Download App

पापा ने बताई एक्टिंग की सबसे बड़ी कमी : वरुण धवन

इन दिनों वरुण धवन, करण जौहर की फिल्म ‘‘कलंक’ को लेकर चर्चा में हैं. जिसे वह बेहद मुश्किल फिल्म मानते हैं. इसमे उन्होंने जफर नामक लोहार का किरदार निभाया है. इस किरदार के लिए उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ी. मगर अब तक उन्हे जो सफलता मिली है, उसकी वजह उनके पिता द्वारा बतायी गयी उनकी कमी है, जिसे उन्होंने दूर कर लिया है.

डेविड धवन ने वरूण को उनकी कमी उस वक्त बतायी थी,जब हर कोई वरूण के अभिनय की तारीफ कर रहा था. जी हां! वरूण धवन के करियर की पहली फिल्म ‘‘स्टूडेंट आफ द ईअर’ सफल होने के बाद हर तरफ उनके अभिनय की तारीफ हो रही थी. मगर उस वक्त वरूण धवन के पिता डेविड धवन ने वरूण से उनके अभिनय की कमी की तरफ इशारा किया था और वरूण ने उसे गंभीरता से लेते हुए अपनी उस कमी को दूर किया था.

पहली फिल्म के बाद बताई थी कमी…

एक खास एक्सक्लूसिव मुलाकात के दौरान खुद वरूण धवन ने ‘‘सरिता’’ पत्रिका को बताया -‘‘मेरे डैड महज बेहतरीन फिल्म निर्देशक ही नहीं, बल्कि वह मेरे आलोचक भी हैं. मेरे करियर की पहली फिल्म ‘‘स्टूडेंट आफ द ईअर’’ देखने के बाद जब सभी मेरी तारीफ कर रहे थे, तब मेरे डैड ने मुझसे कहा था, -‘तेरी आवाज खास नहीं है. माना कि तू अभी उम्र में छोटा है. पर तुझे अपनी आवाज पर काम करना पड़ेगा. अपनी आवाज में थोड़ी सी स्थिरता लेकर आओ. कामेडी में भी स्थिरता होती है.’’

अजय देवगन  ने ट्रोलर्स को क्यों सुनाई खरी-खोटी, जाने यहां

आवाज सुधारने के लिए ली ट्रेनिंग…

वरूण धवन आगे कहते हैं-‘‘डैड की सलाह मानकर मैने अपनी आवाज को ठीक करने के लिए काफी क्लासेस की. फिल्म‘बदलापुर’ के वक्त मैंने युवा और चालीस साल के इंसान की आवाज निकालने की ट्रेनिंग हासिल की थी. इसका फायदा मुझे बाद में कई फिल्मों में मिला. यहां तक कि नई फिल्म ‘कलंक’ में भी मिला.’’

बता दें कि वरुण धवन के पिता और मशहूर डायरेक्टर डेविड धवन ने ‘आग का गोला’, ‘स्वर्ग’,  ‘आंखे’,  ‘अंदाज’, ‘कुली नंबर वन’,‘लोफर’, ‘साजन चले ससुराल’, ‘जोड़ी नंबर वन’ सहित 40 से अधिक सफल फिल्में दी हैं. वहीं वरूण धवन ने करण जोहर की फिल्म ‘‘स्टूडेंट आफ द ईअर’ ’से अपने अभिनय करियर की शुरूआत की थी. उसके बाद से वह लगातार सफल फिल्में देते आ रहे हैं. वरुण ने ‘मै तेरा हीरो’,‘बद्रीनाथ की दुल्हनिया’, ‘अक्टूबर’, ‘जुड़वा’,‘सुई धागा’ जैसी कई पौपुलर फिल्मों में काम किया है.

आखिर ‘राजी’ को लेकर क्यों दुखी हैं आलिया भट्ट की मां

वेजिटेबल नमकीन पैन केक बनाने का सबसे आसान विधि

वेजिटेबल नमकीन बहुत टेस्टी रेसिपी है इसे आप जरूर ट्राई. यह सबको काफी पसंद आएगी.  ये ज्यादा औइल से नहीं बनती है साथ ही इसमें सब्जियां भी मिलाये जाते हैं तो सेहत के लिए काफी लाभदायक हैं. तो आज शाम के स्नेक्स में भी बना सकती हैं.

सामग्री

– आलू (1)

– गाजर ( 1)

– घिसी हुई पत्ता गोभी (1 कप)

– प्याज (1)

– हरी मिर्च ( 2)

– नींबू (1/2)

– हरा धनिया

– बेसन ( 2 चम्मच)

– सूजी (2 चम्मच)

– मक्की का आटा ( 2 चम्मच)

– नमक (स्वादानुसार)

– हल्दी (आवश्यकतानुसार)

– रिफाइंड ( 4 चम्मच)

ब्रेकफास्ट में बनाएं हेल्दी और टेस्टी बनाना ब्रैड केक

बनाने की विधि

– सबसे पहले आप सभी सब्जियों को धो लें फिर इन्हें छील कर आलू, गोभी और गाजर को कद्दूकस कर लें.

– ध्यान दीजिये कि यह ना ज्यादा बारीक हो और ना ज्यादा मोटा हो, उसके बाद आप इसमें हरी मिर्च और बारीक कटी प्याज़ मिला लें.

– हरा धनिया और कढ़ी पत्तों को भी बारीक काट लें.

– नींबू का रस निकाल कर इसमें डाल लें.

– अब आपको इसमें बेसन को मिलाना है उसके बाद सूजी और मक्की के आटे को भी मिला दें.

– अब आप इसमें नमक और हल्दी भी मिला दीजिये.

– अब आप इसमें इस हिसाब से पानी डालिए कि ये ज्यादा पतला ना हो बल्कि थिक हो  इसके बाद आप इस मिश्रण को थोड़ी देर के लिए रख दीजिये.

– इसमें मक्की का आटा इसे कुरकुरा करने के लिए और सूजी इसे सौफ्ट बनाने के लिए डाली जाती है.

– अब आप पैन या तवा जिस पर भी इसे बनाना चाहें या जो भी आप के पास हो उसे गैस जलाकर कर उस पर रखे दीजिये.

– उस पर थोड़ा सा रिफाइंड डालिए और जो मिश्रण बनाया है उसे उस पर डाल दीजिये.

– इसके बाद आपको इसे माध्यम आंच पर रख देना है और लगभग 1 मिनट के बाद आप इसे चैक करेंगे.

– इसे सीधे पलटे से हल्का हल्का हिला देंगे, पलटेंगे नहीं.

– इसके बाद इसे माध्यम आंच पर रखा रहने दें.

– बीच बीच में इसे देखते रहें, जब यह अच्छे से सिक जाये तो इसे पलटे की सहायता से पलट दीजिये

– एक तरफ से सिक गया है हल्का सुनहरा हो गया है अब दूसरी तरफ भी औयल लगा दें और उसी तरह से सिकने दें.

– बस कुछ समय में  तैयार होने वाला है आपका वेजिटेबल नमकीन पैन केक.

झटपट बनाएं पनीर इडली

गरीबी बनी एजेंडा

राहुल गांधी का नया चुनावी शिगूफा कि यदि वे जीते तो देश के सब से गरीब 20 फीसदी लोगों को 72,000 रुपए साल यानी 6,000 रुपए प्रति माह हर घर को दिए जाएंगे, कहने को तो नारा ही है पर कम से कम यह राम मंदिर से तो ज्यादा अच्छा है. भारतीय जनता पार्टी का राम मंदिर का नारा देश की जनता को, कट्टर हिंदू जनता को भी क्या देता? सिर्फ यही साबित करता न कि मुसलमानों की देश में कोई जगह नहीं है. इस से हिंदू को क्या मिलेगा?

लोगों को अपने घर चलाने के लिए धर्म का झुनझुना नहीं चाहिए चाहे यह सही हो कि पिछले 5,000 सालों में अरबों लोगों को सिर्फ और सिर्फ धर्म की खातिर मौत की नींद सुलाया गया हो. लोगों को तो अपने पेट भरने के लिए पैसे चाहिए.

यह कहना कि सरकार इस तरह का पैसा जमा नहीं कर सकती, अभी तक साबित नहीं हुआ है. 6,000 रुपए महीने की सहायता देना सरकार के लिए मुश्किल नहीं है. अगर सरकार अपने सरकारी मुलाजिमों पर लाखों करोड़ रुपए खर्च कर सकती है, उस के मुकाबले यह रकम तो कुछ भी नहीं है. यह कहना कि इस तरह का वादा हवाहवाई है तो गलत है, पर सवाल दूसरा है.

