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व्यावहारिक दीपाली : सेल्सगर्ल की क्या थी कहानी ?

दी पाली की याद आते ही आंखों के सामने एक सुंदर और हंसमुख चेहरा आ जाता है. गोल सा गोरा चेहरा, सुंदर नैननक्श, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी और होंठों पर सदा रहने वाली हंसी.

असम आए कुछ ही दिन हुए थे. शहर से बाहर बनी हुई उस सरकारी कालोनी में मेरा मन नहीं लगता था. अभी आसपड़ोस में भी किसी से इतना परिचय नहीं हुआ था कि उन के यहां जा कर बैठा जा सके.

एक दोपहर आंख लगी ही थी कि दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने कुछ खिन्न हो कर दरवाजा खोला तो सामने एक सुंदर और स्मार्ट सी असमी युवती खड़ी थी. हाथ में बड़ा सा बैग, आंखों पर चढ़ा धूप का चश्मा, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी. इस से पहले कि मैं कुछ पूछती, वह बड़े ही अपनेपन से मुसकराती हुई भीतर की ओर बढ़ी.

कुरसी पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘आप नया आया है न?’’ तो मैं चौंकी फिर उस के बाद जो भी हिंदीअसमी मिश्रित वाक्य उस ने कहे वह बिलकुल भी मेरे पल्ले नहीं पड़े. लेकिन उस का व्यक्तित्व इतना मोहक था कि उस से बातें करना हमेशा अच्छा लगता था. उस की बातें सुन कर मैं ने पूछा, ‘‘आप सूट सिलती हैं?’’

‘‘हां, हां,’’ वह उत्साह से बोली तो एक सूट का कपड़ा मैं ने ला कर उसे दे दिया.

‘‘अगला वीक में देगा,’’ कह कर वह चली गई.

यही थी दीपाली से मेरी पहली मुलाकात. पहली ही मुलाकात में उस से एक अपनेपन का रिश्ता जुड़ गया. उस से मिल कर लगा कि पता नहीं कब से उसे जानती थी. यह दीपाली के व्यवहार, व्यक्तित्व का ही असर था कि पहली मुलाकात में बिना उस का नामपता पूछे और बिना रसीद मांगे हुए ही मैं ने अपना महंगा सूट उसे थमा दिया था. आज तक किसी अजनबी पर इतना विश्वास पहले नहीं किया था.

वह तो मीरा ने बाद में बताया कि उस का नाम दीपाली है और वह एक सेल्सगर्ल है. कितना सजधज कर आती है न. कालोनी की औरतों को दोगुने दाम में सामान बेच कर जाती है. मैं तो उसे दरवाजे से ही विदा कर देती हूं. दीपाली के बारे में ज्यादातर औरतों की यही राय थी.

मैं ने कभी दीपाली को मेकअप किए हुए नहीं देखा. सिर्फ एक लाल बिंदी लगाने पर भी उस का चेहरा दमकता रहता था. उस का हर वक्त खिल- खिलाना, हर किसी से बेझिझक बातें करना और व्यवहार में खुलापन कई लोगों को शायद खलता था. पर मस्तमौला सी दीपाली मुझे भा गई और जल्द ही वह भी मुझ से घुलमिल गई.

उस के स्वभाव में एक साफगोई थी. उस का मन साफ था. जितना अपनापन उस ने मुझ से पाया उस से कई गुना प्यार व स्नेह उस ने मुझे दिया भी.

‘आप इतना सिंपल क्यों रहता है?’ दीपाली अकसर मुझ से पूछती. काफी कोशिश करने पर भी मैं स्त्रीलिंगपुल्ंिलग का भेद उसे नहीं समझा पाई थी, ‘कालोनी में सब लेडीज लोग कितना मेकअप करता है, रोज क्लब में जाता है. मेरे से कितना मेकअप का सामान खरीदता है.’

अकसर लेडीज क्लब की ओर जाती महिलाओं के काफिले को अपनी बालकनी से मैं भी देखती थी. मेकअप से लिपीपुती, खुशबू के भभके छोड़ती उन औरतों को देख कर मैं सोचती

कि कैसे सुबह 10 बजे तक इन का काम निबट गया होगा, खाना बन गया होगा और ये खुद कैसे तैयार हो गई होंगी.

दीपाली ने एक बार बताया था, ‘आप नहीं जानता. ये लेडीज लोग सब अच्छाअच्छा साड़ी पहन कर, मेकअप कर के क्लब चला जाता है और पीछे सारा घर गंदा पड़ा रहता है. 1 बजे आ कर जैसेतैसे खाना बना कर अपने मिस्टर लोगोें को खिलाता है. 4 नंबर वाली का बेटाबेटी मम्मी के जाने के बाद गंदी पिक्चर देखता है.’

मुझे दीपाली का इंतजार रहता था. मैं उस से बहुत ही कम सामान खरीदती फिर भी वह हमेशा आती. उसे हमारा खाना पसंद आता था और जबतब वह भी कुछ न कुछ असमी व्यंजन मेरे लिए लाती, जिस में से चावल की बनी मिठाई ‘पीठा’  मुझे खासतौर पर पसंद थी. मैं उसे कुछ हिंदी वाक्य सिखाती और कुछ असमी शब्द मैं ने भी उस से सीखे थे. अपनी मीठी आवाज में वह कभी कोई असमी गीत सुनाती तो मैं मंत्रमुग्ध हो सुनती रह जाती.

हमेशा हंसतीमुसकराती दीपाली उस दिन गुमसुम सी लगी. पूछा तो बोली, ‘जानू का तबीयत ठीक नहीं है, वह देख नहीं सकता,’ और कहतेकहते उस की आंखों में आंसू आ गए. जानू उस के बेटे का नाम था. मैं अवाक् रह गई. उस के ठहाकों के पीछे कितने आंसू छिपे थे. मेरे बच्चों को मामूली बुखार भी हो जाए तो मैं अधमरी सी हो जाती थी. बेटे की आंखों का अंधेरा जिस मां के कलेजे को हरदम कचोटता हो वह कैसे हरदम हंस सकती है.

मेरी आंखों से चुपचाप ढलक कर जब बूंदें मेरे हाथों पर गिरीं तो मैं चौंक पड़ी. मैं देर तक उस का हाथ पकड़े बैठी रही. रो कर कुछ मन हलका हुआ तो दीपाली संभली, ‘मैं कभी किसी के आगे रोता नहीं है पर आप तो मेरा अपना है न.’

मेरे बहुत आग्रह पर दीपाली एक दिन जानू को मेरे घर लाई थी. दीपाली की स्कूटी की आवाज सुन मैं बालकनी में आ गई. देखा तो दीपाली की पीठ से चिपका एक गोरा सुंदर सा लगभग 8 साल का लड़का बैठा था.

‘दीपाली, उस का हाथ पकड़ो,’ मैं चिल्लाई पर दीपाली मुसकराती हुई सीढि़यों की ओर बढ़ी. जानू रेलिंग थामे ऐसे फटाफट ऊपर चला आया जैसे सबकुछ दिख रहा हो.

‘यह कपड़ा भी अपनी पसंद का पहनता है, छू कर पहचान जाता है,’ दीपाली ने बताया.

‘जानू,’ मैं ने हाथ थाम कर पुकारा.

‘यह सुन भी नहीं पाता है ठीक से और बोल भी नहीं पाता है,’ दीपाली ने बताया.

वह बहुत प्यारा बच्चा था. देख कर कोई कह ही नहीं सकता कि उसमें इतनी कमियां हैं. जानू सोफा टटोल कर बैठ गया. वह कभी सोफे पर खड़ा हो जाता तो कभी पैर ऊपर कर के लेट जाता.

‘आप डरो मत, वह गिरेगा नहीं,’ दीपाली मुझे चिंतित देख हंसी. सचमुच सारे घर में घूमने के बाद भी जानू न गिरा न किसी चीज से टकराया.

जाते समय जानू को मैं ने गले लगाया तो वह उछल कर गोद में चढ़ गया. उस बेजबान ने मेरे प्यार को जैसे मेरे स्पर्श से महसूस कर लिया था. मेरी आंखें भर आईं. दीपाली ने उसे मेरी गोद से उतारा तो वह वैसे ही रेलिंग थामे सहजता से सीढि़यां उतर कर नीचे चला गया. दीपाली ने स्कूटी स्टार्ट की तो जा कर उस पर चढ़ गया और दोनों हाथों से मां की कमर जकड़ कर बैठ गया.

‘अब घर जा कर ही मुझे छोड़ेगा,’ दीपाली हंस कर बोली और चली गई.

मैं दीपाली के बारे में सोचने लगी. घंटे भर तक उस बच्चे को देख कर मेरा तो जैसे कलेजा ही फट गया था. हरदम उसे पास पा कर उस मां पर क्या गुजरती होगी, जिस के सीने पर इतना बोझ धरा हो. वह इतना हंस कैसे सकती है. जब दर्द लाइलाज हो तो फिर उसे चाहे हंस कर या रो कर सहना तो पड़ता ही है. दीपाली हंस कर इसे झेल रही थी. अचानक दीपाली का कद मेरी नजरों में ऊपर उठ गया.

एक दिन सुबहसुबह दीपाली आई. मेखला चादर में बहुत जंच रही थी. ‘आप हमेशा ऐसे ही अच्छी तरह तैयार हो कर क्यों नहीं आती हो?’ मैं ने प्रशंसा करते हुए कहा. इस पर दीपाली ने खुल कर ठहाका लगाया और बोली, ‘सजधज कर आएगा तो लेडीज लोग घर में नहीं घुसने देगा. उन का मिस्टर लोग मेरे को देखेगी न.’

मुझे तब मीरा की कही बात

याद आई कि दीपाली के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जो औरतों में ईर्ष्या जगाता था.

‘मैं भाग कर शादी किया था. मैं ऊंचा जात का था न अपना आदमी

से. घर वाला लोग मानता नहीं था,’ दीपाली कभीकभी अपनी प्रेम कथा सुनाती थी.

जहां कालोनी में मेरी एकदो महिलाओं से ही मित्रता थी वहां दीपाली के साथ मेरी घनिष्ठता सब की हैरानी का सबब थी. जानू हमारे घर आता तो पड़ोसियों के लिए कौतूहल का विषय होता. एक स्थानीय असमी महिला से प्रगाढ़ता मेरे परिचितों के लिए आश्चर्यजनक बात थी.

