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एक थप्पड़ के बदले 2 हत्याएं : भाग 1

इंसानी दिमाग की फितरत को समझ पाना आसान नहीं होता. भ्रमित व्यक्ति अगर गुस्से में प्रतिशोध लेने की ठान ले तो वह किसी भी हद तक जा सकता है. दिलीप उर्फ दीपा की मिसाल सामने है. उस की करतूत..

सौरभ गुप्ता जब डा. दीपक गुप्ता के घर पहुंचे तब उन के होंठों पर भावभीनी मुसकराहट थी और मन में प्रसन्नता. जिस गली में डा. गुप्ता का घर था, उस में लोगों की आवाजाही थी. कहीं भी ऐसा कुछ नहीं था जो अजीब सा लगे.

सौरभ ने डा. दीपक गुप्ता का दरवाजा खटखटाया लेकिन दरवाजा नहीं खुला. न ही अंदर कोई प्रतिक्रिया हुई. इस पर सौरभ ने धक्का दिया तो दरवाजा खुल गया.

दरवाजे के अंदर डा. दीपक का 2 साल का बेटा दिवित जिसे प्यार से सब लाला कहते थे, खड़ा था. उस के दोनों हाथ व कपड़े खून से रंगे हुए थे. घर में सन्नाटा पसरा था. सौरभ ने किसी अनहोनी की आशंका से जैसे ही मकान में प्रवेश किया, तो सामने ही डा. गुप्ता की 70 वर्षीय मां शिवदेवी की लाश पड़ी थी.

घबराहट में सौरभ की नजर कमरे में गई तो वहां दीपक के बड़े भाई अमित की 35 वर्षीय पत्नी रानी गुप्ता की खून से लथपथ लाश नजर आई. चारों ओर खून फैला हुआ था. यह मंजर देख सौरभ का कलेजा कांप उठा और मुंह से चीख निकल गई.

इस बीच बालक दिवित दरवाजे से बाहर निकल गया था. मकान के बगल में ही चूड़ी का कारखाना था. कारखाने में लोग काम कर रहे थे. चूड़ी के गोदाम पर बैठे रामू गुप्ता की नजर दिवित पर गई तो उस के हाथों और कपड़ों पर खून देख कर उन्हें लगा कि उसे शायद गिरने से चोट लग गई है.

उन्होंने दिवित को गोद में उठा लिया और उस की चोट तलाशने लगे. तभी सौरभ चीखते हुए घर के बाहर आए. उन के शोर मचाने पर आसपास के लोग आ गए.

यह बात 8 अगस्त, 2019 की है. घटना का समय साढ़े 11 बजे. घटनास्थल दुनिया भर में कांचनगरी के नाम से प्रसिद्ध फिरोजाबाद का मोहल्ला नया रसूलपुर. सौरभ गुप्ता डा. दीपक के दोस्त थे और उन से मिलने आए थे.

डा. प्रदीप गुप्ता के घर के बाहर एकत्र लोगों को लगा कि हत्या करने के बाद बदमाश शायद छत पर चढ़ कर छिप गए होंगे, इसी आशंका के चलते लोग लाठीडंडे ले कर मकान की छत पर गए, लेकिन वहां कोई नहीं मिला.

यह मकान शहर के नामचीन बालरोग विशेषज्ञ डा. एल.के. गुप्ता का पैतृक मकान था, जिस में उन के तीसरे नंबर के भाई डा. दीपक गुप्ता अपनी पत्नी, बेटे, दूसरे नंबर के भाई अमित गुप्ता, उन की पत्नी रानी और मां शिवदेवी के साथ रहते थे.

डा. एल.के. गुप्ता अपने परिवार और वृद्ध पिता डा. वेदप्रकाश के साथ शहर के ही मोहल्ला नई बस्ती में रहते थे. उन का सब से छोटा भाई पिंटू भी उन्हीं के साथ रहता था.

सौरभ ने फोन कर के घटना की जानकारी डा. दीपक गुप्ता व उन के बड़े भाई डा. एल.के. गुप्ता को दे दी. साथ ही उन्होंने घटना की सूचना देने के लिए थाना रसूलपुर के थानाप्रभारी बी.डी. पांडे को देने की कोशिश की, लेकिन उन का मोबाइल स्विच्ड औफ था. इस पर उन्होंने 100 नंबर पर काल की. लेकिन कई बार नंबर डायल करने के बाद भी काल रिसीव नहीं की गई.

अंतत: उन्होंने यह सूचना एसएसपी सचींद्र पटेल को दे दी. एसएसपी के निर्देश पर दोपहर करीब 12 बजे एसपी (सिटी) प्रबल प्रताप सिंह, सीओ (सिटी) इंदुप्रभा सिंह पुलिस टीम के साथ मौकाएवारदात पर पहुंच गए.

जब यह सूचना डा. एल.के. गुप्ता को मिली, तब वह और उन की पत्नी डा. नीता गुप्ता मैडिकल कालेज, फिरोजाबाद में मरीजों को देख रहे थे. आननफानन में डा. एल.के. गुप्ता पत्नी के साथ पैतृक घर पहुंच गए. कुछ देर में अन्य घर वाले भी वहां जा पहुंचे.

पुलिस ने घटनास्थल को पीला फीता लगा कर सील कर दिया ताकि सबूतों से किसी तरह की छेड़छाड़ न की जा सके. इस के बाद थानाप्रभारी बी.डी. पांडे भी पुलिस टीम के साथ वहां पहुंच गए. मामले की गंभीरता को देखते हुए एसएसपी सचींद्र पटेल व एसपी (ग्रामीण) राजेश कुमार भी आ गए थे.

फोरैंसिक टीम को भी मौके पर बुला लिया गया था. दिनदहाड़े हुए इस डबल मर्डर की खबर कुछ ही देर में पूरे इलाके में फैल गई. देखते ही देखते मौके पर लोगों की भारी भीड़ एकत्र हो गई.

लोगों के आक्रोश व भीड़ बढ़ती देख किसी अनहोनी की आशंका से अधिकारियों को फिरोजाबाद के थाना दक्षिण, थाना उत्तर व थाना लाइनपार के अलावा जिले के अन्य थानों से भी फोर्स मंगानी पड़ी. सूचना पर सीओ (टूंडला) डा. अरुण कुमार सिंह, सीओ (सिरसागंज) संजय वर्मा भी मौकाएवारदात पर पहुंच गए.

पुलिस अधिकारियों ने शवों का निरीक्षण किया तो पता चला दोनों महिलाओं की हत्या बड़ी बेरहमी से की गई थी. कमरे में रानी का शव पड़ा था. शव के पास ही सोने की चूड़ी, हथौड़ा व चाकू पड़ा मिला. दोनों महिलाओं की हत्या गला रेत कर की गई थी. रानी के पैरों के पास ही सास शिवदेवी का शव पड़ा था. उन के पैर कमरे के बाहर आंगन में थे.

निरीक्षण के दौरान यह बात भी सामने आई कि खुद को हत्यारे से बचाने के लिए सासबहू ने काफी संघर्ष किया था क्योंकि दोनों के गले कटे होने के अलावा उन के शरीर पर भी कई जगह चोट के निशान थे. घटनास्थल के हालात देखने से लग रहा था कि रानी की हत्या पहले हुई. उस समय सास शिवदेवी ऊपर वाले कमरे में रही होंगी. ऊपर की मंजिल पर पड़े लोहे के जाल के पास लगे नाली के पाइप पर भी खून लगा था.

पुलिस का अनुमान था कि शिवदेवी के सिर पर पहले हथौड़े से प्रहार किया गया, बाद में उन्हें घसीटते हुए नीचे लाया गया. नीचे ला कर उन की भी गला रेत कर हत्या कर दी गई. घर में चारों तरफ खून फैला हुआ था.

नीचे वाले कमरे में पलंग के पास रखी अलमारी खुली हुई थी और उस का सामान बिखरा पड़ा था. मकान के ऊपर वाले हिस्से में सीढि़यों के बाईं तरफ वाले कमरे में रखी अलमारी भी टूटी हुई थी. उस का सामान भी बिखरा पड़ा था. दूसरे कमरे में रखी अलमारी का केवल हैंडल टूटा था. अनुमान था कि इस अलमारी को भी खोलने का प्रयास किया गया था, लेकिन हत्यारे सफल नहीं हो सके थे.

इस बीच फोरैंसिक टीम ने अलमारी व अन्य स्थानों से फिंगरप्रिंट व अन्य साक्ष्य एकत्र किए. घर वालों ने बताया कि मकान के ऊपरी हिस्से में छोटा भाई डा. दीपक गुप्ता, उन की पत्नी डा. दीप्ति गुप्ता, मां शिवदेवी और 2 बेटे दर्श व दिवित रहते थे, जबकि नीचे वाले हिस्से में दूसरे नंबर का भाई अमित गुप्ता अपनी पत्नी रानी, बेटी रिया व बेटे ईशू के साथ रहता था.

दिवित को छोड़ कर बाकी बच्चे स्कूल गए हुए थे. अमित की अपनी पैथलैब थी. घटना के बाद सभी बच्चों को स्कूल से बुला लिया गया.

सदर विधायक मनीष असीजा उस दिन लखनऊ में थे. घटना की जानकारी मिलने पर उन्होंने इस बारे में गृह सचिव व डीजीपी को बताया. डीजीपी तक मामला पहुंचने के बाद दोपहर लगभग सवा 2 बजे आईजी (आगरा जोन) ए. सतीश गणेश अपने साथ डौग स्क्वायड की टीम ले कर मौकाएवारदात पर पहुंच गए.

खोजी कुत्ते के आने से पहले तक गली के अंदर व घटनास्थल पर सैकड़ों लोग आ जा चुके थे, इसलिए खोजी कुत्ता हत्यारे के बारे में कोई भी सुराग नहीं दे सका.

लोगों के मन में इस बात को ले कर आक्रोश था कि घटनास्थल से थाना मात्र 300 मीटर की दूरी पर है, इस के बावजूद पुलिस सूचना देने के आधा घंटे बाद घटनास्थल पर आई.

