Download App

सेहत के लिए फायदेमंद है मसाले

खाने में मसालो का अपना ही महत्व है, तो कुछ मसाले सेहत के लिए उपयोगी है.  सही मसाले आपके खाने के स्वाद को कई गुना बढ़ा देते हैं, ठीक वैसे ही मसालों की प्रकृति के बारे में सही जानकारी कई बीमारियों को आपसे कोसों दूर भगा सकती हैं. आप रोज जिन मसालों को उपयोग में लाती हैं, उनके फायदे अनेक हैं. तो चलिए जानते हैं सेहत के लिए कैसे फायदेमंद है मसाले.

हींग– बढ़ती ठंड के कारण आप भी कफ की शिकार हो गई हैं तो हींग को पानी में उबालें. पानी जब हल्का गर्म रहे तो उसे छानकर उस पानी को पिएं. कफ की समस्या में कमी आप खुद महसूस करेंगी. इसके अलावा गैस की समस्या के कारण अगर पेट दर्द हो रहा है तो हींग में हल्का-सा नमक मिलाएं और उसे खाएं. पेट दर्द की परेशानी दूर हो जाएगी.

तेजपत्ता – तेजपत्ता के तेज में एंटीफंगल और एंटी बैक्टीरियल गुण होते हैं और फंगल या बैक्टीरियल इंफेक्शन को दूर करने में यह कारगर होता है.

लाल मिर्च – लाल मिर्च में एंटीऔक्सिडेंट्स होते हैं. ये कोलेस्ट्रौल की बढ़ती मात्र पर अंकुश लगाते हैं और साथ ही कैलोरीज कम करने में भी मदद करते हैं.

 दालचीनी – यह शरीर में इंसुलिन के प्राकृतिक निर्माण को बढ़ावा देता है और कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित रखता है.

लौंग – दांत या मसूढ़े में दर्द है तो मुंह में एक लौंग रख लें. दर्द में लाभ मिलेगा. सीने में दर्द, बुखार, पेट की परेशानियां और सर्दी-जुकाम में भी लौंग फायदेमंद साबित होता है.

ये भी पढ़ें- मोटापे से हैं परेशान तो चबाएं इलायची, मिलेगा फायदा

इलायची –  खीर या मिठाई आदि में आप इलायची के पाउडर का इस्तेमाल तो करती ही होंगी.  मुंह की बदबू दूर करने में इलायची कारगर है. इसके अलावा पेट की समस्याओं को भी यह दूर करती है. अगर डायबिटीज की समस्या है तो साबुत इलायची खाएं.

जीरा – जीरा आयरन का एक अच्छा स्रोत है और शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता को मजबूत रखने में कारगर होता है. पेट खराब होने की स्थिति में पानी में जीरा उबालने के बाद उस पानी को छानकर पीने से लाभ मिलता है.

करी पत्ता –  रायते के स्वाद को बेहतर बनाने वाला करी पत्ता खून में शुगर की मात्रा को कम करने में भी मददगार है.

मेथी – अगर डायबिटीज की शिकार हैं तो हर दिन जरा-सी मेथी खाएं. असर जल्द ही महसूस करेंगी. इसके अलावा मेथी कोलेस्ट्रॉल कम करने में भी मददगार होती है.

ये भी पढ़ें- बच्चों के लिए दांतों के स्वास्थ्य और हाईजीन की महत्ता है बेहद जरूरी

पीली सरसों – सरसों का तेल शरीर की मसाज में और बालों के सही विकास में उपयोगी माना जाता है. सरसों ओमेगा-3 फैटी एसिड का अच्छा स्नोत है. यह आयरन, जिंक, मैग्नीशियम, कैल्शियम और प्रोटीन से भी भरपूर होता है.

 काली मिर्च –  सर्दी-जुकाम और इंफेक्शन से बचाने के अलावा काली मिर्च मांसपेशियों के दर्द को दूर करने में भी कारगर होती है. काली मिर्च के इस्तेमाल से पाचन तंत्र से जुड़ी परेशानियों से भी छुटकारा पाया जा सकता है.

हल्दी – तमाम दवा खाने के बाद भी कफ से निजात नहीं मिल रही है तो हल्दीवाला दूध पिएं, फायदा मिलेगा. हल्दी त्वचा संबंधी परेशानियों को दूर करने में भी मददगार है. यह शरीर की रोगप्रतिरोधी क्षमता को मजबूत बनाती है, जिससे शरीर बीमारियों से लड़ने के लिए खुद को तैयार कर लेता है.

अगर विपक्ष समझे… तो दिल्ली के नतीजों में है राजनीति का दूरगामी संदेश

दिल्ली विधानसभा के चुनाव नतीजे महज मुफ्त के मनोविज्ञान का नतीजा नहीं हैं, जैसा कि केंद्र में सत्तारुढ़ भाजपा अपनी झेंप मिटाने के लिए इन्हें ऐसा बताने और बेशर्मी से साबित करने की कोशिश कर रही है. अगर ये महज मुफ्त का जादू होते तो भाजपा और कांग्रेस ने केजरीवाल से ज्यादा मुफ्तिया सौगातों की घोषणा की थी.लेकिन जनता या कहें मतदाताओं ने न तो भाजपा की घोषणाओं में और न ही कांग्रेस के प्रस्तावों पर. किसी पर भी यकीन नहीं किया. हाल के सालों में चुनावी जीत को लेकर एक बहुसंख्यक राय यह भी बनी है कि आक्रामक रणनीति और रोबोटिक प्रबंधन की बदौलत किसी को भी अपने पक्ष में वोट डालने के लिए मजबूर किया जा सकता है. कहने का मतलब यह मानकर चला जाता है कि मतदाताओं की अपनी कोई स्थाई और दृढ सोच नहीं होती. वास्तव में यह मतदाताओं को राजनीतिक पार्टियों द्वारा मंदबुद्धि समझने की ज्यादती है.

दिल्ली विधानसभा के नतीजे इन सभी सवालों का करारा जवाब हैं. दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को 70 सीटों में 62 सीटें मिलना और भाजपा तथा उसके सहयोगी दलों द्वारा 6 महीने में हजारों जनसभाएं करने के बाद भी महज 8 सीटें पाना इस बात का सबूत है कि विपक्ष भले हताश हो बदलाव को लेकर मतदाता हताश या निराश नहीं है.सच तो यह है कि यह राजनीतिक से ज्यादा, भाजपा और उसकी सहयोगी ताकतों की सोच की नैतिक पराजय है. भाजपा अक्लमंद और ताकतवर तभी साबित हो सकती है जब ईमानदारी से इस पर मंथन करे और देश की आत्मा के विरुद्ध जा रहे अपने सियासी नैरेटिव को बदले.हिन्दुस्तान के लोगों को एक हद से आगे कट्टर नहीं बनाया जा सकता. भाजपा ने 2015 के मुकाबले अपने खाते में 5 सीटों का इजाफा किया है और आम आदमी पार्टी ने 5 सीटें गंवायी हैं.

ये भी पढ़ें- सरकार को ललकारते छात्र

कुल मिलाकर दिल्ली के विधानसभा चुनाव महज दो पार्टियों के उम्मीदवारों की आपसी जंग बनकर रह गये। कांग्रेस को पिछली बार की तरह इस बार भी एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन 2015 में कांग्रेस को जहां 9.7 फीसदी वोट मिला था, वहीं इस बार यह वोट प्रतिशत गिरकर 4.21 फीसदी के आसपास सिमट गया.इससे अंदाजा लगाने की तो कुछ जरूरत नहीं है लेकिन एक खतरनाक आशंका यह बन गई है कि दिल्ली के राजनीतिक नक्शे से इंडियन नेशनल कांग्रेस का सफाया हो चुका है.सिर्फ कांग्रेस ही नहीं इन चुनावों में 625 उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे थे, लेकिन नतीजों को देखने के बाद लगता है कि दौड़ में तो महज 140 उम्मीदवार ही थे बाकी सब चुनावी लड़ाई का कोरम पूरा कर रहे थे. हालांकि लगातार तीसरी बार हैट्रिक पहले भी देश के कई राज्यों में लगायी गई है, जिसकी वजह कोई विशेष राजनीतिक पार्टी या कोई खास चेहरा रहा हो. पश्चिम बंगाल में तो वाम मोर्चे की सरकार तीन दशक से भी ज्यादा समय रही है और एक दौर ऐसा था जब बंगाल के मुख्यमंत्री का नाम लेने पर जहन में सिर्फ कामरेड ज्योति बसु की तस्वीर ही आती थी.

..और तो और इसी राजधानी दिल्ली में कांग्रेस शीला दीक्षित के नेतृत्व में तीन बार लगातार सरकार बना चुकी है.इसलिए केजरीवाल की हैट्रिक सियासत की कोई अजूबी दास्तान नहीं है. बावजूद इसके अब तक देश की किसी भी सियासी पार्टी की किसी राज्य में लगायी गई हैट्रिक से कहीं ज्यादा अगर आप (आम आदमी पार्टी) की हैट्रिक का वजन है तो उसकी वजह देश का मौजूदा सियासी नैरेटिव है. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में पहली बार यानी 2013 में 28, दूसरी बार यानी 2015 में 67 सीटें जीती थी और इस बार उसकी सीटों का आंकड़ा 62 है. 2015 में आम आदमी पार्टी को 54.3 प्रतिशत वोट मिले थे,वहीं भारतीय जनता पार्टी को 32.3 फीसदी और कांग्रेस को 9.7 फीसदी वोट मिले थे. जबकि 2020 में आम आदमी पार्टी को 53.57 फीसदी, भाजपा को 38.51 फीसदी और कांग्रेस को 4.21 फीसदी मत मिले हैं. इससे बिल्कुल साफ है कि बेहद आक्रामक चुनाव रणनीति और आरपार के अंदाज में अपनी रणनीति ही नहीं बल्कि अपनी विचारधारा को पूरी तरह से दांव में लगाने के बाद भी अगर भाजपा को दिल्ली के मतदाताओं ने नकार दिया है तो इसके गहरे और दूरगामी संदेश हैं.

दरअसल 2014 में कई दशकों के बाद भाजपा ने अकेले अपने दम पर आम चुनाव में बहुमत हासिल किया था और 2019 के लोकसभा चुनाव में उसने न सिर्फ इसको दोहराया बल्कि इसे पहले से और बेहतर किया.इन दो राष्ट्रीय चुनावों के बाद देश का सियासी नैरेटिव भाजपा ही तय करने लगी थी और यह माना जाने लगा था कि भाजपा ही न सिर्फ देश का राजनीतिक मूड बल्कि देश की राजनीतिक सोच भी तय करेगी. जिस तरह से पिछले पांच छह सालों में भाजपा ने अलग अलग प्रदेशों में जीत हासिल की थी और देश के मौजूदा गृहमंत्री तथा भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी पहचान एक अपराजय रणनीतिकार के तौरपर विकसित की थी,उससे यह सोचा और समझा जाने लगा था कि देश का सियासी नैरेटिव अब सिर्फ और सिर्फ भाजपा तय करेगी.

साल 2019 के आम चुनावों के जीतने के बाद जिस तरह से उसने ताबड़तोड़ शैली में वो तमाम काम किये जिन्हें पहले बड़े सियासी जोखिम के रूप में देखा जाता था जैसे- कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाना, करीब 90 सालों से लटके राम जन्म भूमि मसले को हल करवाना और तीन तलाक जैसे विधेयक को संसद के दो सदनों में पास कराकर कानून बना देना. ये कुछ ऐसी सफलताएं थीं, जिसके बाद लग रहा था कि अब भाजपा अजेय हो चुकी है.शायद अपने इसी अपराजय एहसास की वजह से भाजपा पिछले कई महीनों से कई मामलों में देश की आम सोच को दरकिनार करते हुए, न सिर्फ अपनी सोच को ताकतवर ढंग से देश में लागू कर रही थी बल्कि डंके की चोट पर ऐसा करते रहने का आभास दे रही थी.

ये भी पढ़ें- राजनीति का छपाक

राजधानी दिल्ली के चुनाव राजनीतिक दृष्टि से कोई बहुत महत्वपूर्ण नहीं थे. एक तो दिल्ली आधा अधूरा राज्य है जिसमें करीब 70 फीसदी राज्य की विभिन्न ताकतें केंद्र सरकार के पास हैं.इसलिए दिल्ली में चुनाव जीत लेना राजनीतिक वजन के हिसाब से कोई खास बात नहीं थी,लेकिन भाजपा ने इसे अपनी आक्रामक विचारधारा और लोकतंत्र के अपने मौडल के अनुमान के कारण बेहद संगीन बना दिया.70 सीटों वाली विधानसभा का चुनाव जीतने के लिए देश की मौजूदा समय में सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ने इतनी ताकत झोंक दी कि एक वक्त आयेगा जब लोग इस पर यकीन नहीं करेंगे.भाजपा ने दिल्ली के चुनाव जीतने के लिए अपने 300 से ज्यादा सांसदों,केंद्रीय कैबिनेट के सदस्यों, विभिन्न राज्यों के अपने और अपने सहयोगी दलों के मुख्यमंत्रियों और संगठन के दर्जनों पदाधिकारियों के साथ-साथ सहयोगी पार्टियों के वरिष्ठ राजनेताओं को भी उतार दिया.

