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परिवार है तो प्यार है

आज के समय में परिवार छोटे होते जा रहे हैं जबकि पहले परिवार बड़े होते थे. एक परिवार में तीनचार पीढि़यां भी एकसाथ रहती थीं. भाईबहन अब के मुकाबले अधिक होते थे. यानी, हमें एक बड़े परिवार में रहने की आदत थी. सब मिल कर कारोबार करते थे. नई पीढि़यां उसी कारोबार में जुड़ती जाती थीं पर जरा सोचिए, क्या उन बड़े परिवारों में सबकुछ सही था? क्या उन परिवारों में रहने वालों में आपसी प्यार था?

भारत में संयुक्त परिवारों के भीतर कई संपत्ति विवाद देखे गए हैं. राजनेताओं, रईस खानदानों, सैलिब्रिटीज और बड़ेबड़े उद्योगपतियों के यहां भी ऐसे विवाद आएदिन सामने आते रहते हैं. उन की जिंदगी के भी पारिवारिक ?ागड़ों और विवादों ने सुर्खियां बटोरी हैं. वहीं, कई ऐसे भी नामीगिरामी परिवार हैं जिन की एकता और प्रेम ने उन के बिजनैस को ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया.

उदाहरण के लिए रिलायंस इंडस्ट्रीज के संस्थापक धीरूभाई अंबानी रिश्तों को बहुत तवज्जुह देते थे. हालांकि अपने निधन से पहले वे एक बड़ी गलती कर गए. अपने जीतेजी उन्होंने बेटों के नाम वसीयत नहीं की. इसी के कारण मुकेश और अनिल के बीच रिश्ते दरक गए. धीरूभाई ने सोचा भी नहीं होगा कि एकदूसरे पर जान छिड़कने वाले मुकेश और अनिल एकदूसरे के प्रतिद्वंद्वी बन जाएंगे.

वर्ष 2002 में धीरूभाई के आंख मूंदते ही भाइयों में कारोबारी वर्चस्व की जंग शुरू हो गई. आखिरकार, 2005 में रिलायंस ग्रुप के बंटवारे के बाद ही चीजें शांत पड़ीं. लेकिन तब तक भाइयों में फांस पैदा हो चुकी थी और परिवार टूट गया था. यही वजह है कि अपने पिता के निधन के बाद से मुकेश अंबानी और अनिल अंबानी अकसर एकदूसरे से नजरें नहीं मिला पाते. फिलहाल हालात कुछ सुधरे हैं, मगर समस्याएं अभी भी हैं.

इसी तरह भारतीय मूल का हिंदुजा ग्रुप पिछले 100 वर्षों से दुनिया के अलगअलग देशों में व्यापार कर रहा है लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हिंदुजा बंधुओं के बीच संपत्ति को ले कर विवाद बना हुआ है. करीब 1,400 अरब रुपए की दौलत वाले और 38 देशों में कारोबार करने वाले हिंदुजा ग्रुप में 8 साल से ज्यादा समय तक पारिवारिक संपत्ति के बंटवारे का विवाद चला, बाद में परिवार के सदस्यों ने आपसी सुलह करने का फैसला किया.

विवाद की शुरुआत 2014 में सम?ाते के बाद हुई जब हिंदुजा समूह के संस्थापक दीपचंद हिंदुजा के 4 बेटों श्रीचंद, गोपीचंद, प्रकाश और अशोक के बीच हुए सम?ाते में कहा गया था कि एक भाई के नाम पर रखी गई संपत्ति एक की नहीं, बल्कि चारों भाइयों की होगी. सम?ाते के करीब एक साल बाद हिंदुजा भाइयों में सब से बड़े श्रीचंद हिंदुजा ने हिंदुजा बैंक औफ स्विट्जरलैंड पर अकेले स्वामित्व का दावा किया था. इस के लिए उन्होंने हाईकोर्ट में अपने तीनों भाइयों पर केस कर दिया था. दशकों से संयुक्त परिवार की तरह रहने वाली फैमिली में संपत्ति को ले कर शुरू हुए विवाद को देख कर लोग अचरज में पड़ गए थे.

ऐसा ही कुछ हुआ फैशन के क्षेत्र में 100 साल से भी ज्यादा पुराने और जानेमाने ब्रैंड रेमंड से जुड़े उद्योगपति सिंघानिया फैमिली के साथ. महाराष्ट्र के ठाणे में साल 1900 में रेमंड की शुरुआत वूलन मिल के रूप में हुई थी. धीरेधीरे कंपनी फेमस होने लगी. साल 1980 में रेमंड की कमान विजयपत सिंघानिया के हाथों में आई जिन्होंने भारत के बाहर भी इस कारोबार को बढ़ाया.

बापबेटे के बीच विवाद

साल 2015 में विजयपत सिंघानिया ने अपने बेटे गौतम सिंघानिया को अपने सारे शेयर और लगभग 12 हजार करोड़ रुपए की कंपनी दे दी. यहीं से विवाद शुरू हुआ. दरअसल, बापबेटों के बीच एक फ्लैट को ले कर विवाद शुरू हुआ. पिता उस फ्लैट को बेचना चाहते थे लेकिन गौतम नहीं. विवाद इतना बढ़ गया कि इस व्यावसायिक घराने के बापबेटे की लड़ाई लोगों के सामने आ गई. बाद में मध्यस्थता द्वारा पारिवारिक संपत्तियों को तीनतरफा विभाजित करने के बाद सिंघानिया परिवार समूहों के बीच विवाद समाप्त हो गया.

विजयपत सिंघानिया ने अपनी आत्मकथा ‘ऐन इन्कम्प्लीट लाइफ’ में अपना दर्द बयां किया. विवाद की वजह से उन्हें अपना काम और पैतृक घर छोड़ना पड़ा था. किताब में उन्होंने लिखा कि अपने जीवन में जो सब से बड़े सबक सीखे उन में से एक यह है कि किसी को जीवित रहते अपनी संपत्ति अपने बच्चों को देते समय सावधान रहना चाहिए.

यही हाल रैनबैक्सी ग्रुप का भी रहा. दादा मोहन सिंह ने 1950 में रैनबैक्सी की कमान संभाली थी, जिस की विरासत बाद में उन के बेटे परविंदर सिंह को मिली. परविंदर के बेटे मलविंदर और शिविंदर ने रैनबैक्सी को कुछ साल पहले बेच कर हौस्पिटल्स, टैस्ट लैबोरेटरीज, फाइनैंस और अन्य सैक्टर्स में डायवर्सिफाई किया. दोनों भाइयों ने करीब 10 हजार करोड़ रुपए में रैनबैक्सी को एक जापानी कंपनी के हाथों बेचा था. आज ग्रुप पर करीब 13 हजार करोड़ रुपए का कर्ज चढ़ चुका है. कारोबार के मामले में गर्दिश के दौर से गुजर रहे रैनबैक्सी लैबोरेट्रीज के पूर्व प्रमोटर और फोर्टिस हौस्पिटल्स के फाउंडर शिविंदर सिंह ने अपने बड़े भाई मालविंदर सिंह के खिलाफ कोर्ट में मामला दायर कराया.

भारत की सब से बड़ी लौ फर्म अमरचंद मंगलदास एंड सुरेश श्रौफ एंड कंपनी 2015 में परस्पर विरोधी भाइयों सिरिल श्रौफ और शार्दुल श्रौफ के बीच विभाजित हो गई थी. शार्दुल और सिरिल की मां ने कंपनी में अपनी हिस्सेदारी की वसीयत बड़े के पक्ष में कर दी थी, जिस के कारण दोनों भाइयों के बीच कानूनी टकराव हुआ. मगर बाद में मामला सुल?ा गया और कंपनी का बंटवारा हो गया.

किर्लोस्कर समूह के संरक्षक एस एल किर्लोस्कर की मृत्यु के बाद हुई ?ाड़पों के बाद समूह परिवार में विभाजित हो गया. विजय आर किर्लोस्कर अपने स्वयं के दृष्टिकोण और व्यावसायिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए समूह से बाहर हो गए.

वहीं, हाल ही में दक्षिण भारत के बड़े बिजनैस समूह मुरुगप्पा ग्रुप का पारिवारिक विवाद सुल?ा है. परिवार ने 20 अगस्त को ऐलान किया कि जो भी विवाद था उसे आपसी सहमति से सुल?ा लिया गया है. दरअसल, यह पारिवारिक विवाद साल 2017 में मुरुगप्पा ग्रुप के चेयरमैन एम वी मुरुगप्पा के निधन के बाद शुरू हुआ था. एम वी मुरुगप्पा ने एक विल छोड़ी थी जिस में उन्होंने अपना हिस्सा अपनी पत्नी और बेटियों के नाम किया था. हालांकि परिवार ने उन की पत्नी या बेटियों को महिला होने की वजह से बोर्ड में जगह देने से इनकार कर दिया था. मुरुगप्पा ग्रुप की शुरुआत वर्ष 1900 में हुई थी. फिलहाल मुरुगप्पा परिवार की 5वीं पीढ़ी कंपनी संभाल रही है. मुरुगप्पा गु्रप औफ कंपनीज में 28 कंपनियां हैं.

भारत के बड़े कारोबारी समूहों में से एक गोदरेज ग्रुप में भी आपसी सम?ौते से बंटवारा होने जा रहा है. 126 साल पुराने गोदरेज ग्रुप के पास लगभग 1.76 लाख करोड़ रुपए की संपत्ति है. यह गोदरेज ग्रुप जल्द ही मुख्य रूप से 2 भागों में बंटने वाला है. पहला भाग है- गोदरेज इंडस्ट्रीज एंड एसोसिएट्स, जिस की अगुआई आदी और नासिर गोदरेज कर रहे हैं. ये दोनों भाई हैं. वहीं, दूसरा भाग है- गोदरेज एंड बौयस मैन्युफैक्चरिंग कंपनी, जिस की अगुआई उन के कजिन जमशेद गोदरेज और स्मिता गोदरेज कृष्णा कर रहे हैं.

ऐसे ही विदेशों के भी कई हाई प्रोफाइल उदाहरण हैं जहां रिश्ते खराब हुए. परिवार में विवाद के कारण ही स्पोर्ट्सवियर के 2 मशहूर ब्रैंड्स- प्यूमा और एडिडास का जन्म हुआ. प्यूमा एसई एक जरमन बहुराष्ट्रीय निगम है जो एथलैटिक और कैजुअल जूते, परिधान आदि डिजाइन व निर्माण करता है और जिस का मुख्यालय जरमनी में है. प्यूमा दुनिया की तीसरी सब से बड़ी स्पोर्ट्सवियर निर्माता है.

कंपनी की स्थापना 1948 में रुडौल्फ डैस्लर द्वारा की गई थी. 1924 में रुडौल्फ और उन के भाई एडौल्फ ‘आदी’ डैस्लर ने संयुक्त रूप से कंपनी ‘डैसलर ब्रदर्स शू फैक्ट्री’ बनाई थी. बाद में दोनों भाइयों के बीच रिश्ते खराब हो गए. वे 1948 में विभाजित होने के लिए सहमत हो गए और 2 अलग संस्थाएं, एडिडास और प्यूमा बन गईं. विभाजन के बाद प्यूमा और एडिडास के बीच भयंकर और कड़वी प्रतिद्वंद्विता शुरू हो गई.

सैमसंग में भी परिवार का ?ागड़ा और विरासत का संकट हुआ. इसी तरह आस्ट्रेलिया की अरबपति खनन कारोबारी गिना राइन हार्ट ने अपने परिजनों के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ी. हाल में ही प्रिंस हैरी और मेगन मर्केल ब्रिटेन के शाही परिवार की वरिष्ठ सदस्यता से अलग हुए तो लोग सोच में पड़ गए. परिवार से अलग होना मुश्किल फैसला होता है क्योंकि वहां भावनात्मक मुद्दे जुड़े होते हैं.

दरअसल, पारिवारिक व्यवसायों में भरोसे की वजह से अहम कानूनी औपचारिकताओं को नजरअंदाज किया जाता है. जब सभी लोग खुश होते हैं तो कानूनी दस्तावेज बनाने की नहीं सोचते. हाथ मिलाने और मौखिक वादे पर ही एतबार कर लेते हैं. लेकिन जब चीजें बिगड़ने लगती हैं तो सम?ाते को साबित करने वाले कागजात नहीं होते. ऐसे में समस्याएं पैदा होती हैं.

वैसे, परिवार के साथ बना कर रखा जाए तो नजारा कुछ और ही होता है. यह बात जापान की होशी रयोकन ने साबित की है. 46 पीढि़यों से एक ही परिवार इस कंपनी को चला रहा है. होशी एक रयोकन यानी जापानी पारंपरिक सराय है जिस की स्थापना 718 में जापान के इशिकावा प्रांत में हुई थी. इस का स्वामित्व और प्रबंधन होशी परिवार द्वारा 46 पीढि़यों से किया जा रहा है. वहीं, रिटेल जायंट वालमार्ट भी समस्याओं से अछूता नहीं है लेकिन आज भी संस्थापक सैम वाल्टन के वंशज करीब 50 फीसदी हिस्से के मालिक हैं. परिवार में कोई विवाद हो भी तो खबरों में नहीं आ पाता. आस्ट्रेलिया में 70 फीसदी कंपनियां परिवार के स्वामित्व में हैं.

