हम अक्सर देखते हैं कि सबकुछ होने के बाद भी लोग अपनी छोटी-छोटी कमियों को लेकर रोते रहते हैं, दूसरों को सुखी देख कर दुखी रहते हैं, भले अपने पास सबकुछ क्यों न हो उन्हें कभी तृप्ति नहीं होती. ऐसे लोग कभी यह नहीं देखते कि दुनिया में कितने ही लोग हैं जो बेहद अभावों में भी खुशी-खुशी अपनी जिन्दगी जी रहे हैं. मुझे भी इस बात का अहसास उस दिन ही हुआ जब मैंने अपने घर के सामने खेलते उस छोटे से गरीब और गंदे बच्चे से बात की. उस दिन उसकी बातें सुन कर मैं अचम्भित हो गयी. सोचने को मजबूर हो गयी कि वह अपनी गरीबी में भी कैसा खुश था.
दरअसल मेरे घर के सामने वाली बिल्डिंग में काफी दिन से कंस्ट्रक्शन वर्क चल रहा था. सामने की सड़क के किनारे उस बिल्डिंग में काम करने वाले मजदूरों ने अपनी झुग्गियां डाल ली थीं. उनकी औरतें भी बिल्डिंग में मजदूरी करती थीं और शाम को सड़क किनारे ही उनकी रसोई बनती थी.
शाम को आॅफिस से आने के बाद मैं अक्सर अपने गार्डन में ही बैठ कर चाय पीती हूं. उस दिन भी मैं गार्डन में बैठी चाय की चुस्कियां ले रही थी. सामने सड़क पार मजदूरों के नंग-धड़क बच्चे खेल रहे थे. चाय पीते-पीते मैं उनके खेल में मगन हो गयी. उनके खेल में मुझे आनन्द आने लगा. वह एक दूसरे के पीछे लगे लम्बी ट्रेन बना कर दौड़ते-हंसते, सीटी बजाते कभी बिल्डिंग के अन्दर घुस जाते, कभी बरगद के बड़े से पेड़ का चक्कर लगाकर मेरे घर के गेट तक आ जाते थे.