भाजपा ने इन चुनावों को इस कदर हाइप दे दी कि जैसे वह यह चुनाव हार गयी तो उसका अस्तित्व खत्म हो जायेगा.भाजपा की इसी आक्रामक रणनीति और रवैय्ये तथा सबसे ज्यादा इन चुनाव में पाकिस्तान और शाहीन बाग को मुद्दा बनाने के कारण यह आरपार की लड़ाई में बदल गये.इससे सियासी राजनेताओं को ही नहीं गंभीर समाजशास्त्रियों को लगा कि अगर भाजपा ये दिल्ली के चुनाव जीतती है तो देश की राजनीतिक सोच हमेशा-हमेशा के लिए बदल जायेगी. ऐसे में जाहिर है पूरे देश की निगाहें दिल्ली के मतदाताओं पर टिकी थीं और राजधानी के मतदाताओं ने देश ही नहीं दुनिया को संदेश दे दिया हैकि देश का लोकतंत्र मजबूत है और मतदाता परिपक्व.

सोच : भाग 1

कितना फर्क था मिसेज सान्याल और मिसेज अविनाश की सोच में. मिसेज अविनाश के बेटाबहू जितना उन के करीब आने का प्रयास करते वह उन से उतना ही दूर भागने की कोशिश करतीं जबकि मिसेज सान्याल जब भी मिसेज अविनाश से मिलती तो अपनी बहू की तारीफ के पुल बांधे बिना नहीं थकतीं.

हर व्यक्ति के सोचने का तरीका अलग होता है. जरूरी नहीं कि एक व्यक्ति जिस तरह सोचता हो, दूसरा भी उसी तरह सोचे. इसी तरह यह भी जरूरी नहीं कि एक व्यक्ति की सोच को दूसरा पसंद करे. हां, सार्थक सोच से जीवन की धारा जरूर बदल जाती है जहां एक स्थिरता मिलती है, मन को सुकून मिलता है. यह बात मैं ने उस दिन अच्छी तरह से जानी जिस दिन मैं श्रीमती सान्याल के घर किटी पार्टी में गई थी. उस एक दिन के बाद मेरी सोच कब बदली यह खयाल कर मैं अतीत में खो सी गई.

दरवाजे पर उन की नई बहू मानसी ने हम सब का स्वागत किया. मिसेज सान्याल एकएक कर जैसेजैसे हम सभी सदस्याओं का परिचय, अपनी नई बहू से करवाती जा रही थीं वह चरण स्पर्श कर के सब से आशीर्वाद लेती जा रही थी. मानसी जैसे ही मेरे चरण छूने को आगे बढ़ी मैं ने प्यार से उसे यह कह कर रोक दिया, ‘बस कर बेटी, थक जाएगी.’

‘क्यों थक जाएगी?’ श्रीमती सान्याल बोलीं, ‘जितना झुकेगी उतनी ही इस की झोली आशीर्वाद के वजनों से भरती जाएगी.’

श्रीमती सान्याल तंबोला की टिकटें बांटने लगीं तो मानसी सब से पैसे जमा कर रही थी. खेल के बीच में मानसी रसोई में गई और थोड़ी देर में सब के लिए गरम सूप और आलू के चिप्स ले कर आई, फिर बारीबारी से सब को देने लगी.

तंबोला का खेल खत्म हुआ. खाने की मेज स्वादिष्ठ पकवानों से सजा दी गई. मानसी चौके में गरम पूरियां सेंक रही थी और श्रीमती सान्याल सब को परोसती जा रही थीं. दहीबड़े का स्वाद चखते समय औरतें कभी सास बनीं सान्याल की प्रशंसा करतीं तो कभी बहू मानसी की.

ये भी पढ़ें- इक विश्वास था

थोड़ी देर बाद हम सब महिलाओं ने श्रीमती सान्याल से विदा ली और अपनेअपने घर की ओर चल दीं.

घर लौट कर मेरे दिमाग पर काफी देर तक सान्याल परिवार का चित्र अंकित रहा. सासबहू के बीच न किसी प्रकार का तनाव था न मनमुटाव. प्यार, सम्मान और अपनत्व की डोर से दोनों बंधी थीं. हो सकता है यह सब दिखावा हो. मेरे मन से पुरजोर स्वर उभरा, ब्याह के अभी कुछ ही दिन तो हुए हैं टकराहट और कड़वाहट तो बाद में ही पैदा होती हैं, और तभी अलगअलग रहने की बात सोची जाती है. इसीलिए क्यों न ब्याह होते ही बेटेबहू को अलग घर में रहने दिया जाए.

श्रीमती सान्याल मेरी बहुत नजदीकी दोस्त हैं. पढ़ीलिखी शिष्ट महिला हैं. मिस्टर सान्याल मेरे पति अविनाश के ही दफ्तर में काम करते हैं. उन का बेटा विभू और मेरा राहुल, हमउम्र हैं. दोनों ने एक साथ ही एम.बी.ए. किया था. अब दोनों अलगअलग बहु- राष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे हैं.

श्रीमती सान्याल शुरू से ही संयुक्त परिवार की पक्षधर थीं. विभू के विवाह से पहले ही वह जब तब बेटेबहू को अपने साथ रखने की बात कहती रही थीं. लेकिन मेरी सोच उन से अलग थी. पास- पड़ोस, मित्र, परिजनों के अनुभव सुन कर यही सोचती कि कौन पड़े इन झमेलों में.

मैं ने एक बार श्रीमती सान्याल से कहा था, हर घर तो कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ है. सौहार्द, प्रेम, घनिष्ठता, अपनापन दिखाई ही नहीं देता. परिवारों में, सास बहू की बुराई करती है, बहू सास के दुखड़े रोती है.

इस पर वह बोली थीं, ‘घर में रौनक भी तो रहती है.’ तब मैं ने अपना पक्ष रखा था, ‘समझौता बच्चों से ही नहीं, उन के विचारों से करना पड़ता है.’

‘शुरू में सासबहू का रिश्ता तल्खी भरा होता है किंतु एकदूसरे की प्रतिद्वंद्वी न बन कर एकदूसरे के अस्तित्व को प्यार से स्वीकारा जाए और यह समझा जाए कि रहना तो साथसाथ ही है, तो सब ठीक रहता है.’’

ब्याह से पहले ही मैं ने राहुल को 3 कमरे का एक फ्लैट खरीदने की सलाह दी पर अविनाश चाहते थे कि बेटेबहू हमारे साथ ही रहें. उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा भी था कि राधिका नौकरी करती है. दोनों सुबह जाएंगे, रात को लौटेंगे. कितनी देर मिलेंगे जो विचारों में टकराहट होगी.

‘विचारों के टकराव के लिए थोड़ा सा समय ही काफी होता है,’ मैं अड़ जाती, ‘समझौता और समर्पण मुझे ही तो करना पड़ेगा. बहूबेटा, प्रेम के हिंडोले में झूमते हुए दफ्तर जाएं और मैं उन के नाजनखरे उठाऊं?’

अविनाश चुप हो जाते थे.

फ्लैट के लिए कुछ पैसा अविनाश ने दिया बाकी बैंक से फाइनेंस करवा लिया गया. राधिका के दहेज में मिले फर्नीचर से उन का घर सज गया. बाकी सामान खरीद कर हम ने उन्हें उपहार में दे दिया. कुल मिला कर राहुल की गृहस्थी सज गई. सप्ताहांत पर वे हमारे पास आ जाते या हम उन के पास चले जाते थे.

मैं इस बात से बेहद खुश थी कि मेरी आजादी में किसी प्रकार का खलल नहीं पड़ा था. अविनाश सुबह दफ्तर जाते, शाम को लौटते. थोड़ा आराम करते, फिर हम दोनों पतिपत्नी क्लब चले जाते थे. वह बैडमिंटन खेलते या टेनिस और मैं अकसर महिलाओं के साथ गप्पगोष्ठी में व्यस्त रहती या फिर ताश खेलती. इस सब के बाद जो भी समय मेरे पास बचता उस में मैं बागबानी करती.

ये भी पढ़ें- एहसास : नंदी को अपने सच्चे प्यार के लिए कब हुआ एहसास ?

पिछले कुछ दिनों से श्रीमती सान्याल दिखाई नहीं दी थीं. क्लब में भी मिस्टर सान्याल अकेले ही आते थे. एक दिन पूछ बैठी तो हंस कर बोले, ‘आजकल घर में ही रौनक रहती है. आप क्यों नहीं मिल आतीं?’

अच्छा लगा था मिस्टर सान्याल का प्रस्ताव. एक दिन बिना पूर्व सूचना के मैं उन के घर चली गई. वह बेहद अपनेपन से मिलीं. उन के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव तिर आए. कुछ समय शिकवेशिकायतों में बीत गया. फिर मैं ने उलाहना सा दिया, ‘काफी दिनों से दिखाई नहीं दीं, इसीलिए चली आई. कहां रहती हो आजकल?’

अगले भाग में पढ़ें-  इस उम्र में वजन कम रहे तो इनसान कई बीमारियों से बच जाता है.

सोच : भाग 3

मैं उन के चेहरे पर उभरते भावों को पढ़ने का प्रयास करती. न कोई डर, न भय, न ही दुश्ंिचता, न बेचैनी. उम्मीद की डोर से बंधी मिसेज सान्याल के मन में कुछ करने की तमन्ना थी, प्रतिपल.

एक दिन सुबह ही मिस्टर सान्याल का फोन आया. बोले, ‘‘मानसी को लेबर पेन शुरू हो गया है और उसे अस्पताल ले कर जा रहे हैं. मिसेज सान्याल थोड़ा अकेलापन महसूस कर रही हैं, अगर आप अस्पताल चल सकें तो…’’

मैं तुरंत तैयार हो कर उन के साथ चल दी. मानसी दर्द से छटपटा रही थी और मिसेज सान्याल उसे धीरज बंधाती जा रही थीं. कभी उस की टांगें दबातीं तो कभी माथे पर छलक आए पसीने को पोंछतीं, उस का हौसला बढ़ातीं.

कुछ ही देर में मानसी को लेबररूम में भेज दिया गया तो मिसेज सान्याल की निगाहें दरवाजे पर ही अटकी थीं. वह लेबररूम में आनेजाने वाले हर डाक्टर, हर नर्स से मानसी के बारे में पूछतीं. मिसेज सान्याल मुझे बेहद असहाय दिख रही थीं.

मानसी ने बेटी को जन्म दिया. सब कुछ ठीकठाक रहा तो मैं घर चली आई पर पहली बार कुछ चुभन सी महसूस हुई. खालीपन का अहसास हुआ था. अविनाश दफ्तर चले गए थे. रिटायरमेंट के बाद उन्हें दोबारा एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल गई थी. मेरा मन कहीं भी नहीं लगता था. घर बैठती तो कमरे के भीतर भांयभांय करती दीवारें, बाहर का पसरा हुआ सन्नाटा चैन कहां लेने देता था. तबीयत गिरीगिरी सी रहने लगी. स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया. मन में हूक सी उठती कि मिसेज सान्याल की तरह मुझे भी तो यही सुख मिला था. संस्कारी बेटा, आज्ञाकारी बहू. मैं ने ही अपने हाथों से सबकुछ गंवा दिया.

डाक्टर ने मुझे पूरी तरह आराम की सलाह दी थी. राहुल और राधिका मुझे कई डाक्टरों के पास ले गए. कई तरह के टेस्ट हुए पर जब तक रोग का पता नहीं चलता तो इलाज कैसे संभव होता? बच्चों के घर आ जाने से अविनाश भी निश्ंिचत हो गए थे.

राधिका ने दफ्तर से छुट्टी ले ली थी. चौके की पूरी बागडोर अब बहू के हाथ में थी. सप्ताह भर का मेन्यू उस ने तैयार कर लिया था. केवल अपनी स्वीकृति की मुहर मुझे लगानी पड़ती थी. मैं यह देख कर हैरान थी कि शादी के बाद राधिका कभी भी मेरे साथ नहीं रही फिर भी उसे इस घर के हर सदस्य की पसंद, नापसंद का ध्यान रहता था.

राहुल दफ्तर जाता जरूर था लेकिन जल्दी ही वापस लौट आता था.

शुभम अपनी तोतली आवाज से मेरा मन लगाए रखता था. घर में हर तरफ रौनक थी. रस्सियों पर छोटेछोटे, रंगबिरंगे कपड़े सूखते थे. रसोई से मसाले की सुगंध आती थी. अविनाश और मैं उन पकवानों का स्वाद चखते थे जिन्हें बरसों पहले मैं खाना तो क्या पकाना तक भूल चुकी थी.

