मार्च 2018 में 20 लाख से ज्यादा अमेरिकी लोग ‘नो वौयलैंस’ स्लोगन के साथ सड़कों पर उतरे. वे यह मांग कर रहे थे कि बंदूकों को ले कर अमेरिकी नीति में पूरी तरह से परिवर्तन हो ताकि गोलीबारी से होने वाली हिंसा पर रोक लग सके. दरअसल, अमेरिका में जिस तरह से बहुत आसानी से हर किसी को बंदूक उपलब्ध है, वे इस के खिलाफ थे.

लेकिन, इस का मतलब यह नहीं है कि अमेरिका में सभी लोग बंदूकों के खिलाफ हैं. सच बात तो यह है कि बंदूक को ले कर अमेरिकी नागरिक बंटे हुए हैं और पिछले दशक से इस पर अमेरिका में जबरदस्त बहस हो रही है. कुछ सालों में अमेरिका में बंदूक से 2 दर्जन से ज्यादा गोलीबारी की घटनाएं हुई हैं, जिन में गोलीबारी करने वाले न तो आपराधिक इतिहास वाले थे और न ही प्रोफैशनल बंदूकबाज. ये तो साधारण छात्र थे, बेरोजगार नौजवान थे या परिस्थितियों से परेशान हो कर चिड़चिड़े हो गए सामान्य नागरिक थे. बंदूक की सहज उपलब्धता के कारण हाल की तमाम घटनाओं में ऐसे लोगों ने सैकड़ों लोगों की जानें ले ली हैं.

साल 1999 से साल 2018 तक अमेरिका में गोलीबारी की 38 से ज्यादा घटनाएं हुई हैं, जिन में 500 से ज्यादा लोगों की जानें गई हैं. गोलीबारी में 2,000 से ज्यादा लोग बुरी तरह घायल भी हुए हैं. यही वजह है कि पिछले कुछ सालों से अमेरिका में यह जबरदस्त बहस छिड़ी हुई है कि बंदूक पाने का लाइसैंस जो मौजूदा समय में बेहद आसानी से मिल जाता है, उसे ऐसे ही बनाए रखा जाए या उसे पाना जटिल बना दिया जाए.

हालांकि सिर्फ अमेरिका में ही बंदूक से होने वाली हत्याएं बड़ा सिरदर्द नहीं हैं, बल्कि करीबकरीब दुनिया के हर देश में पिछले एक दशक के दौरान बंदूक एक बड़ी समस्या बन कर उभरी है. यही वजह है कि पूरी दुनिया में बंदूकों को ले कर बहस बहुत तेज हुई है. इस की औपचारिक शुरुआत 2009-10 में तब हुई थी जब संयुक्तराष्ट्र की मादक पदार्थ और अपराध शाखा ने हथियारों का सामाजिक विश्लेषण प्रस्तुत करने का निर्णय लिया और इस के गंभीर निष्कर्ष दुनिया के सामने नमूदार हुए. तभी से बंदूक के हाहाकारी किस्से हर तरफ सुनाई दे रहे हैं. यहां तक कि अब तो यह चिंता पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशों में भी की जाने लगी है. वहां आलूप्याज की तरह हथियारों की न सिर्फ आम दुकानें हैं बल्कि वहां कुटीर उद्योग की तरह हथियार बनाने का काम होता भी है. विशेषकर क्लासीनोफ, राइफलें जो वैसे 75,000 रुपए से ऊपर की होती हैं, अफगानिस्तान में 3,000 से 5,000 रुपए के बीच आसानी से मिल जाती हैं.

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अमेरिका दुनिया के उन 6 देशों में से एक है जहां हर साल बंदूक से होने वाली कुल वैश्विक मौतों में से 50 फीसदी मौतें होती हैं. अमेरिका के साथ 5 और देश जो बंदूक से होने वाली हत्याओं के जबदरस्त शिकार हैं, उन में हैं ब्राजील, मैक्सिको, कोलंबिया, वेनेजुएला और ग्वाटेमाला. साल 2016 में इन देशों में बंदूक से होने वाली हत्याएं अमेरिका सहित इस प्रकार हैं- 43,200 ब्राजील, 37,200 अमेरिका, 15,400 मैक्सिको, 13,300 कोलंबिया, 12,800 वेनेजुएला और 5,090 ग्वाटेमाला.

