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यह दुनिया उसी की जमाना उसी का

रशीद धोबी की अचानक मृत्यु हो गई. संयोगवश या सदमे से या फिर इस खुशी से कि अब उसे बो झ नहीं ढोना पड़ेगा, उस का गधा भी उसी दिन दुनिया से विदा हो गया.

बेचारे रशीद के खाते में कोई गलत काम तो था ही नहीं. सो, वह सीधा स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंचा. लेकिन समस्या यह हुई कि पीछेपीछे उस का वफादार गधा भी आ गया और जिद करने लगा कि वह भी अपने मालिक यानी उन के संग स्वर्ग जाएगा. मगर दूतों ने उसे एंट्री देने से साफ इनकार कर दिया क्योंकि गधों के लिए स्वर्ग में रहने का कोई प्रावधान नहीं था.

रशीद ने गधे को सम झाया, ‘‘भाई, तू मेरा टाइम बरबाद मत कर और लौट जा. स्वर्ग में भला गधा कैसे रह सकता है?’’

परंतु गधा अड़ गया, ‘‘वाहवाह, जीवनभर आप की सेवा की, बो झ ढोता रहा, डंडे खाए, डांट सुनी और मरा भी तो आप के साथ. अब आप अकेले ही स्वर्ग में मजे लूटना चाहते हैं. सच है कि मनुष्य जैसा स्वार्थी जीव कोईर् दूसरा नहीं. लेकिन मैं तो आप के साथ ही रहूंगा.’’

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रशीद ने कहा, ‘‘देखो भई, यदि तुम कुत्ते होते, तो स्वर्ग जा भी सकते थे. दूसरा कोई जानवर इतना हाईफ्लाइंग नहीं हो सकता.’’

‘‘मैं कुछ सम झा नहीं?’’ गधे ने सिर हिलाते हुए कहा.

रशीद  झुं झला गया, ‘‘बात तो बिलकुल साफ है. तुम जैसे कितने ही जानवर हैं जो मनुष्य की सेवा करने के लिए जीवनभर कड़ी से कड़ी मेहनत करते हैं, जैसे बैल, भैंस, घोड़े, बकरी, भेड़. ऊंट आदि. क्या तुम ने इन सब की सुरक्षा, इलाज, फैशन, मेकअप, ब्यूटी शो या कुछ नहीं तो गुडलिविंग कंडीशन के लिए कभी किसी संस्था, किसी एनजीओ, किसी आश्रम या फेसबुक का नाम सुना है जो इन पशुओं को एडौप्ट करने यानी गोद लेने या सुरक्षा देने के लिए बनाई गई हो?

‘‘फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने अपने कुत्ते के लिए एक फेसबुक अकाउंट ‘बीस्ट’ के नाम से खोल रखा है. कुछ समय पहले नफीसा अली ने अपने कुत्ते ‘माचो’ की सेवा करने के लिए ग्लैमर की दुनिया से कुछ दिनों की छुट्टी ले ली थी. यही नहीं, उन्होंने अपने एक दूसरे पेट डौग की याद में इंग्लिश भाषा में एक पुस्तक भी लिख डाली जिस का नाम है, ‘हाऊ चीका बिकेम अ स्टार ऐंड अदर डौग स्टोरीज.’

‘‘गुल पनाग ऐसी दरियादिल हैं कि अपने कुत्ते माईलो को हवाई जहाज का सफर करवाती हैं और ऐसे होटलों में चेकइन करती हैं जहां कुत्तों के ठहरने की भी व्यवस्था हो. जैसा कि मुंबई के फोर सीजन होटल में.’’

‘‘लेकिन बहुत सारे कुत्ते गरीबी की हालत में इधरउधर मारे फिरते हैं. उन्हें तो कोई नहीं पूछता?’’ गधे ने एतराज किया.

रसीद हंस पड़ा, ‘‘इतनी सी बात नहीं सम झे? आखिरकार हो तो तुम गधे ही. सुनो भाई, फाइवस्टार लाइफ कौन गुजारता है? अमीर और चमकीले लोग. तो, कुत्ते भी वही मौज करते हैं जो उच्च कोटि यानी उच्च वंश के हों. जैसे, अमिताभ बच्चन ने एक शैनौक पाल रखा है. शाहरुख खान ने अपने लिए 2 कुत्ते विदेश से इंपोर्ट करवाए थे, तो प्रियंका चोपड़ा एक कोकर स्पैनियल ब्रांड के इश्क में डूबी हुई थीं.’’

गधे ने रशीद का मजाक उड़ाते हुए कहा, ‘‘आप का सामान्य ज्ञान काफी वीक है. आप को यह पता नहीं कि अब देशी गरीब कुत्तों का समय भी आ गया है. सुना है हौलीवुड की स्टार पामेला एंडरसन ने कुछ दिनों पहले मुंबई के एक अनाथ कुत्ते यानी सड़क पर फिरने वाले आवारा कुत्ते को एडौप्ट किया यानी गोद लिया है.’’

‘‘यह तो एक अपवाद है. प्रश्न यह है कि क्या आज तक किसी ने दूसरे किसी पशु को गोद लिया है? गाय व भैंस जिन के दूध के बिना मनुष्य का जीवन अधूरा है, उन की लिविंग कंडीशन क्या है? वे  कितनी गंदी, गीली, कूड़ेकरकट तथा कीड़ेमकोड़े से भरी हुई जगहों में बांधी जाती हैं. चारे के नाम पर उन्हें जूठन व सूखी घास खाने को मिलती है,’’ गधे के मालिक रशीद ने कहा.

अब गधे ने धीरे से व्यंग्य किया, ‘‘लेकिन, गाय माता का तो बहुत आदरसत्कार करते हैं.’’

रशीद भड़क उठा, ‘‘ऐसे पाखंड से उसे क्या लाभ पहुंचता है? क्या कभी किसी ने गाय को अपना पेट बनाया है? क्या कोई उस के गले में किसी फैशन डिजाइनर का बनाया हुआ बहुमूल्य चमकता हुआ पट्टा डाल कर शान से सैर करने निकला है? पनीर, दही, मक्खन, आइसक्रीम व दूध से बने अन्य हजारों व्यंजन बेच कर मिलियन और बिलियन कमाने वाले किस इंडस्ट्रियलिस्ट ने अपनी गायभैंसों के लिए फेसबुक अकाउंट खोला है?

‘‘उन के रहने की जगह को क्या एयरकंडीशंड बनाया है? उन के गले में बांहें डाल कर क्या अपनी तसवीर छपवाई या पोस्ट की है? प्रतिदिन 100 एवं 200 टन लोहे की छड़ें, पत्थर, सीमेंट और ईंटों आदि से भरी गाड़ी खींचने वाले और उस पर भी गाड़ीवान के हंटर खाने वाले मासूम बेजबान बैल और भैंसे के बारे में किसी ने कोई पुस्तक लिखी है? क्या कोई एनजीओ गठित हुआ?’’

‘‘आखिरकार, ऐसा अन्याय क्यों है?’’ गधा बेचारा बड़ा हैरान था.

‘‘इसलिए कि मनुष्य को पक्षपात की आदत पड़ चुकी है. सो, हमारी हाईटैक मौडर्न सोसाइटी केवल ऊंची नस्ल के विदेशी कुत्तों को ही महत्त्व देती है. साईं आश्रम डौग एडौप्शन हो या फैंडीकोज, इन साइटों के सारे पेज इसी तरह के कुत्तों की तसवीरों से भरे पड़े हैं. सो, अब तुम भी मेरा रास्ता छोड़ दो, और जा कर विधाता से शिकायत करो,’’ रशीद ने अपनी बात रखी.

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रशीद के तर्कों को सुन कर बेचारा गधा लाजवाब हो कर वापस जाने लगा. इतनी देर में स्वर्ग में एंट्री का समय समाप्त होने लगा और द्वार बंद किए जाने लगे.

रशीद के पैरोंतले मानो आकाश सरकने लगा. गधा भी पछता रहा था. गधे को सहसा एक आइडिया, फ्लैशलाइट की भांति कौंधा. जल्दी से उस ने कुत्ते की आवाज बना कर भौं…भौं…भौं… जोर व शोर से भूंकना शुरू कर दिया. रशीद को भी इशारा मिल गया था. उस ने तुरंत गधे  के गले में बांहें डाल दीं और बड़े गर्व से दूतों से बोला, ‘‘जी, यह मेरा पेट अलसेशियन गुड्डू है. यह एक फैंसी ड्रैस शो, मेरा मतलब है डौग फैंसी ड्रैस शो, में भाग लेने गया था. सहसा इसे मेरी मृत्यु की खबर मिली तो मेकअप और कौस्ट्यूम चेंज किए बिना ही मेरे पीछेपीछे भागता हुआ आ गया. प्रेम और वफा तो इसे कहते हैं. आई लव माई गुड्डू.’’