सवाल है कि देश की 20 फीसदी जनता को इतनी कम आमदनी पर जीना ही क्यों पड़ रहा है? इस में जितने नेता जिम्मेदार उस से ज्यादा वह जाति प्रथा जिम्मेदार है जिस की वजह से देश की एक बड़ी आबादी को पैदा होते ही समझा दिया जाता है कि उस का तो जन्म ही नाली में कीड़े की तरह से रहने के लिए हुआ है. उन लोगों के पास न घर है, न खेती की जमीन, न हुनर, न पढ़ाई, न सामाजिक रुतबा. वे तो सिर्फ ऊंची जातियों के लिए इतने में काम करने को मजबूर हैं कि जिंदा रह सकें.

देश का ढांचा ही ऐसा है कि इन गरीबों की न आवाज है, न इन के नेता हैं जो इन की बात सुना सकें. उन को समझाने वाला कोई नहीं. गनीमत बस यही है कि 1947 के बाद बने संविधान में इन्हें जानवर नहीं माना गया.

भरोसा खुद पर करें ईश्वर पर नहीं

1947 से पहले तो ये जानवर से भी बदतर थे. अमेरिका के गोरे मालिक अपने नीग्रो काले गुलामों की ज्यादा देखभाल करते थे, क्योंकि वे उन के लिए काम करते थे और बीमार हो जाएं या मर जाएं तो मालिक को नुकसान होता था. हमारे ये गरीब तो किसी के नहीं हैं, खेतों के बीच बनी पगडंडी हैं जिस की कोई सफाई नहीं करता. हर कोई इस्तेमाल कर के भूल जाता है.

इन को 72,000 रुपए सालाना दिया जा सकता है. कैसे दिया जाएगा, पैसा कहां से आएगा यह पूछा जाएगा, पर कम से कम इन की बात तो होगी. ऊंची जातियों के लिए यह झकझोरने वाली बात है कि 25 करोड़ लोग ऐसे हैं जो आज इस से भी कम में जी रहे हैं. क्यों, यह सवाल तो उठा है. असली राष्ट्रवाद यही है, मंदिर की रक्षा नहीं.

औरत और नौकरियां

शहरी हों या गांवों की औरतों की नौकरियां कम होती जा रही हैं. सरकारी आंकड़ें, जिन्हें मोदी सरकार चुनावी दिनों में रोक रही थी, बताते हैं कि पिछले 15 सालों में औरतों की काम में भागीदारी आधी रह गई है. गांवों में पिछले 6 सालों में 2 से 8 करोड़ औरतों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है.

यह तब है जब घरों में बच्चे कम हैं और औरतों को अब बच्चे पालने में मुसीबत कम होती है. घरों में अब सास या मां भी काफी तंदुरुस्त रहती हैं कि वह पोतेनाती को पालने में हाथ बंटा सके, पर फिर भी औरतें काम पर नहीं जा पा रहीं.

इस की एक वजह तो यह है कि पिछले सालों में नौकरियों में एकदम कमी आई है. सरकार की नीतियां ही ऐसी हैं कि न कारखाना लगाना आसान है, न दुकान. खेती में फसल अच्छी हो तो दाम नहीं मिलता और जब दाम बढ़ते हैं तो उपज कम होती है, इसलिए नई नौकरियां ही नहीं निकल रहीं. घर का मर्द खाली हो तो औरतों की हिम्मत नहीं होती कि वे नौकरी पर निकलें.

औरतों के हाथ कुछ नहीं

अगर देश का काम चल रहा है तो इसलिए कि सरकारी नौकरियों में लोग भरपूर कमा रहे हैं. वहां वेतन भी है, रिश्वत भी. वहां पैसा जम कर बंटता है और खैरात में कुछ बेकार बैठे लोगों के हाथों में आ जाता है. भगवा गमछेधारी आजकल पैदल नहीं चलते, शानदार मोटरबाइक पर चलते हैं, पर हैं बेरोजगार. उन की कमाई का एक बड़ा हिस्सा जबरन चंदे से आता है पर इसे नौकरी तो नहीं कह सकते. देशभर में जो झगड़े बढ़ रहे हैं उस के पीछे बेरोजगारी है क्योंकि निकम्मे लोग हर तरह के काम करने लगते हैं और चूंकि आजकल पुलिस कुछ कहती नहीं तो मुसलिमों, दलितों, गरीबों, किसानों को पीटपाट कर कमाई की जाती है. घरों की औरतें भी इस कमाई पर काम चला लेती हैं.

जबकि लड़कियों की पढ़ाई अब लड़कों के बराबर सी होने लगी है, 2011-12 से 2017-18 तक गिनती बढ़ी है पर उतनी नहीं जितनी ज्यादा लड़कियां पढ़ कर आ गई हैं. आज हर घर में 2-3 बच्चे ही हैं और लड़कियां भी बराबर का काम कर सकती हैं पर न तो उन्हें घर से बाहर काम मिलता है और न ही अपने बदन के बचाव का भरोसा है.

लड़कियों का काम देश की माली हालत में बढ़ोतरी के लिए बहुत जरूरी है. जो देश लड़कियों को बराबर का काम का मौका नहीं देगा, वह पिछड़ जाएगा. वहां औरतें फिर धर्म के नाम पर समय और पैसा बरबाद करेंगी या फिर ह्वाट्सएप जैसे फालतू कामों पर बेकार करेंगी. सब का साथ सब का विकास में औरतों का विकास कहां है, ढूंढ़ना होगा.

5 टिप्स: घर पर ऐसे रखें कलर्ड बालों का ख्याल

आजकल लोग फैशनेबल दिखने के लिए कई तरह की चीजें अपनाते हैं, जिनमें सबसे पहले नाम बालों का आता है. लोग बालों की रिबांडिंग, स्मूदनिंग और ब्लीचिंग या कलर करवाते है, लेकिन वह कलर या ब्लीचिंग ज्यादा दिनों तक नही चलता और वह बालों को खराब करना शुरू कर देता है. जिसकी वजह से आपके बालों के साथ-साथ लुक भी खराब हो जाता है. और इसीलिए आज हम आपको ब्लीच या कलर किए हुए बालों की केयर कैसे करें यह बताएंगे.

1. नो-हीट स्टाइलिंग तकनीक का करें इस्तेमाल

जैसा कि कोई है जो लोग अपने बालों को लगभग रोजाना स्ट्रेट करते हैं, उनके बाल जल्दी डैमेज हो जाते हैं. इसलिए कोशिश करें हर रोज स्ट्रेटनिंग मशीन का इस्तेमाल करने की बजाय ड्राई प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल करें, जिससे आपके बालों को कोई नुकसान न पहुंचे.

निखरी त्‍वचा पाने के 4 बेहतरीन टिप्स

2. बालों को कम वौश करें.

ड्रायर का इस्तेमाल करें लेकिन कम करें, जैसे कि आप अगर रोजाना नहाते हैं तो बालों को रोजाना नही धोएं. क्योंकि जितना आप बालों को कम धोएंगी उतना ही आप ड्रायर का कम इस्तेमाल करेंगी. साथ ही बालों पर नरिशमेंट के लिए औयल जरूर लगाएं.

3. हेयर ट्रीटमेंट का करें इस्तेमाल

हेयर ट्रीटमेंट से आपके बालों को केयर मिलता हैं, जो डैमेज बालों को नरिशमेंट के साथ-साथ एक शाइन भी देता है. इससे आपके बाल बिना ब्लीचिंग के भी सुंदर दिखते हैं. जैसे आर्गन औयल भी बालों को नरिशमेंट देने का काम करता है.

निखरी त्‍वचा पाने के 4 बेहतरीन टिप्स

4. हेयर की शाइन लाएं वापस

बालों को ब्लीच करने से शाइन उड़ जाती है, इसलिए बालों की शाइन वापस लाने के लिए रोजाना सुबह अपने बालों एक अच्छा हेयर स्प्रे लगाएं, जो बालों की शाइनिंग वापस ला सके.

  1. 5. अपने हेयर को करें टोन

जब तक आपके बाल नेचुरली कूल एंड टोंड न हों, तब तक बालों को टोन करें. बालों की टोनिंग चाहें तो आप अपने स्टाइलिस्ट से करा सकती हैं, वरना घर पर भी आप अपने बालों की टोनिंग कर सकती हैं. लेकिन सावधान रहें अगर आपके पास बालों की टोनिंग करने के लिए सही शैम्पू नही है तो घर पर बालों की टोनिंग करने से बचें.