कुछ समय बाद मैं पूरी तरह से स्वस्थ हो गई. मिसेज सान्याल हर शाम मुझ से मिलने आती थीं. कई बार तो बहू के साथ ही आ जाती थीं. अब उन पर, नन्ही लक्ष्मी को भी पालने का अतिरिक्त कार्यभार आ गया था. वह पहले से काफी दुबली हो गई थीं, लेकिन शारीरिक व मानसिक रूप से पूर्णत: स्वस्थ दिखती थीं.

एक शाम श्रीमती सान्याल अकेली ही आईं तो मैं ने कुरेदा, ‘अब तक घर- गृहस्थी संभालती थीं, अब बच्ची की परवरिश भी करोगी?’

ये भी पढ़ें- स्पर्श दंश

‘संबंधों का माधुर्य दैनिक दिनचर्या की बातों में ही निहित होता है. घरपरिवार को सुचारु रूप से चलाने में ही तो एक औरत के जीवन की सार्थकता है,’ उन्होंने स्वाभाविक सरलता से कहा फिर शुभम के साथ खेलने लगीं.

राधिका पलंगों की चादरें बदल रही थी. सुबह बाई की मदद से उस ने पालक, मेथी काट कर, मटर छील कर, छोटेछोटे पौली बैग में भर दिए थे. प्याज, टमाटर का मसाला भून कर फ्रिज में रख दिया था. अगली सुबह वे दोनों वापस अपने घर लौट रहे थे.

इस एक माह के अंदर मैं ने खुद में आश्चर्यजनक बदलाव महसूस किया था. अपनेआप में एक प्रकार की अतिरिक्त ऊर्जा महसूस होती थी. तनावमुक्ति, संतोष, विश्राम और घरपरिवार के प्रति निष्ठावान बहू की सेवा ने मेरे अंदर क्रांतिकारी बदलाव ला दिया था.

‘मिसेज सान्याल मुझे समझा रही थीं, ‘देखो, हर तरफ शोर, उल्लास, नोकझोंक, गिलेशिकवे, प्यारसम्मान से दिनरात की अवधि छोटी हो जाती है. 4 बरतन जहां होते हैं, खटकते ही हैं पर इन सब से रौनक भी तो रहती है. अवसाद पास नहीं फटकता, मन रमा रहता है.’

पहली बार मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मेरी सोच बदल गई है और अब श्रीमती सान्याल की सोच से मिल रही है. सच तो यह था कि मुझे अपने बच्चों से न कोई गिला था न शिकवा, न बैर न दुराव. बस, एक दूरी थी जिसे मैं ने खुद स्थापित किया था.

आज बहू के प्रति मेरे चेहरे पर कृतज्ञता और आदर के भाव उभर आए हैं. हम दोनों के बीच स्थित दूरी कहीं एक खाई का रूप न ले ले. इस विचार से मैं अतीत के उभर आए विचारों को झटक उठ कर खड़ी हो गई. कुछ पाने के लिए अहम का त्याग करना पड़ता है. अधिकार और जिम्मेदारियां एक साथ ही चलती हैं, यह पहली बार जान पाई थी मैं.

राहुल और राधिका कार में सामान रख रहे थे. शुभम का स्वर, अनुगूंज, अंतस में और शोर मचाने लगा. राहुल, पत्नी के साथ मुझ से विदा लेने आया तो मेरा स्वर भीग गया. कदम लड़खड़ाने लगे. राधिका ने पकड़ कर मुझे सहारा दिया और पलंग पर लिटा दिया फिर मेरे माथे पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘क्या हुआ मां?’’

ये भी पढ़ें- येलो और्किड

‘‘मैं तुम लोगों को कहीं जाने नहीं दूंगी,’’ और बेटे का हाथ पकड़ कर मैं रो पड़ी.

‘‘पर मां…’’

‘‘कुछ कहने की जरूरत नहीं है. हम सब अब साथ ही रहेंगे.’’

मेरे बेटे और बहू को जैसे जीवन की अमूल्य निधि मिल गई और अविनाश को जीवन का सब से बड़ा सुख. मैं ने अपने हृदय के इर्दगिर्द उगे खरपतवार को समूल उखाड़ कर फेंक दिया था. शक, भय आशंका के बादल छंट चुके थे. बच्चों को अपने प्रति मेरे मनोभाव का पता चल गया था. सच, कुछ स्थानों पर जब अंतर्मन के भावों का मूक संप्रेषण मुखर हो उठता है तो शब्द मूल्यहीन हो जाते हैं.

सोच

सोच : भाग 2

मैं सोच रही थी कि इतना सुनते ही श्रीमती सान्याल पानी से भरे पात्र सी छलक उठेंगी, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. वह सहज भाव में बोलीं, ‘विभू के विवाह से पहले मैं घर में बहुत बोर होती थी इसीलिए घर से बाहर निकल जाती थी या फिर किसी को बुला लेती थी. अब दिन का समय घर के छोटेबड़े काम निबटाने में ही निकल जाता है. शाम का समय तो बेटे और बहू के साथ कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता.’

संतुष्ट, संतप्त, मिसेज सान्याल मेरे हाथ में एक पत्रिका थमा कर खुद रसोई में चाय बनाने के लिए चली गईं.

चाय की चुस्की लेते हुए मैं ने फिर कुरेदा, ‘काफी दुबली हो गई हो. लगता है, काम का बोझ बढ़ गया है.’

‘आजकल मानसी मुझे अपने साथ जिम ले जाती है’, और ठठा कर वह हंस दीं, ‘उसे स्मार्ट सास चाहिए,’ फिर थोड़े गंभीर स्वर में बोलीं, ‘इस उम्र में वजन कम रहे तो इनसान कई बीमारियों से बच जाता है. देखो, कैसी स्वस्थ, चुस्तदुरुस्त लग रही हूं?’

कुछ देर तक गपशप का सिलसिला चलता रहा फिर मैं ने उन से विदा ली और घर लौट आई.

लगभग एक हफ्ते बाद फोन की घंटी बजी. श्रीमती सान्याल थीं दूसरी तरफ. हैरानपरेशान सी वह बोलीं, ‘मानसी का उलटियां कर के बुरा हाल हो रहा है. समझ में नहीं आता क्या करूं?’

‘क्या फूड पायजनिंग हो गई है?’

‘अरे नहीं, खुशखबरी है. मैं दादी बनने वाली हूं. मैं ने तो यह पूछने के लिए तुम्हें फोन किया था कि तुम ने ऐसे समय में अपनी बहू की देखभाल कैसे की थी, वह सब बता और जो भूल गई हो उसे याद करने की कोशिश कर. तब तक मैं अपनी कुछ और सहेलियों को फोन कर लेती हूं.’

ये भी पढ़ें- क्योंकि वह अमृत है

अति उत्साहित, अति उत्तेजित श्रीमती सान्याल की बात सुन कर मैं सोच में पड़ गई. ब्याह के एक बरस बाद राधिका गर्भवती हुई थी. शुरू के 2-3 महीने उस की तबीयत काफी खराब रही थी. उलटियां, चक्कर फिर वजन भी घटने लगा था. लेडी डाक्टर ने उसे पूरी तरह आराम करने की सलाह दी थी.

राधिका और राहुल मुझे बारबार बुलाते रहे. एक दिन तो राहुल दरवाजे पर ही आ कर खड़ा हो गया और अपनी कार में मेरा बैग भी ले जा कर रख लिया. अविनाश की भी इच्छा थी कि मैं राहुल के साथ चली जाऊं. पर मेरी इच्छा वहां जाने की नहीं थी. उन्होंने मुझे समझाते हुए यह भी कहा कि अगर तुम राहुल के घर नहीं जाना चाहती हो तो उन्हें यहीं बुला लो.

सभी ने इतना जोर दिया तो मैं ने भी मन बना लिया था. सोचा, कुछ दिन तो रह कर देखें. शायद अच्छा लगे.

अगली सुबह अखबार में एक खबर पढ़ी, ‘कृष्णा नगर में एक बहू ने आत्म- हत्या कर ली. बहू को प्रताडि़त करने के अपराध में सास गिरफ्तार.’

‘तौबातौबा’ मैं ने अपने दोनों कानों को हाथ लगाया. मुंह से स्वत: ही निकल गया कि आज के जमाने में जितना हो सके बहूबेटे से दूरी बना कर रखनी चाहिए.

ये भी पढ़ें- Valentine’s Special – कल हमेशा रहेगा : भाग 4

मां के प्राण, बेटे में अटकते जरूर हैं, मोह- ममता में मन फंसता भी है. आखिर हमारे ही रक्तमांस का तो अंश होता है हमारा बेटा. लेकिन वह भी तो बहू के आंचल से बंधा होता है. मां और पत्नी के बीच बेचारा घुन की तरह पिसता चला जाता है. मां तो अपनी ममता की छांव तले बहूबेटे के गुणदोष ढक भी लेगी लेकिन बहू तो सरेआम परिवार की इज्जत नीलाम करने में देर नहीं करती. किसी ने सही कहा है, ‘मां से बड़ा रक्षक नहीं, पत्नी से बड़ा तक्षक नहीं.’

मैं गर्वोन्नत हो अपनी समझदारी पर इतरा उठी. यही सही है, न हम बच्चों की जिंदगी में हस्तक्षेप करें न वह हमारी जिंदगी में दखल दें. राधिका बेड रेस्ट पर थी. उस ने अपनी मां को बुला लिया तो मैं ने चैन की सांस ली थी. ऐसा लगा, जैसे मैं कटघरे में जाने से बच गई हूं.

प्रसव के समय भी मजबूरन जाना पड़ा था, क्योंकि राधिका के पीहर में कोई महिला नहीं थी, सिर्फ मां थी, उन्हें भी अपनी बहू की डिलीवरी पर अमेरिका जाना पड़ रहा था.

3 माह का समय मैं ने कैसे काटा, यह मैं ही जानती हूं. नवजात शिशु और घर के छोटेबड़े दायित्व निभातेनिभाते मेरे पसीने छूटने लगे. इतने काम की आदत भी तो नहीं थी. राधिका की आया से जैसा बन पड़ता सब को पका कर खिला देती. रात में भी शुभम रोता तो आया ही चुप कराती थी.

3 माह का प्रसूति अवकाश समाप्त हुआ. राधिका को काम पर जाना था. बेटेबहू दोनों ने हमारे साथ रहने की इच्छा जाहिर की थी.

अविनाश भी 3 माह के शिशु को आया की निगरानी में छोड़ कर जाने के पक्ष में नहीं थे, लेकिन मेरी नकारात्मक सोच फिर से आड़े आ गई. मन अडि़यल घोड़े की तरह एक बार फिर पिछले पैरों पर खड़ा हो गया था. मन को यही लगता था कि बहू के आते ही इस घर की कमान मेरे हाथ से सरक कर उस के हाथ में चली जाएगी.

राधिका ने शुभम को अपने ही दफ्तर में स्थित क्रेच में छोड़ कर अपना कार्यभार संभाल लिया. लंच में या बीचबीच में जब भी उसे समय मिलता वह क्रेच में जा कर शुभम की देखभाल कर आती थी. शाम को दोनों पतिपत्नी उसे साथ ले कर ही वापस लौटते थे. दुख, तकलीफ या बीमारी की अवस्था में राधिका और राहुल बारीबारी से अवकाश ले लिया करते थे. मुश्किलें काफी थीं लेकिन विदेशों में भी तो बच्चे ऐसे ही पलते हैं, यही सोच कर मैं मस्त हो जाती थी.

मिसेज सान्याल अकसर मुझे अपने घर बुला लेती थीं. मैं जब भी उन के घर जाती, कभी वह मशीन पर सिलाई कर रही होतीं या फिर सोंठहरीरे का सामान तैयार कर रही होतीं. मानसी का चेहरा खुशी से भरा होता था.

एक दिन उन्होंने, कई छोटेछोटे रंगबिरंगे फ्राक दिखाए और बोलीं, ‘बेटी होगी तो यह रंग फबेगा उस पर, बेटा होगा तो यह रंग अच्छा लगेगा.’

अगले भाग में पढ़ें- कोई गिला था न शिकवा, न बैर न दुराव. बस, एक दूरी थी…

फैसला

श्रुति का दिमाग फिर से परेशान था.  ट्रे में थी वह. अपने आप पर उसे  गुस्सा आ रहा था, ‘तू क्यों जा रही है वहां’. उस का मन खिन्न हो गया. पूरे 15 वर्ष पहले सबकुछ होते हुए भी उसे अपना घर छोड़ना पड़ा था. दिवाकर के प्रति नफरत आज भी बनी हुई थी. नहीं चाहते हुए भी यादें उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं.

आज श्रुति उम्र के तीसरे पड़ाव की दहलीज पर है. जिंदगी में एक तरह से उस के पास सबकुछ था पर असल में उसे कुछ नहीं मिला. दिवाकर से उस ने अपनी मरजी से शादी की थी, मम्मीपापा ने भी कोई एतराज नहीं किया. उस में कोई कमी भी तो नहीं थी जो वे मना करते. बिना शर्तों के उस की शादी दिवाकर से हुई थी. वह अपने इस निर्णय से खुश थी.