रशीद ने भावविभोर होने की अच्छी अदाकारी की. दूत प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके. ‘‘औफकोर्स, लव और वफादारी का यह अतुल्य नमूना है.’’ एक दूत ने प्रशंसाभरी निगाहों से उसे निहारते हुए कहा.

दूसरे दूत गधे की ओर देखते हुए नम्रता से बोले, ‘‘वाट अ वंडरफुल डौग. यू कैन टेक योर मास्टर विद यू. रशीद भी तुम्हारे साथ स्वर्ग जा सकता है. वी हैव नो औब्जैकशन.’’

‘‘हिपहिपहुरररे’’ रशीद और उस का गधा शीघ्रता से दौड़ कर स्वर्ग के भीतर प्रवेश कर गए.

उन दोनों में आज भी यह विवाद जारी है कि कौन किस की चतुराई के कारण स्वर्ग के मजे लूट रहा है.

पाठक महोदय, आप किस का झ्र साथ देंगे…

एक थप्पड़ के बदले 2 हत्याएं : भाग 2

ऐसा लगता था कि वारदात को अंजाम देने वाले बदमाशों को पहले से ही घर की पूरी स्थिति का पता था कि सुबहसुबह घर पर कौनकौन रहता है. मृतका रानी की बेटी रिया 10वीं कक्षा की तथा ईशू 8वीं कक्षा के छात्र थे. गुरुवार को दोनों सुबहसुबह स्कूल चले गए थे. वहीं डा. दीपक गुप्ता का बड़ा बेटा 6 वर्षीय दर्श गुप्ता जो पहली कक्षा में पढ़ता था, वह भी स्कूल गया हुआ था.

सुबह 9 बजे डा. दीपक गुप्ता रामनगर स्थित स्वास्थ्य केंद्र पर थे, जबकि रानी गुप्ता के पति अमित गुप्ता दोनों बच्चों का लंच बौक्स देने के लिए साढ़े 9 बजे उन के स्कूल चले गए थे. वहां से वह अपनी पैथोलौजी लैब पर चले गए.

डा. दीपक गुप्ता की पत्नी दीप्ति अपनी ड्यूटी पर फतेहाबाद स्थित स्वास्थ्य केंद्र पर चली गई थीं. घटना के समय घर पर रानी, उस की सास शिवदेवी और डा. दीपक गुप्ता का 2 वर्षीय छोटा बेटा दिवित ही थे.

पूछताछ के दौरान घर वालों ने पुलिस को बताया कि घर के बाहर वाले कमरे में ब्यूटीपार्लर खोलने के लिए फरनीचर बनवाया था. फरनीचर दीपा नाम के कारपेंटर ने बनाया था. वह पिछले 2 महीने से फरनीचर बनाने का काम कर रहा था. वह घर के सभी सदस्यों से परिचित था. इस पर पुलिस का शक कारपेंटर पर गया.

पुलिस ने जांच की काररवाई में घटनास्थल के आसपास के 3 घरों में लगे सीसीटीवी कैमरे खंगाले. 2 फुटेज में संदिग्ध व्यक्ति रिकौर्ड हुआ था.

एक फुटेज में एक व्यक्ति सुबह 10 बज कर 37 मिनट पर डा. गुप्ता के घर के मुख्य गेट से अंदर जाता दिखा दे रहा था. वही व्यक्ति 10.55 बजे मकान के बाहरी कमरे, जिस में ब्यूटीपार्लर बनना था, के गेट से बाहर निकलता दिखाई दिया. बाहरी गेट की कुंडी पर खून भी लगा मिला था.

इस से साफ जाहिर हो रहा था कि 18 मिनट में 2 हत्या करने के बाद हत्यारा इसी गेट से बाहर निकला था. संदिग्ध व्यक्ति कारपेंटर दिलीप उर्फ दीपा हो सकता था, जो नया रसूलपुर, टंकी के पास गली नंबर-5 में रहता था.

जांच के दौरान पुलिस को पता चला कि मृतका रानी ने घर के बहारी कमरे में ‘टिपटौप ब्यूटीपार्लर’ खोला था. ब्यूटीपार्लर खोलने के लिए रानी ने पहले घर वालों को मनाया फिर ब्यूटीशियन का कोर्स किया. इस का उद्घाटन एक दिन पहले 6 अगस्त को हुआ था.

इस ब्यूटीपार्लर के लिए फरनीचर बनाने का काम कारपेंटर दिलीप उर्फ दीपा ने ही किया था. रानी का सपना धरातल पर तो आ गया, लेकिन एक दिन बाद ही वह क्रूर हत्यारों का शिकार हो गई.

मासूम दिवित को अपनी जेठानी के पास छोड़ कर दीप्ति अपनी ड्यूटी पर चली जाती थी. पूरा दिन वह अपनी दादी और ताई को हंसाता रहता था. लेकिन घटना के बाद से 2 साल का मासूम दिवित बेहद उदास था. कभी एकटक देखता तो कभी चीखचीख कर रोने लगता. उस की आंखों में अपनी दादी और ताई के कत्ल का खौफनाक मंजर कैद हो गया था.

शक के दायरे में कारपेंटर दिलीप के आने पर दोपहर 2 बजे पुलिस उस के घर पहुंची. पुलिस ने उस की पत्नी रोली से उस के पति के बारे में पूछताछ की. रोली ने पति से मोबाइल पर बात की तो उस ने बताया कि इस समय वह काम करने आसफाबाद की तरफ आया है. इस के बाद दिलीप का मोबाइल फोन स्विच्ड औफ हो गया. पुलिस दिलीप के इंतजार में पूरी रात उस के घर के बाहर डेरा डाले रही.

8 अगस्त की शाम को पोस्टमार्टम के बाद दोनों शव परिजनों को सौंप दिए गए. शवों का अंतिम संस्कार देर रात उसी दिन कर दिया गया.

9 अगस्त की सुबह लगभग साढ़े 4 बजे मोटरसाइकिल से भाग रहे दिलीप की पुलिस ने घेराबंदी कर ली. फतेहाबाद रोड स्थित बरी चौराहे के पास घिरने पर दिलीप ने पुलिस पर फायरिंग की. पुलिस द्वारा जवाबी फायरिंग में दिलीप के पैर में गोली लगी और वह गिर गया.

पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया. मुठभेड़ में थाना रसूलपुर में तैनात सिपाही कन्हैयालाल भी फायरिंग से बचने के दौरान फिसल कर घायल हो गया था. पकड़े गए दिलीप की पुलिस ने तलाशी ली तो उस के पास से तमंचा, लूटे गए हार, अंगूठियां व अन्य आभूषण बरामद हुए. पूछताछ करने पर सासबहू की हत्या की जो कहानी सामने आई, वह इस प्रकार निकली—

25 वर्षीय दिलीप उर्फ दीपा ने बताया कि ब्यूटीपार्लर का फरनीचर बनाते समय एक दिन बड़ी बहू रानी गुप्ता ने किसी बात को ले कर मजदूरों के सामने उसे बेइज्जत किया और थप्पड़ मार दिया था. उस समय वह अपमानित हो कर तिलमिला उठा था.

दिलीप अपनी बेइज्जती पर खून का घूंट पी कर रह गया. उस ने तय कर लिया था कि वह इस अपमान का बदला जरूर लेगा. उसी दिन से वह बदले की आग में जल रहा था.

घटना वाले दिन वह हथौड़ा छूटने के बहाने घर में घुसा. उस के सिर पर खून सवार था. दिलीप ने घर में घुसते ही सामने दिखी रानी से कहा, ‘‘मैडमजी, यहां मेरी हथौड़ी रह गई थी. मैं उसे लेने आया हूं.’’

इस पर रानी ने कहा, ‘‘देख लो कहां रह गई थी तुम्हारी हथौड़ी.’’

इस के बाद वह रानी के पीछेपीछे कमरे में पहुंचा और साथ लाए चाकू से रानी का गला रेत दिया. उस की चीख सुन कर सास शिवदेवी, जो ऊपरी मंजिल से नीचे आ रही थी, ने यह दृश्य देखा. उन्होंने बहू को बचाने के लिए शोर मचाने की कोशिश की. इस पर दिलीप ने उन का भी गला रेत कर हत्या कर दी.

2 साल के दिवित पर उसे प्यार आ गया. वह मासूम था, बोल भी नहीं पाता था, इसलिए उसे जिंदा छोड़ दिया. इस के बाद उस ने अलमारियों में रखी नकदी व आभूषण बटोरे और ब्यूटीपार्लर वाले कमरे के गेट से बाहर निकल गया.

हत्या के दौरान सासबहू द्वारा अपने बचाव के लिए किए गए संघर्ष के दौरान दिलीप के हाथ की एक अंगुली भी कट गई थी. घटना के बाद उस ने अपनी दुकान के पास एक क्लीनिक पर जा कर अंगुली पर पट्टी भी बंधवाई.

