पता नहीं अस्पताल के इस बिस्तर पर अब कितने दिन पड़े रहना पड़ेगा. कितने समय तक दोस्तों से नहीं मिल पाऊंगी. स्कूल का कितना काम पिछड़ जाएगा. बाल दिवस भी आने वाला था. स्कूल की रेस में भी नाम लिखाया था, अब वह भी नहीं कर पाऊंगी. पांव ही तुड़वा बैठी थी. डौक्टर अब्बा से कहते थे कि शायद महीना भर लग जाएगा हड्डी जुड़ने में. कूल्हे की हड्डी है, प्लास्टर नहीं लग सकता, महीने भर बिस्तर पर सीधे लेटे रहना होगा. अस्पताल के इस बिस्तर पर जब मेरी आंख खुली थी तो अम्मा ने बताया था कि डौक्टर ने औपरेशन करके स्क्रू कसा है. करवट नहीं लेना है बस सीधे पड़े रहना है, तभी हड्डी जुड़ेगी. अब कब तक सीधे लेटूं. सीधे लेटे-लेटे पीठ जलने लगी. करवट लेने का मन किया तो अम्मा ने डांट पिलाती कि अब ज्यादा कुनमुना मत, करवट नहीं दिला सकती. डौक्टर ने मना की है. फिर उनकी हाय-हाय शुरू हो गयी कि और चढ़ी रह छत पर. नाक में दम कर रखा है. घर के भीतर तो तुझसे बैठा नहीं जाता. पढ़ना-लिखना खाक नहीं बस दिन भर आवारा लड़कों के साथ घूमना और शाम भर पतंग उड़ाना.... लड़कियों वाला कोई शऊर नहीं.... लंगड़ी हो गयी तो कोई ब्याहने भी नहीं आएगा... अम्मा बड़बड़ाती रहीं.

मैं चुपचाप आंख बंद करके उनका बड़बड़ाना सुनती रही और उस वक्त को कोसती रही जब पतंग उड़ाने के चक्कर में छत की मुंडेर से नीचे आ गिरी थी. अम्मा कितनी देर से चिल्ला रही थीं कि नीचे आ जा, नीचे आ जा, अंधेरा हो रहा है.... और मैं थी कि पतंग और ऊंचे और ऊंचे बढ़ाए जा रही थी. आज हवा भी कितने सलीके से चल रही थी, फिर पीछे वाले घर के शम्भू की पतंग भी तो तनी हुई थी, जब तक उसको काट कर नीचे न गिरा दूं, तब तक अपनी कैसे उतारूं. बगल वाली छत से रकबर भी अपनी चांद-तारा ताने हुए था. वह इस चक्कर में था कि मैं शम्भू की पतंग काटूं तो वह चिमटा ले. शम्भू की पतंग पर उसका दिल ललचाया हुआ था और मैं रकबर को मायूस नहीं करना चाहती थी. आखिर वो मेरा खास दोस्त जो था. हम दोनों सातवीं क्लास में साथ-साथ थे. अम्मा बात तो समझती नहीं, बस चिल्लाती ही रहती हैं. मेरी एक नजर पतंग पर टंगी थी और दूसरी नीचे आंगन में, कि अब्बा दफ्तर से न आ जाएं. इतने में नीचे आंगन का दरवाजा खुलने की आवाज आयी. इधर शम्भू की पतंग मेरी पतंग में उलझी ही थी कि अब्बा साइकिल लिए अंदर घुसे. उनकी नजर सीधे छत की ओर उठी, जहां मैं बिल्कुल मुंडेर पर पैर जमाए पतंग खींचने में जुटी थी. इधर अब्बा दहाड़े उधर शम्भू की पतंग कटी. हर्ष और डर का ऐसा करेंट शरीर में दौड़ा कि मैं मुंडेर से सीधे नीचे आंगन के पक्के फर्श पर धड़ाम से आ गिरी. फिर मुझे नहीं पता कि क्या हुआ. सीधे अस्पताल में ही आंख खुली.

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