गुस्साए लोगों को एसएसपी सचींद्र पटेल ने भरोसा दिया कि इस जघन्य घटना का शीघ्र खुलासा कर दिया जाएगा. डौग स्क्वायड व फोरैंसिक टीम का काम निपट जाने के बाद पुलिस ने दोनों लाशें पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भेज दीं.

एसएसपी सचींद्र पटेल ने हत्यारों के शहर से बाहर भागने की बात के मद्देनजर पुलिस को रेलवे स्टेशन, रोडवेज बस स्टैंड तथा प्राइवेट बस स्टैंड पर चैकिंग करने के आदेश दिए.

ताज बोले तो

खूबसूरत ताज प्रतीक है शाहजहां और मुमताज की सच्ची मोहब्बत का. लेकिन समय के साथ प्यारमोहब्बत के माने बदल गए हैं.

एक दवा कंपनी में समीर रीजनल मैनेजर था. वैसे तो वह देहरादून में रहता था मगर कंपनी के काम से उसे अकसर बिजनौर, मुरादाबाद और बरेली जाना पड़ता था. उस की कंपनी का मुख्यालय दिल्ली में था अत: जबतब वहां का भी उसे चक्कर लगाना पड़ता था. घर पर तो समीर महीने में मुश्किल से 10 दिन ही रुक पाता था.

देहरादून में समीर की पत्नी सौम्या अकेली रहती थी. वह शांत, सुशील, सुंदर एवं सुशिक्षित महिला थी. उस की शादी को 2 साल हो गए थे पर उन के घर का आंगन अभी किलकारियों से सूना था. इन दिनों सौम्या पीएच.डी. कर रही थी. उस का विषय था, ‘इतिहास की पे्रम कथाएं.’

सौम्या का ज्यादा समय पढ़ने- लिखने में ही गुजरता था. वैसे समीर देहरादून में होता तो पोथीपुस्तकें कुछ दिनों के लिए बंद हो जातीं. उस के टूर पर जाते ही वह इतिहास के बिखरे पन्नों को जोड़ने बैठ जाती थी.

सौम्या के गाइड डी.ए.वी. कालिज के सीनियर प्रोफेसर डा. माथुर थे. पर अपनी व्यस्तता के चलते उन्होंने

डा. विनय को सौम्या का सहगाइड बना दिया था. डा. विनय को मध्यकालीन इतिहास में महारत हासिल थी. वह बोलते भी बहुत मधुर थे. जब वह पढ़ाते तो इतिहास साकार हो उठता था. सौम्या

डा. विनय से बहुत प्रभावित थी.

अपनी पीएच.डी. जल्द से जल्द पूरा करने के लिए सौम्या बुधवार और रविवार को डा. विनय के घर गाइडेंस के लिए जाने लगी. कभीकभार वह फोन पर भी उन से सलाहमशवरा कर लेती थी.

डा. विनय अपने घर में अकेले रहते थे, इसलिए सौम्या जब भी उन के घर जाती तो घर के कामकाज में थोड़ाबहुत उन का हाथ बंटा देती थी.  समय के साथ दोनों अच्छे दोस्त बन गए थे.

सौम्या डा. विनय को गाइड कम दोस्त ज्यादा मानती थी. उम्र में भी 2-3 बरस का ही अंतर था. एक दिन सौम्या ने समीर को भी डा. विनय से मिलवाया था. दोनों काफी देर तक बातचीत करते रहे. विनय पहली बार सौम्या के घर आए थे. सौम्या ने अपने हाथों से बना गाजर का हलवा और गरमागरम पकौडि़यां उन्हें खिलाईं. समीर, विनय के बोलचाल के ढंग से जीवन के प्रति उस के दृष्टिकोण से बहुत प्रभावित हुआ था और मुसकराते हुए बोला था, ‘डाक्टर साहब, अपने इस मुरीद को भी जल्दी से डाक्टर बनवा दीजिए, फिर इन के लिए कोई कालिज ढूंढ़ते हैं.’

‘जी हां, थोड़ा इंतजार कीजिए,’

डा. विनय बोले, ‘अभी 1 साल लग जाएगा. वैसे सौम्या बहुत मेहनती और लगनशील है. अपना शोध कार्य 30 महीने में पूरा कर दिखाएगी, मुझे पूरा भरोसा है.’

डा. विनय का विवाह बरेली की जया वर्मा के साथ हुआ था. जया एम.बी.ए. कर के मार्केटिंग मैनेजर बन गई थी. उस की लाइफ बड़ी बिजी थी. डा. विनय छुट्टियों में उस के पास आ जाते थे. जया कामकाज में व्यस्त रहती थी. उस के लिए पैसा और कामयाबी ही जीवन के उद्देश्य थे. यह इत्तफाक ही था कि जया, समीर वाली कंपनी की बरेली शाखा में कार्यरत थी.

समीर अकसर बरेली आफिस आता- जाता रहता था. कंपनी की मार्केटिंग बढ़ाने के लिए वह जया से मिलता, उस के साथ पास के कसबों में जाता और नई शाखाएं खोलने की तैयारी करता.

जया अपने अधिकारी समीर के साथ घुलमिल गई थी. जब भी समीर बरेली में होता तो जया ही उस की देखभाल करती थी. होटल में कमरा बुक करा दिया जाता और आफिस की गाड़ी दे दी जाती.

जया का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था. तीखे नयननक्श, गोल गुलाबी गाल, सपाट माथा, दूधिया रंग लिए चेहरे पर कानों तक लहराते बाल. सचमुच देखने में परी सी लगती थी वह. उस पर खुद को सजानेसंवारने में भी कोई कोरकसर नहीं छोड़ती थी.

समीर तो उस की एक झलक पाते ही दीवाना हो गया. वह जया को पाना चाहता था, मगर सदा के लिए नहीं. वह तो उस खूबसूरत खिलौने की तलाश में था जिस से जब चाहा खेल लिया और फिर सजा कर अलमारी में रख दिया.

जया अपनी मनभावन अदाओं, मनमौजी बातों और मदमाते यौवन से समीर को मदमस्त बना रही थी. बदले में वह उसे महंगेमहंगे तोहफों से निहाल कर रहा था. जया समझती, बौस उस पर बड़ा मेहरबान है. प्रेम दोनों ओर पल रहा था, मगर विशुद्ध व्यावसायिक, समीर को खिलौने की चाहत थी और जया को कामयाबी की, इसलिए अपनेपन का स्वांग दोनों खूब करते थे.

दोस्ती परवान चढ़ने लगी. समीर, जया को एरिया मैनेजर बनाने के स्वप्न दिखा रहा था. जया की गोलगोल आंखों में सुनहरा भविष्य घूम रहा था. वह समीर को हर कीमत पर खुश रखना चाहती थी. दोनों एकदूसरे के वर्तमान से इतने खुश और संतुष्ट थे कि उन्होंने कभी भी अतीत को कुरेदने की गलती नहीं की.

एक दिन समीर होटल में बैठा चाय की चुस्कियां ले रहा था. जया ने चहकते हुए कहा, ‘‘सर, आप तो हमेशा टूर पर होते हैं, हमें भी कभी बरेली से बाहर ले चलिए न.’’

समीर ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘क्यों नहीं, बोलो कहां चलोगी? मनाली, मसूरी या आगरा.’’

जया ने अपने गुलाबी अधरों पर मुसकान लाते हुए कहा, ‘‘परसों पूर्णिमा है, क्यों न आगरा चला जाए? पे्रम की अनूठी मिसाल, पत्थर में रोमांस, दूधिया चांदनी में नहाया ताज, मुमताज को पुकारता सा लगता है. सर, आप पहले कभी ताज देखने आगरा गए हैं?’’

समीर बनावटी चिढ़न के साथ बोला, ‘‘जया, मैं तुम से नाराज हो जाऊंगा. क्या सर, सर लगा रखी है. यह आफिस नहीं है. तुम मुझे समीर बुला सकती हो.’’

जया ने नजरें झुकाते हुए कहा, ‘‘ठीक है.’’

‘‘जया, आगरा तो मैं कई बार गया हूं मगर इतनी फुरसत कहां जो चांदनी रात में ताज का दीदार कर सकूं. बस, आगरा पहुंचा, लोगों से मिला, बिजनेस का हाल पूछा और चलता बना. मैं तो ठहरा रमता जोगी, बहता पानी,’’ समीर रोमांटिक हो रहा था. उस ने जया की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘ताज भी तुम्हें देख कर ताजा हो जाएगा.’’

जया शरम से लाल हो गई. मुसकराते हुए बोली, ‘‘तारीफ करना तो कोई आप से सीखे.’’

‘‘थैंक्यू, जा कर अपनी तैयारी करो, कल रात को निकल पड़ते हैं. मैं अभी 2 टिकट बुक करा देता हूं,’’ समीर ने मुसकराते हुए कहा.

जया कृतज्ञ भाव से बोली, ‘‘थैंक्यू, समीर, कल मिलते हैं और आगरा चलते हैं.’’

उधर सौम्या को अपने बहुत करीब पा कर डा. विनय जया को भूल से गए थे. दोनों रात में कभीकभी फोन पर बातें कर लेते थे. सौम्या ने भी डा. विनय की तन्हाई को दूर कर दिया था. घर से दूर एक अच्छा दोस्त किसे खुशी नहीं देता. विनय फैशन के इस दौर में अतीत की अप्सरा को अपने सुघड़ हाथों से तराश रहा था. इतिहास की प्रेम कथाओं में डूबी सौम्या उन्हें कभी वैशाली की नगरवधू आम्रपाली लगती, कभी हाथ में वरमाला लिए संयोगिता बन जाती और कभी गुलाब सी खिलखिलाती नूरजहां, तो कभी हुस्न की मलिका मुमताज नजर आती थी.

सौम्या अपने शोध को प्रामाणिक बनाने के लिए लाइबे्ररियों की सीढि़यां चढ़तीउतरती, ऐतिहासिक प्रणय स्थलों की खाक छानती और दिन भर पढ़तीलिखती. उस की इस शोध यात्रा में एक शख्स हमेशा साये के समान उस के साथ रहता, वह कोई और नहीं, डा. विनय थे.

एक दिन डा. विनय ने सौम्या से पूछा, ‘‘भारत का सर्वश्रेष्ठ पे्रमस्मारक कौन सा है?’’