जब दीपाली को पता चला कि हमारा ट्रांसफर हो गया है तो कई दिनों पहले से ही उस का रोना शुरू हो गया था, ‘आप चला जाएगा तो मैं क्या करेगा. आप जैसा कोई कहां मिलेगा,’ कहतेकहते वह रोने लगती. दीपाली जैसी सहृदय महिला के लिए हंसना जितना सरल था रोना भी उतना ही सहज था. दुख मुझे भी बहुत होता पर अपनी भावनाएं खुल कर जताना मेरा स्वभाव नहीं था.

आते समय दीपाली से न मिल पाने का अफसोस मुझे जिंदगी भर रहेगा. हमें सोमवार को आना था पर किन्हीं कारणवश हमें एक दिन पहले आना पड़ा. अचानक कार्यक्रम बदला. दोपहर में हमारी फ्लाइट थी. मैं सुबह से दीपाली के घर फोन करती रही. घंटी बजती  रही पर किसी ने फोन उठाया नहीं, शायद फोन खराब था. मैं जाने तक उस का इंतजार करती रही पर वह नहीं आई. भरे मन से मैं एअरपोर्ट की ओर रवाना हुई थी.

बाद में मीरा ने फोन पर बताया था कि दीपाली सोमवार को आई थी और हमारे जाने की बात सुन कर फूटफूट कर रोती रही थी. वह मुझे देने के लिए बहुत सी चीजें लाई थी, जिस में मेरा मनपसंद ‘पीठा’ भी था.

मैं ने कई बार फोन किया पर वह फोन शायद अब तक खराब पड़ा है. पत्र वह भेज नहीं सकती थी क्योंकि उसे न हिंदी लिखनी आती है न अंगरेजी और असमी भाषा मैं नहीं समझ पाती.

दीपाली का मेरी जिंदगी में एक खास मुकाम है क्योंकि उस से मैं ने हमेशा जीने की, मुसकराने की प्रेरणा पाई है. हमारे शहरों में बहुत ज्यादा दूरियां हैं पर अब भी वह मेरे दिल के बहुत करीब है और हमेशा रहेगी.  द्य

वैलेंटाइन डे- पति पत्नी की प्यार भरी कहानी

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फिल्मों में भ्रमित करने वाले सीन्स VFX यानी विजुअल इफैक्ट का क्या है भविष्य, जाने यहां

फिल्में चाहे हिंदी हों या अंग्रेजी, अकसर ऐसे कई सीन्स देखें होंगे, जिस को देख कर आप अवश्य हैरान रह गए होंगे और सोचा होगा कि ये कैसे होना संभव है, कैसे किया होगा? तो इस का उत्तर है VFX यानि विजुअल इफैक्ट.

क्या है वीएफएक्स ?

यह एक ऐसी कंप्यूटर सौफ्टवेर तकनीक है जिस का उपयोग लाइव ऐक्शन शौट्स और डिजिटल छवियों के कौम्बिनेशन से वीडियो बनाने के लिए किया जाता है. ऐक्शन फिल्मों में हीरो को हेलिकौप्टर से कूदते या विशालकाय राक्षसों से लड़ते हुए देखा होगा. ये सभी सीन VFX का इस्तेमाल कर के बनाए जाते हैं. ये इफैक्ट फिल्म को और भी ज्यादा खास बना देते हैं, जिसे दर्शक बिना पलक झपकाए देखते रहते है.
इस सीन्स को रियल में शूट करना नामुमकिन होता है इसलिए इन्हें कंप्यूटर ग्राफिक्स से बनाया जाता है और यही VFX है. फिल्मों के अलावा इसका प्रयोग गेमिंग में भी किया जाता है, जिस के आदि आज के बच्चे और यूथ हो जाते हैं और दिनभर कंप्यूटर या मोबाइल पर खेलते रहते हैं जिस का प्रभाव उन के मानसिक स्थिति पर पड़ता है, उन्हें पढ़ाई में मन नहीं लगता. इस की आदत इतनी खराब होती है कि बच्चे रातरात भर इसे जाग कर खेलते रहते हैं.

वीएफएक्स के तरीके

वीएफएक्स बनाने में Maya, Flame जैसे सौफ्टवेयर इस्तेमाल किए जाते हैं. इसे बनाने वाली टौप कंपनियां प्राइम फोकस लिमिटेड, रेड चिलीज, प्रना स्टूडियोज, रिलायंस मीडिया वर्क्स, मूविंग पिक्चर कंपनी, टाटा एलेक्सी आदि हैं. किसी सीन में विजुअल इफैक्ट्स लाने में कई बड़े सौफ्टवेयर का प्रयोग किया जाता है.

सब से पहले डायरैक्टर और ऐक्टर उस सीन की शूटिंग कर लेते हैं. शूटिंग के समय पीछे की तरफ ब्लू या ग्रीन कलर का पर्दा लगा दिया जाता है. उस सीन को फिल्माने के बाद कम्प्यूटर में मौजूद VFX सौफ्टवेयर और CGI ( इस में कम्प्यूटर की मदद से टू डी और थ्री डी इमेज या बैकग्राउंड बनाए जाते हैं) की मदद से एडिट किया जाता है.

इस सौफ्टवेयर की सहायता से उस ग्रीन या ब्लू पर्दे पर कोई काल्पनिक सीन बना दिया जाता है, जो बिल्कुल वास्तविक सीन्स जैसा दिखता है. स्पेशल इफैक्ट के लिए वीएफएक्स में समय एक महत्वपूर्ण फैक्टर होता है. मसलन कब और कैसे प्रभाव पैदा किया जाना है, यह वीडियो बनाते हुए ही पता लगता जाता है. हरे बैकग्राउंड पर सीन शूट करने के बाद साधारण बैकग्राउंड को समुद्र, जंगल, स्टेडियम आदि में बदल देना आसान होता है.

इस के बाद इस में स्पैशल इफैक्ट्स डाले जाते हैं. इस में सब से पहले किसी भी ऐक्टर को रिकौर्ड किया जाता है, फिर उस को कंप्यूटर जेनरेटेड

– इमेजरी (CGI) के मौडल में ट्रांसफर किया जाता है. इस के लिए ऐक्टर को एक अलग तरह का सूट पहनाया जाता है जिसे मोशन कैप्चर सूट कहा जाता है.

अवतार जैसी फिल्मों को इसी तकनीक से फिल्माया गया है. कई बार इस में प्रोस्थेटिक तकनीक का भी प्रयोग किया जाता है. इस से चरित्र के चेहरे के स्वरूप को बदल दिया जाता है, जैसा कि हिंदी फिल्म ‘पा’ में अभिनेता अमिताभ बच्चन को बच्चे का रूप दिया गया था.

भ्रमित करने वाले दृश्यों की भरमार

पहले वीएफएक्स का प्रयोग अंग्रेजी फिल्मों में अधिक होता था, जिस में हैरी पौटर, जुरासिक पार्क, द लार्ड औफ द रिंग्स, इंसैप्शन, थौर आदि कई फिल्में हैं. सब से अधिक सफल फिल्म बच्चों की फिल्म हैरी पौटर रही, इसे सभी बच्चों और यूथ ने बहुत पसंद किया. इस में एक बस को सकरी गली से स्पीड से प्रवेश कर जाना, अचानक से किसी व्यक्ति का विशालकाय रूप ले लेना, विशालकाय जीव से लड़ाई कर जीत जाना, आदि ऐसे कई भ्रमित करने वाले दृश्य होते हैं, जिसे रियल लाइफ में कल्पना कर पाना मुश्किल होता है.

ऐसे रियलिटी से दूर दृश्यों को आज के दर्शक अधिक पसंद कर रहे हैं लेकिन आज के कुछ हौलीवुड के निर्माता, निर्देशकों का ये भी डर सता रहा है कि वीएफएक्स के अधिक प्रयोग से फिल्मों की कहानी ओरिजिनालिटी से हट जाएगी और कहानी की मुख्य पात्र की भूमिका खत्म हो सकती है, जबकि फिल्म की प्रमुख फाउंडेशन चरित्र ही होता है.

आज के पढ़ेलिखे दर्शक भी ऐसी अनरीयलिस्टिक दृश्यों को कितना सह पाएंगे, ये समझना निर्माताओं के लिए मुश्किल होगा, क्योंकि कोई भी भ्रमित करने वाली कहानियों और फिल्मों को दर्शक कुछ हद तक ही सहन कर सकती है. इस के बाद वे उसका बहिष्कार अवश्य करेंगे और तब सभी को फिर से रियल फिल्मों की ओर आना पड़ेगा.

हिंदी सिनेमा में वीएफएक्स का ट्रेंड

इंडियन सिनेमा में वीएफएक्स का ट्रेंड नया नहीं है. इंडियन सिनेमा में सब से पहले वीएफएक्स का प्रयोग फिल्म प्यार तो होना ही था में किया गया था. बाहुबली सीरीज की दोनों फिल्में भी संभव नहीं हो पाती अगर VFX न होते. इन दोनों फिल्मों को दर्शकों ने काफी पसंद किया. इस के बाद से ही हर बड़ी फिल्म में VFX की खास जगह बन गई है. इन इफैक्ट्स के बिना आजकल फिल्में बनाना शायद किसी भी निर्माता निर्देशक के लिए संभव नहीं.

बनती है फिल्में लार्जर देन लाइफ

जितनी भी हिस्टोरिकल फिल्में बनती हैं, सभी में वीएफएक्स का प्रयोग जम कर किया जाता है. इस तकनीक के द्वारा ही 500 सैनिक 5000 सैनिकों में बदल जाते हैं. बड़ेबड़े महल दिखाए जाते हैं. मुंबई को लन्दन दिखा दिया जाता है. बाहुबली के अलावा पानीपत, जोधा अकबर, केसरी, पद्मावत, हनुमान ऐसी ही फिल्में है जिस में वीएफएक्स के द्वारा ही फिल्मों में जान डाली गई.

