लेखिका- अर्चना त्यागी
नीति ने अपना पर्स उठाया और औफिस से बाहर निकल गई.
"ठंडे दिमाग से सोचना मैडम, ऐसी नौकरी आप को दूसरी नहीं मिलेगी. लौटने का विचार बने तो फ़ोन कर देना" मधुकर ने चलतेचलते उस से कहा.
नीति ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. पैर पटकती चली गई. बाहर आ कर औटो लिया और सीधे अपने कमरे पर आ गई. पर्स बिस्तर पर फेंक कर वहीं पसर गई और रोती रही. रोतेरोते कब उस की आंख लग गई, पता नहीं चला.
अगले दिन निधि का फ़ोन आया तो उठी. रोज़ निधि के साथ ही औफिस जाती थी. दोनों एक ही जगह से बस पकड़ती थीं. आज़ नीति को नहीं देखा तो निधि ने फ़ोन कर के पूछा, "औफिस में नहीं आई है क्या? सब जगह देखा, सब से पूछा, कहीं मिली नहीं?"
"तबीयत ठीक नहीं है, घर पर ही हूं," कह कर नीति ने फोन काट दिया. वह जानती थी कि औफिस से निधि को पता चल जाएगा कि क्यों वह वहां नहीं है. पता लगते ही वह उस से मिलने ज़रूर आएगी. कल निधि छुट्टी पर थी नहीं तो शायद वह नीति को इस तरह नौकरी छोड़ कर न आने देती.
अब तक भी कल की बात दिमाग से उतरी नहीं थी. बाथरूम में जा कर मुंह धोया और चाय बनाने रसोई में चली गई. चाय भी अच्छी नहीं बनी. दिमाग में तो उधेड़बुन चल रही थी.
नई नौकरी ढूंढनी पड़ेगी. पता नहीं अनुभव प्रमाणपत्र भी मधुकर देगा या नहीं. जब तक नौकरी नहीं मिल जाती तब तक कैसे काम चलेगा ? अकेली ही रहती है इस शहर में. दोस्त भी कोई इस हाल में नहीं है कि मदद कर पाए. सब उस के ही जैसे हैं.