटी हौस्पिटल जाना है.’’

‘‘सिटी हौस्पिटल क्यों? सबकुछ ठीक तो है?’’

‘‘मेरे पापा को कैंसर है, उन्हें वहां ऐडमिट किया है.’’

‘‘फिर तो तुम्हारे पापा से हम भी एक मुलाकात करना चाहेंगे.’’

कुछ ही देर में हयात अपने मिर्जा सर और रेहान के साथ अपने पापा के कमरे में आई.

‘‘आओआओ, मेरी नन्ही सी जान. कितना काम करती हो और आज इतनी देर क्यों कर दी आने में. तुम्हारे उस नए बौस ने आज फिर से तुम्हें परेशान किया क्या?’’

हयात के पापा की यह बात सुन कर तो हयात और रेहान दोनों के ही चेहरे के रंग उड़ गए.

‘‘बस अब्बू, कितना बोलते हैं आप. आज आप से मिलने मेरे कंपनी के बौस आए हैं. ये हैं मिर्जा सर और ये इन के बेटे रेहान सर.’’

‘‘आप से मिल कर बहुत खुशी हुई सुलतान मियां. अब कैसी तबीयत है आप की?’’ मिर्जा सर ने कहा.

‘‘हयात की वजह से मेरी सांस चल रही है. बस, अब जल्दी से किसी अच्छे खानदान में इस का रिश्ता हो जाए तो मैं गहरी नींद सो सकूं.’’

‘‘सुलतान मियां, परेशान न हों. हयात को अपनी बहू बनाना किसी भी खानदान के लिए गर्व की ही बात होगी. अच्छा, अब हम चलते हैं.’’

इस रात के बाद रेहान का हयात के प्रति रवैया थोड़ा सा दोस्ताना हो गया. हयात भी अब रेहान के बारे में सोचती रहती थी. रेहान को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए सजनेसंवरने लगी थी.

‘‘क्या बात है? आज बहुत खूबसूरत लग रही हो,’’ रेहान का छोटा भाई आमिर हयात के सामने आ कर बैठ गया. हयात ने एकबार उस की तरफ देखा और फिर से अपनी फाइल को पढ़ने लगी. आमिर उस की टेबल के सामने वाली चेयर पर बैठ कर उसे घूर रहा था. आखिरकार हयात ने परेशान हो कर फाइल बंद कर आमिर के उठने का इंतजार करने लगी. तभी रेहान आ गया. हयात को आमिर के सामने इस तरह से देख कर रेहान परेशान तो हुआ लेकिन उस ने देख कर भी अनदेखा कर दिया.

दूसरे दिन रेहान ने अपने केबिन में एक मीटिंग रखी थी. उस मीटिंग में आमिर को रेहान के साथ बैठना था. लेकिन वह जानबूझ कर हयात के बाजू में आ कर बैठ गया. हयात को परेशान करने का कोई मौका वह छोड़ नहीं रहा था. लेकिन हयात हर बार उसे देख कर अनदेखा कर देती थी. एक दिन तो हद ही हो गई. आमिर औफिस में ही हयात के रास्ते में खड़ा हो गया.

‘‘रेहान तुम्हें महीने के 30 हजार रुपए देता है. मैं एक रात के दूंगा. अब तो मान जाओ.’’

यह बात सुनते ही हयात ने आमिर के गाल पर एक जोरदार चांटा जड़ दिया. औफिस में सब के सामने हयात इस तरह रिऐक्ट करेगी, इस बात का आमिर को बिलकुल भी अंदाजा नहीं था. हयात ने तमाचा तो लगा दिया लेकिन अब उस की नौकरी चली जाएगी, यह उसे पता था. सबकुछ रेहान के सामने ही हुआ.

बस, आमिर ने ऐसा क्या कर दिया कि हयात ने उसे चाटा मार दिया, यह बात कोई समझ नहीं पाया. हयात और आमिर दोनों ही औफिस से निकल गए.

दूसरे दिन सुबह आमिर ने आते ही रेहान के केबिन में अपना रुख किया.

