नेमा का कलेजा उन की हालत देखदेख कर बैठा जा रहा था. सोचने लगी, ‘पता नहीं कुदरत को क्या मंजूर है.’ वे दफ्तर से घर आते तो जैसे उन के बदन में जान ही न होती. पैर लड़खड़ा रहे होते, थकान और ऊब चेहरे पर हमेशा बढ़ी रहने वाली दाढ़ी की तरह छाई रहती. आंखें बुझी हुई, पलकें बोझिल, चेहरा उदास और चिंताग्रस्त. सीधे आ कर खाट पकड़ लेते. उठने और हाथमुंह धोने को कहती तो जैसे उन्हें बहुत कष्ट होता. कठिनाई से ही बिस्तर से उठ पाते.

नेमा चाय ला कर देती तो चुपचाप ले लेते. कांपती उंगलियों में प्याला हिलता रहता. डर लगता, कहीं वह हाथ से न छूट जाए और वे जल न जाएं. लंबी सांसें लेते हुए खाट पर लेटे घंटों छत ताकते रहते. शरीर पूरी तरह शिथिल और टूटा हुआ. कोई बात पूछती तो अंटशंट उत्तर दे देते. कुछ कहना चाहते तो जबान लड़खड़ाने लगती.

हादसे से अब तक उबर तो नेमा भी नहीं पाई थी लेकिन उस ने किसी तरह कलेजे पर पत्थर रख लिया था. कलपते मन को समझा लिया था, खासकर तब, जब उस ने पति को बुरी तरह उखड़ते और टूटते देखा तो वह सहसा डर ही गई. अगर उन्हें कुछ हो गया तो वह कहीं की न रहेगी. सब खेल ही बिगड़ जाएगा. पीछे 2 लड़कियां हैं, उन का क्या होगा?

 

अगर वह खुद ज्यादा पढ़ीलिखी होती तो शायद कुछ हौसला बना रहता. इन के दोस्तों से मिन्नतें कर के कहीं छोटीमोटी नौकरी पकड़ लेती और घरगृहस्थी किसी तरह खींच ले जाती. पर आजकल हाईस्कूल पास को कौन पढ़ालिखा मानता है. जब तक बड़ीबड़ी डिगरियां न हों, कौन पूछता है.

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