इस जघन्य हत्याकांड को अंजाम देने वाले दिलीप उर्फ दीपा की कहानी किसी साइको किलर जैसी थी. किराए के मकान में  पत्नी रोली और 2 बच्चों के साथ रहने वाला दिलीप गुरुवार को सुबह घर से अपनी दुकान पर गया था. अचानक उस के मन में बदले की भावना पैदा हुई और मात्र 18 मिनट में उस ने इस जघन्य वारदात को अंजाम दे दिया.

दोहरे हत्याकांड को अंजाम देने के बाद दीपा कुछ देर बाद घटनास्थल पर पहुंचा और घर के बाहर शर्ट उतार कर गुस्साई भीड़ में तमाशबीन भी बना रहा. इस बीच वह दूर से पुलिस की जांच देख रहा था. इस दौरान कई लोगों ने मोबाइल से घटनास्थल के फोटो खींचे और वीडियो बनाए. सोशल मीडिया पर जब उस की तसवीर वायरल हुई, तब लोगों को उस के बारे में जानकारी हुई. दोपहर 12 बजे वह अपने दोनों बच्चों को स्कूल से घर छोड़ कर फरार हो गया.

पुलिस ने घायल हत्यारोपी दिलीप तथा सिपाही कन्हैयालाल को उपचार के लिए फिरोजाबाद के मैडिकल कालेज में भरती कराया. दोपहर तक उपचार चला. इस के बाद दिलीप को कोर्ट में पेश किया गया. दीपा के खिलाफ हत्या और लूट के अलावा पुलिस मुठभेड़ का मुकदमा भी दर्ज किया था. अदालत से उसे जेल भेज दिया गया.

बदले की आग में दिलीप उर्फ दीपा अपना आपा खो बैठा और बेइज्जती का बदला लेने के चक्कर में उस ने 2 बेकसूरों की जान ले ली. अगर रानी ने किसी बात से नाराज हो कर उसे थप्पड़ मार भी दिया था तो उम्र में वह उस से बड़ी थीं. लेकिन उस ने इस बात को दिल पर ले लिया था.

घटना को अंजाम देने से पहले उस ने अपनी बच्चों व पत्नी के भविष्य के बारे में भी नहीं सोचा कि उस के पकड़े जाने और जेल जाने के बाद उस के परिवार का क्या होगा.

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

घर पर ही करें पार्लर जैसा मेकअप

जब भी आपको किसी शादी, पार्टी या किसी खास जगह जाना होता है तो आप सजने संवरने और खूबसूरत दिखने के लिए पार्लर में काफी पैसे खर्च करती हैं. लेकिन अब ऐसा करने की जरूरत नही है क्योंकि हम आपको मेकअप के कुछ खास टिप्स बता रहे हैं, जिन्हें फौलो कर के आप घर पर ही पार्लर जैसा मेकअप कर सकेंगी.

ऐसे करें मेकअप

-चेहरे को फ्रेश और नेचुरल लुक देने के लिए सबसे पहले कंसीलर का इस्‍तेमाल करें. फाउंडेशन से पहले चेहरे पर कंसीलर लगाने से मेकअप लंबे समय तक चलता है और चेहरे पर फाउंडेशन अच्छी तरह से लगता है.

– कंसीलर लगाने के बाद अपनी स्किन के कलर का फाउंडेशन अप्लाई करें. फाउंडेशन लगाने के लिए ब्रश का इस्तेमाल करें.

– इसके बाद चेहरे पर पाउडर लगाएं. इससे आपका फाउंडेशन अच्छी तरह सेट हो जाएगा.

– आपकी आंखें आपके चेहरे की पहचान होती है, इसलिए इनका मेकअप करते समय खास ख्‍याल रखें. सबसे पहले लाइट कलर के फाउंडेशन से बेस तैयार कर लें. इसके बाद हल्‍के ग्रे कलर की आईलाइनर पेंसिल से ऊपर से नीचे की ओर लाइनर लगाएं. बाद में इसे उंगलियों की सहायता से स्‍मज कर दें. इससे स्‍मोकी लुक आ जाता है. इसके बाद मसकारा लगाएं.

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– अपने लिप्‍स को सुंदर और बोल्‍ड दिखाने के लिए सबसे पहले लिप्‍स पर कंसीलर लगाएं. उसके बाद जिस कलर की लिपस्टिक आप लगाने जा रही हैं, उसी कलर के लिपलाइनर से होठों की आउटलाइनिंग करें. ऐसा करने से आपके लिप्‍स बहुत आकर्षक लगेंगे और आपकी लिपस्टिक लंबे समय तक टिकी रहेगी.

– अगर चेहरे की खूबसूरती को निखारना चाहती हैं, तो लिप्‍स पर डार्क कलर की लिपस्टिक लगाएं और चेहरे का मेकअप हल्‍का रखें.

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लखनऊ में दंगा प्रदर्शन कैसे बन गया फंसाद

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार बारबार इस बात का दावा करती थी कि उनके कार्यकाल में प्रदेश में एक भी दंगा नहीं हुआ. नागरिकता संशोधन कानून यानि सीएए का विरोध करते प्रदर्शनकारी अचानक फसाद पर उतर आये. फसाद भी ऐसा कि वह दंगा बन गया. जिस प्रदर्शन का उददेश्य नागरिकता संशोधन कानून का विरोध था वह साम्प्रदायिक दंगे की तरह उभरा और ‘लखनवी संस्कृति’ का कत्ल कर बैठी. जब दंगे का गुबार छंटा तो लोग यह समझ ही नहीं पा रहे थे कि यह उनके लखनऊ के लोग थे. लखनऊ ‘पहले आप’ की संस्कृति वाला शहर माना जाता है. नागरिकता संशोधन कानून विरोधी फसाद के बाद कैसे कह सकेगे ‘मुस्कराये कि आप लखनऊ में है‘. राजनीति को ऐसे दंगों से मजबूती मिलती है. पक्ष और विपक्ष को दोनों को लाभ मिल सकता है पर लखनवी तहजीब का जो नुकसान हुआ है उसकी जगह नहीं भरेगी.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा ‘बलवा भडकाने में विपक्षी दलो का हाथ है. बलवा करने वालो की पहचान करके उनकी संपत्ति जब्त करके नुकसान की भरपाई की जायेगी.’ विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव कहते है भाजपा को दोष देते कहते है ‘भाजपा की सरकार को इस विरोध प्रदर्शन को समझना चाहिये था. सरकार अपनी ही जनता को जब धमकी देने लगती है तो सरकार की मंशा समझ में आ जाती है. कांग्रेस नेता प्रियका गांधी कहती है कि भाजपा सरकार अपने खिलाफ कोई भी आवाज सुनना पंसद नहीं करती. जनता की आवाज को दबाने का जितना भी प्रयास होगा वह उतना ही मुखर होगी.’

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लखनऊ में दंगा भडकने के बाद बाजार बंद हो गये. सरकार ने इंटरनेट बंद कर दिया. गुरूवार के दंगे के बाद शुक्रवार को लखनऊ में कोई हिंसक घटना नही हुई पर उत्तर प्रदेश के दूसरे शहरों कानपुर, फिरोजाबाद, मुजफ्फरनगर, बहराइच, शामली, हापुड, अमरोहा और गोरखपुर में तोड़फोड़ और आगजनी की घटनायें हुई. इंटरनेट, स्कूल और बाजार बंद होने से लखनऊ में सन्नाटा पसरा रहा. लखनऊ कं दंगे में एक आदमी की मौत के साथ गाडिया, पुलिस स्टेशन जलाये गये. कई जगहों पर तोडफोड से लखनऊ के लोग संमझ नही पा रहे कि अमन के शहर को कैसे आग लग गई ?

लखनऊ के लोगों में पहले जैसी समझदारी, भरोसा और सामाजिक समरसता नहीं रह गई है. उपर से भले ही यह लोग होली, दीवाली, ईद, बकरीद गले मिलते हो पर मन के अंदर एक कटुता घर कर चुकी है. नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के दौरान यह कटुता सामने आई. जो थोडी बहुत पर्दादारी बची थी वह सोशल मीडिया पर खुलकर सामने आ गई. इंटरनेट बंद होने से पहले ही यह भडास भी खुलकर सामने आ गई. सरकार ने इसी को देखते हुये इंटरनेट बंद करने का फैसला लिया. नागरिकता संशोधन कानून पर सरकार को जनता के साथ संवाद करना चाहिये. जिससे जनता में फैली बेचैनी को कम किया जा सके. नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में लखनऊ को आग लगी घर के चिराग से.

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दबंग 3 : पढ़ें फिल्म में क्या है खास

रेटिंग: दो स्टार

निर्माता : अरबाज खान, सलमान खान और निखिल द्विवेदी

निर्देशक : प्रभु देवा

लेखक : सलमान खान, प्रभु देवा, दिलीप शुक्ला, आलोक उपाध्याय

कलाकार : सलमान खानकिच्चा सुदीप, सोनाक्षी सिन्हा, साई मांजरेकरअरबाज खान.