सदियों पहले भी यही हालात थे हमारी पौराणिक कहानियों में एक बात साफ नजर आती है कि उस समय परिवार काफी बड़े थे मगर उन में प्यार नहीं था. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि रामायण-महाभारत काल में भी परिवारों को कभी सुकून नहीं मिला. आप महाभारत काल का उदाहरण लें या फिर रामायण काल का, दोनों में ही परिवार के सदस्य एकदूसरे से लड़ते?ागड़ते, मारकाट या साजिश करते ही दिखेंगे. चाहे महाभारत में कौरव और पांडव यानी भाइयों का ?ागड़ा हो या फिर रामायण में कैकेई जैसे किरदारों का चित्रण. हमें यही नजर आता है कि वे एकदूसरे के अहित में अपना हित देखते थे.

पांडव हमेशा कौरवों की आंखों में गड़ते रहे. इस चक्कर में महायुद्ध हुआ और हर तरफ नाश का तांडव मचा. इसी तरह अपने बेटे भरत के लिए कैकेई ने जिस तरह मंथरा के झासे में आ कर तूफान खड़ा किया और उस के बाद जैसे पूरे परिवार का बिखरना तय हो गया, वह क्या दर्शाता है? यही न कि राजामहाराजाओं के आलीशान महलों और बड़े खानदानों में भी सुकून नहीं था.

तो क्या हम यह समझे कि हमारे जींस में पारिवारिक द्वेष, हिंसा, ?ागड़ा जैसी प्रवृत्तियां घुसी हुई हैं? अगर ऐसा है भी, तो ध्यान रखें कि हमारी वर्तमान सोच तर्क और विवेक पर आधारित होनी चाहिए. हम ने बौद्धिक रूप से काफी सफलताएं हासिल की हैं. ऐसे में हमें इस मामले में भी अपनी सोच तार्किक रखनी होगी.

तर्क यह कहता है कि अभी के समय में हमारे परिवार छोटे हैं. ऐसे में और भी ज्यादा जरूरी है कि जो थोड़े से लोग परिवार में हैं वे कम से कम एकदूसरे के साथ खड़े रहें. परिवार छोटे हैं, इसलिए हमें अपने रिश्तों को संभाल कर रखना होगा. याद रखें, आपसी वैर और द्वेष से किसी का भला नहीं होता, सब खत्म हो जाता है. जबकि, प्यार के सहारे आप बड़ी से बड़ी मुश्किल भी आसानी से पार कर जाते हैं.

सफलता के लिए प्यार जरूरी

दुनियाभर की दोतिहाई कंपनियां परिवारों द्वारा चलाई जाती हैं. उन में काम करने के कई फायदे हो सकते हैं. 2014 की फैमिली बिजनैस सर्वे रिपोर्ट में प्राइस वाटरहाउस कूपर्स ने लिखा था कि रिश्तों के साथ काम करना विश्वास और प्रतिबद्धता का ऊंचा स्तर पैदा कर सकता है लेकिन वहीं यह तनाव, नाराजगी और खुले संघर्ष की ओर भी ले जा सकता है क्योंकि लोगों को दिल और दिमाग अलग रखने व कारोबार एवं परिवार दोनों को सफल बनाने में मुश्किल होती है.

कैरियर के साथ मन के सुकून के लिए भी बेहतर है कि आप संबंधों को न बिगाड़ें. पारिवारिक कारोबार में यह और जरूरी होता है क्योंकि सभी से जिंदगीभर आप का वास्ता रहने वाला है. संबंध बिगड़ भी गए हैं तो प्रयास कर के उन्हें सुधार लें.

राजनीतिक गलियारे में परिवारवाद

राजनीतिक गलियारे की बात करें तो अकसर कांग्रेस पर परिवारवाद को बढ़ावा देने के इलजाम लगते रहते हैं. नेहरू, इंदिरा, राजीव, सोनिया और फिर राहुल व प्रियंका के राजनीतिक सफर को वंशवाद या परिवारवाद का नाम दिया जाता है मगर जरा सोचें कि इस में बुराई क्या है? अगर एक ही परिवार से आने वाली नई पीढि़यां राजनीति या किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ती हैं तो

उन्हें काफी फायदा होता है. उन्हें सही मार्गदर्शन मिलता है और वे माहौल से पूरी तरह परिचित होते हैं. उन्हें पता होता है कि आगे क्या करना है. उन्हें अनुभव का लाभ मिलता है. उन का सफर आसान हो जाता है और वे ज्यादा समर्थ बन पाते हैं. नेहरू खानदान ने हमेशा इसी हकीकत को दर्शाया है.

बड़ेबड़े और रईस खानदानों व सैलिब्रिटीज की जिंदगी के भी पारिवारिक ?ागड़ों व विवादों ने सुर्खियां बटोरी हैं जबकि कई ऐसे भी नामीगिरामी परिवार हैं जिन की एकता व प्रेम ने उन के बिजनैस को ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया.

क्या करें

जो जैसा है, वैसा रहने दें : हर इंसान दूसरे से अलग होता है. आप के परिवार में भी संभव है कि सब की सोच और रहनसहन का तरीका अलग हो. ऐसे में अगर आप को किसी की कोई बात सही न लगती हो तो बारबार उस से ?ागड़ने या उसे सम?ाने के बजाय उसे अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने दें. आप ज्यादा सोचेंगे तो आप का सुकून तो जाएगा ही, रिश्ता भी खराब होगा.

बेहतर है कि दूसरों को टोकने से बचें. जरा सोचिए, सफर के दौरान आप मैट्रो/सड़क/औफिस में किसी से कुछ नहीं कहते. जो जैसा है या जैसा कर रहा है उसे वैसा रहने देते हैं. कोई म्यूजिक सुन रहा है, कोई बातें कर रहा है, कोई टेढ़ा हो कर बैठा है और कोई फोन में लगा है. आप सब के साथ चलते हैं, सब की तरफ देखते भी रहते हैं मगर किसी को टोकते नहीं. ऐसी ही मनोवृत्ति परिवार के सदस्यों के साथ भी रखें.

इसी तरह मान लीजिए कि राजधानी ऐक्सप्रैस ट्रेन में आप सफर कर रहे हैं. आप की सीट का बीच वाला शख्स हल्ला मचा रहा है कि खाना ठंडा है या कौफी में शुगर कम है आदि. जबकि आप आराम से खाना खा कर बैठे हो और उस की बातें आप को इरिटेट कर रही हैं फिर भी आप कुछ नहीं कहते. कौर्नर वाली सीट का शख्स बारबार ऊपर वाले ड्रौयर से सामान निकाल और रख रहा है. वह आप को डिस्टर्ब करते हुए बारबार वाशरूम जा रहा है. तब भी आप कुछ नहीं कहते क्योंकि आप बेकार के ?ागड़ों में पड़ना नहीं चाहते.

आप को लगता है कि कुछ समय की बात है, फिर आप यहां से निकल ही जाओगे. ऐसा ही व्यवहार घर के लोगों के साथ भी रखें. अगर किसी सदस्य की वजह से आप को परेशानी हो रही है तो उसे इग्नोर करें और सोचें कि सारी जिंदगी तो वह साथ रहेगा नहीं और अगर रहे भी तो उस की खूबियां देखें और गलतियों को नजरअंदाज करें. परिवार में कोई सदस्य जैसा भी हो, उसे वैसा रहने दो.

कनैक्टेड रहें : आप भले ही घर से दूर रह रहे हों या आप ने बड़ी गाड़ी खरीद ली हो या आप की अच्छी जौब लग गई है पर दूसरों के आगे घमंड न करें और सब से कनैक्टेड रहें. इसी तरह यदि आप के पास छोटी गाड़ी हो, जबकि आप का भाई महंगी गाड़ी खरीद कर लाया है या उसे बहुत अच्छी जौब मिल गई है और उस की सैलरी आप से दोगुनी हो गई है तो भी उस से जलें नहीं.

कहने का मतलब यह है कि सब से मिल कर रहें. अपने साथ दूसरों की खुशियों में भी खुश रहें. आर्थिक मतभेद उभरने न दें. संपत्ति में हिस्सा चाहिए तो यह बात कहें. मगर रोजरोज इसे ले कर ?ागड़ें नहीं. आप परिवार की लड़की या बहन हैं. वर्ष 1956 और 2005 के एक्ट के अनुसार आप ने फैसला लिया है कि संपत्ति में से अपना हिस्सा लेंगी. इस के लिए आप जरूरी कदम उठाएं. लेकिन जब त्योहार का समय हो या सब मिल कर खुशियां मना रहे हों तब मन की नाराजगी को उभरने न दें. प्यार से मिल कर खुशियों का आनंद लें.

परिवार में किसी से जलें नहीं और न ही ईर्ष्या रखें. कोई दूर भले ही हो पर सब से संपर्क बना कर रखें. यह मत भूलें कि आप पर विपत्ति आएगी तो परिवार के यही लोग आप के काम आएंगे. पुलिस स्टेशन हो या अस्पताल, आप के परिवार वालों से ही बातें पूछी जाएंगी या उन के सहयोग से ही आप किसी भी तरह की मुश्किलों से निकल पाएंगे.

पुराने गिलेशिकवे दबा कर रखें : 34 साल की प्रभा की अपनी देवरानी से बनती नहीं है. उस की देवरानी आशा ज्यादा पढ़ीलिखी है और इस बात का वह घमंड भी दिखाती है. जबकि प्रभा घर के कामों में निपुण है और उसे आशा के तौरतरीके बिलकुल भी पसंद नहीं. पहले दोनों भाई एक घर में रहते थे मगर प्रभा और आशा के बढ़ते ?ागड़ों की वजह से छोटा भाई पास में ही अलग घर ले कर रहने लगा. अब आलम यह है कि प्रभा जब भी आशा के घर जाती है या तीजत्योहार में आशा ससुराल आती है तो दोनों की तकरार शुरू हो जाती है.

प्रभा आशा के कामों में हर समय कमी निकालती रहती है तो आशा के दिल का गुबार भी फूट पड़ता है. इस वजह से वह त्योहारों का भी मजा नहीं ले पाती. मगर जब एक बार प्रभा का ऐक्सिडैंट होता है तो आशा बहुत अच्छे से उसे संभालती है. उस का खयाल रखती है तब प्रभा समझती है कि अपने ही काम आते हैं. अब वह कभी भी प्रभा को बात नहीं सुनाती और हर तरह के गिलेशिकवे मन में दबा कर रखती है. इस से घर में प्यार और शांति लौट आती है.

आप भी इस बात का खयाल रखें कि किसी को बात सुना देना आसान है, मगर इस से रिश्तों में कड़वाहट आ जाती है जबकि प्यार रहे तो कमियां नजरअंदाज करना आसान होता है.

परिवार नहीं होगा तो झगड़ा किस से करोगे ?

आप किसी अकेले रह रहे शख्स से पूछिए कि वह अपने परिवार को कितना मिस करता है. परिवार होता है तो आप अपनों से ?ागड़ सकते हैं, उन्हें बात सुना सकते हैं. वहीं, सौरी कह कर फिर गले भी लग सकते हैं. परिवार के साथ गम आधा और खुशियां दोगुनी हो जाती हैं. परिवार ही नहीं होगा तो आप न झगड़ने का आनंद ले सकेंगे और न साथ खुशियां मनाने का. बस, दिल में एक कसक ही रह जाएगी. ऐसी स्थिति से बचना है तो अपने परिवार का खयाल रखें. रिश्तों को संभाल कर रखें.

आज के समय में कब कौन कहां फंस जाए ?

हकीकत यह है कि कब, किस तरह की विपत्ति आ जाए या कौन, कहां फंस जाए, कब किस का ऐक्सिडैंट हो जाए, कब आप को अपने बच्चों की जिम्मेदारी किसी और को सौंपनी पड़े, कब कोई बीमारी हो जाए या आप कहां किस तरह की धोखाधड़ी में फंस जाएं. ऐसे हालात में इंसान अपने परिवार की तरफ ही देखता है और परिवार ही आसरा बनता है. इसलिए परिवार की कीमत समझे.

घरपरिवार बचाना है तो अपने मतलब से बढ़ कर सोचें

हमेशा अपने मतलब की न सोचें. कभीकभी थोड़ा त्याग कर के आप परिवार से बहुत सारा प्यार व अपनापन पाते हैं जिस की कीमत नहीं आंकी जा सकती. इसलिए स्वार्थ से बढ़ कर परिवार के लिए सोचें. सब के आगे बढ़ने का सपना देखें. सब को अपना मानें. रिश्तों में एक ग्लू जरूरी है जो सब को बांध कर रखेगा.