‘‘भाईजान, मैं इस लड़की को एक दिन भी यहां बरदाश्त नहीं करूंगा. आप अभी और इसी वक्त उसे यहां से निकाल दें.’’

‘‘मुझे क्या करना है, मुझे पता है. अगर गलती तुम्हारी हुई तो मैं तुम्हें भी इस कंपनी से बाहर कर दूंगा. यह बात याद रहे.’’

‘‘उस लड़की के लिए आप मुझे निकालेंगे?’’

‘‘जी, हां.’’

‘‘यह तो हद ही हो गई. ठीक है, फिर मैं ही चला जाता हूं.’’

रेहान कब उसे अंदर बुलाए हयात इस का इंतजार कर रही थी. आखिरकार, रेहान ने उसे बुला ही लिया. रेहान अपने कंप्यूटर पर कुछ देख रहा था. हयात को उस के सामने खड़े हुए 2 मिनट हुए. आखिरकार हयात ने ही बात करना शुरू कर दिया.

‘‘मैं जानती हूं आप ने मुझे यहां बाहर करने के लिए बुलाया है. वैसे भी आप तो मेरे काम से कभी खुश थे ही नहीं. आप का काम तो आसान हो गया. लेकिन मेरी कोई गलती नहीं है. फिर भी आप मुझे निकाल रहे हैं, यह बात याद रहे.’’

रेहान अचानक से खड़ा हो कर उस के करीब आ गया, ‘‘और कुछ?’’

‘‘जी नहीं.’’

‘‘वैसे, आमिर ने किया क्या था?’’

‘‘कह रहे थे एक रात के 30 हजार रुपए देंगे.’’

आमिर की यह सोच जान कर रेहान खुद सदमे में आ गया.

‘‘तो मैं जाऊं?’’

‘‘जी नहीं, आप ने जो किया, बिलकुल ठीक किया. जब भी कोई लड़का अपनी मर्यादा भूल जाए, लड़की की न को समझ न पाए, फिर चाहे वह बौस हो, पिता हो, बौयफ्रैंड हो उस के साथ ऐसा ही होना चाहिए. लड़कियों को छेड़खानी के खिलाफ जरूर आवाज उठानी चाहिए. मिस हयात, आप को नौकरी से नहीं निकाला जा रहा है.’’

‘‘शुक्रिया.’’

अब हयात की जान में जान आ गई. रेहान उस के करीब आ रहा था और हयात पीछेपीछे जा रही थी. हयात कुछ समझ नहीं पा रही थी.

रेहान ने हयात का हाथ अपने हाथ में ले लिया और आंखों में आंखें डालते हुए बोला, ‘‘मिस हयात, आप बहुत सुंदर हैं. जिम्मेदारियां भी अच्छी तरह से संभालती हैं और एक सशक्त महिला हैं. इसलिए मैं तुम्हें अपनी जीवनसाथी बनाना चाहता हूं.’’

हयात कुछ समझ नहीं पा रही थी. क्या बोले, क्या न बोले. बस, शरमा कर हामी भर दी.

Social Story : दूसरी औरत नहीं बनूंगी – क्या था लखिया का मुंह तोड़ जवाब?

Social Story : लखिया ठीक ढंग से खिली भी न थी कि मुरझा गई. उसे क्या पता था कि 2 साल पहले जिस ने अग्नि को साक्षी मान कर जिंदगीभर साथ निभाने का वादा किया था, वह इतनी जल्दी साथ छोड़ देगा. शादी के बाद लखिया कितनी खुश थी. उस का पति कलुआ उसे जीजान से प्यार करता था. वह उसे खुश रखने की पूरी कोशिश करता. वह खुद तो दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करता था, लेकिन लखिया पर खरोंच भी नहीं आने देता था. महल्ले वाले लखिया की एक झलक पाने को तरसते थे.