अवधि : दो घंटे उन्तालिस मिनट

अमूमन लोग सफल फिल्म की फ्रेंचाइजी के सिक्वअल बनाकर दर्शकों को अपनी तरफ खींचने का काम करते हैं. दर्शक सोचता है कि यह पिछली फिल्म का सिक्वअल है, तो इस बार ज्यादा अच्छी बनी होगी, मगर अफसोस ‘दबंग’ फ्रेंचाइजी के साथ ऐसा नहीं कहा जा सकता.हर सिक्वअल के साथ इसका स्तर गिरता ही जा रहा है. 2010 की सफल फिल्म ‘दबंग’का निर्दैशन अभिनव कष्यप ने किया था.और इस फिल्म ने सफलता के कई रिकार्ड बना डाले थे.उसके बाद इस फिल्म से अभिनव कश्यप को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था.इसका सिक्वअल ‘‘दबंग 2’’ 2012 में आयी थी,जिसे खुद अरबाज खान ने निर्देषित किया था,मगर पहले के मुकाबले यह कमजोर थी.पर सलमान खान के प्रशंसकों ने इसे सफल बना दिया था. अब पूरे सात वर्ष बाद इस फ्रेंचाइजी की अगली फिल्म ‘‘दबंग 3’’आयी है,जिसका निर्देषन सलमान खान के खास प्रभु देवा ने किया है,जो कि ‘दबंग 2’ से भी निचले स्तर की है. वैसे यह ‘दबंग’ सीरीज की प्रिक्वअल फिल्म है.

कहानीः

‘‘दबंग’’ फ्रेंचाइजी की यह तीसरी फिल्म ‘प्रिक्वअल’ है, इसीलिए  कहानी अतीत में चलती है. फिल्म के शुरू होने पर एक षादी समारोह में पहुंचकर चुलबुल पांडे,माफिया डौन बाली सिंह के लिए काम करने वाले स्थानीय गुंडे द्वारा लूटे गए सोने के जेवर वापस दिलाते हैं. इसी केस के चलते चुलबुल पांडे की मुलाकात बाली सिंह से होती है और उन्हे अपने पुराने घाव याद आते हैं. फिर कहानी अतीत में चली जाती है.

चुलबुल पांडे को याद आता है कि वह धाकड़ पांडे से पुलिस इंस्पेक्टर चुलबुल पांडे कैसे बने थे.फिर खुशी(साईं मांजरेकर)का चुलबुल पांडे(सलमान खान)के संग रोमांस की कहानी षुरू होती है.दरअसल चुलबुल की मां नैनी देवी (डिंपल कपाड़िया) ने खुशी को चुलबुल के भाई मक्खी (अरबाज खान) के लिए पसंद किया था, मगर मक्खी को शादी करने में कोई रुचि नहीं थी.उधर चुलबुल और दहेज परंपरा के खिलाफ जाकर अपनी मंगेतर खुशी को डौक्टर बनाने के लिए कटिबद्ध है, मगर तभी उनके प्यार पर ग्रहण लग जाता है. बाली की नजर खुशी पर पड़ती है और वह खुशी को पाने के लिए उतावला होकर कुछ भी करने पर आमादा है. खुशी के लिए ही धाकड़ बदलते हैं, दुनिया के लिए कुछ अच्छा करने से लेकर एक निश्चित तरीके से अपने धूप का चश्मा लगाने तक,खुशी में सब कुछ शामिल हो जाता है और चुलबुल पांडे बन जाते हैं. मगर बाली सिंह (किच्चा सुदीप )का दिल खुशी पर आ जाता है, इसलिए बाली गुस्से व ईष्र्या के चलते खुशी के साथ उसके परिवार का खात्मा कर देता है. फिर पूरी फिल्म की कहानी चुलबुल पांडे और बाली सिंह के बीच बदला लेने की कहानी बन जाती है.

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लेखनः

 फिल्म की पटकथा स्वयं अभिनेता सलमान खान ने दूसरे लेखकों के साथ मिलकर लिखा है,इसलिए सलमान खान के प्रशंसक तो ताली बजाएंगे,मगर फिल्म की पटकथा खामियां का पिटारा है.फिल्म में चुलबुल पांडे अपनी पत्नी रज्जो को खुशी के साथ अपनी प्रेम कहानी सुनाते हैं, जबकि रज्जो पांडे और खुशी एक दूसरे से परिचित थीं. यह बहुत अजीब सा है.कुछ अपमान जनक संवाद व दृश्य भी हैं.फूहड़ हास्य दृश्य भी हैं.‘दबंग 3’में कुछ भी नया नही है. इंटरवल से पहले फिल्म काफी धीमी है. फिल्म का सबसे बड़ा नकारात्मक पक्ष इसकी लंबाई है. क्लामेक्स जरुर रोचक बन गया है.

नाच गानाः

फिल्म के निर्देशक प्रभू देवा मूलतः नृत्य निर्देषक हैं,इसलिए फिल्म में बेवजह छह गाने ठूंसे गए हैं, जो कि फिल्म में लगभग 30 मिनट ले जाते हैं.

निर्देशनः

प्रभू देवा पूरी तरह से विफल रहे हैं. उनका सारा ध्यान सलमान खान को हीरो के रूप में चित्रित करने में ही रहा. उन्होंने फिल्म में वह सब दिखाया है,जो कि सलमान खान के प्रशंसक देखना चाहते हैं. इस चक्कर में वह खुद को दोहराने में भी पीछे नही रहे. फिल्म के तमाम मसालों में प्रभु ने दहेज, नोटबंदी, पानी के सरंक्षण जैसे मुद्दों को भी पिरोया है. सलमान खान ने जब जबभी सामाजिक संदेश जबरदस्ती फिल्म के अंदर पिरोया है तब तब फिल्म बरबाद कर दी.

अभिनयः

सलमान खान को  अभिव्यक्ति की कला में महारत हासिल है.वह अपने चेहरे पर शरारत और प्यार को उतनी ही आसानी से दर्ज कराते हैं,जितना कि यह खून की लालसा और गुस्सा को करते है.
रज्जो पांडे किरदार में सोनाक्षी सिन्हा महज सेक्सी नजर आयी हैं, अन्यथा वह अपने अभिनय से इस फिल्म को डुबाने में कोई कसर बाकी नहीं रखती.
खुशी के किरदार में सांई मांजरेकर जरुर कुछ उम्मीदें जगाती हैं. सुंदर दिखने के साथ कुछ भावनात्मक दृश्यों में सांई मांजरेकर ने अपनी अभिनय प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया है.पर उनके किरदार के साथ भी न्याय नही हुआ.

फिल्म के खलनायक बाली सिंह के किरदार में दक्षिण भारतीय अभिनेता किच्चा सुदीप ने जबरदस्त परफार्मेंस दी है. पर फिल्म सलमान खान की है, सलमान खान ने ही पटकथा व संवाद भी लिखे हैं,ऐसे में सुदीप के बाली सिंह के किरदार को ठीक से रेखांकित नह किया गया. वैसे सुदीप इससे पहले बहुभाषी एक्शन ड्रामा वाली फिल्म ‘‘पहलवान’’ में अपने अभिनय का जलवा दिखाकर हिंदी भाषी दर्शर्कों के बीच अपनी पैठ बना चुके हैं.

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एक्शन

फिल्म के सारे एक्शन अतार्किक और सलमान खान की स्टाइल के ही हैं. मारधाड़, विस्फोट, अति हिंसा सब कुछ है. एक्शन दृश्यों में सलमान खान की उम्र जरुर बाधा बनती है.

यदि आप सलमान खान के धुर प्रशंसक नहीं हैं, तो आपके लिए इस फिल्म को सहन करना मुश्किल है.

समाज सेवा, सुनहरा भविष्य !

आज इस आधुनिक दौर में समाज कल्याण के कामों को करते हुए एक अच्छा-खासा करियर बनाया जा सकता है. इस क्षेत्र से जुड़ कर आप समाज की सेवा करते हुए  पैसा कमाते हैं. कभी समाज सेवा का कार्य निस्वार्थ और बिना किसी लाभ के किया जाता था, लेकिन बदलते समय और सामाजिक जरूरतों ने आज इसे बकायदा एक प्रोफेशन बना दिया है.  यह क्षेत्र आज एक विशिष्ट प्रोफेशन का रूप ले लिया है. यही कारण है कि हर उम्र और सामाजिक वर्गो से संबंधित लोग इससे जुड़ रहे हैं . तो आइए सोशल वर्क में  जुडी सभी बातों से  आपको अवगत कराते  हैं –

अगर आपके अन्दर सामाजिक न्याय, समाज के उपेक्षित वर्ग को मुख्यधारा में शामिल करने, दलित, वंचित लोगों के जीवन स्तर में उत्थान के प्रयास करने तथा समाज के प्रत्येक वर्ग के लोगों को उनकी क्षमताओं के अनुसार विकसित होने के लिए मार्ग प्रशस्त करने की इच्छा है, तो यह क्षेत्र  आपके करियर के लिए उतम है. इस क्षेत्र से जुड़ कर कोई भी व्यक्ति सामाजिक कार्य करता है,  समाज निर्माण के साथ  अपने सुनहरे कल का निर्माण करते हुए आत्मसंतुष्टि  महसूस करता है .

