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Online Hindi Story : आस्था के आयाम : आखिर वह महिला कौन थी ?

Online Hindi Story : जून का अंतिम सप्ताह और आकाश में कहीं बादल नहीं. अभय को आज हर हाल में रामपुर पहुंचना है वरना ऐसी गरमी में वह क्यों यात्रा करता? वह तो स्टेशन पहुंचने से ले कर रिजर्वेशन चार्ट में अपना नाम ढूंढ़ने तक में ही पसीनापसीना हो गया. पर अपने फर्स्ट क्लास एसी डब्बे में पहुंचते ही उस ने राहत की सांस ली. सामने की सीट पर एक सुंदर महिला बैठी थी. यात्रा में ऐसे सहयात्री का सान्निध्य अच्छा लगता है.

‘‘सामान सीट के नीचे लगा दो,’’ अभय ने पानी की बोतल को खिड़की के पास की खूंटी से टांगते हुए कुली से कहा.

अभय ने महिला को कनखियों से देखा. वह एक बार उन लोगों को उचटती नजर से देख कुछ पढ़ने में व्यस्त हो गई है. इस बीच कुली ने सामान सीट के नीचे रख दिया. जेब से पर्स निकाल कर कुली को मुंहमांगी मजदूरी के साथसाथ अभय ने 10 रुपए बख्शिश भी दी. कुली के डब्बे से उतरते ही गाड़ी ने रेंगना शुरू कर दिया. गाड़ी स्टेशन, शहर पीछे छोड़ती जा रही थी. अब बेफिक्र हो कर अभय ने पूरे डब्बे में नजर दौड़ाई. पूरे डब्बे में सिर्फ वे दोनों ही थे. ऐसा सुखद संयोग पा कर अभय खुश हो उठा. थोड़ी देर बाद अपने जूते उतार कर, बाल संवार कर वह बर्थ पर इस प्रकार टेक लगा कर बैठा कि उस महिला को भलीभांति निहार सके. महिला वास्तव में सुंदर थी. वह लगभग 34-35 वर्ष की तो रही होगी पर देखने से काफी कम आयु की लग रही थी.

अभय उस महिला से संवाद स्थापित करने हेतु व्यग्र हो उठा. पर महिला अपने आसपास के वातावरण से बेखबर पढ़ने में व्यस्त थी. उस की बर्थ पर एक ओर कई समाचारपत्र और पत्रिकाएं रखी हुई थीं और वह एक पुस्तक खोले उस से अपनी नोटबुक में कुछ नोट करती जा रही थी.

अभय के बैग में भी 2-3 पत्रिकाएं रखी थीं. पर उन्हें निकालने के बजाय महिला से संवाद करने के उद्देश्य से उस ने शालीनता से पूछा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी मैडम, क्या मैं यह मैगजीन देख सकता हूं?’’

महिला ने एक बार सपाट नजर से उसे देखा. 36-37 वर्ष का स्वस्थ, ऊंचे कद का व्यक्ति, गेहुआं रंग और उन्नत मस्तक. कुल मिला कर आकारप्रकार से संभ्रांत और सुशिक्षित दिखाई देता व्यक्ति. महिला ने बिना कुछ कहे मैगजीन उस की ओर बढ़ा दी. तभी अचानक उसे लगा कि इस व्यक्ति को उस ने कहीं देखा है? पर कब और कहां?

दिमाग पर जोर देने पर भी उसे कुछ याद नहीं आया. थक कर उस ने यह विचार मन से झटक दिया और पुन: अपने काम में मशगूल हो गई.

गाड़ी लखनऊ स्टेशन पर रुक रही थी. महिला को अपना सामान समेटते देख कर अभय इस आशंका से भयभीत हो उठा कि कहीं यह सुखद सान्निध्य यहीं तक का तो नहीं? अभी तो कोई बात भी नहीं हो पाई है.

तभी महिला ने दूसरी नोटबुक और किताब निकाल ली और पुन: कुछ लिखने में व्यस्त हो गई. अभय ने यह देख राहत की सांस ली.

अचानक डब्बे का दरवाजा खुला. टीटी ने अंदर झांका और फिर सौरी कह कर दरवाजा बंद कर दिया. दरवाजा फिर खुला और सफेद वरदी में एक व्यक्ति, जो उस महिला का अरदली था और द्वितीय श्रेणी में यात्रा कर रहा था, ने आ कर उस महिला से सम्मान से पूछा, ‘‘मेम साहब, चाय, कौफी या फिर ठंडा लाऊं?’’

‘‘हां, स्ट्रौंग कौफी ले आओ,’’ महिला ने बिना नजरें उठाए कहा.

जब अरदली जाने लगा तो अभय ने उसे आवाज दे कर बुलाया, ‘‘सुनो, 1 कप कौफी मेरे लिए भी ले आना.’’

अरदली ने ठिठक कर महिला की ओर देखा और उस की मौन स्वीकृति पा कर चला गया.

महिला अब अभय के बारे में सोचने लगी कि पुरुष मानसिकता की कितनी स्पष्ट छाप है इस की हर गतिविधि में.

थोड़ी ही देर में अरदली 2 कप कौफी दे कर लौट गया.

अभय ने कौफी का सिप लेते ही कहा, ‘‘कौफी अच्छी बनी है.’’

मगर महिला बिना कुछ बोले कौफी पीती रही. अभय समझ नहीं पा रहा था कि अब वह महिला से कैसे संवाद स्थापित करे. वह कुछ बोलने ही जा रहा था कि तभी बैरा अंदर आ गया. उस ने पूछा, ‘‘साहब, लंच कहां सर्व किया जाए?’’

‘‘लखनऊ में तो दूसरा बैरा आया था, अब तुम कहां से आ गए?’’ अभय ने पूछा.

‘‘नहीं तो साहब… लखनऊ में भी मैं ही इस डब्बे के साथ था.’’

दोनों के वार्त्तालाप के मध्य हस्तक्षेप कर महिला ने कहा, ‘‘वह बैरा नहीं, मेरा अरदली था.’’

यह सुन कर अभय लज्जित हो उठा. उस ने बैरे को फौरन लंच के लिए और्डर दे कर विदा कर दिया. महिला ने पहले ही अपने लिए कुछ भी लाने को मना कर दिया था. वह मन ही मन सोच रहा था कि उच्चपदासीन होने के बावजूद उस के जीवन में अब तक ऐसी कोई महिला नहीं आई, जिस से संवाद स्थापित करने की ऐसी प्रबल इच्छा होती. कार और सुंदर बंगला मिलने के प्रलोभन में ऐसी पत्नी मिली, जिस से उस का मानसिक स्तर पर कभी अनुकूलन न हो सका. ‘काश, ऐसी महिला आज से कुछ वर्ष पहले मेरे जीवन में आई होती.’

अभय ने पुन: वार्त्ता का सूत्र जोड़ने का प्रयास किया, ‘‘मैडम, आप ने लंच और्डर नहीं किया. क्या आप हरदोई या शाहजहांपुर तक ही जा रही हैं?’’

महिला ने उसे ध्यान से देखा. उसे खीज हुई कि यह व्यक्ति उस की रुखाई के बावजूद निरंतर उस से बात करने का प्रयास किए जा रहा है. ‘इसे पहले कहीं देखा है’ एक बार फिर इस प्रश्न के कुतूहल ने सिर उठाया, पर व्यर्थ. उसे कुछ याद नहीं आ रहा था. फिर अपने दिमाग पर अनावश्यक जोर देने के बजाय उस ने संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘‘नहीं, मैं बरेली तक जा रही हूं.’’

‘‘क्या वहां आप का मायका है?’’

‘‘नहीं, मेरा मायका तो फैजाबाद में है. दरअसल, मैं बरेली में एडीशनल मजिस्ट्रेट के पद पर तैनात हूं.’’

यह सुनते ही अभय के मन में एक हूक सी उठी. फिर उस ने लुभावने अंदाज में कहा, ‘‘आप जैसी शख्सीयत से मिलने पर बहुत खुशी हो रही है.’’

फिर अभय सहसा अपने बारे में बताने के लिए बेचैन हो उठा. बोला, ‘‘मैडम, मैं भी जनपद फैजाबाद का रहने वाला हूं. इस समय मैं हरिद्वार में पीडब्लूडी में अधीक्षण अभियंता के पद पर हूं. अभय प्रताप सिंह नाम है मेरा. मेरे पिता ठाकुर विक्रम प्रताप सिंह भी अपने क्षेत्र के नामी ठेकेदार हैं.

‘‘मेरा विवाह सुलतानपुर के एक संभ्रांत ठाकुर घराने में हुआ है. मेरे ससुर भी हाइडिल विभाग में उच्चाधिकारी हैं,’’ अभय नौनस्टौप बोले जा रहा था.

पर ठाकुर विक्रम प्रताप सिंह का नाम सुनते ही महिला को कुछ और सुनाई देना बंद हो गया. एक झटके से विस्मृति के सारे द्वार खुल गए. उसे अपने जीवन की घनघोर पीड़ा का वह अध्याय याद हो आया, जिसे वह अब तक भूल न सकी थी. फिर एक गहरी सांस छोड़ कर महिला ने सोचा कि कुदरत जो करती है, अच्छा ही करती है. एक दिन इसी अभय से उस की सगाई हुई थी. वह तो मन ही मन उसे अपना पति मान चुकी थी, पर धनसंपदा के प्रलोभन में अभय के पिता ने यह सगाई तोड़ दी थी. बड़ा अपमान हुआ था उस के सीधेसादे बाबूजी का. मगर उसी अपमान के तीखे दंश उसे निरंतर आगे बढ़ने को प्रेरित करते रहे. अपने बाबूजी के खोए सम्मान को वापस पाने हेतु उस ने कड़ी मेहनत की. आज उस के पास सब कुछ है फिर भी उस में एक अजब सा वैराग्य आ गया है, जो शायद इसी व्यक्ति के प्रति कभी रहे उस के गहन अनुराग को ठुकराए जाने का परिणाम है. पर आज अभय की आंखों में अपने प्रति सम्मान और प्रशंसा देख कर उस की सारी गांठें जैसे अपनेआप खुलती चली गईं.

गाड़ी बरेली स्टेशन पर रुकी. अरदली ने महिला का सामान उठाया. महिला डब्बे से बाहर जाने के लिए बढ़ी, फिर अनायास अभय की ओर मुड़ी और बोली, ‘‘पहचानते हैं मुझे? मैं उन्हीं ठाकुर विजय सिंह की बेटी निकिता हूं, जिस से कभी आप की सगाई हुई थी,’’ और फिर अभय को अवाक छोड़ डब्बे से उतर गई. बाहर उस के पति और बच्चे उसे रिसीव करने आए थे.

Hindi Story : फरेब – जिस्म के लिए क्या मालिक और पति दोनों ने दिया था धोखा ?

Hindi Story : जब प्रोग्राम खत्म होने को होता, तो उसे फूलों का एक खूबसूरत गुलदस्ता भेंट कर चुपचाप लौट जाता.

शुरूशुरू में तो मुसकान ने उस की ओर ध्यान नहीं दिया, पर जब वह उस के हर प्रोग्राम में आने लगा, तो उस के मन में उस नौजवान के लिए एक जिज्ञासा जाग उठी कि आखिर वह कौन है? वह उस के हर प्रोग्राम में क्यों होता है? उसे उस के हर अगले प्रोग्राम की तारीख और जगह की जानकारी कैसे हो जाती है? वगैरह.

नट जाति से ताल्लुक रखने वाली मुसकान एक कुशल नाचने वाली थी. अपने बौस के आरकैस्ट्रा ग्रुप के साथ वह आएदिन नएनए शहरों में अपना प्रोग्राम देने जाती रहती थी.

लंबा कद, गोरा रंग और खूबसूरत चेहरे वाली मुसकान जब स्टेज पर नाचती थी, तो लोग दिल थाम लेते थे. उस के बदन की लोच, कातिल अदाएं और होंठों पर छाई रहने वाली मुसकान ने हजारों लोगों को अपना दीवाना बना रखा था, पर उस की दीवानगी में आहें भरने वालों में शायद ही कोई यह जानता था कि उस की मुसकान के पीछे उस के दिल में कितना दर्द छिपा हुआ है.

मुसकान महज 15 साल की थी, तब उस के मांबाप ने उसे इसी आरकैस्ट्रा ग्रुप के मालिक के हाथों बेच दिया था. तब उस का नाच में माहिर होना ही उस का शाप बन गया था. वैसे भी उन दलित परिवारों में बेटियों का बिकना आम था. बहुत सी तो खुद ही भाग जाती थीं.

मुसकान से कहा गया था कि गु्रप का मालिक उस के नाच से प्रभावित हो कर उसे अपने ग्रुप में शामिल कर रहा है और इस के लिए उस ने उस के मांबाप को एक मोटी रकम दी है. तब उसे उस की यह शर्त थोड़ी अटपटी जरूर लगी थी कि उसे उस के साथ ही रहना होगा.

जब मुसकान ने इस बात पर एतराज जताया था, तो ग्रुप के मालिक महेश ने उसे यह कह कर भरोसा दिलाया था कि वह जब चाहे अपने मांबाप से मिलने जा सकती है.

मुसकान को आरकैस्ट्रा ग्रुप में शामिल हुए सालभर बीतने को आया था. इस बीच वह कई जगह अपने प्रोग्राम दे चुकी थी. उसे इज्जत के साथ पैसे भी मिलते थे.

इस के बाद तो मुसकान को बारबार बेचा गया. कभी उस की भावनाओं का सौदा हुआ, तो कभी उस के जिस्म का. बीतते दिनों के साथ यह हकीकत उस के सामने आई कि महेश न सिर्फ अपने ग्रुप में शामिल लड़कियों की देह बेचता है, बल्कि उन के जिस्म का भी सौदा करता है. अगर कोई लड़की उस की इस बात की खिलाफत करती है, तो उसे बुरी तरह सताया जाता है. पर मुसकान इस की शिकायत किस से करती. वह भी उन हालात में, जब उस के मांबाप ने ही उसे इस जलालतभरी जिंदगी में धकेल दिया था. उसे कुछ दिनों में ग्राहकों से भी शिकायत नहीं रही.

मुसकान दलदल में फंसी एक बेबस और बेजान जिंदगी जी रही थी कि वह नौजवान उस की जिंदगी में आया. उस ने मुसकान की जिंदगी में एक हलचल सी मचा दी थी.

मुसकान ने तय किया था कि वह उस से अकेले में मिलेगी. वह पूछेगी कि आखिर वह उस के पीछे क्यों पड़ा है?

कल फिर मुसकान का प्रोग्राम था. उसे इस बात का पक्का यकीन था कि वह नौजवान कल भी आएगा.

देखा जाए, तो मुसकान अकसर लोगों से मिलती रहती थी. इन में अच्छे लोग भी होते थे और बुरे लोग भी. पर सच कहा जाए, तो बुरे लोगों की तादाद ज्यादा होती थी. वे लोग उस के रंगरूप और जवानी के दीवाने होते थे. उन के लिए वह एक खूबसूरत जिस्म थी, जिस वे भोगना चाहते थे.

मुसकान ने एक आदमी भेज कर उसे बुला लिया था. वह उस के सामने चुपचाप बैठा था.

मुसकान कुछ देर तक उस के बोलने का इंतजार करती रही, फिर बोली, ‘‘मैं देख रही हूं कि पिछले तकरीबन एक साल से तुम मेरे हर प्रोग्राम में रहते हो, मुझे गुलदस्ता भेंट करते हो और लौट जाते हो. मैं जान सकती हूं कि क्यों?’’

‘‘क्योंकि मुझे आप पसंद हैं…’’ वह गंभीर आवाज में बोला, ‘‘मैं आप को चाहने लगा हूं.’’

‘‘ऐसा ही होता है. कई बार लोग हमारी जैसी नाचने वाली किसी लड़की की किसी खास अदा पर फिदा हो कर उसे चाहने लगते हैं. पर उन की यह चाहत थोड़ी देर की होती है, जो बीतते समय के साथ खत्म हो जाती है.’’

‘‘परंतु, मेरी चाहत ऐसी नहीं है. सच तो यह है कि आप को अपनी जिंदगी में शामिल करना चाहता हूं.’’

‘‘यह मुमकिन नहीं है.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि जिन लोगों के साथ मैं काम करती हूं, वे यह हरगिज पसंद नहीं करेंगे कि मैं उन का साथ छोड़ कर जाऊं.’’

‘‘सवाल यह नहीं कि लोग क्या चाहते हैं. सवाल यह है कि आप क्या चाहती हैं?’’

‘‘मतलब?’’

‘‘बतलाऊंगा, पर इस के पहले आप यह बताइए कि क्या आप अपनी इस मौजूदा जिंदगी से खुश हैं?’’

मुसकान उस के इस सवाल का जवाब न दे सकी. वह कुछ देर तक चुपचाप उसे देखती रही, फिर बोली, ‘‘अगर मैं कहूं कि नहीं तो…?’’

‘‘तो मैं कहूंगा कि आप इस जिंदगी को ठोकर मार दीजिए.’’

‘‘और…?’’

‘‘और मेरी चाहत को कबूल कर मेरी जिंदगी में शामिल हो जाइए.’’

‘‘मैं फिर कहूंगी कि तुम्हारा यह प्रस्ताव भावुकता में दिया गया प्रस्ताव है, जिसे मैं स्वीकार नहीं कर सकती.’’

‘‘ऐसा नहीं है…’’ वह बोला, ‘‘और मैं समीर इसे आप के सामने साबित कर के रहूंगा,’’ कहने के बाद वह उठ खड़ा हुआ और चला गया.

इस के बाद भी समीर मुसकान से मिलता रहा. वह जब भी उस से मिलता, अपना प्रस्ताव उस के सामने जरूर दोहराता.

सच तो यह था कि मुसकान भी उस के प्रस्ताव को स्वीकार कर अपनी इस जलालत भरी जिंदगी से आजाद होना चाहती थी, पर यह बात भी वह अच्छी तरह जानती थी कि महेश इतनी आसानी से उसे अपने चंगुल से आजाद नहीं होने देगा. वह उस के लिए सोने का अंडा देने वाली मुरगी जो थी. पर समीर की चाहत और लगाव देख कर मुसकान ने फैसला कर लिया कि वह समीर का प्रस्ताव स्वीकार करेगी.

जब मुसकान ने अपने इस फैसले की जानकारी समीर को दी, तो खुशी से उस की आंखें चमक उठीं. मुसकान पलभर तक खुशी से चमकते उस के चेहरे को देखती रही, फिर गंभीर आवाज में बोली, ‘‘पर समीर, महेश इतनी आसानी से मुझे छोड़ने वाला नहीं.’’

‘‘मैं उसे मुंहमांगी कीमत दूंगा और तुम्हें उस से खरीद लूंगा.’’

‘‘ठीक है, बात कर के देखो. शायद वह तुम्हारी बात मान जाए.’’

समीर ने मुसकान को साथ ले कर महेश से बात की और उसे बताया कि वह हर कीमत पर मुसकान को हासिल करना चाहता है.

‘‘हर कीमत पर…’’ महेश ‘कीमत’ शब्द पर जोर देता हुआ बोला.

‘‘हां…’’ समीर बोला, ‘‘तुम कीमत बोलो?’’

‘‘10 लाख…’’ महेश ने उस की आंखों में झांकते हुए कहा.

‘‘मंजूर है,’’ समीर बिना एक पल गंवाए बोला.

समीर महेश को मुंहमांगी कीमत दे कर मुसकान को अपने आलीशान घर में ले आया. घर की सजावट देख मुसकान हैरान हो कर बोली, ‘‘यह घर तुम्हारा है?’’

‘‘हां…’’ समीर उस के खूबसूरत चेहरे को प्यार से देखता हुआ बोला, ‘‘और अब तुम्हारा भी.’’

‘‘मेरा कैसे?’’

‘‘वह ऐसे कि तुम मेरी पत्नी बनने वाली हो.’’

‘‘सच?’’

‘‘बिलकुल सच…’’ समीर उसे अपनी बांहों में भरता हुआ बोला, ‘‘हम कल ही शादी कर लेंगे.’’

समीर ने मुसकान से शादी कर ली. मुसकान को लगा था कि समीर को पा कर उस ने दुनियाजहान की खुशियां पा ली हों. वह दिलोजान से उस पर न्योछावर हो गई थी. समीर भी उसे दिल की गहराइयों से चाहता था.

कुछ दिनों तक तो मुसकान को अपनी यह दुनिया बेहद भली और खुशगवार लगी थी, परंतु फिर वह इस से ऊबने लगी थी. उसे ऐसा लगने लगा था, जैसे उस की जिंदगी एक ढर्रे में बंध गई हो. ऐसे में उसे अपनी स्टेज की दुनिया याद आने लगी थी. उस की उस दुनिया में कितना रोमांच, कितना ग्लैमर था.

एक दिन अचानक मुसकान के आरकैस्ट्रा ग्रुप के मालिक महेश ने उस के सामने अपने ग्रुप की ओर से एक जगह प्रोग्राम देने का प्रस्ताव रखा और उस के बदले उसे एक मोटी रकम देने का वादा किया, तो वह इनकार न कर सकी.

‘‘प्रोग्राम कब है?’’ मुसकान ने पूछा.

‘‘कल.’’

‘‘कल…?’’ मुसकान के चेहरे पर निराशा के भाव फैले, ‘‘पर, समीर तो यहां नहीं हैं. वे कारोबार के सिलसिले में 4 दिनों के लिए शहर से बाहर गए हुए हैं. मुझे इस प्रोग्राम के लिए उन से इजाजत लेनी होगी.’’

‘‘अरे, डांस का प्रोग्राम ही तो देना है…’’ महेश बोला, ‘‘किसी अमीरजादे का बिस्तर तो नहीं गरम करना. भला इस में समीर को क्या एतराज हो सकता है?’’

‘‘फिर भी…’’

‘‘मान भी जाओ मुसकान.’’

‘‘ठीक है,’’ मुसकान ने हामी भर दी.

मुसकान ने डरे हुए मन से यह प्रोग्राम कर लिया. उसे उम्मीद थी कि वह समीर को इस के लिए मना लेगी, परंतु उस का ऐसा सोचना, उस की कितनी बड़ी भूल थी. इस का अहसास उसे समीर के लौटने पर छुआ.

‘‘यह मैं क्या सुन रहा हूं,’’ समीर मुसकान को गुस्से से घूरता हुआ बोला.

‘‘क्या…?’’

‘‘तुम ने फिर से डांस का प्रोग्राम किया.’’

‘‘आप को किस ने बताया?’’

‘‘मेरे एक दोस्त ने, जो तुम्हें अच्छी तरह से जानता है.’’

मुसकान को जिस बात का डर था, वही हुआ.

‘‘इस में खराबी क्या है…’’ मुसकान समीर का गुस्सा कम करने की कोशिश करते हुए बोली, ‘‘आजकल तो अच्छे घरानों की लड़कियां भी ऐसे प्रोग्राम करती हैं. फिर महेश ने इस के लिए मुझे एक मोटी रकम भी दी है.’’

‘‘मतलब, तुम ने पैसों के लिए प्रोग्राम किया है?’’

‘‘हां समीर…’’

‘‘आखिर तुम ने अपनी औकात दिखा ही दी और तुम ने यह भी साबित कर दिया कि तुम निचली जाति से ताल्लुक रखती हो.’’

‘‘समीर, अब तुम मेरी बेइज्जती कर रहे हो…’’ मुसकान तल्ख आवाज में बोली, ‘‘मैं नहीं समझती कि मैं ने यह प्रोग्राम दे कर कोई गलती की है. सच तो यह है कि डांस मेरा जुनून है और इस जुनून से मैं अपनेआप को ज्यादा दिनों तक दूर नहीं रख सकती.’’

समीर पलभर तक उसे गुस्से में घूरता रहा, फिर पैर पटकता हुआ कमरे से बाहर चला गया.

‘‘समीर, आखिर तुम मेरी इस छोटी सी गलती के लिए मुझ से कब तक नाराज रहोगे?’’ तीसरे दिन रात की तनहाई में मुसकान समीर की ओर करवट लेते हुए बोली.

‘‘तुम्हारे लिए यह छोटी सी गलती है, पर तुम्हारी यही छोटी सी गलती मेरी बदनामी का सबब बन गई है. लोग

यह कह कर मेरा मजाक उड़ाते हैं कि देखो समीर की पत्नी स्टेज पर नाचती फिरती है.’’

‘‘लोगों का क्या है, उन का तो काम ही कुछ न कुछ कहना है. अगर हम उन के कहे मुताबिक चलने लगे, तो हमारी जिंदगी मुश्किल हो जाएगी.’’

‘‘इस का मतलब यह कि तुम दिल से चाहती हो कि तुम डांस प्रोग्राम करती रहो.’’

‘‘हां, बशर्ते तुम इस की इजाजत दो,’’ मुसकान बोली.

समीर कुछ देर तक चुपचाप मुसकान के खूबसूरत चेहरे और भरेभरे बदन को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘ठीक है, मैं तुम्हें इस की इजाजत दूंगा, पर इस के लिए मेरे काम भी कर देना.’’

‘‘कैसे काम?’’

‘‘तुम कभीकभी मेरे कारोबार से संबंधित अमीर लोगों से मिल लेना.’’

‘‘क्या कह रहे हो तुम?’’ यह सुन कर मुसकान हैरान रह गई.

‘‘तुम मेरी पत्नी हो, तभी तो मैं तुम से ऐसी बातें कह रहा हूं…’’ समीर अपनी आवाज में मिठास घोलता हुआ बोला, ‘‘देखो मुसकान, अगर तुम ऐसा करती हो, तो हमें उन लोगों से अपनी कंपनी के लिए बड़े और्डर मिलेंगे, जिस से हमारा लाखों का मुनाफा होगा.

‘‘एक पत्नी होने के नाते क्या तुम्हारा यह फर्ज नहीं कि तुम अपने पति का कारोबार बढ़ाने में उस की मदद करो और फिर तुम ऐसा पहली बार तो नहीं कर रही हो?

‘‘तुम्हारी जाति में तो ऐसा होता ही रहता है. तुम ही तो कह रही थीं कि कितनी ही लड़कियों को ऊंची जाति वाले उठा कर ले जाते थे और सुबह पटक जाते थे.’’

समीर ने मुसकान की दुखती नस पर हाथ रख दिया था और ऐसे में वह चाह भी इस से इनकार नहीं कर सकी.

‘‘ठीक है,’’ मुसकान बुझे मन से बोली.

समीर एक दबदबे वाले शख्स को अपने घर लाया और न चाहते हुए भी मुसकान को उस की बात माननी पड़ी. फिर तो यह सिलसिला चल पड़ा. समीर हर दिन किसी अमीर शख्स को अपने साथ लाता और मुसकान को उसे खुश करना पड़ता.

यह बात तो मुसकान को बाद में मालूम हुई कि असल में समीर, जिन्हें अपने कारोबार से संबंधित लोग बतलाता था, वे उस के हुस्न और जवानी के खरीदार थे और समीर उन को अपनी पत्नी का खूबसूरत जिस्म सौंपने के लिए उन से एक मोटी रकम वसूलता था.

मुसकान ने जिसे भी अपना समझा, उसी ने उसे बेचा. पहले उस के मांबाप ने उसे बेचा और अब उस का पति उसे बेच रहा था. लेकिन दोनों अब पैसे में जो खेल रहे थे.