बनती है कम बजट की फिल्में

दक्षिण की फिल्मों में वीएफएक्स का प्रयोग आजकल खूब किया जा रहा है. आज जिन फिल्मों का बजट 50 से 60 करोड़ का होता है, उस में VFX का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसा माना जाता है कि वीएफएक्स के प्रयोग से फिल्मों का निर्माण कम बजट में हो जाता है और फिल्में देखने में उम्दा होती हैं. वर्ष 2020 में भारत में VFX का 7,900 करोड़ रुपए का कारोबार था और 2024 तक यह आंकड़ा 14,700 करोड़ पर पहुंच सकता है. आज वीएफएक्स पहले से ज्यादा रियलिस्टिक लगने लगे हैं.

साथ ही इस से फिल्म मेकिंग में 2 साल तक का कम वक्त लग रहा है. मेकर्स के 65 करोड़ रुपए. तक बच रहे हैं और इस का काम भी 300 गुना तेजी से हो जाता है. लगभग 80 परसेंट ऐसी फिल्में हैं, जिन में वीएफएक्स का यूज किया जा रहा है. हालांकि छोटी फिल्मों में भी एक या दो शौट ही वीएफएक्स के होते हैं.

दक्षिणापंथी और पंकज त्रिपाठी के लालच ने डुबाया ‘मैं अटल हूं’, फिल्म अपनी लागत वसूलने में भी रही विफल

हम पिछले कुछ समय से लगातार कहते आए हैं कि पंकज त्रिपाठी, विक्की कौशल, मनोज बाजपेयी और नवाजुद्दीन सिद्दिकी अब केवल ओटीटी के ही स्टार रह गए हैं लेकिन जनवरी के तीसरे सप्ताह यानी कि 19 जनवरी को प्रदर्शित फिल्म ‘मैं अटल हूं’ से साबित हो गया कि पंकज त्रिपाठी अपनेआप को इतना बड़ा स्टार समझने लगे हैं कि अब उसी अहम में वह स्वयं का कैरियर चौपट करने पर आमादा हो गए हैं.
खुद पंकज त्रिपाठी हम से कई बार कह चुके हैं कि वह तो जूम पर विदेशी मीडिया को इंटरव्यू देते हुए इस कदर थक जाते हैं कि दूसरों से बात करने का उन के पास समय ही नहीं होता. वह यह भी बता चुके हैं कि जब वह बेकीसी, मुंबई में एसबीआई बैंक गए तो 600 से ज्यादा बैंक कर्मी बिल्डिंग के शीशे के पीछे से उन्हे देखने के लिए उन का इंतजार कर रहे थे.

पंकज त्रिपाठी का दावा है कि अब हर इंसान उन की एक झलक पाने के लिए लालायित रहता है लेकिन खुद पंकज त्रिपाठी को विचार करना चाहिए कि अगर लोग उन्हें और उन के सिनेमा को देखना पसंद करते हैं तो फिर 20 करोड़ की लागत में बनी फिल्म ‘मैं अटल हूं’, जिस में पंकज त्रिपाठी ने शीर्ष भूमिका निभाई है वह एक सप्ताह के अंदर बौक्स औफिस पर महज साढ़े 7 करोड़ ही कमा सकी.

इस में से निर्माता के हाथ बामुश्किल 3 करोड़ ही लगने वाले हैं. हम यहां याद दिला दें कि फिल्म ‘मैं अटल हूं’ में पंकज त्रिपाठी की पत्नी मृदुला त्रिपाठी सह निर्माता हैं. इस हिसाब से यह कहा जा रहा है कि फिल्म के बजट में पंकज त्रिपाठी की पारिश्रमिक राशि नहीं जुड़ी है, बल्कि उन्हे तो फिल्म की कमाई में हिस्सा मिलना था, जिस से अब वह हाथ धो चुके हैं.

फिल्म ‘मैं अटल हूं’ की बौक्स औफिस पर हुई दुर्गति के लिए सर्वाधिक दोषी पंकज त्रिपाठी के साथ ही फिल्म के प्रचारक हैं, जिन्होंने पिछले सप्ताह ‘मेरी क्रिसमस’ को डुबाने में अहम भूमिका निभाई थी. पंकज त्रिपाठी एक बेहतरीन कलाकार हैं. इस बात को वह अतीत में साबित कर चुके हैं. ऐसे में इन्हें पता होगा कि उन के अंदर अभिनय की क्या कमियां हैं.

फिल्म ‘मैं अटल हूं’ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की बायोपिक फिल्म है. इस की कहानी उन के कालेज दिनों, कालेज दिनों के प्रेम, आरएसएस की शाखाओं में जाने से ले कर प्रधानमंत्री बनने, कारगिल युद्ध और पोखरण तक की कहानी बयां करती है.

फिल्म में पंकज त्रिपाठी सत्रह वर्ष के अटल बिहारी बाजपेयी के किरदार में नजर आते हैं, जहां वह हाफ पैंट पहन कर आएसएस की शाखा में लाठी चला रहे हैं. इस दृष्य के साथ न्याय करने में 47 वर्षीय पंकज त्रिपाठी बुरी तरह से असफल रहे हैं. इतना ही नहीं अटल बिहारी का चेहरा चौड़ा था, जबकि पंकज त्रिपाठी का चेहरा आयताकार है. इसलिए लुक में भी वह मात खा गए.

अटल बिहारी बाजपेयी के भाषण के वक्त की कुछ अदाओं को जरुर उन्होंने पकड़ा है पर कई दृष्यों में वह अटल की जगह पंकज त्रिपाठी ही नजर आते हैं. इस के अलावा कथानक व निर्देशन की भी कमियां रहीं. मगर जब पंकज त्रिपाठी खुद इस फिल्म के निर्माण से जुड़े थे तो उन्हें इस बात का पूरा ख्याल रखना चाहिए था कि वह किरदार के साथ न्याय कर सकें.

मगर यह हमेशा से पाया गया कि जब कलाकार फिल्म की कमाई का हिस्सेदार होता है तो वह कई बार इसलिए चुप रह जाता है कि फिल्म का बजट न बढ़ने पाए. लगता है कि ऐसा ही कुछ ‘मैं अटल हूं’ में भी हुआ, जिस के चलते पंकज त्रिपाठी अपने चेहरे को सही प्रोस्थेटिक मेकअप की मदद से चौड़ा बनाने से रह गए.

इतना ही नहीं ‘मैं अटल हूं’ का प्रमोशन भी बहुत घटिया रहा. अपने प्रचारक की सलाह पर पंकज त्रिपाठी ने साठ पत्रकारों संग ग्रुप इंटरव्यू करने के अलावा कुछ चैनलों से बात कर इतिश्री कर दी. उस के बाद वह शहरों का भ्रमण करने व भाजपा के नेताओं को फिल्म दिखा कर अपनी पीठ जबरन थपथपवाते रहे.

अफसोस भाजपा व आरएसएस ने भी इस फिल्म को तवज्जो नहीं दी. जबकि इस फिल्म के निर्माण से संदीप सिंह भी जुड़े हुए हैं, जिन्होने कुछ वर्ष पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बायोपिक फिल्म बनाई थी, जिसे दर्शक नहीं मिले थे.

हम याद दिला दें कि फिल्म ‘मैं अटल हूं’ का प्रचार उसी शख्स की कंपनी ने किया है, जिस ने पिछले सप्ताह ‘मेरी क्रिसमस’ का प्रचार किया था. 60 करोड़ की लागत वाली फिल्म ‘मेरी क्रिसमस’ 15 दिन में महज साढ़े 18 करोड़ ही इकट्ठा कर सकी.जबकि हिंदी में डब हो कर 12 जनवरी को प्रदर्शित हुई.

19 जनवरी को ही एक दूसरी हिंदी फिल्म ‘‘695’’ (छह नौ पांच ) प्रदर्शित हुई. इस फिल्म के निर्माता व निर्देशक को भरोसा था कि सभी ‘दक्षिणापंथी’ उन की इस फिल्म को देखने के लिए टूट पड़ेंगे और उन की फिल्म हजार करोड़ की कमाई कर लेगी.

इसी वजह से मुंबई के इस्कान मंदिर में एक प्रैस काफ्रेंस करने के अलावा निर्माता ने इस के प्रचार पर एक भी पैसा नहीं लगाया. यह फिल्म इतनी घटिया है कि दक्षिणापंथियों ने भी इस फिल्म को देखना उचित नहीं समझा. जिस के चलते यह फिल्म पूरे सप्ताह में एक करोड़ भी नहीं कमा सकी. इस के निर्माता फिल्म की लागत बताने से दूरदूर भागते रहे.

अरूण गोविल, मनोज जोषी, अखिलेंद्र मिश्रा सहित कई लोकप्रिय कलाकारों के अभिनय से सजी फिल्म ‘छह नौ पांच’ की कहानी ‘श्रीराम जन्म भूमि मंदिर’ के पांच सौ वर्षों के संघर्ष की गाथा है. फिल्म के नाम में छह का अंक ‘छह दिसंबर 1992, जब ढांचा गिराया गया था, का प्रतीक है.

9 का अंक नौ नंवबर 2019 सुप्रीम कोर्ट के फैसले और पांच का अंक पांच अगस्त 2020 है जिस दिन मंदिर का शिलान्यास हुआ था, उस दिन का प्रतीक है. फिल्म की कहानी शिलान्यास पर ही आ कर खत्म हो जाती है. पर फिल्म में कोई कहानी नजर नहीं आती. कई जगह यह डाक्यूमेंट्री नजर आती है. फिल्म का निर्देशन व फिल्मांकन बहुत घटिया है. पता नहीं लोग ‘दक्षिणपंथियों’ के भरोसे इस कदर की घटिया फिल्में बनाने का साहस कैसे कर लेते हैं.

बौलीवुड में चिकने चौकलेटी चेहरे कभी चलने की गारंटी नहीं रहे

70 का दशक हिंदी फिल्मों का सुनहरा दौर कहा जाता है क्योंकि इस वक्त में कलाकरों की पीढ़ी बदल रही थी. राजकपूर, दिलीप कुमार, सुनील दत्त, राजेंद्र कुमार, देवानंद और राजकुमार सरीखे नायकों का कैरियर ढलान पर था और उन की जगह लेने नए नायकों का हुजूम उमड़ने लगा था लेकिन मुकाम राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, जीतेंद्र, संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा और ऋषि कपूर ही हासिल कर पाए जिन्होंने फिल्मों में लम्बी पारी खेली.

तब यह माना जाता था कि हिंदी फिल्मों के हीरो का चेहरा चौकलेटी होना एक अनिवार्यता है और एक हद तक यह सच भी था क्योंकि फिल्मों का भी स्वरूप बदल रहा था. एतिहासिक और पौराणिक फिल्में बनना कम हुई थीं उन की जगह रोमांटिक और एक्शन फिल्में ज्यादा बनने लगी थीं. ऐसे में हीरो से उम्मीद की जाती थी कि वह हीरोइन के साथ पार्कों में नाचे गाए भी और ढिशुमढिशुम में भी खलनायक को धूल चटा दे.

इन शर्तों को पूरा करने के लिए कई जानेअनजाने चेहरे फिल्मों में आए कुछ 3-4 दशक तक चले तो कुछ 3-4 फिल्मों में अपनी धमक दिखा कर गायब हो गए. उन की चर्चा आज भी फिल्म इंडस्ट्री में होती है क्योंकि उन की अभिनय प्रतिभा बिलाशक उत्कृष्ट थी. इन में से कईयों का हश्र देख लगता है कि वाकई फिल्म इंडस्ट्री में किस्मत एक बड़ा फैक्टर है, नहीं तो जो हीरो खासा नाम और कुछ पैसा कमा कर गुमनामी में खो गए या जिन्होंने बी और सी ग्रेड की फिल्मों से ही तसल्ली कर ली वे हीरो बनने के तमाम पैमानों पर खरे उतरते थे.

खासतौर से चेहरे के मामले में जो उन दिनों एक बड़ा फैक्टर हुआ करता था, फैक्टर वह आज भी है लेकिन उस के माने बदल गए हैं. चिकना चौकलेटी चेहरा अब गुम होता जा रहा है उस की जगह अब खुरदुरा सख्त और रफ चेहरा दर्शकों को भाने लगा है.

जो अपने वक्त में चमके लेकिन चमक को बरकरार नहीं रख पाए उन में एक अहम नाम नवीन निश्छल का है जो एक स्टाइलिश हीरो थे. 1970 में प्रदर्शित फिल्म ‘सावन भादो’ से नवीन निश्छल और रेखा दोनों ने फिल्म इंडस्ट्री में पांव रखा था. मोहन सहगल द्वारा निर्मित और निर्देशित यह फिल्म तत्कालीन पारिवारिक विवादों पर आधारित थी. गौरतलब है कि मोहन सहगल की सलाह पर ही नवीन निश्चल ने पुणे के एफटीआईआई से ऐक्टिंग में डिग्री ली थी.

रोमांस, मारधाड़, पारिवारिक षड्यंत्र, नाचगाना सबकुछ ‘सावन भादों’ में था. इसलिए इस ने बौक्स औफिस पर खासा पैसा इकट्ठा किया था. रेखा और नवीन दोनों को दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया था लेकिन नवीन अपना रुतबा और जगह कायम नहीं रख पाए, जबकि रेखा आज भी दर्शकों के दिलों पर राज करती हैं.

‘सावन भादों’ की कामयाबी में गीतसंगीत का भी अहम योगदान रहा था. ‘कान में झुमका चाल में ठुमका कमर पे चोटी लटके हो गया दिल का पुरजा पुरजा…’ और ‘सुनसुन ओ गुलाबी कली…’ गाने तो आज भी शिद्दत से सुने जाते हैं.

तब यह मान लिया गया था कि आने वाला वक्त नवीन निश्छल का है. पर बौलीवुड की खासियत है कि किसी भी कलाकार के कैरियर को किसी एक फिल्म से आंकना बड़ी भूल साबित होती है. यही नवीन के साथ हुआ.

उन की अगली फिल्में उम्मीद के मुताबिक नहीं चलीं हालांकि ‘सावन भादो’ के बाद आईं कुछ फिल्में हिट रहीं थीं मसलन परवाना, नादान, विक्टोरिया नंबर 203, बुड्डा मिल गया, हंसते जख्म और संसार. उन का यह स्टारडम बमुश्किल 3 साल ही रहा. इस के बाद उन की फिल्मों का फ्लौप होना शुरू हुआ तो फिर वे वापसी नहीं कर पाए. वो मैं नहीं, छलिया, पैसे की गुडिया, निर्माण, एक से बढ़ कर एक, से ले कर 1980 में आई कशिश तक लाइन से औंधे मुंह गिरीं थीं.

अब तक नवीन निश्छल गुजरे कल की बात हो चले थे. कुछ फिल्मों में वे बतौर सहायक अभिनेता दिखे जिन में ‘द बर्निंग ट्रेन’ और ‘देश द्रोही’ सरीखी मल्टीस्टारर फिल्मों से दर्शकों को याद आया कि अरे ये तो वही हीरो हैं. साल 1997 में आस्था फिल्म में भी सहायक भूमिका में वे रेखा के साथ नजर आए थे. इस फिल्म में भी उन्होंने प्रभावी अभिनय किया था. रेखा के साथ सैक्सी सीन देते वक्त उन की अभिनय क्षमता एक बार फिर उजागर हुई थी लेकिन तब तक फिल्म इंडस्ट्री में काफी कुछ बदल चुका था और नवीन जैसे आधा दर्जन हीरो फिलर हो कर रह गए थे.

नवीन निश्चल को वह मुकाम नहीं मिला जिस के वे हकदार थे तो इस की और भी कई वजहें हैं. मसलन उन की पारिवारिक जिंदगी. उन की दूसरी पत्नी गीतांजली ने साल 2006 में आत्महत्या कर ली थी. इस मामले में उन पर प्रताड़ना के आरोप लगे थे जिस के चलते कुछ दिन जेल की हवा भी उन्हें खानी पड़ी थी.

नवीन की पहली शादी नीलू कपूर से हुई थी जो देवानंद की नातिन थीं. 2-3 साल ही सही उन का कैरियर शबाब पर रहा और इसी दौरान वे केबरे डांस के लिए ज्यादा पहचानी जाने वाली ऐक्ट्रैस पद्मिनी कपिला से इश्क लड़ा बैठे थे. इस वजह से उन का नीलू से तलाक हुआ था.

आखिरी बार वे खोसला का घोसला फिल्म में नजर आए थे. इस के पहले कुछ टीवी सीरियल्स में भी उन्हें देखा गया था. साल 2011 में होली खेलने जब वे मुंबई से पुणे जा रहे थे तब हार्टअटैक से उन की मौत हो गई थी.

फिल्म इंडस्ट्री में नवीन निश्चल जैसे कलाकरों का योगदान कमतर नहीं आंका जा सकता जो आधे सफल और आधे असफल साबित हुए. ऐसा ही एक चर्चित नाम चिकने चेहरे वाले अभिनेता विनोद मेहरा का भी है. उन की पहली फिल्म तनूजा के साथ आई थी जिस का नाम था ‘एक थी रीता’.

1971 में ही प्रदर्शित 2 चर्चित फिल्मों लाल पत्थर और एलान से उन्हें पहचान मिली. विनोद मेहरा के चेहरे और व्यक्तित्व में एक खास किस्म की कशिश थी जो दर्शक उन्हें बारबार देखना पसंद करते थे. वे महज 45 साल जिए लेकिन इस दौरान उन्होंने कोई 90 फिल्मों में काम किया और हर फिल्म में अपनी ऐक्टिंग का लोहा मनवाया, फिर वह फिल्म ‘सफेद झूठ’ जैसी फ्लौप रही हो या ‘दो फूल’ जैसी हिट रही हो.

एलान फिल्म में वे एक खोजी पत्रकार की भूमिका में नजर आए थे. इत्तफाक से इस में उन के अपोजिट भी सावन भादो वाली रेखा ही थीं. इसी फिल्म में विनोद खन्ना भी एक अहम रोल में थे जो उन दिनों इंडस्ट्री में पहचान बनाने के लिए स्ट्रगल कर रहे थे.

इस फिल्म में ठूसठूस कर निर्देशक के रमनलाल ने मसाले भरे थे इसलिए फिल्म ने ठीकठाक बिजनेस कर लिया था लेकिन इस से विनोद मेहरा अपनी पहचान बनाने में सफल रहे थे. अगली ही फिल्म लाल पत्थर से वे समीक्षकों की निगाह में भी चढ़ गए थे क्योंकि इस फिल्म में राजकुमार, हेमा मालिनी और राखी जैसे मंझे कलाकारों से उन का मुकाबला था, जिस में वे कहीं से हल्के या कमजोर नहीं पड़े थे.

इस फिल्म में पियानो पर उन पर फिल्माया गाना ‘गीत गाता हूं मैं गुनगुनाता हूं मैं’, ‘मैं ने हंसने का वादा किया था इसलिए अब सदा मुस्कुराता हूं मैं…’ काफी हिट हुआ था.

कैमरे का सामना विनोद महरा ने बहुत कम उम्र में ही कर लिया था. 50 के दशक की 3 फिल्मों ‘अदल ए जहांगीर’, ‘रागिनी’ और ‘बेवकूफ’ फिल्मों में वे बाल कलाकार की भूमिका में देखे गए थे तुरंत इस के बाद उन्हें अमर प्रेम में देखा गया था लेकिन इस में वे सहायक कलाकार थे यह वह फिल्म थी. इस ने राजेश खन्ना को सुपर स्टार का दर्जा दिलाया था.

जानकर हैरानी होती है कि ये वही राजेश खन्ना थे जिन्हें 1965 में एक अखिल भारतीय प्रतिभा खोज प्रतियोगिता से खारिज कर दिया गया था और विनोद मेहरा को रनर का खिताब दिया गया था. लाल पत्थर और अमर प्रेम से विनोद मेहरा को कुछ फायदे भी हुए थे तो कुछ नुकसान भी उन्हें उठाना पड़े थे. उन पर अघोषित रूप से सहायक अभिनेता का ठप्पा लग गया था जो आखिर तक उन से चिपका रहा.