शादी के कुछ समय बाद एक दिन वह बोला, ‘श्रुति, मैं ने तुम्हारे लिए नौकरी ढूंढ़ ली है.’ श्रुति हैरान हो गई थी क्योंकि उस को नौकरी करना कभी भी अच्छा नहीं लगता था पर दिवाकर ने उस के चेहरे पर आतेजाते भावों की तरफ से अनजान बन कर अपनी बात को जारी रखा, ‘मैं ने एक विज्ञापन कंपनी में बात की है. तुम्हें तो बस नौकरी के लिए एक अरजी लिख कर उस पर अपने हस्ताक्षर कर के देने हैं, आगे मैं देख लूंगा. नौकरी तो तुम्हें शतप्रतिशत मिल जाएगी.’

उस ने दिवाकर को मना भी किया था, उसे समझाया भी था कि वह अच्छाखासा कमा लेता है और अपनी जरूरतें भी इतनी ही हैं. वह घर संभाल लेगी. उस का मन नौकरी करने का नहीं है पर दिवाकर के जरूरत से ज्यादा दबाव डालने पर उस ने नौकरी के लिए अरजी लिख कर दे दी. कुछ दिन बाद ही नियुक्तिपत्र आ गया.

नौकरी मिलने की खुशी उसे नहीं थी लेकिन दिवाकर को थी. वह बहुत ही खुश नजर आ रहा था. उस समय भी उस ने कोशिश की कि वह किसी तरह मान जाए. उस का मानना था कि इस से समय अच्छा व्यतीत हो जाएगा, कभी उकताहट नहीं होगी जबकि वह इस बात को अच्छे से जानता था कि उसे घर से कभी उकताहट नहीं होती है. वह घर के कामों में अपने को व्य

दिवाकर ने उस को नौकरी दिलवा दी. शुरू में उस को बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था पर दिवाकर को चकाचौंध भरी जिंदगी ज्यादा आकर्षित करती थी. दोनों के बीच उलटा था. अकसर औरतों को ऐशोआराम की जिंदगी ज्यादा पसंद होती है. लेकिन श्रुति सादा जीवन पसंद करती थी. वे दोनों मिल कर खूब अच्छा कमा लेते थे. 5-6 वर्षों में ही उन के पास सबकुछ हो गया था. श्रुति नौकरी छोड़ना चाहती थी. उसे अब बच्चे चाहिए थे. पर दिवाकर नौकरी नहीं छुड़वाना चाहता था. वह हमेशा दूसरों के जीवन को इंगित करता रहता था, ‘देखो, वह कैसे रहता है, उन के पास अपना खुद का घर है. बस, तुम 2-4 वर्ष और नौकरी कर लो. बाद में छोड़ देना.’

श्रुति का बौस उस के काम से बहुत खुश था. उस को प्रमोशन जल्दीजल्दी मिल गए. नहीं चाहते हुए भी दिवाकर के कहने पर उसे अपने बौस को खाने पर बुलाना पड़ा. जिस दिन बौस को आना था, उस से एक दिन पहले ही दिवाकर ने पूरा मैन्यू तैयार किया, अपने हाथों से डाइनिंग टेबल सजा दी, खाना बनाने में उस की पूरी मदद की जबकि वह बिलकुल भी खुश न थी.

श्रुति चाह कर भी दिवाकर को नहीं समझा सकी कि औफिस का काम औफिस तक ही सीमित रखना चाहिए और जब वह अच्छाखासा कमा लेता है और उसे भी वाजिब प्रमोशन मिल ही रहे हैं तो उसे नौकरी में इतना मत घसीटो कि औफिस को और समय देना पड़े और वह इस से इतना उकता जाए कि उस की इजाजत के बिना छोड़ बैठे.

उस दिन जब बौस खाने पर आए तो दिवाकर ने खूब मेहमाननवाजी की. उस ने उन को बातोंबातों में बोल दिया कि यदि श्रुति को अतिरिक्त काम करना पड़ा तो उस को कभी एतराज नहीं होगा. दिवाकर की रुपयों की भूख बढ़ती जा रही थी. पूरा वेतन दिवाकर के हाथों में जाता था. वह अपने मनमुताबिक खर्च करता था. सारा हिसाब वही रखता था. फ्लैट की किस्त, इंश्योरैंस पौलिसी, गाडि़यों की किस्त, मैडिक्लेम सभी कुछ उस के अनुसार होता था. घर में करीबकरीब सभी सामान इकट्ठा कर लिया था. टीवी, फ्रिज, वाश्ंिग मशीन, कंप्यूटर, छोटेबड़े बिजली के सारे उपकरण, क्रौकरी आदि सबकुछ था. ऐसा कुछ भी तो नहीं था जिस की जरूरत हो और वह पास नहीं हो.

नौकरी करतेकरते वह थक चुकी थी पर जब दिवाकर ने बौस के सामने औफिस के समय के बाद अतिरिक्त काम करने का प्रस्ताव रखा तो उस के सब्र का बांध टूट गया. उस का मन कर रहा था उसी समय नौकरी से इस्तीफा दे दे. वह उस को कैसे समझाए कि वह भागतेभागते थक चुकी है. अपनी गृहस्थी बढ़ाना चाहती है. मां बनना चाहती है. पर वह उस की भावनाओं को समझ कर भी नजरअंदाज कर रहा था. घर में क्लेश होने के डर से वह सबकुछ सहने को मजबूर थी. बहरहाल, बौस बहुत खुश हो कर गए.

पता नहीं उस दिन श्रुति का क्या मन किया कि वह 7 दिन की छुट्टी ले कर घर बैठ गई. दिवाकर बहुत नाराज हुआ क्योंकि 7 दिन का वेतन जो कट रहा था. श्रुति को इस बात की कोई चिंता नहीं थी. घर में रह कर घर का काम करने में उसे बहुत आनंद आ रहा था.

ये भी पढ़ें- हादसा : उस हादसे में ऐसा क्या हुआ नेमा के साथ

सप्ताह बाद वह फिर से अपने रुटीन में आ गई. दिवाकर बौस से मिलने के बाद अकसर उन से फोन पर बात करता रहता था जो उसे बिलकुल पसंद नहीं था. वह उस के बौस से घनिष्ठता बढ़ाने की कोशिश में लगा हुआ था पर वह हालात की नजाकत को देख कर चुप रहने में ही अपनी भलाई समझ रही थी.

एक बार बौस ने उसे अपने केबिन में बुलाया और कहा कि औफिस के किसी काम से वे दिल्ली जा रहे हैं, उसे उन के साथ चलना होगा. एक सप्ताह के वेतन के साथ उसे अतिरिक्त रुपया मिलेगा और दिल्ली में रहनाखाना कंपनी के खर्चे पर. लेकिन उस ने साफ शब्दों में इनकार कर दिया और बहाना बना दिया कि पति उसे इस बात की आज्ञा नहीं देंगे.

उस दिन जब वह घर पर आई तो देखा ड्राइंगरूम में एक नई अटैची रखी हुई थी, तभी दिवाकर उस के लिए चाय बना कर ले आया. चाय तो अकसर वह वैसे भी बना कर पिलाता था. उसे पता है कि थकान हो या गुस्सा, चाय पीते ही वह शांत हो जाती है. दोनों चाय पीने लगे.

श्रुति के मन में अटैची के बारे में  जानने की उत्सुकता हो रही थी,  अंदर ही अंदर दिल कुछ अच्छी खबर सुनने को लालायित था. उस ने अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए खुशी को छिपाते हुए पूछा, ‘हम दोनों कहीं बाहर घूमने जा रहे हैं क्या? कहां का प्रोगाम बनाया है?’

दिवाकर बोला, ‘हम नहीं, सिर्फ तुम.’

श्रुति हैरानी से उस की तरफ देखने लगी तो उस ने बौस के साथ हुई सारी बात बताई और कहा कि श्रुति, तुम्हें अपने बौस के साथ 7 दिन के लिए औफिस टूर पर दिल्ली जाना है. उसी के लिए वह अटैची लाया है. पता नहीं उस दिन ऐसा क्या हुआ कि वर्षों का दबा हुआ लावा निकल कर बाहर आ गया. श्रुति का तनमन जल उठा.

दिवाकर द्वारा लाई गई अटैची को उस ने बालकनी से नीचे फेंक दिया और उस को दोटूक जवाब दे दिया कि वह बौस के साथ दिल्ली नहीं जाएगी. ऐसा कहने पर दिवाकर बहुत नाराज हुआ. उस ने कहा कि उस के द्वारा किए वादे का क्या होगा जो उस ने बौस से किया है और फिर वहां रहनेखाने का खर्चा भी तो कंपनी ही उठाएगी. सप्ताह का अतिरिक्त रुपया भी तो मिलेगा. उस दिन वह अपने होशोहवास खो बैठी, एकदम फूट पड़ी, ‘दिवाकर, तुम्हें क्या हो गया है, सारा वक्त तुम पैसापैसा क्यों करते रहते हो. अपने पास किस चीज की कमी है? अपना परिवार बढ़ाने की क्यों नहीं सोचते हो? मैं आज तक नहीं समझ पाई तुम्हारी ख्वाहिशें कब पूरी होंगी.’

दिवाकर ऊंची आवाज में बोला था, ‘तुम जाओगी या नहीं?’

श्रुति के न करते ही उस ने उस के गाल पर जोर से थप्पड़ मारा. थप्पड़ की झन्नाहट आज भी उस के कानों में गूंज रही है. वह एकदम से चिल्लाया था, ‘तुम्हें जाना पडे़गा क्योंकि मैं ने तुम्हारे बौस को हां कर दी है.’

श्रुति उस दिन उस से भी तेज आवाज में चिल्लाई थी, ‘मैं नहीं जाऊंगी. तुम ने मेरे से पूछ कर बोला था क्या?’

दिवाकर ने कहा, ‘तुम मेरी पत्नी हो, मैं तुम्हारी इजाजत के बिना कुछ भी कर सकता हूं और पत्नी होने के नाते तुम्हें मेरा कहना मानना होगा.’

श्रुति उस को देखती रह गई. वह पछता रही थी कि ऐसा दिवाकर में उस ने क्या देखा जो उस के साथ सात फेरे लिए.

दिवाकर द्वारा जोर से थप्पड़ मारने पर उसे रोना नहीं आया बल्कि अपने पर अफसोस हो रहा था कि इस दरिंदे के साथ इतने वर्षों तक क्यों रही, बहुत पहले ही चले जाना चाहिए था. उस रात दिवाकर से ज्यादा सवालजवाब किए बिना वह एक बैग में जितने कपड़े आ सकते थे, रख कर हमेशा के लिए उस को छोड़ आई.

टे्रन अपनी गति से आगे बढ़ रही थी  और पुरानी यादों का सिलसिला  जारी था. श्रुति कभी गालों पर ढलक आए आंसुओं को पोंछ लेती और फिर विचार तंद्रा में खो जाती.

वह मम्मीपापा के पास आ तो गई पर अब क्या करेगी, कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे. पापा ने समझाया था कि बेटा, वापस दिवाकर के पास चली जाओ पर उस ने साफ इनकार कर दिया था, ‘पापा, मैं उस के पास हरगिज नहीं जाऊंगी. दिवाकर को पत्नी की जरूरत नहीं है. उस को रुपया कमाने वाली मशीन चाहिए, जिस की अपनी कोई इच्छा न हो, कोई भावना न हो, अपने ढंग से जीने के माने जिस के लिए महत्त्व नहीं रखते हों, उस के साथ कोई कैसे रहे.

‘मैं इतने वर्षों से अपना पूरा वेतन उस के हाथों में रखती आई थी. अभी भी आते समय मैं ने रुपयों के बारे में उस से झगड़ा नहीं किया. अपनी खुद की मेहनत से कमाए हुए रुपए भी उस से नहीं मांगे. मैं तो सिर्फ घर चाहती थी जहां बच्चों की किलकारियां हों.

‘मैं अपने छोटेछोटे सपनों को सच होते देखना चाहती थी पर दिवाकर को इन सब से नफरत थी, वह सिर्फ पैसा चाहता था, उस के लिए शायद वह अपने को किसी हद तक गिरा भी सकता था. इतने वर्षों में मैं ने दिवाकर को जितना समझा उस आधार पर मैं कह सकती हूं कि वह धनलोलुप इंसान है. उस के लिए किसी की इच्छाएं कोई माने नहीं रखतीं. पापा, उस ने मेरे को कभी समझने की कोशिश ही नहीं की. हम दोनों की शादी को 10 वर्ष हो गए पर आज तक उस ने धन जोड़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचा.