फिल्मी हस्तियों के परिवारों में मनमुटाव

बौलीवुड में ऐसे कई सैलेब्स हैं जिन के परिवार से विवाद खुल कर सामने आए हैं :

  • कृष्णा अभिषेक

कृष्णा के अपने मामा गोविंदा से मतभेद हैं. कुछ समय पहले गोविंदा जब ‘द कपिल शर्मा शो’ में मेहमान बन कर पहुंचे तो कृष्णा शो का हिस्सा नहीं बने. दरअसल दोनों की तल्खी की वजह कृष्णा की पत्नी कश्मीरा शाह द्वारा किया गया सोशल मीडिया पर एक कमैंट है, जिसे गोविंदा से जोड़ कर देखने के बाद हंगामा मच गया था.

  • जान कुमार सानू

बिग बौस 14 के कंटैंस्टैंट जान कुमार सानू के अपने पिता कुमार सानू से संबंध बिलकुल ठीक नहीं हैं. दोनों के बीच आरोपप्रत्यारोपों का दौर चलता रहा है. जान को बचपन में पिता ने छोड़ दिया था और उन की परवरिश मां रीता ने की. वहीं पत्नी और बेटे को छोड़ कर कुमार सानू ने दूसरी शादी कर ली.

पिछले दिनों ‘बिग बौस’ में जान कुमार सानू द्वारा मराठी भाषा के अपमान के बाद पिता ने उन की परवरिश पर सवाल उठा दिए थे, जिस के बाद जान भड़क गए. तब से दोनों के बीच विवाद और गहराता गया.

  • अमीषा पटेल

2004 में अमीषा अपने परिवार पर अपनी कमाई का गलत इस्तेमाल करने का आरोप लगा चुकी हैं. उन्होंने अपने पिता के खिलाफ 12 करोड़ रुपए के हर्जाने का मुकदमा दायर कर दिया था. यह लड़ाई तब और बदतर हो गई जब अमीषा के रिश्ते डायरैक्टर विक्रम भट्ट से जुड़े. अमीषा ने मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में बताया था कि उन के मम्मीपापा नहीं चाहते थे कि वे विक्रम से मिलें या फिर उन से शादी करें. वे चाहते थे कि उन की शादी किसी पैसे वाले आदमी से हो. जब अमीषा ने उन से अपने पैसों के बारे में पूछा तो वे ?ागड़ने लगे.

  • कंगना रनौत

एक समय कंगना की अपने पिता अमरदीप रनौत से बिलकुल नहीं बनती थी. कंगना मौडलिंग और ऐक्ंिटग में अपना कैरियर बनाना चाहती थीं लेकिन पिता इस के सख्त खिलाफ थे. वे बेटी को डाक्टर बनाना चाहते थे. उन्होंने मैडिकल की पढ़ाई के लिए कंगना का एडमिशन चंडीगढ़ के डीएवी स्कूल में कराया था. कंगना को मौडलिंग पसंद थी. उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया और होस्टल से पीजी में शिफ्ट हो गईं.

कंगना के घर से भागने और फिल्मों में काम करने की वजह से कंगना के पिता ने उन से सालों तक बात नहीं की थी. हालांकि अब बेटी की सफलता से पिता बेहद खुश हैं और दोनों के रिश्ते सुधर गए हैं.

  • नवाजुद्दीन सिद्दीकी

अपनी ऐक्टिंग के लिए पौपुलर नवाजुद्दीन पिछले कुछ दिनों से अपने भाई और एक्स वाइफ संग मतभेद के कारण चर्चा में बने हुए हैं. ऐक्टर के भाई शमास नवाब सिद्दीकी ने ऐक्टर पर आरोप लगाया कि उन्होंने अपने किसी भी भाई का कैरियर बनाने में मदद नहीं की. दोनों के बीच बात इतनी बढ़ गई कि हाल ही में नवाज अपनी बीमार मां से मिलने के लिए शमास के घर पर पहुंचे थे. लेकिन उन्होंने ऐक्टर को घर में घुसने नहीं दिया.

  • आमिर खान

आमिर खान बौलीवुड में मिस्टर परफैक्शनिस्ट के नाम से जाने जाते हैं. फिल्मों को बेहतर बनाने के लिए ऐक्टर कोई कसर नहीं छोड़ते, लेकिन रियल लाइफ में उन्हें अपनों संग बनाने में स्ट्रगल करना पड़ा.

  • रेखा

एवरग्रीन रेखा भी उन स्टार्स में से एक हैं जिन का उन के परिवार संग मनमुटाव रहा. ऐक्ट्रैस ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि अपने पिता से उन के रिश्ते अच्छे नहीं थे. दोनों के बीच काफी लड़ाई होती थी.

मजबूरियां: ज्योति और प्रकाश के रिश्ते से निशा को क्या दिक्कत थी

Holi Special: हक ही नहीं कुछ फर्ज भी- भाग 2

उन्नति का बीडीएस पूरा हो गया. वापस आ कर उस ने भारत की मान्यता के लिए परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली. इंटर्नशिप के बाद उसे लाइसैंस मिल गया. मांबाप का सीना गर्व से चौड़ा हो गया. उन्नति ने एक पीजी डैंटिस्ट रवि को जीवनसाथी के रूप में पसंद कर लिया. रवि को दहेज नहीं चाहिए था पर घर वालों को शादी धूमधाम से चाहिए थी.

‘‘ठीक ही तो है पापा शादी रोजरोज थोड़े ही होती है. अब ये लोग दहेज तो नहीं ले रहे न,’’ उन्नति मम्मीपापा, को दलील के साथ राजी करने की कोशिश में थी.

‘‘हांहां, हो जाएगा. तू चिंता मत कर,’’ सुकांत ने उसे तसल्ली देते हुए कहा.

जैसेतैसे सुकांत और निधि ने बड़ी बेटी को फाइवस्टार होटल से विदा किया.

‘‘मम्मीपापा मुझे पढ़ने का शौक था सो पढ़ लिया… प्रैक्टिस वगैरह मेरे बस की नहीं… मुझे तो बस घूमनाफिरना और मस्ती करनी है. लोन का आप देख लेना… मेरे पास वहां बैंक का कोई लेटरवैटर नहीं आना चाहिए वरना बड़ा बुरा फील होगा ससुराल में… रवि को मैं ने लोन के बारे में कुछ नहीं बताया है,’’ उन्नति ने जातेजाते दोटूक अपना मंतव्य बता डाला.

‘‘रवि को मालूम है तू काम नहीं करेगी?’’ सुरम्य को जब मालूम हुआ तो उस ने हैरानगी से पूछा.

इस पर उन्नति बोली, ‘‘और क्या… कह रहे थे कुछ करने की जरूरत नहीं है. बस रानी बन कर रहना… पलकों पर बैठा कर रखेंगे तू देखना,’’ और वह हंस दी थी.

‘‘दीदी तुम्हें मालूम है न कि मम्मीपापा अब रिटायर हो चुके हैं… हम लोगों के चक्कर में बेचारे मकान तक नहीं बनवा सके… बैंक से स्टूडैंट लोन तो है ही प्राइवेट लोन अलग से, विदेश की पढ़ाई उन्हें कितनी महंगी पड़ी पता है?’’

‘‘भाई, तू तो लड़का है. सीए बनते ही बढि़या कंपनी में लग जाना है. तू ठहरा तेज दिमाग… फिर धड़ाधड़ पैसे कमाएगा तू… थोड़ा ओवरटाइम भी कर लेना हमारे लिए… मुझे तो गृहस्थी संभालने दे… लाइफ ऐंजौय करनी है मुझे तो, वह अपने लंबे नाखूनों में लगी ताजा नेलपौलिश सुखाने लगी.’’

‘‘कमाल है दीदी पहले विदेश की महंगी प्रोफैशनल पढ़ाई पर खर्च करवाया, फिर फाइवस्टार में शादी की… दहेज न देने पर भी इतना खर्च हुआ जिस की गिनती नहीं. अब काम नहीं करेगी तो तुम्हारा लोन कैसे अदा होगा, सोचा है? माना काव्या दीदी का और मेरा लोन तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं पर अपना लोन तो चुकता कर जो बैंक से तुम ने अपने नाम लिया है… काम क्यों नहीं करोगी? फिर प्रोफैशनल पढ़ाई क्यों की? इतना पैसा क्यों बरबाद करवाया जब तुम्हें केवल हाउसवाइफ ही बनना था?’’

‘‘तू तो करेगा न भाई काम?’’

‘‘तुम काम नहीं करोगी तो कुछ दिनों में ही प्यार हवा हो जाएगा रवि का.’’

‘‘तमीज से बात कर. रवि तेरे जीजू हैं.’’

‘‘तुम्हारी वजह से मैं ने डाक्टरी की पढ़ाई नहीं की जबकि मैं बचपन से ही डाक्टर बनना चाहता था. घर की स्थिति देख कर अपना इरादा ही बदल लिया. न… न… करतेकरते भी इतना खर्च करवा डाला… कर्ज में डूब गए हैं मम्मीपापा… शर्म नहीं आती तुम्हें? कब जीएंगे वे अपने लिए कभी सोचा है?’’

‘‘तू है न उन का बेटा… करना सेवा सारी उम्र लायक बेटा बन कर.’’

‘‘वाह, बाकी हर चीज में बराबरी पर जिम्मेदारी में नहीं. वह तो शुक्र है मकान नहीं बना वरना बिकवा कर उस में से भी अपना शेयर लेती… छोड़ उन्नति दीदी तुम क्या समझोगी… जाओ खुश रहो,’’ सुरम्य बाकी का सारा उफान पी गया.

उधर काव्या ने भी लंदन में कमाल कर दिया. वहीं अपने एक दोस्त प्रतीक से ब्याह रचा लिया. 1 महीने के गर्भ से थी. पढ़ाई अधूरी छोड़ कर भारत लौट आई. ससुराल वालों ने उसे स्वीकारा नहीं.

वे कट्टर रीतिरिवाजों वाले दक्षिण भारतीय मूल के थे. बड़ी जद्दोजहद के बाद राजी हुए पर घर में फिर भी नहीं रखा. लिहाजा प्रतीक और वह घर से अलग रहने पर मजबूर हो गए. दोनों में से किसी के अभी जौब में न होने की वजह से सारा खर्च सुकांत और निधि के कंधों पर ही आ गया.

काव्या ने तो पढ़ाई छोड़ ही दी थी पर प्रतीक ने अपना एमबीए पूरा कर लिया. बाद में उसे जौब भी मिल गई.

उधर उन्नति की ससुराल की असलियत सामने आने  लगी. आए दिन सास तकाजा करतीं, ताने देतीं, ‘‘बहू, तुम्हारी हर महीने की इनकम कहां है. हम ने रवि को तुम से शादी की इजाजत इसलिए दी थी कि दोनों मिल कर घरपरिवार का स्तर बढ़ाने में मदद करोगे… वैसे ही लंबाचौड़ा परिवार है हमारा… बहू तुम से न घर का काम संभाला जाता है न बाहर का… देखती हूं रवि भी कितने दिन तुम्हारी आरती उतारता है,’’ भन्नाई हुई सास रेवती महीने बाद ही अपने असली रूप में आ गई थी.

रवि जब अपने दोस्तों की प्रोफैशनल वर्किंग पत्नियों को देखता तो उन्नति को ले कर अपमानित सा महसूस करता. रोजरोज दोस्तों की महंगी पार्टियों से उसे हाथ खींचना पड़ता. उन्नति को न ढंग का कुछ पकाना आता न कुछ सलीके से करनेसीखने में ही दिलचस्पी लेती. सजनेसंवरने में वक्त बरबाद करती.

फिर वही हुआ जो सुरम्य ने कहा था. खर्चे से रवि परेशान था, क्योंकि अपनी बहनों की ससुराल और रिश्तेदारी निभाने के लिए वही एक जरीया था. उस पर छोटे भाई आकाश की पढ़ाई भी उस के सिर थी.

बहनों की ससुराल वालों ने उस की पुश्तैनी प्रौपर्टी बिकवा कर उस में से हिस्सा लेने के बाद भी मुंह बंद नहीं किया. आए दिन फरमाइशें होती रहतीं, जिन से घर के सभी सदस्य चिड़ेचिड़े से रहते.

तब उन्नति को समझ आया कि बहनों की शादी के बाद प्रौपर्टी और पैसों में ही नहीं घर की जिम्मेदारियों में भी अपनी कुछ हिस्सेदारी समझनी चाहिए. उन्नति को मम्मीपापा और सुरम्य की बहुत याद आई.

आंखें सजल हो उठीं कि कितनी मुश्किल हुई होगी उन्हें. इतने कम पैसों में वे कैसे घर चलाते थे? हमारी जरूरतें, शौक पूरे करते रहे वे… अपना तो उन से सब कुछ करवा लिया हम ने पर उन की जरूरतों को कभी न समझा. सिर्फ नाम के लिए महंगी पढ़ाई कर ली. अपनी मस्ती और स्वार्थ के चलते न काम किया न अपना लोन ही चुकाया. वह आत्मग्लानि से भर उठी.

सप्ताह उपरांत उन्नति ने रवि की मदद से एक प्राइवेट डैंटल हौस्पिटल में काम करना शुरू कर दिया. रवि से उस ने साफ कह दिया, ‘‘जानती हूं कि और कुछ तो मम्मीपापा लेंगे नहीं पर कम से कम अपना ऐजुकेशन लोन जो मैं ने लिया था उसे अवश्य चुकाना चाहूंगी… तुम्हें कोई एतराज तो नहीं?’’