हैरानी की बात यह है कि इन 6 देशों की आबादी कुल मिला कर दुनिया की आबादी की महज 10 फीसदी है. लेकिन जहां तक बंदूक से होने वाली हत्याओं का सवाल है, तो दुनिया में हर साल जितने लोग बंदूक से होने वाली हिंसा का शिकार होते हैं, उन में ये 50 फीसदी हैं. संयुक्तराष्ट्र ने जब से हथियारों को ले कर गंभीर अध्ययन और विश्लेषण का सिलसिला शुरू किया है तब से हर गुजरते साल इस के भयावह किस्सों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है.

दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश हो जहां बंदूकप्रेम न मौजूद हो. यहां तक कि जिन देशों में बाकी किसी किस्म की प्रगति नहीं हुई, जैसे अंगोला, हैती, इरीट्रिया, सेनेगल, कांगो आदि, वहां भी सब से बड़ा नशा बंदूक का ही है.

हालांकि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और मध्यपूर्व के देशों की तरह हम होश संभालते ही बंदूक के खिलौने से वास्तविक दुनिया में खेलने के शौकीन नहीं हैं फिर भी शादीब्याह हो, मुंडनछेदन हो या कोई भी खुशी का समारोह, हम चाहते हैं एकदो बंदूक के फायर तो हो ही जाएं. इस से आसपास वाले लोगों को हमारी हैसियत बड़ी दिखती है. शायद यह देश में मुगलिया शानोशौकत का हैंगओवर है. वैसे हमारे यहां यह बीमारी विशेषतौर पर उत्तर भारत में ही है और उस में भी सब से ज्यादा इस बीमारी से ग्रस्त उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश,  झारखंड, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के लोग हैं.

लेकिन इस का मतलब यह भी नहीं है कि बंदूक को ले कर शेष भारत में कोई ललक ही नहीं है. दुनिया में मौजूद कुल 85 करोड़ 70 लाख बंदूकें, जिन में करीब 85 फीसदी सिविलियन लोगों के पास हैं, अकेले अमेरिका में ही 39 करोड़ 3 लाख बंदूकें हैं, जो कि दुनिया में कुल सिविलियन बंदूकों का 46 फीसदी है. जबकि, भारत में 4 करोड़ से ज्यादा बंदूकें हैं, लेकिन, जहां तक लाइसैंस की बात है, तो लाइसैंसी बंदूकें महज 26 लाख के आसपास हैं. पहले उन की संख्या ज्यादा थी, लेकिन पिछले कुछ सालों से सरकार बंदूकों के लाइसैंस रद्द कर रही है या लोगों को इस के लिए प्रोत्साहित नहीं कर रही है, इस वजह से कमी आई है.

भारतीयों का बंदूकप्रेम

भारतीय लोग भी न सिर्फ बड़े पैमाने पर बंदूकों से लगाव रखते हैं बल्कि इस बंदूकप्रेम के कारण हमारे यहां भी बड़े पैमाने पर हर साल बंदूक से लोगों की जानें जाती हैं. हालांकि हमारे यहां बंदूक का लाइसैंस आसानी से नहीं मिलता लेकिन इसे पाने के लिए लोग अपनी सारी हैसियत, अपने सारे संपर्कों को  झोंक देते हैं.

खैर, बंदूक हासिल जैसे भी होती हो, इस की व्यापकता दुनिया के कोनेकोने तक है. नैशनल क्राइम ब्यूरो रिकौर्ड्स औफ इंडिया के मुताबिक, हर तीसरी हत्या बंदूक के जरिए होती है. इस से भी बड़ी बात यह है कि बंदूक से जितनी हत्याएं आपराधिक घटनाओंदुर्घटनाओं के चलते होती हैं, उस से कहीं ज्यादा लोग पुलिस व अर्द्धसुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ों आदि में मारे जाते हैं.

1999 में जब बंदूकों से होने वाली मौतों का आंकड़ा पहली बार पेश किया गया था तो यह 12,147 मौतों का था, यानी इतने लोगों की मौतें बंदूक के जरिए हुई थीं. मगर 2008 में किए गए एक सर्वेक्षण से यह राहत देने वाली बात सामने आई थी कि बंदूकों का इस्तेमाल शायद घट रहा है.

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अब यह मनोवैज्ञानिक सुरक्षा के लिए कहीं ज्यादा इस्तेमाल होती है. 2008 में बंदूक से मारे गए लोगों का आंकड़ा 6,219 था. लेकिन 2015 और 2016 में एक बार फिर से बंदूक से होने वाली मौतों के आंकड़ें में बढ़ोतरी हुई. 2017 में 28,653 लोगों की हत्या हुई. इन में 16 हजार से ज्यादा लोगों की हत्या बंदूक के जरिए यानी बंदूक के इस्तेमाल के चलते हुई है.