‘जब मैं औफिस से आती थी तो घर मुझे खाने को दौड़ता था. पूरा घर मुझे व्यवस्थित मिलता था, कभी कोई वस्तु अपनी जगह से हिलाई नहीं जाती थी. हिलाता भी तो कौन, घर में हम दोनों ही तो थे. हमारा घर सभी सुविधाओं से अटा पड़ा था पर हम दोनों में से किसी को भी उन का उपयोग करने का समय नहीं था और न ही मन. उस का तो मुझे नहीं पता पर मैं इन सुविधाओं से ऊब चुकी थी. मन करता था इन सब से दूर जा कर कहीं खुल कर सांस लूं, खुले आसमान को निहारूं, पक्षियों की आवाज सुन कर दिल को चैन दूं, वृक्षों के बीच जा कर उन से अपने दिल की बात कहूं. कहते हैं वृक्ष भी बोलते हैं पर वे चाहे मुझ से न बोलें पर मेरे दिल की बात तो सुन सकते हैं और आप से कहती हूं, मैं ही नहीं, दिवाकर भी कभी खुश नजर नहीं आता था. उस को कभी भी संतोष नहीं होता था, वह हमेशा जोड़ने की फिराक में रहता था.’

ट्रेन ने फिर से रफ्तार पकड़ ली. श्रुति को ध्यान आया जब वह मम्मीपापा के पास आ गई थी तो वे लोग कितने चिंतित हो गए थे कि अब क्या होगा. वह स्वयं परेशान थी, क्या करेगी. दिवाकर के साथ रह कर नौकरी करना उस की जरूरत नहीं थी, उस के दबाव में आ कर कर रही थी पर अब मजबूरी है. वह मम्मीपापा, भाभी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी.

ज्यादा भागदौड़ किए बिना उसे एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी मिल गई. स्कूल के पीछे ही उस के रहने की व्यवस्था थी. वह बहुत खुश थी. बच्चों का साथ था. 8वीं कक्षा तक का स्कूल था. दिनभर तो व्यस्त रहती थी परंतु रात के समय उस का अतीत उसे डसने लगता था. हमेशा यही विचार आता, काश, दिवाकर की सोच अच्छी होती तो उस के वैवाहिक जीवन में यह मोड़ न आता. हालांकि आज तक उस के और दिवाकर के बीच में तलाक नहीं हुआ है. दोनों में से किसी एक ने भी इस बारे में नहीं सोचा. पता नहीं, वह कैसा है पर उस की जिंदगी पटरी से उतर चुकी है.

आर्थिक दृष्टि से मजबूत है फिर भी जिंदगी में खालीपन है. आज उसे अपने किए पर अफसोस हो रहा था. जिस मार्ग पर वह चाह कर भी नहीं चलना चाहती थी उसी पर चलना पड़ रहा है. थोड़ी समझदार होने के बाद से ही वह सोचा करती थी कि नौकरी कभी नहीं करूंगी. अपना प्यारा सा घर बसाऊंगी, जहां प्यार ही प्यार होगा पर वह जो चाहती थी उस को नहीं मिला. उस का घरपरिवार तो कभी बना ही नहीं.

कल पापा के नाम तार आया था. दिवाकर की मां का देहांत हो गया. पता नहीं उन लोगों ने क्यों सूचित किया. इस से पहले दिवाकर के बड़े भाई का देहांत हुआ था तब तो सूचना नहीं आई थी. उस समय यदि इत्तला कर देते तो शायद वह चली जाती. और हो सकता था कि जिंदगी में नया मोड़ आ जाता पर अब उन लोगों को उस की याद आई है. उसे पापा ने फोन पर जब इस बारे में बताया था तो उस ने बोल दिया था, ‘तो क्या हुआ, दुनिया में हर दिन कितनी ही

मौतें होती हैं. दिवाकर की मां की भी मौत हो गई तो क्या हुआ, मैं वहां जा कर क्या करूंगी.’

श्रुति के इस जवाब से उस के पापा बुरी तरह से नाराज हुए.

अगले दिन ही मम्मीपापा और भैया उस के घर आ पहुंचे. उन के बहुत समझाने पर वह दिवाकर की मम्मी के तेरहवीं पर जाने को तैयार हुई थी. हालांकि उसे अपने सासससुर से कभी कोई शिकायत नहीं रही. वे लोग एक ही शहर में रहे थे. शुरू में साथ ही थे पर दिवाकर ने प्रौपर्टी बनाने के लिए अलग फ्लैट खरीदा था. मम्मीपापा आते रहते थे. धीरेधीरे उन को दिवाकर और श्रुति के बीच विचारों का जो मतभेद था उस का एहसास हो गया था. उन्होंने दिवाकर को समझाने की बहुत कोशिश की पर उस पर किसी की बात का कोई असर नहीं हुआ. उन्होंने उन दोनों के उन के हाल पर छोड़ दिया.

ट्रेन के रुकते ही उस की विचारतंद्रा भंग हुई. वह अपने मम्मीपापा और भैया के साथ स्टेशन से बाहर आ गई. अब उस शहर में पहुंचते ही उस को लग रहा था वह एकदम अनजान शहर में आ गई है जबकि यहां उस ने अपनी जिंदगी के पूरे 10 वर्ष बिताए थे. ससुराल के घर पहुंच कर घंटी बजाने पर जिस व्यक्ति ने दरवाजा खोला उसे देख कर वह घबरा गई. आधे काले, आधे सफेद बाल, दाढ़ी बढ़ी हुई, आंखों पर चश्मा…उस ने ध्यान से देखा, पैरों में जूतों की जगह गंदी चप्पल. क्या यह वही दिवाकर है? वह ऐसा हो गया? उस को देख कर तो नहीं लगता कि वह कभी वैभवपूर्ण जिंदगी जी रहा था. उस का वैभवहीन व्यक्तित्व देख कर वह हैरान हो गई.

पीछे दिवाकर की बड़ी बहन सीमा दीदी खड़ी थीं. श्रुति ने उन के पैर छुए. वे उस को गले लगा कर बुरी तरह रोने लगीं पर उसे रोना नहीं आ रहा था. कुछ देर वे अपना मन हलका कर वहां से हटीं और उसे दिवाकर के पापा के पास ले गईं. उस ने उन के पैर छुए. उन्होंने आशीर्वाद दिया. बस, इतना ही पूछा, ‘‘कैसी हो, बेटी?’’

श्रुति ने संक्षिप्त सा जवाब दिया, ‘‘ठीक हूं.’’

उसे वहां घुटन हो रही थी. मन ही मन डर था, दिवाकर का सामना कैसे कर पाएगी. उस की परछाईं से ही उसे अजीब सी बेचैनी होने लगती है. धीरेधीरे घर के सभी सदस्यों से मिलना हो रहा था.

उसे जेठानी दीदी कहीं नहीं दिखाई दे रही थीं. उस का मन डर गया. कहीं इन लोगों ने उन को भी उन के पीहर तो नहीं भेज दिया.

दिवाकर के भैया दिवाकर से 1 वर्ष ही बड़े थे लेकिन उन की शादी उस के बाद हुई थी. पर किस से पूछे. यहां तो सब लोग उसे ही पराया समझ रहे हैं. वैसे वह तो है भी पराई. वह स्वयं अपने को मेहमान भी मानने के लिए तैयार न थी. हालांकि दिवाकर के अतिरिक्त उसे किसी भी सदस्य से कोई शिकायत न थी. सामने नजर पड़ी तो देखा, दिवाकर सीढि़यों से नीचे उतर रहा था. शायद उस ने श्रुति को नहीं देखा था. उस का मन हुआ, वह वहां से हट जाए पर फिर सोचा, अभी नहीं तो थोड़ी देर बाद ही सही, सामना तो होना ही है. अब जब यहां आ ही गई है, कब तक उस से बचती फिरेगी. उस ने उस को नजरअंदाज करने के लिए उस तरफ पीठ कर ली.

उसे लगा दिवाकर के कदम उस की तरफ आ रहे हैं लेकिन उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा, केवल एहसास से अनुभव किया. कुछ ही पलों में दिवाकर उस के सामने आ गया. उसे देख कर उस की आंखों में हैरानी और पश्चात्ताप के भाव नजर आ रहे थे. उस को शायद उम्मीद ही नहीं होगी कि वह आएगी. उस की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई थी. वह पूरी तरह से टूट चुका था.

ये भी पढ़ें- स्टैच्यू : दो दीवाने ‘दीवाने शहर’ में

अब तो अभिमान ही नहीं स्वाभिमान भी नहीं रहा था. उस की ऐसी दशा देख कर पलभर के लिए वह विचलित हो गई. पर एकाएक उस ने अपने को संभाल लिया. सोचने लगी, यह वही दिवाकर है जिस ने उसे हमेशा अपने ढंग से जीने को मजबूर किया. उस के व्यक्तित्व को अपनी इच्छाओं तले रौंदा, कभी जीवन जीने नहीं दिया. उस की गलती यही थी कि उस ने कभी इस से प्यार किया था, जिस की सजा भुगत रही है. पर शायद इस ने सिर्फ अपनेआप से प्यार किया. नहीं, मैं इस को कभी माफ नहीं कर सकती.

अचानक दिवाकर की आवाज से वह डर सी गई, ‘‘श्रुति, कैसी हो? चलो उधर चलते हैं.’’

नहीं चाहते हुए भी उस के कदम दिवाकर के पीछेपीछे चल दिए. वे दोनों मम्मी वाले कमरे में गए.

‘‘बैठ जाओ, श्रुति,’’ दिवाकर बोला,  ‘‘तुम वापस आ जाओ, मुझे अपने द्वारा किए गए व्यवहार का बहुत दुख है. हमें माफ कर दो.’’

पर उस का दिल तो पत्थर बन चुका था. वह कुछ नहीं बोली. उस की बातों पर उस ने कुछ भी रिऐक्ट नहीं किया. उस ने पूछा, ‘‘तुम कैसी हो, कैसे जीवननिर्वाह कर रही हो?’’

उस का मन तो किया, उस को कहे कि तुम होते कौन हो यह सब पूछने वाले पर चुप रह गई. उस ने उस से जानने की कोशिश नहीं की कि वह कैसा है, क्या करता है, कहां रह रहा है.

‘‘तुम्हारे जाने के सालभर बाद मैं यहां मम्मीपापा के साथ रहने आ गया था,’’  उस ने खुद ही बताया, ‘‘वह फ्लैट सामान सहित मैं ने बेच दिया. वहां से अपनी व्यक्तिगत जरूरत की वस्तुओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लाया. तुम्हारे जाने के बाद मुझे तुम्हारा महत्त्व समझ में आया. तुम्हारे बिना जिंदगी के माने कुछ नहीं रहे पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. तुम्हारे पास आ कर माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.’’

श्रुति के दिल ने कहा, ‘काश, दिवाकर उस समय तुम ऐसा कर पाते.’ श्रुति का मन दीदी के बारे में जानने को कर रहा था पर वह चुप रही. उसी समय सीमा दीदी आ गईं. दिवाकर के साथ अकेले में रहने में उसे घुटन सी हो रही थी. दीदी के आने पर राहत महसूस हुई.

‘‘तुम दोनों को पापा बुला रहे हैं,’’ उन्होंने कहा.

वे दोनों पापा के पास गए. पापा ने कहा, ‘‘दिवाकर कल रिंकू को लेने उस के होस्टल गया था. वह कल आएगी. आज उस की कोई परीक्षा थी. बहू, बड़ी बहू का देहांत हो चुका है. उस समय हम लोगों ने तुम्हें नहीं बताया, इस के लिए मैं तुम से माफी चाहता हूं. अब दिवाकर की मां भी नहीं रहीं. इसलिए रिंकू की जिम्मेदारी मैं तुम्हें सौंपता हूं. आशा है तुम इनकार नहीं करोगी. दिवाकर के साथ रहने का या नहीं रहने का फैसला तुम्हारे पर ही छोड़ता हूं.’’

आज दिवाकर की मां की मृत्यु को हुए कई दिन बीत चुके थे. तेरहवीं का कार्य सुचारु रूप से संपन्न हो गया. रिंकू भी पहुंच गई थी. रात को ही रिंकू को अपने साथ ले कर श्रुति भारी मन से वापस आ गई. वह उस से ऐसे चिपकी हुई थी जैसे कोई बच्चा डर के बाद मां की गोद से चिपक जाता है. दिवाकर श्रुति व रिंकू को छोड़ने आया था पर दोनों के बीच फासला बना रहा.

श्रुति सोच रही थी जो दिवाकर नहीं कर सका वह बेचारी जेठानी दीदी ने दुनिया से जा कर कर दिखाया. मेरी सूनी गोद भर दी. वह आ तो गई पर ससुर की वृद्धावस्था और दिवाकर के हालात ने उसे फैसला बदलने को मजबूर कर दिया. उस ने तय किया कि रिंकू को होस्टल से हटा कर उस के दादाजी व चाचा के पास रह कर पढ़ाएगी. इस छोटी सी बच्ची को अपनों से दूर रहने को मजबूर नहीं करेगी. अब अगर नौकरी करेगी तो उसी शहर में जहां बच्ची के अपने घर वाले हैं और चाची के रूप में वह उस की मां है.