सौम्या ने तपाक से उत्तर दिया, ‘‘ताजमहल.’’

‘‘क्या कभी चांदनी रात में ताज के दीदार किए हैं?’’

‘‘नहीं, सर.’’

‘‘पूर्णिमा की रात में ताज का खास महत्त्व है,’’ डा. विनय बोले.

‘‘वह क्यों? उस रात उसे देखने से क्या मिलता है?’’

‘‘आंखों को सुख, मन को शांति और हृदय को अपूर्व आनंद. चांदनी रात में ताज की खूबसूरती सिर चढ़ कर बोलती है. ऐसा लगता है कि शाहजहां और मुमताज अपनीअपनी कब्रों से निकल कर एकटक एकदूसरे को निहार रहे हों.’’

‘‘आप सच कह रहे हैं?’’

‘‘इस में झूठ बोल कर क्या मिलेगा.’’

‘‘फिर तो मैं पूनम की रात में ताज अवश्य देखने जाऊंगी. आप मेरे साथ चलेंगे न?’’ सौम्या ने आग्रह से कहा तो डा. विनय चाह कर भी मना नहीं कर पाए.

समीर और जया सुबह ही आगरा पहुंच गए थे. दोनों एक होटल में ठहर गए. सफर की थकान दूर करने के लिए कड़क काफी का सहारा लिया. कुछ देर बाद बे्रकफास्ट किया और फिर अपनेअपने बिस्तर पर पसर गए. जया के मन में समीर को ले कर कोई घबराहट नहीं थी. उसे समीर पर पूरा भरोसा था.

समीर भी खाने को ठंडा कर के खाना चाहता था. उसे कोई उतावलापन नहीं था. वह तो जया के समर्पण की प्रतीक्षा कर रहा था. उसे भरोसा था कि जया कटी पतंग सी उस की बांहों में गिरेगी और वह जैसे चाहेगा, उस के साथ खेलेगा. वक्त ने भी उसे क्या खूब मौका दिया था. पूर्णिमा की रात, चांदनी में चमकता ताज और उस पर हंसतीखिलखिलाती कामिनी का साथ. समीर को इस से अधिक और क्या चाहिए?

जया की आंख खुली तो उस की नजर घड़ी पर पड़ी. शाम के 5 बज चुके थे. उस ने समीर को जगाया, तो समीर ने अंगड़ाई लेते हुए कहा, ‘‘अभी क्या जल्दी है, आज तो चांद भी देर से निकलेगा.’’

‘‘अब उठो भी,’’ जया बोली, ‘‘तैयार होना है, कुछ खानापीना है और फिर ताज भी तो चलना है.’’

‘‘अरे, उठता हूं बाबा, जाओ, पहले तुम तो तरोताजा हो लो, बस, 5 मिनट में उठता हूं. थोड़ी देर और सोने दो.’’

जया ने अकेले बालकनी में खड़े हो कर चाय पी और फिर नहाने चली गई.

जया ने नारंगी रंग की साड़ी पहनी. हलका मेकअप किया, और फिर आईने में खुद को तिरछी नजरों से निहारा तो आईने के किसी कोने में उसे विनय घूरता नजर आया. पल भर के लिए वह ठिठक गई. यह उस के मन का भ्रम था. अगले पल चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुसकान लाते हुए बुदबुदाने लगी, ‘अरे, डा. साहब…आप दून घाटी में इतिहास पढ़ाओ, हम तो खुद अपना इतिहास लिख रहे हैं. वैसे भी तुम कब मेरी पसंद रहे हो. घरपरिवार की मानमर्यादा का खयाल रखते हुए मैं ने हां कर दी थी.’

समीर ने आज सफेद रंग का सूट नेवी ब्लू टाई के साथ पहना. काले चमचमाते जूते. सिर के काले घने घुंघराले बाल उसे हैंडसम बना रहे थे. गठीला बदन, सुंदर, सुदर्शन गोल चेहरा और चेहरे पर मृदुल मुसकान किसी भी औरत का दिल जीतने के लिए काफी थे. समीर ने पहली बार जया को साड़ी में देखा तो बरबस उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘ओह, नाइस, वेरी ब्यूटीफुल.’’

जया ने अपनी तारीफ सुन कर धीरे से हाथ मिलाया तो उस ने जया के हाथ को चूम लिया.

जया ने धीरे से अपना हाथ हटा लिया, तो समीर दिल की बात जबान पर लाते हुए बोला, ‘‘जया, कयामत लग रही हो.’’

‘‘और आप हैंडसम.’’

‘‘कहीं तूफान न आ जाए.’’

‘‘मुझे उस की परवा कब है?’’

समीर ने जया को अपनी बांहों में भर लिया. जया के शरीर में बिजली सी दौड़ गई. उस ने  समीर के गाल पर किस करते हुए बडे़ प्यार से कहा, ‘‘पहले ताज को देख लो, मुमताज को फिर गले लगाना. चलो, देर हो रही है.’’

सौम्या और डा. विनय भी दोपहर बाद आगरा पहुंच गए थे. उन्होंने एक गेस्ट हाउस में कमरा बुक कराया था. शाम ढलने के साथ ही उन दोनों ने भी ताज देखने की तैयारियां शुरू कर दी थीं. सौम्या के लिए यह उत्सुकता और कौतूहल का विषय था और विनय के लिए इतिहास से वर्तमान में आने का सुनहरा अवसर. दोनों को लगता था कि ताज के सम्मुख बैठ कर कुछ दिल के अध्याय खोलेंगे. दोनों जब गेस्ट हाउस से निकले तो ऐसा लगा कि आज के शाहजहां और मुमताज मध्यकालीन प्रणय स्मारक पर प्रेम की नई इबारत लिखने जा रहे हों. ठीक 9 बजे डा. विनय, सौम्या को अपने साथ लिए ताज परिसर में पहुंच गए.

अपनी सोलह कलाओं के साथ चांद आकाश में निकला तो चांदनी ने मुसकरा कर उस का स्वागत किया. चांदनी में नहाया ताज सचमुच बेजोड़ था. लोग ठगे से इस अनुपम दृश्य का आनंद ले रहे थे.

डा. विनय सौम्या को ताज के सामने वाली बेंच पर ले गए और बोले, ‘‘सौम्या, यहां बैठ कर ताज की सुंदरता का अवलोकन करो.’’

‘‘वाह, कितना अपूर्व, कितना स्वच्छ, कितना निर्मल, कितना कोमल, इस के जैसा कोई नहीं. प्रेम की अद्भुत मिसाल,’’ सौम्या के मुख से निकल पड़ा.

‘‘इस का इतिहास नहीं जानोगी?’’ डा. विनय बोले.

‘‘सर, वह मैं ने पढ़ रखा है.’’

‘‘एक तथ्य मैं बता देता हूं. जब शाहजहां को उस के बेटे औरंगजेब ने कैदखाने में डाल दिया, तब वह घंटों तक इस इमारत को देख कर रोता रहता था.’’

‘‘शाहजहां इतना प्यार करते थे मुमताज को?’’ सौम्या आश्चर्य से बोली.

‘‘हां, शाहजहां का प्यार इतिहास में अमर है.’’

इस तरह दोनों अपनी इतिहास चर्चा में इतने मग्न थे कि उन्हें पता ही न चला कि कब उन के बगल वाली बेंच पर एक खूबसूरत जोड़ा आ बैठा है, जो अपनी प्रेमकथा का इतिहास स्वयं लिख रहा है. दोनों एकदूसरे की आंखों में आंखें डाले खुल कर प्रेम का इजहार कर रहे थे.

अचानक सौम्या की नजर पीछे पड़ी तो उस ने समीर को पहचान लिया. एक अनजान औरत को समीर के साथ देख कर उस का चेहरा तमतमा उठा. मुट्ठियां भिंचने लगीं. वह पैर पटकते हुए बगल वाली बेंच के सामने जा खड़ी हुई. समीर अपनी प्रेमलीला में इतना मस्त था कि उसे सौम्या के आने की आहट का भी पता नहीं चला.

सौम्या ने झुंझलाते हुए पूछा, ‘‘कौन है यह औरत? और यह सब क्या है, समीर? तो यहां है, तुम्हारी बरेली. झूठ, मुझे धोखा दे कर रंगरेलियां मना रहे हो.’’

समीर को झटका सा लगा. वह सकपका गया. जया से पल्ला झाड़ते हुए बोला, ‘‘सौम्या, तुम यहां, वह भी अकेली, मुझे बताया तक नहीं.’’

‘‘तो तुम ने क्या मुझे बताया कि तुम आगरा में पराई औरत के साथ गुलछर्रे उड़ा रहे हो.’’

जया की स्थिति काटो तो खून नहीं वाली हो गई थी. सौम्या ने बड़बड़ाना जारी रखा, ‘‘मैं अकेली नहीं आई हूं, मेरे साथ मेरे गाइड डा. विनय आए हैं.’’

विनय का नाम सुनते ही जया के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. वह अपना मुंह छिपा कर वहां से भागना चाहती थी. तभी शोरगुल सुन कर विनय भी वहां पहुंच गए. बनीठनी जया को समीर के साथ देख कर विनय खुद को ठगा सा महसूस करने लगे. उन्होंने तो सपने में भी यह नहीं सोचा था कि जया इस हद तक गिर जाएगी.

आज डा. विनय का एक नए इतिहास से परिचय हो रहा था, जिस में न प्रेम था न त्याग और न समर्पण. यदि था तो केवल फरेब, शरीर का आकर्षण, वासना की भूख और महत्त्वाकांक्षा की अंधी गली.

समीर दूसरे के घर चोरी करने चला था, लेकिन उस के अपने घर भी डाका पड़ने वाला था. हमाम में सभी नंगे थे. चारों एकदूसरे को भूखे भेडि़यों की नजर से देख रहे थे. समीर विनय को घूर रहा था तो जया, सौम्या को. इतिहास ने उन्हें चौराहे पर ला खड़ा किया.