घर है या जेल

नईनवेली पत्नी उर्मि को पा कर मोहन बहुत खुश था. हो भी क्यों न, आखिर हूर की परी जो मिली थी उसे. सच में गजब का नूर था उर्मि में. अगर उसे बेशकीमती पोशाक और लकदक गहने पहना दिए जाते तो वह किसी रानीमहारानी से कम न लगती. लेकिन बेचारी गरीब मांबाप की बेटी जो ठहरी, तो कहां से उसे यह सब मिलता भला, पर सपने उस के भी बहुत ऊंचेऊंचे थे.

अब सपने तो कोई भी देख सकता है न. तो बेचारी वह भी ऊंचेऊंचे सपना देखती थी कि उस का राजकुमार भी सफेद छोड़े पर चढ़ कर उसे ब्याहने आएगा और उसे दुनियाभर की खुशियों से नहला देगा.

लेकिन जब उर्मि ने अपने दूल्हे के रूप में मोहन को देखा तो उस का मन बुझाबुझा सा हो गया क्योंकि मोहन उस के सपनों के राजकुमार से कहीं भी मैच नहीं बैठ रहा था. खैर, चल पड़ी वह अपने पति मोहन के साथ जहां वह उसे ले गया.

‘‘जब शादी हो ही गई है तो अब अपनी जिम्मेदारी भी संभालना सीखो…’’ पिता का यह हुक्म मान कर मोहन उर्मि को ले कर शहर आ गया और काम की तलाश करने लगा.

लेकिन मोहन को कहीं भी कोई ढंग का काम नहीं मिल पा रहा था. दिहाड़ी पर मजदूरी कर के वह किसी तरह कुछ पैसे कमा लेता, मगर उतने से क्या होगा और दोस्त के घर भी वह कितने दिन ठहरता भला?

आखिर मोहन को काम न मिलता देख उस दोस्त ने सलाह दी कि क्यों न वह बड़ी सब्जी मंडी से सब्जियां ला कर बेचे. इस से उस की अच्छी कमाई हो जाएगी और रोज काम न मिलने की फिक्र भी नहीं रहेगी.

किसी तरह जोड़ेजुटाए पैसों से मोहन बड़ी सब्जी मंडी जा कर सब्जियां खरीद लाया और उन्हें लोकल बाजार में जा कर बेचने लगा.

अब मोहन का रोज का यही काम था. अंधेरे मुंह सुबहसवेरे उठ कर वह बड़ी सब्जी मंडी चला जाता और वहां से थोक भाव में खूब सारी फलसब्जियां खरीद कर उन्हें लोकल बाजार में जा कर बेचता.

अब मोहन की कमाई इतनी होने लगी थी कि पतिपत्नी के लिए अच्छे से दालरोटी जुट जाती थी. बेचारा मोहन, जब फलसब्जियां बेच कर थकाहारा घर आता तो उस के माथे पर पसीने का मुकुट और सीने में धड़कनों का जंगल होता, लेकिन फिर भी वह अपनी खूबसूरत पत्नी का मुखड़ा देख कर अपनी सारी थकान भूल जाता.

लेकिन उस की उर्मि जाने उस से क्या चाहती थी. वह कभी खुश ही नहीं रहती थी.

नहीं, वैसे तो वह खुश रहती थी, पर मोहन को देखते ही ठुनकने लगती थी कि उसे क्याक्या कमी है.

बेचारा मोहन हर तरह से कोशिश करता कि उर्मि को खुश रखे, पर उस की मांगें रोजाना बढ़ती ही जाती थीं.

मोहन मेहनत के चार पैसे इसलिए ज्यादा कमाना चाहता था ताकि उर्मि को ज्यादा से ज्यादा खुश रख सके, मगर उर्मि को इस बात की जरा भी परवाह नहीं थी. वह तो अपने ही पड़ोस के एक बांके नौजवान धीरुआ के साथ नैनमटक्का कर रही थी.

तेलफुलेल, चूड़ी, बिंदी वगैरह बेचने वाला धीरुआ पर उस का दिल आ गया था. जब भी वह उसे देखती, उसे कुछकुछ होने लगता.

सोचती, काश, धीरुआ उस का पति होता तो कितना मजा आता. पता नहीं, क्यों उस के मांबाप ने उस से 10 सालसे भी ज्यादा बड़े मोहन के साथ उसे ब्याह दिया?

उधर धीरुआ भी जब उर्मि को देखता तो देखता रह जाता. उस के गठीले बदन के उभार को देख कर उस के मुंह से लार टपकने लगती. उसे लगता, कैसे वह उसे अपने ताकतवर हाथों में समेट ले और फिर कभी छोड़े ही न. और वैसे भी वह अभी तक कुंआरा था.

जब भी उर्मि उस की दुकान पर आती, धीरुआ उसे ही निहारते रहता. यह बात उर्मि भी समझ रही थी इसलिए तो बहाना बना कर वह उस की दुकान पर अकसर जाती रहती थी.

धीरुआ अपने मोबाइल फोन में उर्मि को बढि़याबढि़या प्यार वाले गाने सुनाता और वीडियो भी दिखाता. प्यार वाले गाने सुन कर वह ऐसे मंत्रमुग्ध हो जाती कि पूछो मत. वह खुद को उस गाने की हीरोइन ही समझने लगती और धीरुआ को हीरो.

एक दिन उर्मि ने ठुनकते हुए मोहन से मोबाइल फोन की मांग कर दी. हैसियत तो नहीं थी बेचारे की, लेकिन फिर भी एक सस्ता सा मोबाइल, जिस से सिर्फ बात हो सकती थी, उर्मि के लिए खरीद लाया.

मोबाइल फोन देख कर उर्मि बहुत खुश तो नहीं हुई, पर लगा चलो बात तो होगी न इस से. अब उस का जब भी मन करता, धीरुआ को फोन लगा देती और खूब बातें करती. पर अपने पति मोहन से कभी सीधे मुंह बात नहीं करती थी.

न जाने क्यों उर्मि बातबात पर मोहन पर चढ़ जाती और बेचारा मोहन भी उस के गुस्से को शरबत समझ कर चुपचाप हंसतेहंसते पी जाता.

सोचता, उम्र कम है इसलिए समझ भी थोड़ी कम है. मगर उसे तो मोहन जरा भी भाता ही नहीं था. उस का दिल तो अपने आशिक धीरुआ के दिल से जा कर अटक गया था.

किसी तरह हिचकोले खाते हुए मोहन और उर्मि की गृहस्थी चल रही थी. लेकिन कहते हैं न, वक्त कब करवट ले, कह नहीं सकते. अचानक एक दिन लोगों में हड़कंप देख कर मोहन चौंक गया. देखा तो सब अपनेअपने सामान समेट कर भागने लगे हैं.

‘‘अरे, क्या हुआ भाई?’’ मोहन ने पास में अपनी सब्जियां समेट रहे सब्जी वाले से पूछा.

‘‘अरे, क्या हुआ क्या, तुम भी अपना सामान जल्दी से उठा कर भागो. तुम देख नहीं रहे कब्जा हटाने के लिए नगर प्रशासन का दस्ता आया हुआ है,’’ उस सब्जी वाले ने कहा.

‘‘नगर प्रशासन का दस्ता… पर वह क्यों भाई?’’ मोहन ने उस सब्जी वाले से हैरानी से पूछा.

‘‘क्योंकि यहां सब्जियां बेचना गैरकानूनी है,’’ झुंझलाते हुए उस सब्जी वाले ने कहा.

‘‘गैरकानूनी… पर यहां शहर के बीचोंबीच कुछ लोगों ने जो मौल और होटल बना रखे हैं, वे भी आधे से ज्यादा सरकारी जमीन पर हैं तो उन्हें ये प्रशासन वाले क्यों कुछ नहीं कहते? क्या इन लोगों पर कभी कोई कार्यवाही नहीं होती? हम गरीब ही मिले हैं इन्हें सताने को?’’ मोहन ने गुस्से से कहा.

‘‘अरे भाई, वे अमीर लोग हैं. पैसा और पहुंच बहुत है उन की. फिर उन के खिलाफ क्यों कोई कार्यवाही होने लगी? चल, मैं तो चला, तू भी निकल ले जल्दी से,’’ कह कर वह सब्जी वाला चलता बना.

मोहन भी खुद में भुनभुनाते हुए अपनी सब्जियां समेटने लगा, लेकिन तभी किसी की कड़क आवाज से वह कांप उठा और उस के हाथ थरथर कांपने लगे.

‘‘क्यों बे, अब तुझे क्या अलग से न्योता देता… हां, बोल?’’ कह कर उस में से एक ने उस की टोकरी में ऐसी लात मारी कि वह लुढ़कती हुई दूर चली गई. सारे टमाटर सड़क पर छितरा गए.