समय के साथ सोशल वर्क का विस्तार तेजी से हो रहा है, इस क्षेत्र में भी अब अन्य क्षेत्रो के तरह  ट्रेंड लोगों की जरूरत पड़ने लगी है. इसी कारणवश अब तमाम तरह के ट्रेनिंग कोर्स और पाठ्यक्रम अस्तित्व में आ गए हैं. ये सभी कोर्स समाज से जुड़ी बुनियादी बातों पर बारीकी से प्रकाश डालते हुए, सामाजिक  कार्यो के लिए एक सही मापदंड के अनुसार उच्च योग्यता वाले व्यक्ति का निर्माण करता है. जो आगे चल कर सभी सामाजिक कार्यो को बखूबी अंजाम दे सके. आज तमाम विश्वविद्यालयों व संस्थानों में समाज कार्य को एक पाठ्यक्रम के रूप में पढ़ाया जा रहा है. इस पाठ्यक्रम को करने के बाद असहायों की सेवा और करियर का मेवा दोनों ही अभ्यर्थियों को एक साथ मिल जाते हैं. अगर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखा जाए , तो यह एक ऐसा पाठ्यक्रम है ,  जिसे करने के बाद आप भविष्य निर्माण के साथ-साथ आत्मसंतुष्टि भी पा सकते हैं.

कोर्स –  समाज कार्य के क्षेत्र में करियर बनाने के इच्छुक अभ्यर्थियों के लिए मुख्य रूप से दो प्रकार के कोर्स कर सकते हैं – बारहवी बाद आप  तीन वर्षीय बैचलर इन सोशल वर्क कर के इस क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं  और  बैचलर के बाद आप  मास्टर औफ सोशल वर्क कर इस क्षेत्र में प्रवेश कर पते है. इसके अलावा, कई संस्थान इस क्षेत्र में सर्टिफिकेट व डिप्लोमा कोर्स भी संचालित कर रहे हैं.  इन  कोर्सो में  सामाजिक कार्यों का परिचय, समाज का परिचय, मानव का विकास व उसके व्यक्तित्व का विकास, समाज का विकास व समाज कार्य और समाज कार्यों से संबंधित क्षेत्रों में समाज कार्य की भूमिका से प्रशिक्षुओं को अवगत कराया जाता है.  इतना ही नहीं , विद्यार्थियों  को  इस क्षेत्र  का  व्यावहारिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है.

विभिन्न कोर्स

सर्टिफिकेट  इन  सोशल वर्क
बैचलर  औफ  सोशल साइंस
मास्टर  औफ  सोशल वर्क
एमफिल (सोशल वर्क)
मास्टर औफ  लेबर वेलफेयर
पीएचडी (सोशल वर्क)

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व्यक्तिगत गुण – आप यदि इस प्रोफेशन को अपनाना चाहते हैं तो आपमें समर्पण की भावना,मानवीय व्यवहार, समाज और व्यवस्था की आधारभूत जानकारी, सहकर्मियों से अच्छा तालमेल, भावनात्मक स्तर पर परिपक्व, तर्कसंगत और संवेदनशील, अच्छे श्रोता और काउंसलिंग स्किल्स होनी चाहिए. सामाजिक मुद्दों के प्रति जागरूक हो, मानसिक रूप से सुदृढ़ होना चाहिए. अपनी क्षमताओं  के निरंतर विकास के लिए संबंधित कार्य क्षेत्र की अद्यतन जानकारियों से अवगत रहना भी जरूरी है.

शैक्षिक योग्यता –  इस क्षेत्र के विभिन्न कोर्सो के लिए शैक्षिक योग्यता अलग अलग है, सोशल वर्क से स्नातक  के लिए किसी भी विषय से 12 वी या इसके समकक्ष परीक्षा में 50 प्रतिशत अंक के साथ उतीर्ण होना आवश्यक होता है, वही पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री के लिए किसी विषय से 50 प्रतिशत अंक से ग्रेजुएट होना आवश्यक होता है. कई अन्य कोर्सो की शैक्षिक योग्यता कोर्स के आनुसार होता है  .

प्रवेश परीक्षा – आमतौर पर डिग्री और पोस्ट ग्रेजुएट डिग्री स्तर के कोर्सेज में सीमित सीटें होने के कारण चयन परीक्षा के आधार पर नामी संस्थानों में दाखिले दिए जाते हैं. इस चयन प्रक्रिया में लिखित परीक्षा के अतिरिक्त इंटरव्यू का भी प्रावधान होता है. लिखित परीक्षा में प्रत्याशियों की मेंटल एबिलिटी और जनरल अवेयरनेस की भी जांच की जाती है.

अवसर – इस क्षेत्र में रोजगार  के अनेको अवसरों  उपलब्ध  है . सरकारी क्षेत्र में केंद्र और राज्य सरकारों के समाज कल्याण विभागों, सामुदायिक विकास के कार्यों, जनकल्याण के कार्यक्रमों, ग्रामीण विकास संबंधी योजनाओं के क्रियान्वयन, स्वास्थ्य सेवाओं के प्रचार-प्रसार, शिक्षा संबंधी विशिष्ट कार्यों में  इस क्षेत्र के  युवाओ को अवसर मिलता  हैं.  वही  गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ), जिनमें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों प्रकार के संगठन शामिल हैं, इनमे भी रोजगार के कई अवसर  हमेशा उपलब्ध रहता है .  इस क्षेत्र  से जुड़ कर आप  सोशल सर्विस वर्कर , सोशल ग्रुप वर्कर ,  स्कूल काउंसलर , रिसर्च एनालिस्ट , सायकिएट्रिक सोशल वर्कर , इंडस्ट्रियल सोशल वर्कर , फैमिली काउंसलर , चाइल्ड वेलफेयर वर्कर , इंटरनेशनल सोशल वर्कर और   मेडिकल सोशल वर्कर के रूप में काम कर सकते है .  बेचलर्स डिग्री इन सोशल वर्क के बाद ही करियर की शुरुआत की जा सकती है. प्रारंभिक स्तर पर अनुबंध आधार पर रोजगार के अवसर मिलते हैं. एम एस डब्ल्यू या मास्टर्स डिग्री इन सोशल वर्क के आधार पर अंतरराष्ट्रीय स्तर के एनजीओ और सरकारी समाज कल्याण विभागों में रोजगार मिल सकते हैं. इतना ही नहीं, स्वतंत्र रूप से अपना अलग एनजीओ भी इस क्रम में पंजीकृत कर प्रारंभ किया जा सकता है.

रोजगार की संभावनाएं –  समाज सेवा से जुड़ा यह क्षेत्र रोजगार की अनेको संभावनाओ से भरी हुई है , इस क्षेत्र से जुड़े युवाओ को  सरकारी और गैर सरकारी, दोनों ही क्षेत्रों में  रोजगार  मिलने की अनेको संभावनाएं  हैं .  करियर विशेषज्ञों की माने तो इस क्षेत्र में रोजगार मिलना लगभग तय होता है. तमाम वेलफेयर एसोसिएशन , स्वयंसेवी संस्थाओं , स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने वाले संस्थान , र्वल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन और यूनिसेफ आदि में रोजगार की काफी संभावनाएं हैं . सरकारी क्षेत्र में केंद्र और राज्य सरकारों के समाज कल्याण विभागों, सामुदायिक विकास के कार्यों, जनकल्याण के कार्यक्रमों, ग्रामीण विकास संबंधी योजनाओं के क्रियान्वयन, स्वास्थ्य सेवाओं के प्रचार-प्रसार, शिक्षा संबंधी विशिष्ट कार्यों में इनकी सेवाएं ली जाती हैं.

स्वरोजगार – इस क्षेत्र में पढाई पूरा करने के बाद कोई भी व्यक्ति निजी प्रयास व सरकारी अनुदान से अपनी खुद की स्वयंसेवी संस्था बना सकता  है. इस तरह वह स्वरोजगार के साथ-साथ अन्य लोगों को रोजगार भी प्रदान कर सकता है. आज  कल  समाज  के हर काम को पूरा करने के लिए स्वयंसेवी संस्थाओं ( एनजीओ) की मदद ली जा रही है , मौजूदा समय में  स्वयंसेवी संस्थाओं ( एनजीओ) की  भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो गई है .  समाज कार्य का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं  है , जिसमें स्वयंसेवी संस्थाओं ( एनजीओ) ने अपना योगदान नहीं दिया हो. देश के तकरीबन आधा से अधिक सामाजिक कार्यो को धरातल तक स्वयंसेवी संस्थाए ही पूरा कर रही है.