चांद वही था, ताज वही था और चांदनी भी वही थी मगर चेहरों से हंसीखुशी की रंगत गायब थी. माहौल एकदम बदल गया था. शृंगार रस का स्थान अब रौद्र एवं करुण रस ने ले लिया था. बेंचों पर बैठे दोनों जोड़े भी बदल गए थे. पल भर पहले की मुसकान, उत्साह, उमंग और हर्ष अब आरोपप्रत्यारोप, मानमनुहार और पश्चाताप में बदल चुके थे, चारों को अपने किए पर ग्लानि थी. पतिपत्नी के बीच भरोसे का बंधन खिसक रहा था.

प्रेम तो पावन और निर्मल होता है, प्रेम का प्रतीक ताज यही बयां कर रहा था. मंदमंद मुसकरा रहा था और शायद यही कह रहा था, ‘ताज बोले तो…’

जानें बड़ी उम्र के लड़के के साथ डेटिंग करने के फायदे

अपने से ज्यादा उम्र के लड़कों के साथ रिलेशनशिप में आने के कुछ फायदें होते हैं और साथ-साथ नुकसान भी होते हैं. अगर आपका साथी आपसे उम्र में बड़ा होगा तो स्वभाविक है कि उसे आपसे अधिक अनुभव होगा और चीजों की जानकारी भी आपसे अधिक होगी. महिलाएं अपने से बड़े उम्र के लड़कों से अधिक आकर्षित होती हैं क्योंकि वह अपने रिश्ते को लेकर अधिक ईमानदार होते हैं और अपने प्यार को अच्छी तरह दिखा भी पाते हैं. अपने से बड़ी उम्र के लड़के आपको मानसिक और वित्तीय दोनों तरफ से समर्थन देंगे.

  1. प्यार को जताते हैं:

अपने से बड़ी उम्र के लड़के हमेशा अपने प्यार को अलग-अलग तरीकों से अपने साथी को दर्शाते हैं जैसे आपको फूल भेजना, कार्ड देना या कहीं बाहर घुमाने ले जाना. उनकी दुनिया सिर्फ अपनी साथी के आस-पास घूमती रहती है. वह हमेशा आपको खास महसूस कराते हैं. आपकी हर इच्छा को खुशी-खुशी पूरा करने की कोशिश करते हैं.

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2. रिश्ते को समझेगा:

अगर आपका साथी पहले किसी रिलेशनशिप में रहा होगा तो उसे इस बात की जानकारी होगी कि किस कारण से उसका पिछला रिश्ता टूटा. ऐसा ज्यादातर तब होता है जब आपका साथी आपसे बड़ा हो क्योंकि उसे इन चीजों की अच्छे से समझ होगी. वह आपको अपने पिछले रिश्ते की वजह से कभी कोई दुख नहीं होने देगा और ना ही अपने रिश्ते पर उसका प्रभाव पड़ने देगा. वह आपको अपनी जिम्मेदारी के रूप में लेंगे और आपको किसी तरह की तकलीफ नहीं होने देंगे.

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3. आर्थिक सहारा मिलता है:

अपने से बड़े उम्र के लड़के के साथ अगर आप रिलेशनशिप में है तो आप उससे वित्तिय मामलों को लेकर आसानी से चर्चा कर पाएंगी. आपकी जरूरतों का अच्छी तरह ध्यान रखेंगे और अगर कभी आपको पैसों की जरूरत पड़ी तो वह हमेशा आपको सहारा देने के लिए खड़े रहेंगे. लेकिन छोटे उम्र के लड़को के साथ आपको इन बातों को लेकर परेशानी हो सकती है.

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4. भविष्य के बारे में सोचेगा:

अगर आपका साथी उम्र में आपसे बड़ा होगा तो वह आप दोनों के आने वाले भविष्य के बारे में अधिक गहराई से सोचेगा और अपने रिश्ते को लेकर अधिक गंभीर भी होगा. आपके आने वाले भविष्य से जुड़ी छोटी-छोटी बातों का ख्याल रखेगा और उसकी प्लानिंग भी करेगा.

ऐसे बनाएं भेल पूरी

आप भेल पूरी को झट से बना सकते हैं. इसे बनाने के लिए आपको सिर्फ मुरमुरे, सेव, आलू, प्याज, मसाले और चटनी की जरूरत होती है. और इसे बनान भी बेहद आसान है.

सामग्री

2 कप मुरमुरा

1/2 कप सेव

1 कप प्याज, बारीक कटा हुआ

1 कप उबले हुए आलू के टुकड़े

8 पूरी

1 टेबल स्पून हरी चटनी

1/4 टेबल स्पून खजूर की चटनी

1 टेबल स्पून नींबू का रस

1 टेबल स्पून नमक

गार्निशिंग के लिए हरा धनिया

हरी चटनी के लिए:

हरा धनिया

लहसुन

हरी मिर्च

थोड़ा सा नींबू का रस

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बनाने की वि​धि

1.सारी सामग्री को एक साथ मिला लें, सेव और हरा धनिया डालकर गार्निश करके सर्व करें.

हरी चटनी:

1.हरा धनिया, लहसुन, हरी मिर्च और नींबू का रस डालकर इसे एक साथ पीस लें.

पलभर का सच : भाग 2

‘‘शादी के बाद मुझे यह भी पता चला कि अमीरों की भी अलगअलग जातियां होती हैं. शेखर के पिता बड़े अमीर थे जो अपने दोनों बेटों के साथ अपने उद्योग को और बढ़ाना चाहते थे. शेखर की मां का बहुत पहले ही देहांत हो चुका था. घर में हम सिर्फ 4 लोग थे. शेखर के पिता, शेखर का छोटा भाई विशाल, शेखर और मैं. घर के इन 4 लोगों में से मेरी बातचीत सिर्फ शेखर से होती थी. शेखर के पिता ने कभी भी मुझ से आमनेसामने हो कर बात नहीं की थी. जब भी कुछ कहना होता तो शेखर से कह देते कि बहू से कहो…

‘‘विशाल, मेरा छोटा देवर शेखर से सिर्फ 2 साल छोटा था. वह स्वभाव से बेहद शर्मीला था. शुरूशुरू में मैं ने उस से दोस्ती करने के लिए हंसीमजाक करने की कोशिश की तो एक दिन शेखर ने बड़े गंभीर अंदाज में मुझ से कहा था, ‘तुम विशाल से यों हंसीमजाक न किया करो… डैडी को अच्छा नहीं लगता.’

‘‘ ‘तुम्हारे डैडी को तो मैं ही अच्छी नहीं लगती. तभी तो वह सीधे मुंह मुझ से बात ही नहीं करते, जो कहना होता है तुम से कहलवाते हैं और अब विशाल से बात करने को भी मना कर रहे हैं.’

‘‘मैं ने गुस्से में तुनक कर कहा था. इस पर शेखर का जो रौद्र रूप उस रात मैं ने पहली बार देखा था वह आजतक नहीं भूल पाई हूं.

‘‘अपने मजबूत हाथों से मुझे पलंग से उठा कर नीचे गिराते हुए एकदम ही राक्षसी अंदाज में शेखर ने कहा था, ‘इस घर में जो डैडी कहेंगे वही होगा, और तुम्हें भी वही करना होगा. अगर तुम्हें यह सब पसंद नहीं है तो तुम इस घर को छोड़ कर जा सकती हो…मगर तब मैं तुम्हारे साथ नहीं जाऊंगा.’

‘‘और फिर बड़ी बेदर्दी से शेखर बेडरूम छोड़ कर बाहर चला गया था. और मैं रात भर रोती रही थी पर मेरी सिसकियां सुनने वाला वहां कोई नहीं था.

‘‘इस घटना के बाद 15-20 दिनों तक शेखर और मुझ में बोलचाल बिलकुल बंद थी. जाने कितने दिनों तक हम दोनों का यह मौनव्रत चालू रहता मगर एक दिन बात को निरर्थक न बढ़ाने की सोच कर मैं ने ही शेखर से बात करनी शुरू की और फिर शायद मुझे खुश करने के लिए ही वह उस समय मुझे घुमाने स्विट्जरलैंड ले गया था. वह 10-12 दिन जैसे परियों के पंख लगा कर उड़ गए थे. वापसी में मैं ने ही शेखर से कहा था, ‘सोचती हूं, कुछ दिन…मां से मिल आऊं.’

‘‘शेखर ने तब कहा था, ‘चलो, कल ही चले चलते हैं.’

‘मां और बाबूजी हम दोनों को देख कर बहुत खुश हो गए थे. मां तो दामाद की सेवा करतेकरते मुझे भूल ही गई थीं. लेकिन जब उन्होंने मुझे कुछ दिन उन के पास छोड़ जाने की बात शेखर से कही तो उस ने तपाक से मना कर दिया और फिर 2 दिन में ही मैं शेखर के साथ अपने घर वापस आ गई थी. उस वक्त भी मेरा मन बहुत खट्टा हो गया था और रात को शेखर से कुछ कहने ही वाली थी कि उस का तमतमाता हुआ चेहरा देख कर डर के मारे चुप ही रह गई थी.

‘‘इस घटना के बाद हर 15-20 दिनों के बाद कुछ न कुछ ऐसा घट जाता जिस से मैं जान गई कि इस घर में मुझे अपने मन की इच्छा पूरी करने की आजादी कभी मिल ही नहीं सकती. यह बात सच थी कि व्यावहारिक दृष्टिकोण से उस घर में सुख ही सुख था. गहने, कपड़े, खानापीना यानी किसी भी चीज की कोई कमी नहीं थी. शेखर मुझ से प्यार तो बहुत करता था मगर उस के प्यार में मेरी अपनी इच्छा की कोई कद्र नहीं होती थी.

‘‘घर में कुछ काम नहीं था तो मैं ने शेखर से आगे की पढ़ाई करने की बात कहीं तो ‘जरूरत क्या है’ कह कर उस ने मना कर दिया.

‘‘कुछ करने की बात छोड़ो, किसी सहेली से मिलने जाने की बात करती तो हर वक्त शेखर के साथ ही जाना होता था और उसी के साथ वापस भी आना होता था… इसी कारण मैं तुम्हारे घर बहुत कम आती थी. वैसे पूजा के डैडी की आंखों में मैं ने रईसी के प्रति नफरत कब की पढ़ ली थी. तभी तो सचिन व पूजा की शादी से मैं डरती थी. लगता था पूजा को मेरा ही इतिहास न दोहराना पड़े मगर सचिन बहुत समझदार है.