तभी एक दूसरा अफसर उस की तरफ बढ़ा ही था कि मोहन हाथ जोड़ कर विनती करते हुए कहने लगा, ‘‘साहब, मैं अभी उठाए लेता हूं सारी सब्जियां, दया माईबाप दया…’’

लेकिन मोहन की बातों को अनसुना कर एक बड़े अफसर ने कड़क आवाज में कहा, ‘‘इन का तो यह रोज का नाटक है. जब तक इन्हें सबक नहीं सिखाओगे, समझेंगे नहीं,’’ कह कर उस ने उस की बचीखुची सब्जियां भी फेंक दीं.

बेचारा मोहन उन सब के सामने गिड़गिड़ाता रह गया. वह अपने आंसू पोंछते हुए जो भी सब्जियां बची थीं, ले कर घर चला गया, पर वहां भी उर्मि की जहरीली बातों ने उसे मार डाला.

‘‘तो क्या करूं… बोल न? क्या गरीब होना मेरी गलती है या वहां जा कर सब्जियां बेच कर मैं ने कोई गुनाह कर दिया, बोलो?’’ मोहन रोंआसी आवाज में बोला.

‘‘वह सब मुझे नहीं पता… तुम चोरी करो, डकैती करो, जेब काटो चाहे जो भी करो मुझे तो बस पैसे चाहिए घर चलाने के लिए,’’ जख्म पर महरम लगाने के बदले उर्मि अपनी बातों से उसे और जख्म देने लगी.

अब क्या करता बेचारा, पैसे तो थे नहीं जो फिर से कोई धंधा शुरू करता. कहीं सचमुच में उर्मि उसे छोड़ कर भाग न जाए, इस वजह से मोहन ने गलत रास्ता अख्तियार कर लिया.

अब सब्जियां बेचने के बजाय लोगों की जेबें काटने लगा और छोटीमोटी चोरियां भी करने लगा.

शुरूशुरू में तो मोहन को बहुत बुरा लगता था ये सब काम करने में, लेकिन फिर धीरेधीरे उसे भी यह सब करने में मजा आने लगा.

घर में सामानपैसा आते रहने से उर्मि भी अब खुश रहने लगी थी. उस के ठाठ देख आसपड़ोस की औरतें जल मरतीं और उर्मि उन्हें देख और इतराती. लेकिन उन के पास यह सुख भी ज्यादा दिनों तक टिका न रह सका.

एक दिन मोहन चोरी करते हुए पुलिस के हत्थे चढ़ गया और उसे जेल भेज दिया.

मोहन के जेल जाने से उर्मि को कोई खास फर्क नहीं पड़ा, बल्कि उस की तो और मौज हो गई. अब वह खुल कर धीरुआ के साथ आंखें चार करने लगी.

धीरुआ उसे जबतब अपने घर ले जाता और दोनों खूब मस्ती करते. अपनी मोटरसाइकिल पर वह उर्मि को खूब घूमाताफिराता, सिनेमा दिखाता. जब लोग कुछ कहते तो उर्मि उन्हें दोटूक जवाब दे कर चुप कर देती.

इधर बिना गुनाह साबित हुए ही मोहन महीनों तक जेल में पड़ा सड़ता रहा, क्योंकि कोई उस की जमानत कराने नहीं आया इसलिए. जब जान लिया उर्मि ने कि अब मोहन नहीं आने वाला, तो एक दिन वह धीरुआ के साथ भाग गई.

बिना गुनाह साबित हुए ही महीनों जेल में गुजारने की बात जब एक कैदी दोस्त ने सुनी तो उसे मोहन पर दया आ गई. छूटते ही उस कैदी दोस्त ने मोहन की जमानत तो करवा दी, लेकिन महीनों जेल में पड़े रहने से वह बहुत कमजोर हो गया. जब पत्नी के बारे में जाना तो उस का दिल और टूट गया. लगा जिस के लिए उस ने इतना सबकुछ सहा, वही उस का साथ छोड़ गई.

अब मोहन बीमार और बेसहारा हो गया था. न तो अब वह कोई काम करने लायक रहा और न ही चोरीजेबकतरी के ही लायक रह गया. कोई कुछ दे जाता तो खा लेता, वरना भूखे पेट ही सो जाता. उसे लग रहा था कि उस के लिए तो जेल भी वैसी ही थी जैसा घर.

जानिए गर्म पानी पीने के 6 फायदे

जीने के लिए खाने से कहीं ज्यादा जरूरी है पानी. जानकारों का मानना है कि अच्छी सेहत के लिए 8 से 10 ग्लास पानी जरूरी है. पर क्या आपको पता है कि गर्म पानी पीने से सेहत को कई तरह के फायदे पहुंचते हैं. शरीर की कई बीमारियों में गर्म पानी पीना काफी लाभकारी होता है. इस खबर में हम आपको गर्म पानी पीने के फायदे बताएंगे.

बढ़ती उम्र थम जाए

चेहरे की झुर्रियों में गर्म पानी का सेवन काफी फायदेमंद होता है. अगर आप अपनी झुर्रियों के निजात पाना चाहती हैं तो आज ही से गर्म पानी पीना शुरू कर दें. कुछ ही हफ्तों में स्किन में कसाव आने लगेगा और स्किन चमकदार भी हो जाएगी.

ये भी पढ़ें : गर्मी में रहना है सुपर कूल तो इन 6 चीजों का करें सेवन

 बौडी करे डिटौक्‍स

गर्म पानी पीने से बौडी डिटौक्स होती है. आम भाषा में समझें तो शरीर की सारी अशुद्धियां निकल जाती हैं. गर्म पानी पीने से शरीर का तापमान बढ़ने लग जाता है, जिससे पसीना आता है और इसके माध्यम से शरीर की अशुद्धियां दूर हो जाती हैं.

ये भी पढ़ें : कम हो रहे स्पर्म काउंट को ऐसे बढ़ाएं

पेट की परेशानी रहे दूर

पाचन क्रिया के लिए गर्म पानी का सेवन लाभकारी होता है. खाने के बाद गर्म पानी पीने की आदत डाल लें. इससे खाना जल्दी पच जाएगा, पेट हल्का रहेगा और साथ में गैस की समस्या से भी राहत मिलेगी.

इन आसान उपायों से ठीक करें पेट की परेशानियां

चमकदार होते हैं बाल

बालों के लिए भी गर्म पानी का सेवन काफी फायदेमंद होता है. इससे बाल चमकदार होते हैं. बालों के ग्रोथ के लिए भी गर्म पानी काफी असरदार होती है.

बालों का ख्याल रखने में मदद करेंगी ये आसान टिप्स

जोड़ों का दर्द करें दूर

जोड़ों के दर्द में गर्म पानी काफी असरदार होता है. आपको बता दें कि हमारी मांसपेशियों का 80 फीसदी भाग पानी से बना हुआ है. गर्म पानी पीने से मांसपेशियों के एठन में राहत मिलती है.

जोड़ों के दर्द के लिए बेहद जरूरी है ये टिप्स

कम होता है वजन

वजन कम करने में गर्म पानी बेहद कारगर उपाय है. गर्म पानी में नींबू और शहद मिला कर लगातार तीन महीने तक पिएं. खाना खाने के बाद रोज एक ग्लास पानी पीना आपके लिए फायदेमंद होगा.

मेनका के बिगड़े सुर

अमेठी में राहुल गांधी को हराने के लिये भाजपा ने जो जाल बिछाया उसके तहत गांधी परिवार की ही मेनका और वरुण की सीटों में आपसी फेरबदल कर मेनका को सुल्तानपुर संसदीय सीट से टिकट दिया गया. जिससे गांधी परिवार पर मेनका के हमले राहुल को चुनाव हरा सकें. मेनका ने अपने शुरुआती चुनाव प्रचार में ही विवादस्पद बयान देकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया है. यह भी देखना दिलचस्प होगा कि मेनका और स्मृति ईरानी के बीच से राहुल गांधी अमेठी जितने में किस तरह से सफल होते हैं.

‘हम खुले दिल के साथ आये हैं. लेकिन जब आप मुस्लिम भाजपा को वोट नहीं करते हैं तो हमारा दिल टूटता है. मैं चुनाव जीत रही हूं, पर यह जीत मुस्लिमों के बिना अच्छी नहीं लगेगी. इससे दिल खट्टा हो जाता है. फिर जब काम के लिये मुसलमान आता है तो मैं सोचती हूं कि रहने दो क्या फर्क पड़ता है’, मेनका के इस बयान ने उनकी समझदारी पर सवाल उठा दिये हैं. मेनका के बयान पर चुनाव आयोग जो भी संज्ञान ले, पर जनता में इस बयान को लेकर तीखी प्रतिक्रिया है. इस बयान से मेनका की इमेज को नुकसान हुआ है.