1973 शक्ति सामंत की ‘अनुराग’ फिल्म से उन्हें एक अलग पहचान मिली थी लेकिन वह भी तात्कालिक ही साबित हुई. इस फिल्म का नायक राजेश एक रईस परिवार का युवक है जो एक अंधी लड़की शिवानी ( मौसमी चटर्जी ) से प्यार करने लगता है. ‘अमर प्रेम’ के उलट अनुराग में राजेश खन्ना एक सहायक भूमिका में दिखे थे लेकिन फिल्म की सफलता का श्रेय बतौर हीरो विनोद मेहरा को ही मिला था. भावुकता से भरी इस फिल्म को सभी वर्गों के दर्शकों ने पसंद किया था.

इस के बाद विनोद महरा लीड रोल में कम ही दिखाई दिए लेकिन सहायक अभिनेता के तौर पर उन की कई फिल्मों ने कामयाबी के झंडे गाड़े. इन में साजन बिना सुहागन, स्वर्ग नर्क, कर्तव्य जुर्माना, खुद्दार, बेमिसाल, जानी दुश्मन, द बर्निंग ट्रेन, चेहरे पे चेहरा, प्यासा सावन, नौकर बीबी का के नाम उल्लेखनीय हैं. कशिश और द बर्निंग ट्रेन में नवीन निश्चल उन के साथ नजर आए थे.

विनोद मेहरा की संवाद अदायगी का अपना अलग अंदाज था जो कूल कहा जा सकता है. एक ऐसा अभिनेता जो आमतौर पर शांत दिखता है लेकिन उन की व्यक्तिगत जिंदगी भी उथलपुथल भरी रही. खूबसूरत और आकर्षक इस अभिनेता ने तीसरी शादी रेखा से की थी जिसे ले कर आज भी फिल्म इंडस्ट्री में तरहतरह की अफवाहें और बातें होती रहती हैं.

रेखा भी आमतौर पर इस पर खामोश रहती हैं. खुद जिन्होंने 3 शादियां की थीं. कहा जाता है कि 1973 में हुई रेखा विनोद की शादी 60 दिन ही चली थी. विनोद मेहरा की मां रेखा को पसंद नहीं करती थीं. इंडस्ट्री से जुड़े कुछ लोग यह भी मानते हैं कि दरअसल में इन दोनों ने शादी नहीं की थी यह एक चर्चित अफेयर था.

अफेयर तो विनोद मेहरा का ऐक्ट्रैस बिंदिया गोस्वामी से भी चला था जो शादी में भी तब्दील हुआ था लेकिन यह शादी भी ज्यादा नहीं चली और दोनों अलग हो गए. विनोद मेहरा की पहली शादी 1974 में मीना नाम की युवती से हुई थी जो महज 4 साल ही चली. बाद में दोनों ने तलाक ले लिया था.

उन्होंने आखिरी शादी किरण से 1987 में की थी. किरण से उन्हें 2 बच्चे भी हुए. अब विनोद मेहरा को चाहने वालों को लगने लगा था कि उन के भटकाव का दौर खत्म हो चुका है तभी 1990 में उन की जिंदगी ही खत्म हो गई वजह वही थी हार्ट अटैक.

इस में कोई शक नहीं कि विनोद मेहरा ने एक शानदार जिंदगी जी और अपनी शर्तों और समझौतों में जी. बौलीवुड के वह पहले ऐसे हीरो थे जो अपने दौर में किसी से उन्नीस नहीं था लेकिन उस ने कभी सहायक भूमिकाओं में आने को अपनी हेठी नहीं समझा.

चिकने चौकलेटी चेहरों की लिस्ट में एक अहम नाम अनिल धवन का भी शुमार होता है जो नवीन निश्छल और विनोद मेहरा के बराबर ही प्रतिभाशाली थे लेकिन उन के चेहरे पर एक अलग किस्म की मासूमियत भी थी. अनिल धवन का बेटा सिद्धार्थ भी पिता की तरह अभिनय के झंडे गाड़ रहा है तो भाई डेविड धवन का नाम किसी सबूत का मोहताज नहीं.

कानपुर से मुंबई फिल्मों में किस्मत आजमाने गए अनिल ने भी पुणे के एफटीआईआई से कोर्स किया था. जया भादुरी उन की बेचमेट थीं जिन के साथ उन्होंने साल 1972 में पिया का घर फिल्म में काम किया था. हालांकि उन्हें पहचान अपनी पहली ही फिल्म चेतना से ही मिल गई थी जिस में उन के अपोजिट रेहाना सुल्तान थीं.

चेतना की कहानी लीक से हट कर थी जिस में एक युवक एक कौलगर्ल से न केवल प्यार करने लगता है बल्कि उस से शादी भी कर लेता है लेकिन बाद की दुश्वारियां नहीं झेल पाता. 70 के दशक के युवाओं को यह फिल्म काफी पसंद आई थी क्योंकि नायक ने समाज से लड़ने का दुसाहस किया था. इस फिल्म का गाना ‘मैं तो हर मोड़ पर तुझ को दूंगा सदा…’ आज के प्रेमियों में भी उतना ही लोकप्रिय है जितना 60-62 साल पहले के प्रेमियों में हुआ करता था.

चेतना फिल्म के बिलकुल उलट ‘पिया का घर’ एक अलग समस्या पर बनी फिल्म थी जिस में महानगर के कपल्स को प्यार करने जगह और मौके कम मिलते हैं क्योंकि वे संयुक्त परिवार में रहते हैं जो दो कमरों के मकान में रहता है. विषय यह भी नया था और बासु चटर्जी के सधे निर्देशन ने तो इसे और भी प्रासंगिक बना दिया था. अनिल और जया दोनों को इस फिल्म से पहचान और तारीफें दोनों मिले थे लेकिन जल्द ही अनिल छोटीमोटी भूमिकाओं में सिमट कर रह गए.

शुरुआती फिल्में सफल हुईं तो अनिल धवन को भी कामयाब मान लिया गया. लेकिन दोचार हिट फिल्में देने के बाद भी उन की गाड़ी पटरी से उतर गई. दोराहा, मन तेरा मन मेरा, प्यार की कहानी और यौवन व हवस जैसी फिल्मों को बौक्स औफिस पर भाव नहीं मिला. इस के बाद वे भी बी ग्रेड की फिल्में करने लगे. मसलन सिक्का, ओ बेवफा और ताकतवर. हौरर फिल्में बनाने के लिए कुख्यात रामसे ब्रदर्स की फिल्मों ‘पुरानी हवेली’ और ‘खूनी पंजा’ वगैरह में भी उन्होंने एक्टिंग की लेकिन देख कर लगा नहीं कि ये वही अनिल धवन हैं जिन्होंने चेतना और पिया का घर जैसी प्रयोगवादी फिल्मों में शानदार अभिनय किया था.

बाद में कुछ वक्त काटने और कुछ पैसा कमाने की गरज से कुछ टीवी सीरियलों में भी उन्होंने काम किया लेकिन इस दौर का दर्शक उस दौर के अनिल धवन को नहीं जानता था. हां कुछ चरित्र भूमिकाओं में जरुर उन्होंने अपनी हाजिरी दर्ज कराई, जैसे हिम्मतवाला, जोड़ी नंबर वन और चल मेरे भाई सहित हसीना मान जाएगी.

जो चिकना चौकलेटी चेहरा कामयाबी की गारंटी माना जाता है वह न तो 70 के दशक में स्वीकार किया गया और न ही आज स्वीकार जा रहा है क्योंकि दर्शक खासतौर से युवा फिल्म के हीरो में खुद को तलाश करते हैं. यह बात उन्हें तीनों खान से ले कर कार्तिक आर्यन, राजकुमार राव और आयुष्मान खुराना में दिखती है तो बात कतई हैरत की नहीं.

गांव में स्वाद ढूंढते दुनिया के मशहूर शैफ

किसी ठेलेवाले की पत्ते पर दी गई चाट अगर जुबान को भा गई तो उस के आगे फाइव स्टार होटल की एक्सपैंसिव कटलरी में परोसी गई चाट फीकी मालूम पड़ती है. मटन-चिकेन खाने के शौकीनों की दुकानें बंधी होती हैं. वे उस स्वाद के लिए बारबार उन्हीं दुकानों पर जाते हैं. लिट्टीचोखा का स्वाद ढूंढने वाले किसी बिहारी बाबू के ठेले को ढूंढते हैं तो सांभर वड़ा या सांभर डोसा खाने का मजा साउथ इंडियन होटल में ही आता है.

अब तो चटपट बन जाने वाला जो भोजन पहले ठेलों या ढाबों पर मिलता था, अब कुछ सलीके और सफाई से बड़ेबड़े होटलों में भी मिलने लगा है. पहले गोलगप्पे खाने के लिए हम अपने पड़ोस में लगने वाले ठेले पर पहुंच जाते थे और 20-30 रूपए में भरपेट गोलगप्पे खाते थे. ठेलेवाले से इसरार कर के एकाध ज्यादा ही खा लेते थे. उस के बाद गोलगप्पे के नमकीन धनिया वाले पानी में सोंठ वाली चटनी डलवा कर पीना तो जैसे हमारा जन्मसिद्ध अधिकार था.

ठेलेवाले के द्वारा एकएक गोलगप्पा हमारी कटोरी में डाला जाता और हम एकएक गोलगप्पे का आनंद उठाते थे. गोलगप्पे की प्लेट अब बड़ेबड़े होटलों में भी और्डर कर सकते हैं. वहां 100 रूपए में 4 गोलगप्पे मंहगी प्लेट में सज कर आ जाते हैं. साथ ही एक कटोरे में नमकीन पानी और सोंठ की चटनी साथ होती है. आप खुद गोलगप्पे में चटनी और पानी डालिये और खाइए. इस में कोई मजा नहीं आता.

आज भले बड़ेबड़े होटलों में वो सारी चीजें सर्व की जाती हों जो सड़क पर बिकती हैं, मगर जो स्वाद ठेलेवाले की चाटपकौड़ी, चाउमीन, समोसों, लिट्टीचोखे, टिक्के, कबाब में आता है. वह स्वाद एयरकंडीशन होटल की साफ मेज और महंगी कटलरी में परोसे गए खाने में नहीं आता. कई बड़े शैफ इस चीज को समझते हैं और शायद यही वजह है कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में बनने वाले बहुत पकवानों को जानने और बनाने का तरीका सीखने के लिए वे ग्रामीण अंचलों में घूमते और वहां स्थानीय लोगों से कई तरह की चीजें बनाना सीखते दिखते हैं.