पर लखिया की यह खुशी ज्यादा टिक न सकी. कलुआ खेत में काम कर रहा था. वहीं उसे जहरीले सांप ने काट लिया, जिस से उस की मौत हो गई. बेचारी लखिया विधवा की जिंदगी जीने को मजबूर हो गई, क्योंकि कलुआ तोहफे के रूप में अपना एक वारिस छोड़ गया था. किसी तरह कर्ज ले कर लखिया ने पति का अंतिम संस्कार तो कर दिया, लेकिन कर्ज चुकाने की बात सोच कर वह सिहर उठती थी. उसे भूख की तड़प का भी एहसास होने लगा था.

जब भूख से बिलखते बच्चे के रोने की आवाज लखिया के कानों से टकराती, तो उस के सीने में हूक सी उठती. पर वह करती भी तो क्या करती? जिस लखिया की एक झलक देखने के लिए महल्ले वाले तरसते थे, वही लखिया अब मजदूरों के झुंड में काम करने लगी थी.

गांव के मनचले लड़के छींटाकशी भी करते थे, लेकिन उन की अनदेखी कर लखिया अपने को कोस कर चुप रह जाती थी. एक दिन गांव के सरपंच ने कहा, ‘‘बेटी लखिया, बीडीओ दफ्तर से कलुआ के मरने पर तुम्हें 10 हजार रुपए मिलेंगे. मैं ने सारा काम करा दिया है. तुम कल बीडीओ साहब से मिल लेना.’’

अगले दिन लखिया ने बीडीओ दफ्तर जा कर बीडीओ साहब को अपना सारा दुखड़ा सुना डाला. बीडीओ साहब ने पहले तो लखिया को ऊपर से नीचे तक घूरा, उस के बाद अपनापन दिखाते हुए उन्होंने खुद ही फार्म भरा. उस पर लखिया के अंगूठे का निशान लगवाया और एक हफ्ते बाद दोबारा मिलने को कहा.

लखिया बहुत खुश थी और मन ही मन सरपंच और बीडीओ साहब को धन्यवाद दे रही थी. एक हफ्ते बाद लखिया फिर बीडीओ दफ्तर पहुंच गई. बीडीओ साहब ने लखिया को अदब से कुरसी पर बैठने को कहा.

लखिया ने शरमाते हुए कहा, ‘‘नहीं साहब, मैं कुरसी पर नहीं बैठूंगी. ऐसे ही ठीक हूं.’’ बीडीओ साहब ने लखिया का हाथ पकड़ कर कुरसी पर बैठाते हुए कहा, ‘‘तुम्हें मालूम नहीं है कि अब सामाजिक न्याय की सरकार चल रही है. अब केवल गरीब ही ‘कुरसी’ पर बैठेंगे. मेरी तरफ देखो न, मैं भी तुम्हारी तरह गरीब ही हूं.’’

कुरसी पर बैठी लखिया के चेहरे पर चमक थी. वह यह सोच रही थी कि आज उसे रुपए मिल जाएंगे. उधर बीडीओ साहब काम में उलझे होने का नाटक करते हुए तिरछी नजरों से लखिया का गठा हुआ बदन देख कर मन ही मन खुश हो रहे थे.

तकरीबन एक घंटे बाद बीडीओ साहब बोले, ‘‘तुम्हारा सब काम हो गया है. बैंक से चैक भी आ गया है, लेकिन यहां का विधायक एक नंबर का घूसखोर है. वह कमीशन मांग रहा था. तुम चिंता मत करो. मैं कल तुम्हारे घर आऊंगा और वहीं पर अकेले में रुपए दे दूंगा.’’ लखिया थोड़ी नाउम्मीद तो जरूर हुई, फिर भी बोली, ‘‘ठीक है साहब, कल जरूर आइएगा.’’

इतना कह कर लखिया मुसकराते हुए बाहर निकल गई. आज लखिया ने अपने घर की अच्छी तरह से साफसफाई कर रखी थी. अपने टूटेफूटे कमरे को भी सलीके से सजा रखा था. वह सोच रही थी कि इतने बड़े हाकिम आज उस के घर आने वाले हैं, इसलिए चायनाश्ते का भी इंतजाम करना जरूरी है.