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वेतन – अगर इस क्षेत्र में शुरुआती स्तर पर 8 से 12 हजार रुपएप्रतिमाह आसानी से मिल जाते हैं. थोड़े अनुभव के बाद आप 15 से 25 हजार रुपए प्रतिमाह कमा सकते हैं.  फिर जैसे -जैसे इस क्षेत्र में कार्यरत लोगो का अनुभव बढ़ता है, वैसे-वैसे उनका वेतन भी बढ़ता है,  कुछ समय बाद  उन्हें एक  सम्मानजनक वेतन मिलने लगता है1फ्रेशर के रूप में 10 से 20 हजार रुपये तक प्रति माह सैलरी मिल सकती है. अनुभव होने के बाद सैलरी 20 हजार से एक लाख रुपये तक पहुंच सकती है.

‘‘कोई कहे उस की शादीशुदा जिंदगी अच्छी चल रही है तो वह  झूठ बोल रहा है’’ : मंदिरा बेदी

बौलीवुड अभिनेत्री मंदिरा बेदी अभिनय के अपने शुरुआती दौर में छोटे परदे से ही शोहरत पा गई थीं. आज वे एक सफल बिजनैस वुमन भी हैं और अपनी फिटनैस के लिए काफी मशहूर हैं. फिल्मों में अपनी सक्रियता और योजनाओं को उन्होंने हमारे साथ सा झा किया.

छोटे परदे के मशहूर शो ‘शांति’ से अभिनय कैरियर की शुरुआत करने वाली अभिनेत्री मंदिरा बेदी से कोई अपरिचित नहीं. अभिनय के अलावा उन्होंने एंकरिंग भी की है. आज वे एक फैशन डिजाइनर भी हैं. अभिनय हमेशा उन के लिए पैशन रहा है. शादी व मां बनने के बाद भी उन्होंने अभिनय को नहीं छोड़ा. उन्हें नए तरह के किरदार निभाने पसंद हैं.

फिटनैस को अपने जीवन में हमेशा शामिल करतीं मंदिरा अपनी शादीशुदा जिंदगी को भी अच्छी तरह से जी रही हैं. मैक्स प्लेयर चैनल पर आने वाले रिऐलिटी शो ‘शादी फिट’ को मंदिरा बेदी होस्ट कर रही हैं.

‘शादी फिट’ शो के बारे में पूछे जाने पर मंदिरा बेदी बताती हैं, ‘‘यह एक रिलेशनशिप पर आधारित रिऐलिटी शो है. इस में 4 जोडि़यां अपने संबंधों को एक स्तर पर ले जाना चाहती हैं और कैसे वे अपनेआप को शादी के लिए तैयार कर रही हैं, यह एक टास्क द्वारा परखा जाएगा.’’

आज रिश्तों के माने बदल चुके है, रिश्तों को ले कर जो बौंडिंग पहले होती थी वह अब नहीं है, जिस से वे जल्दी टूट जाते हैं. इस बारे में वे कहती हैं, ‘‘कोई भी इंसान अगर यह कहे कि उस की शादीशुदा जिंदगी बहुत अच्छी चल रही है, तो वह  झूठ बोल रहा है, क्योंकि विवाह को निभाना आसान नहीं होता. हर शादी में मेहनत और एफर्ट लगता है. एकदूसरे से बातचीत जरूरी है, जो सब से अधिक जरूरी है.

‘‘मैं अपनी 20 साल की शादी की जिंदगी के बारे में इतना कहना चाहती हूं कि पति के साथ मेरे भी बहुत सारे  झगड़े हुए हैं. ये उस समय हुए जब हमारे बीच कम्युनिकेशन अच्छा नहीं था. यह जब तक पतिपत्नी के बीच अच्छी तरह से नहीं होगा, आप का वैवाहिक जीवन अच्छा नहीं हो सकता. जब एकदूसरे से संवाद में कमी आती है, तो रिश्ते टूटते हैं.’’

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आज लड़के हों या लड़कियां, सभी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं. ऐसे में ईगो उन के सामने आता है और रिश्ते चल नहीं पाते. ऐसे में आप के हिसाब से क्या करना जरूरी है? इस पर वे कहती हैं, ‘‘मेरे और मेरे पति के बीच में कई बार ईगो सामने आया. ऐसी हालत में दोनों की इच्छा होनी चाहिए कि यह रिश्ता चले. ईगो बारबार हर परिस्थिति में आता है, लेकिन असली उद्देश्य अलग होना नहीं, बल्कि साथ रहना होना चाहिए. इच्छा होगी, तो  झगड़े के बाद भी दोनों साथ रहने की कोशिश अवश्य करेंगे और यही स्वस्थ शादी का राज है.’’

आज की जनरेशन अरेंज मैरिज से अधिक लव मैरिज पर विश्वास करती है, आप इस बारे में क्या सोच रखती हैं? इस पर वे थोड़ा रुक कर बोलीं, ‘‘यह बताना थोड़ा मुश्किल है. पर इतना जरूर कहना चाहती हूं कि अगर आप किसी भी रिलेशनशिप में जा रहे हैं, तो उस में अनुकूलता होनी चाहिए. कई बार अरेंज मैरिज भी टूट जाती हैं, तो कई बार लव मैरिज भी. ऐसे में एकदूसरे को सम झ कर उस के अनुसार चलने की जरूरत पतिपत्नी दोनों को होती है. यह एक टीमवर्क की तरह होता है. ऐसा न होने पर रिश्ता टिक नहीं सकता. मैरिज लाइफ में भी एडजेस्टमैंट जरूरी है.’’

आप फैशन डिजाइनर के रूप में क्या कर रही हैं? इस सवाल पर मंदिरा कहती हैं, ‘‘मेरा एक स्टोर है. मैं साड़ी और गारमैंट्स की डिजाइनिंग करती हूं. साल में 2 बार मैं कलैक्शन लौंच करती हूं, अलगअलग तरह की साडि़यां, जिन में शिफौन, सिल्क आदि हैं, जिन्हें किसी भी अवसर पर पहना जा सकता है. मैं ने यह काम प्लान बी के तहत शुरू किया था. क्योंकि, इंटरटेनमैंट का प्लान अधिक दिनों तक नहीं चलता. पर मैं खुश हूं कि यह अभी तक चल रहा है.’’

इंडस्ट्री में आए बदलाव को कैसे देखती हैं? इस बारे में वे अपना मत यों जाहिर करती हैं, ‘‘वैब सीरीज की दुनिया आज बहुत बड़ी है, जिसे लोग पसंद कर रहे हैं. इसे आप कभी भी कहीं भी देख सकते हैं. टीवी शो की तरह समय और दिन का इंतजार नहीं करना पड़ता. नई जनरेशन की यही डिमांड है. इसलिए, यह इतना फलफूल रहा है. मैं दूरदर्शन, स्टार और जीटीवी की दुनिया से यहां तक पहुंची हूं. अब तो चैनल भी बहुत ज्यादा हो गए हैं. सिनेमा भी बहुत बदल गया है. आज केवल हीरोहीरोइन ही नहीं, हर चरित्र अभिनेता भी लाइमलाइट में आ गया है. अच्छे स्वभाव और अभिनय को जानने वाले हर कलाकार को आज काम मिलता है.’’

आप की फिटनैस का राज क्या है? यह पूछने पर वे खुशी से चहक गईं, बोलीं, ‘‘फिटनैस का कोई राज नहीं है. हर रोज सुबह उठ कर वर्कआउट करती हूं. मैं ने एक दिन भी व्यायाम मिस नहीं किया है. यह राज नहीं, मेहनत है. मैरिज, लाइफ और फिटनैस को हमेशा सामंजस्य के साथ आगे ले जाना चाहिए.’’

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सरिता पत्रिका के पाठकों के लिए क्या संदेश देना चाहती हैं? इस पर भी वे हंसीं और फिर कहा, ‘‘शादी के पहले और शादी के बाद भी अपनेआप से प्यार करना कभी भी न भूलें. अपनी सेहत पर ध्यान दें, नियमित व्यायाम करें, ताकि परिवार की अच्छी तरह देखभाल कर सकें.’’

छोटी सरदारनी: अपना बच्चा या सरब और परम, किसे चुनेगी मेहर?

शो ‘छोटी सरदारनी’ में हरलीन को पता चल चुका है कि मेहर के पेट में पल रहा बच्चा सरब का नहीं है, जिसके कारण वो मेहर के खिलाफ हो गई है. तो आइए आपको बताते हैं क्या होगा अपकमिंग एपिसोड में…

हरलीन ने मारा मेहर को थप्पड़

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पिछले एपिसोड में आपने देखा कि मेहर घर पहुंचकर हरलीन से बात करने की कोशिश करती है, लेकिन हरलीन उसे थप्पड़ मार देती है. वहीं हरलीन सरब को बताती है की मेहर के पेट में पल रहा बच्चा सरब का नही है, लेकिन सरब हरलीन से कहता है कि उसे मेहर की प्रेग्नेंसी का सच पता है.

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गुस्से में हरलीन जाएगी कुलवंत कौर के घर

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मेहर की सच्चाई जानने के बाद हरलीन गुस्से में है, जिसके चलते वह मेहर की मां यानी कि कुलवंत कौर के घर चली जाती है. वहीं जब ये बात सरब को पता चलती है तो उसे बेहद बुरा लगता है.

मेहर को चेतावनी देगी हरलीन

मेहर की प्रेग्नेंसी के बारे में जानने के बाद हरलीन, मेहर के बच्चे को अपनाने से मना कर देगी. इसी के साथ हरलीन मेहर को एक चेतावनी देगी कि 9 दिन में फैसला करे कि या तो वह अपने पेट में पल रहे बच्चे का अबौर्शन करा ले या फिर सरब और परम की जिंदगी से दूर चली जाए.  

किसे चुनेगी मेहर

अब देखना ये है कि मेहर किसे चुनती है. अपने पेट में पल रही मानव की आखिरी निशानी को या सरब और परम को? जानने के लिए देखते रहिए ‘छोटी सरदारनी’, सोमवार से शनिवार, रात 7:30 बजे, सिर्फ कलर्स पर.

जेनिफर विंगेट ने क्रिसमस डे से पहले ही उठाया क्रिसमस पार्टी का मजा

क्रिसमस पार्टी की तस्वीरें खुद जेनिफर ने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट से शेयर भी की इन फोटोज को देख के लग रहा है कि जेनिफर विंगेट और उनके दोस्तों ने इस पार्टी में खूब मस्ती और धमाल किया है. पार्टी में केक कटिंग, डांसिंग, सिंगिंग और गेमिंग सेशन को भरपूर एंजौय किया. पार्टी की फोटो शेयर करते हुए जेनिफर ने सभी लोगों को क्रिसमस की बधाई दी.

आपको बता दें जेनिफर की क्रिसमस पार्टी में सीरियल ‘बेपनाह’ और ‘बेहद’ में उनके साथ काम कर चुके कई एक्टर्स शामिल हुए. जैसे हर्षद चोपड़ा और सेहबान अजीम आदि.

इस पार्टी में अगर बेस्ट लुक की बात करें तो जेनिफर का लुक लाजवाब था. उन्होंने दो तरह की आउटफिट्स पहने थे. पहली शिमरी ग्रीन शार्ट ड्रेस है जो फुल बाजू की है और दूसरी शिमरी रेड कलर की स्लीवलेस शार्ट ड्रेस है इन शौर्ट ड्रेसेज में जेनिफर हमेशा की तरह बहुत खूबसूरत लग रही थीं. रेड ड्रेस के साथ राउंड ब्लैक गॉगल्स में उनकी फोटो बहुत मस्त लग रही है.

जेनिफर विंगेट के वर्क फ्रंट की बात करें तो इन दिनों वह टीवी सीरियल बेहद 2 को लेकर सुर्खियों में है क्योंकि उनका माया का किरदार काफी रहस्यमयी और खतरनाक दिख रहा है. जिसे लोग बहुत पसंद कर रहे है. इस सीरियल में उनके साथ शिविन नारंग और आशीष चौधरी लीड रोल में हैं.

स्कूलकालेजों में ड्रैसकोड : बच्चे और टीचर भी परेशान

स्कूल का ध्यान आते ही याद आती है यूनिफौर्म. चिलचिलाती गरमी के दिन हों या उमसभरे बारिश के, या फिर ठिठुरती सर्दी. यूनिफौर्म की पकड़ से बच्चे तभी आजाद हो सकते हैं जब कालेज में पहुंचें. लेकिन क्या हो अगर कालेज में भी आप को यूनिफौर्र्म पहना दी जाए? और तो और, जब आप खुद टीचर बन कर स्कूल या कालेज में पढ़ाने पहुंचें तब भी यदि यूनिफौर्म आप का पीछा न छोड़े तो?

यह सीन आजकल काफी आम है. एक तरफ कालेज का नाम सुन कर याद आता है रंगीन वातावरण जैसा करण जौहर की फिल्मों में दिखाया जाता है. वहीं, दूसरी ओर आजकल इंजीनियरिंग कालेज हो या मैनेजमैंट कालेज, यूनिफौर्म या यों कहें कि डै्रसकोड लागू रहता है. विश्वविद्यालयों की छात्राओं को जबतब सही डै्रसकोड की लिस्ट का सामना करना पड़ता है.

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तमिलनाडु के कालेज की छात्राओं को टीशर्ट पहनने पर बैन लगा कर सलवार, कमीज, दुपट्टा पहनने का फरमान मिला तो मीनाक्षी का कहना था कि जींसटौप में गरमी से काफी राहत मिलती है. उमा भी डै्रसकोड के सख्त खिलाफ दिखी. उस का प्रश्न था कि केवल लड़कियों के कपड़ों से ही हमारी संस्कृति को खतरा क्यों होता है? मुंबई के नालंदा ला कालेज के डै्रसकोड को विद्यार्थियों ने तालिबान स्टाइल कह कर पुकारा.

छात्रों का कहना था कि अपना कैरियर बनाने आए विद्यार्थी शिक्षा पर ध्यान देते हैं न कि फैशन पर. फिर क्यों प्राधिकारी शिक्षाप्रणाली पर ध्यान न दे कर अपना समय और ऊर्जा डै्रसकोड पर व्यर्थ गंवाते हैं. और तो और, कितने ही स्कूलों व कालेजों में शिक्षकों के लिए भी डै्रसकोड निर्धारित है. हालांकि, अकसर महिला शिक्षकों को ही डै्रसकोड के नियमों का पालन करना पड़ता है, उस पर सिलवाने का खर्च भी खुद को ही उठाना पड़ता है. कभी महिलाओं की सुरक्षा के नाम पर तो कभी संस्कृति के, कभी कौर्पोरेट वर्ल्ड के लिए अपने स्टुडैंट्स को तैयार करने के नाम पर तो कभी अनुशासन लाने के बहाने, डै्रसकोड को अकसर शैक्षिक संस्थान सही ठहराते रहते हैं.

लगता है ड्रैसकोड की बात अब स्कूल और कालेज से निकल कर औफिस में भी पहुंच गई है. इंडिया टुडे की संवाददाता शालिनी लोबो ने खबर दी कि  सरकारी दफ्तरों में कर्मचारी कैजुअल कपड़े न पहन कर आएं, इसलिए कि हाल ही में तमिलनाडु सरकार ने नया डै्रसकोड लागू किया है. इस के तहत महिलाएं साड़ी या सलवार, कमीज व दुपट्टा और पुरुष शर्टपैंट या वेस्टी पहन कर काम पर आ सकते हैं.

डै्रसकोड की वकालत करने वाले यूनिफौर्म को सुव्यवहार और अनुशासन से जोड़ कर देखते हैं. उन का मानना है कि एक से कपड़े पहनने से बच्चों में एकता की भावना जन्म लेती है. वे एकदूसरे से भेदभाव नहीं करते, गुटबाजी नहीं करते, सुव्यवहार सीखते हैं और उन का ध्यान फैशन की ओर भी नहीं भटकता. लेकिन, डै्रसकोड की पैरवी करने वालों को यह सम झना चाहिए कि अनुशासन कपड़ों तक सीमित नहीं होता. अनुशासन का दर्पण होता है बरताव, और इस पर यूनिफौर्म का कोई असर नहीं होता.

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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आड़े आता ड्रैसकोड

डै्रसकोड से बच्चे चिढ़ते हैं, विद्रोह करने की सोचते हैं. उन्हें इस बात से नाराजगी होती है कि स्कूलकालेज उन के कपड़ों की चौइस पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं. हमारे देश में सब को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है, किंतु हम अपनी नई पीढ़ी को उसी की इच्छा से कपड़ों का चयन करने के मौलिक अधिकार से वंचित रखते हैं

रेयान इंटरनैशनल स्कूल की छात्रा आरुषि का कहना है, ‘‘मेरे कपड़े मेरे व्यक्तित्व को व्यक्त करते हैं. सब बच्चों को एकजैसे कपड़े पहना देने से सब का व्यक्तित्त्व न तो एकजैसा बन सकता है और न ही ऐसा करना वांछनीय है. समाज में रचनात्मकता को बढ़ावा देने से ही हम उन्नति की ओर बढ़ेंगे. मेरी दृष्टि में शैक्षिक संस्थान अधिगम, ज्ञान और सुबोध के परिचायक होते हैं. वहां अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए.’’