मेनका गांधी समझदार हैं. पुरानी राजनैतिक समझ रखती हैं. इसके बाद भी सुल्तानपुर में अपने चुनाव प्रचार में मुस्लिमों को लेकर जो बयान दिया उससे उनको लाभ की जगह नुकसान होने की संभावना अधिक है. मेनका गांधी के इस बयान की रिकार्डिंग वायरल होने के बाद चुनाव आयोग ने मेनका गांधी से जवाब मांगा है. मीडिया को जवाब देते मेनका गांधी ने कहा है ‘उनके बयान को सही से समझा नहीं गया उन्होंने किसी को धमकाया नहीं है.’ कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला कहते हैं ‘मोदी सरकार की मंत्री ने जिस तरह की बात कही है, उनके खिलाफ मुकदमा होना चाहिये.’

इमरजेंसी में था प्रमुख रोल

मेनका संजय गांधी का जन्म 26 अगस्त 1956 को हुआ था. नरेंद्र मोदी की सरकार में महिला और बाल विकास मंत्री हैं. वह एक पशु अधिकार कार्यकर्ता, पर्यावरणविद, और भारतीय राजनीतिज्ञ संजय गांधी की विधवा भी हैं. वह चार सरकारों में मंत्री रही हैं. मेनका ने कानून और पशु अधिकारों पर कई किताबें लिखी हैं. मेनका का जन्म दिल्ली में एक सिख परिवार में हुआ था. उनके पिता भारतीय सेना के अधिकारी कर्नल तरलोचन सिंह आनंद थे और उनकी मां अम्तेश्वर आनंद थीं. संजय गांधी से मेनका की मुलाकात एक पार्टी में हुई. जानपहचान रिश्तों में बदल गई. मेनका ने 23 सितंबर 1974 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेटे संजय से शादी की.

इमरजेंसी में संजय के राजनीति में उदय को देखा और मेनका को उनके दौरों में लगभग हर बार उनके साथ देखा गया. संजय गांधी के हर अभियान में मेनका उनके साथ रह कर उनकी मदद करती थी. यह अक्सर कहा जाता है कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी का अपनी मां पर पूर्ण नियंत्रण था. सरकार की शक्ति प्रधानमंत्री कार्यालय के बजाय संजय गांधी के हाथों में थी. इमरजेंसी के फैसलों में मेनका का पति संजय गांधी को पूरा समर्थन मिलता था. वह इमरजेंसी के हर फैसले में पति के साथ रहती थी. संजय जब भी बाहर होते मेनका साथ जाती थी.

गांधी परिवार से दूरी

मेनका गांधी ने 1977 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की बुरी हार के बाद पार्टी के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 1980 में वरुण गांधी का जन्म हुआ. मेनका सिर्फ तेईस साल की थी और उसका बेटा सिर्फ 100 दिन का था जब उसके पति संजय की एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. इंदिरा गांधी के साथ मेनका का रिश्ता संजय की मौत के बाद धीरे-धीरे बिखरने लगा. तब मेनका ने अकबर अहमद डम्पी के साथ राष्ट्रीय संजय मंच की स्थापना की. इसके बाद मेनका गांधी की राजनैतिक विचारधरा बदलती रही. मेनका गांधी ने लोकसभा चुनाव के लिए 1984 के आम चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश से अमेठी निर्वाचन क्षेत्रा का चुनाव लड़ा. यहां वह अपने ही परिवार के राजीव गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ी पर राजीव गांधी से वह चुनाव हार गई.

परिवार के खिलाफ लड़ी चुनाव

1988 में मेनका गांधी वीपी  सिंह के जनता दल में शामिल हो गईं और महासचिव बनी. नवंबर 1989 में मेनका गांधी ने अपना पहला चुनाव जीता. वीपी सिंह सरकार में पर्यावरण मंत्री राज्य मंत्री बनी. मेनका ने 1992 में संगठन पीपुल फौर एनिमल्स शुरू किया. यह भारत में पशु अधिकारों एवं कल्याण के लिए सबसे बड़ा संगठन है. मेनका गांधी अंतर्राष्ट्रीय पशु बचाव की संरक्षक भी हैं. राजनीति में उनका प्रयोग हमेशा विरोधी दलों ने गांधी परिवार के खिलाफ किया. वीपी सिंह से लेकर नरेन्द्र मोदी तक यह सिलसिला चलता रहा. भाजपा की अटल सरकार और बाद में मोदी सरकार में वह मंत्री रही.

मेनका गांधी ने उत्तर प्रदेश की पीलीभीत लोकसभा सीट से अपना चुनाव लड़ा. सिख बाहुल्य सीट पर मेनका को जीत मिलती रही. 2014 के लोकसभा चुनाव में मेनका गांधी के साथ भाजपा ने उनके बेटे वरुण गांधी को सुल्तानपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ाया था. मोदी लहर में वरुण गांधी सुल्तानपुर से सासंद तो बन गये पर सुल्तानपुर से लगी अमेठी लोकसभा सीट पर उनका असर भाजपा की मदद नहीं कर सका और कांग्रेस नेता राहुल गांधी वहां से सांसद बनने में सफल रहे. भाजपा ने राहुल गांधी को चुनाव में मात देने के लिये ही वरुण गांधी को सुल्तानपुर और अभिनेत्री स्मृति ईरानी को अमेठी लोकसभा सीट से चुनाव मैदान में उतारा था. इसके बाद भी राहुल गांधी एक लाख से अधिक वोट से चुनाव जीत गये थे.

राहुल को घेरने आई सुल्तानपुर

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने वरुण गांधी और उनकी मां मेनका गांधी के चुनाव क्षेत्र को आपस में बदल दिया है. भाजपा ने मेनका गांधी को वरुण की संसदीय सीट सुल्तानुपर से टिकट दिया और मेनका गांधी की संसदीय सीट पीलीभीत से वरुण गांधी को टिकट दिया है. मां-बेटे की सीटों में फेरबदल करके भाजपा अमेठी में कांग्रेस नेता राहुल गांधी को हराना चाहती है. भाजपा के चुनावी चाणक्य को लगता है कि गांधी परिवार के खिलाफ वरुण गांधी से प्रभावी बयानबाजी और भावुक अपील मेनका गांधी कर सकती हैं.

ऐसे में अगर मेनका ने सही से गांधी परिवार को कठघरे में खड़ा कर परिवार की इमेज को नुकसान पहुंचा दिया तो राहुल गांधी को अमेठी में हारना सरल हो जायेगा. राहुल मेनका और स्मृति ईरानी के बीच फंसकर चुनाव हार जाएंगे. मेनका ने जिस तरह से सुल्तानपुर में वोट के लिये मुस्लिम समुदाय को लेकर टिप्पणी की है उससे वह परेशानी में घिर गई हैं. अपने ऐसे भाषण से वह राहुल का नुकसान कर पाये ना कर पाये पर अपना नुकसान जरूर कर सकती हैं.

डरती है भाजपा कन्हैया से

बिहार के बेगूसराय में 9 मार्च को कन्हैया ने पर्चा दाखिल किया तो उन के पीछे उमड़ी बेतहाशा भीड़ ने पटना से ले कर दिल्ली तक को चौंका दिया. चौंकाया ही नहीं बल्कि भयभीत कर दिया. बौलीवुड से ले कर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कई छात्र नेता बेगूसराय में कन्हैया की रैली में नजर आ रहे थे. रैली में जिग्नेश मेवाणी, गुरमेहर, स्वरा भास्कर, शबाना आजमी, जावेद अख्तर, शेहला राशिद जैसे पोपुलर चेहरे मौजूद थे. जिधर देखो उधर ही भीड़ लाल झंडों के साथ नजर आ रही थी.

कन्हैया बेगूसराय लोकसभा सीट से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार हैं और भाजपा के गिरिराज सिंह उन के सामने हैं.

गिरिराज सिंह बेगूसराय से मौजूदा सांसद हैं. माथे पर तिलक और जुबान पर हिंदुत्व का जाप करने वाले गिरिराज सिंह का बड़बोलापन सुर्खियों में रहा है. इन दोनों नेताओं के बीच दिलचस्प मुकाबला देखने को मिल रहा है.

दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे कन्हैया कुमार फरवरी 2016 से उस वक्त से सुर्खियों हैं जब उन पर कश्मीर की कथित आजादी के नारे लगाने के आरोप चस्पा हुए थे और बाद में देशद्रोह के आरोप में जेल भेज दिया गया था. हालांकि बाद में उन की जमानत हो गई थी.

कन्हैया तब से केंद्र सत्ता की ताकत से टक्कर ले रहे हैं. भाजपा और संघ के विचारों को लगातार चुनौती दे रहे हैं. सत्ता भी उन ने घबरार्ई हुई है इसलिए झूठों की सेना को यह चेहरा रास नहीं आ रहा है. वह कट्टरपंथियों के लिए किरकिरी बने हुए हैं.

ये भी पढ़ें : पूर्वांचल में मोदी मैजिक के बजाय निरहुआ इफेक्ट का सहारा

कन्हैया के खौफ से केंद्र सरकार पिछले दो ढाई साल से उन्हें हर मोर्चे पर घेरने की कोशिशें करती दिखाई दे रही है. भाजपा उन्हें हर संभव रोकने के षड्यंत्र में जुटी दिखार्ई दी है. कन्हैया को देशद्रोही साबित करने की पूरी कोशिशें की जा रही हैं.

गिरिराज सिंह ही नहीं, दिल्ली से भी उन्हें घेरने और रोकने के पूरे प्रयास किए गए. जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाए जाने के मामले में कन्हैया कुमार समेत अन्य के खिलाफ बिना दिल्ली सरकार से मंजूरी लिए चार्जशीट दाखिल करने पर दिल्ली पुलिस को अदालत की फटकार सुननी पड़ी. केंद्र के अधीन दिल्ली पुलिस ने आननफानन में कन्हैया के खिलाफ आरोपपत्र दाखिल कर दिए थे.

अदालत को कहना पड़ा कि इस मामले में पुलिस इतनी जल्दबाजी क्यों कर रही है. कोर्ट ने कहा कि जब तक दिल्ली सरकार चार्जशीट दायर करने की मंजूरी नहीं देती, तब  तक हम इस पर संज्ञान नहीं लेंगे.

दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के अधीन है इसलिए विपक्ष का आरोप है कि कन्हैया को जानबूझ कर रोकने की कोशिश की जा रही है ताकि वह चुनाव न लड़ पाए और जैसेतैसे अयोग्य घोषित किया जा सके.

दरअसल 9 फरवरी 2016 को जेएनयू कैंपस में अफजल गुरु और मकबूल भट्ट के फांसी के विरोध में आयोजित कार्यक्रम के दौरान कथित देश विरोधी नारे लगाने के मामले में पुलिस ने पटियाला हाउस कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की थी. पुलिस ने उस वक्त दिल्ली के वसंत कुंज थाने में कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य के खिलाफ मामला दर्ज कर उन्हें गिरफ्ïतार किया था. बाद में सभी आरोपियों को दिल्ली हाईकोर्ट ने सशर्त जमानत दे दी थी.

देशद्रोह के मामले में सीआरपीसी की धारा 196 के तहत जब तक सरकार मंजूरी नहीं दे देती तक तक कोर्ट चार्जशीट पर संज्ञान नहीं सकता.

गिरिराज सिंह अपने प्रतिद्वंद्वी कन्हैया को नीचा दिखाने और अपने कट्टर हिंदूवादी विचारों को जाहिर करने से बाज नहीं आ रहे हैं. वह अपनी सभाओं में प्रतिद्वंद्वी कन्हैया को घेरने की कोशिश कर रहे हैं. कन्हैया को देशद्रोही, पाकिस्तान समर्थक, हिंदूद्रोही जैैसी अनगिनत बातें कह कर मतदाताओं का समर्थन हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं.

हालांकि कन्हैया के सामने आने से गिरिराज खुद घिर गए हैं. एक तो अपने विचारों को ले कर, दूसरा, पार्टी के भीतर ही अपने विरोध से.

गिरिराज सिंह का उन की पार्टी के भीतर ही विरोध खुल कर सामने आ रहा है. शुरू में लोगों ने उन की उम्मीदवारी का ही विरोध किया था.

why bjp afraid of kanhaiya

कन्हैया को वो ताकतें रोकने के षड्यंत्र रच रही है जो अमानवीय धर्म की पक्षधर है और लोकतंत्र की जगह देश को पौराणिक परंपराओं, नियमकायदों के आधार पर चलाना चाहती है. पुराणों के ऐसे नियम जो ऊंचनीच, भेदभाव आधारित हैं. ये ताकतें धर्म का राज स्थापित करना चाहती है.

कन्हैया की राह में इसलिए कांटे बोए जा रहे हैं क्योंकि वह भाजपा और संघ की अलोकतांत्रिक विचारधारा का विरोध करते हैं. जाति, धर्म के पैराकारों को ललकारते हैं. वह अपने चुनाव प्रचार में जाति, धर्म के आधार पर वोट नहीं करने की अपील करते हैं. वह कहते हैं कि देश में एक खास तरह की विचारधारा थोपने की कोशिश की जा रही है.

कन्हैया के भाषण लोगों को आकर्षित करते हैं. यह उन की वैचारिक पहचान है. जब वह बोलते हैं तो लोग सांस थाम लेते हैं. तर्क और तथ्यों से अपनी बात कहते हैं और विरोधी का मुंह बंद करा देते हैं. राजनीतिक तौर पर परिपक्व कन्हैया को देश की राजनीति और सामाजिक समझ गहरी है. उन्होंने सड़ीगली सामाजिक व्यवस्था देखी ही नहीं, स्वयं झेली हैं.

ये भी पढ़ें : राष्ट्रवाद पर भारी पड़ती जाति

कन्हैया के सवालों पर भाजपा घबराती है. भाजपा को डर इसलिए है क्योंकि कन्हैया राजनीति के परंपरागत ढांचे में हस्तक्षेप कर रहे हैं. वह सदियों पुरानी जमीजमाई ब्राह्ïमणवादी ताकतों की बेखौफ हो कर पोल खोल रहे हैं.

कन्हैया वे मुद्दे उठाते हैं जिन से देश की जनता चिंतित हैं. संवैधानिक मूल्यों और भारतीय संविधान के लिए खतरा, बेरोजगारी, धर्मांधता, जातीय भेदभाव, असमानता, अमीरीगरीबी, मौब लिंचिंग, अभिव्यक्ति की आजादी, किसानों की आत्महत्या. इन मुद्दों से भाजपा और कांग्रेस को भी परहेज है इसलिए यह युवा नेता इन के लिए खतरा हैं.

कन्हैया कुमार जिस जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढे हैं वह शुरू से ही वामपंथी विचारों का गढ रहा है. यहां आजादी के नारे का मतलब तमाम पुरातनपंथी, सामंतवादी और दमनकारी व्यवस्थाओं से आजादी है. जेएनयू में छात्रों के बीच रातरात भर कैंपस के ढाबों में राजनीतिक, सामाजिक बहसों का दौर चलता रहा है.

केंद्र में भाजपा की सरकार आने के बाद राजनीतिक, सामाजिक विमर्श और बहसों के ऐसे केंद्रों को नेस्तनाबूद करने की कोशिशें शुरू हो गईं. बदले में गोरक्षा, वंदेमातरम, राममंदिर निर्माण, झूठे राष्टवाद, देशभक्ति जैसी दुकानों को खुल कर प्रोत्साहन दिया जाने लगा. धर्म के नाम पर नफरत का कारोबार परवान चढाने वालों को अवतार, उद्घारक, मसीहा घोषित कर दिया गया.

ये भी पढ़ें : भाजपा की कमजोर कड़ी होंगी अनुप्रिया पटेल

यानी देश को आगे के बजाय सैंकड़ों साल पीछे की ओर ले जाने वाली व्यवस्था को लागू करने करने के प्रयास होने लगे. कन्हैया कुमार ने ऐसी व्यवस्था और उस के पैरोकारों को चुनौती देनी शुरू कर दी.

कन्हैया के खिलाफ नकारात्मक प्रचार की आंधी चलाई गई. मानो वह कोई बहुत बड़ा अपराधी है. वह झूठे राष्टवादियों से कहीं अधिक सच्चा और पक्का देशभक्त हैं. उन में देशभक्ति का दिखावा नहीं है.