ठंड का मौसम था. लोग खेतों में काम कर रहे थे. चारों तरफ सन्नाटा था. बीडीओ साहब दोपहर ठीक 12 बजे लखिया के घर पहुंच गए. लखिया ने बड़े अदब से बीडीओ साहब को बैठाया. आज उस ने साफसुथरे कपड़े पहन रखे थे, जिस से वह काफी खूबसूरत लग रही थी.

‘‘आप बैठिए साहब, मैं अभी चाय बना कर लाती हूं,’’ लखिया ने मुसकराते हुए कहा. ‘‘अरे नहीं, चाय की कोई जरूरत नहीं है. मैं अभी खाना खा कर आ रहा हूं,’’ बीडीओ साहब ने कहा.

मना करने के बावजूद लखिया चाय बनाने अंदर चली गई. उधर लखिया को देखते ही बीडीओ साहब अपने होशोहवास खो बैठे थे. अब वे इसी ताक में थे कि कब लखिया को अपनी बांहों में समेट लें. तभी उन्होंने उठ कर कमरे का दरवाजा बंद कर दिया.

जल्दी ही लखिया चाय ले कर आ गई. लेकिन बीडीओ साहब ने चाय का प्याला ले कर मेज पर रख दिया और लखिया को अपनी बांहों में ऐसे जकड़ा कि लाख कोशिशों के बावजूद वह उन की पकड़ से छूट न सकी. बीडीओ साहब ने प्यार से उस के बाल सहलाते हुए कहा, ‘‘देख लखिया, अगर इनकार करेगी, तो बदनामी तेरी ही होगी. लोग यही कहेंगे कि लखिया ने विधवा होने का नाजायज फायदा उठाने के लिए बीडीओ साहब को फंसाया है. अगर चुप रही, तो तुझे रानी बना दूंगा.’’

लेकिन लखिया बिफर गई और बीडीओ साहब के चंगुल से छूटते हुए बोली, ‘‘तुम अपनेआप को समझते क्या हो? मैं 10 हजार रुपए में बिक जाऊंगी? इस से तो अच्छा है कि मैं भीख मांग कर कलुआ की विधवा कहलाना पसंद करूंगी, लेकिन रानी बन कर तुम्हारी रखैल नहीं बनूंगी.’’ लखिया के इस रूखे बरताव से बीडीओ साहब का सारा नशा काफूर हो गया. उन्होंने सोचा भी न था कि लखिया इतना हंगामा खड़ा करेगी. अब वे हाथ जोड़ कर लखिया से चुप होने की प्रार्थना करने लगे.

लखिया चिल्लाचिल्ला कर कहने लगी, ‘‘तुम जल्दी यहां से भाग जाओ, नहीं तो मैं शोर मचा कर पूरे गांव वालों को इकट्ठा कर लूंगी.’’ घबराए बीडीओ साहब ने वहां से भागने में ही अपनी भलाई समझी.

Hindi kahani : बेबसी एक मकान की

Hindi kahani : एक ट्रंक, एक अटैची और एक  बिस्तर, बस, यही संपत्ति समेट कर वे अंधेरी रात में घर छोड़ कर चले गए थे. 6 लोग. वह, उस की पत्नी, 2 अबोध बच्चे और 2 असहाय वृद्ध जिन का बोझ उसे जीवन में पहली बार महसूस हो रहा था.

‘‘अम्मी, हम इस अंधेरे में कहां जा रहे हैं?’’ जाते समय 7 साल की बच्ची ने मां से पूछा था.

‘‘नरक में…बिंदिया, तुम चुपचाप नहीं बैठ सकतीं,’’ मां ने खीझते हुए उत्तर दिया था.

बच्ची का मुंह बंद करने के लिए ये शब्द पर्याप्त थे. वे कहां जा रहे थे उन्हें स्वयं मालूम न था. कांपते हाथों से पत्नी ने मुख्यद्वार पर सांकल चढ़ा दी और फिर कुंडी में ताला लगा कर उस को 2-3 बार झटका दे कर अपनी ओर खींचा. जब ताला खुला नहीं तो उस ने संतुष्ट हो कर गहरी सांस ली कि चलो, अब मकान सुरक्षित है.