देहरादून के प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेज की लैक्चरर इंदु मेहरा डै्रसकोड के पीछे की मानसिकता पर सवाल उठाते हुए पूछती हैं कि भारतीय समाज में यूनिफौर्म समानता कैसे ला सकती है, यहां तो हर कोई दूसरे से जातपांत, रंगसंस्कार में भिन्न है. क्या एकजैसे डै्रसकोड के माध्यम से हमारे सदियों पुराने सांस्कृतिक भेदभाव को ढक पाना इतना आसान है? ऊपर से गरीब परिवार के बच्चे डै्रसकोड का ऐक्सट्रा खर्र्च उठाने में कई बार कसमसा जाते हैं.

यूनिफौर्म नहीं होती कंफर्टेबल

स्कूलकालेज या फिर औफिस में कई घंटों तक बैठना पड़ता है. ऐसे में यूनिफौर्म कभी भी उतनी कंफर्टेबल नहीं हो सकती. अकसर यूनिफौर्म सिंथैटिक कपड़े या फिर पौलीकौटन से बनाई जाती है. कभी स्कर्ट के ऊपर ट्यूनिक की ऐक्सट्रा लेयर तो कभी जैकेट. उस पर टाई. भारतीय मौसम के लिए ऐसे डै्रसकोड कतई उपयुक्त नहीं होते. बेचारे बच्चे गरमी के दिनों में पसीनेपसीने हुए रहते हैं तो सर्दी में ठिठुरते रहते हैं. उस पर डै्रसकोड की डिजाइन ऐसी बनाई जाती है जो हर शारीरिक संरचना पर फिट बैठे, तो हर अलग शरीर की कदकाठी की सुंदरता को उभारने में निश्चित ही वह असफल रहती है.

डै्रसकोड का धंधा

यूनिफौर्म को सिलवाने में अलग खर्चा आता है. मीरा के 2 बच्चे हैं. एक इंटरनैशनल स्कूल में पढ़ता है, दूसरा प्राइवेट कालेज में. ‘‘रोजाना पहनने के कपड़ों के अलावा हर स्कूलकालेज की अलग यूनिफौर्म सिलवाओ. बढ़ते बच्चों के पैंटजूते जल्दीजल्दी छोटे होते रहने के कारण बेकार हो जाते हैं. ऊपर से हर मौसम में कुछ न कुछ अलग, जैसे बारिश में रेनकोट जरूर खरीदो तो सर्दी में ब्लेजर. अधिकतर स्कूलकालेज अपनी ही दुकानों से यूनिफौर्म खरीदने की शर्त रखते हैं, जो मनमाने दामों पर यूनिफौर्म बेचती हैं. जो रिबन बाहर बाजार में 10 रुपए का आता है वह स्कूल द्वारा निश्चित दुकान पर 20 रुपए का मिलता है. फिर हर बच्चे का अलग पीटी हाउस रख देते हैं तो बड़े बच्चे की यूनिफौर्म छोटा भाईबहन नहीं उपयोग कर सकता है. उस पर आजकल स्कूल हर दूसरे सैशन में यूनिफौर्म के रंग में या फिर डिजाइन में थोड़ाबहुत फेरबदल कर डालते हैं ताकि पूरा सैट बारबार खरीदना पडे़. सब चोरबाजारी है पैसा कमाने की.’’

लोग अपने बच्चों को प्राइवेट एजुकेशन इंस्टिट्यूट्स में इस उम्मीद में भेजते हैं कि वे वहां अपना भविष्य बनाएंगे, अपनी अलग पहचान, अपने विचार, अपने जीवन को सुगम बनाना सीखेंगे. यूनिफौर्म बेचने पर ध्यान देने के बजाय मैनेजमैंट को अपनी शिक्षा की गुणवत्ता को केंद्र में रखना चाहिए.

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नहीं चाहिए ड्रैसकोड

सैंट थौमस स्कूल का एक छात्र प्रणव कहता है, ‘‘हमारी क्लास के बच्चे कहते हैं, ‘रूल्स आर मैट टु बी ब्रोकन.’ इसीलिए तो यूनिफौर्म की जबरदस्ती के कारण बच्चे रिबेल बनते हैं, अपनी मरजी करना चाहते हैं, नियमों को ताक पर रखने की कोशिश करते रहते हैं. ड्रैसकोड के बजाय प्रबंधन अगर प्रोफैशनल एटिट्यूड व अटायर पर फोकस करें तो कितना अच्छा होगा.’’

यदि छात्रछात्राओं ने बगावत करने की ठान ली तो अध्यापक के टोकने का असर भी बेमानी हो जाता है. एक नामीगिरामी महानगरीय स्कूल के टीचर बताते हैं कि कैसे उन्हें लड़कों को बारबार शर्ट के ऊपर के बटन बंद करने के लिए टोकना पड़ता है. कभी टाई ढीली कर, कभी एक तरफ से शर्ट को पैंट से बाहर निकाल कर तो कभी जैल से बालों में स्पाइक बना कर, लड़के उन की नाक में दम किए रहते हैं. लड़कियों को टोकना और भी मुसीबत का काम है. वे अकसर अपनी स्कर्ट को बैल्ट की तरफ से गोल घुमा कर ऊंचा कर लेती हैं और टोकने पर मुंह बिचका कर खुसफुसाती हैं कि सर को क्या जरूरत है हर टाइम हमारी टांगों की ओर देखने की.’’

दुनिया की राय

चेक रिपब्लिक की टैक्निकल यूनिवर्सिटी औफ ओस्ट्रावा के जोसफ पंकोचर का मानना है कि अनुशासन दिमाग में होना जरूरी है, कपड़ों में नहीं. विद्यार्थियों या शिक्षकों की यूनिफौर्म की जगह साफसुथरे और स्वयं पर फबने वाले कपड़े होने चाहिए.

कैनेडा की साइमन फ्रेजर यूनिवर्सिटी में शिक्षिका मोनिका भट्टाचार्य का मत है कि कपड़े पहनने की आजादी के पीछे कई सारे पहलू होते हैं. मसलन, मौसम, क्लासरूम, जिम, साइंस लैब, फील्डट्रिप या फिर स्कूल का इमोशनल क्लाइमेट. निजी तौर पर मोनिका आराम को अदब से ज्यादा महत्त्व देती हैं. वे मानती हैं कि शिक्षकों को  झीनेपारदर्शी या फिर बदनदिखाऊ कपड़े नहीं पहनने चाहिए. जींसटीशर्ट सब से आरामदेह पोशाक है, लेकिन इतनी सम झ पहनने वाले में होनी चाहिए कि फौर्मल या स्पैशल अवसरों पर इन्हें न पहनें.

हौलैंड के निवासी जेडन बराका इस बात से आश्चर्यचकित होते हैं कि लोग डै्रसकोड और अनुशासन को जोड़ कर देखते हैं. वे कई इंग्लिश स्कूलों में पढ़ा चुके हैं और कहीं भी डै्रसकोड के कारण अनुशासन पर कोई सकारात्मक असर नहीं देख पाए. डच स्कूलों में यूनिफौर्म का कौन्सैप्ट नहीं होता. डच लोगों को ड्रैसकोड नहीं भाता. उन के देश में ड्रैसकोड के माध्यम से निजता पर प्रहार नहीं सहा जाएगा.

जरमनी के रिसर्चर यू दरेएयर बताते हैं कि उन के देश के स्कूलों में पिछले 40 वर्षों से डै्रसकोड का कोई रिवाज नहीं है. ‘स्कूल लुक’ के नाम पर केवल उन्हीं ड्रैसेस की मनाही है जो बहुत महंगी या ऊंचे डिजाइनर्स की होती हैं. बच्चे कैजुअल कपड़े पहन कर पढ़ने जाते हैं. ऐसे ही अमेरिका में भी करीब 80 प्रतिशत स्कूलों में ड्रैसकोड का चलन नहीं है.

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एक मत यह भी है कि एक जमाने में कामगार पहले पढ़ने जाते थे, फिर वहीं से काम करने के लिए फैक्ट्री जाया करते थे. इसलिए वे ड्रैस पहन कर ही स्कूल जाते थे ताकि घर लौट कर कपड़े बदलने में समय व्यर्थ न हो. ऐसा प्रतीत होता है जैसे हमारी शिक्षाव्यवस्था अभी भी फैक्ट्री प्रणाली पर ही आधारित है. क्या करें, हमारा देश किसी भी बदलाव को अपनाने में इतना हिचकता जो है.

रैजिमैंटेशन का एक तरीका ड्रैसकोड है जो पुलिस और सेना की तरह ऊपर वाले का आदेश मानने को तैयार करता है और अलग सोच, अलग व्यवहार व अलग रास्ता अपनाने से रोकता है. धर्म में भी ड्रैसकोड है और धार्मिक स्कूलों की ही देन यह ड्रैसकोड है जो आज स्कूलों में फैल गया और अब सरकार में फैल रहा है.

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