शादी होते ही उस ने अपनी अलग इंडस्ट्री खोल ली और उस में पूजा को भी बराबर का हिस्सेदार बना दिया है. पूजा को सचिन के साथ काम करते देख कर मुझे बहुत अच्छा लगता है. जब पूजा को आफिस में काम करते देखती हूं तो 10 साल पहले की एक बात मुझे याद आती है.

‘‘10 साल पहले शेखर ने जब अपने आफिस में ‘पर्सनल आफिसर’ के तौर पर कविता की नियुक्ति की थी तब जाने कितने दिनों बाद शेखर से मेरी फिर एक बार जबरदस्त लड़ाई हुई थी.

‘‘वह सिर्फ झगड़ा नहीं था शालो… शेखर मुझे मारने पर भी उतर आया था.’’

यह सबकुछ बताते हुए शुभा की आंखें भर आई थीं और फिर जाने कितनी देर तक आंसू बहाते हुए वह निशब्द सी हो कर बैठ गई थी.

शुभा की सारी बातें सुन लेने के  बाद मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि उस से क्या कहूं. मन में बारबार एक ही सवाल उठ रहा था कि शुभा जैसी तेजतर्रार लड़की इतने दिनों तक यों चुप कर दब कर क्यों रह गई.

कुछ न सूझते हुए भी मैं ने अनायास ही शुभा से बेहद सरल सवाल करने शुरू किए थे :

‘‘तू इतने दिनों तक चुप क्यों थी? और अगर इतने दिनों तक चुप थी तो अब एकदम ही तलाक लेने की आफत क्यों मोल ले रही है? क्या अपनी खुद्दारी दिखाने का यही एक रास्ता बचा है तेरे पास? अपना विरोध हर कदम पर दिखा कर भी तो तू शेखर के साथ रह सकती है.’’

‘‘नहीं शालो, मेरी खुद्दारी, स्वाभिमान सब खत्म हो चुके हैं. अब मैं सिर्फ शांति से और अपने तरीके से जीना चाहती हूं.’’

‘‘मतलब, क्या करने वाली है तू?’’

‘‘यहां दिल्ली में एक वृद्धाश्रम खुला है. उस के संचालन का काम मुझे मिल गया है. सोचती हूं जरूरतमंद वृद्धों की सेवा करूंगी तो जीवन में कुछ करने की चाह भी पूरी हो सकेगी.’’

‘‘क्या शेखर ने इस की इजाजत दी है?’’

‘‘उस की इजाजत मिलेगी ही नहीं, यह मुझे पता है तभी तो पहले उस से तलाक ले कर अलग होने का फैसला लिया है. फिर अपना काम करूंगी.’’

‘‘क्या सचिन यह सब जानता है?’’

‘‘हां, जानता है और कुछ हद तक मेरी भावनाओं को समझता भी है मगर तुम्हारी तरह वह भी कहता है कि अब यह सब करने की क्या जरूरत है.’’

‘‘तो फिर सच में जरूरत क्या है, शुभा?’’

‘‘जीवन में ‘जरूरत’ शब्द की व्याख्या हर इनसान अपनेअपने मन से करता है और तब ‘जरूरत’ हर किसी की अलग हो सकती है…10 साल पहले शेखर ने जब अपने आफिस में कविता की नियुक्ति की थी तब हमारा आखिरी झगड़ा हुआ था. उस के बाद मैं ने कभी शेखर से झगड़ा नहीं किया…मैं अपनेआप से ही झगड़ती रही हूं…10 साल से शेखर के मुंह से कविता की तारीफ सुनसुन कर मैं ऊब सी गई हूं.

‘‘मैं जानती हूं कि इस में मेरी स्त्रीसुलभ ईर्ष्या भी हो सकती है लेकिन सच तो यह है कि शेखर के मुंह से कविता की तारीफ सुन कर मैं हैरान हो कर सोचती हूं कि एक इनसान इस तरह अलगअलग हिस्सों में अलगअलग बरताव कैसे कर सकता है.’’

‘‘तो क्या तू समझती है कि शेखर और कविता में कुछ चल रहा है?’’ मैं ने बड़े ही संयत स्वरों में पूछा.

कुछ देर तक तो शुभा चुप रही फिर बड़े ही अटपटे से स्वर में बोली, ‘‘मैं दावे के साथ कुछ नहीं कह सकती मगर यह सच है कि शेखर का अधिकतर समय अब उस के साथ ही बीतता है. मैं यह भी नहीं कह सकती कि शेखर का मेरी तरफ ध्यान ही नहीं है, वह आज भी मेरी हर जिम्मेदारी को पूरा करता है.

त्योहारों में मुझे गहने व साडि़यां दिलाना, मुझे पार्टियों में ले जाना, यह सब कुछ पहले की तरह ही चल रहा है क्योंकि शेखर के जीवन में मैं आज भी ‘बीवी’ नामक ऐसी चीज हूं जिस पर कानूनन शेखर का ही अधिकार है. लेकिन शालो, अब इस तरह सिर्फ एक कानूनन हकदार चीज बन कर रहना मेरे लिए नामुमकिन हो गया है.’’

‘‘और दोनों बच्चों के बारे में तुम ने क्या सोचा है?’’

‘‘बच्चों का सोचतेसोचते ही तो शेखर के साथ 30 साल गुजारे, शालो, अब बच्चे बच्चे नहीं रहे… उन के जीने के अपनेअपने तरीके हैं, उन्हें अपने तरीके से जीने दें…मुन्ना ने भी अपनी शादी तय कर ली है और उस की शादी होते ही मैं मुक्त हो जाऊंगी… जब भी बच्चों को मेरी जरूरत होगी, मैं उन के पास जरूर हो आऊंगी.’’

‘‘उम्र के इस पड़ाव पर आ कर अचानक इस तरह का निर्णय लेने से तुझे डर नहीं लगा?’’

‘‘नहीं, शालो, अब सच में डर नहीं लगता. जीवन भर मैं ने जो मानसिक यातनाएं भोगी हैं उन्हें अब दोबारा बहूबेटों के सामने भुगतने से डर लगता है और इसी से अब मैं निर्भय हो कर जीना चाहती हूं.’’

शुभा की कहानी सुन कर मैं कुछ देर तक तो निशब्द सी बैठी रही फिर शुभा को गले लगा लिया और बोली, ‘‘तेरे इस निर्भीक फैसले पर मुझे गर्व है, शुभा. तेरे इस अनोखे निर्णय में तेरी यह सहेली हमेशा तेरे साथ रहेगी. जब कभी किसी चीज की जरूरत पड़ेगी तो बेहिचक मेरे पास चली आना, समधन समझ कर नहीं, अपनी प्रिय सहेली समझ कर.’’

इतनी सारी मन की बातें मुझ से कह लेने के बाद मेरे कहने पर ही शुभा बहुत ही सामान्य हो कर 2 दिन तक रह गई थी. लेकिन तीसरे दिन एक अनोखी घटना ने शुभा को और मुझे हिला कर रख दिया था.

एक कार दुर्घटना में शेखर की अचानक मौत हो गई और शुभा का जीवन फिर एक बार शेखर से जुड़ गया था.

शुभा को ले कर तुरंत हम लोग मुंबई पहुंचे थे. तो एक बार फिर वह भूचाल में घिर गई थी.

मुंबई में इतने बड़े इंडस्ट्रीयलिस्ट की मौत का ‘नजारा’ किसी त्योहार से कम नहीं था.

शुभा की शुष्क आंखों ने पति की मौत का राजसी ठाटबाट भी ‘संयत’ मन से सह लिया था.

अब इतने बड़े उद्योगपति की विधवा होने का मानसम्मान भी उस के जीवन को त्याग नहीं सकता था. जिस मुक्ति की कामना वह कर रही थी वह तो अपनेआप ही मिल गई थी मगर किस ढंग से?

जीवन को खदेड़ देने वाले मुझ से कहे हुए उस पल भर के ‘सच’ को क्या वह कभी भूल सकती है? और क्या मैं कभी भुला पाऊंगी?

फिल्म ‘पंगा’ में कंगना का लुक हुआ वायरल

बौलीवुड अदाकारा कंगना रानौट लगातार विधितापूर्ण किरदार निभाते हुए अपनी एक अलग पहचान बनाती आ रही हैं.अब वह अश्विनी अय्यर तिवारी के निर्देशन में बनी फिल्म ‘‘पंगा‘’ को लेकर चर्चा में है. इसमें कंगना के साथ रिचा चड्ढा, नीना गुप्ता, जस्सी गिल और पंकज त्रिपाठी भी नजर आएंगे. अब इस फिल्म का ट्रेलर 23 दिसंबर को रिलीज होगा, जबकि फिल्म 24 जनवरी 2020 को पूरे देश के सिनेमाघरों में पहुंचेगी. फिल्म के निर्माताओं ने फिल्म ‘‘पंगा’’ में कंगना रानौट के पहले लुक को जग जाहिर कर दिया है. तो वहीं कंगना रानौट की बहन रंगाली चंदेल ने भी इसे अपने ट्वीटर हैंडल पर पोस्ट कर दिया है. ‘मणिकर्णिका‘ के बाद एक बार पुनः कंगना रानौट फिल्म ‘‘पंगा’’ में मां के किरदार में नजर आएंगी.

रंगोली चंदेल ने अपने ट्वीटर हैंडल पर फिल्म ‘पगा’ में कंगना के लुक की तस्वीर पोस्ट करते हुए लिखा है- ‘‘कंगना कहती हैं कि एक ऐक्ट्रेस के तौर पर सबसे बड़ी बेइज्जती तब होती है जब उन्हें मां के रोल के लिए अप्रोच किया जाता है, हालांकि मणिकर्णिका में एक मां का सफल किरदार निभाए जाने के बाद वह एक बार फिर मां के किरदार में दिखेंगी. आज मेनस्ट्रीम की यह टौप ऐक्ट्रेस अपने करियर के शिखर पर गर्व से मां का रोल निभा रही है. यह नया इंडिया है जिसे ‘पंगा‘ पसंद है.‘’

उधर 23 दिसंबर को हो रहे फिल्म ‘‘पंगा’’के ट्रेलर लांच के लिए कंगना रानौट और निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी ने अपने स्व हस्ताक्षर युक्त निमंत्रण कार्ड हर पत्रकार को भेजे हैं. इस निमंत्रण कार्ड में लिखा है-‘‘जो सपने देखते हैं, वो सो नहीं पाते हैं. उन्हें पूरा किए बगैर बेचैन रहते है. जो सपने देखते है, वो  गिरते हैं, रूकते हैं, वो कमर कसते हैं, हर लिमिट फांद कर बढ़ते है. जो सपने देखते हैं, वही खुद से मिलते हैं. अपनी दुनिया बदलते हैं और हर सपना सच करते हैं. जो सपना देखते है, वो ‘पंगा’ लेते हैं. हर बंधन से,हर रूकावट से, नामुमकीन से, खुद से, जोर लगाकर पंगा लेते हैं..