धीरेधीरे सारा परिवार न जाने रात के अंधेरे में कहां खो गया. ताला कोई भी तोड़ सकता था. अब वहां कौन किस को रोकने वाला था. ताला स्वयं में सुरक्षा की गारंटी नहीं होता. सुरक्षा करते हैं आसपास के लोग, जो स्वेच्छा से पड़ोसियों के जानमाल की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते हैं. लेकिन यहां पर परिस्थितियों ने ऐसी करवट बदली थी कि पड़ोसियों पर भरोसा करना भी निरर्थक था. उन्हें अपनी जान के लाले पड़े हुए थे, दूसरों की रखवाली क्या करते. अगर वे किसी को ताला तोड़ते देख भी लेते तो उन की भलाई इसी में थी कि वे अपनी खिड़कियां बंद कर के चुपचाप अंदर बैठे रहते जैसे कुछ देखा ही न हो. फिर ऐसा खतरा उठाने से लाभ भी क्या था. तालाब में रह कर मगरमच्छ से बैर.

कई महीने ताला अपने स्थान पर यों ही लटकता रहा. समय बीतने के साथसाथ उस निर्वासित परिवार के वापस आने की आशा धूमिल पड़ती गई. मकान के पास से गुजरने वाला हर व्यक्ति लालची नजरों से ताले को देखता रहता और फिर अपने मन में सोचता कि काश, यह ताला स्वयं ही टूट कर गिर जाता और दोनों कपाट स्वयं ही खुल जाते.

फिर एक दिन धायं की आवाज के साथ लोहा लोहे से टकराया, महीनों से लटके ताले की अंतडि़यां बाहर आ गईं. किसी अज्ञात व्यक्ति ने अमावस के अंधेरे की आड़ ले कर ताला तोड़ दिया. सभी ने राहत की सांस ली. वे आश्वस्त थे कि कम से कम उन में से कोई इस अपराध में शामिल नहीं है.

ताला जिस आदमी ने तोड़ा था वह एक खूंखार आतंकवादी था, जो सुरक्षाकर्मियों से छिपताछिपाता इस घर में घुस गया था. खाली मकान ने रात भर उस को अपने आंचल में पनाह दी थी. अंदर आते ही अपने कंधे से एके-47 राइफल उतार कर कुरसी पर ऐसे फेंक दी जैसे वर्षों की बोझिल और घृणित जिंदगी का बोझ हलका कर रहा हो. उस के बाद उस ने अपने भारीभरकम शरीर को भी उसी घृणा से नरम बिस्तर पर गिरा दिया और कुछ ही मिनटों में अपनी सुधबुध खो बैठा.

आधी रात को वह भूख और प्यास से तड़प कर उठ बैठा. सामने कुरसी पर रखी एके-47 न तो उस की भूख मिटा सकती थी और न ही प्यास. साहस बटोर कर उस ने सिगरेट सुलगाई और उसी धीमी रोशनी के सहारे किचन में जा कर पानी ढूंढ़ने लगा. जैसेतैसे उस ने मटके में से कई माह पहले भरा हुआ पानी निकाल कर गटागट पी लिया. फिर एक के बाद एक कई माचिस की तीलियां जला कर खाने का सामान ढूंढ़ने लगा. किचन पूरी तरह से खाली था. कहीं पर कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था.

‘‘कुछ भी नहीं छोड़ा है घर में. सब ले कर भाग गए हैं,’’ उस के मुंह से सहसा निकल पड़ा.

तभी उस की नजर एक छोटी सी अलमारी पर पड़ी जिस में कई चेहरों की बहुत सारी तसवीरें सजी हुई थीं. उन पर चढ़ी हुई फूलमालाएं सूख चुकी थीं. तसवीरों  के सामने एक थाली थी जिस में 5 मोटे और मीठे रोट पड़े थे जो भूखे, खतरनाक आतंकवादी की भूख मिटाने के काम आए. पेट की भूख शांत कर वह निश्ंिचत हो कर सो गया.

सुबह होने से पहले उस ने मकान में रखे हुए ट्रंकों, संदूकों और अलमारियों की तलाशी ली. भारीभरकम सामान उठाना खतरे से खाली न था. वह तो केवल रुपए और गहनों की तलाश में था मगर उस के हाथ कुछ भी न लगा. निराश हो कर उस ने फिर घर वालों को एक मोटी सी गाली दी और अपने मिशन पर चल पड़ा.

दूसरे दिन सुरक्षाबलों को सूचना मिली कि एक खूंखार आतंकवादी ने इस मकान में पनाह ली है. उन का संदेह विश्वास में उस समय बदला जब उन्होंने कुंडे में टूटा हुआ ताला देखा. उन्होंने मकान को घेर लिया, गोलियां चलाईं, गोले बरसाए, आतंकवादियों को बारबार ललकारा और जब कोई जवाबी काररवाई नहीं हुई तो 4 सिपाही अपनी जान पर खेलते हुए अंदर घुस गए. बेबस मकान गोलीबारी से छलनी हो गया मगर बेजबानी के कारण कुछ भी बोल न पाया.

खैर, वहां तो कोई भी न था. सिपाहियों को आश्चर्य भी हुआ और बहुत क्रोध भी आया.

‘‘सर, यहां तो कोई भी नहीं,’’ एक जवान ने सूबेदार को रिपोर्ट दी.

‘‘कहीं छिप गया होगा. पूरा चेक करो. भागने न पाए,’’ सूबेदार कड़क कर बोला.

उन्होंने सारे मकान की तलाशी ली. सभी टं्रकों, संदूकों को उलटापलटा. उन में से साडि़यां ऐसे निकल रही थीं जैसे कटे हुए बकरे के पेट से अंतडि़यां निकल कर बाहर आ रही हों. कमरे में चारों ओर गरम कपड़े, स्वेटर, बच्चों की यूनिफार्म, बरतन और अन्य वस्तुएं जगहजगह बिखर गईं. जब कहीं कुछ न मिला तो क्रोध में आ कर उन्होंने फर्नीचर और टीन के टं्रकों पर ताबड़तोड़ डंडे बरसा कर अपने गुस्से को ठंडा किया और फिर निराश हो कर चले गए.

उस दिन के बाद मकान में घुसने के सारे रास्ते खुल गए. लोग एकदूसरे से नजरें बचा कर एक के बाद एक अंदर घुस जाते और माल लूट कर चले आते. पहली किस्त में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी, फिलिप्स का ट्रांजिस्टर, स्टील के बरतन और कपड़े निकाले गए. फिर फर्नीचर की बारी आई. सोफा, मेज, बेड, अलमारी और कुरसियां. यह लूट का क्रम तब तक चलता रहा जब तक कि सारा घर खाली न हो गया.

उस समय मकान की हालत ऐसी अबला नारी की सी लग रही थी जिस का कई गुंडों ने मिल कर बलात्कार किया हो और फिर खून से लथपथ उस की अधमरी देह को बीच सड़क पर छोड़ कर भाग गए हों.

मकान में अब कुछ भी न बचा था. फिर भी एक पड़ोसी की नजर देवदार की लकड़ी से बनी हुई खिड़कियों और दरवाजों पर पड़ी. रात को बापबेटे इन खिड़कियों और दरवाजों को उखाड़ने में ऐसे लग गए कि किसी को कानोंकान खबर न हुई. सूरज की किरणें निकलने से पहले ही उन्होंने मकान को आग के हवाले कर दिया ताकि लोगों को यह शक भी न हो कि मकान के दरवाजे और खिड़कियां पहले से ही निकाली जा चुकी हैं और शक की सुई सुरक्षाबलों की तरफ इशारा करे क्योंकि मकान की तलाशी उन्होंने ली थी.

आसपास रहने वालों को ज्यों ही पता चला कि मकान जल रहा है और आग की लपटें अनियंत्रित होती जा रही हैं, उन्हें अपनेअपने घरों की चिंता सताने लगी. वे जल्दीजल्दी पानी से भरी बाल्टियां लेले कर अपने घरों से बाहर निकल आए और आग पर पानी छिड़कने लगे. किसी ने फायर ब्रिगेड को भी सूचना दे दी. उन की घबराहट यह सोच कर बढ़ने लगी कि कहीं आग की ये लपटें उन के घरों को राख न कर दें.

मकान जो पहले से ही असहाय और बेबस था, मूक खड़ा घंटों आग के शोलों के साथ जूझता रहा. …शोले, धुआं, कोयला.

दिल फिर भी मानने को तैयार न था कि इस मलबे में अब कुछ भी शेष नहीं बचा है. ‘कुछ न कुछ, कहीं न कहीं जरूर होगा. आखिर इतने बड़े मकान में कहीं कोई चीज तो होगी जो किसी के काम आएगी,’ दिल गवाही देता.

एक अधेड़ उम्र की औरत ने मलबे में धंसी हुई टिन की जली हुई चादरों को देख लिया. उस ने अपने 2 जवान बेटों को आवाज दी. देखते ही देखते उन से सारी चादरें उठवा लीं और स्वयं सजदे में लीन हो गई. टीन की चादरें, गोशाला की मरम्मत के काम आ गईं. एक और पड़ोसी ने बचीखुची ईंटें और पत्थर उठवा कर अपने आंगन में छोटा सा शौचालय बनवा लिया. जो दीवारें आग और पानी के थपेड़ों के बावजूद अब तक खड़ी थीं, हथौड़ों की चोट न सह सकीं और आंख झपकते ही ढेर हो गईं.

कुछ दिन बाद एक गरीब विधवा वहां से गुजरी. उस की निगाहें मलबे के उस ढेर पर पड़ीं. यहांवहां अधजली लकडि़यां और कोयले दिखाई दे रहे थे. उसे बीते हुए वर्ष की सर्दी याद आ गई. सोचते ही सारे बदन में कंपकंपी सी महसूस हुई. उस ने आने वाले जाड़े के लिए अधजली लकडि़यां और कोयले बोरे में भर लिए और वापस अपने रास्ते पर चली गई.

मकान की जगह अब केवल राख का ढेर ही रह गया था. पासपड़ोस के बच्चों ने उसे खेल का मैदान बना लिया. हर रोज स्कूल से वापस आ कर बैट और विकेटें उठाए बच्चे चले आते और फिर क्रिकेट का मैच शुरू हो जाता.

हमेशा की तरह उस दिन भी 4 लड़के आए. एक लड़का विकेटें गाड़ने लगा. विकेट जमीन में घुस नहीं रहे थे. अंदर कोई चीज अटक रही थी. उस ने छेद को और चौड़ा किया. फिर अपना सिर झुका कर अंदर झांका. सूर्य की रोशनी में कोई चमकीली चीज नजर आ रही थी. वह बहुत खुश हुआ. इस बीच शेष तीनों लड़के भी उस के इर्दगिर्द एकत्रित हो गए. उन्होंने भी बारीबारी से छेद के अंदर देखने की कोशिश की और उस चमकती वस्तु को देखते ही उन की आंखों में चमक आ गई और मन में लालच ने पहली अंगड़ाई ली.

‘हो न हो सोने का कोई जेवर होगा.’ हरेक के मन में यही विचार आया लेकिन कोई भी इस बात को जबान पर लाना नहीं चाहता था.

पहले लड़के ने विकेट की नोक से वस्तु के इर्दगिर्द खोदना शुरू कर दिया. दूसरा लड़का दौड़ कर अपने घर से लोहे की कुदालनुमा एक वस्तु ले कर आ गया और उस को पहले लड़के को सौंप दिया.

पहला लड़का अब कुदाल से लगातार खोदने लगा जबकि बाकी तीनों लड़के उत्सुकता और बेचैनी से मन ही मन यह दुआ मांगते रहे कि काश, कोई जेवर निकल आए और उन को खूब सारा पैसा मिल जाए.

खुदाई पूरी हो गई. इस से पहले कि पहला लड़का अपना हाथ सुराख में डालता और गुप्त खजाने को बाहर निकालता, दूसरे लड़के ने कश्मीरी भाषा में आवाज दी :

‘‘अड़स…अड़स…’’ अर्थात मैं भी बराबर का हिस्सेदार हूं.

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