Romantic Story : डेट के बाद – विपिन ने क्यों तोड़ा जया का दिल ?

Romantic Story : विपिन के औफिस और अपने युवा बच्चों रिया और यश के कालेज जाने के बाद 47 साला जया ने कामवाली से जल्दीजल्दी काम करवाया. वह जीवन में पहली बार डेट पर जा रही थी. उत्साह से भरा तनमन जैसे 20-22 साल का हो गया था. 11 बजे अलमारी खोल कर खड़ी हो गई,’क्या पहनूं, किस में ज्यादा सुंदर और यंग लगूंगी… साड़ी न न… सूटसलवार न… यह तो बहुत कौमन ड्रैस है. फिर क्या पहनूं जो संजीव देखता रह जाए और उस की नजरें हट ही न पाएं मुझ से…पहली बार आमनेसामने बैठ कर संजीव के साथ लंच करूंगी. इतना तो फोन पर पता चल ही गया है कि वह खानेपीने का शौकीन है.

‘हां, तो यह ठीक रहेगा, ब्लू कलर का टौप और क्रीम पैंट, इस के साथ मेरे पास मैचिंग ऐक्सेसरीज भी है, रिया हमेशा यही कहती है कि इस में आप बहुत अच्छी लगती हो. तो बस, यही पहनती हूं…’ यह सोचतेसोचते जया नहाने चली गई. खयालों में आज बस संजीव ही था.

5 साल पहले पता नहीं कैसे जिम से बाहर निकलते समय संजीव टकरा गया था, “सौरी…” कहते हुए हंस पड़ा था वह. जया को अपने से तकरीबन 10 साल छोटे संजीव की मुसकराती आंखों में थोड़े कुछ अलग से भाव बहुत भाए थे. उस के बाद जिम में तो कम, हां, सोसाइटी के गार्डन, शौपिंग कौंप्लैक्स में वह अकसर मिलने लगा था. दोनों ने शायद एकदूसरे के लिए आकर्षण महसूस किया था. 2 साल इसी तरह गुजर गए थे. पहले कभीकभी, फिर अकसर सुबह की सैर पर दोनों अब संयोग नहीं, इरादतन टकराने लगे थे और आज से 6 महीने पहले का वह रोमांटिक और खूबसूरत दिन जया के जीवन में हलचल मचा गया था जब संजीव ने उस के पास आ कर उसे अपना विजिटिंग कार्ड दिया था, “फोन करना, प्लीज,” जल्दी से कह कर फौरन वहां से चला गया था क्योंकि वह नहीं चाहता था कि लोगों की नजरों में जरा सी भी यह बात आए कि उन दोनों के बीच कुछ चल रहा है.

वह नहीं चाहता था कि उन दोनों के वैवाहिक जीवन पर जरा सी भी आंच आए, यह बात उस ने बाद में जया को फोन पर कही थी. जया ने उसे उस दिन घर जाते ही फोन किया था, कई बार उस के कार्ड को निहारा था. संजीव महाराष्ट्रीयन है, इवैंट मैनेजर है. कांपते हाथों, धङकते दिल से जब जया ने घर आ कर उसे फोन मिलाया, तो संजीव की आवाज के जादू में घिरी वह न जाने कितनी देर उस से बातें करती रही थी.

कितना कुछ अपने बारे में, अपने परिवार के बारे में दोनों ने शेयर कर लिया था. उस दिन फोन रखने के बाद जया को लगा था कि उस ने बहुत दिनों के बाद इतनी बातें की हैं. वह बहुत दिनों के बाद इतना हंसी है, उस के मन में एक नया उत्साह भर आया था. इस उम्र में उस के जीवन में एक बोरियत भरती जा रही थी. संजीव से परिचय जया को नवजीवन सा दे गया था. विपिन और बच्चों के साथ उस का जीवन वैसे तो सुचारु रूप से चल रहा है पर उस के अंदर बड़ा खालीपन सा भरता जा रहा था.

घड़ी से बंधी हुई दिनचर्या से वह थक सी चुकी है. विपिन से भी कितनी बात करे, एक समय बाद कितनी बात कर सकते हैं बैठ कर, उस पर विपिन को टीवी और सोशल मीडिया से फुरसत ही मुश्किल से मिलती है.

रिया और यश की अपनी लाइफ है, अलग रूटीन है, उन के साथ बैठ कर भी जया को अकेलापन घेरे ही रहता है, दोस्त भी गिनेचुने हैं. विपिन अंतर्मुखी है, पत्नी और बच्चों में खुश रहने वाले इंसान, घर पर वे कभी बोर नहीं होते, मस्त रहते हैं, खुश रहते हैं. बस, पता नहीं क्यों जया आजकल बहुत बोर होती है, उस का मन नहीं लगता, उसे लाइफ में कुछ ऐक्साइटमैंट चाहिए.

जया विपिन से प्यार बहुत करती है, उसे कभी धोखा देना नहीं चाहती. वह उस से बहुत संतुष्ट व सुखी है पर कुछ कमी तो है न उस के जीवन में जो संजीव की उपस्थिति से उस का मन चहकता है. अब तो जिस दिन फोन पर संजीव से बात न हो, किसी काम में मन नहीं लगता, मूड खराब रहता है जिसे विपिन और बच्चे उम्र का तकाजा बता कर हंस दिया करते हैं. वह मन ही मन और झुंझला जाती है. संजीव मूडी है, कभीकभी दिन में 2 बार, कभीकभी 4-5 दिनों में भी फोन नहीं करता, फिर कहेगा कि बहुत बिजी था.

इन 6 महीनों में जया संजीव के बारे में काफी कुछ जान चुकी है. संजीव भी उस के बारे में जान चुका होगा. जया इतना महसूस कर चुकी है कि वह अपनी पत्नी रूपा और बेटी प्राजक्ता को बहुत प्यार करता है. रूपा वर्किंग है और संजीव उस की हर चीज में हैल्प करता है, पर संजीव बहुत प्रैक्टिकल है, जया इमोशनल, दोनों समझ चुके हैं, पर दोनों के पास बातों के जो टौपिक्स रहते हैं, जया हैरान हो जाती है.

विपिन तो इतना कम बोलते हैं कि वह कभीकभी चिढ़ जाती है कि तुम्हारे पास बात करने के लिए क्या कुछ नहीं होता. विपिन हंस देते हैं, “तुम जो हो, इतने सालों से तुम्हारी ही तो सुनता आया हूं, अब कैसे बदलूं.’’

जया नाराजगी दिखाती है, कभीकभी चेतावनी भी देती है, ‘‘तुम्हारी वजह से बोर हो कर मेरा मन न भटक जाए कहीं.’’

‘‘अरे, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, डराओ मत मुझे, आई ट्रस्ट यू,’’ फिर विपिन हमेशा हंस कर उसे गले लगा लेता है, वह भी फिर उन की बांहों में अपना सिर टिका लेती है, कभीकभी ऐसे पलों में जब संजीव उस की आंखों के आगे आ जाता है तो वह घबरा भी उठती है.

6 महीने से फोन पर बात तो बहुत हो गई थी, 2 दिन पहले विपिन जब टूर पर गए तो जया ने हमेशा की तरह यह बात संजीव को बताई कि विपिन टूर पर गए हैं, बच्चों के ऐग्जाम हैं तो संजीव ने कहा, ‘‘फोन पर बातचीत तो बहुत कर ली, इस बार टूर का फायदा उठाएं? लंच पर चलोगी?’’

जया ने फौरन कहा, ‘‘नहींनहीं…’’

‘‘अरे, क्यों, क्या हम फोन पर ही हमेशा बात करते रहेंगे. चलो न, एक डेट हो जाए.’’

जया हंस पड़ी, ‘‘कोई देख लेगा.’’

‘‘कोई नहीं देखेगा, थोड़ा दूर चलेंगे. वीकेंड में कहां कोई जल्दी मिलेगा. तुम्हे बौंबे कैंटीन पसंद है न, वहीं चलते हैं, यहां पवई से बौंबे कैंटीन जाने में कोई नहीं मिलेगा.’’ जया कुछ देर सोची फिर हां बोल दी और आज वह डेट पर जा रही थी, संजीव के साथ 47 की उम्र में.

सजधज कर जया तय जगह पर पहुंची तो संजीव वहां पहुंचा नहीं था, वह जा कर कौर्नर की एक टेबल पर बैठ गई. उस के मन में एक पर पुरुष से अकेले में मिलने पर कोई अपराधबोध नहीं था. संजीव से बातें करना उसे अच्छा लगता था, बस, उसे और कुछ नहीं चाहिए था. वह अपने मन की खुशी के लिए इतना तो कर ही सकती है. उस की भी एक लाइफ है. वह अपनेआप को ही कई तरह से जैसे दलीलें दिए जा रही थी. इतने में संजीव आ गया. टीशर्ट, जींस में 35 साला संजीव जया को बहुत स्मार्ट लगा.

उसे देखते ही उस का मन पुलकित हो उठा. संजीव ने “सौरी” कहते हुए जया को ध्यान से देखा, मुसकराया और कहा, “आज आप बहुत अच्छी लग रही हैं, जया.’’

जया का चेहरा इस उम्र में भी गुलाबी आभा से चमक उठा, शरमाते हुए “थैंक्स” कहा तो संजीव ने कहा, “सोचा नहीं था कि सोसाइटी में यों ही इधर से उधर संयोग से मिलते हुए ऐसे आज यहां डेट पर आमनेसामने होंगे.’’

‘‘हां, सही कह रहे हो,’’ जया ने मुसकराते हुए कहा.

वेटर और्डर लेने आया तो संजीव ने और्डर दे दिया, जया से उस की पसंद पूछी ही नहीं तो जया को अजीब सा लगा. खैर, उत्साह में याद ही नहीं रहा होगा, जया ने इस बात को इग्नोर किया. दोनों आम बातें करते रहे, टौपिक्स बहुत होते थे दोनों के पास. जया को अच्छा लग रहा था, इस उम्र की डेट उसे अलग ही उत्साह से भर रही थी, जया खुश थी. उसे ऐसा ही दोस्त चाहिए था, बस, साफसुथरी अच्छी दोस्ती, बहुत सी बातें बस.

संजीव ने कहा, “आप अपनी फिटनैस में बहुत रैगुलर हैं न. कितने सालों से आप को गार्डन में सैर करते हुए देख रहा हूं.”

जया ने, हां मैं सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘हां, फिट रहना मेरा शौक है, तेजतेज चलते हुए तो कभी मन करता है कि दौड़ भी पङूं.’’

“अरे नहीं, दौङना तो इस उम्र में ठीक नहीं रहेगा, हां तेज सैर ठीक है.’’

जया के अंदर कुछ दरक सा गया, उस की यह बात संजीव के मुंह से सुन कर कुछ निराशा सी हुई, पर सच तो था ही. कोल्ड कौफी के बाद संजीव ने कहा, “बताओ जया, क्या और्डर करें. आप तो वैजीटेरियन हैं न…’’

‘‘हां, यहां की पनीर पसंदा, दालमखनी अच्छी है, खाना चाहोगे?’’

‘‘भाई, आप अपना देख लो, वैज मुझ से खाया नहीं जाता, बाहर तो बिलकुल नहीं, यहां का नौनवेज काफी फेमस है, वही खाऊंगा. चिकन लौलीपौप, मटन करी, लच्छा परांठा,’’ कह कर उस ने वेटर को और्डर दे दिया.

जया को बड़ा अजीब सा लगा. अचानक विपिन याद आ गया. विपिन भी नौनवेज खाता है, जया शाकाहारी है तो घर पर न के बराबर ही बनता है. विपिन और बच्चों का कहना है कि हम बाहर ही खा लेंगे, हमारे लिए परेशान न हो, नौनवेज इतना जरूरी भी नहीं कि इस के बिना रहा न जा सके, जब तुम नहीं खातीं.

जया को लगा कि वह पहली बार संजीव के साथ लंच कर रही है, इस के घर पर तो रोज नौनवेज बनता है, यह एक दिन भी मेरी पसंद में मेरा साथ नहीं दे पाया.

सामने बैठा संजीव चिकन, मटन पर टूट सा पड़ा था. जया अपना खाना तो खा रही थी पर आंखों के आगे विपिन ही आता रहा, क्यों बैठी है वह आज यहां, यह क्या हो गया उसे, पता नहीं क्यों वह आज अनमनी सी हो उठी थी. संजीव की एकएक बात पर हमेशा फिदा होता मन जैसे बुझा सा था. अचानक संजीव ने कहा, ‘‘अरे, सुनो जया, आप के पति तो अच्छी कंपनी में हैं, उन से कह कर मुझे बिजनैस दिलवाओ यार, अपने दोस्तों से भी कहो, आप ने बताया था कि आप के हसबैंड की कंपनी में कोई न कोई इवैंट्स होते ही रहते हैं.’’

‘‘हां, ठीक है, उन से बात करूंगी.’’

‘‘हां, प्लीज, बात करना. भई, पैसे कमाने हैं. ये कुछ कार्ड्स रख लो आप, उन्हें भी देना, औरों को भी देना.’’

‘‘हां, ठीक है.’’

सामने बैठे संजीव के व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर जिस तरह वह महीनों से अपने होशोहवास खो कर दीवानी सी घूमती रही थी, आज जैसे उसे अपनी चेतना वापस आती सी लगी. अब संजीव बिजनैस, पैसे की बातें कर रहा था. जया जिस उत्साह से इस डेट पर आई थी, वह तो कब का खत्म हो गया था. सामने बैठा हुआ इंसान उसे बहुत ज्यादा प्रैक्टिकल लगा, वैसा ही लगा जिस तरह के इंसानों से वह दूरी रखती है. जया ने स्वयं को बहुत संयत रखा हुआ था. उस ने अपने चेहरे, भाव से कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

अचानक संजीव ने अपना फोन जेब से निकाला और चेक करने लगा, न कोई सौरी, न कोई सफाई, न कोई शिष्टाचार… और ऐसा एक बार नहीं, जया ने नोट किया कि संजीव को तो हर 5 मिनट में अपना फोन देखने की आदत है. जया ने स्वयं को अपमानित महसूस किया.

मोबाइल चेक करने के बाद उस ने कहा, ‘‘मैं अपना मेल चेक करता रहता हूं, बहुत बिजी रहता हूं.’’

जया को अब संजीव कुछ फैंकू टाइप का लगा तो पता नहीं क्यों उस का जोर से हंसने का मन भी किया, मन में खुद से ही कहा, ‘क्यों, बच्चू, मजा आ रहा है न डेट पर, थ्रिल मिला न. यंग फील हो रहा है न…’ और सचमुच जया को यह सोचते हुए हंसी आ ही गई तो संजीव ने पूछा, ‘‘क्या हुआ. आप को भी फोन चेक करना है?’’

जया मुसकराते हुए न में गरदन हिला दी, ‘‘नहीं, यही सोच रही थी कि फोन पर बात कर के इंसान की सही पर्सनैलिटी पता नहीं चल पाती.’’

संजीव सकपकाया, ‘‘क्या हुआ, मुझ से मिल कर आप निराश हुईं क्या?’’

‘‘नहींनहीं, मिलने पर ही तो पता चला आप काफी इंटरैस्टिंग हैं.’’ संजीव खुद पर इतराया.

अचानक संजीव ने पूछा, ‘‘आप को अपनी लाइफ में किस चीज की कमी है, जया जो आप मुझ से जुड़ीं?’’

‘‘नहीं, संजीव, मेरी लाइफ में तो कोई कमी नहीं. एक बेहद केयरिंग पति है, 2 प्यारे बच्चे हैं, व्यस्त रहती हूं, कमी तो कुछ भी नहीं.’’

‘‘फिर क्या हुआ?’’

‘‘पता नहीं, संजीव, मैं भी अकसर यही सोचती हूं.’’

‘‘मुझे लगता है, एक समय बाद मैरिड लाइफ में जो बोरियत आ जाती है, यह वही है, पर एक बात बताओ, जैसे आप सबकुछ मुझ से शेयर कर लेती हैं, वैसी किसी और से तो नहीं करतीं?’’

जया चौंकी, ‘‘मतलब है, बी स्ट्रौंग, कई बार मुझे लगता है जैसे आप मेरे साथ फ्री हो गईं, ऐसे किसी और के साथ हो गईं तो कोई आप का फायदा भी उठा सकता है, किसी पर जल्दी विश्वास नहीं करना चाहिए. लोग कई बार जैसे दिखते हैं, वैसे होते नहीं. मेरी बात और है.’’

अब तक जया के होश काफी ठिकाने आ चुके थे, डेट का नशा उतर चुका था. लंच खत्म होने पर जया ने ही वेटर को बिल लाने का इशारा कर दिया. बिल आया तो जया अपना पर्स खोलने लगी. उसे लगा संजीव शिष्टाचारवश पेमेंट करने की जिद करेगा, पर संजीव ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘हां, जानता हूं, आप मुझे पेमेंट नहीं करने देंगी, आप बड़ी हैं न मुझ से.’’ जया का दिमाग घूम गया, उस ने भी मुसकराते हुए पेमेंट कर दिया.

बाहर निकल कर संजीव ने कहा,”बहुत अच्छा टाइमपास हुआ, जया, फोन पर तो बातें करते ही रहेंगे, हां, अपने हसबैंड को भी मेरा कार्ड देना और ये और कुछ कार्ड्स रख लो, और परिचितों को भी देना, बिजनैस आगे बढ़ना चाहिए, बस.’’

‘‘हां, जरूर, मैं टैक्सी बुक कर लेती हूं.’’

संजीव अपनी कार से आया था, कोई साथ न देख ले इसलिए दोनों अलगअलग गए. टैक्सी में बैठ कर जया ने गहरी सांस लेते हुए कई बार खुद को बेवकूफ कहा, फोन पर तो संजीव अलग ही व्यक्तित्व का मालिक लगता था, पर इस डेट के बाद हुंह, डेट…यह डेट थी. जया को मन ही मन हंसी भी आ गई, क्याक्या होता है जीवन में. फिर उस ने अब तक के अपराधबोध और खिन्नता को मन से निकाल फेंका. हां, हो जाती है गलती, सुधारी भी तो जा सकती है और मुसकराते हुए विपिन को व्हाट्सऐप पर मैसेज भेज दिया, ‘लव यू, विपिन, जल्दी आना घर…’

Love Story : हम दिल दे चुके सनम – क्यों शिखा शादी करने से इनकार कर रही थी ?

Love Story : शिखा को नीचे से ऊपर तक प्रशंसा भरी नजरों से देखने के बाद रवि ऊंचे स्वर में सविता से बोला, ‘‘भाभी, आप की बहन सुंदर तो है, पर आप से ज्यादा नहीं.’’

‘‘गलत बोल रहा है मेरा भाई,’’ राकेश ने हंसते हुए कहा, ‘‘अरे, यह तो सविता से कहीं ज्यादा खूबसूरत है.’’

‘‘लगता है शिखा को देख कर देवरजी की आंखें चौंधिया गई हैं,’’ सविता ने रवि को छेड़ा.

‘‘भाभी, उलटे मेरी स्मार्टनैस ने शिखा को जबरदस्त ‘शाक’ लगाया है. देखो, कैसे आंखें फाड़फाड़ कर मुझे देखे जा रही है,’’ रवि ने बड़ी अकड़ के साथ अपनी कमीज का कालर ऊपर किया.

जवाब में शिखा पहले मुसकराई और फिर बोली, ‘‘जनाब, आप अपने बारे में काफी गलतफहमियां पाले हुए हैं. चिडि़याघर में लोग आंखें फाड़फाड़ कर अजीबोगरीब जानवरों को उन की स्मार्टनैस के कारण थोड़े ही देखते हैं.’’

‘‘वैरीगुड, साली साहिबा. बिलकुल सही जवाब दिया तुम ने,’’ राकेश तालियां बजाने लगा.

‘‘शिखा, गलत बात मुंह से न निकाल,’’ अपनी मुसकराहट को काबू में रखने की कोशिश करते हुए सावित्री ने अपनी छोटी बेटी को हलका सा डांटा.

‘‘आंटी, डांटिए मत अपनी भोली बेटी को. मैं ने जरा कम तारीफ की, इसलिए नाराज हो गई है.’’

‘‘गलतफहमियां पालने में माहिर लगते हैं आप तो,’’ शिखा ने रवि का मजाक उड़ाया.

‘‘आई लाइक इट, भाभी,’’ रवि सविता की तरफ मुड़ कर बोला, ‘‘हंसीमजाक करना जानती है आप की मिर्च सी तीखी यह बहन.’’

‘‘तुम्हें पसंद आई है शिखा?’’ सविता ने हलकेफुलके अंदाज में सब से महत्त्वपूर्ण सवाल पूछा.

‘‘चलेगी,’’ रवि लापरवाही से बोला, ‘‘आप लोग चाहें तो घोड़ी और बैंडबाजे वालों को ऐडवांस दे सकते हैं.’’

‘‘एक और गलतफहमी पैदा कर ली आप ने. कमाल के इंसान हैं आप भी,’’ शिखा ने मुंह बिगाड़ कर जवाब दिया और फिर हंस पड़ी.

‘‘भाभी, आप की बहन शरमा कर ऐसी बातें कर रही है. वैसे तो अपने सपनों के राजकुमार को सामने देख कर मन में लड्डू फूट रहे होंगे,’’ रवि ने फिर कालर खड़ा किया.

‘‘इन का रोग लाइलाज लगता है, जीजू. इन्हें शीशे के सामने ज्यादा खड़ा नहीं होना चाहिए. मेरी सलाह तो किसी दिमाग के डाक्टर को इन्हें दिखाने की भी है. आप सब मेरी सलाह पर विचार करें, तब तक मैं सब के लिए चाय बना कर लाती हूं,’’ ड्राइंगरूम से हटने के इरादे से शिखा रसोई की तरफ चल पड़ी.

‘‘शर्मोहया के चलते ‘हां’ कहने से चूक गईं तो मैं हाथ से निकल जाऊंगा, शिखा,’’  रवि ने उसे फिर छेड़ा.

जवाब में शिखा ने जीभ दिखाई, तो ठहाकों से कमरा गूंज उठा.

रवि अपनी सविता भाभी का लाड़ला देवर था. उस की अपनी बहन शिखा के सामने प्रशंसा करते सविता की जबान न थकती थी.

अपनी बड़ी बहन सविता की शादी की तीसरी सालगिरह के समारोह में शामिल होने के लिए शिखा अपनी मां सावित्री के साथ दिल्ली आई थी.

सविता का इकलौता इंजीनियर देवर रवि मुंबई में नौकरी कर रहा था. वह भी सप्ताह भर की छुट्टी ले कर दिल्ली पहुंचा था.

सविता और उस के पति राकेश के विशेष आग्रह पर रवि और शिखा दोनों इस समारोह में शामिल हो रहे थे. जब वे पहली बार एकदूसरे के सामने आए, तब सविता, राकेश और सावित्री की नजरें उन्हीं पर जम गईं.

राकेश अपनी साली का बहुत बड़ा प्रशंसक था. वह चाहता था कि शिखा भी उन के घर की बहू बन जाए.

अपने दामाद की इस इच्छा से सावित्री पूरी तरह सहमत थीं. देखेभाले इज्जतदार घर में दूसरी बेटी के पहुंच जाने पर वह पूरी तरह से चिंतामुक्त हो जातीं.

सावित्रीजी, राकेश और सविता को उम्मीद थी कि लड़कालड़की यानी रवि और शिखा इस बार की मुलाकात में उन की पसंद पर अपनी रजामंदी की मुहर जरूर लगा देंगे.

क्या शिखा उसे पसंद आ गई है ?

रवि ने अपनी बातों व हावभाव से साफ कर दिया कि शिखा उसे पसंद आ गई है. उस का दीवानापन उस की आंखों से साफ झलक रहा था. उस के हावभाव से साफ जाहिर हो रहा था कि शिखा की ‘हां’ के प्रति उस के मन में कोई शक नहीं है.

अपने भैयाभाभी का लाड़ला रवि शिखा को छेड़ने का कोई मौका नहीं चूक रहा था.

उस दिन शाम को शिखा अपनी बहन का खाना तैयार कराने में हाथ बंटा रही थी, तो रवि भी वहां आ पहुंचा.

‘‘शिखा, मेरी रुचियां भाभी को अच्छी तरह मालूम हैं. वे जो बताएं, उसे ध्यान से सुनना,’’ रवि ने आते ही शिखा को छेड़ना शुरू कर दिया.

‘‘आप को मेरी एक तमन्ना का शायद पता नहीं है,’’ शिखा का स्वर भी फौरन शरारती हो उठा.

‘‘तुम इसी वक्त अपनी तमन्ना बयान करो, शिखा. बंदा उसे जरूरपूरी करेगा.’’

‘‘मैं दुनिया की सब से घटिया कुक बनना चाहती हूं और इसीलिए अपनी मां या दीदी से पाक कला के बारे में कुछ भी सीखने का मेरा कोई इरादा नहीं है.’’

‘‘लेकिन यह तो टैंशन वाली बात है. मैं तो अच्छा खानेपीने का बहुत शौकीन हूं.’’

‘‘मैं कब कह रही हूं कि आप इस तरह का शौक न पालिए.’’

‘‘पर तुम अच्छा खाना बनाना सीखोगी नहीं, तो हमारी शादी के बाद मेरा यह शौक पूरा कैसे होगा?’’

‘‘रवि साहब, बातबात पर गलतफहमियां पाल लेने में समझदारी नहीं.’’

‘‘अब शरमाना छोड़ भी दो, शिखा. तुम्हारी मम्मी, भैया, भाभी और मैं इस रिश्ते के लिए तैयार हैं, तो तुम क्यों जबरदस्ती की ‘न’ पर अड़ी हो?’’

‘‘जब लड़की नहीं राजी, तो क्या करेगा लड़का और क्या करेंगे काजी?’’ अपनी इस अदाकारी पर शिखा जोर से हंस पड़ी.

रवि उस से हार मानने को तैयार नहीं था. उस ने और ज्यादा जोरशोर से शिखा को छेड़ना जारी रखा.

अगले दिन सुबह सब ने सविता और राकेश को उन के सुखी वैवाहिक जीवन के लिए शुभकामनाएं दीं. इस दौरान भी रवि और शिखा में मीठी नोकझोंक चलती रही.

अपने असली मनोभावों को शिखा ने उस दिन दोपहर को अपनी मां और दीदी के सामने साफसाफ प्रकट कर दिया.

‘‘देखो, रवि वैसा लड़का नहीं है, जैसा मैं अपने जीवनसाथी के रूप में देखती आई हूं. उस से शादी करने का मेरा कोई इरादा नहीं है,’’ शिखा ने दृढ़ लहजे में उन्हें अपना फैसला सुना दिया.

‘‘क्या कमी नजर आई है तुझे रवि में?’’ सावित्री ने चिढ़ कर पूछा.

‘‘मां, रवि जैसे दिलफेंक आशिक मैं ने हजारों देखे हैं. सुंदर लड़कियों पर लाइन मारने में कुशल युवकों को मैं अच्छा जीवनसाथी नहीं मानती.’’

‘‘शिखा, रवि के अच्छे चरित्र की गारंटी मैं लेती हूं,’’ सविता ने अपनी बहन को समझाने का प्रयास किया.

‘‘दीदी, आप के सामने वह रहता ही कितने दिन है? पहले बेंगलुरु में पढ़ रहा था और अब मुंबई में नौकरी कर रहा है. उस की असलियत तुम कैसे जान सकती हो?’’