असल में जब शासक विचारों से डरने लगे, उदार लोकतांत्रिक विचारकों पर हमलावर हो जाए तो इस का अर्र्थ है वे भयभीत हैं. हर नागरिक को अपने विचारों के अनुसार राजनीतिक गतिविधियां करने की आजादी है और सामान्य रूप से अपनी बात को कहने की स्वतंत्रता है, यह सब कुछ हमें संविधान, लोकतंत्र और उन से उपजी संस्थाओं से मिलता है पर ‘वसुधैव कुटुंबकम का मंत्र जपने वाले लोग अपने ही देश के नागरिकों को मौलिक अधिकारों के हनन और अपने पुरातनपंथी विचार थोपने पर आमादा है. कन्हैया जैसे नेता उन की काट है.

आलू  वड़ा

‘‘बाबू, तुम इस बार दरभंगा आओगे तो हम तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे,’’ छोटी मामी की यह बात दीपक के दिल को छू गई.

पटना से बीएससी की पढ़ाई पूरी होते ही दीपक की पोस्टिंग भारतीय स्टेट बैंक की सकरी ब्रांच में कर दी गई. मातापिता का लाड़ला और 2 बहनों का एकलौता भाई दीपक पढ़ने में तेज था. जब मां ने मामा के घर दरभंगा में रहने की बात की तो वह मान गया.

इधर मामा के घर त्योहार का सा माहौल था. बड़े मामा की 3 बेटियां थीं, मझले मामा की 2 बेटियां जबकि छोटे मामा के कोई औलाद नहीं थी.

18-19 साल की उम्र में दीपक बैंक में क्लर्क बन गया तो मामा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वहीं दूसरी ओर दीपक की छोटी मामी, जिन की शादी को महज 4-5 साल हुए थे, की गोद सूनी थी.

छोटे मामा प्राइवेट नौकरी करते थे. वे सुबह नहाधो कर 8 बजे निकलते और शाम के 6-7 बजे तक लौटते. वे बड़ी मुश्किल से घर का खर्च चला पाते थे. ऐसी सूरत में जब दीपक की सकरी ब्रांच में नौकरी लगी तो सब खुशी से भर उठे.

‘‘बाबू को तुम्हारे पास भेज रहे हैं. कमरा दिलवा देना,’’ दीपक की मां ने अपने छोटे भाई से गुजारिश की थी.

‘‘कमरे की क्या जरूरत है दीदी, मेरे घर में 2 कमरे हैं. वह यहीं रह लेगा,’’ भाई के इस जवाब में बहन बोलीं, ‘‘ठीक है, इसी बहाने दोनों वक्त घर का बना खाना खा लेगा और तुम्हारी निगरानी में भी रहेगा.’’

दोनों भाईबहनों की बातें सुन कर दीपक खुश हो गया.

मां का दिया सामान और जरूरत की चीजें ले कर दोपहर 3 बजे का चला दीपक शाम 8 बजे तक मामा के यहां पहुंच गया.

‘‘यहां से बस, टैक्सी, ट्रेन सारी सुविधाएं हैं. मुश्किल से एक घंटा लगता है. कल सुबह चल कर तुम्हारी जौइनिंग करवा देंगे,’’ छोटे मामा खुशी से चहकते हुए बोले.

‘‘आप का काम…’’ दीपक ने अटकते हुए पूछा.

‘‘अरे, एक दिन छुट्टी कर लेते हैं. सकरी बाजार देख लेंगे,’’ छोटे मामा दीपक की समस्या का समाधान करते हुए बोल उठे.

2-3 दिन में सबकुछ सामान्य हो गया. सुबह साढ़े 8 बजे घर छोड़ता तो दीपक की मामी हलका नाश्ता करा कर उसे टिफिन दे देतीं. वह शाम के 7 बजे तक लौट आता था.

उस दिन रविवार था. दीपक की छुट्टी थी. पर मामा रोज की तरह काम पर गए हुए थे. सुबह का निकला दीपक दोपहर 11 बजे घर लौटा था. मामी खाना बना चुकी थीं और दीपक के आने का इंतजार कर रही थीं.

‘‘आओ लाला, जल्दी खाना खा लो. फेरे बाद में लेना,’’ मामी के कहने में भी मजाक था.

‘‘बस, अभी आया,’’ कहता हुआ दीपक कपड़े बदल कर और हाथपैर धो कर तौलिया तलाशने लगा.

‘‘तुम्हारे सारे गंदे कपड़े धो कर सूखने के लिए डाल दिए हैं,’’ मामी खाना परोसते हुए बोलीं.

दीपक बैठा ही था कि उस की मामी पर निगाह गई. वह चौंक गया. साड़ी और ब्लाउज में मामी का पूरा जिस्म झांक रहा था, खासकर दोनों उभार.

मामी ने बजाय शरमाने के चोट कर दी, ‘‘क्यों रे, क्या देख रहा है? देखना है तो ठीक से देख न.’’

अब दीपक को अजीब सा महसूस होने लगा. उस ने किसी तरह खाना खाया और बाहर निकल गया. उसे मामी का बरताव समझ में नहीं आ रहा था.

उस दिन दीपक देर रात घर आया और खाना खा कर सो गया.

अगली सुबह उठा तो मामा उसे बीमार बता रहे थे, ‘‘शायद बुखार है, सुस्त दिख रहा है.’’

‘‘रात बाहर गया था न, थक गया होगा,’’ यह मामी की आवाज थी.

‘आखिर माजरा क्या है? मामी क्यों इस तरह का बरताव कर रही हैं,’ दीपक जितना सोचता उतना उलझ रहा था.

रात खाना खाने के बाद दीपक बिस्तर पर लेटा तो मामी ने आवाज दी. वह उठ कर गया तो चौंक गया. मामी पेटीकोट पहने नहा रही थीं.

‘‘उस दिन चोरीछिपे देख रहा था. अब आ, देख ले,’’ कहते हुए दोनों हाथों से पकड़ उसे अपने सामने कर दिया.

‘‘अरे मामी, क्या कर रही हो आप,’’ कहते हुए दीपक ने बाहर भागना चाहा मगर मामी ने उसे नीचे गिरा दिया.

थोड़ी ही देर में मामीभांजे का रिश्ता तारतार हो गया. दीपक उस दिन पहली बार किसी औरत के पास आया था. वह शर्मिंदा था मगर मामी ने एक झटके में इस संकट को दूर कर दिया, ‘‘देख बाबू, मुझे बच्चा चाहिए और तेरे मामा नहीं दे सकते. तू मुझे दे सकता है.’’

‘‘मगर ऐसा करना गलत होगा,’’ दीपक बोला.

‘‘मुझे खानदान चलाने के लिए औलाद चाहिए, तेरे मामा तो बस रोटीकपड़ा, मकान देते हैं. इस के अलावा भी कुछ चाहिए, वह तुम दोगे,’’ इतना कह कर मामी ने दीपक को बाहर भेज दिया.

उस के बाद से तो जब भी मौका मिलता मामी दीपक से काम चला लेतीं. या यों कहें कि उस का इस्तेमाल करतीं. मामा चुप थे या जानबूझ कर अनजान थे, कहा नहीं जा सकता, मगर हालात ने उन्हें एक बेटी का पिता बना दिया.

इस दौरान दीपक ने अपना तबादला पटना के पास करा लिया. पटना में रहने पर घर से आनाजाना होता था. छोटे मामा के यहां जाने में उसे नफरत सी हो रही थी. दूसरी ओर मामी एकदम सामान्य थीं पहले की तरह हंसमुख और बिंदास.

एक दिन दीपक की मां को मामी ने फोन किया. मामी ने जब दीपक के बारे में पूछा तो मां ने झट से उसे फोन पकड़ा दिया.

‘‘हां मामी प्रणाम. कैसी हो?’’ दीपक ने पूछा तो वे बोलीं, ‘‘मुझे भूल गए क्या लाला?’’

‘‘छोटी ठीक है?’’ दीपक ने पूछा तो मामी बोलीं, ‘‘बिलकुल ठीक है वह. अब की बार आओगे तो उसे भी देख लेना. अब की बार तुम्हें आलू वड़ा खिलाएंगे. तुम्हें खूब पसंद है न.’’

दीपक ने ‘हां’ कहते हुए फोन काट दिया. इधर दीपक की मां जब छोटी मामी का बखान कर रही थीं तो वह मामी को याद कर रहा था जिन्होंने उस का आलू वड़ा की तरह इस्तेमाल किया, और फिर कचरे की तरह कूड़ेदान में फेंक दिया.

औरत का यह रूप उसे अंदर ही अंदर कचोट रहा था.

‘मामी को बच्चा चाहिए था तो गोद ले सकती थीं या सरोगेट… मगर इस तरह…’ इस से आगे वह सोच न सका.

मां चाय ले कर आईं तो वह चाय पीने लगा. मगर उस का ध्यान मामी के घिनौने काम पर था. उसे चाय का स्वाद कसैला लग रहा था.

सुसाइड- फांसी का फंदा बन जाते हैं सामाजिक बंधन

सुसाइड-आखिर क्यों जीना नहीं चाहती नई पीढ़ी

आगे पढ़े

आत्महत्या व्यक्ति के जीवन में दर्द, तनाव और अवसाद के चरम पर पहुंचने का सूचक है. आत्महत्याओं के कारण और तरीके भले अलग-अलग हों, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि जब परिवार, समाज और देश की व्यवस्था से सहारे की हर उम्मीद खत्म हो जाती है, तभी कोई व्यक्ति इस आखिरी रास्ते को चुनता है। तो क्या विकास की चकाचौंध और आगे बढ़ने की अंधी प्रतिस्पर्धा के बीच हमारे परिवार, समाज और शासन में नयी पीढ़ी को सहारा देने की शक्ति क्षीण हो रही है? क्या यह सच नहीं है कि हमारी सामाजिक मान्यताएं, सामाजिक स्तर, सामाजिक अपेक्षाएं हमारे जीवन को ऐसे बंधन में जकड़े हुए हैं, जो कभी-कभी फांसी का फंदा बन जाता है?

रितु के मामा के बेटे ने डौक्टरी का एन्ट्रेंस इग्जाम पास कर लिया था। रितु पर उसकी मां का जबरदस्त प्रेशर था कि उसे भी डौक्टर ही बनना है. उन्होंने रितु की पढ़ाई-ट्यूशन पर खूब पैसा लगाया, मगर दो साल की कोशिशों के बाद भी रितु सीपीएमटी की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पायी और उसने आत्महत्या कर ली. क्या जीवन इतना सस्ता है कि एक परीक्षा में नाकाम होने पर समाप्त कर दिया जाए? महज बीस साल की रितु ने अपने घर, बाजार और कौलेज के अलावा इतनी बड़ी और खूबसूरत दुनिया का कोई भी कोना अभी तक नहीं देखा था। उसके जीवन पर उसकी मां की, परिवार की, सामाजिक स्टेटस की अपेक्षाएं इतनी हावी हो गयीं कि उसने अपना जीवन ही खत्म कर लिया. यह कहानी सिर्फ रितु की नहीं, बल्कि इस देश के उन तमाम नौजवानों की है, जो किसी एक परीक्षा में फेल होने पर अपने समस्त जीवन को ही फेल समझ लेते हैं और फांसी का फंदा गले में डाल लेते हैं.

भारत में आज मध्यवर्ग तेजी से बढ़ रहा है. यह वर्ग अपनी हर छोटी-बड़ी जरूरत को पूरी करने की आकांक्षा पाले रहता है। इस वर्ग में बच्चों को लेकर मां-बाप की आकांक्षाएं बढ़ रही हैं. दरअसल मध्यवर्गीय मां-बाप अपने बच्चों के जरिये ही अपनी आकांक्षाएं पूरी करना चाहते हैं. इसलिए वे अपने बच्चों पर अच्छी पढ़ाई के लिए दबाव बनाने लगते हैं। कई मां-बाप तो ऐसे हैं, जो अपने बच्चों के लिए ऐसी नौकरी चाहते हैं, जिसमें खूब पैसे हों, यह देखे बिना कि उसकी पढ़ाई का दबाव बच्चा बर्दाश्त कर पाएगा या नहीं. बच्चों पर अनावश्यक दबाव बनाने का खामियाजा यह होता है कि कभी-कभी बच्चे अवसाद का शिकार हो जाते हैं और आत्महत्या जैसा खतरनाक कदम उठा लेते हैं.

बच्चे ही नहीं, बड़े और घर-गृहस्थी वाले लोग भी सामाजिक दबाव में आत्महत्या का रास्ता अपना लेते हैं. रेहान की पत्नी को शिकायत थी कि उसके परिवार का स्टेटस रेहान के बड़े भाई के परिवार के स्टेटस से मेल नहीं खाता था. उसको अपने जेठ-जेठानी के घर जाने में शर्मिंदगी महसूस होती थी. लिहाजा वह रेहान पर दबाव बनाती थी कि वह ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाये. ज्यादा कमाई के चक्कर में रेहान रिश्वतखोरी में फंसता चला गया और एक दिन पुलिस के हाथों रंगेहाथों पकड़े जाने के बाद उसने मारे शर्मिंदगी के आत्महत्या कर ली.  अपने सामाजिक स्तर को लेकर जिस तरह आज का युवा परेशान है, वह उसको लगातार अवसाद और निराशा की ओर ढकेल रही है. बड़ी गाड़ी, बड़ा फ्लैट, सुख-सुविधा का हर सामान, नौकर-चाकर जैसे सपने आंखों में लेकर युवा इसको हासिल करने की जद्दोजहद में जीवन के असली सुख से लगातार दूर होते जा रहे हैं.  कभी देखा है पश्चिमी देशों के युवा सैलानियों को? वह अपना सबकुछ बेच कर जरूरत का थोड़ा सा सामान कंधे पर लिये, साधारण सूती कपड़े पहने दुनिया भर की सैर पर निकल पड़ते हैं। क्यों? क्योंकि वह 60-70 साल की छोटी सी जीवन-अवधि में इस दुनिया का ज्यादा से ज्यादा देख लेना चाहते हैं.  वे इस बात में विश्वास करते हैं कि जीवन सिर्फ एक बार ही मिलता है, इसलिए वे कुएं के मेढ़क नहीं बनना चाहते.  उनके लिए जीवन कोई एक परीक्षा पास कर लेना, या अपना सामाजिक स्तर ऊपर उठाना भर नहीं है. वह संकीर्ण दायरों से निकल कर जीवन की असली सुन्दरता देखने-जानने में रमे हैं.

दिल्ली के किशनगढ़ की आरती नाम की 19 साल की लड़की ने सड़क पर अपने साथ हो रही लगातार छेड़छाड़ से विचलित होकर (शायद खुद से घिन महसूस करके!) आत्महत्या कर ली.  उसके दिमाग में शायद बचपन से यह बिठाया गया था कि उसके साथ किसी प्रकार की शारीरिक छेड़छाड़ या भद्दा मजाक अगर होता है तो उसकी जिम्मेदार वह स्वयं है। उसे विश्वास था कि अगर वह अपनी परेशानी किसी से शेयर करेगी तो उसको ही और ज्यादा प्रताड़ित और अपमानित होना पड़ेगा. शायद आरती अपनी परेशानी के साथ अकेली पड़ गयी. यही वजहें थीं कि उसने इस परेशानी से मुक्त होने के लिए आत्महत्या को सुगम रास्ता समझा.

हमारी शिक्षा और सामाजिक मान्यताओं ने हमें इतना गुमराह कर रखा है कि हमें सही और गलत रास्ता ही दिखायी नहीं देता. हम छोटे-छोटे दायरों में बांध दिये गये हैं और उससे बाहर निकलने के लिए हम प्रश्न खड़ा करने से डरते हैं. हम विरोध से डरते हैं. एक गोत्र में विवाह को वर्जित मानना, अन्तरधर्मीय विवाह को मान्यता न होना, दलित-सवर्ण विवाह की अनुमति न होना जैसी बातों ने हमारे समाज के युवाओं को इतना हताश कर दिया है कि वे लगातार आत्महत्या की ओर अग्रसर हैं. आये-दिन देश के किसी न किसी कोने से यह खबर आ रही है कि अमुक प्रेमी ने प्रेम में असफल होकर आत्महत्या कर ली. क्या विदेशी समाज में ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं? नहीं, फिर हम क्यों हमारे युवाओं की जान के दुश्मन बने हुए हैं? और हमारे युवा भी क्यों इन सामाजिक मान्यताओं का विरोध करने के बजाये आत्महत्या जैसा पलायनकारी और कायरता का मार्ग पकड़ रहे हैं?

कितना करुण है कि जिनका जीवन अभी पूरा खुला-खिला भी नहीं, वे जीने से मुंह मोड़ रहे हैं! एक औस्ट्रेलियाई लेखक पीटर मायर ने इस विषय पर कुछ साल पहले ही एक किताब लिखी थी. उस किताब में मायर ने इस बात को रेखांकित किया था कि भारतीय युवाओं में आत्महत्या बढ़ रही है और हम लोग इस आंकड़े पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं. भारत में किसानों की आत्महत्या पर खूब चर्चा होती है, होनी भी चाहिए, लेकिन युवाओं की आत्महत्या पर कुछ नहीं होता, जबकि युवाओं की बड़ी संख्या इसका शिकार हो रही है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें