किसी ठेलेवाले की पत्ते पर दी गई चाट अगर जुबान को भा गई तो उस के आगे फाइव स्टार होटल की एक्सपैंसिव कटलरी में परोसी गई चाट फीकी मालूम पड़ती है. मटन-चिकेन खाने के शौकीनों की दुकानें बंधी होती हैं. वे उस स्वाद के लिए बारबार उन्हीं दुकानों पर जाते हैं. लिट्टीचोखा का स्वाद ढूंढने वाले किसी बिहारी बाबू के ठेले को ढूंढते हैं तो सांभर वड़ा या सांभर डोसा खाने का मजा साउथ इंडियन होटल में ही आता है.

अब तो चटपट बन जाने वाला जो भोजन पहले ठेलों या ढाबों पर मिलता था, अब कुछ सलीके और सफाई से बड़ेबड़े होटलों में भी मिलने लगा है. पहले गोलगप्पे खाने के लिए हम अपने पड़ोस में लगने वाले ठेले पर पहुंच जाते थे और 20-30 रूपए में भरपेट गोलगप्पे खाते थे. ठेलेवाले से इसरार कर के एकाध ज्यादा ही खा लेते थे. उस के बाद गोलगप्पे के नमकीन धनिया वाले पानी में सोंठ वाली चटनी डलवा कर पीना तो जैसे हमारा जन्मसिद्ध अधिकार था.

ठेलेवाले के द्वारा एकएक गोलगप्पा हमारी कटोरी में डाला जाता और हम एकएक गोलगप्पे का आनंद उठाते थे. गोलगप्पे की प्लेट अब बड़ेबड़े होटलों में भी और्डर कर सकते हैं. वहां 100 रूपए में 4 गोलगप्पे मंहगी प्लेट में सज कर आ जाते हैं. साथ ही एक कटोरे में नमकीन पानी और सोंठ की चटनी साथ होती है. आप खुद गोलगप्पे में चटनी और पानी डालिये और खाइए. इस में कोई मजा नहीं आता.

आज भले बड़ेबड़े होटलों में वो सारी चीजें सर्व की जाती हों जो सड़क पर बिकती हैं, मगर जो स्वाद ठेलेवाले की चाटपकौड़ी, चाउमीन, समोसों, लिट्टीचोखे, टिक्के, कबाब में आता है. वह स्वाद एयरकंडीशन होटल की साफ मेज और महंगी कटलरी में परोसे गए खाने में नहीं आता. कई बड़े शैफ इस चीज को समझते हैं और शायद यही वजह है कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में बनने वाले बहुत पकवानों को जानने और बनाने का तरीका सीखने के लिए वे ग्रामीण अंचलों में घूमते और वहां स्थानीय लोगों से कई तरह की चीजें बनाना सीखते दिखते हैं.

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