story in hindi
story in hindi
बेटा बन कर पैदा होना कोई मजे की बात नहीं है. बेटे की जिंदगी गधे की सी होती है. गधा जिंदगीभर मालिक का सामान ढोता रहता है तो बेटा मांबाप की फटकार, पढ़ाई, नौकरी और पत्नी के नाजनखरों के बोझ तले जिंदगी गुजारने को मजबूर रहता है. अगले जनम में बेटी बन कर पैदा होने की ख्वाहिश पाले एक बेटे की दास्तान आप भी पढि़ए.
मांबाप का अकेला बेटा, 2 बहनों का इकलौता भाई, घर का नूर, खानदान का चिराग, नाममात्र की जायदाद का वारिस व वंश वृद्धि का बायस, इतने सारे तमगे ले कर मैं अवतरित हो गया इस धरती पर.
‘‘तुझे पैदा करने के लिए मैं ने क्याक्या जतन किए, तुझे क्या मालूम है? मैं चाहती थी कि मेरी गोद में भी मेरा बेटा खेले, खानदान का नाम रोशन करने वाला, मेरा सिर ऊंचा करने वाला. बेटी पैदा होने पर न वह गुरूर महसूस होता है जो बेटा पैदा होने पर होता है. क्याक्या नहीं किया हम ने तेरे पैदा होने पर. सोहर गवाए, लड्डू बंटवाए, पूरे गांव को खाना खिलाया. आखिर अब
मैं भी एक बेटे वाली मां जो थी,’’ मां कहतीं.
मैं भुनभुना कर रह जाता, ‘स्वार्थी कहीं की.’ मुझे मालूम है, मां मुझे क्यों पैदा करना चाहती थीं क्योंकि मैं बड़ा हो कर उन का सहारा जो बनूंगा. कितने बेवकूफ हैं मेरे मांबाप. बेटा पैदा करने के साथ उस के लिए एक अच्छी नौकरी भी तो पैदा करनी चाहिए थी. अब भुगतो. जब तक नौकरी नहीं मिलती तब तक इस सहारे को सहारा दो.
मुझे बचपन से ही मांबाप तैयार कर रहे थे अपने बुढ़ापे के लिए, ‘हाय मेरा बचपन,’ मैं और मेरी बहनें टीवी देखते रहते. मां आवाज लगातीं, ‘बबलू, चलो, पढ़ने बैठो.’ मैं ठुनकता, ‘नहीं मां, मुझे अभी टीवी देखना है.’
लेकिन वे मुझे जबरदस्ती उठा देतीं, ‘नहीं, पहले पढ़ाई. टीवी तो बाद में भी देखा जा सकता है.’
मैं बहनों की तरफ देख कर कहता, ‘पर मां, ये भी तो देख रही हैं, इन्हें क्यों नहीं पढ़ने बैठातीं?’
मां बेरुखी से कहतीं, ‘इन्हें कौन सा पढ़लिख कर कलैक्टर बनना है. कलैक्टर तो तू बनेगा, मेरा राजा बेटा.’
मैं बहनों को ईर्ष्या से देखता हुआ, मन मार कर पढ़ने बैठता. मैं सोचता, ‘काश मैं भी लड़की होता.’
मेरे मांबाप के सपनों की तलवार हर समय मेरे सिर पर लटकी रहती, ‘तुम्हें बड़ा हो कर यह बनना है, वह बनना है.’
मेरा पढ़ने में बिलकुल मन नहीं लगता था. मैं बड़ी हसरत से अपनी बहनों को इधरउधर डोलते, आसपास की लड़कियों के साथ गपशप करते, फोन पर फ्रैंड्स के साथ गपें मारते, टीवी देखते, हंसीमजाक करते देखता रहता था. मन हुआ तो पढ़ा, नहीं तो कोई बात नहीं. उन को कहने वाला कोई नहीं था.
पर मैं, मैं तो बेटा था न, मुझे तो पढ़ना था, पढ़लिख कर नौकरी के लिए घिसटना था. अच्छी नौकरी पानी थी. तो मैं झूलता रहता घर, कालेज, ट्यूशन और होमवर्क के बीच.
जैसेतैसे मेरी पढ़ाई पूरी हुई. अब नौकरी की तलाश. जितना मैं नौकरी पाने की कोशिश करता उतना वह मुझ से दूर छिटकती, किसी मगरूर प्रेमिका की तरह. मेरे पिता मेरे नौकरी पाने के प्रयासों को समझते नहीं, उलटा मेरे घर में घुसते ही शुरू हो जाते.
‘आ गए साहबजादे मटरगश्ती कर के, कभी सोचा भी है कि किस तरह दिनरात खूनपसीना एक कर के अपना पेट काटकाट कर तुम्हें पढ़ायालिखाया है. अब तुम्हारा फर्ज बनता है कि इस बुढ़ापे में हमें सहारा दो.’
मैं मन ही मन उबल पड़ता, ‘मैं ने कहा था कि मुझे पढ़ाओलिखाओ. मुझ पर खर्च करो, पढ़लिख कर, पढ़पढ़ कर मेरा दिमाग खराब हो गया, वह दिखाई नहीं देता, मुझे पढ़ाने के बजाय ‘थ्री-पी’ यानी कि पहुंच, पहचान और पैसे का जुगाड़ किया होता तो आज कहीं का कहीं पहुंच जाता.’
मेरी बहनें भी मेरे कमा न पाने पर मेरी योग्यता पर प्रश्नचिह्न टांगें खड़ी रहतीं. उन्हें देखदेख कर मेरा और जी जलता रहता, ‘क्या आराम की जिंदगी है. न पढ़नेलिखने की चिंता न नौकरी की. जितना है उस में शादी तो हो ही जाएगी. कोई न कोई तो मिल ही जाएगा. एक मैं हूं, न नौकरी मिलती है न छोकरी. कहीं सारी जिंदगी कुंआरा ही न रहना पड़े. इस के लिए भी मेरे मांबाप मुझे ही दोषी ठहराते रहते.’
‘कहीं छोटामोटा जौब कर लिया होता तो यह नौबत नहीं आती.’
‘आप भी क्लर्की के बजाय कलैक्टरी कर लिए होते तो यह नौबत न आती.’
मेरे पिता यह सुन कर बड़बड़ाने लगते. नालायक व बदतमीज औलाद पाने पर किस्मत को कोसने लगते. गिनाने लगते कि यह वही औलाद है जिस को पाने के लिए उन्होंने इतने पापड़ बेले. इस बेटे को धरती पर लाने के लिए कितनी मुश्किलें उठाईं.
मैं कहता, ‘तो मुझे पा लिया न, अब और क्या चाहिए, आखिर देने वाले की भी तो कुछ सीमाएं होती हैं. आप को बेटा चाहिए था, मिल गया. आप ने यह थोड़ी ही कहा था कि कमाऊ बेटा चाहिए.’
मेरी बहनें सब से निर्लिप्त टीवी देखती रहतीं या आंगन में खड़ी पड़ोसिन की बेटी के साथ गपशप करती रहतीं. किसी बात की चिंता नहीं, शादी की भी नहीं. वह चिंता भी उन के मांबाप की है. उन का तो काम है कि मस्त रहो मस्ती में, आग लगे बस्ती में. तौबा, क्या मेरी जिंदगी है, बेटा बन कर क्या मिला मुझे? पढ़ाई का बोझ, नौकरी का टैंशन, छोकरी का गम. काश, इस से तो अच्छा होता कि मैं लड़की होता. कम से कम अपनी मरजी से तो कुछ कर पाता. पेंटिंग, ड्रैस डिजाइनिंग, कुकिंग, डांस, सिंगिंग, जो मुझे पढ़ना होता पढ़ता. नहीं तो छोड़ देता. जबरदस्ती डाक्टरी, इंजीनियरिंग, एमबीए में नहीं घिसटना पड़ता. लड़की होता तो मैं भी अपनी लाइफ ऐंजौय कर पाता.
शादी से पहले भी, शादी के बाद भी. न कमाने का झंझट न जिम्मेदारियों का बोझ. न नालायक, नाकारा, कामचोर जैसे शब्दों को से नवाजा जाता.
जिस ने भी मुझे बनाया वह इस बार मेरी अर्जी पर ध्यान दे. इस जनम में भले मेरे बाप की सुन ली पर अब मेरी ही सुनियो और अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो.
धार्मिक शहर उज्जैन से 57 किलोमीटर दूर माकड़ोंन कसबे में पसरा सन्नाटा और तनाव दरअसल 2 जातियों की लड़ाई की देन है जो देश में हर कभी हर कहीं देखने में आती है. लगभग 16 हजार की आबादी वाले इस कसबे में दलितों की हिस्सेदारी 20 फीसदी के करीब है. पिछड़े हालांकि इन से कम हैं लेकिन पैसे वाले हैं. इन में भी पाटीदार समुदाय के लोग ज्यादा हैं जबकि दलित समुदाय में मालवीयों की संख्या ज्यादा है.
25 जनवरी की सुबह पूरे मालवा में बेहद सर्द थी. माकड़ोंन भी ठिठुरन से अछूता नहीं था. लेकिन यह ठंड देखते ही देखते गरमी में बदल गई. सुबहसुबह ही मंडी गेट और बसस्टैंड के पास खड़ी वल्लभभाई पटेल की मूर्ति को कुछ लोगों ने ट्रैक्टर से तोड़ दिया. यह मूर्ति पिछली रात को ही कुछ अज्ञात लोग लगा गए थे. मूर्ति तोड़ने की खबर की वही प्रतिक्रिया हुई जो देश में आमतौर पर होती है.