लेकिन बंदूक का सब से सिहरन कर देने वाला असर अमेरिका में दिखता है. वहां फैडरल ब्यूरो औफ इंवैस्टिगेशन (एफबीआई) के मुताबिक, साल 2001 से 2005 के बीच 47,500 लोगों की हत्याएं बंदूक के जरिए की गईं. वहीं अकेले साल 2016 में बंदूक द्वारा मारे गए अमेरिकियों की संख्या बढ़ कर 37,200 हो गई. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अमेरिका में बंदूक किस तरह अपराधों की बढ़ोतरी में शामिल है. अमेरिका में हर 10 में से 8 लोगों की हत्या बंदूक की गोली से होती है. इस से भी खौफनाक आंकड़ा यह है कि पिछले डेढ़ दशकों में अमेरिका सहित विकसित देशों में किशोरों और बच्चों द्वारा सिरफिरे अंदाज में गोलीबारी की घटनाओं को अंजाम दिया गया था. गोलीबारी की घटनाओं में 170 फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ है.

अमेरिका में बच्चों तक में बंदूक से खूनी खेल खेलने की लत पड़ चुकी है. पिछले 2 दशकों में अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देशों के बच्चों में बड़ी तेजी से हिंसक प्रवृत्ति बढ़ रही है, जिस के लिए समाजशास्त्रियों और बाल मनोवैज्ञानिकों का एक वर्ग यह कहता रहा है कि इस के लिए वीडियो गेम्स की लत और बच्चों द्वारा कंप्यूटर पर ज्यादा से ज्यादा बिताए गए वक्त की ऊब जिम्मेदार है. विशेषज्ञों का स्पष्ट रूप से मानना है कि बच्चे इसलिए हिंसक हो रहे हैं क्योंकि वे ज्यादा से ज्यादा वक्त कंप्यूटर पर बिताते हैं. इस दौरान वे अधिक से अधिक खूनी जंग वाले खेल खेलते हैं. इस कारण उन में ऐसे हिंसक खेलों के प्रति रु झान बढ़ रहा है. नतीजा यह है कि वे आदत से हिंसक और खूंखार हो रहे हैं.

लेकिन विशेषज्ञों का एक दूसरा वर्ग ऐसा भी है जो यह मानने को तैयार नहीं. उस के मुताबिक, बच्चों में वीडियो गेम खासतौर पर खौफनाक खूनखराबे से भरे गेम उन की मानसिक सजगता को बढ़ा रहे हैं. उन्हें इस दुर्दांत दुनिया में जीने और अपराध से बचे रहने के लिए होशियार कर रहे हैं. ये उन में खौफनाक हिंसक आदत नहीं पैदा कर रहे. हालांकि यह बहस शाश्वत है कि हिंसक वीडियो गेम बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति पैदा कर रहे हैं या उन में दिमागी सजगता बढ़ा रहे हैं, लेकिन यह संयोग देखने और डरने के लिए विवश कर देता है कि जैसेजैसे हिंसक वीडियो गेम्स का बाजार बढ़ रहा है वैसेवैसे अमेरिका जैसे देशों में सिरफिरी गोलीबारी की घटनाएं भी बढ़ रही हैं.

बंदूक की विडंबना देखिए कि उस का जहां ज्यादातर इस्तेमाल हत्याओं में हो रहा है, वहीं उसे आमतौर पर आत्मरक्षा के लिए लिया जाता है यानी जो बंदूकें जान बचाने के लिए खरीदी जाती हैं, वही जान लेने का सब से बड़ा सबब बन रही हैं. सब से बड़ी बात यह है कि बंदूक का इस्तेमाल सिर्फ दूसरे द्वारा जान लेने में नहीं हो रहा. खुद भी लोग अपनी जान बड़े पैमाने पर बंदूकों के जरिए ही ले रहे हैं. भारत में जितनी आत्महत्याएं हो रही हैं, उन में 30 फीसदी तक आत्महत्याएं अपनी ही बंदूक से अपनी जीवनलीला समाप्त कर देने वाली कहानियां हैं.