‘‘तुम से तो ज्यादा ही मैं उसे जानती हूं. बिना किसी सुबूत उसे कमजोर चरित्र का मान कर तुम भारी भूल कर रही हो, शिखा.’’

‘‘दीदी मैं उसे कमजोर चरित्र का नहीं मान रही हूं. मैं सिर्फ इतना कह रही हूं कि उस जैसे दिलफेंक व्यक्तित्व वाले लड़के आमतौर पर भरोसेमंद और निभाने वाले नहीं निकलते. फिर जब मैं उसे ज्यादा अच्छी तरह जानतीसमझती नहीं हूं, तो उस से शादी करने को ‘हां’ कैसे कह दूं? आप लोगों ने अगर मुझ पर और दबाव डाला, तो मैं कल ही घर लौट जाऊंगी,’’ शिखा की इस धमकी के बाद उन दोनों ने नाराजगी भरी चुप्पी साध ली.

सविता ने शिखा का फैसला राकेश को बताया, तो राकेश ने कहा, ‘‘उसे इनकार करने का हक है, सविता. इस विषय पर हम बाद में सोचविचार करेंगे. मैं रवि से बात करता हूं. तुम शिखा पर किसी तरह का दबाव डाल कर उस का मूड खराब मत करना.’’

पति के समझाने पर फिर सविता ने इस रिश्ते के बारे में शिखा से एक शब्द भी नहीं बोला.

राकेश ने अकेले में रवि से कहा, ‘‘भाई, शिखा को तुम्हारी छेड़छाड़ अच्छी नहीं लग रही है. उस से अपनी शादी को ले कर हंसीमजाक करना बंद कर दो.’’

‘‘लेकिन भैया, उस से तो मेरी शादी होने ही जा रही है,’’ रवि की आंखों में उलझन और उदासी के मिलेजुले भाव उभरे.

‘‘सोच तो हम भी यही रहे थे, लेकिन अंतिम फैसला तो शिखा का ही माना जाएगा न?’’

‘‘तो क्या उस ने इनकार कर दिया है?’’

‘‘हां, पर तुम दिल छोटा न करना. ऐसे मामलों में जबरदस्ती दबाव बनाना उचित नहीं होता है.’’

‘‘मैं समझता हूं, भैया. शिखा को शिकायत का मौका मैं अब नहीं दूंगा,’’ रवि उदास आवाज में बोला.

शाम को शादी की सालगिरह के समारोह में राकेश के कुछ बहुत करीबी दोस्त सपरिवार आमंत्रित थे. घर के सदस्यों ने उन की आवभगत में कोई कमी नहीं रखी, पर कोई भी खुल कर हंसबोल नहीं पा रहा था.

रवि ने एकांत में शिखा से सिर्फ इतना कहा, ‘‘मैं सचमुच बहुत बड़ी गलतफहमी का शिकार था. मेरी जिन बातों से आप के दिल में दुख और नाराजगी के भाव पैदा हुए, उन सब के लिए मैं माफी मांगता हूं.’’

‘‘मैं आप की किसी बात से दुखी या नाराज नहीं हूं. आप के व मेरे अपनों के अति उत्साह के कारण जो गलतफहमी पैदा हुई, उस का मुझे अफसोस है,’’ शिखा ने मुसकरा कर रवि को सहज करने का प्रयास किया, पर असफल रही, क्योंकि रवि और कुछ बोले बिना उस के पास से हट कर घर आए मेहमानों की देखभाल करने में व्यस्त हो गया. उस के हावभाव देख कर कोई भी समझ सकता था कि वह जबरदस्ती मुसकरा रहा है.

‘इन जनाब की लटकी सूरत सारा दिन देखना मुझ से बरदाश्त नहीं होगा. मां को समझा कर मैं कल की ट्रेन से घर लौटने का इंतजाम करती हूं,’ मन ही मन यह फैसला करने में शिखा को ज्यादा वक्त नहीं लगा, मगर उसे अपनी मां से इस विषय पर बातें करने का मौका ही नहीं मिला और इसी दौरान एक दुर्घटना घटी और सारा माहौल तनावग्रस्त हो गया.

आखिरी मेहमानों को विदा कर के जब सविता लौट रही थी, तो रास्ते में पड़ी ईंट से ठोकर खा कर धड़ाम से गिर गई.

सविता के गर्भ में 6 महीने का शिशु था. काफी इलाज के बाद वह गर्भवती हो पाई थी. गिरने से उस के पेट में तेज चोट लगी थी. चोट से पेट के निचले हिस्से में दर्द शुरू हो गया. कुछ ही देर बाद हलका सा रक्तस्राव हुआ, तो गर्भपात हो जाने का भय सब के होश उड़ा गया.

राकेश और रवि सविता को फौरन नर्सिंगहोम ले गए. सावित्रीजी और शिखा घर पर ही रहीं और कामना कर रही थीं कि कोई और अनहोनी न घटे.

सविता की हालत ठीक नहीं है, गर्भपात हो जाने की संभावना है, यह खबर राकेश ने टेलीफोन द्वारा सावित्रीजी और शिखा को दे दी.

मांबेटी दोनों की आंखों से नींद छूमंतर हो गई. दोनों की आंखें रहरह कर आंसुओं से भीग जातीं.

सुबह 7 बजे के करीब रवि अकेला लौटा. उस की सूजी आंखें साफ दर्शा रही थीं कि वह रात भर जागा भी है और रोया भी.

‘‘सविता की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ है,’’ यह खबर इन दोनों को सुनाते हुए उस का गला भर आया था.

फिर रवि जल्दी से नहाया और सिर्फ चाय पी कर नर्सिंगहोम लौट गया.

उस के जाने के आधे घंटे बाद राकेश आया तो उस का उदास, थका चेहरा देख कर सावित्रीजी रो पड़ीं.

राकेश बहुत थका हुआ था. वह कुछ देर आराम करने के इरादे से लेटा था, पर गहरी नींद में चला गया. 3-4 घंटों के बाद सावित्रीजी ने उसे उठाया.

नाश्ता करने के बाद सावित्री और राकेश नर्सिंगहोम चले गए. शिखा ने सब के लिए खाना तैयार किया, पर शाम के 5 बजे तक रवि, राकेश या सावित्रीजी में से कोई नहीं लौटा. चिंता के मारे अकेली शिखा का बुरा हाल हो रहा था.

करीब 7 बजे राकेश और सावित्रीजी लौटे. उन्होंने बताया कि रवि 1 मिनट को भी वहां से हटने को तैयार नहीं था.

सुबह से भूखे रवि के लिए राकेश खाना ले गया. फोन पर जब शिखा को अपने जीजा से यह खबर मिली कि रवि ने अभी तक खाना नहीं खाया है और न ही वह आराम करने के लिए रात को घर आएगा, तो उस का मन दुखी भी हुआ और उसे रवि पर तेज गुस्सा भी आया.

खबर इस नजरिए से अच्छी थी कि सविता की हालत और नहीं बिगड़ी थी. उस रात भी रवि और राकेश दोनों नर्सिंगहोम में रुके. शिखा और सावित्रीजी ने सारी रात करवटें बदलते हुए काटी. सुबह सावित्रीजी पहले उठीं. शिखा करीब घंटे भर बाद. उस ने खिड़की से बाहर झांका, तो बरामदे के फर्श पर रवि को अपनी तरफ पीठ किए बैठा पाया.

अचानक रवि के दोनों कंधे अजीब से अंदाज में हिलने लगे. उस ने अपने हाथों से चेहरा ढांप लिया. हलकी सी जो आवाजें शिखा के कानों तक पहुंची, उन्हें सुन कर उसे यह फौरन पता लग गया कि रवि रो रहा है.

बेहद घबराई शिखा दरवाजा खोल कर रवि के पास पहुंची. उस के आने की आहट सुन कर रवि ने पहले आंसू पोंछे और फिर गरदन घुमा कर उस की तरफ देखा.

रवि का थका, मुरझाया चेहरा देख कर शिखा का दिल डर के मारे जोरजोर से धड़कने लगा.

‘‘दीदी की तबीयत…’’ शिखा रोंआसी हो अपना सवाल पूरा न कर पाई.

‘‘भाभी अब ठीक हैं. खतरा टल गया है,’’ रवि ने मुसकराते हुए उसे अच्छी खबर सुनाई.

‘‘तो तुम रो क्यों रहे हो?’’ आंसू बहा रही शिखा का गुस्सा करने का प्रयास रवि को हंसा गया.

‘‘मेरी आंखों में खुशी के आंसू हैं, शिखाजी,’’ रवि ने अचानक फिर आंखों में छलक आए आंसुओं को पोंछा.

‘‘मैं शिखा हूं, ‘शिखाजी’ नहीं,’’  मन में गहरी राहत महसूस करती शिखा उस के बगल में बैठ गई.

‘‘मेरे लिए ‘शिखाजी’ कहना ही उचित है,’’ रवि ने धीमे स्वर में जवाब दिया.

‘‘जी नहीं. आप मुझे शिखा ही बुलाएं,’’ शिखा का स्वर अचानक शरारत से भर उठा, ‘‘और मुझ से नजरें चुराते हुए न बोलें और न ही मैं आप को ठंडी सांसें भरते हुए देखना चाहती हूं.’’

‘‘वह सब मैं जानबूझ कर नहीं कर रहा हूं. तुम्हें दिल से दूर करने में कष्ट तो होगा ही,’’ रवि ने एक और ठंडी सांस भरी.

‘‘वह कोशिश भी छोडि़ए जनाब, क्योंकि मैं अब जान गई हूं कि इस दिलफेंक आशिक का स्वभाव रखने वाले इनसान का दिल बड़ा संवेदनशील है,’’ कह शिखा ने अचानक रवि का हाथ उठा कर चूम लिया.

रवि मारे खुशी के फूला नहीं समाया. फिर अचानक गंभीर दिखने का नाटक करते हुए बोला, ‘‘मेरे मन में अजीब सी बेचैनी पैदा हो गई है, शिखा. सोच रहा हूं कि जो लड़की जरा सी भावुकता के प्रभाव में आ कर लड़के का हाथ फट से चूम ले, उसे जीवनसंगिनी बनाना क्या ठीक होगा?’’

‘‘मुझ पर इन व्यंग्यों का अब कोई असर नहीं होगा, जनाब,’’ शिखा ने एक बार फिर उस का हाथ चूम लिया, ‘‘क्योंकि आप की इस सोच में कोई सचाई नहीं है और…’’

‘‘और क्या?’’ रवि ने उस की आंखों में प्यार से झांकते हुए पूछा.

‘‘अब तो तुम्हें हम दिल दे ही चुके सनम,’’ शिखा ने अपने दिल की बात कही और फिर शरमा कर रवि के सीने से लग गई.

Hindi Kahani : प्लसमाइनस – बहू के मापदंड बताती कहानी

Hindi Kahani : प्रतिबिंब भी अपने पिता का बेटा था. यदि वे अनाया को अपनी बहू बनाने के लिए तैयार नहीं थे तो प्रतिबिंब भी अनाया में चाहे कितने भी माइनस पौइंट हों, उसी से शादी करने का प्रण ले चुका था.

रात के 8 बज रहे थे. प्रतिबिंब ने सामने की दीवार पर लगे टीवी के पास से रिमोट उठाया और अनाया का इंतजार करते हुए बैड पर लेट कर टीवी देखने लगा.

बमुश्किल आधा घंटा हुआ था कि दरवाजा खुला और मुसकराते हुए अनाया ने प्रवेश किया, ‘‘सौरीसौरी, प्रति, मैं थोड़ा सा लेट हो गई, बाय द वे, कितनी देर हो गई तुम्हें आए हुए?’’
‘‘अरे छोड़ो यार ये सब बातें, तुम जल्दी से फ्रैश हो कर आ जाओ, मैं ने खाना और्डर कर दिया है, आता ही होगा.’’
‘‘ठीक है, मैं यों गई और यों आई.’’
15 मिनट के बाद चेंज कर के जब अनाया ने कमरे में प्रवेश किया तो प्रतिबिंब उसे अवाक सा देखता रह गया.

‘‘कमर तक लहराते खुले केश, दूधिया सफेद रंग और उस पर पिंक कलर की झीनी नाइटी पहने अनाया को सामने इस रूप में देख कर प्रतिबिंब अपने अंदर उठते प्यार और रोमांस के ज्वारभाटे को रोक नहीं पाया और झट से एक प्यारभरा चुंबन अनाया के गाल पर जड़ दिया.

‘‘अरेअरे, यह क्या कर रहे हो, जरा धीर धरो श्रीमानजी. पहले हम पेटपूजा कर लें,’’ कहते हुए अनाया ने प्रतिबिंब को प्यार से अपने से अलग कर दिया. तभी घंटी बजी, प्रतिबिंब ने दरवाजा खोल कर डिलीवरी बौय से खाना लिया और टेबल पर ला कर रख दिया.

‘‘अच्छा है, हर माह हमारी कंपनी इसी प्रकार दूसरे शहरों में मीटिंग्स अरेंज करती रहे और हम यों ही मस्ती करते रहें. बस, प्रौब्लम यह है कि हम दोनों की विंग अलगअलग होने से आने की टाइमिंग्स अलगअलग हो जाती हैं,’’ प्रतिबिंब ने खाना खाते हुए कहा.
‘‘और करेंगे भी क्या या इस के अलावा हम कर भी क्या सकते हैं,’’ अनाया ने कुछ उदास स्वर में कहा.

‘‘अरे यार, अब तुम वही पुराना रोना मत शुरू कर देना वरना इतना अच्छा मूड खराब हो जाएगा. अभी बस आज के इन पलों को एंजौय करते हैं, बाकी सब बाद में,’’ प्रतिबिंब ने कहा तो अनाया चुपचाप खाना खाने लगी.

इस के बाद तो भोपाल में टाटा ग्रुप के फाइवस्टार होटल ताज के कमरा न. 103 की बड़ीबड़ी कांच की खिड़कियों में पड़े ग्रे कलर के परदे, दीवारों और छत की मद्धिम सुनहरी एलईडी लाइट्स और कमरे की फिजां में गूंज रहे गाने ‘दिल दियां गल्लां…’ के मधुर बोल के बीच प्रतिबिंब और अनाया एकदूसरे की आंखों में आंखें डाले, परस्पर आबद्ध एकदूसरे में खोए, अधरों पर अधर रखे, अपने प्रेम को सैलिब्रेट कर रहे थे. आज रविवार होने के कारण अवकाश था. ये प्रेमी युगल शायद दोपहर तक सोए रहते यदि प्रतिबिंब का फोन न बजता.

‘अरे यार, यह कौन दुष्ट है जो हमें संडे को भी चैन से सोने नहीं देता,’ अंगड़ाई लेते हुए जैसे ही प्रतिबिंब ने फोन उठाया तो फोन उस के पापा का था. स्क्रीन पर अपने पापा का नाम देखते ही प्रतिबिंब एक झटके से बैड से उठ कर सोफे पर इस तरह आ कर बैठा मानो पापा सामने ही आ खड़े हों.

‘‘हां बेटा, कैसे हो, कब लौट रहे हो और मीटिंग कैसी रही?’’
‘‘पापाजी, सब बढि़या है. मीटिंग के बाद 2 दिन वर्कशौप है, इसलिए मैं 3 दिन बाद शनिवार को वापस दिल्ली लौटूंगा.’’
‘‘ठीक है, मैं यह कह रहा था कि वे जो अपने फैमिली फ्रैंड वर्मा अंकल हैं न, उन के एक मित्र वहीं भोपाल में ही रहते हैं, समय निकाल कर उन के यहां जरूर हो आना.’’
‘‘ठीक है पापा, मैं कोशिश करूंगा. वैसे, कोई काम है क्या उन से?’’
‘‘काम तो कुछ खास नहीं है, वे अपनी बेटी के लिए तुम से मिलना चाह रहे थे. तुम देख लेना, यदि तुम्हें लड़की पसंद होगी तो बात आगे बढ़ाएंगे.’’

‘‘पापा, आप से मुझे कितनी बार कहना पड़ेगा कि मैं किसी भी लड़की को देखने नहीं जाऊंगा. कारण आप को पता है. किसी को भी देख कर बिना वजह इनकार करना मुझे पसंद नहीं है. मैं इस कारण से तो उन से मिलने नहीं जा पाऊंगा, आप से स्पष्ट कहे देता हूं.’’ यह कह कर प्रतिबिंब ने गुस्से से फोन काट दिया और छत की फौल्स सीलिंग को देखते हुए सोचने लगा, ‘प्यार की भाषा क्यों नहीं समझते ये बड़े लोग, क्यों बारबार इस तरह की परिस्थति बनाते हैं कि हमें उन की बात न मानने के लिए मजबूर होना पड़े.’

लाख संतुलन रखने के बाद भी वह इस बात पर अपना आपा खो ही देता है. बगल में गहरी नींद में सोई अनाया को उस ने उठाना उचित नहीं समझ और अपनी चाय ले कर बालकनी में आ बैठा. बादलों की ओट में से सूर्य आसमान में अपनी छटा बिखेरने को आतुर था. उस की किरणें धीरेधीरे बादलों की ओट से प्रकाश बिखेर रही थीं. इधर प्रतिबिंब के मन में तूफान उठा हुआ था. तभी उसे अनाया की पहली मुलाकात याद आ गई.

भोपाल के ओरिएंटल कालेज से औटोमोबाइल विधा से इंजीनियरिंग करने के बाद प्लेसमैंट के तहत मारुति के गुड़गांव स्थित शोरूम में बतौर इंजीनियर वह पहली बार जौइन करने गया था. उस कंपनी में वह नया था, सो उस समय अनाया उस की बहुत मदद करती थी. यद्यपि प्रतिबिंब तकनीकी विंग में था और अनाया सेल्स में थी पर उस का और अनाया का केबिन पासपास था, सो धीरेधीरे दोस्ती हो गई थी. अकसर वे दोनों लंच एकसाथ करते थे. इस सब के बीच कब दोनों एकदूसरे को अपना दिल बैठे थे, उन्हें पता न चला.

अब दोनों अकसर औफिस टाइम के बाद साथसाथ वक्त बिताने लगे थे. उसे याद है, एक बार अनाया 4 दिनों तक औफिस नहीं आई थी और फोन भी लगातार स्विच औफ जा रहा था. वे 4 दिन उस के लिए किसी वनवास से कम नहीं थे. 5वें दिन जब वह औफिस आई तो लंचटाइम में वह फट पड़ा था,

‘क्या मैनर्स हैं ये कि न औफिस आएंगे, न इन्फौर्म करेंगे और फोन को भी स्विच औफ कर देंगे, ताकि कोई चाह कर भी कौन्टैक्ट न कर पाए. तुम जानती हो कि इन 4 दिनों में मेरे ऊपर क्या बीती है?’

‘सौरी प्रति, वह मैं इतनी मुसीबत में थी कि…’ कहतेकहते अनाया की आंखों में आंसू आ गए. फिर उस ने जो बताया उसे सुन कर वह सन्न रह गया, ‘प्रति, मैं अपनी मां और भाई के साथ रहती हूं और सच कहूं तो वही मेरी दुनिया हैं. मेरी मां स्पैशलचाइल्ड स्कूल में टीचर हैं जो सुबह जा कर शाम को लौटती हैं.’
‘स्पैशलचाइल्ड स्कूल, मतलब?’
‘स्पैशलचाइल्ड मतलब ऐसे बच्चों का स्कूल जिस में शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों को ही पढ़ाया जाता है. ऐसे बच्चे सामान्य बच्चों से अलग होते हैं, इसलिए उन्हें स्पैशल कहा जाता है. 15 वर्ष का मेरा भाई एक स्पैशलचाइल्ड है. अन्य बच्चों के साथसाथ भाई की भी मां देखभाल कर सके, इसलिए उन्होंने इस फील्ड को चुना और अपने साथ ही वे भाई को भी स्कूल ले जाती हैं.

‘उस दिन भाई की तबीयत ठीक नहीं थी और मां का जाना बेहद जरूरी था तो मां उसे अपने साथ नहीं ले गई थीं. उसे खिलापिला और सुला कर स्कूल चली गई थीं. शाम को जब मां लौटीं तो भाई बुखार से तप रहा था. तुम्हें याद होगा कि उस दिन तुम एक वर्कशौप में चले गए थे. मां ने मुझे फोन किया और मैं तुरंत भागी. हम उसे अस्पताल ले कर गए. डाक्टरों ने उसे सिवीयर निमोनिया बताया और भरती कर लिया. इन दिनों मैं इतनी परेशान थी कि भाई के अलावा कुछ भी होश नहीं था, इसलिए तुम्हें भी फोन नहीं कर पाई.’

‘ओह, पर यार, तुम अकेले ही परेशान होती रहीं, एक बार मुझे बताया तो होता,’ प्रतिबिंब ने अनाया के हाथ को पकड़ते हुए कहा. उस दिन पहली बार उस ने अनाया के हाथ को छुआ था और अनाया ने कोई प्रतिरोध नहीं किया था. ‘बुरा न मानो तो एक बात पूछूं?’ प्रतिबिंब ने अनाया की तरफ देखते हुए कहा.

‘अरे, हम गरीबों की तो जिंदगी ही खुली किताब होती है जिस में छिपाने लायक कुछ नहीं होता. पूछो न, क्या पूछना है,’ अनाया ने उदास स्वर में कहा.
‘तुम ने अपने पापा के बारे में कभी कुछ नहीं बताया. क्या वे…’ प्रतिबिंब मानो आगे कुछ बोल ही नहीं पा रहा था.

‘प्रतिबिंब, मेरे मम्मीपापा का अंतर्जातीय विवाह था, पापा मेरे गुप्ता थे और मेरी मम्मी सिंधी थीं. दोनों के ही परिवार वाले इस विवाह के लिए तैयार नहीं थे तो उन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली और एकसाथ रहने लगे. बाद में मम्मी के परिवार वालों ने तो आनाजाना प्रारंभ कर दिया था लेकिन पापा के घर वालों ने जो उस समय नाता तोड़ा तो आज तक टूटा हुआ है. पापा और मम्मी दोनों ही टीचर थे और एक ही स्कूल में पढ़ाते थे.

मम्मीपापा के विवाह के 2 साल बाद मेरा जन्म हुआ तो पापा से अधिक मम्मी खुश हुई थीं. जब मां दूसरी बार गर्भवती थीं तो एक दिन स्कूल से लौटते समय पापा की बाइक को किसी ट्रक वाले ने टक्कर मार दी थी और वे असमय काल के गाल में समा गए थे. मां पर मानो दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. पापा के जाने के 3 माह बाद भैया का जन्म हुआ और जन्म होने के एक दिन बाद ही उसे पीलिया हो गया था.

10 दिन अस्पताल में एडमिट रहने के बाद उसे छुट्टी दी गई थी. शुरू में तो कुछ पता नहीं चला लेकिन 2 साल का होने पर भी वह अपने हमउम्र बच्चों से अलग दिखता था. डाक्टरों को दिखाने और कुछ परीक्षण कराने पर पता चला कि वह मैंटली फिट नहीं है. हां, नानानानी ने उस समय जरूर साथ दिया. पापा के घर वालों ने तो आज तक कदम नहीं रखा, बल्कि मम्मी के बारे में कहा, ‘हमारे बेटे को खा गई और अब उस के कर्मों का ही फल है कि ऐसा बेटा पैदा हुआ है.’

‘अरे, कोई इतनी गंदी सोच कैसे रख सकता है. यह सब इंसान के हाथ में थोड़े ही होता है,’ प्रतिबिंब ने कुछ बेचैन होते हुए कहा था.
‘अभी कैसी है उस की तबीयत?’
‘अब ठीक है, कल ही हौस्पिटल से डिस्चार्ज करा कर घर लाई हूं. तभी तो आज औफिस आई हूं.’
‘प्रौमिस करो कि आगे से कुछ भी ऐसा होगा तो तुम मुझे भी बताओगी.’
‘जी, जी बिलकुल.’

बालकनी से उस ने कमरे में झांक कर देखा तो अनाया अभी भी गहरी नींद में सोई हुई थी. इसलिए वह रूम से होटल के गार्डन में आ गया और एक कप चाय का और्डर दे कर आरामकुरसी पर बैठ गया. इस लुकाछिपी का अंत कब होगा, कब पापा हमारे प्यार को अपना आशीर्वाद देंगे, यह सोचतेसोचते वह फिर सोचने लगा.

उस घटना के बाद तो उन दोनों का प्यार आसमान की ऊंचाई छूने लगा था. अकसर अनाया प्रतिबिंब के लिए अपने घर से खाना ले कर आती, उस के साथ ही खाती और औफिस के बाद भी कभी मौल तो कभी कौफी शौप में चले जाते. एक रविवार को प्रतिबिंब अनाया को बिना बताए उस के घर जा पहुंचा.

उसे देख कर अनाया चौंक गई, ‘अरे, तुम अचानक, क्या हुआ, कल तो तुम ने कुछ बताया ही नहीं था?’
‘अरे, हद है, देखते ही इतने सवाल दाग दिए तुम ने.’
‘आंटी देखिए, अंदर आने को कहने की जगह पर गेट पर ही प्रश्न पूछे जा रही है आप की बेटी.’ अनाया की मम्मी को सामने देख कर प्रतिबिंब ने कहा.
‘अरे, आओ बेटा, आओ,’ मम्मी ने जब अंदर आने के लिए इशारा किया तो प्रतिबिंब अंदर आ कर सोफे पर बैठ गया.
‘अनाया अकसर तुम्हारे बारे में बात करती रहती है.’
उस दिन अनाया के भाई के साथ मिल कर उस ने खूब मस्ती की थी. अनाया का भाई आरुष भले ही स्पैशलचाइल्ड था पर उसे संगीत की बहुत अच्छी समझ थी. पियानो पर बहुत अच्छी धुन भी निकालता था. उस के बाद तो प्रतिबिंब अकसर ही अनाया के घर पहुंच जाता. उस से मिल कर आरुष भी बहुत खुश होता. प्रतिबिंब और अनाया का मूक प्रेम यों ही न जाने कब तक चलता यदि 5 साल पहले 26 जनवरी को वह घटना न हुई होती.

उस साल 26 जनवरी शनिवार को थी. अनाया और प्रतिबिंब ने उस दिन शाम को एक मूवी जाने का प्लान बनाया था. शुक्रवार सुबह जब प्रतिबिंब अपने फ्लैट में गहरी नींद की आगोश में था कि तभी कौलबेल की आवाज से वह चौंक गया. इतनी सुबह तो मेड के आने का भी टाइम नहीं है, यह सोचते हुए जैसे ही उस ने गेट खोला तो सामने अपने पापा ब्रजभूषण और मम्मी नंदिनी को देख कर चौंक गया.

‘अरे मम्मीपापा, आप इस तरह अचानक, विदआउट एनी इन्फौर्मेशन, कैसे?’
‘अरे, तो क्या अपने बेटे के घर आने के लिए भी परमिशन लेनी पड़ेगी. आ गए, मन किया तुझ से मिलने का. तू बहुत समय से आया नहीं था और अभी 3 दिन की छुट्टी थी, सोचा, सब साथ रहेंगे,’ नंदिनी ने प्यार से उस से कहा.
‘ओके,’ प्रतिबिंब खुश होते हुए बोला.