लखनऊ से ताल्लुक रखने वाले जानेमाने शैफ रणबीर बरार को नईनई डिशेज सीखने के लिए देश के कोनेकोने में घूमते देखा गया है. वे कभी राजस्थान के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में किसी कच्चे मकान में मिट्टी के चूल्हे पर किसी राजस्थानी महिला से बाजरे की रोटी बनाना सीख रहे होते हैं तो कभी केरल के किसी गांव में नारियल की मिठाई बनाने की रैसेपी अपनी डायरी में नोट करते मिलते हैं.

फाइव स्टार होटल में सब से कम उम्र के शैफ बनने से ले कर खुद के कुकिंग शो की मेजबानी करने के बाद भी रणबीर बरार को लगता है कि जो स्वाद ग्रामीण क्षेत्रों में बनने वाले उन के पारंपरिक खानों में है, वह स्वाद वे अभी तक अपने ग्राहकों को नहीं दे पाए हैं.

पश्चिमी भारत के छोटे और वस्तुतः अज्ञात शाही राज्यों की यात्रा करने से ले कर, एक वेब श्रृंखला करने के लिए आस्ट्रेलिया जाने तक, बरार हमेशा आप की रसोई और प्लेटों में अप्रत्याशित चीज़ें ले कर आते हैं. शैफ बरार लगातार पाक खोज में खुद को भोजन-सूफी कहते हैं.

गैरी मेहिगन एक अंग्रेजी-आस्ट्रेलियाई शैफ और रेस्तरां मालिक हैं. मेहिगन नेटवर्क 10 श्रृंखला मास्टरशैफ आस्ट्रेलिया के मूल न्यायाधीशों में से एक थे. उन्होंने बर्नहैम बीचेस कंट्री हाउस और होटल सोफिटेल सहित मेलबर्न के कुछ सब से प्रमुख रेस्तरां में रसोई का नेतृत्व किया है. आस्ट्रेलियन शैफ गैरी मेहिगन का इंडियन खाने से खास लगाव है, फिर चाहे वो दाल-चावल ही क्यों न हो. दुर्गा पूजा के दौरान कोलकाता में उन्मादी भीड़ के बीच चिंतन के क्षणों से ले कर हैदराबाद में ईद के लिए हलीम कैसे बनाया जाता है, यह जानने तक, गैरी मेहिगन ने अपने नए शो इंडियाज मेगा फैस्टिवल्स के लिए नेशनल ज्योग्राफिक के साथ देशभर की यात्रा है.

गैरी ने भारत की यात्रा के दौरान केरल से ले कर कश्मीर तक के ग्रामीण अंचलोन में घूमघूम कर यहां के अनेक पकवानों को स्थानीय लोगों के साथ रह कर सीखा और अपने होटलों में उन्हें इंट्रोड्यूस किया. हाल ही में गैरी नागालैंड में एक उत्सव के दौरान वहां के जनजातीय समूहों के साथ रहे और उन्होंने वहां अनेक नागा व्यंजनों को बनाने के विधि देखी और सीखी.

अपने एक टीवी शो में वे राजस्थान में रेत के अंदर गड्ढा खोद कर उस में कोयला जला कर विभिन्न मसालों में मेरिनेट किया हुआ गोश्त भूमिगत अवन में पकाते नजर आए. उन्होंने कुछ औथेंटिक साउथ इंडियन व्यंजनों का आनंद लेने और सीखने के लिए एक पौपुलर कैफे में रुकने का फैसला किया. सोचिए वे कहां गए होंगे? शैफ गैरी फेमस रामेश्वरम कैफे में थे, जहां उन्होंने रागी डोसा, घी रोस्ट डोसा, मेदु वड़ा, घी पोडी इडली, केसरी बाथ और निश्चित रूप से फिल्टर कौफी का एक फ्रेश गिलास इंजौय किया और इन साउथ इंडियन व्यंजनों को बनाने के तरीके सीखे. निश्चित रूप से इन्हें वे अपने होटलों में इंट्रोड्यूस करेंगे.

एक इंटरव्यू के दौरान गैरी कहते हैं कि उन के द्वारा बनाई गई डिश नौर्मल हुआ करती थीं लेकिन 2010 के बाद से वो जब भी भारत आते हैं, यहां के खानपान की रैसिपी इकट्ठा करते हैं. अब उन के पास 30 से 40 भारतीय मसालें है, तरहतरह के आइटम हैं, जिस में से हल्दी, सौंफ, इलायची और काली मिर्च तो गैरी के पसंदीदा हैं. नागालैंड के खानपान को ले कर गैरी का कहना है कि नागा में रेड वुड वार्म, सिल्क वार्म और कई चीजों को डीप फ्राई कर के नहीं बनाया जाता. इसे सिर्फ पानी में पकाते हैं, अदरक, लहसुन जैसी चीजें डाली जाती हैं. यहां तक कि इन में मसालों का प्रयोग भी नहीं होता लेकिन फिर भी यह बहुत स्वादिष्ट लगता है.

गैरी कहते हैं कि वो साउथ इंडियन स्टाइल में काली मिर्च फ्लेवर के साथ चिकन बनाते हैं जो उन के परिवार को भी काफी पसंद है. सब से आसान और स्वादिष्ट दाल तड़का गैरी भी फटाफट बना लेते हैं. कमाल की बात यह है कि उन की बेटी इस के साथ लच्छा पराठा बनाना पसंद करती है. गैरी अपने घर पर हैदराबाद स्टाइल बिरियानी भी पकाते हैं.

Curd Rice Benefits : अगर आप भी हैं कर्ड राइस लवर्स, तो जानें इसे खाने के गजब के फायदे

Curd Rice Benefits : दही और चावल दोनों को ही हेल्दी डाइट माना जाता हैं. रोजाना एक कटोरी दही खाने से पाचन तंत्र, हड्डियां और इम्यूनिटी मजबूत होती है, तो वहीं चावल खाने से शरीर को एनर्जी मिलती है. लेकिन क्या आपको ये बात पता है कि दही और चावल दोनों को साथ में खाने से शरीर स्वस्थ रहता है. साथ ही वजन कम करने में भी काफी मदद मिलती है.

खासतौर पर साउथ इंडिया में लोग दही चावल को बड़े चाव से खाते हैं. इसके अलावा फिटनेस ट्रेनर भी इसे खाने की सलाह देते हैं. दही-चावल को साथ में खाने से ये स्वादिष्ट तो लगता ही है. साथ ही शरीर को कई फायदे भी मिलते हैं, तो चलिए अब जानते हैं दही-चावल यानी कर्ड राइस (Curd Rice Benefits) खाने के फायदों के बारे में.

दही चावल खाने के फायदे    

पाचन होगा दुरुस्त

आपको बता दें कि दही को प्रोबायोटिक फूड माना जाता है, जो आंतों के लिए अच्छा होता है. साथ ही इसे खाने से पाचन से जुड़ी कई समस्याओं से छुटकारा भी मिलता है, तो वहीं चावल को प्रोटीन का समृद्ध स्रोत माना जाता हैं. इसलिए जिन लोगों को पाचन से जुड़ी दिक्कत रहती है, उनके लिए कर्ड राइस (Curd Rice Benefits) खाना काफी फायदेमंद होता है.

तनाव होगा कम

जिन लोगों को छोटी-छोटी बातों पर तनाव होने लगता है या वो हर बात पर बहुत ज्यादा चिंता करने लगते हैं. उन्हें तो अपनी डाइट में कर्ड राइस को जरूर शामिल करना चाहिए. दरअसल, कर्ड राइस में एंटीऑक्सीडेंट और हेल्दी फैट्स दोनों की भरपूर मात्रा होती है, जिससे तनाव से छुटकारा मिल सकता है.

शरीर को मिलेगी एनर्जी

दही-चावल में सभी जरूरी पोषक तत्व होते हैं, जिससे शरीर को इंस्टेंट एनर्जी मिलती है. इसलिए फिटनेस ट्रेनर भी इसे खाने की सलाह देते हैं.

स्किन रहेगी हेल्दी

दही चावल (Curd Rice Benefits) में वो सभी जरूरी गुण होते हैं, जिससे त्वचा स्वस्थ रहती हैं. इसलिए जो लोग नियमित रूप से कर्ड राइस का सेवन करते हैं, उन्हें स्किन से जुड़ी समस्याओं के होने का खतरा बहुत ज्यादा कम हो जाता है. इसके अलावा उनके चेहरे पर ग्लो भी आने लगता है.

रोग प्रतिरोधक क्षमता होगी मजबूत

कर्ड राइस में प्रोबायोटिक्स की उच्च मात्रा होती है, जिससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है. इसके अलावा संक्रमण होने का खतरा भी बहुत ज्यादा कम हो जाता है.

अधिक जानकारी के लिए आप हमेशा डॉक्टर से परामर्श लें.

Anjeer Benefits : हेल्दी रहने के लिए जरूर खाएं अंजीर, जानें इसे खाने का सही तरीका

Figs Health Benefits : सर्दियों में शरीर को स्वस्थ रखना एक बड़ी चुनौती बन गई है, क्योंकि ना चाहते हुए भी इस मौसम में संक्रमण और मौसमी बीमारियों के होने का खतरा काफी बढ़ जाता है. इसलिए जरूरी है कि आप अपनी डाइट में उन चीजों को शामिल करें, जिससे आप हेल्दी रहे.

अंजीर को विंटर का सुपरफूड माना जाता है, क्योंकि ये शरीर के लिए काफी फायदेमंद होता है. इसलिए इस मौसम में आप अपनी डाइट में अंजीर को शामिल कर सकते हैं. वैसे तो अंजीर को साल भर खाया जा सकता है, लेकिन सर्दियों में इसे खाने से ना सिर्फ बॉडी गर्म रहती है, बल्कि सर्दी, जुकाम, खांसी और नाक बहने आदि समस्याओं से भी छुटकारा मिलता है. इसके अलावा इसमें एंटीऑक्सीडेंट्स, पॉलीफेनोल्स और डाइटरी फाइबर की भी उच्च मात्रा होती है.

आइए अब जानते हैं अंजीर (Anjeer Health Benefits) खाने के सही तरीके व फायदों के बारे में.

अंजीर खाने के फायदे

पाचन तंत्र होगा दुरुस्त

अंजीर (Figs Health Benefits) में फाइबर की भरपूर मात्रा होती है. इसलिए जिन लोगों को गैस, कब्ज, मतली और पेट से जुड़ी समस्याएं रहती है. वो खाना खाने के बाद 2 से 3 टुकड़े अंजीर के खा सकते हैं. इससे उनका पेट साफ होगा. साथ ही पाचन तंत्र दुरुस्त रहेगा.

शुगर रहेगा कंट्रोल

डायबिटीज के मरीजों के लिए भी अंजीर खाना काफी फायदेमंद होता है. सर्दियों में अंजीर को नियमित रूप से खाने से रक्त शर्करा के स्तर में सुधार आता है, जिससे ब्लड शुगर को कंट्रोल करने में मदद मिलती हैं.

स्किन पर आएगा ग्लो

अंजीर को सुबह खाली पेट खाना सबसे ज्यादा फायदेमंद होता है. इसके लिए अंजीर के 2 से 3 टुकड़े रात में पानी में भिगोकर रखे दें और सुबह खाली पेट उन्हें खाएं. लगभर महीनेभर इस तरह अंजीर खाने से बेजान और रूखी त्वचा से छुटकारा मिलेगा. साथ ही त्वचा पर ग्लो भी आने लगेगा. दरअसल, अंजीर में विटामिन ए, विटामिन सी और विटामिन ई आदि सभी जरूरी पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा होती है, जो स्किन को स्वस्थ रखने में मदद करते हैं.

हड्डियां रहेंगी मजबूत

अंजीर (Anjeer Health Benefits) में कैल्शियम और फास्फोरस की भी भरपूर मात्रा होती है, जिससे हड्डियां स्वस्थ रहती है. इसलिए जिन लोगों को सर्दियों में जोड़ों में दर्द की समस्या रहती है, उन्हें तो अंजीर को अपनी डाइट में जरूर शामिल करना चाहिए.

हार्ट रहेगा हेल्दी

अंजीर में ओमेगा 3 और ओमेगा 6 जैसे हेल्दी फैट पाए जाते हैं, जो दिल के लिए जरूरी होते है. इसके अलावा इसमें फ्लेवोनोइड्स, फाइबर और पॉलीफेनोल भी होते हैं जो शरीर को फ्री- रैडिकल डैमेज से बचाने के साथ-साथ हार्ट के लिए अच्छे होते हैं.

अधिक जानकारी के लिए आप हमेशा डॉक्टर से परामर्श लें.

बिहार राजनीति में फिर से उलट, पौराणिक है पलटी और पाला कल्चर

बिहार की जनता के बाद सब से ज्यादा सकते और नुकसान में कोई है तो वे तेजस्वी यादव ही होंगे. बीते डेढ़ साल से चाचा नीतीश कुमार उन्हें छाती से लगाए घूम रहे थे, जिस के चलते मान यह लिया गया था कि युवा तेजस्वी बिहार के अगले मुख्यमंत्री होंगे.

इतिहास गवाह है कि मामाओं ने तो भांजों को परेशान किया है. उन्हें जान से मारने तक की कोशिश की लेकिन चाचाओं ने भतीजों की राह में कभी ऐसी दुश्वारियां खड़ी नहीं कीं जैसी कि बिहार के मुख्यमंत्री अपने उप मुख्यमंत्री भतीजे तेजस्वी यादव की राह में खड़ी कर रहे हैं.

बिहार में तेजस्वी की इमेज एक ऐसे परिपक्व नेता की बनती जा रही है जो आमतौर पर शांत और प्रतिक्रियाहीन रहना ज्यादा पसंद करता है. जबकि उन के पिता राजद मुखिया एक बड़बोले नेता के तौर पर जाने और पसंद भी किए जाते रहे हैं.

विरासत में मिली राजनीति को तेजस्वी ने सहेज कर ही रखा है और काम पर ज्यादा फोकस किया है. 3 दशकों से बिहार की राजनीति बेहद उथलपुथल भरी रही है. सरकारें गठबंधनों की ही बनती रहीं जिस की कमान पिछड़ों के हाथ में ही ज्यादा रही. पहले लालू यादव और फिर नीतीश कुमार ही बारीबारी मुख्यमंत्री बनते रहे. बीच में थोड़ा मौका दलित नेता हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के मुखिया जीतनराम मांझी को मिला था.

उठापटक और जोड़तोड़ के इस खतरनाक खेल को आज भी तेजस्वी मासूमियत से ही देख रहे हैं. बिहार की जनता की ही तरह वे यह भी बेहतर जानते हैं कि लालू यादव कोई ऐसीवैसी हस्ती या खिलाड़ी का नाम नहीं है हालांकि नीतीश के नए पैतरों से लालू भी कम बौखलाए हुए नहीं हैं, जिन्होंने अप्रैल 2019 में लोकसभा चुनाव की वोटिंग के वक्त नीतीश कुमार के बारे में ट्वीट किया था कि –

– वह दोमुंहा सांप है. कब किधर जाएगा किसी को पता है. कोई लेगा उस की गारंटी? लेगा कोई?. गौरतलब है कि नीतीश को पलटू राम नाम भी लालू ने ही दिया था. इस के पहले 3 अगस्त 2017 को लालू ने एक ट्वीट करते कहा था कि-

– नीतीश सांप है जैसे सांप केंचुल छोड़ता है वैसे ही नीतीश भी केंचुल छोड़ता है और हर 2 साल में सांप की तरह नया चमड़ा धारण कर लेता है किसी को शक ?

इस पर एक यूजर एनके खेतान ने चुटकी लेते प्रतिक्रिया दी थी कि लो भाई अब तो एनाकोंडा को भी नीतीशजी सांप लगने लगे हैं. हालिया उठापठक पर लालू के ट्वीट का हवाला देते एक यूजर मुलायम सिंह यदुवंश लिखते हैं, ‘बिहार में मौजूदा सरकार रहेगी या नहीं यह 1-2 दिन में तय हो जाएगा लेकिन नेता के रूप में तेजस्वी यादव ने अपना कद इतना बड़ा कर लिया है कि 18 साल से मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार बौने दिखने लगे हैं. विश्वसनीयता के मामले में नीतीश देश के राजनेताओं में सब से नीचे हैं.’

तो फिर क्यों यादव परिवार ने सांप को गले में लटकाया था जबकि सांप के काटे का मंत्र उसे नहीं आता. जाहिर है यह जेल में बंद लालू का पुत्र मोह था. वह तेजस्वी को बिहार का मुख्यमंत्री बनते देखना चाहते थे. हालफिलहाल तो उन के मंसूबों पर छोटे भाई ने पानी फेर दिया है.

लेकिन ऐसा क्या हो गया था कि नीतीश कुमार एकाएक ही घबरा गए? इस का जबाब खोजने 10-12 दिन पीछे चलना पड़ेगा लेकिन उस के भी पहले यह मानना पड़ेगा कि तेजस्वी यादव की बढ़ती लोकप्रियता और स्वीकार्यता से नीतीश डरने लगे थे और उसे हजम नहीं कर पा रहे थे. यह एक फिजूल की बात और बहाना है कि इंडिया गठबंधन में उन्हें उन की हैसियत के मुताबिक इज्जत नहीं मिल रही थी और उन्हें प्रधानमंत्री भी घोषित नहीं किया गया था जिस के चलते उन्हें घुटन हो रही थी.

18 जनवरी को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव पटना पहुंचे थे तो बिहार के भाजपाई यादवों ने ड्रामा ऐसा किया मानो साक्षात कृष्ण आ गए हों और उन के हाथ में सुदर्शन चक्र भी है. सियासी हलकों में मोहन यादव को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाए जाने की बड़ी वजह यही मानी गई थी कि भाजपा यादवों से अपनी दूरी कम करना चाहती है और अपनी यादव विरोधी इमेज भी धोना चाहती है.

मोहन यादव को यह पट्टी पढ़ा कर भेजा गया था कि तुम्हें वहां लालू या नीतीश की नहीं बल्कि कृष्ण और यदुवंश की जज्बाती बातें करते रहना है और यही यादव लेंड में मोहन यादव ने किया भी. जब भी उन्होंने कृष्ण और मोदी का नाम लिया तब उन के नाम के जयकारे लगे.

ऐसे में मुमकिन है कि लालू यादव का नाम लेने पर मीटिंग में मौजूदा यादव झोंक में उन की भी जयजयकार कर देते. ऐसा अगर होता तो भगवा गैंग की खासी किरकिरी होती. हालांकि इन बातों के कोई तात्कालिक या दीर्घकालिक माने नहीं हैं ऐसा सोचना भी जल्दबाजी होगी. लेकिन यह इत्तफाक की बात नहीं है कि मोहन यादव के पटना दौरे के बाद ही नीतीश को दोबारा भगवा खेमे में सहारा दिखा और वह भूल गए कि सार्वजनिक तौर पर वह कह चुके हैं कि मर जाऊंगा लेकिन भाजपा से हाथ नहीं मिलाऊंगा.

अब सक्रांति बाद बिहार में खिचड़ी जो भी पकती रही हो जल्द सामने आ जाना है लेकिन यह तय दिख रहा है कि अगर कोई डील नीतीश और भाजपा के बीच हुई है तो उस के तहत यादवों को ज्यादा अहमियत दी जाएगी. मुमकिन है एक उपमुख्यमंत्री यादव समुदाय से लिया जाए.

शल्य या युयुत्सु

बिहार में अब क्या होगा इस सस्पेंस से पर्दा उठने में अभी कुछ घंटे बाकी हैं. लेकिन पलटी मार, पलटू राम और पाला बदलू के नाम से कुख्यात हो गए नीतीश कुमार को देख सहज ही महाभारत के 2 पात्रों युयुत्सु और शल्य की याद हो आती है.

महाभारत के युद्ध के पहले ही पांडवों के बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर ने एलान किया था कि यह धर्मयुद्ध है और वह अधर्म के खिलाफ लड़ रहे हैं. यदि कोई योद्धा अधर्म के खिलाफ लड़ना चाहता है तो उस का स्वागत है.

युयुत्सु कौरवों में से एक था लेकिन दासी पुत्र था जिस का एक नाम सुधड़ा भी था. कहा जाता है कि वह इकलौता कौरव था जो सामान्य प्रसव से पैदा हुआ था. युधिष्ठिर की बात सुन वह पांडव सेना में शामिल हो गया था और कौरवों के खिलाफ लड़ा था. दिलचस्प बात यह भी है कि वह इनेगिने कौरवों में से एक था जो युद्ध के बाद जिंदा बच गए थे. और जिसे युधिष्ठिर ने अपना मंत्री भी बनाया था. गांधारी और धृतराष्ट्र का अंतिम संस्कार भी उसी ने किया था.

बिहार की लड़ाई भी कुछकुछ धर्म और अधर्म की बनाई जा रही है जिस की जड़ में राजद कोटे से मंत्री चन्द्र शेखर यादव हैं, जिन का पिछले दिनों ही नीतीश कुमार ने विभाग बदला है. शिक्षा मंत्री रहते चन्द्र शेखर यादव हर कभी रामचरित मानस की बखिया उधेड़ते रहे थे. उन के मुताबिक यह ग्रंथ भेदभाव फैलाने वाला है.

कुछ दिन पहले तो उन्होंने रामचरित मानस की तुलना पोटेशियम साइनाइड तक से कर दी थी. भगवा गैंग के नजरिए से तो चन्द्र शेखर विधर्मी टाइप के आइटम हैं. ठीक वैसे ही जैसे सपा के स्वामी प्रसाद मौर्य और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री हम के मुखिया जीतनराम माझी हैं.

बिहार कभी सनातन विरोधी माने जाने वाले वामदलों का गढ़ रहा है और उस का असर अभी भी वहां है, जहां उस के 243 में से 16 विधायक हैं. नीतीश कुमार दिलचस्प इन मानों में भी हैं कि वे जरूरत पड़ने पर सभी से हाथ मिला लेते हैं. कम्युनिस्टों से भी, राजद से भी, कांग्रेस से भी और भाजपा से भी.

ऐसे में यह तय कर पाना मुश्किल है कि वे किस विचारधारा या गुट की तरफ से, किस की लड़ाई लड़ रहे हैं. हालिया विवाद पर लालू यादव की बेटी रोहिणी का वह कमेंट भी कम जिम्मेदार नहीं बताया जा रहा जिस में उन्होंने नीतीश को उन के समाजवादी होने को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था.

यह देख याद आती है पांडवों के मामा मद्र के राजा शल्य की भी जो महाभारत की लड़ाई में गए थे तो पांडवों की तरफ से लड़ने, लेकिन दुर्योधन के छल कपट की वजह से उन्हें कौरवों की तरफ से लड़ना पड़ा था. बाद में वे सूत पुत्र कर्ण के सारथी बने थे. उन का झुकाव पांडवों की तरफ था. इसलिए वह कर्ण की हिम्मत तोड़ने वाली बातें किया करते थे. इस बाबत यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की उन्होंने बाकायदा दुर्योधन से इजाजत भी ले रखी थी.

बिहार का महाभारत

इन दिनों मिनी कुरुक्षेत्र बने बिहार के महाभारत में भी इतिहास का ही दोहराव हो रहा है जिस में यह साफ नहीं हो पा रहा कि कौन किस के साथ है और किस बात या विचारधारा की लड़ाई लड़ रहा है.

चिराग पासवान और जीतनराम मांझी को नीतीश कुमार फूटी आंख भी नहीं भाते लेकिन वे भाजपा के नजदीक होने के चलते उन के साथ जाने को तैयार हैं. यानी तथाकथित धर्म की लड़ाई लड़ने में उन के साथ हैं. नीतीश कुमार इन में सब से संदिग्ध हैं जो बतौर विचारधारा कौन सी लड़ाई लड़ रहे हैं या शायद राम भी न जाने. यह तय कर पाना भी मुश्किल है कि वे शल्य के रोल में हैं या युयुत्सु की भूमिका में हैं.

अपनी भूमिकाएं वे बदलते रहते हैं. उन की मुख्य भूमिका सत्ता में जमे रहने की है जिस के बाबत वे विचारधारा भी बदल लेते हैं. उन्हें देख लगता यही है कि ये गुट, पाला और पलटी कहने भर की बातें हैं नहीं तो अंतिम सत्य सत्ता है जिस की लड़ाई घरघर में लड़ी जाती है.

बिहार के यादवों को 2 फाड़ करने की भाजपाई कोशिश कितनी कामयाब हुई यह तो लोकसभा और उस से भी ज्यादा उस के डेढ़ साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में वोटर तय करेगा, जो अब रोजरोज के तमाशे और झिखझिख देख उबने और खीझने लगा है.

मेरे प्रेमी की शादी हो गई है लेकिन हम एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते, क्या करें?

सवाल

मैं 22 साल की हूं. 5 साल तक जिस से प्यार था, उस की शादी हो गई है. पारिवारिक वजहों से मेरी उस से शादी नहीं हो पाई, पर हम एकदूसरे के बगैर नहीं रह सकते. क्या करें?

जवाब

आप का प्रेमी आप के बिना रह सकता है, तभी तो उस ने कहीं और शादी कर ली. अगर उसे आप से सच्चा प्यार होता, तो वह उस के लिए संघर्ष करता. आप उस के चक्कर में अपना खून न जलाएं. वक्त आने पर आप को उस से बेहतर साथी मिल जाएगा.

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अवैध संबंध

अवैध संबंध पति के हों या पत्नी के, देरसबेर इन की पोल खुल ही जाती है. इस के बाद नतीजे अपराध के रूप में सामने आते हैं. कह सकते हैं कि इन नतीजों से कभी पत्नी प्रभावित होती है तो कभी पति. यदाकदा प्रेमी या प्रेमिका का नंबर भी आ जाता है. इस कहानी में पति जागीर सिंह को मौत की नींद सोना पड़ा और मंजीत कौर व उस के प्रेमी कुलवंत को…

मनप्रीत कौर सालों के बाद मामा के घर आई थी. गुरप्रीत सिंह और उस की पत्नी ने मनप्रीत की खूब खातिरदारी की. मामामामी और मनप्रीत के बीच खूब बातें हुईं. बातोंबातों में मनप्रीत ने गुरप्रीत से पूछा,‘‘मामाजी, बड़े मामा जागीर सिंह के क्या हालचाल हैं. उन से मुलाकात होती है या नहीं?’’‘‘नहीं, हम 5 साल पहले मिले थे अनाजमंडी में. जागीर उस समय परेशान भी था और दुखी भी. गले लग कर खूब रोया. उस ने बताया कि भाभी (मंजीत कौर) के किसी कुलवंत सिंह से संबंध हैं और दोनों मिल कर उस की हत्या भी कर सकते हैं.’’

गुरप्रीत ने यह भी बताया कि उस ने जागीर सिंह से कहा था कि वह भाभी का साथ छोड़ कर मेरे साथ मेरे घर में रहे. लेकिन उस ने इनकार कर दिया. वजह वह भी जानता था और मैं भी. उस ने मुझे समझाने के लिए कहा कि वह भाभी को अपने ढंग से संभाल लेगा. बस उस के बाद जागीर सिंह मुझे नहीं मिला.

‘‘वाह मामा वाह, बड़े मामा ने तुम से अपनी हत्या की आशंका जताई और आप ने 5 साल से उन की खबर तक नहीं ली?’’

‘‘खबर कैसे लेता, भाभी ने तो लड़झगड़ कर घर से निकाल दिया था. मैं उस के घर कैसे जाता? जाता तो गालियां सुननी पड़तीं.’’ गुरमीत ने अपनी स्थिति साफ कर दी.

बात चिंता वाली थी. मनप्रीत ने खुद ही बड़े मामा जागीर सिंह का पता लगाने का निश्चय किया. उस ने मामा के पैतृक गांव से ले कर गुरमीत द्वारा बताई गई संभावित जगह रेलवे बस्ती, गुरु हरसहाय नगर तक पता लगाया. उस की इस छानबीन में जागीर सिंह का तो कोई पता नहीं लगा, पर यह जानकारी जरूर मिल गई कि जागीर सिंह की पत्नी मंजीत कौर रेलवे बस्ती में किसी कुलवंत सिंह नाम के व्यक्ति के साथ रह रही है.

सवाल यह था कि मंजीत कौर अगर किसी दूसरे आदमी के साथ रह रही थी तो जागीर सिंह कहां था? मंजीत ने ये सारी बातें छोटे मामा गुरमीत को बताईं. इन बातों से साफ लग रहा था कि जागीर सिंह के साथ कोई दुखद घटना घट गई थी. सोचविचार कर गुरमीत और मंजीत ने थाना गुरसहाय नगर जा कर इस बारे में पूरी जानकारी थानाप्रभारी रमन कुमार को दी.

बठिंडा (पंजाब) के रहने वाले गुरदेव सिंह के 2 बेटे थे जागीर सिंह और गुरमीत सिंह. उन के पास खेती की कुछ जमीन थी, जिस से जैसेतैसे घर का खर्च चलता था. सालों पहले उन के परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था. पत्नी के बीमार होने पर उन्हें अपनी जमीन बेचनी पड़ी. इस के बावजूद वह उसे बचा नहीं पाए थे.

पत्नी की मौत के बाद गुरदेव सिंह टूट से गए थे. जैसेतैसे उन्होंने अपने दोनों बेटों की परवरिश की. आज से करीब 15 साल पहले गुरदेव सिंह भी दुनिया छोड़ कर चले गए. पर मरने से पहले गुरदेव सिंह यह सोच कर बड़े बेटे जागीर सिंह का विवाह अपने एक जिगरी दोस्त की बेटी मंजीत कौर के साथ कर गए थे कि वह जिम्मेदारी के साथ उस का घर संभाल लेगी.

मंजीत कौर तेजतर्रार और झगड़ालू किस्म की औरत थी. उस ने घर की जिम्मेदारी तो संभाल ली, लेकिन पति और देवर की कमाई अपने पास रखती थी. दोनों भाई जमींदारों के खेतों में मेहनतमजदूरी कर के जो भी कमा कर लाते, मंजीत कौर के हाथ पर रख देते. लेकिन पत्नी की आदत को देखते हुए जागीर सिंह कुछ पैसे बचा कर रख लेता था.

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