17 दिसम्बर को जब देश भर में लोग ‘नागरिकता बिल’ और ‘जेएनयू में पुलिस की बर्बरता‘ के खिलाफ सडको पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे उसी समय उत्तर प्रदेश की विधानसभा में भाजपा के ही एक सौ से अधिक विधायक अपनी ही सरकार के खिलाफ आवाज उठा रहे थे. इससे साफ पता चलता है कि पार्टी और देश में लोकतंत्र की बात करने वाली भाजपा कितना लोकतांत्रिक रह गई है. सत्ता के दबाव में आवाज को कमजोर किया जा सकता है पर दबाया नहीं जा सकता.
मौका मिलते ही विरोधी स्वर पहले से अधिक मजबूत होकर मुखर हो जाते है. मुख्यमंत्री से बातचीत के बाद यह लड़ाई भले ही दब जाये पर अंदर सुलग रहा विरोध का स्वर फिर भड़क सकता है. उत्तर प्रदेश में भाजपा के 100 से अधिक विधायक अपनी ही सरकार के खिलाफ विधानसभा में ही धरने पर बैठ गये. कई स्तर की वार्ता के बाद भी जब भाजपा विधायक अपने ही दल के संसदीय कार्यमंत्री, विधानसभा अध्यक्ष और उपमुख्यमंत्री की बात मानने को तैयार नहीं हुये तो विधानसभा का सदन पूरे दिन के लिये स्थगित कर दिया गया.
भाजपा इस घटना को विधायक नंद किशोर गुर्जर से ही जोड़ कर देख रही है. असल में यह मसला भाजपा के दूसरे विधायकों का भी है. डर वश यह विधायक अपने ‘मन की बात‘ नहीं कह पा रहे थे जैसे ही उनको विधायक नंद किशोर गुर्जर के साथ पुलसिया उत्पीड़न का पता चला वह एक जुट हो गये. भाजपा में पार्टी के विधायको का यह विद्रोह तमाम विधायकों का दर्द है. मौका मिलते ही सभी विधायको ने एकजुट होकर पार्टी के खिलाफ धरना दे दिया.