अकेले इंसान के घर में उस के गुजारे के लायक ही सामान होता है. सो, सब से पहले उस ने मम्मीपापा की जरूरतों के अनुसार सामान और्डर किया और अनाया को बिजी हो जाने का मैसेज छोड़ कर पूरे दिन अपने मम्मीपापा के साथ रहा.
अगले दिन सुबह नाश्ते के टाइम पापा बोले, ‘बेटा, यहां पर एक गुप्ताजी हैं, उन की बिटिया सौफ्टवेयर इंजीनियर है, यहीं दिल्ली में ही. तो हम ने सोचा कि तुम से मिलना भी हो जाएगा और यह काम भी.’

‘पापा, मैं अभी इस चक्कर में नहीं पड़ना चाहता. अभी 2 दिन हम तीनों दिल्ली घूमते हैं, फिर कभी देखेंगे,’ उस ने बात को टालने की गरज से कहा.
‘नहींनहीं, मैं ने उन्हें प्रौमिस कर दिया है, यह है लड़की के औफिस का पता. तुम पहले लड़की से मिल आओ. यदि तुम्हें पसंद होगी तो ही बात आगे बढ़ाएंगे.’

शुरू से घर में पापा का ही दबदबा था. सो, न तो वह अधिक विरोध कर पाया और न ही अभी उस ने अनाया के बारे में उन्हें बताना उचित समझ क्योंकि अभी तो उसे अनाया के मन के बारे में भी पता नहीं था कि वह उन दोनों के रिश्ते के बारे में क्या सोचती है. सो, मांपापा को संतुष्ट करने के उद्देश्य से वह उस दिन गुप्ताजी की लड़की से मिलने गया. जब वह और गुप्ताजी की बेटी एक स्टारबक्स कैफे में बैठे बातचीत कर रहे थे तभी अनाया ने वहां अपनी एक सहेली के साथ प्रवेश किया. अचानक अपने सामने प्रतिबिंब को एक लड़की के साथ बैठा देख कर वह चौंक गई लेकिन फिर भी उसे अनदेखा करती हुई वह तुरंत ही अपनी सहेली को पकड़ कर बाहर ले गई. इस के तुरंत बाद ही प्रतिबिंब भी घर आ गया.

रास्ते से उस ने अनाया को कई कौल किए पर अनाया का फोन स्विचऔफ जाता रहा. मां को उस ने लड़की न पसंद आने का बोला और इस के बाद पापा रविवार की रात वापस लखनऊ लौट गए.

‘सोमवार को लंचटाइम में उस ने अनाया से कहा,’ ‘अनाया, वह उस दिन मैं मजबूरी में उस लड़की से मिलने गया था. मैं ने तुम्हें बताया था न कि मम्मीपापा आए हैं, उन्होंने किसी को प्रौमिस कर दिया था, सो इसलिए…’
‘अरे, तो क्या हो गया, सही तो हैं वे लोग. तुम्हें अब शादी कर लेनी चाहिए. लड़की देखने ही तो भेजा था न?’
‘पर मैं नहीं करना चाहता अभी.’
‘क्यों नहीं चाहते, हर मातापिता की तरह वे भी चाहते हैं कि वे जल्दी से जल्दी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हों.’
‘तुम्हारी मम्मी नहीं चाहतीं क्या?’

प्रतिबिंब के इस प्रश्न से अनाया चौंक गई, बोली, ‘देखो प्रति, मुझ से जो शादी करेगा उसे भैया और मेरी मां की जिम्मेदारी भी मिलेगी और आजकल के समय में कौन जिंदगीभर के लिए इतनी बड़ी जिम्मेदारी लेना चाहेगा. कई रिश्ते आए पर जब मम्मी और भैया के लिए केवल मुझे ही खड़ा पाते हैं तो सहज ही उन के कदम पीछे चले जाते हैं.’
‘और यदि इस जिम्मेदारी में मैं तुम्हारा भागीदार बनना चाहूं तो?’ प्रतिबिंब ने अनाया का हाथ अपने हाथ में ले कर कहा.

प्रतिबिंब की इस बात को सुन कर अनाया बिना कुछ कहे प्रतिबिंब की तरफ शांतभाव से देखने लगी.
‘बोलो अनाया, अगर क्या अपने साथ मुझे इस जिम्मेदारी को ताउम्र निभाने का मौका दोगी?’
‘प्रति, मैं तुम्हारी भावनाओं की बहुत कद्र करती हूं और यह भी जानती हूं कि तुम अपने कहे को पूरा भी करोगे पर ध्यान रखो कि तुम अकेले नहीं हो, तुम्हारे साथ तुम्हारा पूरा परिवार है. अपने मातापिता की तुम इकलौती संतान हो, उन्होंने तुम्हारी शादी के लिए न जाने कितने सपने देखे होंगे. क्या तुम्हारा परिवार इतनी बड़ी जिम्मेदारी के साथ इस रिश्ते को मानेगा?’ अनाया ने प्रश्नवाचक नजरों से उस की तरफ देखते हुए कहा.
‘तुम अपनी बात कहो, मेरे घरवालों को मैं संभाल लूंगा.’
‘तुम जैसे सच्चे और अच्छे दोस्त को अपनी जिंदगी का राजदार बनाना किसे बुरा लगेगा,’ कह कर अनाया ने प्रतिबिंब के प्रस्ताव पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी थी.

इस के बाद दीवाली पर जब वह घर गया तो मम्मी ने हर बार की तरह इस बार 10 लड़कियों के फोटो उस के सामने रखे और पसंद करने को कहा तो उस ने बड़े प्यार से मम्मी से कहा, ‘मम्मी, इन फोटोज की जगह यदि मैं आप से कहूं कि मुझे सचमुच एक लड़की पसंद है, तो?’
‘अरे सच में, क्या कह रहा है तू, पसंद है तो बताया क्यों नहीं. कौन है, कहां है, वहीं औफिस में ही है क्या, क्या नाम है, कैसी है बता तो सही?’

‘अरेअरे मम्मी, इतनी उतावली क्यों हो रही हो, सब बता रहा हूं, बोलने का मौका तो दो,’ प्रतिबिंब ने सामने पड़े सोफे पर मम्मी को कंधे पकड़ कर बैठाते हुए कहा और उस के बाद उस ने अनाया का फोटो मोबाइल में दिखाते हुए अनाया के बारे में बताया. पिता के सख्त स्वभाव का होने के कारण प्रतिबिंब का अपनी मम्मी के साथ दोस्ताना रवैया था और उन से वह अपनी हर बात शेयर कर लिया करता था.

अनाया सुंदर तो थी ही, जीवन के संघर्ष के कारण चेहरे पर आत्मविश्वास का दर्प भी था. सो, फोटो देखते ही प्रति की मम्मी बोलीं, ‘‘अरे वाह, तू तो छिपारुस्तम निकला, प्रति. तो फिर देर किस बात की, आज ही पापा को बताती हूं और जल्दी ही शादी कर देंगे.’’

अपने पापा के दंभी स्वभाव को प्रतिबिंब भलीभांति जानता था, सो बोला, ‘‘मम्मी, इतना आसान नहीं है, अनाया के पिता नहीं हैं, एक मानसिक विकलांग भाई है और मां हैं जिन की जिम्मेदारी हम दोनों को उठानी होगी. दूसरे, अनाया की आर्थिक स्थिति हम से बहुत कमतर है. तीसरे, अनाया जाति से ब्राह्मण नहीं है और ये तीनों ही कारण ऐसे हैं जिन पर अनाया का कोई वश नहीं था. हां, आज की डेट में वह एक जिम्मेदार बहन और बेटी है और अब मैं उसे एक जिम्मेदार बहू भी बनाना चाहता हूं. बस, आप का साथ चाहिए, मम्मी,’’ यह कहते हुए प्रतिबिंब मां नंदिनी के पैरों में बैठ गया.

कुछ ही देर में प्रतिबिंब ने देखा कि मम्मी के चेहरे की खुशी का स्थान चिंता और भय ने ले लिया है.
‘‘क्या हुआ, मम्मी? कुछ तो बोलो, दोगी न मेरा साथ?’’
‘‘क्या बोलूं और क्या कहूं, कुछ समझ नहीं आ रहा. क्या तू घर में मेरी स्थिति नहीं जानता और क्या अपने पापा को नहीं जानता. तुझे लगता है मैं उन्हें बताऊंगी और वह मान जाएंगे? समाज में अपनी प्रतिष्ठा को ले कर कितने सजग हैं, यह भी तू जानता है पर ठीक है, देखते हैं क्या होता है.’’ यह कह कर नंदिनी ने किसी तरह बात को उस समय टाल दिया था.

अगले दिन जब सब नाश्ते की टेबल पर थे तो अचानक पापा का स्वर उस के कानों में गूंजा, ‘कौन है यह लड़की जिस के बारे में तुम ने अपनी मम्मी को बताया है.’
‘मेरे साथ काम करती है. मम्मी ने आप को सब बता ही दिया होगा,’ कह कर प्रतिबिंब ने अपना सिर नाश्ते की प्लेट में झुका दिया.
‘तो जो तुम ने कहा है वह सब भूल जाओ. बेवकूफ हो तुम जो इस लड़की से शादी करना चाहते हो जिस के आगे नाथ न पीछे पगहा, ऊपर से मांभाई की जिम्मेदारी. सोचा है, कभी अगर कल को उस की मां को कुछ हो गया तो सारी जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर आएगी. इस गैरजाति की लड़की से रिश्ता जोड़ते हुए तुम्हें समाज में अपनी मानमर्यादा का जरा भी ध्यान नहीं आया और ये गरीब घरों की लड़कियां, इन की तो नजर ही हमेशा वैल सैटल्ड लड़कों पर होती है. मैं इस तरह की किसी भी शादी के लिए कभी भी तैयार नहीं हो सकता और अगर करनी है तो मेरी मौत के बाद ही यह संभव हो सकेगा,’ ब्रजभूषण ने अपने गरजते स्वर में कहा और नाश्ते की टेबल पर से बिना नाश्ता किए ही चले गए.

प्रतिबिंब ने भी किसी तरह थोड़ाबहुत नाश्ता अपने हलक से उतारा और 2 घंटे बाद की अपनी ट्रेन की तैयारी करने लगा.
अगले दिन कैंटीन में खाना खाते समय प्रतिबिंब को उदास और खोयाखोया देख कर अनाया बोली, ‘क्या हुआ, आज जनाब का मूड ठीक नहीं है?’
‘नहीं, कुछ नहीं, बस ऐसे ही,’ प्रतिबिंब ने बात को टालने की गरज से कहा.

किसी भी बात की तह तक जाना अनाया की खासीयत थी. सो, उस ने आज प्रतिबिंब को भी सचाई बताने के लिए मजबूर कर दिया.

प्रतिबिंब की बात सुन कर वह बोली, ‘देखो प्रति, तुम्हारे पापा अपनी जगह बिलकुल सही हैं. हम गरीब घरों की लड़कियों को हमेशा से मतलबी, लालची और अमीर लड़कों को फंसाने वाली ही माना जाता रहा है. फिर, मेरे साथ तो सबकुछ माइनस है. तुम मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो और अपने मातापिता की पसंद की लड़की से शादी कर के एक खुशहाल जिंदगी जियो,’ कह कर अनाया अपना पर्स उठा कर चली गई.

उस पूरे दिन प्रतिबिंब का काम में मन नहीं लगा. वह जल्दी ही अपने फ्लैट पर आ गया और अपनी मम्मी को फोन लगा दिया.
‘मम्मी, देखिए, मैं भी पापा का ही बेटा हूं, पापा से कह दीजिएगा यदि वे अनाया से मेरे विवाह को तैयार नहीं हैं तो मैं भी किसी और से शादी नहीं करूंगा. यदि आज अनाया की जगह मैं होता तो क्या अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेता. आज के बाद मुझ से शादी की बात कभी मत कीजिएगा.’ और इस के बाद उस की शादी की चर्चा घर में होनी बंद हो गई.

इस बात को आज 7 साल हो गए. उस की उम्र 28 से 35 हो चली है. वह और उस के पिता दोनों ही अपनी बात पर कायम हैं. अनाया और प्रतिबिंब समाज की नजरों में भले ही पतिपत्नी न हों लेकिन साथसाथ मीटिंग्स अटैंड करना, होटल के एक ही रूम में रुकना और लाइफ को एंजौय करना यह सब अब उन के लिए बहुत कौमन सी बात है क्योंकि दोनों ही एकदूसरे के बिना रह नहीं सकते थे और प्रतिबिंब अपने पापा को मना नहीं पा रहा था. 3 दिन और भोपाल में रुकने के बाद वे दोनों ही दिल्ली लौट आए.
एक सप्ताह तक बाहर रहने के कारण बहुत सारा औफिसवर्क पैंडिंग हो गया था. सो, प्रतिबिंब फाइलों में ही उलझा हुआ था कि अचानक मोबाइल की रिंग बजी. जैसे ही उस ने फोन उठाया, मम्मी की रोती हुई आवाज थी.
‘‘बेटा, पापा का ऐक्सिडैंट हो गया है, जल्दी आओ.’’

वह घबराता हुआ अनाया के पास पहुंचा और बोला, ‘‘अनाया, पापा का ऐक्सिडैंट हो गया है, मैं जा रहा हूं.’’ यह सुनते ही अनाया भी उस के साथ हो ली और उसे जरूरी हिदायतें दे कर रवाना किया. जैसे ही वह लखनऊ के केजीएमसी पहुंचा तो आईसीयू के बाहर बैठी मम्मी को देख कर घबरा गया. उस के पिता की कार को ट्रक ने टक्कर मार दी थी. सिर और पैर बुरी तरह जख्मी हो गए थे. कुछ ही देर में डाक्टर बाहर आए और बोले, ‘‘पैरों से बहुत खून
बह चुका है, दिमाग पर भी काफी चोट आई है.’’

पिता की गंभीर हालत को देखते हुए उस ने तुरंत पिता को दिल्ली एम्स ले जाने का निर्णय लिया और मां के साथ दिल्ली के लिया रवाना हो गया. दिल्ली में अनाया और उस की मम्मी ने डाक्टर से अपौइंटमैंट से ले कर भरती कराने तक की सारी व्यवस्थाएं कर रखी थीं जिस से उस ने पिता को तुरंत एडमिट करा दिया. सिर पर चोट लगने के कारण ब्रजभूषण को 4 दिन बाद होश आया.

लगभग 15 दिनों तक वे एडमिट रहे. इस बीच अनाया और उस की मम्मी ने एक पल को भी प्रतिबिंब और उस की मम्मी को अकेला नहीं छोड़ा. हर दिन अनाया अपने घर से दोनों के लिए ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर ले कर आती. अपने हाथों से नंदिनी को खिलाती. जब प्रतिबिंब और नंदिनी फ्लैट पर अपने दैनिक कार्यों के लिए जाते तो वह हौस्पिटल में रुकती. जब कभी प्रतिबिंब पापा को ले कर उदास होता तो वह उसे संबल देती.

सब की मेहनत के परिणामस्वरूप 15 दिनों के बाद ब्रजभूषण को अस्पताल से छुट्टी मिली पर अभी 15 दिन के बाद फिर से विजिट होनी थी, इसलिए वे लखनऊ जाने के बजाय प्रतिबिंब के फ्लैट पर ही रुके थे. सूने घर में रौनक आ जाती जब अनाया आती. वह हर रोज प्रतिबिंब के साथ आती, ब्रजभूषण और नंदिनी को अपने हाथों से चाय बना कर पिलाती और फिर प्रतिबिंब उसे छोड़ कर आ जाता.

एक दिन जब प्रतिबिंब अपने औफिस में था तो नंदिनी ने कहा, ‘‘देखो जी, जिस में हमारा बेटा खुश है उसी में हमें भी खुश होना चाहिए. तुम्हारे इलाज के दौरान अनाया और उस की मां ने जो मदद की है उसे नकारा नहीं जा सकता. हम ने तो अपनी जिंदगी जी ली है, अब बेटे को उस की जिंदगी जीने दो. उस की खुशियों को छीनने का हमें कोई हक नहीं है. कब से वह आप की हां का इंतजार कर रहा है. अब तो हां कर दो जी.’’ इस दौरान नंदिनी बोलती रहीं और ब्रजभूषण बिना एक भी शब्द बोले, बस, सुनते ही रहे मानो वे किसी मानसिक अंतर्द्वंद्व से गुजर रहे हों.

इस के 2 दिनों बाद आने वाले रविवार की सुबह ब्रजभूषण सुबह जल्दी उठ कर अपने दैनिक कार्यों से निवृत्त हो तैयार हो कर अपनी स्टिक के सहारे चल कर कभी अंदर जाते, कभी बाहर. उन्हें इस तरह बेचैन देख कर नंदिनी बोली, ‘‘क्या हुआ जी, इतनी बेचैनी से इधरउधर क्यों घूम रहे हैं?’’
‘‘कुछ नहीं, बस ऐसे ही. प्रति उठा कि नहीं. तुम ने नहा लिया. प्रति से कहो, वह भी नहाधो ले. हम आज नाश्ता बाहर करेंगे.’’

अब तक प्रतिबिंब भी उठ कर आ गया था और बाहर के खाने से सदा चिढ़ने वाले अपने पापा के इस रूप को देख कर हैरान था. कुछ ही देर में दरवाजे की घंटी बजी तो सामने अनाया को अपने भाई और मां के साथ खड़ा देख कर प्रतिबिंब हैरान रह गया.
‘‘अरे, अनु तुम, यहां, कैसे, क्यों?’’
‘‘अरे, दरवाजे के बीच से तो हटो, उन्हें अंदर आने दो. मैं ने उन्हें यहां बुलाया है.’’ अपने पिता की आवाज सुन कर प्रतिबिंब और उस की मां दोनों ही चौंक गए.

उधर, अनाया और उस की मम्मी भी हैरान थीं इस तरह अचानक बुलाए जाने से क्योंकि ब्रजभूषण ने उन्हें जल्दी ही घर आने को कहा था. सब हैरान थे प्रतिबिंब तो डर के कारण कांप रहा यह सोच कर कि आज पापा पता नहीं क्या तूफान लाने वाले हैं पर ब्रजभूषणजी एकदम शांत थे. सब को बैठने का इशारा कर के वे भी सोफे पर बैठ गए और अनाया की मम्मी की तरफ देखते हुए बोले, ‘‘क्या आप को पता है कि ये दोनों अपनी जिंदगी एकसाथ बिताना चाहते हैं.’’
‘‘जी,’’ अनाया की मम्मी ने सकुचाते हुए कहा.
‘‘तो फिर देर किस बात की है, इन्हें बांध देते हैं इस बंधन में.’’
‘‘पर पापा, आप…’’ प्रतिबिंब ने हैरत से कहा.
‘‘हां, मैं ही कह रहा हूं. हां, मैं मानता हूं कि पहले मैं ही तैयार नहीं था पर अब मेरा नजरिया बदल गया है. जिस समाज की परवा कर के मैं अपने बच्चों को तकलीफ देता रहा. मेरी बीमारी के दौरान वह समाज किसी काम नहीं आया तो फिर मैं उस समाज की चिंता क्यों करूं. मुझे भरोसा है अनाया पर जो एक जिम्मेदार बेटी और बहन है तो एक जिम्मेदार बहू भी होगी. मुझे माफ कर दो मेरे बच्चो,’’ कह कर ब्रजभूषण चुप हो गए. ब्रजभूषण की बातें सुन कर पूरे हौल में खुशी की लहर दौड़ गई. प्रतिबिंब और उस की मम्मी खुशी से ब्रजभूषण के गले लग गए और अनाया ने झुक कर उन के पैर छू लिए. आज अनाया और प्रतिबिंब की शादी के सारे माइनस पौइंट प्लस में बदल गए थे.

Best Hindi Story : अद्भुत शादी – बदलते वक्त की नई सोच की कहानी

Best Hindi Story : अविजीत की इंगेजमैंट फोटो देख सब अटकलें लगाने लगे. विदेश में रहते हुए भारतीय संस्कृति, परंपरा की दुहाई देने लगे लेकिन सिमरन और अभय को बेटे अविजीत के इस रिश्ते से खुश होते देख सभी हैरान रह गए.

खबरों का बाजार गरम था. आस्ट्रेलिया की भारतीय कम्युनिटी में किसी के घर में पहली बार ऐसा हो रहा था. अभी तक तो ये बातें सुन कर घृणा का भाव मन में उभरता था, लगता था कि ये सारे चोंचले अंगरेजों के घर में ही होते हैं. हमारे यहां की संस्कृति में पलेबढ़े बच्चे इन सब चीजों से दूर ही रहते हैं.
खबर फैलतेफैलते सिमरन की सहेलियों तक पहुंच गई थी.
कैसे, आखिर क्यों?

सब को अजीब लग रहा था. एक ऐसी बात जो वैस्टर्न सोसाइटी में ही सुनते आए थे. अब जब अपने किसी मित्र के परिवार में घटने जा रही थी तो गले के नीचे नहीं उतर रही थी. औरतें जब किटी पार्टी में मिलतीं तो सब प्रश्न यही करते-
‘यह कैसे हो सकता है?’
‘क्या गुजर रही होगी सिमरन पर?’
‘समझाबुझा कर अभी भी रोक लें तो अच्छा रहेगा.’
‘और लाओ बच्चों को आस्ट्रेलिया?’
‘पैसे कमाने से फुरसत मिलती, तभी तो बच्चों को संस्कार दे पाती.’
तरहतरह के फिकरे सुनाई दे रहे हैं. लोग अटकलें लगा रहे हैं. अब तक सब का आदर्श बना सिमरन और अभय का जोड़ा अचानक प्रश्नों के कठघरे में कैद हो गया था.

उमा को याद है कि 30 साल पहले उस के पति विपिन को इनफोसिस के दफ्तर में अन्य भारतीयों के साथ भेजा गया था. अच्छी बात यह थी कि कुछ लोगों से मित्रता पहले से ही थी. कुछ से औफिस में मुलाकात के बाद हो गई थी. मित्रों की सहायता से सब पता तो लग गया था कि अपने दोनों बच्चों को किस स्कूल में पढ़ाया जा सकता है, भारतीय मसाले और दालें कहां से खरीदे जा सकते हैं आदिआदि.

तब आस्ट्रेलिया प्रवास की अपनी दिक्कतें थीं. आज की तरह उतने भारतीय नहीं थे और भारतीय भोजन भी उपलब्ध नहीं था. मिठाइयों का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था.

लेकिन जैसे ही विपिन आस्ट्रेलिया में सैटल हुए, उमा को भी सपरिवार बुला लिया. सप्ताहांत में अनौपचारिक रूप से लोग एकदूसरे के घर चले जाते थे या कोई बुला लेता था. सब के बच्चे लगभग एक ही उम्र के थे. वे आपस में खेलते रहते और बड़े बैठ कर पकाते, खाते, पीते व आस्ट्रेलिया के रीतिरिवाजों पर चर्चा भी करते. फिल्मों के गीत गाए जाते, कराओके का प्रचलन तो नहीं था पर लोग ढोलक, हारमोनियम आदि बजा लेते या टीवी पर गाने लगा दिए जाते.

सारा खाना घर में ही बनाया जाता, भारतीय मिठाइयां मिलती नहीं थीं, सो घर में ही बनाई जातीं. आस्ट्रेलियन इंग्लिश की नक्ल करना भी खासा मनोरंजक था. यहां लोग अंगरेजी में टुडे को वाई का एक्सैंट लगाते हुए टुडाई कह देते थे. जैसे, ‘आई हैव कम हियर टुडाई.’ सब ठहाके लगाते और अच्छाखासा मनोरंजन हो जाता.

उन्हीं दिनों अभय विपिन के दफ्तर में नया आया था. आईटी सैक्शन में था जिस की बहुत डिमांड थी. उस की पत्नी सिमरन न सिर्फ खूबसूरत थी, बल्कि सच कहें तो गुणों की खान थी. खाना पकाना, बुनाई, कढ़ाई और नाचगाने में तो उस का मुकाबला कोई नहीं कर सकता था. सब से मीठा बोलती और हरेक का दिल जीत लेती. लोग कहते थे, बहुत अच्छे घर से है. धीरेधीरे सिमरन और अभय सब को बुला कर हर त्योहार होली, दीवाली आदि अपने घर में मनाने लगे और मजाल कि कोई भी मित्र छूट जाए.

उन का इकलौता बेटा अविजीत हमारे सामने ही पैदा हुआ था. हम सभी ने मिल कर उस का घर संभाला था. हम सब एक परिवार की तरह बन चुके थे. कभीकभी कुछ लोगों में गलतफहमी, लड़ाईझगड़ा भी हो जाता था पर बाद में सब के समझौता करा देने से फिर सब एक हो जाते थे.

हम सब ने घर खरीद लिए थे. अब तक सब का लोन उतर गया था और सब मोर्टगेज फ्री भी हो चुके थे. कुछ के बच्चों की तो शादी भी हो गई थी पर सिमरन और अभय के घर की बात ही अलग थी. पूरा घर एंटीक और क्लासी फर्नीचर से सजा था. अब अविजीत भी 28 साल का हो गया था. पिता की तरह हैंडसम और बुद्धिमान व मां की तरह अल्पभाषी. जिस तरह हम सब को अपने बच्चों पर गर्व था वैसे ही अभय को भी था. लौ की पढ़ाई पूरी करने के बाद अविजीत वकील बन गया था और अब सौलिसिटर था. रिश्तों की लाइन लगी हुई थी अवि के लिए.

अच्छा घर और अच्छा वर कौन नहीं चाहता अपनी बेटी के लिए पर आज यह खबर? देखने में तो अवि नौर्मल लगता है. किसी को विश्वास नहीं हो रहा है कि अपने हाथों में खिलाया हुआ अवि ऐसा निकल जाएगा.

जब से अवि ने फेसबुक और इंस्टाग्राम पर अपने पार्टनर के साथ फोटो लगाई है, तब से सब सकते में हैं, खासकर 40 से 60 साल के लोगों वाली पीढ़ी. कुछ में आक्रोश है कि देखो, इस ने मां, बाप, बहन, दादा, दादी का भी खयाल नहीं रखा. करना ही था तो छिपा कर करता. इस ने तो खुलेआम फेसबुक और इंस्टाग्राम में इंगेजमैंट रिंग पहन अपनी और अपने पार्टनर की फोटो लगा दी है. नाखूनों पर रंगबिरंगी नेलपौलिश के बीच बड़े से सौलिटेयर हीरे से जड़ी अंगूठी सब को मुंह चिढ़ा रही है. लोगों के मन में मिलेजुले भाव थे.
सब अपने बच्चों से और सूचना निकलवाना चाहते हैं.
रश्मि ने भी धीरे से अपनी बेटी से पूछा, ‘तुझे पता था, ईशा?’
ईशा ने चिढ़ कर कहा, ‘आप लोगों को चैन नहीं है. उन की लाइफ है, जीने दो उन्हें.’ और भन्नाती हुई वह अपने कमरे में चली गई.
उधर सुमन भी अपने लड़के आकाश से पूछने की कोशिश करने से नहीं चूकी, ‘तेरे साथ पढ़ता था न अवि, तुझे कभी कुछ नहीं लगा?’
‘मां आप भी न, बेकार की बातें पूछती रहती हो. मैं किसी की प्राइवेट लाइफ में नहीं घुसता और आप लोगों को क्या मिल जाएगा जान कर?’ कहते हुए आकाश बाहर निकला गया.
सच में आजकल के बच्चे बहुत सयाने हैं. दोस्तों की बात और सीक्रेट्स तो ऐसे छिपा कर रखते हैं जैसे उन के ही हों. क्या मजाल कि मां, बाप और अंकल, आंटियों को कोई भनक भी पड़ जाए.
अब बच्चों का क्या करें? भारत तो है नहीं जहां रिश्तेदार और मित्र समझाते हैं और बच्चे सुन भी लेते हैं. परिवार की मर्यादा के चलते बच्चे मान भी जाते हैं पर यहां आस्ट्रेलिया? यहां तो 18 साल के होते ही बच्चों के निजी जीवन में दखलंदाजी नहीं कर सकते. परिवार वाले बैंक जा कर उन का अकाउंट चैक नहीं कर सकते. उन के कमरे में भारत की तरह कभी भी धड़धड़ाते प्रवेश नहीं कर सकते. हमेशा खटखटा कर ही जाना होता है. चिट्ठियां नहीं खोल सकते. खोल लीं तो घर में कुहराम मचेगा ही. उन के ड्राइविंग आदि के मोटेमोटे फाइन देख कर चक्कर आने लगेंगे.
जब से अवि की खबर मिली है तब से जिन के बच्चों की शादी नहीं हुई थी वे चौकन्ने हो गए थे.

यों तो भारतीय समुदाय के लोग इस तथ्य से अनजान नहीं थे. आस्ट्रेलिया में तो हर वर्ष वैसे भी ‘मार्डी ग्रा’ समलैंगिक गे और लैस्बियन लोगों की परेड निकलती है, जिसे अनेक वर्षों से सब लोग रुचि ले कर शहर जा कर देखते रहे हैं पर वे तो तमाशे वाली बात लगती थी. टीवी पर भी इस का हर साल प्रसारण होता है.

जब समलैंगिक जोड़ों ने 1978 में अपने अधिकारों की मांग के लिए परेड निकाली थी तब न्यू साउथ वेल्स पुलिस ने न जाने कितने लोगों को गिरफ्तार किया था पर आज तो दुनियाभर के टूरिस्ट इस परेड को देखने और इस में हिस्सा लेने आते हैं. पिछले कुछ सालों से तो बच्चे भी इस में पीछे नहीं रहे हैं और अब तो इस देश में सेम सैक्स मैरिज को वैसे भी दिसंबर 2017 से कानूनी स्वीकृति मिल गई है. सो, ऐसे जोड़े कहीं भी आलिंगनबद्ध चुंबन लेते दिखाई दे जाते हैं और उन्हें देख कर भी अनदेखा करना पड़ता है.

पर, हमारा अवि? नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता. कितना खुश रहता था वह लड़कियों के साथ. ऐसा महसूस भी नहीं हुआ कि उस की रुचि सिर्फ लड़कों में है. समझ नहीं आता कि यह सब स्वाभाविक भी है या नहीं? हर देश और हर काल में शायद मान्यता के बगैर ऐसा होता तो रहा है और अब तो कानून ने अपनी मुहर लगा दी है. कई लोग तो लगता है बिना किसी बात अपनी बसीबसाई शादी छोड़ कर खुलेआम स्वीकार कर रहे हैं कि वे समलैंगिक हैं.

आज सिमरन के यहां पार्टी है, सब को पता है कि चर्चा का विषय यही होगा. शाम होते सब तैयार हो कर अभय और सिमरन के घर पहुंच गए. लौन हमेशा की तरह रंगबिरंगी सोलर लाइट्स से जगमगा रहा है. करीने से सजी क्यारियों में गुलाब खिल रहे थे. कालेस्लेटी आसमान में आज पूरा चांद दिख रहा था. सितारे जगमगाते हुए ऐसे लग रहे थे जैसे चांद की बरात में नाचतेगाते शामिल होने चल पड़े हैं. चांदनी रात ने जैसे लौन में शामियाना बिछा दिया हो. घर में हलका सा संगीत चल रहा था और फायर पिट के चारों तरफ बैठे मित्र हलकी सर्दी का आनंद ले रहे थे.

बीच में रखी टेबल्स पर नमकीन काजू, बादाम और पिस्ते सजे थे. बड़ी मेज पर चीज प्लेटर सजा हुआ था. 3 तरह के औलिव, 4 तरह के चीज, क्रैकर्स, चिप्स और हमस, बीटरूट डिप्स के साथ अंगूर, ब्लू बेरीज और स्ट्राबेरीज भी सजी थीं. महिलाओं के लिए उम्दा ड्रिंक, पर आज पहली बार खातेपीते हुए ठहाके लगाने के बजाय औरतें आपस में फुसफुसा कर बातें कर रही थीं, कुछ मोबाइल पर अवि के पार्टनर की फोटो देख हंस रही हैं, कुछ उन के कौमन फ्रैंड्स ढूंढ़ने में लगी थीं. सब उत्सुक थे कि सिमरन और अभय आज क्या कहेंगे.
‘‘शर्म नहीं आएगी उन को अपने इकलौते बेटे की करतूत पर?’’ रमा ने धीरे से कहा.
‘‘छि:छि:, यह भी कोई बात हुई मांबाप का खयाल तो किया होता,’’ दिव्या ने आंखें मटका कर कहा.
उमा ने हस्तक्षेप किया, ‘‘क्यों, जब तुम लोग परेड देखते हो तो खराब नहीं लगता, शर्म नहीं आती?’’
राशि गुस्से में बोली, ‘‘अगर तुम्हारे बच्चे गे निकल जाएं तो पता लगेगा.’’
उमा ने भी तीखे स्वर में उत्तर दिया, ‘‘यह तुम्हारे, मेरे और किसी और के घर में भी हो सकता है. हमारे देश में पहले भी यह सब होता था और अब फिर हो रहा है.’’
‘‘रामायण, महाभारत, वेद, पुराण वाले हमारे देश के बारे में ऐसा कहते हुए शर्म नहीं आती?’’ दिव्या ने बीच में ही टोका.
‘‘इस्मत चुगताई ने इतने साल पहले कहानी लिख दी थी, ‘लिहाफ’. उस में भी दो लैस्बियन महिलाओं का ही जिक्र है.’’
रीता ने बात बदलते हुए पूछा, ‘‘तो क्या लगता है तुम्हें, सिमरन उसे ऐक्सैप्ट कर लेगी?’’
राशि हंसी, ‘‘यू मीन, अपने दामाद को?’’
सब औरतें हंसने लगीं. तभी किसी की नजर पड़ी, ‘‘देखोदेखो, सिमरन और अभय आ रहे हैं.’’

2 मिनट के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया. फिर सब ने खुद को नौर्मल दिखाने की कोशिश की. सब की आंखें जैसे सिमरन और अभय के हावभाव भांपने में लगी थीं.
तभी अभय ने माइक्रोफोन के पास जा कर कहा, ‘‘अटैंशन फ्रैंड्स.’’
सिमरन ने भी उसे जौइन किया, ‘‘हैलो फ्रैंड्स.’’
कुछ सैकंड में ही कमरे में शांति छा गई.
‘‘इतने लंबे इंतजार के बाद यह शुभ दिन आया है. मैं और सिमरन आप को यह बताना चाहते हैं कि हमारे बेटे अवि की इंगेजमैंट हो गई है. उस का पार्टनर एलन डाक्टर है. दोनों बहुत खुश हैं और हमारे लिए भी यह बहुत प्रसन्नता का अवसर है. यह पार्टी हम ने इसी खुशी में रखी है.’’

अभय ने जिस तरह बिना किसी झिझक और शर्म के अपनी खुशी का इजहार किया, सब के मुंह खुले के खुले रह गए.
तभी सिमरन ने आगे आ कर कहा, ‘‘हमें अपने अवि और एलन पर बहुत गर्व है. उन्होंने अपनी आइडैंटिटी को पहचाना ही नहीं बल्कि हम से खुल कर बात भी की और डिस्कस कर के समाज के सामने सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी इंगेजमैंट की खबर शेयर की. आप भी सोचते होंगे कि आखिर ऐसा क्यों? पर मैं यही कहना चाहती हूं कि यह सब आजकल नौर्मल है. बदलते वक्त के साथ बच्चों को अपनी बात कहने व मन का करने का अधिकार देना आवश्यक है. हमें लगा कि बच्चों की खुशी का ध्यान रखना सब से जरूरी है. हम ने उन्हें प्रपोज करने के लिए उत्साहित किया, नाउ, दे आर इंगेज्ड. शीघ्र ही हम आप सब मित्रों को शादी का निमंत्रण देंगे.’’

तालियों की गड़गड़ाहट से सब ने अनाउंसमैंट का स्वागत किया.

2 मिनट पहले ही सिमरन और उस के परिवार की बुराई करने वाली महिलाएं अब सिमरन को घेर कर बधाई दे रही थीं और इस अद्भुत शादी में जाने के सपने देख रही थीं.

लेखिका : रेखा राजवंशी 

Temples : सोसाइटीज में पैर पसारते मंदिर

Temples : आजकल हर सोसाइटी में मंदिर होना आम बात हो चली है. इस की आड़ में सोसाइटी में रहने वालों से मनमाना चंदा और भांतिभांति के कार्यक्रमों के नाम पर पैसे ऐंठे जा रहे हैं. लाउडस्पीकर का शोर और फुजूल का हल्लागुल्ला तो अलग बात है.

85 वर्षीय मिश्राजी आगरा की एक पौश कालोनी में अपनी पत्नी के साथ रहते हैं. बच्चों के विदेश में सैटल होने के बाद उन्होंने स्वतंत्र घर बेच कर सोसाइटी में फ्लैट इसलिए लिया ताकि बच्चों के पास जाने पर खाली घर में चोरीचकारी से तो बचे रहें, साथ ही, अकेलापन भी न महसूस हो परंतु जब से वे यहां आए हैं, हर दिन एक अलग तरह की समस्या से परेशान हैं.

फर्स्ट फ्लोर पर स्थित उन के फ्लैट के ठीक सामने ही मंदिर है जिस में कभी भजन, कभी सुंदरकांड, कभी गणेशोत्सव तो कभी दुर्गापूजा और सावन-सोमवार पर भांतिभांति के कार्यक्रम होते हैं. हर कार्यक्रम में लाउडस्पीकर पर जोरजोर से गाने बजाए जाते हैं जिस से उन का शांति से रहना, सोना सब हराम हो गया है. अब उन्हें सम झ ही नहीं आ रहा कि कैसे इस समस्या का निराकरण करें.

अवैध है मंदिर

आजकल तकरीबन हर सोसाइटी में जोरशोर से मंदिर निर्माण किया जाता है जबकि वास्तव में उन का निर्माण ही अवैध है क्योंकि जब बिल्डर किसी भी सोसाइटी को बनवाने के लिए सरकार से परमिशन लेता है तो उस के नक्शे में कहीं पर भी मंदिर का जिक्र नहीं होता. इसी तरह ग्राहक को की जाने वाली रजिस्ट्री के नक्शे में भी कहीं पर भी मंदिर का उल्लेख नहीं होता.

इस के बावजूद आजकल हर सोसाइटी में मंदिर बनवाया जाता है. यही नहीं, उसे भव्य बनवाने में जम कर पैसा खर्च किया जाता है. यदि मंदिर छोटा है तो उसे विशाल और भव्य बनवाने के लिए नागरिकों से चंदा भी वसूला जाता है जिसे हर निवासी हंसीखुशी देता भी है.

फायदे कम नुकसान अधिक शोरशराबे के अतिरिक्त सोसाइटी में मंदिर होने के फायदे कम, नुकसान अधिक हैं. जैसे-

निवासियों में धार्मिक भेदभाव

किसी भी सोसाइटी में विभिन्न धर्मों व जातियों के लोग निवास करते हैं. ऐसे में सोसाइटी में रहने वाले अन्य धर्म के निवासियों के प्रति हिंदू जनता भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है. एक पौश सोसाइटी की निवासी आशिमा कहती हैं, ‘‘मंदिर के अधिकांश प्रोग्राम्स में अपने परिवार सहित शामिल होना मेरी मजबूरी है क्योंकि यदि हम शामिल नहीं होंगें तो हमें अलगथलग कर दिया जाएगा. अकेले पड़े रहें, इस से अच्छा है कि उन्हीं के साथ घुलमिल कर रहें.’’

इसी तरह के कुछ विचार क्रिस्टोफर पौल के हैं. वे कहते हैं, ‘‘हिंदू के अलावा हर धर्म के लोगों के साथ अजीब सा व्यवहार किया जाता है. भले ही कितना भी शोरशराबा होता रहे, हम आवाज नहीं उठा सकते. उसे हर हाल में सहना ही हमारी विवशता है.’’

नसीम सिद्दीकी कहती हैं, ‘‘गणेश पूजा के समय होने वाले अनेक कार्यक्रमों में अपने साथियों को देख कर हमारे बच्चे भी भाग लेना चाहते हैं परंतु आज के माहौल को देखते हुए हमें उन्हें भेजने में डर लगता है क्योंकि धर्म के नाम पर कब कौन सा तूफान आ जाए, हमें नहीं पता.’’

अनावश्यक आर्थिक बोझ

प्रत्येक सोसाइटी में मंदिर की देखभाल के लिए पुजारी और साफसफाई के लिए एक कर्मचारी को नियुक्त किया जाता है, जिस का वेतन सोसाइटी के फ्लैट्स औनर्स से लिए जाने वाले प्रतिमाह के मैंटिनैंस की राशि में से दिया जाता है.

मंदिर में प्रतिदिन सामान्य रूप में और विशेष अवसरों पर अच्छीखासी मात्रा में जलने वाली बिजली का बिल और गणेशोत्सव, दुर्गापूजा व अन्य धार्मिक कार्यक्रमों के लिए एकत्रित किया जाने वाला चंदा निवासियों पर अतिरिक्त भार होता है. यदि कोई निवासी इस राशि को देने से मना करता है तो उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है जिस से निवासियों में परस्पर द्वेष की भावना उत्पन्न होती है.

वन बीएचके में रहने वाली वीणाजी कहती हैं, ‘‘हर प्रोग्राम के लिए 500 रुपए से कम की राशि नहीं होती. एक पैंशनर महिला के लिए हर दूसरे महीने 500 रुपए निकालना काफी मुश्किल होता है पर यदि न दो तो यहां के तथाकथित धर्म के ठेकेदारों के तानों का शिकार होना पड़ता है, ‘अरे, 500 रुपए भगवान के नाम पर निकालने से क्या हो जाता है, 500 रुपए तो एक बार की सब्जी में ही खर्च हो जाते हैं.’ ‘‘लोगों की कुदृष्टि का शिकार होने से अच्छा है कि 500 रुपए दे ही दो ताकि मिलने पर चार ताने तो न सुनने पड़ें.’’

निवासियों पर अतिरिक्त भार है मंदिर

मंदिर के लिए ली जाने वाली चंदे की राशि का आमतौर पर कोई हिसाबकिताब नहीं दिया जाता. सोसाइटी के प्रतिमाह लिए जाने वाली मैंटिनैंस की राशि का वार्षिक औडिट कराया जाता है, सोसाइटी के ग्रुप पर भी हर दूसरेतीसरे माह में खर्चे का हिसाबकिताब का विवरण दिया जाता है परंतु मंदिर के खर्चों, दानपेटी में आने वाली राशि का कोई हिसाब नहीं दिया जाता और आश्चर्य इस बात का है कि इस बारे में कभी कोई प्रश्न भी नहीं करता.

450 फ्लैट वाली बड़ी सोसाइटी में निवास करने वाले शर्माजी कहते हैं, ‘‘प्रतिमाह 1,800 रुपए की भारीभरकम मैंटिनैंस की राशि देने के बावजूद हर प्रोग्राम के लिए अलग से चंदा इकट्ठा किया जाता है. यही नहीं, कई बार इसे आवश्यक भी कर दिया जाता है. अच्छाखासा अमाउंट इकट्ठा हो जाने के बाद इस का कोई हिसाब नहीं रहता. यदि कभी गलती से पूछ लिया तो मानो सारे लोगों पर कयामत आ जाती है.’’

चुगली का अड्डा है मंदिर

आशिमा सोसाइटी में प्रति मंगलवार को सुंदरकांड का पाठ होता है जिस में महिला और पुरुष सभी भाग लेते हैं. सुंदरकांड के बाद पुरुष तो देशविदेश की चर्चा में मशगूल हो जाते हैं जबकि महिलाएं टोली बना कर सास, बहू, पड़ोसी और पड़ोसिनों की चुगली करना शुरू कर देती हैं. किसी साथी के घर पर मिलने के बजाय महिलाएं मंदिर में एकत्रित होना ज्यादा पसंद करती हैं जहां पर बैठ कर वे आपस में उन महिलाओं की चुगली करती हैं जो उस समय उपलब्ध नहीं होतीं. यहां पर कोई भी उत्पादक कार्य कभी नहीं होता बल्कि एकदूसरे की बुराई ही की जाती है.

अंधविश्वास को बढ़ावा

हमेशा से कर्म में विश्वास करने वाली सुलोचना अपनी मित्र के कहने पर एक दिन अपनी सोसाइटी के मंदिर में चली गई. बीमार सास के बारे में बताने पर मंदिर की वरिष्ठ महिलाओं ने उसे महामृत्युंजय मंत्र का जाप करवाने, एकादशी का व्रत करने जैसी सलाह दे डाली. सब के प्रैशर में आ कर उस ने महामृत्युंजय मंत्र का जाप करवाने का मन बना लिया. 11,000 रुपए की राशि पंडितजी को भी दे दी. जिस दिन महामृत्युंजय पाठ शुरू हुआ उसी दिन उस की सास परलोक सिधार गईं. यह बात अलग है कि उसे 11,000 रुपए का चूना जरूर लग गया.

मंदिर में पूजा करने के बाद अकसर महिलाओं में भांतिभांति की पूजाओं के बारे में परिचर्चा की जाती है. इस महिमामंडन से प्रभावित हो कर दूसरी महिलाएं भी व्रत और पूजा करने का संकल्प ले लेती हैं. इस प्रकार से मंदिर महिलाओं में अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाले केंद्रबिंदु होते हैं.

परिवारों में तनाव का कारण

रजनी हर रोज सुबह 5 बजे उठ कर मंदिर जा कर शंकर की पूजा करती है. उस के पति से हर दूसरे दिन इसी बात को ले कर झगड़ा और बहस हो जाती है क्योंकि उस के पति इस समय मौर्निंग वाक पर उसे अपने साथ ले जाना चाहते हैं. अकसर इस तरह के झगड़े अनेक पतिपत्नी में देखे जाते हैं क्योंकि महिलाएं हमेशा अपने स्वास्थ्य को तरजीह नहीं देतीं. चूंकि मंदिर सोसाइटी में ही होता है इसलिए वहां पहुंचना भी काफी आसान हो जाता है.

प्रदूषण का केंद्रबिंदु है मंदिर

हमारी 450 फ्लैट वाली सोसाइटी में दीवाली के अवसर पर हर घर से एकएक दीया मंदिर परिसर में जलाने के लिए कहा गया. इन दीपकों से निकलने वाला धुआं हमारे श्वसन तंत्र के लिए नुकसानदायक होता है. इस प्रकार मंदिर ध्वनि और वायु प्रदूषण के केंद्रबिंदु भी होते हैं.

आश्चर्यजनक बात यह है किसी फ्लैट में स्टूडैंट्स द्वारा मनाई जाने वाली पार्टी या फिर किसी फ्लैट में चलने वाले देररात्रि के फंक्शन से आसपास के निवासियों को परेशानी होनी शुरू हो जाती है परंतु मंदिर में चलने वाले भजनकीर्तन का शोर उन्हें आनंददायक लगता है.

वास्तव में सत्यता यह है कि बिना किसी हिचकिचाहट के हमें जो पसंद है या हमारे लिए सुविधाजनक है उसे हम सहजता से स्वीकार कर लेते हैं. सोसाइटी में मंदिर होना ही नहीं चाहिए परंतु इस सत्य को भी नकारा नहीं जा सकता कि आजकल हर सोसाइटी में मंदिर होता ही है. ऐसी स्थिति में यदि आप को मंदिर के किसी भी प्रोग्राम से कोई परेशानी हो रही है तो आवाज उठाने में तनिक भी हिचकिचाहट न करें. साथ ही, अपनी मेहनत से कमाई गई राशि का ब्योरा लेने में संकोच भी न करें.

Social Issue : बौडी आप की, हक आप का

Social Issue : एकदूसरे के लिए प्रेम दर्शाना गलत नहीं है, लेकिन पब्लिक प्लेस में कई लोग अश्लीलता की हद पार कर देते हैं, जिस से आसपास के लोग अनकंफर्टेबल हो जाते हैं. ऐसे में लड़कियों को खास ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि पब्लिक प्लेस में ऐसी हरकतों के वीडियोज सैकंड्स में वायरल हो सकते हैं या वीडियोज बना कर उन लोगों को ब्लैकमेल किया जा सकता है.

हालही में सोशल मीडिया पर वायरल हुए एक वीडियो को देख कर यह बहस फिर से छिड़ गई कि आखिर पब्लिक प्लेस पर प्रेम प्रदर्शन के क्या माने हैं. इस वीडियो में देखा जा सकता है कि एक छात्र और एक छात्रा नोएडा की किसी यूनिवर्सिटी में एक सुनसान जगह पर किस कर रहे हैं. दोनों किस करने में इतने मशगूल हो गए हैं कि उन्हें होश ही नहीं रहा कि कोई उन का वीडियो भी रिकौर्ड कर रहा है.

इस वीडियो के वायरल होने के बाद सोशल मीडिया पर लोगों ने सवाल उठाने शुरू कर दिए. कुछ लोग तो इसे देख कर लड़कियों के कालेज व यूनिवर्सिटी की पढ़ाई न करवाने की वकालत करते नजर आए.

इस तरह का एक और मामला जनवरी 2023 में भी सामने आया था. लखनऊ की सड़कों पर स्कूटर की सवारी करते हुए रोमांस कर रहे एक युवा जोड़े का अश्लील और आपत्तिजनक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था. पुलिस ने स्कूटी चला रहे 23 साल के युवक विक्की शर्मा को हिरासत में लिया था, जिस ने अपनी महिला मित्र को अपनी बाइक के आगे पालथी मार कर बैठाया हुआ था.

खुलेआम प्रेमी जोड़े के रोमांस का वीडियो सड़क पर किसी के द्वारा शूट किया गया और सोशल मीडिया पर साझा किया गया था. पुलिस ने स्कूटर के नंबर से पता लगाया और युवक को गिरफ्तार कर उस पर आईपीसी की धारा 294 और 279 के तहत सार्वजनिक रूप से अश्लील हरकतें करने व लापरवाही से गाड़ी चलाने के मामले दर्ज किए थे, जबकि लड़की के नाबालिग होने पर उसे समझाइश दे कर छोड़ दिया था.

माना कि बौडी आप की है और उस पर हक भी आप का है और प्रेम करना भी गुनाह नहीं है, मगर पब्लिक प्लेस पर इस तरह प्रेम का इजहार एक तरह से पब्लिसिटी के अलावा कुछ नहीं है. इस तरह खुलेआम प्रेमी जोड़े का प्रेम प्रदर्शन सामाजिक तानेबाने को प्रभावित करता है.

युवा प्रेमी जोड़े अधिक रोमांटिक होते हैं, उन्हें जब एकांत स्थान नहीं मिल पाता तो वे पब्लिक प्लेस में भी अपने पार्टनर के प्रति इंटिमेसी व्यक्त करने से नहीं चूकते. अकसर पब्लिक प्लेस या किसी गार्डन में प्रेमी जोड़े एकदूसरे को चूमते, गले लगाते और हाथों में हाथ डाल कर चलते हुए नजर आते हैं.

इन जोड़ों का प्रेमालाप आसपास के लोगों को कई तरह से प्रभावित करता है. दरअसल पब्लिक प्लेस पर बच्चे, फैमिली, बुजुर्ग सभी तरह के लोग मौजूद होते हैं. एकदूसरे के लिए प्रेम दर्शाना कोई गलत बात नहीं है, परंतु हर जगह प्रेम दर्शाने का अलगअलग तरीका भी होता है.

कई देशों में पब्लिक डिस्पले औफ अफैक्शन को लीगल माना जाता है, परंतु बात यदि भारत की करें तो पब्लिक डिसप्ले औफ अफैक्शन तब तक दंडनीय नहीं है जब तक कि यह अश्लीलता में न बदल जाए और दूसरों की भावनाओं को किसी प्रकार से ठेस न पहुंचे. प्रेम प्रदर्शन की सीमारेखा अपने आसपास के माहौल को देखते हुए आप को खुद तय करनी होगी.

पब्लिक प्लेस पर अपने पार्टनर के प्रति प्रेमस्नेह जाहिर करने के और भी तरीके हैं जिन्हें शारीरिक गतिविधियों से परे भावनात्मक प्रेम कह सकते हैं. पब्लिक प्लेस में मौजूद व्यक्ति कई बार इस तरह की प्रतिक्रिया को देख कर अनकंफर्टेबल हो जाते हैं.

जब पब्लिक प्लेस पर स्नेह जताने का तरीका जिस्मानी हो जाता है, जैसे कि एकदूसरे को लंबे समय तक चूमते रहना, अमान्य रूप से इधरउधर टच करना, लंबे समय तक एकदूसरे को बांहों में लिए रहना तो आसपास मौजूद लोग असहज हो जाते हैं. ये गतिविधियां आसपास मौजूद लोगों की स्वेच्छा के बगैर की जाएं तो इस के अनुरूप आप के ऊपर कानूनी कार्रवाई और फाइन चार्ज किया जा सकता है.

सीमारेखा न लांघें

जवान लड़कियां लड़कों की बातों में आ कर प्रेम और वासना के बीच के अंतर को समझ नहीं पातीं. इसी वजह से वे अपना सबकुछ न्योछावर कर देती हैं. पार्टनर के साथ प्रेम करने या सैक्स करने की वीडियो बनाने की बेवकूफी कभी न करें, क्योंकि ब्रेकअप होने पर लड़के आप को ब्लैकमेल करने से गुरेज नहीं करते.

मध्य प्रदेश में पिछले माह एक युवती का वीडियो और व्हाट्सऐप चैट वायरल हुई थी, जिस में वह अपने प्राइवेट पार्ट को अपने पार्टनर को दिखा रही है. बताया जाता है कि युवक युवती से वीडियो कौल के दौरान अपने प्राइवेट पार्ट को दिखाने की डिमांड करता है और युवती सहमति से यह सब करती रही. बाद में जब किसी बात को ले कर दोनों में मतभेद हो गए तो युवक ने वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया. पूरे शहर में युवती की बदनामी हुई और अब उस के घरवालों को उस के लिए रिश्ते खोजने में परेशानी हो रही है.

छोटे शहरों से ले कर महानगरों में आजकल एक नई तरह का ट्रैंड चल रहा है. बाइक पर पति या प्रेमी के साथ सवार पत्नी या प्रेमिका अपना हाथ पार्टनर के प्राइवेट पार्ट पर रख बेशर्मी के साथ भीड़भाड़ वाले इलाकों में घूमती है. पब्लिक प्लेस पर यह कर के आखिर वे किस तरह का प्रेम कर रहे हैं. खासतौर पर लड़कियों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि प्रेमालाप के दौरान किसी ऐसी जगह का चयन करें जहां उन दोनों के अलावा कोई तीसरा न हो.

मोबाइल में वीडियो बनाने की गलती कभी न करें क्योंकि यह एक तरह का सुबूत होता है. युवा जोड़े जब आपस में मिलते हैं तो जोश में आ कर मर्यादा की सीमा लांघ जाते हैं और फिर समाज में उन की बदनामी होती है.

युवकयुवतियां अकसर फिल्मों या टैलीविजन सीरियल्स में दिखाए जाने वाले दृश्यों से ज्यादा प्रभावित रहते हैं. फिल्मों में नायिका नायक द्वारा प्रेम का सार्वजनिक रूप से इजहार करने पर खुश होती है वहीं असल जिंदगी में इस का असर ठीक विपरीत होता है. ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन के बाद लोगों को प्रेम के इजहार के लिए जगह चुनने में सावधानी बरतने की सलाह दी गई है.

वैबसाइट एमएसएन द्वारा 2,000 लोगों के मध्य किए गए एक सर्वेक्षण में 28 प्रतिशत लोगों ने माना कि सार्वजनिक स्थानों पर और दूसरे लोगों की मौजूदगी में प्रेम का इजहार उन्हें असहज करता है. करीब एकचौथाई ब्रिटिश युवतियां सार्वजनिक स्थानों पर गले लगने और यहां तक कि हाथ थामने में झिझक महसूस करती हैं जबकि हर 10 में से एक महिला ऐसे पुरुषों का साथ पसंद नहीं करती जो सार्वजनिक स्थानों पर भी प्रेम का इजहार करने से बाज नहीं आते.

अपनी बौडी किसी दूसरे को सौंपने से पहले दस बार सोचें कि ऐसा करने से कोई नुकसान तो नहीं है. कई दफा इस तरह के वीडियो की वजह से पुलिस भी प्रेमी जोड़े को परेशान करती है. कानूनी कार्यवाही के नाम पर पुलिस पैसा ऐंठती है या फिर यौनशोषण करती है. कमोबेश यही हालत सोसाइटी में रहने वाले लोगों की भी है.

अगर हम सोसाइटी में रह रहे हैं तो उस के कुछ कायदेकानून मानने भी जरूरी हैं. कहीं ऐसा न हो हमारी एक गलती हमें सोसाइटी में मुंह दिखाने लायक न छोड़े. बंद कमरे और एकांत जगह आप में बिंदास हो कर एकदूसरे को प्यार करें, मगर पब्लिक प्लेस पर खुल्लमखुल्ला प्यार से परहेज करना फायदेमंद साबित न होगा.

लचीला कानून

भारत में अश्लीलता विरोधी कानून बना हुआ है, जिस का उद्देश्य अश्लील सामग्री के वितरण को रोकना या प्रतिबंधित करना है. आईपीसी की धारा 292 इस का विवरण करती है कि किन मानकों को अश्लील माना जाएगा या नहीं जिस के आधार पर अपराधी को सजा भी हो सकती है. अश्लीलता शब्द उन शब्दों में से एक है जिस का अर्थ हमारे भारतीय कानून में स्पष्ट नहीं है.

लचीले कानून की वजह से अश्लील सामग्री है या नहीं, यह पूरी तरह से वकीलों और न्यायाधीशों पर निर्भर करता है और वे अश्लील शब्द की व्याख्या कैसे करते हैं. अश्लीलता की परिभाषा समयसमय पर बदलती रही है. हम जानते हैं कि कानूनों को समयसमय पर बदलना पड़ता है लेकिन अश्लीलता को सही तरीके से परिभाषित करने की आवश्यकता है. वर्तमान समय में यह उल्लेख करना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि फिल्मों, वैब शो, कला, छवियों या चित्रों, साहित्य में अश्लीलता को अभी तक हमारे देश में परिभाषित नहीं किया गया है.

आईपीसी की धारा 294 को भारतीय न्याय संहिता में धारा 296 में बदला गया है, जिस के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि जो कोई दूसरों को क्षोभ पहुंचाने के लिए किसी सार्वजनिक स्थान पर कोई अश्लील कार्य करेगा या किसी सार्वजनिक स्थान पर या उस के निकट कोई अश्लील गीत, गाथा या शब्द गाएगा, सुनाएगा या बोलेगा, उसे 3 महीने की सजा या 1,000 रुपए जुरमाना या दोनों से दंडित किया जाएगा.

सरकार ने कानून की किताब और धाराओं को तो बदल दिया है लेकिन अश्लीलता को सही ढंग से न तो परिभाषित किया है और न ही इस के लिए कोई कड़ी सजा का प्रावधान किया है. यही वजह है कि कानून का खौफ न होने से स्वच्छंदता बढ़ रही है और युवा जोड़े खुलेआम अश्लीलता फैला रहे हैं.

कानूनी फैसले नामचीन लोगों के पक्ष में

भारत में अश्लीलता से संबंधित कई मामले हैं. कई अन्य अवधारणाओं और परंपराओं की तरह अश्लीलता का अर्थ भी हर मामले में बदलता रहता है. अभिनेता और मौडल मिलिंद सोमन ने अपने ट्विटर हैंडल पर अपनी एक तसवीर पोस्ट की थी, जिस में वह अपने जन्मदिन के अवसर पर गोवा बीच पर नग्न अवस्था में दौड़ रहे हैं और कैप्शन में लिखा है, ‘हैप्पी बर्थडे टू मी, 55 एंड रनिंग.’

इस मामले में गोवा पुलिस ने उन्हें सार्वजनिक स्थान पर अश्लील कृत्य को बढ़ावा देने के लिए आईपीसी की धारा 294 और सोशल मीडिया पर अश्लील सामग्री के प्रकाशन के लिए आईटी एक्ट की धारा 67 के तहत गिरफ्तार किया था, लेकिन उन के अनुसार, वे अपनी फिटनैस को बढ़ावा दे रहे थे.

2018 में अश्लीलता से जुड़ा एक मामला सामने आया था, जिस में फिल्म स्टार रणवीर सिंह, अर्जुन कपूर, दीपिका पादुकोण और मशहूर फिल्म निर्देशक करण जौहर जैसी कई बौलीवुड हस्तियों और कई अन्य लोगों पर अश्लीलता के मामले में आरोप लगाए गए थे.

अवीक सरकार बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामले में एक जरमन पत्रिका ने एक प्रसिद्ध टैनिस खिलाड़ी बोरिस बेकर की एक तसवीर प्रकाशित की, जिस में वे अपनी मंगेतर बारबरा फेल्टस, एक अभिनेत्री, के साथ नग्न अवस्था में उस के स्तनों को अपने हाथ से ढक रहे थे. यह तसवीर फेल्टस के पिता ने ली थी. जिस लेख में यह फोटो थी, उसे भारतीय समाचारपत्र और पत्रिका में दोबारा से प्रकाशित किया गया.

इस के बाद आईपीसी की धारा 292 के तहत अखबार के खिलाफ शिकायत दर्ज की गई. लेकिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सामुदायिक मानक परीक्षण लागू करने के बाद फैसला सुनाया कि बोरिस बेकर की अपनी मंगेतर के साथ अर्धनग्न तसवीर अश्लील नहीं थी, क्योंकि यह यौन जनून को उत्तेजित नहीं करती है या लोगों के दिमाग को भ्रष्ट नहीं करती है.

रणजीत डी उदेशी बनाम महाराष्ट्र राज्य 1964 मामले में दिए गए फैसले पर गौर करना जरूरी है. उस समय लेडी चैटरलीज लवर्स नाम की एक किताब थी, जिसे प्रतिबंधित कर दिया गया था क्योंकि पुस्तक में कुछ अश्लील सामग्री थी. उन के पास पुस्तक की कुछ प्रतियां मिलीं, जिस से वे आईपीसी की धारा 292 के तहत दोषी माने गए.

उच्चतम न्यायालय में अपनी अपील में उन्होंने तर्क दिया कि यह धारा शून्य थी क्योंकि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करती थी. भले ही धारा वैध थी, पुस्तक में अश्लील सामग्री नहीं थी. वादी द्वारा यह बताया जाना चाहिए कि उस ने खरीदार को भ्रष्ट करने के इरादे से पुस्तक बेची.

विरोधाभास

अश्लीलता को ले कर कानून के साथसाथ धर्म और समाज में विरोधाभास साफतौर पर देखा जाता है. भारतीय कानून में किसी प्राचीन संस्मारक या पुरातात्विक अवशेष पर रेखांकित, साहित्य कलाकृति, रंगचित्र, मूर्ति, कोई भी कलाकृति आदि का होना अश्लीलता का अपराध नहीं है. खजुराहो के मंदिर में बड़ी संख्या में उकेरी गई मैथुन करती मूर्तियां, जिन्हें हजारों की भीड़ देखती है, अश्लीलता के दायरे में नहीं हैं, परंतु कालेज, यूनिवर्सिटी या सड़क पर लड़केलड़कियों का किस करना समाज में अश्लीलता फैलाता है.

कानून के अनुसार, अगर कोई ऐसी रचना है जिस में विवाहित जोड़ों को अपने यौन संबंधों को नियंत्रित करने की गंभीर जानकारी दी जाती है तो भले ही उस में यौन संबंधों का विस्तार से वर्णन क्यों न हो, वह अपराध नहीं मानी जाती. उदाहरण के तौर पर, ‘कामसूत्र’ जैसी किताब अश्लील नहीं मानी जाती. लेकिन यह समझना मुश्किल है कि समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में छपी अर्धनग्न तसवीरें कैसे अश्लीलता को बढ़ावा देती हैं.

पौराणिक काल से ले कर समाज में पितृसत्तात्मक व्यवस्था आज भी हावी है. पुरुषों की सोच स्त्री को केवल भोग की वस्तु समझने की है. यही कारण है कि महिलाओं के कपड़ों पर टीकाटिप्पणी की जाती है और उन पर होने वाले रेप व छेड़छाड़ के लिए उन्हें ही दोषी ठहराया जाता है. महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न पर पुरुषों को दोषी मानने के बजाय महिलाओं को चरित्रहीन समझा जाता है.

यह वही समाज है जो नवरात्र पर सजीधजी महिलाओं को कामुक नजरों से देखता है और अष्टमी, नवमी पर कन्यापूजन और भंडारे का आयोजन करता है. मौका मिलते ही नाबालिग लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाता है. प्रेम करने वाली लड़कियों के चरित्र पर भी समाज सवालिया निशान लगाता है. लड़कियों को ऐसे दौर में यह आवश्यक हो जाता है कि वे स्थानीय परिवेश के अनुसार अपने रहनसहन और पहनावे को प्राथमिकता दे कर प्रेम के दिखावे से बचें और लोगों की छींटाकशी का शिकार होने से बचें.

Politics : वोटोक्रेसी नहीं, डैमोक्रेसी चाहिए

Politics : लोकतंत्र वोट देने और लेने तक सीमित रह गया है. जनता, जिसे कभी सत्ता का मुख्य बिंदु माना जाता था, अब सिर्फ एक दिन भूमिका निभाती है. वोटोक्रेसी व डैमोक्रेसी का फर्क धुंधलाता जा रहा है. आइए समझते हैं कि कैसे लोकतंत्र का रूप बदलते वक्त के साथ अपने माने खो रहा है.

दिल्ली विधानसभा के चुनाव हाल ही में हुए हैं. प्रधानमंत्री तक उस के चुनावी प्रचार में आखिर तक लगे रहे कि किसी तरह से 10 साल से मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठे अरविंद केजरीवाल को बाहर निकाला जा सके. इन 10 सालों में उन के उपराज्यपाल ने अरविंद केजरीवाल को एक रात निश्चिंत रहने नहीं दिया. वे वोटों से जीत कर आए थे. पहली बार उन्होंने कांग्रेस के साथ सरकार बनाई. दूसरी और तीसरी बार वे भारी बहुमत से जीते. लेकिन वे आसानी से राज कभी न कर सके क्योंकि केंद्र के उपराज्यपाल का हंटर उन के सिर पर सभी कार्यकालों के दौरान हमेशा रहा.

यह साबित करता है कि देश में वोटतंत्र या वोटोक्रेसी है पर डैमोक्रेसी कितनी और कैसी है, इस का अंदाजा घटनाओं और मुद्दों को देख कर लगाया जा सकता है, गिना नहीं जा सकता. देश में 1952 से वोटोक्रेसी तो है पर जिसे डैमोक्रेसी कहा जाना चाहिए उस के बारे में पूरा संशय है. हर रोज लगता है कि देश में एक अघोषित तानाशाही, डिक्टेटरशिप चल रही है. जबकि, हर बार समय पर चुनाव हो रहे हैं. सो, वोटोक्रेसी तो पक्का है.

वोटोक्रेसी शब्द का इस्तेमाल कहींकहीं कोई करता है पर इस का अर्थ स्पष्ट है, ऐसी शासन पद्धति जिस में लोग वोट देते हैं पर क्या वोटोक्रेसी ही डैमोक्रेसी या लोकतंत्र है? नहीं, बिलकुल नहीं. वोट दे कर डैमोक्रेसी की पहली और सिर्फ पहली सीढ़ी चढ़ी जाती है. डैमोक्रेसी वह शासन पद्धति है जिस में जनता को लगे कि शासन में जो बैठे हैं वे उस के बलबूते पर, उस की सेवा के लिए, उस की आशाओं व आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उस के ही चुने हुए लोग हैं.

अब्राहम लिंकन आज होते तो लोकतंत्र की अपनी परिभाषा में मामूली फेरबदल करते कहते यही कि बाकी सब तो ठीक है लेकिन अब शासन जनता द्वारा नहीं बल्कि उन के चुने हुए उन प्रतिनिधियों द्वारा होता है जो अपनी मनमरजी करते हैं, अपने लिए राज करते हैं. लोकतंत्र का सीधा सा मतलब अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में वोट लेना और वोट देना रह गया है.

जब कभी चुनाव आते हैं तब मतदाता ही नेताओं का मजाक उड़ाते हैं कि लो आ गए सिर झुकाए, नम्रता की प्रतिमूर्ति बने. जीतने के बाद इन के दर्शन दुर्लभ हो जाएंगे. लेकिन वे क्या करें किसी को तो चुनना है. जो कम बेईमान और कम भ्रष्ट लगता है, जनता उसे ज्यादा बेईमान और ज्यादा भ्रष्ट होने का मौका देते पार्लियामैंट, असैंबली या स्थानीय निकायों में पहुंचा देती है. जो हारते हैं उन का भी कहीं अतापता नहीं चलता. अब जो है वह वोटोक्रेसी है.

विशुद्ध वोटोक्रेसी वैसे तो वह प्रणाली है जिस में हर काम वोट ले कर किया जाता है पर यहां वोटोक्रेसी का अर्थ लिया जा रहा है कि वोट डालने का हक होना और वोटों से चुन कर आए नेताओं को सत्ता दिलवाना. पश्चिम यूरोप, अमेरिका, कनाडा, जापान, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया में राज वे करते हैं जो जनता के वोटों से जीत कर आए पर इन देशों में चुने लोग सदा जनता के प्रति ज्यादा जिम्मेदार रहते हैं. अमेरिका में अब डर है कि डोनाल्ड ट्रंप, जो वोटों से ही जीत कर आए हैं, का डैमोक्रेसी से कोई लेनादेना नहीं है.

इस के अलावा बहुत से देश हैं जहां वोटों से नेता चुने जाते हैं, बदले भी जाते हैं पर चुने जाने के बाद अगले चुनावों तक वे निरंकुश तानाशाह बने रहते हैं. यह टूटी डैमोक्रेसी है क्योंकि हर चुना प्रतिनिधि छोटामोटा तानाशाह होता है और उस का सर्वोच्च नेता बड़ा तानाशाह. भारत कुछ इसी तरह का देश है.

भारत के संविधान ने अनुच्छेद 326 से हरेक को वोट देने का अधिकार तो दे दिया पर वोट का अधिकार अपनेआप में कुछ माने नहीं रखता अगर दूसरे अधिकार साथ न हों.

कम्युनिस्ट सोवियत संघ में हर थोड़े सालों में वोटिंग होती थी और लेनिन से ले कर गोर्बाचेव तक हर नेता 90-99 प्रतिशत वोट पाते रहे हैं पर श्रमिकों की कम्युनिस्ट सरकार में किसी नागरिक के पास कोई अधिकार न था. आज उत्तर कोरिया में भी चुनाव हो रहे हैं पर किम जोंग उन ही जीतते हैं, बिना विपक्ष के. 2019 के चुनावों में सभी नागरिकों ने जबरन वोट दे कर हर सीट के अकेले उम्मीदवार को चुनाव में किम जोंग उन की सुप्रीम पीपल्स असैंबली के 687 प्रतिनिधियों को चुना.

वोटोक्रेसी की धमक अमेरिका में भी

रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से टेस्ला और स्पेसएक्स के संस्थापक एलन मस्क को उन का हनुमान कहा जाने लगा है जो अमेरिका की सरकार में दखल दे रहे हैं और यूरोप व जरमनी में दक्षिणपंथी ताकतों को शह दे रहे हैं. यूरोप मस्क को ले कर बेहद बेचैन है. बीते दिनों एलन मस्क ने जम कर यूरोपीय नेताओं की आलोचना की. जरमनी की घोर दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी यानी अल्टरनैटिव फौर जरमनी का समर्थन उन्होंने किया. एलन मस्क ने कोई चुनाव नहीं जीता. वे वोटोक्रेसी के बिना भी शक्तिशाली हैं. क्या यह डैमोक्रेसी है?

गौरतलब है कि जरमनी में फरवरी में आम चुनाव होना है. सोशल मीडिया पर एक पोस्ट में एलन मस्क ने लिखा है कि जरमनी आर्थिक और सांस्कृतिक पतन की कगार पर है. डोनाल्ड ट्रंप को वोट देते समय लोगों ने उन्हें दुनियाभर से बैर लेने का हक नहीं दिया था. वोट राष्ट्रपति के चुनाव का था, किसी देश पर हमले का नहीं, इसलिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर पर ट्रंप के तीखे हमले से उन्हें ‘दुष्ट तानाशाह’ करार दिया गया.

ट्रंप की हरकतों में छिपे हमले से पूरा यूरोप चिंतित है. स्पेन के प्रधानमंत्री पेड्रो सांचेज ने मस्क का नाम लिए बिना कहा, ‘दुनिया का सब से अमीर आदमी हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों पर हमला कर रहा है और नफरत फैला रहा है.’ फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के मुताबिक, ‘ट्रंप की छत्रछाया में पल रहे टैक अरबपतियों का दखल लोकतंत्र के लिए खतरनाक है.’

संक्षेप में अगर कहें तो एलन मस्क ट्रंप के दक्षिणपंथी एजेंडे के विस्तार को मुहिम की शक्ल देने में लगे हैं. दिक्कत तो यह है कि अमेरिकी वोटरों के साथसाथ वहां के डैमोक्रेट्स पार्टी के नेता भी खामोशी से सब देख रहे हैं. कोई यह नहीं कह पा रहा कि पहले अपने देश के लोकतंत्र को तो संभाल लो, फिर गैरों की चिंता करना. हार के बाद कमला हैरिस ने बोलना बंद सा कर दिया है, शायद उन्हें एहसास है कि अब दौर डैमोक्रेसी का नहीं, सिर्फ वोटोक्रेसी का है.

संविधान से मिला वोटोक्रेसी का हक

भारत में जनता को वोटोक्रेसी का हक बड़ी आसानी से मिला. 1947 से पहले जनता की मांग गोरे ब्रिटिश, हुकूमत करने वालों को हटाने की तो थी पर वोट से ही अगले शासक चुने जाएंगे, यह पक्का नहीं था. संविधान में वोट का अधिकार अनुच्छेद 326 में दिया गया है जिस की भाषा निम्न है-

‘‘लोकसभा और हरेक राज्य की विधानसभा के चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होंगे, यानी हर व्यक्ति, जो भारत का नागरिक है और जिस की आयु 18 वर्ष से कम नहीं है, को ऐसे किसी भी चुनाव में मतदाता के रूप में पंजीकृत होने का अधिकार होगा.’’

रोचक बात यह है कि 1948 में संविधान सभा ने जो कच्चा प्रारूप पेश किया था उस में यह प्रस्ताव ही नहीं था. डा. भीमराव अंबेडकर और जवाहरलाल नेहरू ने इसे डलवाया और जून 1949 में हुई संविधान सभा की बैठक में उपरोक्त अनुच्छेद वर्तमान संविधान का हिस्सा बना.

यह एक अकस्मात मिलने वाला वरदान था जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने भी कभी देश की जनता को नहीं दिया था. उन्होंने जो दिया वह या तो राजाओं को दिया या ऋषियोंमुनियों को अगर आप को लगता है कि पुराण कोरे किस्सेकहानियां नहीं हैं तो. इसी देश में नहीं, दुनिया के अधिकांश देशों में बलशाली लुटेरे ही राजा बनते रहते थे और एक बार यदि कोई येनकेन कर के 10-20 हजार को मार कर राजा बना नहीं कि 5-7 पीढि़यों तक उस की संतानें राजगद्दी पर बैठी रहतीं. जनता सिर्फ चढ़ावा देती, सेना में भरती होती, राजा को भगवान कहलाने वाले पुजारियों को दानदक्षिणा देती. वोट से राजा चुना जाता है, यह कल्पना मन में थी ही नहीं.

भारत में 1952 में हुए पहले आम चुनावों से वोटोक्रेसी की शुरुआत हुई पर उस से पहले 26 जनवरी, 1950 में संविधान को देश चलाने का दर्शन व कानून मान कर लागू कर दिया गया. संविधान ने ही डैमोक्रेसी का वादा किया और यह मानना पड़ेगा कि चाहे जैसा भी शासन आज हमें मिल रहा है, संविधान से शिकायत के कम ही अवसर मिल रहे हैं. संविधान के अनुच्छेदों ने डैमोक्रेसी की भावना को घरघर तक पहुंचा दिया और गरीबों, अछूतों व हर धर्म के लोगों को डैमोक्रेसी का हकदार बना दिया.

1947 में जब भारत आजाद हुआ उस से पहले ब्रिटिश सरकार हर मनमानी कर ही सकती थी जिस की भर्त्सना हमारे ऊंची जातियों के लेखक, विचारक, इतिहासकार जम कर करते रहे हैं पर हिंदू अंगरेजों के अंगूठों के नीचे पनपती रियासतों में जो अनाचार होता था उस पर बहुत कम लोगों को बताया जाता है. परोक्ष रूप में सिद्ध करने की कोशिश रही है कि हिंदूमुसलिम राजा उदार व न्यायप्रिय ही थे. हालत उलटी थी. रियासतों में राजाओं की मनमानी चलती थी और वहां 1919, 1935 और 1945 के चुनावों में या नगर निकायों में भी चुनाव नहीं हुए.

अंगरेजों ने बहुत पहले से छिटपुट इलाकों में भद्रजनों से वोट डलवाना शुरू किया था. यह जनता के लिए एकदम नया अनुभव था वरना तो लोग यही समझते थे कि राजा ही नहीं, शहर को चलाने वाला एडमिनिस्ट्रेटर और कोतवाल भी या तो जन्मना होता है या राजा की कृपा पर निर्भर रहता है. अंगरेजों के जाने के साथ ही राजशाही खत्म हो गई. सब को बिना भेदभाव के वोट डाल कर लोकतांत्रिक राजा चुनने का हक मिल गया.

भारत में वोट डालना तो 19वीं सदी में कुछ शहरों में शुरू हो गया था पर उन में थोड़े से लोग वोट डाल पाते थे और यह केवल उन इलाकों में हुआ जो ब्रिटिश गवर्नर जनरल के कंट्रोल में थे. 1909 में इंडियन काउंसिल्स एक्ट के तहत मिंटो-मोर्ले सुधारों के नतीजे में कुछ प्रोविसैंस और म्युनिसिपल बौडीज में चुनाव हुए. कलकत्ता, मद्रास, बंबई, दिल्ली, अहमदाबाद में चुनाव हुए पर वोट का अधिकार सिर्फ शिक्षित, संपत्तिधारी मालिकों या गोरों को था. सुभाषचंद्र बोस और सरदार वल्लभाई पटेल इन चुनावों में उतरे और वहीं से नेता बने पर वे पूरे देश में वोटों से चुनी जाने वाली सरकार चाहते थे लेकिन ऐसी कोई बड़ी मांग नहीं उठ रही थी.

वोटों से डैमोक्रेसी लाने में शिक्षा बहुत जरूरी थी पर भारत के तब के ऊंची जातियों के कांग्रेसी नेता औरतों और शूद्रों व अछूतों को शिक्षा देने के सख्त खिलाफ थे. 1880 के दशक में बाल गंगाधर तिलक ने अंगरेज शासकों की म्युनिसिपल निकायों द्वारा स्कूल खोलने और उन के दरवाजे हरेक के लिए खोलने पर गहरी आपत्ति बारबार जताई. उन का कहना था कि म्युनिसिपल कमेटी रोड बनवाए, शहरों के संभ्रांतों के इलाकों को साफ रखे, फौआरे लगवाए, ट्राम चलवाए. नीची जातियों के सभी लोगों और ऊंची जातियों की औरतों को शिक्षा दिए जाने के खिलाफ मांग को अंगरेज प्रबंधकों ने नहीं माना.

आज फिर यह स्पष्ट दिख रहा है कि सीधे नहीं तो परोक्ष रूप से वोट की ताकत पर हमला हो रहा है. जिन नगर निकायों से बड़े नेता ब्रिटिश काल में निकल कर आए थे उन के चुनाव भी लोकसभा व विधानसभा के चुनावों के साथ कराने की भारतीय जनता पार्टी की जिद यही साबित कर रही है कि वह सारा पैसा एक चुनाव में झोंक कर थोक में लोकसभा, विधानसभा, नगर निकाय, जिला परिषद, पंचायतों के चुनाव करा कर जनता को बहकाना चाहती है. ‘एक देश एक चुनाव’ असल में एक देश, ‘एक बार’ चुनाव, एक पार्टी का चुनाव का रास्ता बनाने की साजिश है.

चुनावों में लालच : कीमत लो पर वोट दो

चुनाव कानून स्पष्टतया कहता है कि वोट के लिए पैसा नहीं दिया जा सकता और 1971 के रायबरेली से राजनारायण के खिलाफ लड़े चुनाव में कुछ साडि़यां बंटवाने के आरोप में 1975 में उच्च न्यायालय के जज जगमोहन लाल सिंह ने भारत और पाकिस्तान युद्ध में जीतीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था जिस के परिणाम में तत्कालीन सरकार ने देश में आपातकाल लागू कर दिया था, जो आज भी कांग्रेस के गले में मरे व बदबूदार सांप की तरह लटक रहा है.

अब हर विधानसभा चुनाव में सभी पार्टियां मुफ्त का माल बांटने का वादा कर रही हैं. इस में भी उन का फोकस महिलाओं पर ज्यादा रहता है. किसी न किसी योजना के नाम पर उन्हें हर महीने नकद राशि देने की घोषणा अब सभी पार्टियां करने लगी हैं. इस का असर यह हो रहा है कि महिलाएं अब पुरुषों से ज्यादा वोट डाल रही हैं. आर्थिक सहायता कमजोर वर्गों और महिलाओं को मिले, यह एतराज की बात नहीं, एतराज की बात है उन्हें लालच दे कर वोटों की भीड़ बना देना.

इस की बेहतर मिसाल मध्य प्रदेश का पिछला विधानसभा चुनाव है जहां तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ‘लाड़ली लक्ष्मी योजना’ की शुरुआत कर हारा हुआ चुनाव जीत लिया था. यह मदद अगर सामाजिक बदलाव के मद्देनजर दी जाती तो जरूर इसे लोकतंत्र का बढ़ता कदम कहा जा सकता. यहां उद्देश्य सिर्फ वोट पाना था. यही महाराष्ट्र में हुआ, दिल्ली में हुआ.

अपनेआप में यह वोटोक्रेसी से डैमोक्रेसी की तरफ का रास्ता है, उलटा नहीं जैसा कि एक वर्ग समझता है. औरतों को सक्षम और स्वतंत्र बनाने का यह एक अच्छा कदम है चाहे इस के पीछे एक गलत स्वार्थ छिपा हो. औरतों को फुसलाने के लिए एक के बाद एक जो होड़ लगी है, वह काले बादलों में चमक है, काले बादल नहीं हैं.

यह नहीं भूलना चाहिए कि जो भी सरकारें, नरेंद्र मोदी के शब्दों में रेवड़ी कही जाने वाली, आर्थिक सहायता गरीबों को दे रही हैं वे लोगों से जबरन लूटे टैक्स में से कुछ पैसा वापस कर रही हैं. सरकारें जो पैसा औरतों को दे रही हैं वह देशवासियों द्वारा खरीदे गए सामान पर लगे जीएसटी, पैट्रोल, टैक्स, इनकम टैक्स के जरिए पहले ही वसूल लिया जाता है.

वोटोक्रेसी से अलग है डैमोक्रेसी

75 सालों में यह साबित हो गया कि वोट बहुत कीमती वस्तु है और इसे थोक में झटकने के लिए लोकतंत्र की नहीं बल्कि वोटतंत्र की जरूरत है. भूख मिटाने के नाम से ले कर मोक्ष दिलाने के नाम तक पर वोट झटके गए और हर बार लोगों को छले जाने के बाद एहसास हुआ कि वोट लेने के लिए जिस लोकतंत्र की दुहाई चुनावप्रचार के दौरान दी जाती है उस लोकतंत्र की हत्या तो उस के जन्म के कुछ सालों बाद ही कर दी गई थी.

मसलन, लोकतंत्र के लिए पहली अनिवार्य शर्त यह है कि चुनाव निष्पक्ष हों जोकि अब नहीं होते. लोग अपनी मरजी से वोट नहीं डाल पा रहे. वे राजनेताओं सहित धर्मगुरुओं, उद्योपतियों और कारोबारियों व समाजसेवियों के कहने पर वोट डालते हैं. लोकतंत्र की दूसरी अनिवार्य शर्त यह है कि लोग किसी लालच या डर के चलते वोट न डालें बल्कि निर्भीक हो कर वोट डालें. यह चलन भी कभी का खत्म हो चुका है. लोग कंबल, बरतन, दारू की बोतल और नकदी के एवज में वोट डालने लगे. उन्हें दीर्घकालिक से ज्यादा तात्कालिक फायदा पसंद आने लगा. लेकिन हद तो पिछले 2 सालों से हो रही है.

कुछ अपवादों को छोड़ कर डैमोक्रेसी को पछाड़ते वोटोक्रेसी इसी तरह परवान चढ़ रही है. अब लोग वोट के जरिए चुनते तो नेता हैं लेकिन वह देखते ही देखते भगवान हो जाता है जो किसी की नहीं सुनता. उस भक्त की तो बिलकुल नहीं सुनता जिस ने बड़ी उम्मीदों और श्रद्धा से उसे वोट की दक्षिणा दी थी.

लोकतंत्र की मूल अवधारणा की वाट तो ऐसी लगी है कि ‘जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा’ में जनता की जगह जाति शब्द चिपक गया. उदाहरणार्थ यादवों का, यादवों के लिए, यादवों द्वारा या कि मुसलमानों द्वारा, मुसलमानों के लिए, मुसलमानों का या फिर कुर्मियों का, कुर्मियों के लिए, कुर्मियों द्वारा शासन ही लोकतंत्र कहलाता है.

यह झंझट दुनियाभर का है कि डैमोक्रेसी की जगह वोटोक्रेसी ले चुकी है. अमेरिका में चुनावी प्रक्रिया जटिल होने के बाद भी वहां अब गोरे ईसाइयों का, गोरे ईसाइयों के लिए, गोरे ईसाइयों द्वारा शासन है जिस के गोरे, कट्टर और झक्की राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 20 जनवरी को शपथ ली है.

चुने जाने के बाद ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि 6 जनवरी, 2021 को हुए अमेरिकी संसद पर हमले के दोषियों को बख्श दिया जाएगा. डोनाल्ड ट्रंप अब बड़े शान से कह रहे हैं कि उन का रिजौर्ट (मार-ए-लागो) ब्रह्मांड का केंद्र है. ऐलान बहुत साफ है कि वहां लोकतंत्र कैद है. उन के साथ डिनर लेने वाले लाइन में लग कर 8-8 करोड़ की चढ़ोतरी चढ़ा रहे हैं. अब यह तो समझने वाले ही समझ पा रहे हैं कि ट्रंप न केवल अमेरिका के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा खतरा बन गए हैं.

वोटोक्रेसी से डैमोक्रेसी के रास्ते का नक्शा तो हमारी संविधान सभा ने सही ढंग से समझ कर 1950 में लिख दिया पर शायद संविधान निर्माता भलीभांति जानते थे कि जिसे जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन प्रणाली कहा जाता है, वह इस देश में आना आसान नहीं है.

पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने वोटोक्रेसी से डैमोक्रेसी तक पहुंचने के रास्ते को बनाने के लिए बहुत सी कोशिशें कानूनों के जरिए की थीं.

नेहरू ने भांप लिया था कि देश को लोकतंत्र देना है तो दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और औरतों को भी वोट डालने का कानूनी अधिकार दिलाना होगा, तभी स्वतंत्रता का उद्देश्य पूरा होगा, साथ ही, कांग्रेस सत्ता में रहेगी. कई चुनावों तक गैरसवर्ण कांग्रेस के शुक्रगुजार होते उसे वोट देते रहे. इस के एवज में उन्हें जो मिला वह भी अकल्पनीय था. वह था अपने अस्तित्व का एहसास, आत्मविश्वास और स्वाभिमान जो पहले राजशाही के दौरान महलों में गिरवी रखे रहते थे या अंगरेजों के गवर्नरहाउसों में गिरवी थे.

1947 से 1975 तक देश में वोटोक्रेसी जमती चली गई पर डैमोक्रेसी भी अपने कदम बढ़ाती रही. जगहजगह स्कूल खुल गए. अछूतों को नौकरियों में आरक्षण मिलने लगा, सरकारी नौकरियां भरभर के मिलने लगीं. जमींदारी का खात्मा हुआ. रियासतों के राजाओं की आन, बान व शान फीकी पड़ने लगी थी. प्रैस आजाद था. कांग्रेस की आलोचना करने वाले अखबार निकल रहे थे. टीवी अभी न के बराबर था पर रेडियो सरकारी भोंपू था जिसे डैमोक्रेसी से कोई मतलब न था.

वोट डालने के बाद डैमोक्रेसी तक पहुंचने का रास्ता संसद और विधानसभाओं से जाता है जहां जनता के वोटों से चुने प्रतिनिधि सरकारों के जनता को प्रभावित करने वाले फैसलों, कानूनों, नीतियों पर अपना यानी जनता का पक्ष रखते हैं और सरकार को निरंकुश व राजशाही बनने से रोकते हैं. जनप्रतिनिधियों की इस मंडली को अपार अधिकार संविधान ने दिए हैं और संसद व विधानसभाओं की सहमति के बिना प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री एक भी कानून नहीं बना सकते.

संसद और विधानसभाएं जनता के सभी पक्षों का प्रतिनिधित्व करती हैं. जब एक पार्टी का बहुमत बहुत अधिक हो, संविधान को संशोधन करने तक का भी हो तो भी संसद में बिना बहस और बिना संसद की अनुमति के प्रधानमंत्री, मंत्रिमंडल या राष्ट्रपति अकेले कोई कानून नहीं बना सकते, कोई फैसला नहीं ले सकते. चुने हुए प्रतिनिधि जनता के डैमाक्रेटिक अधिकारों के रक्षक माने गए हैं. यह बात दूसरी है कि पिछले 75 सालों में वे जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं उतर सके और कितनी ही बार संसद व विधानसभाएं प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की मोहरा बन कर रह गईं.

संसद या विधानसभाएं अपनी सीमा पार न कर सकें, इस के लिए संविधान ने बहुत से प्रावधान रखे और संविधान संशोधन के बिना जनता का अधिकार छीनने वाले कानून नहीं बन सकते. 1973 में केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में संविधान के दिए डैमोक्रेसी के बहुत से अधिकारों को संसद के संविधान को संशोधित करने के अधिकार से भी ऊपर रख दिया. जजों ने फैसला किया कि संविधान का मूलभूत ढांचा कोई संसद संविधान में संशोधन कर के बदल नहीं सकती.

लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभाओं ने जनता की डैमोक्रेसी की चाहत को पूरी तरह नहीं समझा. आज डैमोक्रेसी जिंदा है क्या, जैसे सवाल किए जा रहे हैं तो इसलिए कि न संविधान, न सुप्रीम कोर्ट बल्कि संसद ने अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं किया. सांसदों और विधायकों ने वोट जनता से लिए पर अपना जमीर अपनी पार्टी के मुखिया को सौंप दिया. जनता की डैमोक्रेसी की संपत्ति राजनीतिक दलों के नेताओं के हाथों में गिरवी रख दी गई.

आज सांसद और विधायक की इज्जत जनता के मन में इतनी कम है कि वह इसी संसद के बनाए कानूनों से नियुक्त अफसरों पर कई बार ज्यादा विश्वास करती है. इस की संक्षिप्त चर्चा आगे होगी पर यह डैमोक्रेसी के आदर्श को हासिल करने में सब से बड़ी अड़चन साबित हुआ है कि जनता उन्हीं पर विश्वास नहीं करती जिन्हें वोट दे कर जिताती है.

वोटोक्रेसी से डैमोक्रेसी के रास्ते का सब से कमजोर हिस्सा लेजिसलेचर साबित हुए हैं. विधायिकाएं जनता के मन में कभी भी आदर का स्थान नहीं पा सकीं और अखबारों व टीवी चैनलों ने संसद या विधानसभाओं की बहसों को जनता तक पहुंचाना तक बंद कर दिया. विधायिकाओं में जनता के अनुसार केवल शोरशराबा होता है, मेजें थपथपाई जाती हैं, गालीगलौच होती है, सरकार के पहले से तय कानूनों पर महज औपचारिक मोहर लगती है.

जनता का पक्ष इन विधानमंडलों में आता है और उस के अनुसार ही काम होता है, यह गलतफहमी डैमोक्रेसी के सब से प्रबल समर्थकों को भी नहीं है.

सांसदों और विधायकों के दलबदल ने डैमोक्रेसी को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है. सांसद और विधायक जनता की वोटों की खरीदफरोख्त कर सकें, यह तो वोटरों ने उस समय नहीं सोचा था जब वे वोट दे रहे थे. उन्होंने किसी पार्टी या उस के मनोनीत नेता को वोट दिया पर वह अपने कार्यकाल में पाला बदल ले, यह अधिकार उस वोट में कहीं से शामिल नहीं है. मतदाताओं के पास अपने चुने प्रतिनिधि को बुलाने का हक नहीं है लेकिन यह डैमोक्रेसी की अतिरिक्त भावना है कि चुना हुआ प्रतिनिधि उन वोटों, उन नीतियों, उन भाषणों पर कायम रहेगा जिन के आधार पर उस ने वोट पाए थे.

डैमोक्रेसी की सुरक्षा का जिम्मा जनता वोटों से अपने प्रतिनिधियों को देती है और न उन्हें दलदबल की इजाजत देती है और न डैमोक्रेसी को किसी तरह से चोट पहुंचाने का. अगर 76 सालों का इतिहास देखें तो साफ लगेगा कि चुने हुए प्रतिनिधियों ने, सांसदों ने, विधायकों ने जनता का विश्वास पूरी तरह तोड़ा है. इस के बावजूद अगर देश में डैमोक्रेसी का थोड़ा सा टूटा ही सही भक्त खड़ा है तो इस का श्रेय उस संविधान की नींव की मजबूती को जाता है जिस पर डैमोक्रेसी का ढांचा खड़ा है.

संविधान, सांसद, सुप्रीम कोर्ट और डैमोक्रेसी

यह राहत की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने वह काम किया जो जनता के चुने प्रतिनिधियों को करना चाहिए. सैकड़ों जज, सुप्रीम कोर्ट में आए और गए, ने संविधान की दी गई डैमोक्रेसी को जिंदा रखा है.

सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति केंद्र सरकार ही करती है. पहले तो यह अधिकार सिर्फ मंत्रिमंडल के सहारे प्रधानमंत्री का होता था पर फिर धीरेधीरे सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के मौलिक ढांचे को बचाने के नाम पर यह अपने हाथ में लिया और अब सुप्रीम कोर्ट में कौलेजियम की सिफारिशों पर जज नियुक्त होते हैं. यह कदम डैमोक्रेसी की सुरक्षा का एक बड़ा कदम साबित हुआ है और इस मामले में हमारी न्यायपालिका दुनिया के दूसरे लोकतंत्रों से अधिक सही फैसले ले पाई है.

भारत के संविधान में कानूनों का राज है. जिस से हरेक नागरिक को बराबर का सम्मान, बराबर के अवसर और बराबर का व्यवहार गारंटेड है. सरकारें अगर ऐसा कानून बना रही हैं जिन में किसी एक वर्ग को किसी तरह की छूट दी जा रही हो या किसी तरह का गलत आचरण हो रहा हो तो सुप्रीम कोर्ट उस कानून को रद्द करने का साहस रखती है. अभी तक किसी सरकार की सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की अवहेलना का साहस नहीं किया है. हां, सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में ध्यान रखा जाता है कि वे सत्ता पक्ष का खयाल रखें.

संविधान से हटने के हर प्रयास को सुप्रीम कोट ने रोका है. कई बार जजों की अपनी निजी निष्ठा या अवकाशप्राप्ति के बाद सुखों की अपेक्षा के कारण डैमोक्रेसी को सीमित करने वाले जो कानून बने हैं उन्होंने उन्हें स्वीकार कर लिया पर देरसबेर उन्हें पलट दिया गया. 2023 में इलैक्टोरल बौंड्स पर दिया सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक ऐसा ही महत्त्वपूर्ण फैसला था. उस ने भारतीय जनता पार्टी के चंदे लेने के तौरतरीके पर पूरी तरह फुलस्टौप लगा दिया.

संविधान का विशाल वृक्ष डैमोक्रेसी की उपजाऊ जमीन में खड़ा रहे और शासक इस पेड़ के तने काट कर अपने महल न बना लें, इस के लिए शुरू से ही सुप्रीम कोर्ट ज्यादा सतर्क रहा है.

जज वी एन खरे ने 2004 के एक निर्णय में कहा कि संविधान की खूबसूरती इसी में है कि पूरे देश का ढांचा इस पर टिका है. यह वह स्तंभ है जिस पर देश की डैमोक्रेसी टिकी है. जज एस पी अरुणा ने कहा कि संविधान, सरकार को संविधान को कुचलने का हक नहीं देता.

अदालत है जो आज की कथित डैमोक्रेसी में आम आदमी का आखिरी सहारा बचा है. लेकिन उस के साथ भी दिक्कत यह है कि वहां सालोंसाल लग जाते हैं. न्याय पाने के लिए जेब में पैसा न हो, जो देश की 90 फीसदी जनता के पास नहीं है तो लोग अपना रोना रोने या इंसाफ मांगने कहां जाएं.

इस के बाद भी अच्छी और सुखद बात यह है कि अदालतें सरकार के गलत फैसलों और नीतियों से इत्तफाक नहीं रखतीं क्योंकि एक तरह से वे सरकार की अभिभावक हैं. बुलडोजर पर अदालत ने अपना रुख साफ कर दिया कि यह गैरकानूनी है तो लाखोंकरोड़ों ने चैन की सांस ली कि कोई तो है जो सरकार की मनमानी पर लगाम कस सकता है.

मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर भी सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि उन का चयन एक समिति करेगी जिस में प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता सहित सीजेआई यानी उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश करेंगे. लेकिन सरकार ने इस में भी टांग अड़ा कर इसे पेचीदा बना दिया. सरकार ने कानून बना कर सीजेआई की जगह एक केंद्रीय मंत्री को समिति में शामिल कर दिया. मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है जिस की सुनवाई होनी है. ऐसी दर्जनों नियुक्तियों में सरकार की मनमानी चलती है. आम लोगों की राय के कोई माने नहीं होते.

यहां यह दलील बहुत खोखली साबित होती है कि हम ने तो सांसद चुन कर भेज दिया जो अहम मामलों और नियुक्तियों में हमारा प्रतिनिधित्व करेगा. इस दलील की हकीकत यह है कि एक सांसद बहुत मामूली वोटों से भी जीतता है. मान लें कि उसे 100 में से 35 ही वोट मिले जबकि बाकी 65 दूसरे उम्मीदवारों में बंट गए. ऐसे में यह बात दावे से नहीं कही जा सकती कि बाकी 65 भी उस से सहमत हैं. यह एक बड़ी खामी है जो डैमोक्रेसी को वोटोक्रेसी में तबदील करती है. इस का हल निकाला जाना जरूरी है.

बड़े तो बड़े, बहुत छोटे दिखने वाले मामलों, जो एक नागरिक के लिए बेहद अहम होते हैं, में भी अदालतें सरकार के अलावा ब्यूरोक्रेट्स को उन की ड्यूटी व जिम्मेदारी का एहसास कराने से नहीं चूकतीं. ऐसा ही एक वाकेआ मध्य प्रदेश से 10 जनवरी को सामने आया. रीवां जिले के एक किसान राकेश तिवारी की सवा एकड़ जमीन का अधिग्रहण जिला प्रशासन ने 32 साल पहले जबरन कर लिया था.

इस में दूसरी अलोकतांत्रिक बात यह थी कि उन्हें इस जमीन का कोई मुआवजा ही नहीं दिया गया. राकेश सालों तक नेताओं और अधिकारियों के चक्कर काटते रहे लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई. थकहार कर उन्होंने जबलपुर हाईकोर्ट की शरण ली. उन का मुकदमा साल 2015 से ले कर 2023 तक चला. हाईकोर्ट ने राकेश के पक्ष में फैसला देते कहा, ‘मामले की अंतिम सुनवाई तक उन्हें इस जमीन से बेदखल नहीं किया जा सकता.’ राजस्व विभाग ने अदालत के मुआवजा संबंधी जानकारी के नोटिस का कोई जवाब नहीं दिया.

रीवां कलैक्टर जब यह जानकारी देने में असमर्थ रहे तो कोर्ट ने तत्कालीन कलैक्टर पर 10 हजार रुपए का जुर्माना लगा दिया. 6 जनवरी की सुनवाई में भी प्रशासन की ढील कायम रही तो झल्लाई अदालत ने मौजूदा कलैक्टर प्रतिभा सिंह को मामले से जुड़े कागजात साथ ले कर आने को तलब किया. कलैक्टर साहिबा ने एक आवेदन दिया कि चूंकि उन के पति बीमार हैं इसलिए वे कोर्ट नहीं आ सकतीं.

इस आवेदन को खारिज करते हुए जस्टिस विवेक अग्रवाल ने उन्हें यह फटकार लगाई कि ‘आप का काम गैरजिम्मेदाराना है. आप को अधिकार जनता की सेवा करने के लिए दिए गए हैं.’ इस फटकार के बाद प्रतिभा सिंह 8 जनवरी को मय कागजात अदालत में हाजिर हुईं. जब वे कोर्ट के सवालों का जवाब देने में नाकाम रहीं तो जस्टिस महोदय ने फैसला दिया कि राकेश तिवारी को उन की जमीन वापस की जाए. कोर्ट ने प्रतिभा सिंह पर 25 हजार रुपए का जुर्माना भी ठोका क्योंकि वे इस मामले की सही तरीके से जानकारी नहीं दे पाई थीं और न ही मुआवजे की बाबत कोई ठोस कार्रवाई उन्होंने की थी.

इस मामले से साबित यही हुआ कि न्यायपालिका ही आम नागरिक की आस है जो यहांवहां भटकने के बाद न्याय के लिए कोर्ट पहुंचता है. राकेश तिवारी जैसे लोगों की परेशानी यह है कि ऐसे किसी मामले में फंस जाने पर वे कहां जाएं?

डैमोक्रेसी को बचाने या मारने वाली नौकरशाही

वोटोक्रेसी से डैमोक्रेसी के रास्ते में संविधान एक मुख्य सड़क है. यह बात दूसरी है कि इस सड़क पर सैकड़ों अतिक्रमण हो चुके हैं. सब से ज्यादा अतिक्रमण सरकार की नौकरशाही ने किए हैं. नौकरशाही ने संविधान की भावना का आदर कभी नहीं किया. उस ने हमेशा मनमानी की है.

2025 में आई ऐक्टर रामचरण की फिल्म ‘गेमचेंजर’ में नेता और सरकारी अफसर का द्वंद्व दिखाया गया है. इस में जनता के वोटों को निरीह दिखाया गया है, निरर्थक बताया गया है. यह दर्शाया गया है कि जनता का हित न संविधान करता है, न वोट करते हैं. हित तो एक कर्मठ-ईमानदार अफसर के हाथों में सुरक्षित हैं. यह संदेश जनता को बहकाने वाला है, वोटोक्रेसी को बदनाम करने वाला है.

इसी तरह ‘पुष्पा 2’ में अल्लू अर्जुन रौबिनहुड की तरह संविधान की दी गई वोटोक्रेसी और डैमोक्रेसी को कुचलता हुआ चंदन की लकडि़यों की स्मगलिंग करता हीरो बना फिरता है और दर्शक तालियां पीटते हैं.

डैमोक्रेसी के खिलाफ ये दोनों और इस से पहले बनी सैकड़ों फिल्में जनता को बहकाती रही हैं. आज जो मनमानी नेता कर पा रहे हैं उस का बहुत बड़ा कारण ये फिल्में भी हैं जिन्होंने संविधान निर्माताओं और संविधान की रक्षक सुप्रीम कोर्ट के काम को कमजोर किया. ‘शोले’ भी इसी गिनती में आएगी जिस में स्पष्ट दिखाया गया है कि देश का संविधान सम्मत कानून, जो वोटों से चुनी सरकार बनवाती है, गब्बर सिंह जैसे डाकू के हाथों हार जाता है और एक पुलिस अफसर को 2 अपराधियों को पैसे दे कर न्याय पाने के लिए हिंसा करने के लिए बुलाना पड़ता है.

वोटोक्रेसी को डैमोक्रेसी से अलग करने की साजिश में ये फिल्में ही नहीं, पूरा मीडिया भी लगा हुआ है. पहले मीडिया कांग्रेस भक्त था, आज वर्णव्यवस्था भक्त है. आज का वर्णव्यवस्था भक्त मीडिया नरेंद्र मोदी के बहाने वोटोक्रेसी के हरेक को मिले बराबर के स्तर, बराबर के हक, बराबर के अवसरों को छीन कर पंडोंपुजारियों की झोली में डालने में लिप्त है.

संविधान को जीवन का सूत्र मानने की भावना आज भी हम में पैदा नहीं हुई है. आज भी हमारे लिए पौराणिक कथाएं-कहानियां ज्यादा महत्त्व की हैं. संसद भवन के उद्घाटन के समय जो नाटक नरेंद्र मोदी ने किया वह यह दर्शाता है कि उन की संवैधानिक भावनाओं के प्रति क्या श्रद्धा है. उन की श्रद्धा तो मंदिरों, मठों के पुजारियों, संतों व महंतों में है जो न वोटोक्रेसी से कोई संबंध रखते हैं, न डैमोक्रेसी से.

पौराणिक स्मृतियों की तरह भारत का संविधान कोई ऐसा डौक्युमैंट नहीं जो ईश्वर (यदि हो) का दिया माना जाए. गीता में कृष्ण बारबार ‘मैं’ ‘मैं’ करते हुए अर्जुन को अपने भाइयों से युद्ध के लिए उकसाते हैं, उस युद्ध के लिए जो जनता के लिए नहीं हो रहा था बल्कि राजपुत्रों के अपने सुखों के लिए हो रहा था, साथ ही, वे वर्णव्यवस्था को ईश्वर की दी व्यवस्था बता जाते हैं. संविधान ने ऐसी कोई गलती नहीं की.

डैमोक्रेसी को वोटोक्रेसी ने खत्म किया या मीडिया ने

वोटोक्रेसी अभी शुक्र है कि डैमोक्रेसी को पूरा निगल नहीं पाई है और जितना निगल चुकी है उस की एक बड़ी जिम्मेदारी मीडिया की भी है जिसे, कहने को ही सही, प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. मीडिया राजा की ज्यादा सुनता है, जनता की कम. इस की बहुत सी वजहों में से एक यह भी है कि अधिकतर मीडिया हाउस दूसरे कामधंधों और कारोबारों में जुट गए हैं. अधिकतर अखबार, न्यूज चैनल्स, मैगजींस वगैरह अपने दूसरे धंधों को सुचारु रूप से चलाए रखने के लिए चलाए जा रहे हैं.

दूसरे आम लोग भी मोबाइल फोन नाम के पिंजरे में कैद हो चले हैं. उन के पैरोंतले फेसबुक, व्हाट्सऐप, यूट्यूब और इंस्टाग्राम सरीखे दर्जनों सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स धनकुबेरों ने बिछा दिए हैं. जिन पर वे धार्मिक कार्यक्रम देखते हैं, पोर्न फिल्मों का सेवन करते हैं और रील बनाने सहित तमाम फुजूल के काम करते हैं जो उन्हें वोटोक्रेसी का हिस्सा बनाए रखते हैं. इस से होता यह है कि लोग किसी भी मुद्दे या घटना पर मौलिक तर्क और विश्लेषण नहीं कर पाते क्योंकि ये उन्हें रेडीमेड मिल जाते हैं और उपलब्ध कराने वाले वही लोग, दल (गिरोह) और संगठन होते हैं जो वोटोक्रेसी के पालकपोषक हैं.

जब से लोगों ने अखबार, किताबें और पत्रिकाएं पढ़ना छोड़ा है तब से उन के दिमाग पर, बुद्धि पर और जागरूकता पर इंटरनैट की जंग लगी है जिसे ले कर दुनियाभर के जानकार चिंतित हैं क्योंकि सोशल मीडिया प्लेटफौर्म के मालिकों ने लोगों को मजबूर कर दिया है कि वे उन के दिमाग से सोचें, उन के सुझाए रास्ते पर चलें, उन के ही विचारों को अंतिम सत्य समझें और कट्टर दक्षिणपंथी शासकों के हर फैसले से इत्तफाक रखें.

ऐसे दौर में जरूरत लोकतंत्र को उस के सही शेप में लाने की है. लेकिन यह आसान काम नहीं है क्योंकि इसे कोई करना ही नहीं चाहता. लोग फौरीतौर पर अपने लोकतांत्रिक अधिकार जानते व समझते हैं और इन्हें भीख की तरह मांगने जाते उन्हीं के पास हैं जो इन के वोटों की ताकत पर राज करते खुद के रिजौर्ट को ब्रह्मांड का केंद्र बताते हैं और जो शासक इतनी हिम्मत या जुर्रत नहीं कर पाते वे मंदिर, मसजिद और चर्चों की शरण में जाने का इशारा करते यह कह देते हैं कि हम तो निमित्त मात्र हैं, सब से बड़ा तो वह है जो दुनिया का कर्ताधर्ता है.