प्यार, प्रौपर्टी और पत्रकार

मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले का एक कस्बा है पिपलिया मंडी. आसपास के क्षेत्र में यह काफी प्रसिद्ध है. व्यापारिक दृष्टि से कस्बे की पहचान होने की वजह से यहां चहलपहल बनी रहती है. इसी कस्बे में अन्न्पूर्णा टाकीज के पास लवली चौराहे पर पत्रकार कमलेश जैन का औफिस था. वह हिंदी दैनिक अखबार नई दुनिया के लिए काम करते थे. इस के अलावा वह ध्रुव न्यूज एजेंसी भी चलाते थे.

कमलेश जैन वरिष्ठ पत्रकार थे, जो पिछले 24 सालों से इस काम में लगे थे. इसलिए पिपलिया मंडी क्षेत्र में ही नहीं, मंदसौर जिले में भी उन की अच्छी पहचान थी.

दैनिक अखबारों के पत्रकार दिन भर समाचार जुटा कर शाम को समाचार तैयार कर के अपने अखबार के लिए भेजते हैं. कमलेश और उन के सहयोगी अवतार भी जुटाए समाचारों को अंतिम रूप देने में लगे थे.

उसी समय एक मोटरसाइकिल उन के औफिस के ठीक सामने आ कर रुकी, जिस पर 2 युवक सवार थे. उन में से एक तो मोटरसाइकिल पर ही बैठा रहा, पीछे बैठा युवक उतर कर कमलेश के औफिस में घुस गया. अवतार को लगा कि किसी समाचार के सिलसिले में आया होगा, क्योंकि औफिस में अकसर लोग समाचारों के सिलसिले में आते रहते हैं. इसलिए अवतार ने उस की ओर ध्यान नहीं दिया. वह अपने काम में लगे रहे.

लेकिन जब एक के बाद एक, 2 गोलियों के चलने की आवाज कमलेश जैन के चैंबर से आई तो वह सन्न रह गए. वह कमलेश के चैंबर में पहुंचते, उस के पहले ही वह युवक तेजी से बाहर निकला और बाहर खड़ी मोटरसाइकिल पर बैठ कर अपने साथी के साथ भाग गया. इस के बाद कमलेश की हालत देख कर उन्होंने शोर मचा दिया, जिस से आसपास के लोग इकट्ठा हो गए.

किसी ने फोन कर के यह जानकारी पुलिस को दे दी तो थाना पिपलिया मंडी के टीआई अनिल सिंह तत्काल दलबल के साथ मौके पर पर पहुंच गए. सब से पहले उन्होंने कमलेश को इलाज के लिए नजदीक के अस्पताल पहुंचाया.

उन की हालत गंभीर थी, इसलिए उन्हें मंदसौर के जिला अस्पताल भेज दिया गया. लेकिन अस्पताल पहुंचने से पहले ही उन्होंने रास्ते में दम तोड़ दिया. उन की मौत की खबर सुन कर तमाम पत्रकार और उन के शुभचिंतक अस्पताल पहुंच गए. सभी हैरान थे कि एक पत्रकार की हत्या क्यों कर दी गई?

नेताओं और पत्रकारों ने किया प्रदर्शन

कमलेश के घर वालों ने उन की हत्या के मामले में 7 लोगों कमल सिंह, जसवंत सिंह, जितेंद्र उर्फ बरी उर्फ जीतू, इंदर सिंह उर्फ बापू उर्फ विक्रम सिंह और शकील के खिलाफ नामजद रिपोर्ट लिखाई. कमलेश जैन की हत्या से कस्बे और पुलिस महकमे में हलचल मची हुई थी. अगले दिन पत्रकार कमलेश की शवयात्रा के समय जिले भर के पत्रकार, राजनीतिक दलों के नेताओं ने हत्याकांड की निंदा करते हुए हत्यारों को जल्द से जल्द गिरफ्तार करने की मांग की.

मामला एक वरिष्ठ पत्रकार की हत्या का था. पत्रकारों, राजनीतिज्ञों के अलावा तमाम सामाजिक संगठनों का भी पुलिस पर दबाव पड़ रहा था. लिहाजा पुलिस नामजद अभियुक्तों की तलाश में जुट गई. पुलिस को अभियुक्तों के राजस्थान के एक गांव में होने की जानकारी मिली तो पुलिस की एक टीम राजथान रवाना हो गई. इस टीम ने वहां एक गांव से 5 अभियुक्तों को हिरासत में ले लिया.

हत्या से कुछ दिनों पहले इन लोगों से कमलेश का विवाद हुआ था, इसलिए पुलिस को उम्मीद थी कि इन की गिरफ्तारी से मामले का खुलासा हो जाएगा. लेकिन पुलिस पूछताछ में जब साफ हो गया कि घटना वाले दिन वे पिपलिया मंडी में नहीं थे, तो पुलिस थोड़ा निराश हुई.

पुलिस ने तरीके से नामजद लोगों के बारे में जानकारी निकलवाई, इस में साफ हो गया कि इन लोगों का कमलेश से विवाद जरूर था, लेकिन हत्या में इन का हाथ नहीं है, इसलिए पुलिस ने उन्हें छोड़ दिया.

इस के बाद पुलिस ने नए सिरे से मामले की जांच शुरू की. 35 दिन बाद भी कमलेश जैन के हत्यारों का पता न लगने से लोगों में पुलिस के प्रति आक्रोश बढ़ रहा था. पत्रकार और सामाजिक संगठन विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. इस बीच मंदसौर के पुलिस अधीक्षक ओ.पी. त्रिपाठी दंगा कांड में निलंबित हो चुके थे. उसी मामले में पिपलिया मंडी के टीआई अनिल सिंह को भी पुलिस मुख्यालय भेज दिया गया था.

दरअसल, मध्य प्रदेश के किसानों ने प्याज का मूल्य बढ़ाने को ले कर पूरे सूबे में जिला मुख्यालयों पर प्रदर्शन किया था. मंदसौर में प्रदर्शन के समय पुलिस ने किसानों पर लाठीचार्ज कर दिया था, जिस के बाद किसान उग्र हो गए थे और वहां दंगा भड़क उठा था. इस के बाद प्रशासन को मंदसौर में कर्फ्यू तक लगाना पड़ा था. इसी मामले में एसपी ओ.पी. त्रिपाठी को निलंबित कर दिया गया था.

ओ.पी. त्रिपाठी के निलंबित होने के बाद मनोज कुमार सिंह को मंदसौर का नया एसपी बनाया गया तो कमलेश सिंघार को थाना पिपलिया मंडी का थानाप्रभारी बना दिया गया. नए एसपी ने कमलेश जैन की हत्या वाले मामले को एक चुनौती के रूप में ले कर सीएसपी राकेश शुक्ला तथा थानाप्रभारी कमलेश सिंघार के साथ मीटिंग कर कमलेश जैन के हत्यारों को जल्द गिरफ्तार करने का निर्देश दिया.

तमाम जांच के बाद भी पुलिस को नहीं मिला क्लू

सीएसपी राकेश मोहन शुक्ल, टीआई कमलेश सिंघार सुलझे हुए पुलिस अधिकारी हैं, इसलिए उन्होंने जांच की शुरुआत मृतक कमलेश जैन के व्यवसाय से की. जांच में उन्हें पता चला कि लगभग 2 दशक से पत्रकारिता से जुड़े कमलेश जैन का इलाके में कई लोगों से विवाद चल रहा था. कमलेश के औफिस के पास लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज देखी गई तो पता चला कि हत्यारे कुछ ही सैकेंड में कमलेश की हत्या कर मोटरसाइकिल से खत्याखेड़ी की ओर भाग गए थे.

पहले पुलिस का ध्यान सीसीटीवी फुटेज की तरफ नहीं गया था. इस फुटेज से पता चला था कि हत्यारों की मोटरसाइकिल शाम 7 बज कर 54 मिनट और 47 सैकेंड पर कमलेश के औफिस के सामने आ कर रुकी थी. उस के बाद उन में से एक आदमी उतर कर कमलेश के औफिस में गया और कुछ ही समय में उन्हें गोलियां मार कर बाहर आया और मोटरसाइकिल पर बैठ कर चला गया. इस काम में उसे केवल 12 सैकेंड लगे थे.

इस से पुलिस को लगा कि हत्यारा काफी शातिर था. पुलिस यह भी अंदाजा लगा रही थी कि हत्यार सुपारी किलर भी हो सकते हैं. कमलेश अपराधियों के खिलाफ भी लिखते थे. कहीं उन्हें अपने किसी समाचार या लेख की वजह से तो जान से हाथ नहीं धोना पड़ा.

इस बात का पता लगाने के लिए पुलिस ने पिछले 6 महीने में कमलेश की अखबारों में छपी खबरों का अध्ययन किया. इस के अलावा कमलेश से रंजिश रखने वालों के बारे में पता किया, पर सफलता नहीं मिली.

कई महिलाओं से थे कमलेश के संबंध

जब किसी भी तरह अपराधियों के बारे में कोई सुराग हाथ नहीं लगा तो टीआई कमलेश सिंघार ने अपनी टीम को कमलेश के निजी जीवन के बारे में पता करने में लगा दिया. क्योंकि कमलेश 47 साल के होने के बावजूद अविवाहित थे. पुलिस को पता चला कि जिस दिन उन की हत्या हुई थी, उस के 2 दिन बाद यानी 2 जून, 2017 को वह शहर के एक प्रतिष्ठित परिवार की विधवा बहू संध्या से शादी करने वाले थे.

पुलिस ने उन के मोबाइल नंबर की काल डिटेल्स का अध्ययन किया तो पता चला कि उन के कई महिलाओं से संबंध थे. संध्या सहित करीब 10 महिलाओं से उन की देर रात तक मोबाइल पर बातें होती रहती थीं. थानाप्रभारी ने इन महिलाओं के बारे में पता किया तो जानकारी मिली कि जिन महिलाओं से उन की बातचीत होती थी, उन का संबंध मीडिया से बिलकुल नहीं था.

यह भी पता चला कि इन महिलाओं से कमलेश के काफी करीबी संबंध थे. जिन में से प्रीति और कमलेश के संबंधों की जानकारी आसपास के लोगों के अलावा उस के पति को भी थी. लेकिन कमलेश की पहुंच के आगे वह चुप था.

थानाप्रभारी ने कमलेश की अन्य प्रेमिकाओं से पूछताछ की तो पता चला कि कमलेश और संध्या शादी करना चाहते थे. इस बात को ले कर संध्या की ससुराल वाले खुश नहीं थे. संध्या की ससुराल वालों को यह बात प्रीति ने ही बताई थी, क्योंकि प्रीति को शक था कि कमलेश की संध्या से नजदीकी की वजह से वह उस से दूर हो रहा था.

कमलेश सिंघार ने संध्या और उस की ससुराल वालों के फोन नंबरों की काल डिटेल्स निकलवा कर जांच की तो पता चला कि कमलेश की हत्या से पहले और बाद में संध्या के जेठ सुधीर की अपने दोस्त धीरज अग्रवाल से कई बार बात हुई थी. सुधीर के बारे में पुलिस को पहले से ही पता था कि पिपलिया मंडी के कई नामी अवैध धंधेबाजों तथा अफीम तस्करों से उस के संबंध हैं.

कमलेश सिंघार ने सुधीर जैन के बाद धीरज अग्रवाल के फोन नंबर की भी काल डिटेल्स निकलवाई, जिस में पता चला कि जबजब सुधीर और धीरज के बीच बात होती थी, उस के बाद धीरज अग्रवाल प्रतापगढ़, राजस्थान जेल में बंद पिपलिया मंडी के कुख्यात बदमाश आजम लाला से बात करता था.

घटना वाले दिन भी उस ने आजम लाला के नाबालिग बेटे रज्जाक से बात की थी. संदेह वाली बात यह थी कि घटना वाले दिन कमलेश की हत्या के समय रज्जाक की लोकेशन पिपलिया मंडी की थी.

आजम लाला का बेटा रज्जाक वैसे तो नाबालिग था, पर इस उम्र में ही उस के खिलाफ कई गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हो चुके थे. इस से कमलेश सिंघार को लगा कि कमलेश की हत्या के मामले में सुधीर जैन, धीरज अग्रवाल, आजम लाला और उस का बेटा एक महत्त्वपूर्ण कड़ी हो सकते हैं. लेकिन नामीगिरामी करोड़पति व्यापारी पर हाथ डालना उन के लिए आसान नहीं था.

आजम लाला के नाबालिग बेटे रज्जाक को पुलिस ने किया गिरफ्तार

कमलेश सिंघार एसपी मंदसौर मनोज सिंह के निर्देश पर आजम लाला के बेटे रज्जाक को पूछताछ के लिए थाने ले आए. उस से की गई पूछताछ में सारी घटना सामने आ गई. पता चला कि कमलेश और संध्या के संबंधों से नाराज संध्या के जेठ सुधीर जैन ने अपने दोस्त धीरज अग्रवाल के माध्यम से आजम लाला और मंदसौर जेल में बंद गोपाल संन्यासी को कमलेश की हत्या की 50 लाख की सुपारी दी थी.