पिछड़े तबके के कुछ लोग बाहर आ गए और गिराने वालों यानी भीम आर्मी के लोगों से विवाद करने लगे. दलित तबके के लोग चाहते थे कि खाली पड़ी इस जगह पर भीमराव आम्बेडकर की मूर्ति लगे. यह मामला पंचायत में विचाराधीन है लेकिन जब पिछड़ों ने चोरीछिपे अपना फैसला पटेल की मूर्ति लगा कर सुना या थोप दिया तो भला दलित कहां पीछे रहने वाले थे. उन्होंने इस फैसले को मिट्टी में मिला दिया.
दिन निकलतेनिकलते भारी तादाद में दलित-पिछड़े आमनेसामने आ खड़े हुए. तू तड़ाक से बात शुरू हुई तो गालियों के आदानप्रदान से ले कर हाथापाई से होते हुए हिंसा में तबदील हो गई. पथराव दोनों तरफ से हुआ और आगजनी भी हुई. इसी दौरान खबर मिलने पर पुलिस आ गई और स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रणवाली हो गई. हालांकि, यह सब अभी तात्कालिक ही कहा जाएगा.
पिछड़े और उन में भी पटेल पाटीदार समुदायों के लोग वल्लभभाई पटेल को अपना आदर्श मानते हैं तो दलित समुदाय भीमराव आंबेडकर को भगवान मानता है. वैचारिक तौर पर पटेल और आंबेडकर में एक बड़ा फर्क सनातन या हिंदू धर्म को ले कर है. पटेल घोर सनातनी थे हालांकि वे भी जातपांत और छुआछूत दूर करने की बात करते थे लेकिन यह वे कभी नहीं बता पाए कि यह भावना कैसे लोगों के दिलोदिमाग से निकाली जा सकती है और सोमनाथ जैसे मंदिरों के पुनर्निर्माण से इस का क्या कनैक्शन है.
आंबेडकर छुआछूत और वर्णव्यवस्था के धुर विरोधी थे और उन्होंने इस से छुटकारे का रास्ता भी सुझाया था कि मनुस्मृति सरीखे धर्मग्रंथ जला दो, तो न खाट रहेगी न खटमल रहेंगे. इस बाबत उन के निशाने पर ब्राह्मण ही ज्यादा रहते थे क्योंकि तमाम फसादों की जड़ वे इस श्रेष्ठि वर्ग को ही मानते थे.
आजादी मिलने के कुछ सालों बाद तक पिछड़ों की गिनती भी शूद्रों में ही होती रही थी लेकिन वक्त बदलने के साथसाथ यह वर्गीकरण खत्म सा हो चला. लेकिन यह बदलाव धार्मिक स्तर पर नहीं हुआ. आर्थिक और सामाजिक स्तर पर भी न के बराबर हुआ. हां, राजनीतिक स्तर पर ज्यादा हुआ जिस के कोई खास माने नहीं.
पिछड़ों ने खुद से ही मान लिया कि वे शूद्र नहीं हैं लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि उन्हें इस से कोई सम्मान समाज में मिलने लगा. थोड़ीबहुत पूछपरख जो हुई वह पैसों और शिक्षा की वजह से हुई. उलट इस के, शूद्रों यानी दलितों की बदहाली ज्यों की त्यों है. अब तो पिछड़े भी उन पर कहर ढाने लगे हैं.
माकड़ोंन की हिंसा में नया कुछ नहीं है सिवा इस संभावना के कि दोनों ही समुदाय अपनेअपने ईष्टों के नाम पर खाली पड़ी सरकारी जमीन कब्जाना चाहते हैं. लोकसभा और विधानसभा चुनाव में दलित और पिछड़े दोनों ने ही दिल खोल कर भाजपा का साथ दिया था.
यह विवाद भी, दरअसल, भाजपा की ही देन है जिस ने दलितपिछड़ा विवाद सुलझाने की गरज से बसस्टैंड का नामकरण भीमराव आंबेडकर के नाम पर कर दिया था और पटेल की मूर्ति लगाने का वादा पिछड़ों से कर लिया था. जिस पर दलित सहमत नहीं थे. चूंकि उज्जैन नए मुख्यमंत्री मोहन यादव का गृह जिला है, इसलिए भी लोगों की दिलचस्पी इस में है कि वे इस फसाद को कैसे सुलझाएंगे.
समझाबुझा कर या दूसरे किसी तरीके से भाजपा इस विवाद को सुलझा भी सकती है लेकिन जो नया वर्ग संघर्ष इस घटना में खुलेआम दिखा, उस का कोई इलाज उस के पास भी नहीं है क्योंकि मूर्तियों का मर्ज ज्यादा फैलाया भी उसी ने है.
कांग्रेस के दौर में इस मामले में बड़ा सुकून था जो गांधीनेहरू की मूर्तियां लगा कर पल्ला झाड़ लेती थी. वक्तजरूरत वह रानी लक्ष्मीबाई, सुभाष चंद्र बोस, भीमराव आम्बेडकर सहित महाराणा प्रताप की मूर्तियों को भी जगह देती थी. उस के पास मूर्तियों में भी कोटा सिस्टम था कि 80 फीसदी मूर्तियां गांधीनेहरू की लगेंगी, बाकी 20 फीसदी में दूसरे महापुरुष एडजस्ट किए जाएंगे.
इस व्यवस्था यानी मूर्तियों के कोटा सिस्टम पर किसी ने कोई खास एतराज नहीं जताया. उलट इस के, जो भी दल सत्ता में आते गए उन्होंने भी अपने ईष्टों की मूर्तियों को लगाना शुरू कर दिया. बसपा प्रमुख मायावती इन में अव्वल रहीं जिन्होंने अपनी पार्टी के चुनावचिन्ह हाथी सहित आम्बेडकर और कांशीराम के साथसाथ खुद की भी मूर्तियां पार्कों व चौराहों पर लगवा दीं. करोड़ों रुपए मूर्तियों पर फूंकने के बाद भी दलितों का कोई भला नहीं हुआ बल्कि सियासी वनवास काटते खुद मायावती ही इन दिनों अपने महलनुमा घर में बुत की तरह बैठी हैं.
नरेंद्र मोदी ने भी प्रधानमंत्री बनने के बाद मूर्तिवाद फैलाया. वल्लभभाई पटेल की 597 फुट ऊंची मूर्ति (लागत 2,989 करोड़ रुपए) गुजरात में नर्मदा नदी के किनारे किस का क्या भला कर रही है, यह राम जाने. स्टेच्यू औफ यूनिटी नाम की इस मूर्ति से कितनी यूनिटी आई, यह माकड़ोंन से साफ उजागर हुआ कि धार्मिक हो या वैचारिक, मूर्तियों से कट्टरवाद ही पनपता और फैलता है. अब तो इस मूर्ति को देखने को न के बराबर पर्यटक जाते हैं. माकड़ोंन में पटेल की मूर्ति तोड़ने में युवतियां सब से आगे थीं. यह युवाओं के लिहाज से चिंता की बात है कि यह मूर्तिवाद उन्हें किस दिशा में ले जा रहा है.
आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा में भीमराव आंबेडकर की 125 फुट ऊंची मूर्ति की लागत 404 करोड़ रुपए आई थी जिस से नाम के मुताबिक स्टेच्यू औफ सोशल जस्टिस नहीं मिल रहा. पटेल को हथियाने के बाद तो भाजपा को मूर्ति रोग ऐसा लगा कि उस ने देशभर में जगहजगह मूर्तियां लगवाईं और इस से भी जी न भरा, तो उस ने मंदिरों पर जम कर पैसा लुटाया.
22 जनवरी को अयोध्या में रामलला की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा को तो दीवाली की तरह मनाया गया. इस मूर्ति और मंदिर पर भी तबीयत से पैसा फूंका जाना बुद्धिमानी की बात तो कतई नहीं मानी जा सकती.
विविधता वाले हमारे देश में मूर्तियां कितनी संकीर्णता फैला रही हैं, माकड़ोंन इस का ताजा उदाहरण है. नहीं तो आएदिन के फसाद आम बात हैं. ये मूर्तियां न केवल कीमती जगह घेरती हैं बल्कि इन के रखरखाव पर भी तगड़ा पैसा खर्च होता है. छोटेमोटे विवाद तो आम बात हैं. अब से कोई डेढ़ साल पहले ही इन्हीं पटेल की मूर्ति को ले कर झारखंड के रामगढ़ कसबे में कांग्रेस और आजसू के कार्यकर्ता आपस में भिड़ गए थे, जिस से वहां भी धारा 144 लगानी पड़ी थी.
मूर्तियां कैसे आपसी द्वेष और बैर फैलाती हैं, इस की एक मिसाल पिछले साल जुलाई में हरियाणा के कैथल से भी देखने में आई थी जब गुर्जर और राजपूत समुदायों के लोग आपस में भिड पड़े थे. ये दोनों ही सम्राट मिहिर भोज चौक पर लगी राजा मिहिर की मूर्ति पर गुर्जर शब्द लिखे और हटाए जाने पर धरनाप्रदर्शन करते नजर आए थे.
वहां के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर भी इस विवाद को नहीं सुलझा पाए थे, तो उन का पुतला भी राजपूत समाज ने फूंका था. कई भाजपा नेताओं ने विरोध जताते पार्टी से इस्तीफा भी दे दिया था. 9 अगस्त, 2023 को हाईकोर्ट के आदेश पर गुर्जर शब्द पर काली पट्टी लगा दी गई थी.
अब मिहिर गुर्जर थे या राजपूत, यह अगर विवाद का विषय है तो लोगों की अक्ल पर तरस ही खाया जा सकता है कि इन फसादों से किसी को कुछ हासिल नहीं होता, उलटे, रहासहा आपसी भाईचारा गायब हो जाता है. 2 समुदायों और जाति के लोग आपस में दुश्मन बन बैठते हैं, जैसे कि माकड़ोंन में बैठे हैं.
अब यह दलितों और पिछड़ों के सोचने की बात है कि मूर्तियों से उन्हें कुछ मिलता जाता नहीं. यह तो ब्राह्मणों के रोजगार का जरिया है जिस पर आपस में झगड़ना कोरी वेबकूफी है.
Benefits of Soup in Winter : सर्दियों के मौसम में हरी सब्जियां खाने का मजा ही कुछ और है. इससे न सिर्फ शरीर हेल्दी रहता है, बल्कि कई मौसमी बीमारियों के होने का खतरा भी बहुत ज्यादा कम हो जाता है. हालांकि जिन लोगों को सब्जियां खाना पसंद नहीं है, वो लोग तरह-तरह की सब्जियों से सूप बनाकर भी पी सकते हैं.
ठंड के दिनों में गरमागरम सूप पीना शरीर के लिए बहुत ज्यादा फायदेमंद होता है. इसमें विटामिन्स, मिनरल, प्रोटीन, मैग्नीशियम और एंटी-औक्सीडेंट्स आदि कई पौष्टिक गुणों की भरपूर मात्रा होती हैं, जिससे सर्दी, जुकाम, खांसी और नाक बहना जैसे मौसमी बीमारियों से छुटकारा मिलता है. इसके अलावा इम्यून सिस्टम भी मजबूत होता है. आइए जानते हैं ठंड के दिनों में सूप (Benefits of Soup in Winter) पीने से शरीर को क्या फायदे मिलते हैं.
सर्दियों में कमजोर इम्युनिटी के कारण कई बीमारियों का खतरा रहता है, ऐसे में इम्युनिटी बढ़ाने के लिए आप अपनी डाइट में सूप शामिल कर सकते हैं. दरअसल, सूप में वो सभी जरूरी पोषक तत्व होते हैं, जो स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक है. इसलिए इसके नियमित सेवन से इम्यून सिस्टम मजबूत होगा.
सर्दियों में पत्तागोभी, मशरूम, टमाटर, कद्दू, बीन्स और स्वीट कॉर्न का सूप पीना शरीर के लिए अच्छा होता है. इससे सर्दी, जुकाम, खांसी और नाक बहना आदि मौसमी बीमारियों के होने का खतरा कम हो जाता है. वहीं जिन लोगों को खांसी या गले में खराश की समस्या रहती है, वो सूप (Benefits of Soup in Winter) में चुटकी भर काली मिर्च डाल कर भी उसे पी सकते हैं.
सर्दियों में साबुत दालों से बना सूप पीना भी फायदेमंद होता है. दरअसल, दालों में मिनरल्स और विटामिन्स की भरपूर मात्रा होती है, इसे पीने से ब्लड प्रेशर कंट्रोल में रहता है.
इस मौसम में ज्यादातर लोग पानी कम पीते हैं, जिससे शरीर डिहाइड्रेटेड होने लगता है, लेकिन रोजाना सूप पीने से शरीर डिहाइड्रेट नहीं होगा, साथ ही संक्रमण होने की संभावना भी कम होती है.
सूप (Benefits of Soup in Winter) को लौ-कैलोरी फूड के रूप में जाना जाता है, इसलिए वेट लॉस डाइट में सूप पीने की सलाह दी जाती है. ऐसे में सर्दियों में वजन मेंटेन करने के लिए रोजाना सूप पी सकते हैं.
अधिक जानकारी के लिए आप हमेशा डॉक्टर से परामर्श लें.
Almonds Side Effects : सर्दियों में बादाम, काजू, पिस्ता और अखरोट आदि ड्राई फ्रूट्स खाना शरीर के लिए काफी फायदेमंद होता है, लेकिन हमेशा इनका सीमित मात्रा में ही सेवन करना चाहिए. जरूरत से ज्यादा कोई भी चीज खाने के कई बड़े नुकसान हो सकते हैं.
ठंड के दिनों में रोजाना बादाम खाने की सलाह दी जाती है. आप खाने में इसका इस्तेमाल कई तरह से कर सकते हैं. हलवे में बादाम की गार्निशिंग से लेकर आप इसकी मिठाई भी बना सकते हैं. इसमें प्रोटीन, फाइबर, विटामिन-ई, विटामिन-के, जिंक और ओमेगा-3 फैटी एसिड आदि तमाम पोषक तत्वों की उच्च मात्रा होती हैं, लेकिन अधिक मात्रा में इसका सेवन करना नुकसानदायक भी हो सकता है. इससे पाचन से जुड़ी समस्याएं, एलर्जी और यहां तक की पथरी की दिक्कत भी बढ़ सकती है. चलिए जानते हैं, ज्यादा बादाम (Almonds Side Effects) खाने से क्या समस्याएं होती हैं.
जो लोग नियमित रूप से बादाम (Almonds Side Effects) का अधिक मात्रा में सेवन करते हैं, उन्हें कब्ज, गैस, सूजन और लूज मोशन आदि पाचन से जुड़ी समस्याएं हो सकती हैं. दरअसल, बादाम में फाइबर की भरपूर मात्रा होती है और जरूरत से ज्यादा फाइबर का सेवन शरीर के लिए हानिकारक हो सकता है.
बादाम में फैट्स, कैलोरी और मोनोसैचुरेटेड फैट की उच्च मात्रा होती है, जिससे वजन बहुत जल्दी बढ़ता है. इसके अलावा इससे दिल पर भी असर पड़ता है.
बादाम का अधिक मात्रा में सेवन करने से एलर्जी और त्वचा पर चकत्ते आदि की समस्याएं भी हो सकती हैं. जिन लोगों को एनाफिलेक्सिस की दिककत रहती है, उन्हें तो बादाम खाने से परहेज ही करना चाहिए.
बादाम (Almonds Side Effects) में ऑक्सालेट की उच्च मात्रा होती है. इसलिए जिन लोगों को किडनी स्टोन यानी पथरी की समस्या है, उन्हें बादाम खाने से बचना चाहिए.
अधिक जानकारी के लिए आप हमेशा डॉक्टर से परामर्श लें.
25 साल के नवल की पहली सैलरी आई तो उस के घर वालों ने कथा सुनने और मंदिर में दान देने में लगवा दी. नवल अपने दोस्तों के साथ पार्टी कर के बचे पैसे बैंक खाते में रखना चाहता था. घर वालों ने कहा कि अगर वह मंदिर और दानपुण्य में पैसा देगा तो भगवान उस की मदद करेंगे और वह तरक्की करेगा. उस ने यही किया. पहली सैलरी ही नहीं, उस के बाद हर माह घर के लोग कोई न कोई कार्यक्रम तय कर लेते थे. इस तरह नौकरी करने के बाद उस की जो भी छुट्टी मिलती थी उस वक्त वह कहीं न कहीं मंदिर घूमने के लिए परिवार के साथ जाता था. इसी के बाद कोविड आ गया था. उस की सेलरी में 20 प्रतिशत की कटौती कर दी गई.
कोविड में कटौती ने उस के सारे गणित को बिगाड़ दिया. उस के वे दोस्त मजे से अपनी कम हुई सैलरी में भी खुश थे जिन्होंने बचत की थी. उसे अब लग रहा था कि पैसे को दानपुण्य में खर्च न कर के अगर बचाया होता तो उस को मदद मिलती. अब वह दक्षिणा बैंक में पैसा जमा करने की जगह पर बचत खाते में पैसा जमा कर रहा है. उसे लग रहा है कि जरूरत पड़ने पर यही उस के काम आएगा. कोविड में जब उसे पैसे की जरूरत थी तब किसी ने मदद नहीं की थी. दक्षिणा बैंक उस के काम नहीं आया.
भारत में कमाने वाले तेजी से बढ़ रहे हैं. लोगों की आमदनी बढ़ रही है. प्रति व्यक्ति आय भी बढ़ रही है. इस के बाद भी बचत में कमी आ रही है. भारत का घरेलू बचत 50 साल के निचले स्तर पर आ गया है. हाउसहोल्ड एसेट और लायबिलिटीज पर रिजर्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार साल 2022-23 के दौरान नेट हाउसहोल्ड सेविंग गिर कर 5.1 फीसदी रह गई है.
जीडीपी के हिसाब से देखें तो इस साल भारत की शुद्ध बचत गिर कर 13.77 लाख करोड़ रुपए रह गई है. यह बीते 50 वर्षों के न्यूनतम स्तर पर है. इस से एक साल पहले यह 7.2 फीसदी थी. इस की वजह यह है कि लोगों की आमदनी में भारी कमी आई है. कोरोनाकाल के बाद लोग बचाने के बजाय खर्च ज्यादा करने लगे हैं.
चिंता की बात यह है कि बचत घट रही है, देनदारियां बढ़ रही हैं. रिजर्व बैंक की रिपोर्ट से पता चलता है कि लोगों की फाइनैंशियल लायबिलिटीज तेजी से बढ़ी है. साल 2022-23 में यह तेजी से बढ़ते हुए जीडीपी के 5.8 फीसदी तक पहुंच गई. जबकि एक साल पहले यह महज 3.8 फीसदी ही थी.
इस का मतलब है कि लोग कंजप्शन परपज के लिए ज्यादा लोन लेने लगे हैं चाहे वे घरेलू सामान खरीद रहे हैं या जमीन, मकान, दुकान आदि खरीद रहे हैं. आजादी के बाद यह दूसरा मौका है जब लोगों की फाइनैंशियल लायबिलिटीज इतनी तेजी से बढ़ी हैं. इस से पहले साल 2006-07 में यह दर 6.7 फीसदी थी जब विश्व में आर्थिक मंदी का दौर आया था.
आरबीआई के मुताबिक ऐब्सोल्यूट टर्म में देखा जाए तो साल 2020-21 के मुकाबले 2022-23 के दौरान नेट हाउसहोल्ड एसेट में भारी गिरावट हुई है. साल 2020-21 के दौरान शुद्ध घरेलू संपत्ति 22.8 लाख करोड़ रुपए की थी जो कि साल 2021-22 में तेजी से घटते हुए 16.96 लाख करोड़ रुपए तक गिर गई.
साल 2022-23 में तो यह और घट कर 13.76 लाख करोड़ रुपए ही रह गई. इस के उलट, फाइनैंशियल लायबिलिटीज की बात करें तो हाउसहोल्ड डेट या कर्ज बढ़ोतरी ही हो रही है. साल 2021-22 में यह जीडीपी के 36.9 फीसदी थी जो कि साल 2022-23 में बढ़ कर 37.6 फीसदी तक पहुंच गई. बचत घटने और कर्ज बढ़ने के पीछे बढ़ती महंगाई का बड़ा हाथ है. यह अमीर और गरीब के बीच की दूरी को बढ़ाती जा रही है.
बाजार पर इस का अच्छा असर नहीं पड़ रहा है. नवंबर-दिसंबर माह में त्योहार और वैडिंग सीजन का भी बाजार पर अच्छा असर नहीं पड़ा. रिटेल बिक्री फीकी ही रही. दिसंबर 2023 में केवल 4 फीसदी की ग्रोथ रही. लोगों ने खर्चो में कटौती कर के ईएमआई वाले सामान खरीदे. ईएमआई में घर, बाड़ी और इलैक्ट्रौनिक सामान खरीदे. रिटेल ग्रोथ 2022 के मुकाबले के 2023 में केवल 4 फीसदी ही बढ़ी. 2023 अक्टूबर में यह ग्रोथ 7 फीसदी देखी गई थी. दिसंबर में छूट के बाद भी रिटेल की ग्रोथ कम हुई.
अयोध्या के राममंदिर में करोड़ों रुपए का चढ़ावा पहले ही दिन आ गया. इस को ले कर अलगअलग दावे किए जा रहे हैं. राममंदिर ट्रस्ट के सचिव चंपत राय ने सोने के दरवाजे और चांदी के कमल के बारे में कहा कि इस से अच्छा होता कि पैसा दान दिया जाता. राममंदिर की दानपेटी में नकद चढ़ावा रोज 2 से 3 लाख रुपए का आ रहा है. इस के अलावा चांदी और सोने का चढ़ावा अलग से आ रहा है.
भारत में कई ऐसे मंदिर हैं जहां हर साल करोड़ों रुपयों का चढ़ावा आता है. केरल में त्रिवेंद्रम स्थित पद्मनाभ स्वामी मंदिर भारत का सब से अमीर मंदिर माना जाता है. मंदिर के खजाने में हीरे, सोने के गहने और सोने से निर्मित मूर्तियां शामिल हैं. मंदिर की 6 तिजोरियों में 20 अरब डौलर की कुल संपत्ति है. मंदिर में स्थापित महाविष्णु भगवान की मूर्ति सोने से बनी है. मूर्ति की अनुमानित कीमत 500 करोड़ रुपए है.
इस के बाद आंध्र प्रदेश का तिरुपति बालाजी मंदिर है. तिरुपति बालाजी मंदिर का करीब 5,300 करोड़ रुपए का 10.3 टन सोना और 15,938 करोड़ रुपए कैश बैंकों में जमा है. इस तरह इस मंदिर की कुल संपत्ति 2.50 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा बताई जाती है.
महाराष्ट्र के शिरडी में स्थित साईं बाबा मंदिर है. मंदिर के बैंक खाते में 380 किलो सोना, 4,428 किलो चांदी और डौलर व पाउंड जैसी विदेशी मुद्राओं के रूप में बड़ी मात्रा में धन के साथसाथ लगभग 1,800 करोड़ रुपए जमा हैं. वैष्णो देवी मंदिर देश के अमीर मंदिरों में से एक है. सालभर यहां मां के दर्शन के लिए हजारों भक्त आते हैं. 500 करोड़ रुपए सालाना यहां के श्राइन बोर्ड को भक्तों के चंदे से मिलते हैं.
मुंबई का सिद्धिविनायक मंदिर भगवान गणेश को समर्पित है. यहां सैलिब्रिटी से ले कर आम नागरिक तक माथा टेकने और मन्नत मांगने आते हैं. इस मंदिर को 3.7 किलोग्राम सोने से कोट किया गया है. मंदिर को दान और चढ़ावे से सालाना करीब 125 करोड़ रुपए की आय होती है. मंदिरों में आने वाला चढ़ावा बताता है कि देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई बढ़ रही है. एक तरफ 80 करोड़ लोग ऐसे हैं जो फ्री राशन पाते हैं, दूसरी तरफ, लोग सोना और चांदी मंदिरों में दान दे रहे हैं.
वैसे तो बसपा प्रमुख मायावती केंद्र सरकार की नीतियों की आलोचना कम ही करती हैं. 75वें स्वतंत्रता दिवस पर सोशल मीडिया ‘एक्स’ पर अपनी पोस्ट में मायावती ने कहा, ‘देश की प्रगति का सही मापदंड गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा आदि का उन्मूलन तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि है, न कि जीडीपी और बड़ेबड़े पूंजीपतियों-घन्नासेठों की पूंजी में इजाफा है. देश दावों और वादों के बजाय ठोस प्रगति की राह पर चले तो बेहतर होगा.’
असल में धार्मिक कट्टरता अमीर और गरीब दोनों के साथ देश के हित में भी नहीं होती. दुनिया में इस के तमाम उदाहरण मौजूद हैं. ईरान अमीर देश है लेकिन कट्टर होने के कारण प्रगति नहीं कर पा रहा. इसी तरह से अफगानिस्तान गरीब देश है लेकिन कट्टर होने के कारण और गरीब होता जा रहा है.
कोई भी समाज तभी प्रगति की राह पर चल सकेगा जब वह देश में रहने वाले हर नागरिक को साथ ले कर चले. देश में अमन, चैन और शांति हो. लड़ाई, झगडे, तनाव और कट्टरता प्रगति में बाधक होते हैं. देश और समाज की नीतियां जोड़ने वाली होनी चाहिए, तोड़ने वाली नहीं. धर्म और कट्टरता विकास में बाधक होते हैं.
खालिस्तान का सवाल सिर्फ लोगों का मुंह बंद करने, कुछ को गिरफ्तार करने, कुछ को समाप्त करने या मीडिया पर चुप्पी थोपने से बंद न होगा. यह अफसोस है कि हिंदू समाज की कुरीतियों से बचने के लिए बना एक सैक्ट आज अलग धर्म बन गया और उस के अनुयायी दुनियाभर में हिंदू-सिख खाई को चौड़ा करने में लगे हैं.
हिंदू धर्म ने बहुत से अलग धर्मों या संप्रदायों को पैदा होने का मौका दिया और उन में से बहुत से फिर उस सनातन धर्म में मिल गए हैं जिन के आराध्य विष्णु के अवतार हैं और जो वेदों व पुराणों को अपने धर्म का स्रोत मानते हैं. बौद्ध व जैन धर्म अलग हैं पर वे उस तरह अलग पहचान वाले नहीं हैं जिस तरह सिख हो गए हैं.
औपरेशन ब्लूस्टार के कारण 2 सिखों द्वारा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या किए जाने के बावजूद कांग्रेस ने किसी तरह मानमनौवल कर सिखों को अलगाववादी रवैया छोड़ने को राजी कर लिया था. प्रधानमंत्री राजीव गांधी व संत हरचंद सिंह लोंगोवाल के बीच हुए राजीव-लोंगोंवाल समझते के बाद सिख विवाद समाप्त सा हो गया था. अब भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद भारत में तो यह उभर नहीं रहा पर दुनियाभर में फैले सिख उसे इस्तेमाल कर रहे हैं. दुनियाभर में फैले कट्टरवादी हिंदू आजकल मंदिरों का जम कर निर्माण कर रहे हैं तो इस के जवाब में सिखों का रुख भी विदेशों में कड़ा होता जा रहा है.
एक ही जमीन से गए लोग, एक ही समाज के लोग, एक ही भाषा के लोग बाहर जा कर अलगअलग हो जाएं, यह हमारी बहुत बड़ी विफलता है. यह हमारे देश की सरकार और हमारे समाज की कमजोरी व गलती है कि गुरुपतवंत सिंह पन्नू जिस की अमेरिका में की गई हत्या की साजिश में एक हिंदू आरोपी निखिल गुप्ता पर मुकदमा शुरू हो गया है. यही नहीं, कनाडा सरकार व उस के प्रधानमंत्री भी कनाडा में ही एक दूसरे सिख नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के लिए भारतीय सरकारी गुप्तचरों को दोषी मान रहे हैं.
यह सोच कि जैसे भारत में पत्रकारों, विचारकों, विपक्षी दलों, स्वतंत्र जनता को धमका कर या सामाजिक बहिष्कार का रास्ता अपना कर चुप कराया जा सकता है, वैसे ही पश्चिमी देशों के लोकतंत्रों में भारतीय सरकार विरोधी आवाजों को बंद करने से समस्या का हल हो जाएगा, गलत है.
भारत सरकार जो उपाय अपना रही है वे पुलिसिया हैं. राजनीतिज्ञ दूर की सोचते हैं. पुलिस वाला यह नहीं सोचता कि पौकेटमार पैदा क्यों हुआ, वह उसे मारपीट कर या जेल में बंद कर सजा देता है. राजनीति सम?ाती है कि पौकेटमार पैदा ही क्यों हुआ? भारत सरकार अपने ढोलों की आवाजों से इतनी बहरी हो गई है कि उसे सम?ा नहीं आ रहा कि देश के या विदेश के सिख आज भारत से नाराज क्यों हैं?
सिख बंटवारे के समय हिंदुओं की तरह पाकिस्तान के इलाकों से भाग कर आए. कितनों ने ही जानें दीं. आज वे भारत में ऊंचे पदों पर भी हैं. फिर भी, एक वर्ग नाखुश हो, तो यह मौजूदा भगवा सरकार की गंभीर पराजय है जो राममंदिर के निर्माण और उद्घाटन के समय आने वालों द्वारा उड़ाई गई धूल में छिप नहीं सकती. इस के लिए दोषी हर वह भारतीय भी है जो धर्म के नाम पर अपने को अलग सम?ाता है.
सवाल
मैं 12वीं कक्षा का छात्र हूं और डाक्टर बनने का इच्छुक हूं. समस्या यह है कि 13 साल की उम्र से मेरी दोनों छातियां लड़की की छातियों की तरह कुछकुछ बाहर की तरफ उठ आई हैं. मुझे चिंता है कि कहीं इस कारण मैं मैडिकल प्रवेश परीक्षा से पहले शारीरिक जांच के समय अनुत्तीर्ण न हो जाऊं? परेशान हूं. कृपया मुझे इस समस्या का उपाय बताएं ?
जवाब
जिस समय लड़केलड़कियां बचपन की दहलीज लांघ किशोरावस्था में पहुंचते हैं उस समय उन में पुरुष और स्त्री यौन हार्मोन बनने लगते हैं. लड़कों में पुरुष हार्मोन और लड़कियों में स्त्री हार्मोन अधिक बनते हैं पर कुछ में विपरीत सैक्स के हार्मोन भी बनते हैं.
इसी के फलस्वरूप कुछ लड़कों की छाती लड़कियों की छाती जैसी बढ़ जाती है और कुछ लड़कियों में लड़कों की तरह चेहरे पर बाल आ जाते हैं. ऐसा हो तो बहुत विचलित होने की जरूरत नहीं होती. कई लड़कों में समय के साथ छातियां अपनेआप सही हो जाती हैं. अगर 18-20 साल की उम्र तक भी छातियां कम न हों और अटपटा लगे तो किसी कौस्मैटिक सर्जन से मिल कर सलाह ली जा सकती है.
अगर छातियां चरबी जमने से बढ़ी हुई हों तो लाइपोसक्शन द्वारा चरबी घटाई जा सकती है पर यदि छातियों में ग्रंथि ऊतक अधिक हों तो छोटे से औपरेशन से छातियों को छोटा किया जा सकता है.
जहां तक मैडिकल कालेज में प्रवेश के समय होने वाली शारीरिक जांच का सवाल है, उस बाबत आप चिंता त्याग दें. गाइनोकोमैस्टिया नामक यह समस्या मैडिकल जांच के समय अनुत्तीर्णता का कारण नहीं बन सकती.
जब जीवनसाथी अधिक समय तक बीमार रहते हैं तो वह स्थिति बहुत कष्ट देने वाली होती है. कुछ लोग एकदूसरे से दूर भागने लगते हैं तो कुछ एडजस्ट कर लेते हैं. एक प्राइवेट अस्पताल के फिजियोथैरेपिस्ट डा. गौरव राज राघव कहते हैं कि मैं ने अपने कैरियर में बहुत से मामले देखे हैं जहां लोग लंबी बीमारी से जूझते हैं. मैं आप को कुछ ऐसे ही मामलों के बारे में बताता हूं.
प्राइवेट कालेज में पढ़ा रहे 35 साल के एक प्रोफैसर का शादी के 3 साल बाद ही ब्रेन हैमरेज हुआ और उन्हें पैरालेसिस हो गया. उन की पत्नी काफी सहयोगी थी. आर्थिक स्थिति भी उन लोगों की काफी अच्छी थी. परिवार का पूरा सपोर्ट था लेकिन वह व्यक्ति बहुत चिड़चिड़ाता था. अपनी बीवी पर बहुत गुस्सा होता था. उन का संबंध दिन पर दिन खराब होता जा रहा था. एक दिन तो उन्होंने गुस्से में डाक्टर के सामने अपनी बीवी का गला तक दबा दिया. शायद वे अपनी जिंदगी से हार चुके थे. उन का इलाज लगभग 4-5 सालों तक हमारे यहां चला, उसी बीच उन का तलाक भी हो गया.
38 वर्ष के एक सज्जन को स्पाइन में ट्यूमर था जिसे ठीक करने के लिए उन की 2 बार सर्जरी की गई. इस के बावजूद उन की हालत में कोई फर्क नहीं पड़ा. कई साल तक उन का इलाज चलता रहा. उन के 2 बच्चे थे. उन की पत्नी उन की देखरेख में लगी रहती थी. वह घर के साथ उन्हें भी संभाल रही थी. हां, कभीकभी निराशा में हम ने उसे जरूर देखा लेकिन उस की हिम्मत टूटते हुए कभी नहीं देखा. उस ने पति का पूरा सहयोग दिया.
शादी अपने साथ कई तरह की चुनौतियां लाती है और अगर पति, पत्नी में से किसी एक को गंभीर बीमारी हो जाए तो मामला पेचीदा हो जाता है. कुछ लोग एकदूसरे का साथ देने के बजाय परेशान व हताश हो जाते हैं. इस बारे में रिलेशनशिप ऐक्सपर्ट कमल खुराना का कहना है, ‘‘जब पति या पत्नी में से कोई एक बीमार हो जाता है तो उन के मन में कई तरह के सवाल चलते हैं कि यदि और ज्यादा तबीयत खराब हो गई तो मैं क्या करूंगी या करूंगा? ऐसा कितने समय तक चलेगा, घर का खर्चापानी कैसे होगा आदि. एकदूसरे के रिश्तों में भी असर पड़ने लगता है और छोटीछोटी बात कभीकभी बतंगड़ बन जाती है.
‘‘दुख की ही बात है कि जब पति, पत्नी में से कोई एक गंभीर रूप से बीमार हो जाता है तो कई जोड़े यह सब बरदाश्त नहीं कर पाते और तलाक ले लेते हैं. लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि आप की शादी का भी यही अंजाम होगा.’’ ऐसे बहुत से जोड़े हैं जो अपनी जिंदगी के मुश्किल दौर में भी एकदूसरे का साथ देते हैं. इस बारे में गुरु तेग बहादुर अस्पताल की नर्स विमला कोहली बताती हैं :
मेरा एक पेशेंट था-विकास. उस की रीढ़ की हड्डी में चोट लग जाने के कारण वह बिना किसी मदद के हिलडुल भी नहीं सकता था. उसे हर समय किसी की मदद की जरूरत पड़ती थी. लगभग 2 महीने तो वह अस्पताल में भरती रहा. उस की पत्नी अस्पताल में आती रहती थी. धीरेधीरे उस की पत्नी की भी तबीयत खराब रहने लगी. उस ने बताया कि पति की देखभाल करतेकरते मेरी गरदन, कंधे और बाजुओं में लगातार दर्द रहने लगा. वह भी अपनी फिजियोथेरैपी करा रही थी. इन सारी मुश्किलों के बावजूद उन का रिश्ता कायम है.
कुछ ऐसे भी होते हैं जो बीमारी से खुद तो परेशान रहते ही हैं, अपने साथी को भी परेशान करते हैं क्योंकि उन की यह बीमारी तन के साथ मन की भी हो जाती है. एक 70 साल के बुजुर्ग व्यक्ति का हमारे यहां इलाज चल रहा था. वे लगभग 4 साल से बीमारी से जूझ रहे थे. वे दिन में 4 दवाएं लेते थे. बीच में कई बार ऐसा हुआ कि हम ने दवा की जरूरत न होने पर कुछ दवाएं बंद कर दीं लेकिन दवा बंद कर देने पर उन्हें लगा कि दवाएं कम लेने की वजह से उन की तबीयत बिगड़ रही है. जबकि ऐसा कुछ नहीं था. सच तो यह है कि उन्होंने मानसिक रूप से यह बात मन में बिठा ली थी कि वे सिर्फ दवा लेते रहेंगे तो ठीक हैं वरना नहीं. इसलिए उन की बीमारी तन से ज्यादा मन की हो गई थी.