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कंगना और अश्विनी अय्यर तिवारी द्वारा स्वहस्ताक्षरित निमंत्रण पत्र में हर पत्रकार का नाम कंगना ने अपने हाथ से लिखा है और उसे कूरियर से भिजवाया गया है.

शुभारंभ: क्या राजा-रानी के बीच बढ़ती गलतफहमियाँ कम हो पाएंगी?

कलर्स के शो शुभारंभ में इन दिनों राजा और रानी के बीच गलतफहमी बढ़ती ही जा रही है तो वहीं दूसरी तरफ राजा की माँ रानी के साथ अपने बेटे की शादी का सपना देख रही है, जिसके बारे में दोनों को कुछ पता नही है. अब देखते हैं क्या होगा शो में आगे…

राजा से झूठ कहती है झरना

पिछले एपिसोड में आपने देखा कि राजा और रानी के बीच गलतफहमी बढ़ाने के लिए झरना राजा को कहती है कि रानी उससे प्यार करती है, जिसके कारण राजा का व्यवहार बदल जाता है.

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गलतफहमी दूर करती है रानी

रानी राजा के मैसेज का जवाब देने के लिए गलती से सेल्फी भेज देती है. इस गलतफहमी को दूर करने के लिए रानी मंदिर में राजा से बात करती है और बताती है कि सेल्फी वाला किस्सा गलती से हुआ. इससे राजा को एहसास होता है उसकी खुद की गलती के कारण ये सब हुआ है.

रानी के भाई की लगी लौटरी

रानी के भाई उत्सव की 50 लाख की लौटरी लग गई है, जिसकी खबर उत्सव राजा की मां को बता देता है. लौटरी की खबर सुनते ही राजा की माँ अपने बेटे की शादी रानी से करने की सोचती है. पर वह ये नही जानती की रानी वही लड़की है, जिससे वह डांडिया में मिली थी.

एक-दूसरे से रिश्ते के लिए मिलेंगे राजा रानी

आने वाले एपिसोड में आप देखेंगे कि जहाँ एक तरफ राजा की फैमिली उसे कहती है कि रानी पैसों की लालची है. दूसरी तरफ रानी के दिमाग में ये बात डाली जाती है कि राजा उसके शरीर के पार्टस बेचना चाहता है.

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अब देखना ये है कि आने वाले एपिसोड में क्या राजा-रानी के बीच बढ़ती गलतफहमियां कम हो पाएंगी? जानने के लिए देखते रहिए ‘शुभारंभ’, हर सोमवार से शुक्रवार रात 9 बजे सिर्फ कलर्स पर.

हिना खान और प्रियांक शर्मा की जोड़ी ने म्यूजिक वीडियो से किया धमाल

टेलीविजन एक्ट्रेस हिना खान और प्रियांक शर्मा की दोस्ती से सभी वाकिफ है इनकी दोस्ती बिग बौस सीजन 11 से जारी है. लेकिन अब अगर आपको इन दोनों की बेस्ट केमिस्ट्री  देखनी है तो अरिजीत सिंह के रोमांटिक ट्रैक ‘रांझणा’ में  मिल जाएगी जो आजकल खूब वायरल हो रहा है.

हिना खान और प्रियांक शर्मा का म्यूजिक वीडियो ‘रांझणा’ सांग के रिलीज होते ही सोशल मीडिया पर खूब धूम है. कुछ घंटों में इस म्यूजिक वीडियो को यू ट्यूब पर  लगभग 9 लाख से भी अधिक लोगों ने देखा और पसंद भी किया है.

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हिना ने एक इंटरव्यू के दौरान इस सांग की शूटिंग के बारे में बताया  ‘ये हमारे सबसे मुश्किल शूट में से एक है. हमने 50 डिग्री सेल्सियस की जबरदस्त गर्मी के बीच ये गाना शूट किया है. धूल भी इतनी ज्यादा था कि हमारी आंख, मुंह, सब जगह जा रही थी. हमारा मेकअप भी मेल्ट हो रहा था और तपती जमीन के चलते पैर भी जल रहे थे. मैं बस इतना कहना चाहती हूं कि हमने बहुत मेहनत की  है. मैं इस कहानी की दूसरी साइड बताने की कोशिश कर रही हूं. आपको जो चीज इस समय दिखने में लाजवाब लग रही है उसके लिए हमने काफी पसीना बहाया है, कई चुनौतियों का सामना किया है.’

अर्जित सिंह के गाए ‘रांझणा’ गीत का निर्माण आकांक्षा राहुल शर्मा द्वारा किया गया है और इसे कमलचंद्र ने निर्देशित किया है. इस गाने का संगीत असद खान ने दिया है और लिरिक्स रकीब आलम ने लिखे हैं.

इस वीडियो में हिना खान ब्लू आई मेकअप में बहुत ही खूबसूरत नज़र आ रही हैं.  इसमें हिना के ब्राइडल लुक को भी लोग बहुत पसंद कर रहे है. जिसमें वह पिंक कलर का खूबसूरत लहंगा-चुनरी पहने हुए बहुत सुंदर नज़र आ रही हैं. जिसमें गोल्डन प्रिंट से खूबसूरत एंब्राइड्री की हुई है.

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टीवी सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में बहु अक्षरा के रूप में पहचान बना कर हिना ने अपना करियर शुरू किया था. फिलहाल हिना ने छोटे पर्दे से दूरी बना ली है और अब जल्दी ही फिल्म ‘हैक्ड’ से बौलीवुड में डेब्यू करने जा रही हैं. हाल ही में उन्होंने इस फिल्म की शूटिंग खत्म की है.

फेमस टीवी एक्ट्रेस श्वेता तिवारी का डिजिटल दुनिया में बोल्ड डेब्‍यू

छोटे पर्दे की फेमस एक्ट्रेस श्वेता तिवारी अब टीवी सीरियल के साथ-साथ जल्दी ही औल्ट बालाजी की वेबसीरीज ‘हम तुम और देम’ में दिखेंगी. जी हां अब वह वेब सीरीज से टीवी की डिजिटल दुनिया में डेब्‍यू कर रही हैं जिसमें उन्‍होंने काफी बोल्ड सीन दिए हैं.

इस फिल्म का ट्रेलर रिलीज हो गया है, इसके ट्रेलर को देख कर लग रहा है इसमें श्वेता तिवारी का अब तक का सबसे बोल्ड अंदाज लोगों को देखने को मिलेगा. श्वेता का ये बोल्ड अंदाज आजकल सुर्खियों में छाया हुआ है. youtube पर इस विडियो को लगभग 1 बिलियन लोगों ने देखा है. यह वेब सीरीज ALT बालाजी और जी 5 पर 6 दिसंबर को रिलीज होगी.


आपको बता दे श्वेता तिवारी इस वेब सीरीज में अक्षय ओबरौय के साथ नजर आएंगी. इस सीरीज में अपनी इमेज से अलग इंटीमेट सीन्स करती दिखेंगी. यह एक रोमांटिक रिलेशनशिप और फैमिली ड्रामा पर आधारित वेब सीरीज है.

इसके ट्रेलर से पता चलता है कि इसमें जीवन की सच्चाई को दिखाने की कोशिश की गई है. जिन सिंगल पेरेंट्स के बच्चे बड़े हो जाते हैं वो अक्सर अपने जीवन के बारे में कोई बड़ा फैसला लेने से कतराते हैं. बच्चों के कारण ही वो हमेशा त्याग और बलिदान करते आए. पेरेंट्स अपने बारे में अपने प्यार और दूसरी शादी के बारे में सोच ही नही पाते. इन्हीं ताने-बानो से बनी है ये वेब सीरीज. इस वेब सीरीज के लिए श्वेता ने अपने लुक में भी काफी चेंज किया है . उन्होंने अपने बालों को कट करवा लिया हैं. जिससे वह और भी यंग और खूबसूरत दिख रही है.

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इस समय श्वेता तिवारी सोनी टीवी पर ‘मेरे डैड की दुल्हन’ सीरियल में वरुण बडोला के साथ दिख रही हैं, जिसे काफी पसंद किया जा रहा है. श्वेता का ये अगला टीवी शो एक पिता और बेटी के रिश्ते पर आधारित है इस शो में एक बेटी अपने पिता की जिंदगी में खुशियां फिर से लाना चाहती है और वो इसके लिए अपने पिता की दूसरी शादी कराना चाहती पिता के लिए दूसरी दुल्हन ढूंडने निकली उस बेटी को अपनी मां के रूप में श्वेता मिलेंगी?

वहीं अगर श्वेता की निजी जिंदगी की बात करें तो पहले पति राजा चौधरी से तलाक के बाद उन्होंने अभिनव कोहली से दूसरी शादी की, लेकिन अभिनव और श्वेता के बीच भी दूरियां आ चुकी हैं. श्वेता फिलहाल अपना पूरा ध्यान करियर और दोनों बच्चों पर लगा रही हैं.

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ऐसा तो होना ही था

नमिता की बातें सुन कर ऋचा पलंग पर कटी पतंग की तरह गिर पड़ी. दिल इतनी जोरों से धड़क रहा था मानो निकल कर बाहर ही आ जाएगा. आखिर उस के साथ ही ऐसा क्यों होता है कि उस के हर अच्छे काम में बुराई निकाली जाती है. नमिता के कहे शब्द उस के दिलोदिमाग पर प्रहार करते से लग रहे थे :

‘दीदी मंगलसूत्र और हार के एक सेट के साथ विवाह के स्वागत समारोह का खर्च भी उठा रही हैं तो क्या हुआ, दिव्या उन की भी तो बहन है. फिर जीजाजी के पास दो नंबर का पैसा है, उसे  जैसे भी चाहें खर्च करें. हमारी 2 बेटियां हैं, हमें उन के बारे में भी तो सोचना है. सब जमा पूंजी बहन के विवाह में ही खर्च कर दीजिएगा या उन के लिए भी कुछ बचा कर रखिएगा.’