बंदूक के लिहाज से देश का सब से खतरनाक शहर मेरठ है. मेरठ के बाद दूसरे नंबर पर प्रयागराज आता है, फिर बिहार की राजधानी पटना. इस के बाद वाराणसी, कानपुर, आगरा, इंदौर और दिल्ली का नंबर आता है. इन तमाम शहरों में औसतन 5 में से 3 आत्महत्याएं अपनी ही बंदूक द्वारा की जाती हैं. इन शहरों की सूची में यह स्वाभाविक ही है कि किसी दक्षिण भारत के शहर का नाम नहीं है, क्योंकि बंदूक की संस्कृति, दरअसल, उत्तर भारत में ही अधिक मुखर है.

बंदूक की संस्कृति के लोकप्रिय होने का मतलब महज हिंसाप्रिय होने का सुबूत नहीं है बल्कि बंदूक की संस्कृति एकसाथ कई बातें बताती है. बंदूक की संस्कृति बताती है कि अभी आप कबीलाई मानसिकता से बाहर नहीं निकले. यह अकारण नहीं है कि उन तमाम देशों, जहां लोगों के दिलोदिमाग

में अपना वर्चस्व कायम करने की कबीलाई ललक होती है, बंदूक का वर्चस्व देखने को मिलता है. एशियाई देश इस बाबत खासतौर पर सब से आगे हैं. अफगानिस्तान और पाकिस्तान तो मानो बंदूक की संस्कृति के स्रोत हैं. वहां बंदूक के बिना लोग अपनेआप को असुरक्षित ही नहीं, अधूरा भी महसूस करते हैं जैसे इन दिनों महानगरों में मोबाइल के बिना जिंदगी कुछ थमीथमी, रुकीरुकी सी लगती है.

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 बंदूक का मनोविज्ञान

बंदूक हमारे मन की हिंसा को व्यावहारिक, विस्तार तो देती ही है, वह यह भी बताती है कि हम अपना वर्चस्व किसी भी कीमत पर करना चाहते हैं, चाहे इस के लिए दूसरे को नेस्तनाबूद ही क्यों न करना पड़े. बंदूक से प्यार हमारे दिलोदिमाग में मौजूद हमारी असुरक्षाबोध का भी प्रतीक है. यों लगता है कि बंदूक ले कर चलने वाले लोग काफी दुस्साहसी और निडर होते होंगे. पर नहीं, ऐसा नहीं है. वास्तव में बंदूक रखने वाले लोग उन लोगों के मुकाबले, जो बंदूक नहीं रखते, कहीं ज्यादा कमजोर, कहीं ज्यादा डरपोक होते हैं. यह अकारण नहीं है कि आमतौर पर जिस के घर में एक बंदूक है, वह एक से ज्यादा बंदूक हासिल करने की जुगाड़ में लगा रहता है. नेताओं के पास शायद इसीलिए कईकई हथियार होते हैं क्योंकि वे अपनेआप को सामान्य लोगों के मुकाबले कहीं ज्यादा असुरक्षित पाते हैं.

ज्यादा बंदूकें, ज्यादा मौतें : एक मिथ और दिमाग से निकाल दीजिए कि बंदूक हमारी रक्षा करती है, बंदूक हमें बचाती है. अगर ऐसा होता तो अफगानिस्तानी और पाकिस्तानी सब लोग सुरक्षित होते. क्योंकि वहां लोगों के पास अगर शतप्रतिशत नहीं तो 80 फीसदी से ज्यादा लोगों के पास बंदूकें हैं. चाहे वे खरीद कर हासिल की गई हों या खुद ही बना कर.

अफगानिस्तान और पाकिस्तान में बंदूकें बनाना कुटीर उद्योग की तरह है. बावजूद इस के, देखा जाए तो दुनिया में इंसान के लिए अगर सब से नारकीय देश हैं तो उन में पाकिस्तान और अफगानिस्तान के नाम जरूर जुड़ते हैं. बल्कि, ये शीर्ष में रहते हैं. वहां के अनुभव बताते हैं कि बंदूक से लोग सुरक्षित नहीं, असुरक्षित ज्यादा होते हैं.

कराची दुनिया का वह महानगर है जहां घोषित तौर पर हर चौथे आदमी के पास कोई न कोई आग्नेयास्त्र है. अब जरा दूसरा आंकड़ा भी देखिए. कराची दुनिया का अकेला वह शहर है जहां सब से ज्यादा मौतें बंदूकों के जरिए होती हैं. अगर बंदूकें किसी को सुरक्षित रखतीं तो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और वे तमाम देश, जहां व्रिदोह की स्थिति है, लोग कहीं ज्यादा सुरक्षित होते. पर ऐसा है नहीं.