रवि ने प्यार से उस के कंधे पर हाथ रख मन ही मन सोचा कि काश उस की बहनें भी ऐसा सोच पातीं.

कुछ सालों बाद काव्या के ससुराल वालों ने उसे अपना लिया. उधर प्रतीक को बड़ी प्रमोशन मिली. उस ने यूएसए के क्लाइंट से अपनी कंपनी को बड़ा फायदा पहुंचाया था. वह एक झटके में ऊंचे ओहदे पर पहुंच गया.

काव्या को ऐशोआराम की सारी सुविधाएं मिलने लगीं तो उसे रहरह कर मम्मीपापा और घर की परिस्थितियों से जूझते भाई की तकलीफ ध्यान आने लगी कि उस ने कैसेकैसे उन का साथ दिया. हम बहनें तो निकम्मी निकलीं. उस का मन पश्चात्ताप से भर उठा. फिर उस ने उन्नति से मन की पीड़ा शेयर की तो उन्नति ने उस से.

इधर सुकांत के गांव की बरसों से मुकदमे में फंसी पैतृक संपत्ति का फैसला उन के पक्ष में हो गया. करीब 50 लाख उन की झोली में आ गए.

‘‘शुक्र है निधि जो फैसला हमारे पक्ष में हो गया. देर आए दुरुस्त आए. मैं ने सुरम्य को औफिस में ही फोन कर बता दिया. आता ही होगा. उन्नति और काव्या को भी खुशखबरी दे दो. उन्हें संडे को आने को कहना.’’

सुकांत के स्वरों में खुशी और उत्साह छलक रहा था. वे जल्द ही अपनी खुशी तीनों बच्चों में बांट लेना चाहते थे और रकम भी.

‘‘संडे को तो दोनों वैसे भी आने वाली हैं. रक्षाबंधन जो है. तभी सरप्राइज देंगे. अभी नहीं बताते,’’ निधि बोलीं.

लेखक- Dr. Neerja Srivastava

सवाल: भाग 3- सुरैया की खुशी बनी अनवर के लिए परेशानी का सबब

लेखक- शेख विकार अहमद

सुरैया के छोटे भाई की शादी के समय उस के अब्बू जब उसे लेने के लिए आए तो शाहिदा बेगम ने खुल कर अपनी बात उन के सामने रखी. उन का कहना था कि उन के खानदान का नामोनिशान इस लड़की की वजह से मिटने को है और वे किसी भी सूरत में ऐसा नहीं होने देंगी. उन का इरादा साहिल की दूसरी शादी करने का है. शाहिदा बेगम ने सुरैया के अब्बू से उसी वक्त जवाब मांगा.

तब सुरैया को सब से ज्यादा दुख इस बात का हुआ था कि पास बैठा साहिल चुपचाप सब तमाशा देख रहा था. उस ने पूरी बात के दौरान कुछ भी नहीं कहा था. इस का मतलब कि इस मामले में उस की पूरी रजामंदी थी. सुरैया के अब्बू ने उस वक्त कुछ न कहते हुए चुपचाप रहने में ही भलाई सम?ा. वह भी हकीकत को जानते थे और ऐसे किसी मामले के उठने का डर उन्हें कुछ दिनों से होने लगा था.

सुरैया के मायके आने के बाद उन के घर में काफी हंगामा हुआ. घर में हो रही शादी की तैयारियों पर मातम छा गया. शादी में शरीक होने आए सुरैया के ससुराल वाले कुछ दूरदूर ही रहे. ऐसा लग रहा था जैसे महज रिश्तेदारी निभाने की मजबूरी में आए हों. शादी के बाद लौटते समय जब उन्होंने ?ाठमूठ भी सुरैया को साथ ले जाने की बात नहीं की तो उस के अब्बू को गहरा धक्का लगा. शायद उन लोगों ने साहिल की दूसरी शादी करने का अपना मंसूबा इस तरह के बरताव से जाहिर कर दिया था.

एक दिन खबर आई कि साहिल की अम्मी उस के लिए लड़की तलाश कर रही हैं. तब सुरैया के अब्बू से रहा नहीं गया और वे अपने बड़े भाई को साथ ले कर सुरैया की ससुराल वालों से जवाब तलब करने पहुंचे. वहां पर उन्हें दोटूक जवाब मिल गया कि या तो आप सुरैया को सौतन के साथ रहने को भेज दीजिए या फिर तलाक करवा लीजिए. सुरैया अपने अब्बू की लाड़ली थी. उस के भाग ऐसे फूटेंगे, ऐसी उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी. उन्होंने सोचा, बेटी को सौतन के हवाले करने से अच्छा तो उस का तलाक करवा देना ही बेहतर होगा.

टूटे मन से घर लौट कर जब उन्होंने सुरैया को पूरा किस्सा सुनाया तो वह खून के आंसू रोई. साहिल के बरताव से उस का दिल तो वैसे ही टूट गया था. उस के अब्बू के पूछने पर उस ने तलाक लेने के लिए हामी भर दी.

अब तक कुछ दिनों तक मायके में रहने के इरादे से आई सुरैया अब हमेशा के लिए वहां पहुंचा दी गई थी. उस के दोनों भाई और भाभियां बहुत अच्छे स्वभाव के थे. उन की तरफ से उसे कभी कोई तकलीफ नहीं हुई. उस ने हालात से सम?ाता कर लिया. वक्त गुजरने लगा. कभीकभार उस की दूसरी शादी के लिए कोई रिश्ता आता भी था तो वह ऐसा होता कि किसी को भी मंजूर न होता.

एक बात अब तक साफ हो गई थी कि अब सुरैया की दूसरी शादी मुमकिन नहीं. उस ने भी इसे अपनी नियति मान लिया और हालात से सम?ाता कर लिया.

तलाक हुए 10 साल गुजर गए थे, जब अनवर की अम्मा रिश्ता ले कर आई थीं. सुरैया के अब्बू तो जैसे भूल ही गए थे कि सुरैया की दूसरी शादी हो सकती है. घर के सभी लोग अचरज में पड़ गए थे. आखिर अब्बू ने सोचा कि रिश्ता मंजूर करने से पहले एक बार सुरैया से भी पूछ लेना जरूरी है.

‘नहीं अब्बू, मैं अब शादी नहीं करूंगी,’ उस ने जैसे अपनेआप से कहा था. अब्बू जानते थे कि उन की बेटी अपने अतीत के उस दर्द से कभी उबर नहीं पाएगी मगर उन को अनवर का रिश्ता बहुत पसंद आया था. फिर मांबाप उसे उम्रभर का साथ भी नहीं दे सकते थे. उन के बाद सुरैया को वैसी ही इज्जत मिलेगी, इस की भी कोई गारंटी नहीं थी.

आखिर जब अम्मी और अब्बू ने उस की काफी मानमनौअल की और अपने मन का डर उसे साफसाफ बता दिया तो वह जैसेतैसे राजी हो गई थी.

अनवर के साथ उस की शादी हो गई. एक बार फिर से उस के मन की सूख चुकी प्यार की बेल लहलहा उठी. उस का दिल उस छोटी सी दुनिया में ऐसे रम गया जैसे वह हमेशा से उसी दुनिया की थी. वह अपना अतीत भूलने में कामयाब हो गई थी.

अगर आज सुबह का वाकेआ न होता तो शायद उसे अतीत का वह काला हिस्सा याद भी नहीं आता. उस ने सोचा, ‘अगर वह इस उम्र में मां बन सकती है तो 20 साल पहले वह क्यों नहीं बन पाई थी. आज उस की सम?ा में आया कि क्यों उस समय साहिल डाक्टर की सलाह लेने की बात पर नाराज हुआ था. क्या वह जानता था कि वह बाप नहीं बन सकता? या वह सिर्फ उस का डर था कि अगर उस का दोष निकला तो उस की मर्दानगी पर शक किया जाएगा. फिर कैसे उस ने अपना सारा दोष अकेली सुरैया के माथे मढ़ दिया?

‘क्यों उसे लगातार 7 साल तक बां?ा होने का उलाहना सुनना पड़ा? क्यों उसे ऐसे फेंक दिया गया जैसे यह सिर्फ उसी अकेली का दोष हो? जवानी के 20 साल उस ने इस अपराधबोध में गुजार दिए कि वह कुदरत की इतनी बड़ी नेमत से महरूम है. क्या उस की गुजरी हुई जवानी का कोई बदला चुका सकेगा?’ वह सोचसोच कर ऊब गई.

फिर उस ने दूसरे नजरिए से इस बात को सोचा कि खैर, जो भी हो, देर से ही सही कुदरत ने उस की सूनी गोद आबाद तो कर ही दी और वह अपनेआप से मुसकराई.

शाम को जब अनवर घर आए तो सब से पहले उन्होंने सुरैया को ढूंढ़ा. जब वह हमेशा की तरह बैठक में नजर नहीं आई तो उन्हें उस की तबीयत की चिंता हुई और उन्होंने अम्मा से पूछा. जैसे ही उन्होंने उन्हें बताया कि वह मां बनने वाली है तो वे बैडरूम में आए.

‘‘बेगम, मैं यह क्या सुन रहा हूं? आप मां बनने वाली हैं?’’

सुरैया ने हंस कर ‘हां’ में सिर हिलाया.

‘‘ओह नो, यह नहीं हो सकता.’’

‘‘मतलब?’’ सुरैया ने अचरज से पूछा, ‘‘मेरे मां बनने में बुराई क्या है?’’

‘‘बुराई नहीं. मगर यह वक्त नहीं है कि आप मां बनें. लोग क्या कहेंगे?’’

सुरैया अब भी सम?ा नहीं पाई कि अनवर क्या कहना चाहते हैं.

‘‘लोग क्या कहेंगे?’’ उस ने उन का ही सवाल दोहराया.

‘‘मैं ने अम्मा से पहले ही कहा था,’’ अनवर जैसे अपनेआप से कह रहे थे, ‘‘दूसरी शादी तो कर लूंगा मगर

शादी के बाद मु?ो और औलाद नहीं चाहिए. मेरे पहले बच्चे अब जवान हो रहे हैं.’’

अनवर के मुंह से यह सुन कर सुरैया सन्न रह गई. तो क्या उस की शादी अनवर से सिर्फ इसलिए हुई थी कि उस पर बां?ापन का ठप्पा लगा हुआ था. क्या इस आदमी के प्यार में भी स्वार्थ था कि उस के यतीम बच्चों को एक मां तो मिले मगर उसे खुद को मां बनने के अधिकार से वंचित रहना होगा. क्या औरत की जिंदगी का मकसद इतना ही है कि कहीं वह मां बन कर अपने आदमी को खुश रखे और कहीं बां?ा बन कर?

26 जनवरी स्पेशल : कभी अलविदा न कहना

वरुण के बदन में इतनी जोर का दर्द हो रहा था कि उस का जी कर रहा था कि वह चीखे, पर वह चिल्लाता कैसे. वह था भारतीय सेना का फौजी अफसर. अगर वह चिल्लाएगा, तो उस के जवान उस के बारे में क्या सोचेंगे कि यह कैसा अफसर है, जो चंद गोलियों की मार नहीं सह सकता.

वरुण की आंखों के सामने उस की पूरी जिंदगी धीरेधीरे खुलने लगी. उसे अपना बचपन याद आने लगा. उस के 5वें जन्मदिन पर उसे फौजी वरदी भेंट में मिली थी, जिसे पहन कर वह आगेपीछे मार्च करता था और सेना में अफसर बनने के सपने देखता था.

‘पापा, मैं बड़ा हो कर फौज में भरती होऊंगा,’ जब वह ऐसा कहता, तो उस के पापा अपने बेटे की इस मासूमियत पर मुसकराते, लेकिन कहते कुछ नहीं थे.

वरुण के पापा एक बड़े कारोबारी थे. उन का इरादा था कि वरुण कालेज खत्म करने के बाद उन्हीं के साथ मिल कर खुद एक मशहूर कारोबारी बने. उन्होंने सोच रखा था कि वे वरुण को फौज में तो किसी हालत में नहीं जाने देंगे. अचानक वरुण के बचपन की यादों में किसी ने बाधा डाली. उस के कंधे पर एक नाजुक सा हाथ आया और उस के साथ किसी की सिसकियां गूंज उठीं. तभी एक मधुर सी आवाज आई, ‘मेजर वरुण…’ और फिर एक सिसकी सुनाई दी. फिर सुनने में आया, ‘मेजर वरुण…’

वरुण ने सिर घुमा कर देखा कि एक हसीन लड़की उस के पास खड़ी थी. उस के हाथ में एक खूबसूरत सा लाल गुलाब भी था.

‘वाह हुजूर, अब आप मुझे पहचान नहीं रहे हैं…’

वरुण को हैरानी हुई. उस ने सोचा, ‘कमाल है यार, मैं फौजी अफसर हूं और यह जानते हुए भी यह मुझे बहलाफुसला कर अपने चुंगल में फंसाने के लिए मुझ से जानपहचान बनाना चाह रही है. मैं इस से बात नहीं करूंगा. अपना समय बरबाद नहीं होने दूंगा,’ और उस ने अपना सिर घुमा लिया. वरुण की जिंदगी की कहानी फिर उस की आंखों के सामने से गुजरने लगी. जब वह सीनियर स्कूल में पहुंचा, तो एनसीसी में भरती हो गया. वह फौज में जाने की पूरी तैयारी कर रहा था. स्कूल खत्म होने के बाद वरुण के पापा ने से कालेज भेजा. कालेज तो उसी शहर में था, पर उन्होंने वरुण का होस्टल में रहने का बंदोबस्त किया. वह इसलिए कि वरुण के पापा का खयाल था कि होस्टल में रह कर उन का बेटा खुद अपने पैरों पर खड़ा होना सीखेगा.

उस जमाने में मोबाइल फोन तो थे नहीं, इसलिए वरुण हफ्ते में एक बार घर पर फोन कर सकता था, अपना हालचाल बताने और घर की खबर लेने के लिए. उस के पापा उस से हमेशा कहते, ‘बेटे, याद रखो कि कालेज खत्म करने के बाद तुम कारोबार में मेरा हाथ बंटाओगे. आखिर एक दिन यह सारा कारोबार तुम्हारा ही होगा.’ वरुण को अपनी आंखों के सामने फौजी अफसर बनने का सपना टूटता सा दिखने लगा. वह हिम्मत हारने लगा. फिर एक दिन अचानक एक अनोखी घटना घटी, जिस से उस की जिंदगी का मकसद ही बदल गया.

वरुण के होस्टल का वार्डन ईसाई था. उस के पिता फौज के एक रिटायर्ड कर्नल थे, जो पत्नी की मौत के चलते अपने बेटे के साथ रहते थे. एक दिन 90 साल की उम्र में उन की मौत हो गई. वार्डन होस्टल के लड़कों की अच्छी देखभाल करता था. इस वजह से होस्टल के सारे लड़कों ने तय किया कि वे सब वार्डन के पिता की अंत्येष्टि में शामिल होंगे. जब लड़के कब्रिस्तान पहुंचे, तो उन्होंने एक अजीब नजारा देखा. वार्डन के पिता का शव कफन के अंदर था, पर कफन के दोनों तरफ गोल छेद काटे गए थे, जिन में से उन के हाथ बाहर लटक रहे थे. एक लड़के ने पास खड़े उन के एक रिश्तेदार से पूछा कि ऐसा क्यों किया गया है.

जवाब मिला, ‘यह उन की मरजी थी और उन की वसीयत में भी लिखा था कि उन को इस हालत में दफनाया जाए. लोग देखें कि वे इस दुनिया में खाली हाथ आए थे और खाली हाथ जा रहे हैं.’

वरुण यह जवाब सुन कर हैरान हो गया. उस ने सोचा कि अगर खाली हाथ ही जाना है, तो क्या फर्क पड़ेगा कि वह अपने मन की मुराद पूरी कर के फौजी अफसर की तनख्वाह कमाए, बनिस्बत कि अपने पिता के साथ करोड़ों रुपए का मालिक बने. उस ने पक्का इरादा किया कि वह फौजी अफसर ही बनेगा. वरुण जानता था कि उस के पापा उसे कभी अपनी रजामंदी से फौज में जाने नहीं देंगे. काफी सोचविचार के बाद वरुण ने अपने पिता को राजी कराने के लिए एक तरकीब निकाली.

एक दिन जब देर शाम वरुण के पापा घर लौटे और उस के कमरे में गए, तो उन्होंने उस की टेबल पर एक चिट्ठी पाई. लिखा था:

‘पापा, मैं घर छोड़ कर अपनी प्रेमिका के साथ जा रहा हूं. वैसे तो उम्र में वह मुझ से 10 साल बड़ी है, पर इतनी बूढ़ी लगती नहीं है. वह पेट से भी है, क्योंकि उस के एक दोस्त ने शादी का वादा कर के उसे धोखा दिया.

‘हम दोनों किसी मंदिर में शादी कर लेंगे और कहीं दूर जा कर रहेंगे. जब एक साल के बाद हम वापस आएंगे, तो आप अपनी पोती या पोते का स्वागत करने के लिए एक बड़ी पार्टी जरूर दीजिएगा.

‘आप का आज्ञाकारी बेटा,

‘वरुण.’

वरुण को पीछे पता चला कि उस की चिट्ठी पढ़ने के बाद उस के पापा की आंखों के सामने अंधेरा सा छाने लगा. तब तक उस के कमरे में उस की मां आ गईं.

‘वरुण कहां है ’ मां ने पूछा, तो वरुण के पापा की आवाज बड़ी मुश्किल से उन के गले से निकली. ‘पता नहीं…’

वरुण की मां ने कहा, ‘तकरीबन एक घंटे पहले उस ने कहा था कि वह बाहर जा रहा है और शायद देर से लौटेगा. पर बात क्या है  आप की तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है.’

वरुण के पापा ने बिना कुछ बोले जमीन पर गिरी चिट्ठी की ओर इशारा किया. उस की मां ने चिट्ठी उठाई और पढ़ने लगीं.

‘मेरे प्यारे पापा,

‘जो इस चिट्ठीके पिछली तरफ लिखा है, वह सरासर झूठ है. मेरी कोई प्रेमिका नहीं है और न ही मैं किसी के साथ आप से दूर जा रहा हूं. मैं अपने दोस्त मनोहर के घर पर हूं. हम देर रात तक टैलीविजन पर क्रिकेट मैच देखेंगे और फिर मैं वहीं सो जाऊंगा

‘मैं ने मनोहर क मम्मीपापा को बताया है कि मुझे उन के यहां रात बिताने में कोई दिक्कत नहीं है. मैं आप लोगों से कल सुबह मिलूंगा.

‘मैं ने जो पिछली तरफ लिखा है, वह तो इसलिए, ताकि आप को महसूस हो कि मेरा फौज में जाना बेहतर होगा, इस से पहले कि मैं कोई गड़बड़ी वाला काम कर लूं.’

वरुण के पापा ने ठंडी सांस भरी और मन ही मन में बोले, ‘तू जीत गया मेरे बेटे, मैं हार गया.’

वरुण ने यूपीएससी का इम्तिहान आसानी से पास किया. सिलैक्शन बोर्ड के इंटरव्यू में भी उस के अच्छे नंबर आए. फिर देहरादून की मिलिटरी एकेडमी में उस ने 2 साल की तालीम पाई. उस के बाद उस के बचपन का सपना पूरा हुआ और वह फौजी अफसर बन गया. कुछ साल बाद कारगिल की लड़ाई छिड़ी. वरुण की पलटन दूसरे फौजी बेड़ों के साथ वहां पहुंची. वरुण उस समय छुट्टी पर था… उस की छुट्टियां कैंसिल हो गईं. वह लौट कर अपनी पलटन में आ गया. वरुण ने अपनी कंपनी के साथ दुश्मन पर धावा बोला. भारतीय अफसरों की परंपरा के मुताबिक, वरुण अपने सिपाहियों के आगे था. दुश्मन ने अपनी मशीनगनें चलानी शुरू कीं. वरुण को कई गोलियां लगीं और वह गिर गया… फिर वही सिसकियों वाली आवाज वरुण के कानों में गूंज उठी, ‘वरुण, मैं आप का इंतजार कब तक करती रहूंगी  आप मुझे क्यों नहीं पहचान रहे हैं ’

वह लड़की घूम कर वरुण के सामने आ कर खड़ी हो गई. वरुण की सहने की ताकत खत्म हो गई.

‘हे सुंदरी….’ वरुण की आवाज में रोब भरा था, ‘मैं जानता नहीं कि तुम कौन हो और तुम्हारी मंशा क्या है. पर अगर तुम एक मिनट में यहां से दफा नहीं हुईं, तो मैं…’

‘आप मुझे कैसे भूल गए हैं  आप ने खुद मुझ से मिलने के लिए कदम उठाया था.’

वरुण ने सोचा, ‘अरे, एक बार मिलने पर क्या तुम्हें कोई अपना दिल दे सकता है,’ पर वह चुप रहा.

इस से पहले कि वह अपनी निगाहें सुंदरी से हटा लेता, वह फिर बोली, ‘अरे फौजी साहब, आप के पापा ने आप के मेजर बनने की खुशी में पार्टी दी थी. आप के दोस्त तो उस में आए ही, पर उन से बहुत ज्यादा आप के मम्मीपापा के ढेरों दोस्त आए हुए थे.

‘मेरे पापा आप के पापा के खास दोस्तों में हैं. वे मुझे भी साथ ले गए थे. ‘आप के पापा ने मेरे मम्मीपापा से आप को मिलवाया था. मैं भी उन के साथ थी. आप ने मुझे देखा और मुझे देखते ही रह गए. बाद में मुझे लगा कि आप की आंखें मेरा पीछा कर रही हैं. मुझे बड़ा अजीब लगा.’ वह कुछ देर चुप रही. वरुण उसे एकटक देखता ही रहा.

‘मैं ने देखा कि बहुत से लोग आप को फूलों के गुलदस्ते भेंट कर रहे थे. मैं दूर जा कर एक कोने में दुबक कर बैठ गई. जब आप शायद फारिग हुए होंगे, तो आप मुझे ढूंढ़ते हुए आए. मेरे सामने झुक कर एक लाल गुलाब आप ने मुझे भेंट किया.’

वरुण के मन में एक परदा सा उठा और उसे लगा कि वह लड़की सच ही कह रही थी. तभी उसे आगे की बातेंयाद आईं. उस की मम्मी ठीक उसी समय वहां पहुंच गईं. उन्होंने शायद सारा नजारा देख लिया था, इसलिए उन्होंने मुसकराते हुए वरुण की पीठ थपथपाई. वे काफी खुश लग रही थीं. वे शायद उस के पापा के पास चली गईं और उन्हें सारी बातें बता दी होंगी.

तभी वरुण के माइक पर सभी लोगों से कहा, ‘आज की पार्टी मेरे बेटे वरुण के मेजर बनने की खुशी में है,’ उन्होंने वरुण की ओर देख कर उसे बुलाया. जब वरुण स्टेज पर पहुंच गया, तब वे माइक पर आगे बोले, ‘और इस मौके पर उसे मैं एक भेंट देने जा रहा हूं.’ उन्होंने एक हाथ बढ़ा कर वरुण का हाथ थामा और दूसरे हाथ से अपने दोस्त राम कुमार की बेटी का हाथ पकड़ा और बोले, ‘वरुण को हमारी भेंट है… भेंट है उस की होने वाली दुलहन विनीता, जो मेरे दोस्त राम कुमार की बेटी है.’ उन्होंने वरुण को विनीता का हाथ थमा दिया. सारा माहौल खुशी की लहरों और तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.

विनीता शरमा कर अपना हाथ वरुण के हाथ से छुड़ाने की कोशिश करने लगी. वरुण ने हाथ नहीं छोड़ा और विनीता के कान के पास कहा, ‘सगाई में मैं तुम्हारे लिए एक अंगूठी देख लूंगा. अभी मेरी छुट्टी के 45 दिन बाकी हैं.’

अफसोस, लड़ाई छिड़ने के चलते वरुण की छुट्टियां कैंसिल हो गईं…

फौजी डाक्टर ने वरुण के शरीर की पूरी जांचपड़ताल की. उस के पास ही वरुण के कमांडिंग अफसर खड़े थे, जिन के चेहरे पर भारी आशंका छाई हुई थी.

‘‘मुबारक हो सर,’’ डाक्टर ने उन को संबोधित कर के कहा, ‘‘आप के मेजर को 4 गोलियां लगी हैं, पर कोई भी जानलेवा नहीं है. खून काफी बह चुका है, पर वे जिंदा हैं. आप के ये अफसर बड़े मजबूत हैं. मैं इन्हें जल्द ही अस्पताल पहुंचा दूंगा. मुझे पक्का यकीन है कि चंद हफ्तों में ये बिलकुल ठीक हो जाएंगे.’’

‘‘मुझे भी यही लग रहा है,’’ वरुण के कमांडिंग अफसर ने जवाब दिया.

26 January Special : मेरा बाबू- एक मां की दर्द भरी कहानी

जून, 1993 की बात है. मुंबई में बंगलादेशियों की धरपकड़ जारी  थी. पुलिस उन्हें पकड़पकड़ कर ट्रेनों में ठूंस रही थी.   कुछ तो चले गए, कुछ कल्याण स्टेशन से वापस मुड़ गए. किसी का बाप पकड़ा गया और टे्रेन में बुक कर दिया गया तो बीवीबच्चे छूट गए. किसी की मां पकड़ी गई तो छोटेछोटे बच्चे इधर ही भीख मांगने के लिए छूट गए. पुलिस को किसी का फैमिली डिटेल मालूम नहीं था, बस, जो मिला, धर दबोचा और किसी भी ट्रेन में चढ़ा दिया. सब के चेहरे आंसुओं से भीग गए थे.

यह धरपकड़ करवाने वाले दलाल इन्हीं में से बंगाली मुसलमान थे. रात के अंधेरे में सोए हुए लोगों पर पुलिस का कहर नाजिल होता था, क्योंकि इन्हें दिन में पकड़ना मुश्किल था. कभी तो कोई मामला लेदे कर बराबर हो जाता और कभी किसी को जबरदस्ती ट्रेन में ठूंस दिया जाता. इन की सुरक्षा के लिए कोई आगे नहीं आया, न ही बंगलादेश की सरकार और न ही मानवाधिकार आयोग.

उन दिनों मेरे पास कुछ औरतों का काम था. सब की सब सफाई पर लगा दी गई थीं. कुछ को मैं ने कब्रिस्तान में घास की सफाई पर लगा रखा था. ज्यादातर औरतें बच्चों के साथ थीं. उन के साथ जो मर्द थे, उन के पति थे या भाई, मालूम नहीं. ये भेड़बकरियों की तरह झुंड बना कर निकलती थीं और झुंड ही की शक्ल में रोड के ब्रिज के नीचे अपने प्लास्टिक के झोपड़ों में लौट जाती थीं.

उन्हीं में एक थी फरजाना. देखने में लगता था कि वह 17 या 18 साल की होगी. मुझे तब ज्यादा आश्चर्य हुआ जब उस ने बताया कि वह विधवा है और एक बच्चे की मां है. उस का 2 साल का बच्चा जमालपुर (बंगलादेश) में है.

इस धरपकड़ के दौरान एक दिन वह मेरे पास आई और बोली, ‘‘साहब, मैं यहां से वापस बंगलादेश नहीं जाना चाहती.’’

‘‘क्यों? चली जाओ. यहां अकेले क्या करोगी?’’

‘‘साहब, मेरा मर्द एक्सीडेंट में मर गया. मेरा एक लड़का है जावेद, मेरा बाबू, मैं अपनी भाभी और भाई के पास उसे छोड़ कर आई हूं. मैं अपने बाबू के लिए ढेर सारा पैसा कमाना चाहती हूं ताकि उसे अच्छे स्कूल में अच्छी शिक्षा दिला सकूं और बड़ा आदमी बना सकूं.’’

फरजाना को पुकारते समय मैं उसे ‘बेटा’ कहता था और इसी एक शब्द की गहराई ने उस को मेरे बहुत करीब कर दिया था. न जाने क्यों, जब वह मेरे पास आती तो मेरे इतने करीब आ जाती जैसे किसी बाप के पास बेटी आती है. वह मुझे ‘रे रोड’ के प्लास्टिक के झोंपड़ों की सारी दास्तान सुनाती.

उस की कई बार इज्जत खतरे में पड़ी, लेकिन वह भाग कर या तो रे रोड के रेलवे स्टेशन पर आ गई या रोड पर आ कर चिल्लाने लगी. ये इज्जत लूटने वाले या उन्हें जिस्मफरोशी के बाजार में बेचने वाले बंगलादेशी ही थे. पहले वह यहां के दलालों से मिलते थे. रात के समय औरतों को दिखाते थे और फिर सौदा पक्का हो जाता था. कितनी ही औरतें फकलैंड रोड, पीली कोठी और कमाठीपुरा में धंधा करने लगीं और कुछ तंग आ कर मुंबई से भाग गईं.

फरजाना ने एक दिन मुझे बताया कि वह बंगाली नहीं है. बंटवारे के समय उस के पिता याकूब खां जिला गाजीपुर (उत्तर प्रदेश) से पूर्वी पाकिस्तान गए थे. उस के बाद 1971 के गृहयुद्ध में वह मुक्ति वाहिनी के हाथों मारे गए. इस के बाद उस के भाई ने उस की शादी कर दी. उस का पति एक्सीडेंट में मर गया. जब उस का पति मरा तो वह पेट से थी. अब यह खानदान पूरी तरह उजड़ गया था. बंगलादेश से जब बिहारी मुसलमानों  ने उर्दू भाषी पाकिस्तान की तरफ कूच करना शुरू किया तो वहां की सरकार ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया. इधर बंगलादेश सरकार भी उन्हें अपने पास रखना नहीं चाहती थी, क्योंकि इस गृहयुद्ध में इन की सारी वफादारी पाकिस्तान के साथ थी. यहां तक कि इन्होंने मुक्ति वाहिनी से लड़ने के लिए अपनी रजाकार सेना बनाई थी.

जबपाकिस्तान हार गया और एक नए देश, बंगलादेश, का जन्म हो गया तो ये सारे लोग बीच में लटक गए. न बंगलादेश के रहे न पाकिस्तान के. फरजाना उन्हीं में से एक थी. वह भोजपुरी के साथ बहुत साफ बंगला बोलती थी. एक दिन तो हद हो गई, जब वह टूटेफूटे बरतनों में मेरे लिए मछली और चावल पका कर लाई.

मैं ने अपने दिल के अंदर कई बार झांक कर देखा कि फरजाना कहां है? हर बार वही हुआ. फरजाना ठीक मेरी लड़की की तरह मेरे दिल में रही. अब वह मुझे बाबा कह कर पुकारती थी. दिल यही कहता था कि उसे इन सारे झमेलों से उठा कर क्यों न अपने घर ले जाऊं, ज्यादा से ज्यादा यही होगा कि मेरी 3 के बजाय 4 लड़कियां हो जाएंगी. लेकिन उस के बाबू जावेद का क्या होगा, जिस को वह जमालपुर (बंगलादेश) में छोड़ कर आई थी और फिर मैं ने उसे इधरउधर के काम से हटा कर अपने पास, अपने दफ्तर में रख लिया. काम क्या था, बस, दफ्तर की सफाई, मुझे बारबार चाय पिलाना और कफन के कपड़ों की सफाई.

मुंबई एक ऐसा शहर है जहां ढेर सारे ट्रस्ट, खैराती महकमे हैं, बुरे लोगों से ज्यादा अच्छे लोग भी हैं और जिस विभाग का मैं मैनेजर था वह भी एक चैरेटी विभाग था. मसजिदों की सफाई, इमामों, मोअज्जिनों की भरती, पैसों का हिसाब- किताब लेकिन इस के अलावा सब से बड़ा काम था लावारिस मुर्दों को कब्रिस्तान में दफन करना. जो भी मुसलिम लाशें अस्पताल से मिलती थीं, उन का वारिस हमारा महकमा था. हमारा काम था कि उन को नहला कर नए कपड़ों में लपेट कर उन्हें कब्रिस्तान में सुला दिया जाए.

मुंबई में कब्रिस्तानों का तो यह आलम है कि चाहे जहां भी किसी के लिए कब्र खोदी जाए, वहां 2-4 मुर्दों की हड्डियां जरूर मिलती हैं. मतलब इस से पहले यहां कई और लोग दफन हो चुके हैं, और फिर इन हड्डियों को इकट्ठा कर के वहीं दफन कर दिया जाता है. यहां कब्रिस्तानों में कब्र के लिए जमीन बिकती है और यह दो गज जमीन का टुकड़ा वही खरीद पाते हैं जिन के वारिस होते हैं.

सोनापुर के इलाके में ज्यादातर कब्रें इसलिए पुख्ता कर दी गई हैं ताकि दोबारा यहां कोई और मुर्दा दफन न हो सके. मुंबई में मुर्दों की भी भीड़ है, इन के लिए दो गज जमीन का टुकड़ा कौन खरीदे? इसलिए हमारा विभाग यह काम करता है. हमारे विभाग ने लावारिस लाशों के लिए एक जगह मुकर्रर कर रखी है. यह संस्था कफनदफन का सारा खर्च बरदाश्त करती है. बाकायदा एक मौलाना और कुछ मुसलमान इस काम पर लगा दिए गए हैें कि जब कोई लावारिस लाश आए उसे नहलाएं, कफन पहनाएं और नमाजेजनाजा पढ़ कर कब्र में उतारें. शायद ऐसा विभाग हिंदुस्तान के किसी शहर में नहीं है, लेकिन मुंबई में है और यह चैरेटी इस काम को खुशीखुशी करती है. वैसे इस दफ्तर का मुंबई की भाषा में एक दूसरा नाम भी है, ‘कफन आफिस.’

एक दिन फरजाना ने आ कर मुझे एक मुड़ीतुड़ी तसवीर दिखाई, ‘‘बाबा, यह मेरा बाबू है, ठीक अपने बाप पर गया है,’’ और फिर उस ने किसी कीमती चीज की तरह उसे अपने ब्लाउज में रख लिया. बच्चे की तसवीर बड़ी प्यारी थी. बड़ीबड़ी आंखें, उस में ढेर सारा काजल, माथे पर काजल का टीका, बाबासूट पहने फरजाना की गोद में बैठा हुआ है. मैं ने पूछा, ‘‘फरजाना, यह छोटा बच्चा तुम्हारे बगैर कैसे रहता होगा?’’

‘‘मैं वहां उसे भैयाभाभी के पास छोड़ कर आई हूं. उन के अपने 2 बच्चे हैं. यह तीसरा मेरा है. बड़े आराम से रह रहा होगा बाबा. आखिर, इस का बाप नहीं, दादा नहीं, चाचा नहीं, फिर इस के लिए कौन कमाएगा? इस को कौन बड़ा आदमी बनाएगा? मैं अपने सीने पर पत्थर रख कर आई हूं. जब किसी का बच्चा रोता है तो मेरा बाबू याद आता है. मैं अकेले में चुपके- चुपके रोती हूं. लेकिन मैं चाहती हूं, थोड़ा- बहुत पैसा कमा लूं तो वहां जाऊं, अपनेबाबू का अच्छे स्कूल में नाम लिखाऊं और फिर बड़ा हो कर मेरा बाबू कुछ बन जाए.’’

कुछ दिनों के बाद पुलिस ने इन की धरपकड़ बंद कर दी. लेकिन मैं ने उन सारी औरतों को काम से हटा दिया. वह कहां गईं, किधर से आईं, किधर चली गईं, मैं इस फिक्र से आजाद हो गया क्योंकि इन में कुछ रेडलाइट एरिया का चक्कर भी काटती थीं. मैं अपनेआप को इन तमाम झंझटों से दूर रखना चाहता था.

एक दिन जब दफ्तर की सफाई करते समय एक थैला मिला. खोल कर देखा तो उस में छोटे बच्चे के लिए नएनए कपड़े थे. मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि यह सारे कपड़े फरजाना ने अपने बाबू के लिए खरीदे होंगे और जल्दबाजी या पुलिस की धरपकड़ के दौरान वह इन्हें भूल गई होगी. अब ऐसे खानाबदोश लोगों का न घर है न टेलीफोन नंबर. फिर इन कपड़ों का क्या किया जाए?

मैं ने एकएक कपड़े को गौर से देखा. बाबासूट, जींस की पैंट, जूता, मोजा और एक छोटी सी टोपी. मैं ने भी उन्हें वहीं संभाल कर रख दिया. शहर में फरजाना को तलाश करना मुश्किल था.

एक दिन अखबार पर सरसरी निगाह डालते हुए मैं ने देखा कि कुछ औरतें सोनापुर (भानडूप) के रेडलाइट एरिया से पकड़ी गई हैं और पुलिस की हिरासत में हैं. इन में फरजाना का भी नाम था. इन सारी औरतों को कमरे के नीचे तहखाने में रखा गया था. दिन में केवल एक बार खाना दिया जाता था और जबरदस्ती उन से देह व्यापार का धंधा कराया जाता था.

उस का नाम पढ़ते ही मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. उस का बारबार मुझे बाबा कह के पुकारना याद आने लगा. दिल नहीं माना और मैं उस की तलाश में निकल पड़़ा.

उसे ढूंढ़ने में अधिक परेशानी नहीं हुई. वह भांडूप पुलिस स्टेशन में थी और वहां की पुलिस उसे बंगलादेश भेज रही थी. मैं थोड़ी देर के लिए उस से मिला लेकिन अब वह बिलकुल बदल चुकी थी. वह मुझे टकटकी लगा कर देख रही थी. उस के चेहरे की सारी मुसकराहट गुम हो चुकी थी. मुझे मालूम था कि उस की इज्जत भी लुट चुकी है. औरत की जब इज्जत लुट जाती है तो उस का चेहरा हारे हुए जुआरी की तरह हो जाता है, जो अपना सबकुछ गंवा चुका होता है. मैं ने वह प्लास्टिक का थैला उस के हाथ में दे दिया. उस ने उसे देखा और रोते हुए बोली, ‘‘बाबा, अब इस की जरूरत नहीं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘बाबा, मेरा बाबू मर गया.’’

‘‘क्या बात कर रही हो. यह कैसे हो सकता है?’’

‘‘बाबा, वह मर गया. मैं अपने भाई और भाभी को पैसा भेजती रही और वह मेरे बाबू की मौत मुझसे छिपाए रहे. वह  उसे कमरे के बाहर सुला देते थे. रात भर वह नन्हा फरिश्ता बारिश और ठंड में पड़ा रहता था. उसे सर्दी लगी और वह मर गया. भाभी और भाई ने उस की मौत को मुझ से छिपाए रखा ताकि उन को हमेशा पैसा भेजती रहूं. वह तो एक औरत वहां से आई थी और उस ने रोरो कर मेरे बाबू की दास्तान सुनाई. अब मेरा जिस्म बाकी है. अब मुझे जिंदगी से कोई दिलचस्पी नहीं.’’

फिर वह दहाड़ मार कर रोने लगी.

उस के इस तरह रोने से पुलिस स्टेशन में हड़बड़ी मच गई. सभी अपना काम छोड़ कर उस की तरफ दौड़ पड़े. उसे पानी वगैरह पिला कर चुप कराया गया. पुलिस अपनी काररवाई कर रही थी लेकिन मुझे यकीन था कि अब वह बंगलादेश नहीं जाएगी, अलीगंज या किशनगंज से दोबारा भाग आएगी. अब वहां उस का था भी कौन? एक बच्चा था वह भी मर गया. मैं उसे पुलिस स्टेशन में छोड़ कर आ गया और अपने कफन आफिस के कामों में लग गया. रोज एक नया मुर्दा और उस का कफनदफन.

एक दिन अस्पताल से फोन आने पर वहां गया. एक लाश की पहचान नहीं हो पा रही थी. लाश लोकल ट्रेन से कट गई थी. दोनों जांघों की हड्डियां कट गई थीं. पेट की आंतें बाहर थीं. यह एक औरत की लाश थी. ब्लाउज के अंदर एक छोटे बच्चे की तसवीर खून में डूबी हुई थी. तसवीर को पानी से साफ किया. अब सबकुछ साफ था. यह फरजाना की लाश थी. उस का बाबू अपनी तसवीर में हंस रहा था. न जाने अपनी मौत पर, या अपनी मां की मौत पर या फिर इस मुल्क के बंटवारे पर. मैं उस लाश को उठा कर ले आया और तसवीर के साथ उसे कब्र में दफन कर दिया.

26 जनवरी स्पेशल : सीमा के सेनानी- कौन था वह फौजी जिसे दिल से सैल्यूट करने का मन किया?

वह एक सीमा थी. सीमा पर तैनात वे एक सेनानी थे. सीमा भौगोलिक न थी, देश की न थी. सीमा जिंदगी और मौत की थी. वे सेना से रिटायर्ड थे, मैं सरकारी नौकरी से. गुर्दे उन के खराब थे और मेरे भी. डायलेसिस कराने के लिए सप्ताह के 3 दिन अस्पताल के इसी कक्ष में वे भी और मैं भी. इस कक्ष में एक बार में 12 लोग डायलेसिस की प्रक्रिया में होते हैं.

शरीर में जब द्रव की मात्रा अधिक हो तो डायलेसिस कराने की जरूरत होती है और अगर इस प्रक्रिया में देर होती है तो पानी फेफड़ों में भर जाता है. फेफड़ों में पानी के भरने का मतलब सांस का न आना है और यह तो बताने की जरूरत ही नहीं कि सांस का न आना मतलब कथा का समाप्त हो जाना है. फेफड़ों के पानी से पूरे भर जाने में आधे घंटे का समय लगता है क्योंकि इंसान पानी में डूब नहीं रहा कि 2 मिनट का समय लगे. यह पानी तो शरीर का ही है जो धीरेधीरे हर सांस के साथ चढ़ता है. ब्लडप्रैशर बढ़ा, पानी चढ़ा. पानी चढ़ा, ब्लडप्रैशर बढ़ा. दोनों ऐसे बढ़ते हैं मानो मृत्यु को झट से छू लेंगे.

जीवनमृत्यु की इस लुकाछिपी को आएदिन देखने का संजोग होता है. मेरी सांस फूल रही थी यानी फेफड़ों में पानी भर रहा था. औक्सीजन का सिलैंडर ले कर हम घर से चले थे. औक्सीजन के बावजूद बेचैनी बढ़ रही थी. फेफड़ों में पानी भर जाएगा तो फिर औक्सीजन जाएगी कहां?

मैं व्हीलचेयर पर थी, औक्सीजन मास्क लगा हुआ था. बेचैनी का आलम यह कि वह हर सांस के साथ बढ़ती जाए. फेफड़ों में चढ़ते पानी के साथ बेचैनी बढ़ती जाती है तेजी के साथ. डायलेसिस कक्ष में मैं उपस्थित थी किंतु कोई बैड खाली नहीं था. अपनेअपने बिस्तर पर पड़े सब लोग मुझे आधा जिंदा आधा मुर्दा लगते हैं. शायद बिस्तर पर पड़ी मैं भी ऐसी ही दिखाई देती होऊंगी.

सब जानते हैं कि डायलेसिस कोई इलाज नहीं, एक प्रक्रियाभर है. जीवन की लीज का टैंपरेरी ऐक्सटैंशन. लगभग 4 घंटे बिस्तर पर पड़ेपड़े शरीर के रक्त को शरीर से बाहर निकल कर एक कंप्यूटर से जुड़ी डायलेसिस मशीन से हो कर गुजरता हुआ देखा करो. अपने ही रक्त की ऊष्मा देखो, महसूस करो. रक्त का रंग देखो. गहरे काले रंग से धीरेधीरे 4 घंटों में काला होते देखो, कम काला होते देखो, लाल होते देखो.

बीच में कभी ब्लडप्रैशर नाराज हो जाता है तो साथ देने को उस की सखी यानी ब्लडशुगर भी धड़ाम हो जाती है. वे गिरते हैं और पसीना न केवल बीमार के हाथ में आता है माथे से पुंछ कर, बल्कि पसीने के कण तो खड़े डाक्टर के माथे पर भी झिलमिलाते देखे हैं. डाक्टर भी यह कह कर बाहर पटक देते हैं – मरने का अभी वक्त नहीं आया. चलो उठो, जीओ.

डाक्टर के कहने से ही नहीं, मेरा तो खुद भी जीने का मन करता है. मरने को तो बिलकुल ही जी नहीं है. अभी तो मुझे टीटो की शादी में लहंगा पहन कर नाचना है. टीटो मेरा पोता है. 2 साल का है. टीटो प्यारा है. टीटो का बाप, अब्बा, बाबा सभी प्यारे हैं. यही मेरी दुनिया है. मुझ को सारी दुनिया प्यारी लगती है. ऐसी सुंदर दुनिया को छोड़ कर कौन जाए? मैं कौन हूं जाने, न जाने वाली? इधर, फेफड़ों में सांससांस के साथ भरता, सांसों की गिनती कम करता जाता पानी लेकिन अभी आधे घंटे से पहले कोई बैड, कोई मशीन खाली नहीं होगी. यहां मैं देर से नहीं आई हूं, अपने निर्धारित समय पर ही डायलेसिस कक्ष में उपस्थित हूं लेकिन कोई बैड खाली नहीं है. जाहिर है किसी को अधबीच में तो नहीं हटा सकते.

‘‘कहां जाऊं?’’ बेटे का घबराया हुआ स्वर कान में पड़ता है.

‘‘आप को ऐसी स्थिति के लिए कुछ तो इंतजाम रखना चाहिए,’’ बेटी द्वारा अस्पताल प्रबंधन से बोला वाक्य सुना.

‘‘इमरजैंसी में ले जाओ.’’

इमरजैंसी निचले तल पर है. आपदा में हर मिनट कीमती है. व्हीलचेयर की दिशा पलटी जाती है. बाहर का रुख करती ही है कि जीवनमृत्यु की इस सीमा पर एक कड़कदार आवाज सुनाई देती है, ‘‘मेरा अभी आधा घंटा बाकी है, मेरा डायलेसिस फौरन बंद कर इन का लगा दो.’’

यह आवाज उस सेनानी की है जो फौज से रिटायर्ड है. वह सरकारी नौकरी से पेंशनयाफ्ता दूसरे आदमी को अपना समय देने को तैयार है. फौजियों को देश के लिए गोली खाना आता है तो देशवासियों के लिए अपनी जान खतरे में डालाना भी. वे सोचने में वक्त जाया नहीं करते. तुरंत ऐक्शन में यकीन करते हैं.

जहां अपने वश में होता, गोली फौरन ठांय कर देते. यहां ये फैली रक्तनलिकाएं तो मैडिकल स्टाफ ही समेट सकता है और इस तरह समेटना अस्पताल के प्रोटोकौल में नहीं है. सेनानी ने जीवनमृत्यु की सीमा पर खड़ी मुझे अपना स्थान देने की एक बार फिर ऊंची आवाज में पेशकश की. अस्पताल ने सुना नहीं. मेरी व्हीलचेयर इमरजैंसी की ओर मोड़ दी गई, फिर स्ट्रेचर से आईसीयू में पहुंची. सांस अगले दिन कुछ काबू में आई. पलक खुली तो डा. अंकुर गुप्ता दिखे. पता नहीं, पर शायद वे मेरे परोपकारी रहे होंगे. हर बार वे मुझे मौत के मुंह से खींच लाते हैं.

लेकिन सीमा के उस सेनानी के बारे में मुझे कोई संशय नहीं है. हर क्षण में वे देश की सीमा के ही नहीं, जीवनमृत्यु की सीमा पर खड़े देशवासियों के भी रक्षक हैं. डायलेसिस कक्ष में जबजब उन का मेरा समय एक हुआ या आतेजाते दिखे तो उन्होंने पुरखुलूस आवाज में ‘गुडमौर्निंग’ या ‘गुडइवनिंग’ कहा और मैं ने उन्हें ‘जयहिंद सर’ कहा. नाम न मैं ने पूछा न उन्होंने. उन्होंने कहा, ‘‘आप मुझे सर मत कहिए, मैं मामूली फौजी हूं.’’

फौजी कब मामूली होते हैं? वे तो सदा सैल्यूट के अधिकारी होते हैं. सैल्यूट, जो हाथ से नहीं, दिल से किया जाता है.

सीमा के सेनानी को मेरा सौसौ बार नमन. जयहिंद सर

26 जनवरी स्पेशल : जवाबी हमला

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रामलला प्राण प्रतिष्ठा, पाखंडियों ने सिखाई अनटाइमली डिलीवरी

समय से पहले जन्म लेने वाले बच्चों का शारीरिक अनुपात नौर्मल नहीं होता. वे बड़े सिर और छोटे शरीर के आकार वाले बच्चे होते हैं. उन के शरीर में वसा की कमी होती है और शरीर पर महीन बाल होते हैं. त्वचा चमकदार दिखाई दे सकती है.

यदि कोई महिला समय से पहले बच्चे को जन्म देती है तो डाक्टर उन के जन्म के तुरंत बाद उन्हें सीधे नवजात गहन चिकित्सा इकाई (एनआईसीयू) में स्थानांतरित कर देते हैं क्योंकि उन्हें जिंदा रखने के लिए मैडिकल सहायता की जरूरत पड़ती है. वहां शिशु के महत्वपूर्ण अंगों की लगातार जांच और निगरानी रखनी होती है. तापमान, श्वसन दर, हृदय गति आदि पर नजर रखना होता है.

समय से पहले जन्म लेने वाले यानी प्रीमैच्योर बेबी को कई तरह की शारीरिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है.

एक भ्रूण को विकसित होने के लिए गर्भाशय में पूर्ण अवधि यानी 40 सप्ताह की आवश्यकता होती है. यदि वे जल्दी पैदा हो जाते हैं तो वे पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाते हैं. इस से गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं. प्रीमैच्योर शिशुओं को हृदय, मस्तिष्क, फेफड़े या यकृत संबंधी समस्याएं होती हैं.

फेफड़ों के अपरिपक्व होने की वजह से प्रीमैच्योर बेबी को सांस लेने में तकलीफ हो सकती है. इस से कई श्वसन संबंधी परेशानियां हो सकती हैं जिन के लिए तुरंत उपचार की आवश्यकता होती है. प्रीमैच्योर बेबी में सांस लेने में रुकावट आने को एपनिया कहा जाता है. अधिकांश बेबी अस्पताल से घर जाने तक एपनिया से पीड़ित हो जाते हैं. समय से पहले पैदा हुए कुछ शिशुओं में फेफड़ों का एक कम सामान्य विकार हो जाता है जिसे ब्रोन्कोपल्मोनरी डिसप्लेसिया कहा जाता है. उन्हें कुछ हफ्तों या महीनों तक औक्सीजन की आवश्यकता होती है.

इन शिशुओं में सामान्य हृदय संबंधी जटिलताएं भी होती हैं. समय से पहले जन्मे बेबी को होने वाली कुछ सामान्य हृदय समस्याएं पेटेंट डक्टस आर्टेरीओसस (पीडीए) और निम्न रक्तचाप हैं. ऐसे में उपचार के बिना हृदय उतनी अच्छी तरह रक्त पंप नहीं कर पाता जितना उसे करना चाहिए. निम्न रक्तचाप का इलाज नस के माध्यम से दिए जाने वाले तरल पदार्थ और दवाएं हैं.

समय से पहले जन्म लेने वाले बेबीज के मस्तिष्क में आंतरिक रक्तस्राव हो सकता है. रक्तस्राव आमतौर पर थोड़े समय के बाद बंद हो जाता है लेकिन इस से घातक जटिलताएं भी हो सकती हैं. ऐसे शिशुओं में वसा की कमी के कारण उन के शरीर में तेजी से गर्मी कम होती है. इस से शरीर का तापमान कम हो जाता है.

समय से पहले जन्म लेने वाले शिशुओं में खून की एक आम समस्या एनीमिया होती है. यह एक ऐसी स्थिति है जहां लाल रक्त कोशिका की संख्या कम होती है. यही नहीं समय से पहले जन्मे शिशुओं में प्रतिरक्षा प्रणाली का पूरी तरह से विकसित न होना आम बात है. इन शिशुओं में संक्रमण तेजी से रक्त प्रवाह में फैल सकता है और सेप्सिस नामक जानलेवा समस्या का कारण बन सकता है.

ऐसे शिशुओं की रेटिना में रक्त वाहिकाएं सूज सकती हैं. इस से अंधापन सहित विभिन्न दृष्टि समस्याएं हो सकती हैं. उन्हें सुनने की समस्याएं भी हो सकती हैं. लोन्ग टर्म में मस्तिष्क के विकास की कमी के कारण ऐसे बच्चों में स्कूली उम्र में परिपक्व बच्चों की तुलना में सीखने की क्षमता में कमी दिखती है.

प्रीमैच्योर बेबी अपने शरीर के तापमान को नियंत्रित नहीं कर सकते इसलिए उन्हें इनक्यूबेटर सपोर्ट दिया जाता है. ऐसे शिशुओं में दूध पिलाने की अक्षमता को संतुलित करने के लिए इंट्रावेनस (IV) ट्यूब का उपयोग कर आवश्यक पोषक तत्व शरीर में पहुंचाए जाते हैं. इस IV ट्यूब का उपयोग तब तक आवश्यक हो जाता है जब तक कि शिशु इतना मजबूत न हो जाए कि वह मां का दूध चूस सके.

शुभ मुहूर्त में चाहिए बेटा

इतना सब होने के जोखिम के बावजूद हमारे देश के कितने ही हिस्सों में गर्भवती महिलाओं ने रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के दिन यानी 22 जनवरी को प्रसव कराने का स्लौट बुक कराया था ताकि जिन बच्चों को दुनिया में आने का समय नहीं आया उन्हें भी सर्जरी द्वारा जबरन इसी दिन जन्म दिया जाए भले ही उन्हें स्वस्थ और जिंदा रखना ही कठिन क्यों न हो जाए. इस से बड़ी मूर्खता क्या होगी कि अंधविश्वास की वजह से अपने ही बच्चे की सेहत से खिलवाड़ किया जाए.

कितनी ही महिलाओं ने प्राण प्रतिष्ठा के दिन बच्चे को जन्म देने की मंशा से प्रसव कराने का स्लौट बुक करा रखा था. महिलाओं का प्रसव कराने के लिए कक्ष की साज सज्जा की गई थी. ऐसी सभी महिलाओं की डिलीवरी सर्जरी से हुई. महिलाएं सर्जरी के लिए सहर्ष तैयार थीं. सामान्य तौर पर लोग सर्जरी अवायड करते हैं क्योंकि सर्जरी के बाद मां की सेहत पर भी बुरा असर पड़ता है और कुछ जोखिम भी होते हैं. मगर यहां राम नाम के अंधविश्वास के आगे महिलाओं की जिंदगी भी दांव पर लगा दी गई. सिर्फ इस चाह में कि बच्चा उसी मुहूर्त में पैदा हो.

दरअसल धर्म ने हमारे सोचने समझने की क्षमता खत्म कर दी है. हम हकीकत से दूर कल्पना की दुनिया मंल उड़ते रहते हैं और फिर कभी भी ठोकर खा कर नीचे गिर जाते हैं. तब भी अपनी ही किस्मत को दोष दे देते हैं. अपने कर्मों का हिसाब नहीं रखते. तर्क के बजाए विश्वास के सहारे जीते हैं. समय आ गया है अब हमें सही गलत का भेद समझना होगा.

जान लीजिए, दान में दी गई संपत्ति नहीं है औरत

झारखंड हाई कोर्ट रांची के चीफ जस्टिस सुभाष चंद्र ने रूद्र नारायण राय बनाम पियाली राय चटर्जी मामले में फैसला सुनाते हुए यजुर्वेद और मनुस्मृति के श्लोक का हवाला देते कहा कि ‘हे महिला तुम चुनौतियों से हारने लायक नहीं हो. तुम सब से शक्तिशाली चुनौती को हरा सकती हो.‘

अदालत ने मनुस्मृति के श्लोक का हवाला देते कहा कि ‘जहां परिवार की महिलाएं दुखी होती है वह परिवार जल्द ही नष्ट हो जाता है. जहां महिलाएं संतुष्ट रहती है वह परिवार हमेशा फलताफूलता है. वृद्ध सास की सेवा करना बहू का कर्तव्य है. वह अपने पति को मां से अलग रहने के लिए दबाव नहीं बना सकती है.’

रूद्र नारायण राय बनाम पियाली राय चटर्जी मामले में कोर्ट ने गुजारा भत्ता देने के आदेश को निरस्त कर दिया. कोर्ट ने नाबालिग बेटे के परवरिश के लिए 15 हजार की राशि को बढ़ा कर 25 हजार कर दिया. कोर्ट ने कहा कि पत्नी के लिए अपने पति की मां और नानी की सेवा करना अनिवार्य है.’ कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद ‘51-ए’ का हवाला देते कहा कि इस में एक नागरिक के मौलिक कर्तव्यों को बताया गया है. इस में हमारी समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्व देने और संरक्षित करने का प्राविधान है. वृद्ध सास या दादी सास की सेवा करना देश की संस्कृति है.’

धर्म के नाम पर औरतों का शोषण

धर्म के नाम पर औरतों का किस तरह से शोषण होता है. पौराणिक कहांनियों के जरीए इस को महिलाओं के मन में ठूंस कर भर दिया गया है. हिंदू धर्म में विवाह संस्कारों में लड़की को दान देने की वस्तु बताया गया है. इस को कन्या दान कहा गया है. इस को सब से बड़ा दान बताया गया है. इस का महत्व बहुत अधिक बताया गया है. कहा गया है कि मायके से लड़की की डोली जाती है और ससुराल से उस की अर्थी ही निकलती है. दान के बारे में कहा गया कि दान देने के बाद फिर उस पर दान देने वाले का अधिकार नहीं रहता है.

इस वजह से ही कन्यादान के बाद मायके से उस का रिश्ता खत्म कहा गया. इस दबाव में ही पिता लड़की की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है. शादी के बाद जब लड़की अपने मायके रहना भी चाहे तो भाई बाप और समाज इस को सही नहीं मानते. मायके से लड़की का नाता टूट जाता है. ससुराल में उस का नाता केवल सेवा तक रह जाता है. पिता का नाता छोड़ ससुराल पहुंची लड़की को ससुर अपनी जायदाद में हिस्सा नहीं देता है. बहू सब की सेवा करेगी यह कर्तव्य उस को बताया जाता है. सास और ससुर उस की कितनी और क्या जिम्मेदारी उठाएंगे यह कहीं नहीं बताया गया.

*संविधान और कानून के हक नहीं मिलते *

यही वह पेंच है कि जिस से 1956 में बने कानून और 2005 में लड़कियों को पिता की जायदाद में बराबर का हक देने के बाद भी कोई अपनी जायदाद बेटी को देता है. बेटी जब यह अधिकार मांगने जाती है तो रिश्ते टूट जाते हैं. मायके में जो कानून अधिकार मिला उसे कोई देना नहीं चाहता. दूसरी तरफ धर्म यह बताता है कि ससुराल में लड़की की भूमिका केवल सेवक जैसी ही होती है. जिस तरह लड़की को जिम्मेदारी बताई जाती है उस तरह से लड़के को उस के मातापिता या सासससुर की सेवा के बारे में नहीं बताया जाता. यही भेदभाव है जिस को मिटाने की जरूरत है. संविधान भी इस गैर बराबरी की खिलाफत करता है.

संविधान अनुच्छेद 14 से ले कर 32 तक नगारिक अधिकारों की बात की गई है. इन में से अनुच्छेद 14 में साफ लिखा गया है कि भारत के अंदर भारत के रहने वालों और विदेशियों दोनों को ही समान व्यवहार की बात कही गई है.

ऐसे में पतिपत्नी के साथ अलगअलग व्यवहार कैसे हो सकता है. सासससुर की जिम्मेदारी पत्नी की हो सकती है तो पति उस से अलग कैसे हो सकता है ? यह व्यवहार केवल इसलिए होता है क्योंकि पत्नी कन्यादान से आती है. दान में दी गई वस्तु को पाने वाला अपने तरह से इस्तेमाल कर सकता है. दान देने वाले का अधिकार उस पर खत्म समझा जाता है. सवाल उठता है क्या ऐेसे में पत्नी के मौलिक अधिकारों का क्या होगा ?

पति को भी जिम्मेदारी दी जाए

2023 में नोबल शांति पुरस्कार विजेता नरगिस मोहम्मदी मानवाधिकार कार्यकर्ता और डिफेंडर औफ ह्यूमन राइट्स सेंटर की उपाध्यक्ष हैं. नरगिस ने एक किताब भी लिखी है जिस का नाम ‘व्हाइट टौर्चर’ है. नरगिस ने कहा कि ‘पारिवारिक सुरक्षा कानून के अब कोई मायने नहीं रह गए है. पुरुषों को पत्नी को छोड़ने का अधिकार है. उन को बच्चों का प्राकृतिक संरक्षक माना गया. जो पत्नी अपना सब कुछ छोड़ कर उन के साथ आती है उस के प्रति जिम्मेदारी नहीं दी है.’

‘पुरुष पत्नी के अलावा कितनी भी अस्थायी बीबियां रख सकता है. यह उस का हक है, मर्द अपने घर की औरतों को बाहर जाने से रोक सकते हैं. महिलाओं से निर्णय का हक छीन लिया गया. दकियानूसी विचारों का बोलबाला हो गया. कट्टरपंथी शासन के हिमायती लोगों की संख्या बढ़ गई है. जो औरतें लगातार गैर बराबरी और भेदभाव के खिलाफ लिखती बोलती हैं वो भी निशाने पर आती हैं. धर्म के नाम पर औरतों को काबू करने की कोशिश हमेशा से होती रही है.’

महिलाओं और उन के अधिकारों को ले कर बहस लंबे समय से चली आ रही है. एक पक्ष महिला या पत्नी के रूप में उसे अधिकार दिए जाने की वकालत करता है दूसरा पक्ष उस को सीमित दायरे में रखना चाहता है. दार्शनिक प्लेटो का मानना था कि ‘महिलाओं को नागरिक और राजनीतिक अधिकार देने से घर और राज्य की प्रकृति में काफी बदलाव आएगा. इस का घर परिवार और समाज को लाभ होगा.’

प्लेटो द्वारा पढ़ाए गए अरस्तू के विचार इस मामले में अलग थे, उन्होंने तर्क दिया कि ‘प्रकृति ने महिला और दास के बीच अंतर किया है. लेकिन वह पत्नियों को ‘खरीदी गई’ मानते थे. उन्होंने तर्क दिया कि महिलाओं की मुख्य आर्थिक गतिविधि पुरुषों द्वारा बनाई गई घरेलू संपत्ति की सुरक्षा करना है. इस का मतलब यह है कि आदमी जो कमा कर लाएगा उस की सुरक्षा करना औरत का काम है. इंसान नहीं नहीं शेर और कुछ पक्षी नर मादा के रूप में साथ रह कर अपने घर परिवार बच्चों को बेहतर जीवन देने का काम करते हैं.

आदमी औरत में भेदभाव क्यों ?

इन दार्शनिकों ने अपने समय और जरूरतों के हिसाब से अपने अपने तर्क दिए. आज धर्म की जगह कानून और संविधान का राज है. औरतें कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. औरतें अगर औफिस में 10 से 7 की नौकरी कर रही हैं तो घर आने पर वह भी थकी होती हैं. उन का भी मन करता कि औफिस से आए गरम चाय और पकौड़ी खाने को मिल जाए. औफिस में काम कर के थकने के बाद आराम करने का मन करता है. औरतों में कोई अलग एनर्जी नहीं होती है.
धर्म इस भेदभाव को बढ़ाता है. वह अभी भी औरत को दान में दी गई वस्तु समझता है. इसलिए वह औरत से गुलामों की तरह काम करने की उम्मीद रखता है. औरतें अपना सबकुछ त्याग कर पति के पास आती है. उसे सम्मान और अधिकार की जगह बेड़ियों में जकड़ कर रखा जाता है. उस से केवल सेवा की उम्मीद की जाती है. इसे औरत का धर्म बताया जाता है. धर्म के नाम पर यह भेदभाव सदियों से जारी है. कानून और संविधान के बाद भी धर्म को ही ऊपर रख कर अदालतें भी फैसला सुना रही हैं.

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