बीमारी की स्थिति में मुश्किल और बढ़ जाती है. लेकिन हिम्मत हारना और साथी को छोड़ कर चले जाना इस का हल नहीं है, बल्कि आप को कुछ ऐसे तरीके अपनाने होंगे जिन से आप सभी कुछ अच्छी तरह से मैनेज कर पाएं और बीमार व्यक्ति भी इस में आप का पूरा सहयोग दे पाए. आइए जानें, ऐसे ही कुछ तरीकों के बारे में :
बीमार से डील करें :
किसी भी यंग पेशेंट को बीमारी की हालत में जो सवाल सब से ज्यादा परेशान करता है वह यह है कि यह मेरे साथ ही क्यों हुआ. सब से पहले तो उसे इस लूप से बाहर निकालिए और सचाई के धरातल पर आ कर इस स्थिति को थोड़ा ठीक करने के बारे में सोचिए. इस के बाद एक लिस्ट बनाइए जिस में उन तरीकों को लिखिए जिन से आप का साथी मौजूदा हालत को सहना आसान महसूस कर सकता है. एक ऐसी ही लिस्ट साथी को भी बनाने के लिए कहिए. फिर दोनों साथ मिल कर उन में से कुछ सुझाव चुनिए जिन पर अमल किया जा सकता है.
नया करने की सोचें :
क्या आप दोनों ऐसा कोई काम कर सकते हैं जिसे करने पर आप को बीमारी से पहले खुशी मिलती थी? अगर नहीं, तो कुछ नया करने के बारे में सोचिए. आप कोई ऐसा काम ढूंढि़ए जिस में बीमारी बाधा न बन सके, जैसे अंत्याक्षरी खेलना, एकदूसरे को पुस्तक पढ़ कर सुनाना, कोई नई भाषा सीखना आदि.
मेहमानों से कहें कि वे मिलने आएं:
अकसर देखने में आता है कि जब घर में कोई बीमार हो जाता है तो मेहमानों का आना बहुत बुरा लगता है कि बीमार की सेवा करूं या मेहमानों की. लेकिन ऐसा सोच कर लोगों से कट जाना भी सही नहीं है. इस से अकेलापन बढ़ता है और दिमाग पर बुरा असर पड़ता है. इस के विपरीत कभीकभार लोगों से मिलनेजुलने से सेहत पर काफी अच्छा प्रभाव पड़ता है. सो, लोगों को अपने घर बुलाते रहें.
देखभाल की जरूरत :
साथी अगर बीमार है तो उसे थोड़ी अतिरिक्त देखभाल की जरूरत होती है. पति को लंबी बीमारी के साथ डायबिटीज भी है तो उन्हें अलग केयर की जरूरत है. बिना चीनी वाली चाय बनाने के आलस में उन्हें चीनी वाली चाय न दें. यह उन की सेहत के लिए ठीक नहीं है.
पत्नी को चाहिए कि वह पति का पूरा खयाल रखे. अगर पति को डाक्टर ने तेज मसाले व परहेज वाला भोजन खाने की सलाह दी है तो आप खाने में मसालों की मात्रा धीरेधीरे कुछ इस तरह कम करें कि पति को पता ही न चले. धीरेधीरे वे ऐसे भोजन के आदी हो जाएंगे. खाने में मसाले व घीतेल की मात्रा अगर पति को बता कर कम करेंगी तो उन्हें अखरेगा.
पति को समयसमय पर चैकअप कराने ले जाती रहें और डाक्टर के द्वारा दी गई हिदायतों को डायरी में पति के हाथों से ही नोट कराएं. समयसमय पर वह डायरी उन्हें दिखा कर याद भी दिलाती रहें. पति की सेहत के लिए जिस तरह का भोजन जरूरी है, उसे अलगअलग तरह की रेसिपी के साथ बना कर खिलाएं ताकि खाने से उन्हें बोरियत न हो.
नए नए विषयों पर बातचीत करें :
घर में हर वक्त साथी की बीमारी की ही चर्चा नहीं होनी चाहिए. बातचीत के विषय को बदलें. करंट अफेयर्स से जुड़ें और रोज अखबार पढ़ कर साथी से नए विषयों पर उन की राय ले कर अपनी राय दें.
कहें कि तुम ठीक हो रहे हो :
अगर साथी की हालत में थोड़ी सी भी बेहतरी दिखे तो उन्हें यह बताएं. हौसला बढ़ाते हुए उन्हें समझाएं कि वे ठीक हो रहे हैं और कुछ दिनों में ही वे पूरी तरह ठीक हो जाएंगे. ऐसा करने पर उन्हें हिम्मत मिलेगी.
घर का माहौल सामान्य बनाए रखें :
साथी के बीमार होने की वजह से अगर घर का माहौल गमगीन बना रहेगा तो यह उन्हें अच्छा नहीं लगेगा. साथी के बीमार होने की वजह से अपने जरूरी कामों को न टालें. बच्चों को स्कूलकालेज भेजते रहें. शौपिंग पर भी जाएं, घर में मेहमानों का आनाजाना भी रखें. साथी को ऐसा नहीं लगना चाहिए कि उन की वजह से आप की जिंदगी भी रुक सी गई है. अगर ऐसा हुआ तो वे इस के लिए खुद को जिम्मेदार मानेंगे और खुद को कभी माफ नहीं कर पाएंगे.
अपने काम स्वयं करने दें :
अगर साथी अपना नहाने, खानेपीने और दूसरे जरूरी काम खुद करना चाहता है तो उसे करने दें क्योंकि अगर बीमारी लंबी है तो आप भी ये सब काम करते हुए परेशान हो जाएंगी और साथी को भी दूसरों पर निर्भर होने की आदत पड़ जाएगी, इसलिए जरूरी है कि उन की मदद के लिए हर समय तैयार रहें लेकिन जो काम वे खुद से कर सकते हैं उन्हें करने दें.
बाहर नहीं तो घर में एंजौय कराएं :
अगर पति बीमारी की वजह से बाहर जाने में असमर्थ हैं तो इस का यह मतलब नहीं है कि उन्हें एंजौय करने का अधिकार नहीं है. अगर वे बाहर मूवी देखने नहीं जा सकते तो क्या हुआ उन के लिए घर पर ही ऐसा माहौल तैयार करें कि वे थिएटर में मूवी देख रहे हैं. कोई अच्छी सी मूवी डीवीडी पर लगाएं और कमरे में अंधेरा कर सपरिवार उसे एंजौय करें.
भविष्य से जुड़ी बातें करें :
जिस तरह पहले आप भविष्य से जुड़ी बातें करते थे वैसा अभी भी करें. उन से बच्चों, परिवार आदि के भविष्य के बारे में बात करें. उन के और अपने सपनों से जुड़ी बातें करें. इस से उन का जिंदगी जीने का जज्बा बना रहेगा. उन का यह जज्बा उन्हें जल्दी ठीक होने में मदद करेगा.
साथी को बिजी रखें :
साथी लंबी बीमारी से जूझ रहा है तो हर वक्त बिस्तर पर खाली पड़ेपड़े उस का मन ऊब जाएगा, इसलिए उसे बिजी रखने की कोशिश करें. उस का अगर कोई शौक हो जैसे कि लिखना या फिर गाना गाना या फिर कोई और हो जो वह बीमारी के साथ भी आसानी से कर पाए, उसे करने को प्रेरित करें. बच्चे के साथ बिजी रखें, टीवी देखने, अखबार पढ़ने आदि कामों में बिजी रखें.
साथी को डिप्रैशन से निकालें :
अपनी बीमारी से तंग आ कर ऐसा समय भी आएगा जब साथी को अपनी जिंदगी बेमानी लगने लगेगी और उसे लगेगा कि वह बेवजह सब पर बोझ बना हुआ है और यहीं से उस के डिप्रैशन की शुरुआत होगी. लेकिन वह ऐसी सिचुएशन में आ ही नहीं पाए, इस का आप को पूरा खयाल रखना होगा. अगर वह डिप्रैशन में आ गया तो उस की बीमारी तन से ज्यादा मन की हो जाएगी और फिर उसे ठीक कर पाना पहले से भी बहुत ज्यादा कठिन हो जाएगा. उस की नींद का पूरा ध्यान रखें, अगर वह थोड़ा भी डिप्रैस है तो उस से बात करें, उस की समस्याओं का हल निकालें. उसे बताएं कि आप को उस की कितनी जरूरत है. डाक्टर से डिप्रैशन दूर करने के सैशन भी दिलवाएं क्योंकि अगर शुरुआती दौर में ही आप ने ध्यान दिया तो वह डिप्रैशन से बच सकता है वरना बाद में मुश्किल हो जाएगी.
अहमियत बताएं :
लंबी बीमारी से जूझतेजूझते कई बार साथी के मन में जीने की इच्छा लगभग बिलकुल समाप्त हो जाती है. उसे लगने लगता है कि उस का जीवन व्यर्थ है, वह किसी के काम नहीं आ सकता. ऐसे में सिर्फ आप ही हैं जो उस की इस सोच को बनने से रोक सकती हैं. साथी को यह बताएं कि उस के बिना आप का जीवन और परिवार का भविष्य कुछ नहीं है. आप उसे बताएं कि सबकुछ अपने बलबूते पर करने की हिम्मत आप को उन से ही मिल रही है. अगर साथी नहीं तो आप की जिंदगी कितनी खाली और बेरंग हो जाएगी.
खुद भी हिम्मत रखें :
अगर पूरे घर में सब से ज्यादा हिम्मत की जरूरत किसी को है तो वह बीमार की तीमारदारी करने वाले व्यक्ति को है. क्योंकि वही है जिस के इर्दगिर्द पूरा घर चल रहा है और बीमार की सेवा भी हो रही है. ऐसे में अगर दुखी हो कर वह खुद हिम्मत छोड़ देगा तो न केवल घर चलाना मुश्किल हो जाएगा बल्कि बीमार की देखभाल करना भी एक कठिन कार्य होगा. आप को हिम्मत रखता हुआ देख कर ही घर के बाकी सदस्यों को हिम्मत और विश्वास मिलेगा.
पौजिटिव रहें :
साथी को बीमारी की हालत में देख मन में बुरेबुरे विचारों का आना लाजिमी है. मन कुछ गलत होने के विचार से ही कांप जाता होगा और आप का पूरा मनोबल टूटने के लिए यह एक विचार ही काफी होता होगा. लेकिन आप को अपने मन में पल रहे इन नकारात्मक विचारों को दूर कर सकारात्मक बनना होगा और सोचना होगा कि सब ठीक है और जो ठीक नहीं है उसे आप ठीक कर देंगी.
चिड़चिड़ाएं नहीं :
अगर आप साथी (बीमार) से चिड़चिड़ा कर बात करेंगी और यह जताएंगी कि उस की तीमारदारी करतेकरते आप थक चुकी हैं तो साथी का मनोबल टूट जाएगा और वह डिप्रैस्ड हो जाएगा. इसलिए जब आप को खुद को डिप्रैस्ड महसूस हो, तो साथी के पास न जाएं बल्कि अपने को रिलैक्स करने के तरीके खोजें. जब आप सही और खुश रहेंगी तभी साथी को ठीक कर पाएंगी.
भावनाओं को समझें :
अगर बीमार व्यक्ति चिड़चिड़ा रहा है तो उस के चिड़चिड़ाने की वजह जानें कि उसे गुस्सा क्यों आ रहा है. क्या वह बीमारी की वजह से परेशान है इसलिए गुस्सा कर रहा है या उसे पहले से ही गुस्सा करने की आदत है या फिर आप के बीच कोई तालमेल की कमी है.
कुछ लोग बीमार होने पर भावुक हो जाते हैं और सोचते हैं कि उन का साथी उन से दूर चला जाए क्योंकि वे उस पर बोझ नहीं बनना चाहते इसलिए ही उन का व्यवहार बदल जाता है. ऐसे में उन के इमोशंस को समझना जरूरी है, नैगेटिव न सोचें. अपनेआप को मजबूत बनाएं.
‘‘मम्मी,आप नानी के यहां जाने के लिए पैकिंग करते हुए भी इतनी उदास क्यों लग रही हैं? आप को तो खुश होना चाहिए. नानी, मामा से मिलने जा रही हैं, पिंकी दीदी, सोनू भैया भी मिलेंगे.’’
‘‘नहींनहीं खुश तो हूं, बस जाने से पहले क्याक्या काम निबटाने हैं, यही सोच रही हूं.’’
‘‘खूब ऐंजौय करना मम्मी, हमारी पढ़ाई के कारण तो आप का जल्दी निकलना भी नहीं होता,’’ कह कर मेरे गाल पर किस कर के मेरी बेटी सुकन्या चली गई.
सही तो कह रही है, कोई मायके जाते हुए भी इतना उदास होता है? मायके जाते समय तो एक धीरगंभीर स्त्री भी चंचल तरुणी बन जाती है पर सुकन्या को क्या बताऊं, कैसे दिखाऊं उसे अपने मन पर लगे घाव. 20 साल की ही तो है. दुनिया के दांवपेचों से दूर. अभी तो उस की अपनी अलग दुनिया है, मांबाप के साए में हंसतीमुसकराती, खिलखिलाती दुनिया.
मेरे जाने के बाद अमित, सुकन्या और उस से 3 साल छोटे सौरभ को कोई परेशानी न हो, इस बात का ध्यान रखते हुए घर की साफसफाई करने वाली रमाबाई और खाना बनाने वाली कमला को अच्छी तरह निर्देश दे दिए थे. अपना बैग बंद कर मैं अमित का औफिस से आने का इंतजार कर रही थी.
सौरभ ने भी खेल कर आने पर पहला सवाल यही किया, ‘‘मम्मी, पैकिंग हो गई? आप बहुत सीरियस लग रही हैं, क्या हुआ?’’
‘‘नहीं, ठीक हूं,’’ कहते हुए मैं ने मुसकराने की कोशिश की.
इतने में अमित भी आ गए. हम चारों ने साथ डिनर किया. खाना खत्म होते ही अमित बोले, ‘‘सुजाता, आज टाइम पर सो जाना. अब किसी काम की चिंता मत करना, सुबह 5 बजे एअरपोर्ट के लिए निकलना है.’’
सब काम निबटाने में 11 बज ही गए. सोने लेटी तो अजीब सा दुख और बेचैनी थी. किसी से कह नहीं पा रही थी कि मुझे नहीं जाना मां के घर, मुझे नहीं अच्छे लगते लड़ाईझगड़े. अकसर सोचती हूं क्या शांति और प्यार से रहना बहुत मुश्किल काम है? बस अमित मेरी मनोदशा समझते हैं, लेकिन वे भी क्या कहें, खून के रिश्तों का एक अजीब, अलग ही सच यह भी है कि अगर कोई गैर आप का दिल दुखाए तो आप उस से एक झटके में किनारा कर सकते हैं, लेकिन ये खून के अपने सगे रिश्ते मन को चाहे बारबार लहूलुहान करें आप इन से भाग नहीं सकते. कल मैं मुंबई एअरपोर्ट से फ्लाइट पकड़ूंगी, 2 घंटों में दिल्ली पहुंच कर फिर टैक्सी से मेरठ मायके पहुंच जाऊंगी. जहां फिर कोई झगड़ा देखने को मिलेगा. झगड़ा वह भी मांबेटे के बीच का, सोच कर ही शर्म आ जाती है, रिटायर्ड टीचर मां और पढ़ेलिखे मुझ से 5 साल बड़े नरेन भैया, गीता भाभी और मेरी भतीजी पिंकी व भतीजे सोनू के बीच का झगड़ा, कौन गलत है कौन सही, मैं कुछ सोचना नहीं चाहती, लेकिन दोनों मुझे फोन पर एकदूसरे की गलती बताते रहते हैं, तो मन का स्वाद कसैला हो जाता है मेरा. मायके का यह तनाव आज का नहीं है.
5 साल पहले मां जब रिटायर हुई थीं तब से यही चल रहा है. आपस के स्नेहसूत्र कहां खो गए, पता ही नहीं चला. पिछली बार मैं 2 साल पहले गई थी. इन 2 सालों में हर फोन पर तनाव बढ़ता ही दिखा. अब तो हालत यह हो गई है कि मुझ से तो कोई यह पूछता ही नहीं है कि मैं कैसी हूं, अमित और बच्चे कैसे हैं, बस मेरे ‘नमस्ते’ कहते ही शिकायतों का पिटारा खोल देते हैं सब. ऐसे माहौल में मायके जाते समय किस बेटी का दिल खुश होगा? मैं तो अब भी न जाती पर मां ने फौरन आने के लिए कहा है तो मैं बहुत बेमन से कल जा रही हूं. काश, पापा होते. बस, इतना सोचते ही आंखें भर आती हैं मेरी.
मैं 13 वर्ष की ही थी जब उन का हार्टफेल हो गया था. उन का न रहना जीवन में एक ऐसा खालीपन दे गया जिस की कमी मुझे हमेशा महसूस हुई है. उन्हें ही याद करतेकरते मेरी आंख कब लगी, पता ही नहीं चला.
सुबह बच्चों को अच्छी तरह रहने के निर्देश देते हुए हम एअरपोर्ट के लिए निकल गए. अमित से बिदा ले कर अंदर चली गई और नियत समय पर उदास सा सफर खत्म हुआ.
जैसे ही घर पहुंची, मां गेट पर ही खड़ी थीं, टैक्सी से उतरते ही घर पर एक नजर डाली तो बाहर से ही मुझे जो बदलाव दिखा उसे देख मेरा दिल बुझ गया. अब घर के एक गेट की जगह 2 गेट दिख रहे थे और एक ही घर के बीच में दिख रही थी एक दीवार. दिल को बड़ा धक्का लगा.
मैं ने गेट के बाहर से ही पूछा, ‘‘मां, यह क्या?’’
‘‘कुछ नहीं, मेरे बस का नहीं था रोजरोज का क्लेश. अब दीवार खींचने से शांति रहती है. वे लोग उधर खुश, मैं इधर खुश.’’
खुश… एक ही आंगन के 2 हिस्से. इस में खुश कैसे रह सकता है कोई?
मां और मेरी आवाज सुन कर भैया और उन का परिवार भी अपने गेट पर आ गया.
भैया ने मेरे सिर पर हाथ रख कर कहा, ‘‘कैसी है सुजाता?’’
गीता भाभी भी मुझ से गले मिलीं. पिंकी, सोनू तो चिपट ही गए, ‘‘बूआ, हमारे घर चलो.’’
इतने में मां ने कहा, ‘‘सुजाता, चल अंदर यहां कब तक खड़ी रहेगी?’’
मैं तो कुछ समझ नहीं पा रही थी कि यह क्या हो गया, क्या करूं.
भैया ने ही कहा, ‘‘जा सुजाता, बाद में मिलते हैं.’’
मैं अपना बैग उठाए मां के पीछे चल दी. दीवार खड़ी होते ही घर का पूरा नक्शा बदल गया था. छत पर जाने वाली सीढि़यां भैया के हिस्से में चली गई थीं. अब छत पर जाने के लिए भैया के गेट से अंदर जाना था. आंगन का एक बड़ा हिस्सा भैया की तरफ था और एक छोटी गैलरी मां के हिस्से में जहां से बाहर का रास्ता था.
आंगन और गैलरी के बीच खड़ी एक दीवार जिसे देखदेख कर मेरे दिल
में हौल उठ रहे थे. मां एकदम शांत और सामान्य थीं. नहाधो कर मैं थोड़ी देर लेट गई. मां चाय ले आईं और फिर खुल गया शिकायतों का पिटारा. मैं अनमनी सी हो गई. इतनी दूर मैं क्या इसलिए आई हूं कि यह जान सकूं कि भाभी ने टाइम पर खाना क्यों नहीं बनाया, भैया भाभी के साथ उन के मायके क्यों जाते हैं बारबार, भाभी उन्हें बिना बताए पिक्चर क्यों गईं बगैराबगैरा…
मां ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? बहुत थक गई क्या? बहुत चुप है?’’
मैं ने भर्राए गले से कहा, ‘‘मां, यह दीवार…’’
बात पूरी नहीं होने दी मां ने, ‘‘बहुत अच्छा हुआ, अब रोज की किटकिट बंद हो गई. अब शांति है. अब बोल, क्या खाएगी और इन लोगों को सिर पर मत चढ़ाना.’’
मैं अवाक मां का मुंह देखती रह गई. इतने में दीवार के उस पार से भैया की आवाज आई, ‘‘सुजाता, लंच यहीं कर लेना. तेरी पसंद का खाना बना है.’’
पिंकी की आवाज भी आई, ‘‘बूआ, जल्दी आओ न.’’
मां ने पलभर सोचा, फिर कहा, ‘‘चल, अच्छा, एक चक्कर काट आ उधर, नहीं तो कहेंगे मां ने भाईबहन को मिलने नहीं दिया.’’
मैं भैया की तरफ गई. पिंकी, सोनू की बातें शुरू हो गईं. दोनों सुकन्या और सौरभ की बातें पूछते रहे और फिर धीरेधीरे भैया और भाभी ने भी मां की शिकायतों का सिलसिला शुरू कर दिया, ‘‘मां हर बात में अपनी आर्थिक स्वतंत्रता की बात करती हैं, उन्हें पैंशन मिलती है, वे किसी पर निर्भर नहीं हैं. बातबात में गुस्सा करती हैं. समय के साथ कोई समझौता नहीं करती हैं.’’
मैं यहां क्यों आ गई, मुझे समझ नहीं आ रहा था. कैसे रहूंगी यहां. यहां सब मुझ से बड़े हैं. मैं किसी को क्या समझाऊं और आज तो पहला ही दिन था.
इतने में मां की आवाज आई, ‘‘सुजाता, खाना लग गया है, आ जा.’’
मैं फिर मां के हिस्से में आ गई. मैं ने बहुत उदास मन से मां के साथ खाना खाया. मां ने मेरी उदासी को मेरी थकान समझा और फिर मैं थोड़ी देर लेट गई. बैड की जिस तरफ मैं लेटी थी वहां से बीच की दीवार साफ दिखाई दे रही थी जिसे देख कर मेरी आंखें बारबार भीग रही थीं.
अपनेअपने अहं के टकराव में मेरी मां और मेरे भैया यह भूल चुके थे कि इस घर की बेटी को आंगन का यह बंटवारा देख कर कैसा लगेगा. मुझे तो यही लग रहा था कि मेरा तो इस घर में गुजरा बचपन, जवानी सब बंट गए हैं. आंगन का वह कोना जहां पता नहीं कितनी दोपहरें सहेलियों के साथ गुड्डेगुडि़या के खेल खेले थे, अमरूद का वह पेड़ जिस के नीचे गरमियों में चारपाई बिछा कर लेट कर पता नहीं कितने उपन्यास पढ़े थे. छत पर जाने वाली वे बीच की चौड़ी सीढि़यां जहां बैठ कर लूडोकैरम खेला था, अब वे सब दीवार के उस पार हैं जहां जाने पर मां की आंखों में नाराजगी के भाव दिखेंगे. मां के हिस्से में वह जगह थी जहां हर तीजत्योहार पर सब साथ बैठते थे, आज वह खालीखाली लग रही थी. घर का बड़ा हिस्सा भैया के पास था. मां ने अपनी जरूरत और घर की बनावट के हिसाब से दीवार खड़ी करवा दी थी.
यही चल रहा था. मैं भैया की तरफ होती तो मां बुला लेतीं और बारबार पूछतीं कि नरेन क्या कह रहा था, भैयाभाभी पूछते मां मुझे क्या बताती हैं उन के बारे में. मैं ‘कुछ खास नहीं’ का नपातुला जवाब सब को देती. मुझे महसूस होता घर भी मेरे दिल की तरह उदास है. मैं मन ही मन अपने जाने के दिन गिनती रहती. अमित और बच्चों से फोन पर बात होती रहती थी. दिनभर मेरा पूरा समय इसी कोशिश में बीतता कि सब के संबंध अच्छे हो जाएं, लेकिन शाम तक परिणाम शून्य होता.
एक दिन मैं ने मां से पूछ ही लिया, ‘‘मां, मुझे आप ने फोन पर इस दीवार के बारे में नहीं बताया और फौरन आने के लिए क्यों कहा था?’’
मां ने कहा, ‘‘ऐसे ही, गीता को दिखाना था मैं अकेली नहीं हूं… बेटी है मेरे साथ.’’
मैं ने भैया से पूछा, ‘‘आप ने फोन पर बताया नहीं कुछ?’’
जवाब भाभी ने दिया, ‘‘बस, फोन पर क्या बताते, दीवार खींच कर मां खुश हो रही हैं तो हमें भी क्या परेशानी है. हम भी आराम से हैं.’’
मेरे मन में आया ये सब खुश हैं तो मुझे ही क्यों तकलीफ हो रही है घर के आंगन में खड़ी दीवार से.
एक दिन तो हद हो गई. मां मुझे साड़ी दिलवाने मार्केट ले जा रही थीं.
मैं ने कहा, ‘‘मां, पिंकी व सोनू को भी बुला लेती हूं. उन्हें उन की पसंद का कुछ खरीद दूंगी.’’
मां ने फौरन कहा, ‘‘नहीं, हम दोनों ही जाएंगे.’’
मैं ने कहा, ‘‘मां, बच्चे हैं, उन से कैसा गुस्सा?’’
‘‘मुझे उन सब पर गुस्सा आता है.’’
मैं उस समय उन्हें नहीं ले जा पाई. उन्हें मैं अलग से ले कर गई. उन्हें उन की पसंद के कपड़े दिलवाए. फिर हम तीनों ने आइसक्रीम खाई. जब से आई थी यह पहला मौका था कि मन को कुछ अच्छा लगा था. पिंकी व सोनू के साथ समय बिता कर मन बहुत हलका हुआ.
5 दिन बीत रहे थे. मुझे अजीब सी मानसिक थकान महसूस हो रही थी. पूरा दिन दोनों तरफ की आवाजों पर कभी इधर, तो कभी उधर घूमती दौड़ती रहती. मन रोता मेरा. किसी को एक बेटी के दिल की कसक नहीं दिख रही थी. किस बेटी का मन नहीं चाहता कि कभी वह 2-3 साल में अपने मायके आए तो प्यार और अपनेपन से भरे रिश्तों की मिठास यादों में साथ ले कर जाए. मगर मैं जल्दी से जल्दी अपने घर मुंबई जाना चाहती थी, क्योंकि मेरा मायका मायका नहीं रह गया था.
वह तो ऐसा मकान था जहां दीवार की दोनों तरफ मांबेटा बुरे पड़ोसियों की तरह रह रहे थे. इस माहौल में किसी बेटी के दिल को चैन नहीं आ सकता था.
मैं ने अमित को बता दिया कि मैं 1 हफ्ते में ही आ रही हूं. अमित सब समझ गए थे. 7वें दिन मैं ने अपना बैग पैक किया. सब से कसैले मन से बिदा ली. भैया ने अपने जानपहचान की टैक्सी बुलवा दी थी. टैक्सी में बैठ कर सीट पर सिर टिका कर मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं. लगा बिदाईर् तो आज हुई है मायके से. शादी के बाद जो बिदाई हुई थी उस में फिर मायके आने की, सब से मिलने की एक आस, चाह और कसक थी, लेकिन अब लग रहा था कभी नहीं आ पाऊंगी. इतने प्यारे, मीठे रिश्ते में आई कड़वाहट सहन करना बहुत मुश्किल था. मायके में खड़ी बीच की दीवार रहरह कर मेरी आंखों के आगे आती रही और मेरे गाल भिगोती रही.