पूरा सच सामने आ गया तो छापा मार कर संध्या के जेठ सुधीर जैन और उस के दोस्त धीरज अग्रवाल तथा हत्या का षडयंत्र रचने वाले धर्मेंद्र मारू को गिरफ्तार कर लिया गया, जबकि हत्या वाले दिन रज्जाक के साथ कमलेश की हत्या के लिए मोटरसाइकिल पर आया रज्जाक का चचेरा भाई सुलेमान लाला पुलिस को चकमा दे कर फरार हो गया.

इस के बाद हत्या में प्रयुक्त पिस्टल और मोटरसाइकिल बरामद कर ली गई. पूछताछ के बाद सभी आरोपियों को अदालत में पेश कर के जेल भेज दिया गया.

पुलिस द्वारा की गई पूछताछ में इश्क की नदी में तैरने वाले कमलेश जैन की हत्या की जो कहानी सामने आई, इस प्रकार थी—

कमलेश जैन कस्बा पिपलिया मंडी में पत्रकारिता के क्षेत्र में अच्छीखासी पकड़ रखते थे. गैरकानूनी काम करने वालों से अकसर कमलेश जैन का विवाद होता रहता था. लेकिन उन की एक कमजोरी हुस्न थी. जिस के कारण कई महिलाओं से उन के संबंध बन गए थे. कमलेश की सब से चर्चित प्रेमिका प्रीति थी. प्रीति के ऊपर वह दिल खोल कर पैसे खर्च करते थे.

प्रीति के पति को भी पता था कि उस की पत्नी के संबंध कमलेश से हैं, लेकिन कमलेश के रुतबे की वजह से वह चुप था. प्रीति भी कमलेश की दीवानी थी. वह कमलेश पर अपना अधिकार समझने लगी थी. लेकिन कुछ महीनों से संध्या प्रीति के इस अधिकार के बीच दीवार बन कर खड़ी हो गई थी.

मंदसौर निवासी संध्या की शादी पिपलिया मंडी के रईस व्यवसायी के छोटे भाई नवीन के साथ हुई थी. सुधीर जैन करीब 1 अरब की संपत्ति के मालिक थे. इन संपत्तियों में उन के 3 भाइयों का हिस्सा था. सुधीर जैन ने यह संपत्ति गोपाल संन्यासी तथा आजम लाला की मेहरबानी से बनाई थी.

चर्चा है कि सुधीर जैन और उस के भाई नवीन द्वारा इलाके की विवादित जमीन औनेपौने दामों पर खरीद कर आजम लाला, गोपाल संन्यासी जैसे बदमाशों की मदद से कब्जा कर के बाजार के दामों पर बेच कर मोटी कमाई की थी.

सुधीर के छोटे भाई नवीन की अचानक मौत हो गई तो संध्या विधवा हो गई. देखा जाए तो एक तिहाई संपत्ति संध्या की थी, लेकिन भाई की मौत के बाद सुधीर के मन में लालच आ गया था. उस ने संध्या को थोड़ीबहुत संपत्ति दे कर अलग कर दिया. काफी कहने के बाद भी जब संध्या को प्रौपर्टी से हिस्सा नहीं मिला तो वह अपने मायके में जा कर रहने लगी.

वह जानती थी कि उस के जेठ सुधीर जैन ने उस के साथ धोखा किया है. वह अपने हिस्से की जायदाद लेना चाहती थी. ससुराल में रहते हुए उस ने सुना था कि कमलेश जैन एक ईमानदार पत्रकार है और वह सच्चाई का साथ देता है, इसलिए वह अपनी संपत्ति के मामले में मदद के लिए पत्रकार कमलेश जैन के पास पहुंची.

कमलेश ने लालच में बनाए संध्या से संबंध

काफी खूबसूरत और जवान संध्या जैन कमलेश की जातिबिरादरी की भी थी. उसे पता चला कि कमलेश की अभी शादी नहीं हुई है तो उस का दिन उस पर आ गया. संध्या की खूबसूरती पर कमलेश भी मर मिटा था. कमलेश ने सोचा कि अगर संध्या से उस की शादी हो जाती है तो उस के हिस्से की करोड़ों की संपत्ति का वह मालिक बन जाएगा. इसलिए वह संध्या की मदद करने लगा.

लगातार मिलनेमिलाने से संध्या और कमलेश के बीच प्रेमसंबंध बन गए. उन के संबंध इस मुकाम पर पहुंच गए कि उन्होंने शादी करने का फैसला कर लिया.

जीवन में संध्या के आने के बाद कमलेश ने पुरानी प्रेमिका प्रीति से नाता तोड़ लिया था. जबकि प्रीति कमलेश को छोड़ना नहीं चाहती थी, क्योंकि प्रीति का ज्यादातर खर्चा कमलेश ही उठाता था. यही वजह थी कि प्रीति संध्या से चिढ़ रही थी.

जब प्रीति को पता चला कि कमलेश जैन संध्या से 3 जून, 2017 को शादी करने जा रहे हैं तो प्रीति ने कमलेश और संध्या के संबंधों की शिकायत संध्या के जेठ सुधीर जैन से कर दी.

इस से प्रीति को लगा कि संध्या पर अंकुश लग जाएगा. सुधीर को जब संध्या और कमलेश के संबंधों का पता चला तो उसे बहुत गुस्सा आया. उसे लगा कि अगर संध्या ने कमलेश से शादी कर ली तो कमलेश का सहारा पा कर वह अपने हिस्से की सारी जायदाद ले कर मानेगी.

कमलेश जैन के रहते सुधीर संध्या पर दबाव नहीं बना सकता था, जिस से सुधीर जैन को करोड़ों की जायदाद हाथ से जाती दिखाई देने लगी. सुधीर की यह परेशानी उस के दोस्त धीरज अग्रवाल से छिपी नहीं थी, इसलिए उस ने उसे सलाह दी कि इस तरह चुप बैठने से काम नहीं चलेगा, हमें कोई ठोस काररवाई करनी होगी.

सुधीर जैन की तरह धीरज अग्रवाल भी गैरकानूनी तरीके से पैसा कमा रहा था. सुधीर की ही तरह उस के भी कई कुख्यात बदमाशों से संबंध थे. धीरज की बात सुधीर की समझ में आ गई. उस ने कमलेश को रास्ते से हटाने के लिए धीरज से मदद मांगी. धीरज इस के लिए तैयार हो गया.

प्रतापगढ़ जेल में बंद आजम लाला तथा मंदसौर जेल में बंद गोपाल संन्यासी से धीरज के अच्छे संबंध थे. धीरज दोनों से जेल जा कर मिला. उन्होंने कमलेश की हत्या के लिए 50 लाख रुपए मांगे. बात तय हो गई. इस के बाद सुधीर जैन से 5 लाख रुपए ले जा कर अखपेरपुर में आजम लाला के बेटे रज्जाक को दे दिए. बाकी के रुपए कमलेश की हत्या के बाद दिए जाने थे.

50 लाख की सुपारी मिलते ही बदमाश हो गए सक्रिय

5 लाख रुपए हाथ में आते ही आजम लाला ने प्यादे तलाशने शुरू कर दिए. परंतु मंदसौर जिले में अधिकांश अपराधियों पर पुलिस का शिकंजा कसा था. कई तो जेल में बंद थे तथा कई भूमिगत हो चुके थे, इसलिए आजम को शूटर मिलने में परेशानी हो रही थी. दूसरी ओर प्रीति ने सुधीर को बता दिया था कि संध्या और कमलेश 3 जून को शादी करने वाले हैं, इसलिए सुधीर हर हाल में 3 जून से पहले कमलेश की हत्या करवा देना चाहता था.

धीरज अग्रवाल ने यह बात आजम को बताई तो आजम ने कमलेश की हत्या का काम अपने नाबालिग बेटे रज्जाक को सौंप दिया. रज्जाक नाबालिग उम्र में ही अपने बाप के कदमों पर चल पड़ा था. वह तमाम आपराधिक वारदातों को अंजाम दे चुका था, इसलिए वह हिस्ट्रीशीटर बन गया था.

पिता का आदेश मिलते ही उस ने कमलेश की हत्या की साजिश रचनी शुरू कर दी. इस के लिए उस ने चौपाटी बस्ती निवासी धर्मेंद्र धारू को फरजी सिम दे कर कमलेश पर नजर रखने की जिम्मेदारी सौंप दी. धर्मेंद्र ने रज्जाक को कमलेश के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि कमलेश सुबह से शाम तक समाचार के लिए इधरउधर भटकने के बाद शाम 7 बजे तक लवली चौराहे पर स्थित अपने औफिस आ जाता है.

रज्जाक ने अपने काम के लिए यही समय तय किया. कमलेश की हत्या की योजना बना कर रज्जाक अपने चचेरे भाई सुलेमान उर्फ सत्तू लाला के साथ मोटरसाइकिल से पिपलिया मंडी पहुंच गया. घटना के समय सुलेमान मोटरसाइकिल ले कर सड़क पर खड़ा था, जबकि नाबालिग रज्जाक ने कमलेश के चैंबर में जा कर उसे गोली मार दी थी. अपने काम को अंजाम दे कर वह सुलेमान के साथ वहां से भाग गया था.

इस तरह प्यार और प्रौपर्टी के चक्कर में पत्रकार कमलेश जैन मारा गया. इस ब्लाइंड मर्डर का पर्दाफाश करने वाली पुलिस टीम की एसपी मनोज सिंह ने काफी सराहना की है.

सरोगेसी विधेयक : संस्कारी छाया से अभी भी मुक्त नहीं हुआ?

हम भारतीय इस मामले में बड़े पाखंडी हैं कि हमें सुविधाएं तो हर किस्म की चाहिए.लेकिन वे संस्कार या नैतिकता के लबादे से ढकी भी हों. यह तथाकथित संस्कार या नैतिकता वास्तव में शोषण का एक चोर दरवाजा होता है.कमर्शियल सरोगेसी यानी किराय पर कोख पर प्रतिबंध का अनुमोदन करने वाली  संसदीय तदर्थ समिति की सिफारिशों में भी इसकी मौजूदगी देखी जा सकती है.हालांकि सरोगेसी (नियमन) विधेयक 2019 पहले के मुकाबले काफी बेहतर है.इसकी मौजूदा सिफारशें इस प्रकार हैं-

  • न केवल ‘करीबी रिश्तेदार’ को बल्कि किसी भी ‘इच्छुक महिला’ को सरोगेट मां बनने दिया जाये.
  • कोख किराये पर लेने से पहले पांच वर्ष की प्रतीक्षा अवधि पूरी की जाय.
  • 35 से 45 वर्ष की सिंगल व तलाकशुदा महिला तथा भारतीय मूल के व्यक्तियों (पीआईओ) को भी सरोगेसी की सुविधा लेने दी जाये.
  • सरोगेट मां के लिए बीमा कवर 16 माह से बढ़ाकर 36 माह कर किया जाए.साथ ही सरोगेट मां को मेडिकल खर्च व बीमा कवर (जिसमें पौष्टिक फूड जरूरतें आदि शामिल हैं) के अलावा मुआवजा भी दिया जाए.

भाजपा सांसद भूपेन्द्र यादव के नेतृत्व वाली 23-सदस्यों की समिति ने दस बैठकों के बाद अपनी ये सिफारिशें 5 फरवरी 2020 को दीं. अब इन सिफारिशों पर स्वास्थ्य मंत्रालय विचार करेगा और विधेयक में संभवतः इनके अनुरूप परिवर्तन करके विधेयक को एक बार फिर संसद में पेश करेगा. सरोगेसी (नियमन) विधेयक 2019 में सरोगेसी के जरिये जन्मे बच्चे के अधिकारों को सुरक्षित रखने का भी प्रस्ताव है. गौरतलब है कि लोकसभा ने 5 अगस्त 2019 को जो सरोगेसी (नियमन) विधेयक 2019 पारित किया था,उसमें कमर्शियल सरोगेसी पर प्रतिबंध लगाने के अलावा केवल नजदीकी रिश्तेदार के जरिये परमार्थ सरोगेसी की ही अनुमति दी गई थी,साथ ही सिंगल महिला के लिए सरोगेसी सुविधा हासिल करने पर प्रतिबंध था.इन्हीं कारणों से यह विधेयक तब राज्यसभा में अटक गया था,इस कारण इसे पुनःमूल्यांकन हेतु तदर्थ समिति के पास भेजा गया था.