बंदूकें जितनी ज्यादा होती हैं, मौतें उतनी ही ज्यादा होती हैं और सुरक्षा उतनी ही ज्यादा कमजोर होती है. राष्ट्रसंघ भारत में बढ़ती आत्महत्याओं से इसलिए भी चिंतित है क्योंकि हथियार, विशेषकर बंदूक के प्रति बढ़ता मोह, हताश, निराश और प्रतिस्पर्धा में पिछड़े लोगों को एक ही रास्ता दिखाता है, वह है आत्महत्या करने का रास्ता. इसलिए, बंदूक का निजी हाथों में पड़ना अच्छा संकेत नहीं है.

 बच्चे, बंदूक और इंटरनैट

2 दशकों में जैसेजैसे कंप्यूटर और इंटरनैट हमारी जिंदगी के अभिन्न हिस्से बने हैं, वैसेवैसे हमारी स्वाभाविक गतिविधियों में कमी आई है. सब से ज्यादा यह प्रभाव किशोरों और युवाओं की जीवनशैली में देखने को मिल रहा है. अमेरिका और यूरोप की तो बात ही छोड़ दें, हिंदुस्तान तक में महानगरों में किशोरों की घर से बाहर की गतिविधियां पिछले एक दशक में 20 से 70 फीसदी तक घटी हैं.

एक सर्वेक्षण से पता चला है कि पार्कों में खेलने जाने वाले बच्चों की संख्या पिछली सदी के 80 और 90 के दशकों के मुकाबले 40 फीसदी तक कम हो गई है. आउटडोर खेलों में किशोरों की रुचियां और भागीदारी दोनों घट रही हैं. दूसरी तरफ, पिछले एक दशक में कंप्यूटर पर बैठ कर वीडियो गेम खेलने या बेमतलब की चैटिंगशैटिंग में काफी ज्यादा वक्त जाया हो रहा है.

मुंबई की एक संस्था ने तो बाकायदा अपने सर्वेक्षण से यह साबित किया है कि अगर जल्द ही मांबाप इस बारे में सजग नहीं हुए तो 2020 के बाद की पीढ़ी घर से बाहर के यानी आउटडोर खेलों को भूल जाएगी. जैसे वन्यजीव अब महज कागजों और तसवीरों में बचे हैं वैसे बहुत सारे खेल कहीं यादों और किताबों में ही बचेंगे. गिल्लीडंडा जैसे खेल अब गांव में भी लगभग न के बराबर ही खेले जाते हैं.

सवाल है, क्या घर के बाहर की गतिविधियां घटने से किशोर हिंसक हो रहे हैं? भले कुछ विशेषज्ञ इस बात को न मानें और जिद करें कि आंकड़े ऐसा नहीं कह रहे, मगर यह महज आंकड़ों की बात नहीं है. हम अपने इर्दगिर्द इस सच को घटते देख सकते हैं.

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, जब हम घर के बाहर होते हैं तो हम रिचार्ज होते हैं. जब हम शारीरिक गतिविधियां करते हैं तो हमारे शरीर से कईर् ऐसे हार्मोन जारी होते हैं जो हमें खुश रखते हैं, हमें सकारात्मक रखते हैं और हमें उत्साह से भरते हैं. वहीं दूसरी ओर जब हम लगातार बैठे रहते हैं, किसी एक चीज पर अपनेआप को फोकस रखते हैं तो हमारे शरीर में हार्मोन नहीं बनते, बल्कि ऊब पैदा होती है. यह ऊब हमें नकारात्मकता से भरती है क्योंकि हमें उस समय कोई चीज अच्छी नहीं लग रही होती.

लगातार एक जगह बैठे रहने से और कंप्यूटर की स्क्रीन पर नजर गड़ाए रखने से हम में आत्मविश्वास की कमी बढ़ती है, क्योंकि हमारी नजरें लगातार के ध्यान से थक रही होती हैं. थकी नजरें अच्छा और उत्साहपूर्ण सोच नहीं पाती हैं. चाहे वीडियो गेम हो या कंप्यूटर में बिताया गया यों ही वक्त, वह सही नहीं होता. कम से कम युवाओं और किशोरों के लिहाज से तो यह बिल्कुल ही सही नहीं होता क्योंकि उन की जिंदगी में अनुभवों की कमी होती है. इसलिए भी उन्हें घर के बाहर की गतिविधियों में अपनेआप को ज्यादा लगाना चाहिए क्योंकि घर के बाहर की गतिविधियां उन में उत्साह भरती हैं जिस से वे सकारात्मक रहते हैं.

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