भाई के साथ हो रही नमिता भाभी की बात सुन कर ऋचा अवाक््रह गई थी तथा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली आई.

नमिता भाभी तो दूसरे घर से आई हैं लेकिन सुरेंद्र तो अपना सगा भाई है. उस को तो प्रतिवाद करना चाहिए था. वह तो अपने जीजा के बारे में जानता है. यह ठीक है कि उस के पति अमरकांत एक ऐसे विभाग में अधीक्षण अभियंता हैं जिस में नियुक्ति पाना, खोया हुआ खजाना पाने जैसा है. लेकिन सब को एक ही रंग में रंग लेना क्या उचित है? क्या आज वास्तव में सच्चे और ईमानदार लोग रह ही नहीं गए हैं?

बाहर वाले इस तरह के आरोप लगाएं तो बात समझ में भी आती है. क्योंकि उन्हें तो खुद को अच्छा साबित करने के लिए दूसरों पर कीचड़ उछालनी ही है पर जब अपने ही अपनों को न समझ पाएं तो बात बरदाश्त से बाहर हो जाती है.

एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. आज उसे वह कहावत अक्षरश: सत्य प्रतीत हो रही थी. वरना अमर का नाम, उन्हें जानने वाले लोग आज भी श्रद्धा से लेते हैं. स्थानांतरण के साथ ही कभी- कभी उन की शोहरत उन के वहां पहुंचने से पहले ही पहुंच जाया करती है.

ऐसा नहीं है कि अपनी ईमानदारी की वजह से अमर को कोई तकलीफ नहीं उठानी पड़ी. बारबार स्थानांतरण, अपने ही सहयोगियों द्वारा असहयोग सबकुछ तो उन्होंने झेला है. कभीकभी तो उन के सीनियर भी उन से कह देते थे, ‘भाई, तुम्हारे साथ तो काम करना भी कठिन है. स्वयं को कुछ तो हालात के साथ बदलना सीखो.’ पर अमर न जाने किस मिट्टी के बने थे कि उन्होेंने बड़ी से बड़ी परेशानियां सहीं पर हालात से समझौता नहीं किया और न ही सचाई व ईमानदारी के रास्ते से विचलित हुए.

मर्मांतक पीड़ा सहने के बाद अगर कोई समय की धारा के साथ चलने को मजबूर हो जाए तो उस में उस का नहीं बल्कि परिस्थितियों का दोष होता है. परिस्थितियों को चेतावनी दे कर समय की धारा के विपरीत चलने वाले पुरुष बिरले ही होते हैं. अमर को उस ने हालात से जूझते देखा था. यही कारण था कि अमर जैसे निष्ठावान व्यक्ति के लिए नमिता के वचन ऋचा को असहनीय पीड़ा पहुंचा गए थे तथा उस से भी ज्यादा दुख भाई की मौन सहमति पा कर हुआ था.

एक समय था जब अमर की ईमानदारी पर वह खुद भी चिढ़ जाती थी. खासकर तब जब घर में सरकारी गाड़ी खाली खड़ी हो और उसे रिकशे से या पैदल, बाजार जाना पड़ता था. उस के विरोध करने पर या अपनी दूसरों से तुलना करने पर अमर का एक ही कहना होता, ‘ऋचा, यह मत भूलो कि असली शांति मन की होती है. पैसा तो हाथ का मैल है, जितना भी हो उतना ही कम है. फिर व्यर्थ की आपाधापी क्यों? वैसे भी सरकार से वेतन के रूप में हमें इतना तो मिल ही जाता है कि रोजमर्रा की जरूरत की पूर्ति करने के बाद भी थोड़ा बचा सकें…और इसी बचत से हम किसी जरूरतमंद की सहायता कर सकें तो मन को दुख नहीं प्रसन्नता ही होनी चाहिए. इनसान को दो वक्त की रोटी के अलावा और क्या चाहिए?’

अमर की बातें ऋचा को सदा ही आदर्शवाद से प्रेरित लगती रही थीं. भला अपनी खूनपसीने की कमाई को दूसरों पर लुटाने की क्या जरूरत है. खासकर तब जब वह सहयोगियों की पत्नियों को गहने और कीमती कपड़ों से लदेफदे देखती और किटी पार्टियों में काजूबादाम के साथ शीतल पेय परोसते समय उस की ओर लक्ष्य कर व्यंग्यात्मक मुसकान फेंकतीं. बाद में ऋचा को लगने लगा था कि ऐसी स्त्रियां गलत और सही में भेद नहीं कर पाती हैं. शायद वे यह भी नहीं समझ पातीं कि उन का यह दिखावा उस काली कमाई से है जिसे देखना भी भले लोग पाप समझते हैं.

ऋचा के संस्कारी मन ने सदा अमर की इस ईमानदारी की दाद दी है. अचानक उसे वह घटना याद आ गई जब अमर के विभाग के ही एक अधिकारी के घर छापा पड़ा और तब लाखों रुपए कैश और ज्वैलरी मिलने पर उन की जो फजीहत हुई उसे देखने के बाद तो उसे भी लगने लगा कि ऐसी आपाधापी किस काम की जिस से कि बाद में किसी को मुंह दिखाने के काबिल ही न रहें.

आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब उस अधिकारी के बहुत करीबी दोस्त, जो वफादारी का दम भरते थे, उस घटना के बाद उस से कन्नी काटने लगे. शायद उन्हें लगने लगा था कि कहीं उस के साथ वह भी लपेटे में न आ जाएं. उस समय उस की पत्नी को अकेले ही उन की जमानत के लिए भागदौड़ करते देख यही लगा था कि बुरे काम का नतीजा भी अंतत: बुरा ही होता है.

आज नमिता की बातें ऋचा को बेहद व्यथित कर गईं. आज उसे दुख इस बात का था कि बाहर वाले तो बाहर वाले उस के अपने घर वाले ही अमर की ईमानदारी पर शक कर रहे हैं, जिन की जबतब वह सहायता करते रहे हैं. दूसरों से इनसान लड़ भी ले पर जब अपने ही कीचड़ उछालने लगें तो इनसान जाए भी तो कहां जाए. वह तो अच्छा हुआ कि अमर उस के साथ नहीं आए वरना उन के कानों में नमिता के शब्द पड़ते तो.

ऋचा को नींद नहीं आ रही थी. अनायास ही अतीत उस के सामने चलचित्र की भांति गुजरने लगा…

पिताजी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. अपनी पढ़ाने की कला के कारण वह स्कूल के सभी विद्यार्थियों में लोकप्रिय थे. वह शिक्षा को समाज उत्थान का जरिया मानते थे. यही कारण था कि उन्होंने कभी ट्यूशन नहीं ली पर अपने छात्रों की समस्याओं के लिए उन का द्वार हमेशा खुला रहता था.

अमर भी उन के ही स्कूल में पढ़ते थे. पढ़ने में तेज तथा धीरगंभीर और अन्य छात्रों से अलग पढ़ाई में ही लगे रहते थे. पिताजी का स्नेह पा कर वह कभीकभी अपनी समस्याओं के लिए हमारे के घर आया करते थे. न जाने क्यों अमर का धीरगंभीर स्वभाव मां को बेहद भाता था. कभीकभी वह हम भाईबहनों को उन का उदाहरण भी देती थीं.

एक बार पिताजी घर पर नहीं थे. मां ने उन के परिवार के बारे में पूछ लिया. मां की सहानुभूति पा कर उन के मन का लावा फूटफूट कर बह निकला. पता चला कि उन की मां सौतेली हैं तथा पिताजी अपने व्यवसाय में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते. सौतेली मां से उन के 2 भाई थे. उन की मां को शायद यह डर था कि उन के कारण उस के पुत्रों को पिता की संपत्ति से पूरा हिस्सा नहीं मिल पाएगा.

अमर की आपबीती सुन कर मां द्रवित हो उठी थीं. उस के बाद वह अकसर ही घर आने लगे. अमर के बालमन पर मां की कही बातें इतनी बुरी तरह से बैठ गई थीं कि वह अनजाने ही अपना बचपना खो बैठे तथा उन्होंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित कर लिया, जिस से कुछ बन कर अपने व्यर्थ हो आए जीवन को नया मकसद दे सकें. पिताजी के रूप में अमर को न केवल गुरु वरन अभिभावक एवं संरक्षक भी मिल गया था. अत: जबतब अपनी समस्याओं को ले कर अमर पिताजी के पास आने लगे थे और पिताजी के द्वारा मार्गदर्शन पा कर उन का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

अमर के बारबार घर आने से हम दोनों में मित्रता हो गई. समय पंख लगा कर उड़ता रहा और समय के साथ ही हमारी मित्रता प्रगाढ़ता में बदलती चली गई. अमर का परिश्रम रंग लाया. प्रथम प्रयास में ही उन का रुड़की इंजीनियरिंग कालिज में चयन हो गया और वह वहां चले गए.

अमर के जाने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरे मन में उन्होंने ऐसी जगह बना ली है जहां से उन्हें निकाल पाना असंभव है. पिताजी को भी मेरी मनोस्थिति का आभास हो चला था किंतु वह अमर पर दबाव डाल कर कोई फैसला नहीं करवाना चाहते थे और यही मत मेरा भी था.

रुड़की पहुंच कर अमर ने एक छोटा सा पत्र पिताजी को लिखा था जिस में अपनी पढ़ाई के जिक्र के साथ घर भर की कुशलक्षेम पूछी थी. पर पत्र में कहीं भी मेरा कोई जिक्र नहीं था. इस के बाद भी जो पत्र आते मैं ध्यान से पढ़ती पर हर बार मुझे निराशा ही मिलती. मैं ने अमर का यह रुख देख कर अपना ध्यान पढ़ाई में लगा लिया तथा अमर को भूलने का प्रयत्न करने लगी.

दिन बीतने के साथ यादें भी धुंधली पड़ने लगी थीं. मैं ने भी धुंध हटाने का प्रयत्न न कर पढ़ाई में दिल लगा लिया. हायर सेकंडरी करने के बाद मैं इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स करने लगी थी. एक दिन मैं कालिज से लौटी तो एक लिफाफा छोटी बहन दिव्या ने मुझे दिया.

पत्र पर जानीपहचानी लिखावट देख कर मैं चौंक उठी. धड़कते दिल से लिफाफा खोला. लिखा था, ‘ऋचा इतने सालों बाद मेरा पत्र पा कर आश्चर्य कर रही होगी पर फिर भी आशा करता हूं कि मेरी बेरुखी को तुम अन्यथा नहीं लोगी. यद्यपि हम ने कभी अपने प्रेम का इजहार नहीं किया पर हमारे दिलों में एकदूसरे की चाहत की जो लौ जली थी, उस से मैं अनजान नहीं था. मुझे अपने प्यार पर विश्वास था. बस, समय का इंतजार कर रहा था. आज वह समय आ गया है.

‘तुम सोच रही होगी कि अगर मैं वास्तव में तुम से प्यार करता था तो इतने सालों तक तुम्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? तुम्हारा सोचना सच है पर उन दिनों मैं इन सब बातों से हट कर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना चाहता था. मैं तुम्हारे योग्य बन कर ही तुम्हारे साथ आगे बढ़ना चाहता था. अब मेरी पढ़ाई समाप्त हो गई है तथा मुझे अच्छी नौकरी भी मिल गई है. आज ही ज्वाइन करने जा रहा हूं अगर तुम कहो तो अगले सप्ताह आ कर गुरुजी से तुम्हारा हाथ मांग लूं. लेकिन विवाह मैं एक साल बाद ही करूंगा. क्योंकि तुम तो जानती ही हो कि मेरे पास कुछ भी नहीं है तथा पिताजी से कुछ भी मांगना या लेना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ है.

‘मैं चाहता हूं कि जब तुम घर में कदम रखो तो घर में कुछ तो हो, घरगृहस्थी का थोड़ाबहुत जरूरी सामान जुटाने के बाद ही तुम्हें ले कर आना चाहूंगा. अत: मुझे आशा है कि मेरी भावनाओं का सम्मान करते हुए जहां इतना इंतजार किया है वहीं कुछ दिन और करोगी पर यह कदम मैं तुम्हारी स्वीकृति के बाद ही उठाऊंगा. एक पत्र इसी बारे में गुरुजी को लिख रहा हूं. अगर इस रिश्ते के लिए तुम तैयार हो तो दूसरा पत्र गुरुजी को दे देना. जब वे चाहेंगे मैं आ जाऊंगा.’

पत्र पढ़ने के साथ ही मेरे मन के तार झंकृत हो उठे थे. इंतजार की एकएक घड़ी काटनी कठिन हो रही थी. पिताजी को पत्र दिया तो वह भी खुशी से उछल पडे़. घर में सभी खुश थे. इतने योग्य दामाद की तो शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

आखिर वह दिन भी आ गया जब सीधेसादे समारोह में मात्र 2 जोड़ी कपड़ों में मैं विदा हो गई. मां को मुझे सिर्फ 2 जोड़ी कपड़ों में विदा करना अच्छा नहीं लगा था लेकिन अमर की जिद के आगे सब विवश थे. हां, पिताजी जरूर अपने दामाद के मनोभावों को जान कर गर्वोन्मुक्त हो उठे थे.

विवाह के कुछ साल बाद ही पिताजी का निधन हो गया. सुरेंद्र उस समय मेडिकल के प्रथम वर्ष में था. दिव्या छोटी थी. मां पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. पेंशन में देरी के साथ पीएफ का पैसा भी नहीं मिल पाया था. घर खर्च के साथ ही सुरेंद्र की पढ़ाई का खर्च चलाना मां के लिए कठिन काम था. तब अमर ने ही मां की सहायता की थी.

अमर से सहायता लेने पर मां झिझकतीं तो अमर कहते, ‘मांजी, क्या मैं आप का बेटा नहीं हूं, जब सुरेंद्र आप के लिए करेगा तो क्या आप को बुरा लगेगा?’

यद्यपि मां ने पिताजी का पैसा मिलने पर जबतब मांगी रकम को लौटाया भी था, पर अमर को उन का ऐसे लौटाना अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि ऐसी सहायता से क्या लाभ जिस का हम प्रतिदान चाहें. अत: जबजब भी ऐसा हुआ मैं मां के द्वारा लौटाई राशि को बैंक में दिव्या के नाम से जमा करती गई. यह सुझाव भी अमर का ही था.

दिव्या उस के विवाह के समय केवल 7 वर्ष की थी. अमर ने उसे गोद में खिलाया था. वह उसे अपनी बेटी मानते थे. इसीलिए दिव्या के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना चाहते थे और साथ ही मां का भार कम करने में अपना योगदान दे कर उन की मदद के साथ गुरुजी के प्रति अपनी श्रद्धा को बनाए रखना चाहते थे. वैसे भी हमारे 2 पुत्र ही हैं. पुत्री की चाह दिल में ही रह गई थी. शायद ऐसा कर के अमर दिव्या के विवाह में बेटी न होने के अपने अरमान को पूरा करना चाहते थे.

मां की लौटाई रकम से मैं ने दिव्या के लिए मंगलसूत्र के साथ हार का एक सेट भी खरीदा था मगर स्वागत समारोह का खर्चा अमर दिव्या को अपनी बेटी मानने के कारण कर रहे हैं. पर यह बात मैं किसकिस को समझाऊं.

आज सुरेंद्र के मौन और नमिता की बातों ने ऋचा को मर्माहत पीड़ा पहुंचाई थी. कितना बड़ा आरोप लगाया है उस ने अमर की ईमानदारी पर. सुनियोजित बचत के कारण जिस धन से आज वह बहन के विवाह में सहायता कर पा रही है उसे दो नंबर का धन कह दिया. वैसे भी 20 साल की नौकरी में क्या इतना भी नहीं बचा सकते कि कुछ गहनों के साथ एक स्वागत समारोह का खर्चा उठा सकें. इस से दो नंबर के पैसे की बात कहां से आ गई. क्या इनसानी रिश्तों का, भावनाओं का कोई महत्त्व नहीं रह गया है.

निज स्वार्थ में लोग इतने अंधे क्यों होते जा रहे हैं कि खुद को सही साबित करने के प्रयास में दूसरों को कठघरे में खड़ा करने में भी उन्हें हिचक नहीं होती. उस का मन किया कि जा कर नमिता की बात का प्रतिवाद करे. लेकिन नमिता के मन में जो संदेह का कीड़ा कुलबुला रहा है, वह क्या उस के प्रतिरोध करने भर से दूर हो पाएगा. नहींनहीं, वह अपनी तरफ से कोई सफाई पेश नहीं करेगी. यदि इनसान सही है और निस्वार्थ भाव से कर्म में लगा है तो देरसबेर सचाई दुनिया के सामने आ ही जाएगी.

अचानक ऋचा ने एक निर्णय लिया कि दिव्या के विवाह के बाद वह इस घर से नाता तोड़ लेगी. जहां उसे तथा उस के पति को मानसम्मान नहीं मिलता वहां आने से क्या लाभ. उस ने बड़ी बहन का कर्तव्य निभा दिया है. भाई पहले ही स्थापित हो चुका है तथा 2 दिन बाद छोटी बहन भी नए जीवन में प्रवेश कर जाएगी. अब उस की या उस की सहायता की किसी को क्या जरूरत? लेकिन क्या जब तक मां है, भाई है, उस का इस घर से रिश्ता टूट सकता है…अंतर्मन ने उसे झकझोरा.

आखिर वह दिन भी आ गया जब दिव्या को दूसरी दुनिया में कदम रखना था. वह भी ऐसे व्यक्ति के साथ जिस को वह पहले से जानती तक नहीं है. जयमाला के बाद दिव्या और दीपेश समस्त स्नेहीजनों से शुभकामनाएं स्वीकार कर रहे थे. समस्त परिवार उन दोनों के साथ सामूहिक फोटोग्राफ के लिए मंच पर जमा हुआ था तभी दीपेश के पिताजी ने एक सज्जन को दीपेश के चाचा के रूप में अमर से परिचय करवाया तो वह एकाएक चौंक कर कह उठे, ‘‘अमर साहब, आप की ईमानदारी के चर्चे तो पूरे विभाग में मशहूर हैं. आज आप से मिलने का भी अवसर प्राप्त हो गया. मुझे खुशी है कि ऐसे परिवार की बेटी हमारे परिवार की शोभा बनने जा रही है.’’

दीपेश के चाचा, जो अमर के विभाग में ही उच्चपदाधिकारी थे, ने यह बात इतनी गर्मजोशी के साथ कही कि अनायास ही मंच पर मौजूद सभी की नजर अमर की ओर उठ गई.

एकाएक ऋचा के चेहरे पर चमक आ गई. उस ने मुड़ कर नमिता की ओर देखा तो उसे सुरेंद्र की ओर देखते हुए पाया. उस की निगाहों में क्षमा का भाव था या कुछ और वह समझ नहीं पाई लेकिन उन सज्जन के इतना कहने भर से ही उस के दिलोदिमाग पर से पिछले कुछ दिनों से रखा बोझ हट गया. सुखद आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि एक अजनबी ने पल भर में ही उस के दिल के उस दंश को कम किया जिसे उस के अपनों ने दिया था.

आखिर सचाई सामने आ ही गई. ऐसा तो एक दिन होना ही था पर इतनी जल्दी और ऐसे होगा ऋचा ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था. वास्तव में जीवन के नैतिक मूल्यों में कभी बदलाव नहीं होता. वह हर काल, परिस्थिति और समाज में हमेशा एक से ही रहे हैं और रहेंगे, यह बात अलग है कि मानव निज स्वार्थ के लिए मूल्यों को तोड़तामरोड़ता रहता है. प्रसन्नता तो उसे इस बात की थी कि आज भी हमारे समाज में ईमानदारी जिंदा है.

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