डैमोक्रेसी को मंदिरक्रेसी में बदलने के प्रयास भी पिछले 50 वर्षों से हो रहे हैं और अगले 10 वर्षों तक तो चलेंगे, ऐसा लग रहा है. मंदिर बनवा दिए तो सरकार कैसा काम कर रही है, मत पूछो, मंदिर के नाम पर वोट दो, मंदिर में चंदा चढ़ाओ, धर्मकर्म में लगे रहो. यह डैमोक्रेसी नहीं है.

भारत में यह दूसरे तरीके से भी हो रहा है. विपक्ष यानी इंडिया गठबंधन ने संविधान सीने से लगा कर डैमोक्रेसी को जिंदा रखने के लिए वोटोक्रेसी को अपनाया तो भाजपा रामलला को कंधे से लगाए रही. जनता अब भ्रमित है कि हमारी सुनेगा कौन, ये भगवानवादी या वे संविधानवादी. असल में सुनता संविधानवादी विपक्ष ही है और कभीकभार वही मुद्दे की बातों पर हल्ला भी मचाता है. यह और बात है कि उस की आवाज घंटेघडि़यालों की आवाज तले दब कर रह जाती है. नोटबंदी के दौरान भी ऐसा ही हुआ था और जीएसटी कानून लागू होने के बाद भी और ऐसे कई मौकों व किसान आंदोलन के दौरान भी यही हुआ था.

लेकिन इस में इकलौती अच्छी बात यह हुई थी कि सरकार को किसानों के आगे झुकते हुए काले कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा था. लगभग यही शाहीन बाग के धरनेप्रदर्शन में हुआ था. ये दोनों ही उदाहरण लोकतंत्र की धुंधलाती इबारत को थोड़ा गाढ़ा कर गए क्योंकि इन दोनों के साथ कोई नहीं था, वह मीडिया तो कतई नहीं था जिसे खुद के गोदी मीडिया कहे जाने पर शर्मिंदगी नहीं बल्कि फख्र महसूस होता है. इन दोनों आंदोलनों को कुचलने, दबाने और बदनाम करने में गोदी मीडिया सरकारी भाषा ही बोल रहा था.

सिर्फ वोटोक्रेसी बनी रहे, डैमोक्रेसी न पनपे, इस के लिए भाजपा ने जो और उपाय किए उन में विपक्षी दलों की खरीदफरोख्त और उन में तोड़फोड़ भी अहम है. मसलन, बसपा खत्म की गई तो दलित वोटों की भीड़ का बड़ा हिस्सा भाजपा की तरफ बढ़ा. महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी के दोदो टुकड़े कर वोट के साथसाथ सत्ता हथिया लेने का दांव भी चला और संक्षेप में कहें कि इस से भी बात न बनी तो ईडी और आईटी जैसी सरकारी एजेंसियों का जम कर कु-इस्तेमाल किया गया. इंदिरा गांधी होतीं तो वे भी हैरान रह जातीं कि इन्होंने तो मुझे भी मात दे दी.

अब जीता और हारा हुआ दोनों ही दोषी हैं डैमोक्रेसी से बहुत दूर ले जाने के लिए. हारजीत के बाद वे जनता को ‘भगवान भरोसे’ छोड़ अपनेअपने काम में लग जाते हैं. आम लोग छोटेबड़े कामों के लिए यहां से वहां भटकते राजनीति और नेताओं को कोसते रहते हैं. वोट मंदिर में चढ़ाए दक्षिणा के पैसों की तरह रहता है जो एक बार दानपेटी में गया तो फिर वापस नहीं आता. जो मंदिर से चाहा था वह मिलेगा, इस की कोई गारंटी तो दूर, यह आश्वासन भी नहीं है कि कभी कुछ मिलेगा.

चुनाव आयोग भी जिम्मेदार

वहीं, निष्पक्षता भी कठघरे में खड़ी हुई और निष्पक्षता से वोट डलवाने की जिम्मेदारी निभाने वाला चुनाव आयोग भी कठघरे में है. अरबोंखरबों रुपए फूंकने के बाद भी देश में मुद्दत से निष्पक्ष चुनाव नहीं हो पा रहे. हर चुनाव में करोड़ों की नकदी पकड़ी जाती है जिसे कानून के तहत राजसात कर लिया जाता है. इस के बाद इस का क्या होता है, यह किसी को नहीं मालूम. धर्म और जाति के नाम पर वोट डालने का रोग जो फैला तो सिमटने का नाम नहीं ले रहा.

चुनाव आयोग चाहे तो भी बहुतकुछ नहीं कर सकता. वह 1 करोड़ लोगों को जैसेतैसे वोट करने का अवसर दे देता है, यही बहुत है. अगर चुनाव में लोग किसी पार्टी की तरफदारी करें तो आयोग वास्तव में कर्म ही कर सकता है. वोटोक्रेसी में चुनाव आयोग की नहीं, वोट डालने वालों की समझ की जरूरत है.

बीमारी के 2 ही इलाज बचते हैं, पहला यह है कि सभी जनप्रतिनिधियों के घरों के बाहर 60 घंटियों वाला घंटा लटकवा देना चाहिए जैसा कि मुगल शासक जहांगीर ने अपने महल के बाहर लगवा कर सुनिश्चित किया था कि कोई भी पीडि़त इस घंटे को बजा कर न्याय मांग सकता था, अपनी परेशानी दूर करने की गुहार लगा सकता था. यह घंटा जरूरी नहीं कि सोने का हो और 240 किलो का ही हो, वह लोहे का हो, तो भी चलेगा और बजेगा बशर्ते छोटेबड़े जनप्रतिनिधि अपनी कुंभकर्णी नींद और ऐशोआराम छोड़ते जहांगीर की तरह आधी रात को भी उठ कर बाहर आएं.

दूसरा रास्ता गलीमहल्लों, गांवदेहातों में संविधान जागरूकता केंद्र खोलने का है जिन में कुछ पढ़ेलिखे जागरूक लोग, जैसे वकील, टीचर, प्रोफैसर, पत्रकार, महिलाएं और हारे हुए उम्मीदवार भी शामिल हों. वे नियमित इन केंद्रों में बैठें और वोटोक्रेसी के नुकसान व डैमोक्रेसी के सही माने समझाएं और लोगों को उन के लोकतांत्रिक अधिकार न केवल बताएं बल्कि उन के लिए सड़कों पर आ कर लड़ें भी.

डैमोक्रेसी एक अद्भुत उपहार है जो पिछले कुछ शतकों में जनता को मिला और जिस के कारण मानव का अभूतपूर्व विकास हुआ. पश्चिमी देशों के मुकाबले भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, मुसलिम देशों, लैटिन अमेरिका के देशों में भयंकर गरीबी का कारण यह है कि वहां नाम की डैमोक्रेसी है. ह्यूमन डैवलपमैंट डैमोक्रेसी में ही संभव है. विज्ञान की उन्नति का असल लाभ लोगों को डैमोक्रेसी में ही मिला. वोट मशीन से स्वतंत्रता भी निकलती है, जंजीरें भी. यह लोगों के विवेक पर निर्भर है कि वे क्या चाहते हैं.

Hindi Story : सच्ची खुशी – क्या विशाखा को भूलकर खुश रह पाया वसंत ?

Hindi Story : वसंत एक जनरल स्टोर के बाहर खड़ा अपने दोस्तों से बातें कर रहा था. उसे आज फिर विशाखा दिखाई दे गई. विशाखा उस के पास से निकली तो उस के दिल में आंधियां उठने लगीं. उस ने पहले भी कई बार आतेजाते विशाखा को देख कर सोचा, ‘धोखेबाज, कहती थी मेरे बिना जी नहीं सकती, अब यही सब अपने दूसरे पति से कहती होगी. बकवास करती हैं ये औरतें.’ फिर अगले ही पल उस के मन से आवाज आई कि तुम ने भी तो अपनी दूसरी पत्नी से यही सब कहा था. बेवफा तुम हो या विशाखा?

वह अपने दोस्तों से विदा ले कर अपनी गाड़ी में आ बैठा और थोड़ी दूर पर ही सड़क के किनारे गाड़ी खड़ी कर के ड्राइविंग सीट पर सिर टिका कर विशाखा के बारे में सोचने लगा…

वसंत ने विशाखा से प्रेमविवाह किया था. विवाह को 2 साल ही हुए थे कि वसंत की मां उमा देवी को पोतापोती का इंतजार रहने लगा. उन्हें अब विशाखा की हर बात में कमियां दिखने लगी थीं. विशाखा सोचती क्या करे, उस के सिर पर मां का साया था नहीं और पिता अपाहिज थे. बरसों से वे बिस्तर पर पड़े थे. एक ही शहर में होने के कारण वह पिता के पास चक्कर लगाती रहती थी. उस की एक रिश्ते की बूआ और एक नौकर उस के पिता प्रेमशंकर का ध्यान रखते थे.

उमा देवी को अब हर समय वसंत की वंशवृद्धि की चिंता सताती. विशाखा उन की हर कड़वी बात चुपचाप सहन कर जाती. सोचती, जो बात कुदरत के हाथ में है, उस पर अपना खून जलाना बेकार है. वह आराम से घर के कामों में लगी रहती. उसे परेशानी तब होती जब वसंत को उस से कोई शिकायत होती. वह वसंत को इतना प्यार करती थी कि उस की बांहों में पहुंच कर वसंत कह उठता, ‘तुम किस मिट्टी की बनी हो, पहले दिन की तरह आज भी कितनी सुंदर दिखती हो.’

विशाखा हंस कर उस के सीने से लग जाती और इस तरह 5 साल बीत गए थे.

वसंत के औफिस से आने के समय विशाखा उसे तैयार हंसतीमुसकराती मिलती. उमा देवी को यह पसंद नहीं था. एक दिन वे वसंत से बोलीं, ‘तुम उदास और दुखी क्यों रहते हो?’

वसंत हंसा, ‘क्या हुआ है मुझे? अच्छा तो हूं?’

‘बिना बच्चे के भी कोई जीवन है,

बच्चों से ही तो जीवन में रौनक आती है,’ उमा देवी बोलीं.

‘मां, दुनिया में हजारों लोग हैं, जिन्हें बच्चे नहीं हैं,’ वसंत शांत रहते हुए बोला.

‘तुम ढंग से डाक्टर को दिखाते क्यों नहीं हो?’

‘अभी तक इस बारे में गंभीरता से नहीं सोचा था मां, अगले हफ्ते दिखाता हूं,’ यह कह कर वसंत अपने कमरे में चला गया.

विशाखा वसंत के लिए चाय ले कर आई, तो वसंत की मुखमुद्रा देख कर समझ गई कि मांबेटे में क्या बातें हुई होंगी.

फिर डाक्टर, चैकअप, टैस्ट का सिलसिला शुरू हुआ और जब रिपोर्ट आई कि विशाखा कभी मां नहीं बन सकती, तो विशाखा के आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे.

वसंत विशाखा को समझाता रहता कि हम किसी अनाथालय से बच्चा गोद ले लेंगे. लेकिन उमा देवी किसी पराए बच्चे को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हुईं.

वसंत उन्हें भी समझाता, ‘मां, जमाना कहां से कहां पहुंच गया है और आप अपनेपराए में उलझी हुई हैं.’

वसंत के बचपन में ही उस के पिता का देहांत हो गया था. उमा देवी ने बड़ी मेहनत से वसंत को पढ़ायालिखाया था. वसंत मां का दिल कभी नहीं दुखाना चाहता था.

उमा देवी अब कभीकभी वसंत को अपने पास बैठा कर दूसरे विवाह की बात करतीं तो वह चुपचाप उठ कर अपने कमरे में चला जाता.

अब बच्चे के नाम पर वसंत की ठंडी आहें विशाखा को अंदर तक चीरने लगीं. वसंत की वही आंखें जो पहले उस के प्यार के विश्वास से लबालब नजर आती थीं, अब निरादर और अवहेलना के भाव दर्शाने लगी थीं. वसंत लाख अपने भावों को छिपाने का प्रयास करता, लेकिन विशाखा उस की हर धड़कन, उस की हर नजर पहचानती थी.

मन ही मन घुटती रहती विशाखा, चारों ओर कुहासा सा नजर आता उसे. जीवन के सफर में साथ चलतेचलते अब दोनों के हाथ एकदूसरे से छूटने लगे थे.

एक दिन विशाखा अपने पिता को देखने गई. उन की तबीयत बहुत खराब थी. वसंत ने फोन पर कह दिया, ‘जितने दिन चाहो उतने दिन रह लो.’

विशाखा ने पूछा, ‘तुम्हें परेशानी तो नहीं होगी?’

‘नहीं,’ सपाट स्वर में कह कर वसंत ने रिसीवर रख दिया.

विशाखा हैरान रह गई कि यह वही वसंत है, जिस ने इतने सालों में 2 दिन के लिए भी पिता के पास नहीं छोड़ा था. सुबह छोड़ता तो शाम को अपने साथ ले जाता था. उसे लगा, वसंत सचमुच पूरी तरह बदल गया है और फिर वसंत ने न फोन किया, न आया ही. विशाखा फोन करती तो अनमना सा हां, हूं में जवाब दे कर रिसीवर रख देता.

एक बार भी वसंत ने विशाखा को घर आने के लिए नहीं कहा और अब 2 महीने बीत गए थे.

विशाखा को रोज उस का इंतजार रहता. प्रेमशंकर बोल तो नहीं सकते थे, मगर देख तो सकते थे. उन की हालत बिगड़ती जा रही थी. आंखों में विशाखा के प्रति चिंता व दुख साफ दिखाई देता था.

एक दिन वसंत ने तलाक के पेपर भेज दिए और उसी दिन शाम को किसी से विशाखा का सारा सामान भी भिजवा दिया.

विशाखा के घर में सन्नाटा फैल गया. जिसे दिल की गहराई से इतना प्यार किया था, ऐसा करेगा, विशाखा ने कभी सोचा न था. इतना बड़ा धोखा. जिस आदमी को इतना प्यार किया, जिस के सुख में सुखी, दुख में दुखी हुई, वही आदमी इतना बदल गया… वह जितना सोचती उतना ही उलझती जाती. फिर अपने को समझाने लगती, अगर मैं गलत नहीं हूं तो मैं इतनी दुखी क्यों होऊं? तलाक के पेपर फिर आंखों के आगे घूम गए, वह छटपटाती, बेचैन, असहाय सी सुबकती रही.

इतना बड़ा विस्फोट पर कहीं कोई आवाज नहीं. बाहर से सब कुछ कितना शांत पर भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूट कर बिखर गया. पिता की बिगड़ती हालत देख कर वह और दुखी हो जाती.

थोड़े समय बाद तलाक भी हो गया. उसे पता चला कि वसंत ने दूसरा विवाह कर लिया है. रात भर वह रोतीसिसकती रही. वसंत के साथ बिताया 1-1 पल याद आता रहा.

प्रेमशंकर को अस्पताल में दाखिल कराना पड़ा. उन्होंने अपने वकील सिद्धार्थ गुप्ता को बुला लिया और घर व किराए पर चढ़ी हुई सारी दुकानें विशाखा के नाम कर दीं. उन की आंखों में विशाखा के लिए चिंता साफ दिखाई देती.

सिद्धार्थ गुप्ता शहर के प्रसिद्ध वकील थे, उम्र में विशाखा से कुछ ही बड़े थे, लेकिन बहुत ही सहृदय व सुलझे हुए इंसान थे. इस पूरी दुनिया में प्रेमशंकर को सिद्धार्थ से ज्यादा भरोसा किसी पर न था.

वे जब भी आते, विशाखा ने देखा था प्रेमशंकर की चिंता कुछ कम हो जाती थी. विशाखा के विवाह के बाद भी सिद्धार्थ ही प्रेमशंकर का हर तरह से ध्यान रख रहे थे. प्रेमशंकर सिद्धार्थ को सालों से जानते थे. विशाखा से सिद्धार्थ की जितनी भी बातें होतीं, प्रेमशंकर के बारे में ही होतीं. विशाखा तलाकशुदा है, यह वे जानते थे, लेकिन विशाखा से इस बारे में उन्होंने कभी कुछ नहीं पूछा था.

वसंत के दुख के साथसाथ पिता की आंखों में बसी चिंता विशाखा को और व्याकुल किए रहती. उस की बूआ और नौकर घर संभालते रहे. वह अस्पताल में प्रेमशंकर के पास थी. सिद्धार्थ आतेजाते रहते.

एक दिन सिद्धार्थ जाने लगे, तो विशाखा बोली, ‘एक व्यक्तिगत प्रश्न पूछना चाहती हूं आप से.’

सिद्धार्थ ने देखा, प्रेमशंकर नींद में हैं और विशाखा बहुत परेशान है व कुछ कहने की हिम्मत जुटा रही है. अत: बोले, ‘पूछिए.’

‘आप ने विवाह क्यों नहीं किया?’

सिद्धार्थ को एक झटका सा लगा, लेकिन फिर धीरे से बोले, ‘कोई मजबूरी थी,’ कह कर वे जाने लगे तो विशाखा ने तेजी से आगे बढ़ कर कहा, ‘क्या आप मुझे बता सकते हैं?’

सिद्धार्थ वहीं अपना बैग रख कर बैठ गए और फिर धीरेधीरे बोले, ‘कुछ लोग कमियों के साथ पैदा होते हैं और अगर मैं विवाह के योग्य होता तो सही समय पर विवाह कर लेता… आप मेरी बात समझ गई होंगी.’

‘हां, सिद्धार्थ साहब, ऐसा सिर्फ पुरुषों के साथ ही नहीं, स्त्रियों के साथ भी तो होता है. मैं भी कभी मां नहीं बन सकती. इसी कारण मेरा तलाक हो गया. मैं ने हर संभव तरीके से विवाह को बचाने का प्रयत्न किया, लेकिन बचा नहीं सकी.’

सिद्धार्थ ने हैरान हो कर उस की तरफ देखा तो विशाखा ने कहा, ‘क्या आप मेरे साथ विवाह कर सकते हैं?’

‘विशाखा, आप होश में तो हैं?’

‘बहुत सोचसमझ कर कह रही हूं, मेरे पापा की जान मुझ में अटकी है, आप तो वकील हैं, यह जानते हैं कि एक अकेली औरत को दुनिया कैसे परेशान करती है. अगर आप मुझ से विवाह कर लेंगे तो हम दोनों को एक जीवनसाथी और उस से भी बढ़ कर एक दोस्त मिल जाएगा. हम अच्छे दोस्तों की तरह जीवन बिता लेंगे. बस, आप का साथ मांग रही हूं, मुझे और कुछ नहीं चाहिए. क्या आप मेरी बात मान सकते हैं?’

सिद्धार्थ ने विशाखा को गौर से देखा, उस के सच्चे चेहरे को परखा और फिर मुसकरा दिए.

शीघ्र ही दोनों का विवाह हो गया और विवाह के कुछ समय बाद ही प्रेमशंकर ने हमेशा के लिए आंखें बंद कर लीं.

विशाखा सिद्धार्थ के घर आ गई. घर वैसा ही था जैसा औरत के बिना होता है. नौकर तो थे, लेकिन विशाखा का हाथ लगते ही घर चमक उठा. एक दिन सिद्धार्थ भावुक हो कर बोले, ‘कैसा पति था, जिस ने तुम्हें तलाक दे दिया.’

दोनों अपने मन की ढेरों बातें करते, दोनों को एकदूसरे में अच्छा दोस्त दिखाई देता था. विशाखा दिन भर घर को बनातीसंवारती, उन की फाइलें संभालती. रात को उन के कमरे में उन की दवा और पानी रख कर मुसकरा कर ‘गुडनाइट’ बोल कर अपने बैडरूम में आ जाती. बैड पर लेट कर किताबें पढ़ती और सो जाती. सुबह अच्छी तरह तैयार हो कर सिद्धार्थ के साथ नाश्ता करती. उन के जाने के बाद गाड़ी निकालती और सिद्धार्थ के बताए कामों को पूरा करती यानी कभी बैंक जाना, कभी उन के डाक्टर से मिलती, उन का हिसाबकिताब देखती, उन का हर काम हंसीखुशी करती.

आज वसंत को विशाखा फिर दिखाई दे गई थी. छोटा शहर था, इसलिए कई बार पहले भी दिख चुकी थी. औफिस से उठ कर इधरउधर घूमना वसंत की आदत बन गई थी. न जाने क्यों अब भी जब कभी विशाखा को देख लेता, दिल में एक फांस सी चुभती. कई महीने तो विशाखा उसे नजर नहीं आई थी. वैसे उस ने सुन लिया था कि उस ने शादी कर ली है और बहुत खुश रहती है.

न जाने क्यों उसे विशाखा की शादी से दुख पहुंचा था. शहर के किसी चौराहे पर, किसी मार्केट में विशाखा कभीकभी नजर आ ही जाती थी अपने पति के साथ, किसी नई सहेली के साथ, तो कभी अकेली कार में. उस के शरीर पर शानदार कपड़े होते और चेहरे पर शांति. वसंत का दिल जल कर रह जाता. ऐसी सुखशांति तो उस के जीवन में नहीं आई थी. आज भी जब विशाखा उस के सामने से निकली तो उस का दिल चाहा कि वह उस का पीछा करे, बिलकुल उसी तरह जैसे विवाह से पहले करता था.

गाड़ी खड़ी कर के वसंत बेचैनी में टहलता सड़क पर दूर निकल गया. सड़क के पार उस की नजर ठिठक गई, विशाखा बैंक से आ रही थी. वसंत तेजी से सड़क पार कर के उस तरफ बढ़ा जहां विशाखा अपनी गाड़ी में बैठने वाली थी.

जैसे ही विशाखा गाड़ी में बैठ कर गाड़ी स्टार्ट करने लगी वसंत ने नौक किया.

विशाखा देखती रह गई. वह कभी सोच भी नहीं सकती थी कि इस तरह वसंत से मुलाकात हो जाएगी. वह कुछ बोल ही नहीं पाई.

वसंत ने कहा, ‘‘क्या गाड़ी में बैठ कर बात कर सकता हूं?’’

विशाखा ने पल भर सोचा, फिर कहा, ‘‘नहीं, आप को इस तरह बात करने का कोई हक नहीं है अब.’’

वसंत को धक्का सा लगा. वह टूटे

स्वर में बोला, ‘‘बस थोड़ी देर, फिर खुद ही उतर जाऊंगा.’’

‘‘कौन सी बातें आप को 3 साल बाद याद आ गई हैं?’’

वसंत बैठता हुआ बोला, ‘‘बहुत बदल गई हो… क्या खुश हो अपने जीवन से? कैसा है तुम्हारा पति?’’

‘‘वे बहुत अच्छे हैं और उन्हें बच्चे की भी कोई इच्छा नहीं है. बच्चे के लिए वे पत्नी को धोखा देने वाले इंसान नहीं हैं,’’ विशाखा ने सख्त स्वर में कहा.

वसंत झूठ नहीं बोल सका, कोई बात न बना सका, चोर की तरह अपने दिल का हर राज उगलने लगा, ‘‘विशाखा, मुझे देखो, मैं खुश नहीं हूं.’’

विशाखा ने पलट कर उस की तरफ देखा, सच में वह खुश नहीं लग रहा था. उस का हुलिया ही बदल गया था. वह बहुत सुंदर हुआ करता था, लेकिन आज बदसूरत और बेहाल लग रहा था.

‘‘विशाखा,’’ वसंत शर्मिंदा सा बोला, ‘‘यह तो ठीक है कि बच्चे दुनिया का सब से बड़ा उपहार हैं, लेकिन सिर्फ तुम्हारी खुशी के लिए मैं इस सच से आंखें फेर लिया करता था. लेकिन जब मां ने दूसरे विवाह की बातें कीं तो मेरी इच्छा भी जाग उठी… मेरे जुड़वां बच्चे हुए. मैं ने दुनिया की सब से बड़ी खुशी देख ली है फिर भी मैं टूट गया हूं. मंजिल पर पहुंचने के बाद भी भटक रहा हूं, क्योंकि मेरी पत्नी रेखा बहुत ही कर्कश स्वभाव की है. वह समझती है मैं ने बच्चों के लिए ही शादी की है. उसे अपने सिवा किसी का खयाल नहीं. कहती है कि बच्चे तुम्हारी जिम्मेदारी हैं. बहुत ही फूहड़ और बदमिजाज लड़की है.

‘‘मां से बातबात पर उस का झगड़ा होता है. वही घर, जो तुम्हारी उपस्थिति में खुश और शांत नजर आता था, अब कलह का अड्डा लगता है. घर जाने का मन नहीं होता. तुम ने मेरा इतना खयाल रखा था कि मैं बीते दिन याद कर के रात भर सो नहीं पाता हूं. बहुत दिन बाद मुझे पता चला कि संसार की सब से बड़ी खुशी तुम्हारे जैसी पत्नी है. मैं तुम्हें कभी नहीं भूल सका और मानता हूं कि बच्चे का न होना इतनी बड़ी कमी नहीं जितनी बड़ी तुम्हारे जैसी पत्नी को ठुकराना है.’’

विशाखा ने बेरुखी से पूछा, ‘‘क्या यही वे बातें हैं, जो आप करना चाहते थे?’’

‘‘विशाखा, मुझे यकीन है तुम भी मेरे बिना खुश तो नहीं होगी. मैं ने तुम से अलग हो कर अच्छा नहीं किया. हम अच्छे दोस्तों की तरह तो रह सकते हैं न?’’

‘‘अच्छे दोस्तों की तरह से मतलब?’’

‘‘और कुछ तो हो नहीं सकता… कुछ समय तो एकदूसरे के साथ बिता ही सकते हैं… मैं तुम्हें अब भी प्यार करता हूं, विशाखा.’’

‘‘तुम्हारे लिए प्यार जैसा पवित्र शब्द एक खेल बन कर रह गया है. मेरे पति का प्रेम कितना शक्तिशाली है, तुम सोच भी नहीं सकते. उन के निश्छल, निर्मल प्रेम के प्रति मेरा मन श्रद्धा से भर उठा है. हमारे रिश्ते में विश्वास, समर्पण, आदर, अपनापन है और जब भी मैं उन के साथ होती हूं, तो मुझे लगता है कि मैं एक घनी छाया में बैठी हूं. निश्चिंत, सुरक्षित और बहुत खुश,’’ कहतेकहते विशाखा ने वसंत की तरफ का दरवाजा खोल दिया, ‘‘अब आप जा सकते हैं.’’

वसंत ने कुछ कहना चाहा, लेकिन विशाखा पहले ही बोल पड़ी, ‘‘अब और नहीं,’’ और फिर वसंत के उतरते ही उस ने गाड़ी आगे बढ़ा दी और अपने दिल में सिद्धार्थ के प्रेम की भीनीभीनी सुगंध से सराबोर घर पहुंची तो सिद्धार्थ उसे देखते ही मुसकरा दिए.

विशाखा को लगा कि कुछ पल आंखों में तैरता प्यार भी कभीकभी पूरा जीवन जीने के लिए काफी होता है. लेकिन इस बात को सिर्फ खुशनुमा पलों को जीने वाले ही समझ सकते हैं.

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