ये भी पढ़ें- आर्थिक नुकसान के बाद भी डटी हैं अपने पल्लुओं को परचम बना चुकीं महिलाएं

हालांकि तब यह कोई पहला अवसर नहीं था जब यह विधेयक  तदर्थ समिति के पास भेजा गया था.वास्तव में इसके पहले सरोगेसी (नियमन) विधेयक 2016 लोकसभा में 21 नवम्बर 2016 को पेश किया गया था, लेकिन राज्यसभा चेयरमैन व लोकसभा स्पीकर के आपसी मशवरे से 12 जनवरी 2017 को तदर्थ समिति को सौंप दिया गया था. उस समिति के अध्यक्ष समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सदस्य राम गोपाल यादव थे,उस समिति में बीजेपी के 12 सांसद शामिल थे. राम गोपाल यादव के नेतृत्व वाली समिति सरकार के इस ‘संस्कारी’ दृष्टिकोण से सहमत नहीं थी कि ‘केवल संतानहीन विवाहित जोड़ों के लिए ही सरोगेसी की व्यवस्था हो और वह भी परमार्थ’ यानी मुफ्त में. इसलिए उसने कहा था, “एक महिला को यह तो अनुमति हो कि वह दूसरे व्यक्ति को मुफ्त में प्रजनन उपलब्ध कराये,लेकिन उसे अपने प्रजनन श्रम के लिए आर्थिक मेहनताना लेने से रोकना, न सिर्फ अनुचित बल्कि  मनमाना है.इस समिति ने माना था कि अल्ट्रूइस्टिक सरोगेसी यानी परमार्थ या मुफ्त में कोख किराये पर देना एक अन्य अतिवाद है.

वास्तव में सरोगेट बनने की इच्छुक महिला से बहुत अधिक आशाएं लगाई जाती हैं कि वह बिना किसी मुआवजे या मेहनताने के केवल नेक इरादों और दया पर आधारित निर्णय ले व नि:स्वार्थ प्रजनन श्रम प्रदान करे. गर्भधारण कुछ पल का जॉब नहीं है,यह नौ माह का श्रम है, जिसमें संबंधित महिला के स्वास्थ्य, समय व परिवार पर दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं.परमार्थ व्यवस्था में संतान के इच्छुक जोड़े को बच्चा मिल जाता है.डाक्टर, वकील व अस्पताल को अपना पैसा मिल जाता है.सिर्फ सरोगेट मां से यह आशा की जाती है कि वह बिना एक पैसा पाए परहितवाद का पालन करे.”राम गोपाल यादव समिति सरकार के प्रस्तावों के विपरीत सरोगेसी पर अधिक उदार कानून के पक्ष में थी,जिसमें लिव-इन जोड़ों, तलाकशुदा महिलाओं व विधवाओं को भी सरोगेट चयन करने का अधिकार था.भारतीय परिवार में महिला विरोधी शक्ति संरचना की निंदा करते हुए समिति ने सरोगेसी के लिए परमार्थ पर मुआवजे को वरीयता दी थी.

समिति का मानना था कि लिव-इन जोड़ों सहित सभी को परिवार में या परिवार के बाहर सरोगेट चयन का अधिकार हो.दूसरे शब्दों में समिति इस पक्ष में नहीं थी कि सरोगेसी ‘परिवार की बपौती’ बनकर रह जाये.लेकिन सरकार ने राम गोपाल यादव समिति की सिफारिशों को स्वीकार नहीं किया और सरोगेसी (नियमन) विधेयक 2016 में कुछ गैर जरूरी से परिवर्तन करके उसे सरोगेसी (नियमन) विधेयक 2019 के रूप में लोकसभा में पारित करा दिया, जोकि राज्यसभा में अटका और भूपेन्द्र यादव समिति का गठन हुआ. भूपेन्द्र यादव समिति ने भी लगभग राम गोपाल यादव समिति जैसी ही सिफारिशें की हैं, केवल इस मुख्य अंतर के साथ कि कमर्शियल सरोगेसी पर रोक लगे.इस समिति ने सरोगेट मां के लिए अतिरिक्त मुआवजे का विकल्प खोलने का प्रयास किया है. दूसरे शब्दों में भूपेन्द्र यादव समिति भी स्वीकार करती है कि परामर्थ या मुफ्त सरोगेसी व्यवहारिक नहीं है.

भला एक महिला दूसरों को संतान सुख देने के लिए नौ महीने मुफ्त में क्यों कष्ट उठाये? ‘इच्छुक महिला’ किसी ‘इच्छा’ से ही तो सरोगेट बनने की ‘इच्छा’ व्यक्त करेगी और अधिकतर मामलों में पैसे से बड़ी कोई इच्छा नहीं होती. इसलिए कमर्शियल सरोगेसी पर प्रतिबंध व्यवहारिक नहीं है.हां, गरीब महिलाओं के शोषण को रोकने के लिए कानून अवश्य होना चाहिए.इसके लिए सरोगेसी को व्यवस्थित व संगठित करने की भी जरूरत है.भूपेन्द्र यादव समिति यह तो चाहती है कि सरोगेसी का विकल्प लेने के लिए पांच वर्ष की प्रतीक्षा अवधि की शर्त हटा दी जाये क्योंकि कुछ मेडिकल स्थितियां ऐसी हैं जिनमें महिला गर्भधारण कर ही नहीं सकती जैसे जन्म से ही गर्भाशय का न होना आदि जिसका अर्थ यह है कि जिस विवाहित जोड़े को मेडिकली यह ज्ञात हो जाता है कि वह सामान्य रूप से संतान सुख प्राप्त नहीं कर सकता, उसे सरोगेसी का विकल्प लेने के लिए पांच वर्ष तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी, लेकिन सिंगल महिला के लिए यह शर्त लगाना कि वह 35 से 45 वर्ष आयु वर्ग में हो और तलाकशुदा या विधवा हो, अजीब व विरोधाभास से भरा प्रतीत होता है.

ये भी पढ़ें- समाचारपत्र व पत्रिकाओं के नाम : न काम, न धाम, न दाम

आखिर जन्म से गर्भाशय न होने, कैंसर, फिब्रोइडस आदि के कारण गर्भाशय निकलवाने जैसी स्थितियां तो एक अविवाहित या लिव-इन रिलेशनशिप वाली महिला को भी हो सकती हैं तो उसे सरोगेसी का विकल्प लेने से क्यों वंचित किया जाये? उस पर 35 वर्ष से अधिक आयु या तलाकशुदा/विधवा होने की शर्त भी क्यों लगाई जाये? जाहिर है भूपेन्द्र यादव समिति भी ‘संस्कार’ व आधुनिक जरूरतों के बीच पूरी तरह से तालमेल स्थापित नहीं कर पायी है.

सचिन तेंदुलकर से मुठभेड़!

सचिन तेंदुलकर  देश के महान क्रिकेटर हैं सो एक दिन संपादक जी ने कहा- बैठे-बैठे तुम एक नंबर के आलसी पत्रकार हो गए हो, आज हमें किसी दिग्गज क्रिकेटर का इंटरव्यू चाहिए और वह भी सचिन तेंदुलकर का, मैंने सुना तो, खोखली हंसी हंसकर रह गया.संपादक जी ने कहा-जा रहे हो न! उनकी  धमक  भरी वाणी  ने असर किया,मै विवश हो, लडखड़ाता अपने घर की ओर चला. सो मैने  अपना धर्म निभाया. एक पत्रकार क्या कर सकता है ?  मैंने सचिन से मुठभेड़ करने की सोची और चद्दर ओढ़ कर सो गया.
“महाशतक” की खुशी में उद्योगपति मुकेश अंबानी ने जश्न ( पार्टी )का आयोजन रखा था.जिसमें देश के नामचीन लोगों को बुलाया गया  था. आमिर खान, सलमान खान, अभिषेक बच्चन,दीपिका पादुकोण , प्रियंका चोपड़ा सहित बौलीवुड के नगीने भी इस मौके पर मौजूद थे. मैंने देश के एक मूर्धन्य जर्नलिस्ट का वेश बनाकर पार्टी में शिरकत की और मौका देखकर सचिन तेंदुलकर  के आसपास भटकने लगा और मौका मिलते ही बातचीत शुरू कर दी.
मै- सचिन जी, नमस्कार ! मैं जर्नलिस्ट आपका एक धांसू सा साक्षात्कार चाहता हूं.
सचिन- आप ? मैंने पहचाना नहीं, आप किस चैनल  से हैं.
 मै-( हड़बड़ा कर ) जी.. जी ..मै देश के नामचीन मीडिया  का स्पेशल करस्पान्डेट हूं.
सचिन – लेकिन, मैंने पहले तो कभी आपको देखा नहीं.
मै- ( पानी पानी होते हुए ) जी! मैं पहले आपसे मिल चुका हूं, शायद आप भूल रहे हैं, आखिर आपके पास समय ही कहां है. हम जैसे छोटे पत्रकारों को याद रखने का…
 सचिन- नहीं, नहीं, दरअसल, मैं स्मरण कर रहा हूं कि आप से मेरी मुलाकात हुई है या नहीं.
 मै- जी! मैं भी आपका एक छोटा सा फैन हूं आपके इर्द-गिर्द पहुंचने का मौका  कहां मिलता है .आज सौभाग्य से आप तक पहुंच गया हूं.
 सचिन-( हंसकर ) ऐसा नहीं है, मैं भी आपकी ही तरह साधारण हूं .
मै -यह तो आपका बड़प्पन है. मगर सच यह है कि आप  राज ठाकरे, लता मंगेशकर और राहुल गांधी जैसी हस्तियों तक आप कैद होकर रह गए हैं.आम भारतीय आप तक पहुंच ही नहीं सकता…!

ये भी पढ़ें- संबंध : भाग 4

सचिन-( मुस्कुराकर ) दरअसल, मसला सिक्योरिटी का है.

 मै- क्या आपको अपने ही देश के लोगों से खतरा है ?
 सचिन- भई खतरा तो खतरा है और यह अपने आसपास के लोगों से ज्यादा होता है.
मै- मगर यह अन्याय नहीं है क्या ? अपने ही देश के लोगों से खतरा ??
 सचिन- हम सेलिब्रिटी इस हकीकत से गुजरते हैं दोस्त…।
 मै- मुझे लगता है, आपको आम देशवासियों से खतरा नहीं बल्कि…
 सचिन- (आश्चर्यवत् ) बल्कि… क्या मतलब .
मै – आपको देश के विशिष्ट लोगों से ज्यादा खतरा है.
सचिन- (आवाक्) मैं समझा नहीं .
मै- सचिनजी!आपको, राज ठाकरे जैसे इस देश के दिग्गजों से ज्यादा खतरा है.
सचिन- (खोखली हंसी हंसते हुए ) अच्छा… मुझे नहीं पता मुझे नहीं लगता.
 मै-  कभी बालासाहेब ठाकरे  की एक हुंकार पर सचिन, आप की बोलती बंद हो जाती थी, भला क्यो?
सचिन- तुम पत्रकार हो या मिटर (आईना) मैं मौन रहूंगा.
 मै- सचिन, मौन बोलता है. आपका मौन, सर चढ़कर बोल रहा है. आप सच्चाई को स्वीकार करिए.
सचिन- मैं अगर यह कहूं कि मैं बालासाहेब का सम्मान करता था तो…।
मै- और राज ठाकरे का.
सचिन- वे मेरे भाऊ हैं… बड़े भाई साहब (हंसते हैं )
मै- सचिन, आप को भारत रत्न मिलना चाहिए क्या ?
सचिन-( चिरपरिचित मुस्कान बिखेरते हुए ) इस प्रश्न का जवाब मैं आपसे चाहूंगा । बताइए आपको क्या लगता है.
मै- जी… मुझे तो प्रतीत होता है आप भारत रत्न के कतई हकदार नहीं है .
सचिन- (असहज होकर ) भला क्यों ? और अभी तो कहां था आप मेरे फैन हैं…
 मै- मैं चाहता हूं आपको नहीं बल्कि मेजर ध्यानचंद हॉकी के जादूगर का, भारतरत्न पर पहला हक है. अब आप बताइए आप क्या सोचते हैं.
सचिन – मैं चाहता हूं भारत रत्न मुझे मिलना चाहिए.
मै- और मेजर ध्यानचंद…

 सचिन- उनके बारे में देश सोचे,  मैं तो देश के करोड़ों करोड़ों जनता की आवाज को स्वर दे रहा हूं .जनता यही चाहती है.

ये भी पढ़ें- स्टैच्यू : दो दीवाने ‘दीवाने शहर’ में

मै – मगर सचिन क्या आप चंद वर्ष इंतजार नहीं कर सकते.
 सचिन- मैं तो तैयार हूं, मगर देश तैयार नहीं है.
 मै- आप इंकार तो कर सकते हैं.
 सचिन- यह सभ्यता के खिलाफ होगा.
 मै- क्या सभ्यता का यही तकाजा है. पुरखों को छोड़कर बच्चों को…
 सचिन- यह समय देखे, मैं तो एक नाचीज सा छोटा आदमी हूं.
मै- सचिन! क्या आप भारतरत्न प्राप्त कर सचमुच खुश होंगे.
 सचिन- वाकई यह मेरे लिए प्रसन्नता का सबब होगा.
मै- लेकिन क्या आप वाकई भारतरत्न के काबिल है ? क्या आपने क्रिकेट के अलावा कोई उपलब्धि हासिल की है…
 सचिन तेंदुलकर हो हो कर हंसने लगे. मै पलंग से नीचे गिर पड़ा मेरी नींद टूट चुकी थी.
अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें