‘‘दिल्ली हाट तक गई थी, थोड़ी देर हो गई. सामने की दुकान से कोई पानी देने तो नहीं आया था?’’
‘‘नहीं, अच्छा तो आप भीतर तो आइए…मेरे से एक बोतल पानी ले जाइए,’’ कहते हुए मैं वापस खाने की टेबल पर आ गई, ‘‘खाना खाएंगी न आंटी.’’
‘‘नहीं बेटा, आज मन नहीं है.’’
मैं ने पापा को उन का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘पापा, यह मीरा आंटी हैं. सामने के फ्लैट में रहती हैं. बेहद मिलनसार और केयरिंग भी. राहुल को जब भी कुछ नया खाने का मन करता है आंटी बना देती हैं.’’
‘‘अरे, बस बस,’’ कह कर वह सामने आ कर बैठ गईं. मैं ने उन की तरफ प्लेट सरकाते हुए कहा, ‘‘अच्छा, कुछ तो खा लीजिए. हमारा मन रखने के लिए ही सही,’’ और इसी के साथ उन की प्लेट में मैं ने थोड़े चावल और दाल डाल दी.
‘‘लगता है आप यहां अकेली रहती हैं?’’ पापा ने पूछा.
‘‘हां, पापा,’’ इन के पति आर्मी में हैं. वहां इन को साथ रहने की कोई सुविधा नहीं है,’’ राहुल ने कहा.
‘‘फिर तो आप को बड़ी मुश्किल होती होगी अकेले रहने में?’’
‘‘नहीं, अब तो आदत सी पड़ गई है,’’ आंटी बेहद उदासीनता से बोलीं, ‘‘बेटीदामाद भी कभीकभी आते रहते हैं, फिर जब कभी मन उचाट हो जाता है मैं उन से स्वयं मिलने चली जाती हूं.’’
‘‘पापा, इन की बेटीदामाद दोनों डाक्टर हैं और चेन्नई के अपोलो अस्पताल में काम करते हैं,’’ मैं ने कहा.
बातों का सिलसिला देर तक यों ही चलता रहा. जातेजाते आंटी बोलीं, ‘‘मैं सामने ही रहती हूं…किसी वस्तु की जरूरत हो तो बिना संकोच बता दीजिएगा.’’
‘‘आंटी, पापा को सुबह इंजेक्शन लगवाना है. किसी को जानती हैं आप, जो यहीं आ कर लगा सके.’’
‘‘अरे, इंजेक्शन तो मैं ही लगा दूंगी…बेटी ने इतना तो सिखा ही दिया है.’’
‘‘ठीक है आंटी, मैं सुबह इंजेक्शन भी ले आऊंगी और पट्टी भी,’’ कहते- कहते मैं भी उठ गई.
‘‘हां, बेटा, यह तो मेरा सौभाग्य होगा,’’ कह कर आंटी चली गईं.
शाम को मैं आफिस से आई और पापा का हालचाल पूछा. आज वह थोड़ा स्वस्थ लग रहे थे. कहने लगे, ‘‘सुबह इंजेक्शन और डे्रसिंग के बाद थोड़ा रिलैक्स अनुभव कर रहा हूं. फिर शाम को सामने पार्क में भी घूमने गया था.’’
मैं चाहती थी पापा कुछ दिन और यहां रहें. हर रोज कोई न कोई बहाना बना कर वह जतला देते थे कि वह वापस जाना चाहते हैं. यहां रहना उन के सिद्धांतों के खिलाफ है. मेरी शंका जितनी गहरी थी पर समाधान उतना ही कठिन.
मैं ने और राहुल ने भरसक प्रयत्न किया कि उन्हें यहीं पास में कोई और मकान ले देते हैं पर वह किसी भी तरह नहीं माने. फिर हम ने उन्हें इस बात के लिए मना लिया कि 1 महीने के बाद दीवाली आ रही है तब तक वह यहीं रहें. हमारी आशाओं के अनुकूल उन्होंने यह स्वीकार कर लिया था. मुझे थोड़ी सी तसल्ली हो गई.
उस दिन मैं और राहुल प्रगति मैदान जाने का मन बना रहे थे, जहां गृहसज्जा के सामान की प्रदर्शनी लगी हुई थी. मैं ने पापा को भी साथ चलने के लिए कहा. उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि मैं वहां जा कर क्या करूंगा.
‘‘पापा, आप साथ चलेंगे तो हमें अच्छा लगेगा. मानसी कई दिनों से माइक्रोवेव लेने का मन बना रही थी. आप रहेंगे तो राय बनी रहेगी,’’ राहुल ने विनती करते हुए कहा.
‘‘तुम्हारा मुझे इतना मान देने के लिए शुक्रिया बेटा…पर जा नहीं पाऊंगा, क्योंकि पार्क में आज इस कालोनी के बुजुर्गों की एक बैठक है.’’
हम दोनों ही वहां चले गए.
प्रगति मैदान से आने के बाद जैसे ही हम ने कार पार्क की कि मीरा आंटी के घर से डाक्टर अवस्थी को निकलते देखा. मैं एकदम घबरा गई और तेजी से जा कर पूछा, ‘‘डाक्टर साहब, क्या हुआ मीरा आंटी को? सब ठीक तो है न.’’
‘‘हां, अब सब ठीक है. उन के घर में किसी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी.’’
इस से पहले कि मैं कुछ सोच पाती, मीरा आंटी सामने से आती हुई बोलीं, ‘‘तुम्हारे पापा इधर हैं, तुम लोग अंदर आ जाओ.’’
‘‘क्यों, क्या हुआ उन को?’’
‘‘दरअसल, तुम्हारे जाने के बाद उन्होंने मेरी घंटी बजा कर कहा था कि उन्हें बहुत घबराहट हो रही है. मैं थोड़ा घबरा गई थी. मैं उन्हें सहारा दे कर अपने यहां ले आई और डाक्टर को फोन कर दिया. उन का ब्लडप्रैशर बहुत बढ़ा हुआ था. शायद गैस हो रही होगी. अभी उन्हें सोने का इंजेक्शन और कुछ दवाइयां दी हैं,’’ कहते हुए उन्होंने मुझे वह परचा पकड़ा दिया.
‘‘आंटी, बुढ़ापा नहीं, पापा अकेलेपन का शिकार हैं,’’ कहतेकहते मैं पापा के पास ही बैठ गई, ‘‘62 साल की उम्र भी कोई बुढ़ापे की होती है.’’
राहुल जब तक अपने फ्लैट से फ्रेश हो कर आए आंटी ने चाय बना दी. मैं पुन: पापा की इस हालत से चिंतित थी और परेशान भी. वह पूरी रात हम ने उन के पास बैठ कर बिताई.
कुछ दिन और बीत गए. पापा अब फिर सामान्य हो गए थे. आंटी का हमारे घर निरंतर आनाजाना बना रहता था. हम पापा में फिर से उत्साह पैदा करने की कोशिश करते रहे. एक पल वह खुश हो जाते और दूसरे ही पल उदास और गंभीर.
रविवार को हम सवेरे बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे. बातोंबातों में राहुल ने आंटी का उदाहरण देते हुए कहा कि वह कितने मजे से जिंदगी काट रही हैं.
‘‘सचमुच वह बहुत ही भद्र और मिलनसार महिला हैं. इस उम्र में तो उन के पति को भी रिटायरमेंट ले लेना चाहिए. कब से वह अकेली जिंदगी जी रही हैं और आजकल के हालात देखते हुए एक अकेली औरत…’’ पापा बोले.
‘‘पापा, आप को एक बात बताऊं,’’ राहुल ने सारा संकोच त्याग कर कहा, ‘‘मैं ने पहले दिन आप से झूठ बोला था कि आंटी के पति आर्मी में हैं. दरअसल, उन के पति की मृत्यु 8 साल पहले हो चुकी है. तब उन की बेटी मेडिकल कालिज में पढ़ती थी. बड़ी मुश्किलों से आंटी ने उसे पढ़ाया है. पिछले ही साल उस की शादी की है.’’
‘‘ओह, यह तो बहुत बुरा हुआ. उन्होंने कभी बताया भी नहीं.’’
‘‘सभी लोगों को उन्होंने यही बता रखा है जो मैं ने आप को बताया था. एक अकेली औरत का सचमुच अकेला रहना कितना कठिन होता है, यह उन से पूछिए. इसलिए मैं जब भी आंटी को देखती हूं मुझे आप की चिंता होने लगती है. औरत होने के नाते वह तो अपना घर संभाल सकती हैं पर पुरुष नहीं. उन्हें सचमुच एक सहारे की जरूरत होती है. पापा, आप को लगता है कि आप यों अकेले जीवन बिता पाएंगे…मैं बेटी हूं आप की…मम्मी के बाद आप का ध्यान रखना मेरा फर्ज है…मेरा अधिकार भी है और कर्तव्य भी…मैं जो कह रही हूं आप समझ रहे हैं न पापा…मैं मीरा आंटी की बात कर रही हूं.’’
मैं अपनी बात कह चुकी थी. और अब पापा के चेहरे पर घिर आए भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगी.
‘‘मानसी ठीक कह रही है, पापा,’’ राहुल बोले, ‘‘बहुत दिनों तक सोचने के बाद ही डरतेडरते हम ने आप से कहने की हिम्मत जुटाई है. बात अच्छी न लगे तो हमें माफ कर दीजिए.’’
‘‘बेटे, इस उम्र में शादी. मैं कैसे भूल पाऊंगा तुम्हारी मम्मी को, और फिर लोग क्या सोचेंगे,’’ पापा का स्वर किसी गहरे दुख में डूब गया.
‘‘पापा, लोग बुढ़ापे के लिए तो एकदूसरे का सहारा ढूंढ़ते हैं. इस उम्र में आप को कई बीमारियों ने आ घेरा है, उपेक्षित से हो कर रह गए हैं आप. अब जो हो गया उस पर हमारा जोर तो नहीं है. फिर लोगों से हमें क्या लेनादेना. आप दोनों तैयार हों तो हमें दुनिया से क्या लेना.’’
‘‘मीरा से भी तुम ने बात की है?’’ उन्होंने बेहद संजीदगी से पूछा.
‘‘हां, पापा, हम ने उन्हें भी मुश्किल से मनाया है. यदि आप तैयार हों तो…आप हमारा हमेशा ही भला चाहते रहे हैं. क्या आप चाहते हैं कि हम सदा आप के लिए चिंतित रहें. बहुत सी बातें आप छिपा भी जाते हैं. मैं पहले भी आप से इस बारे में बात करना चाहती थी मगर हर बार संकोच की दीवार सामने आ जाती थी.’’
वह कुछ असहज भी थे और असामान्य भी, किंतु जिस लाड़ भरी निगाहों से उन्होंने मुझे देखा, मुझे लगा मेरी यह हरकत उन्हें अच्छी लगी है.
‘‘पापा, प्लीज,’’ कह कर मैं उन के पास आ कर बैठ गई, ‘‘आप को सुखी देख कर हम लोग कितनी राहत महसूस करेंगे. यह मैं कैसे बताऊं . आप की ऐसी हालत देख कर मेरा जी भर आता है. मैं आप को बहुत प्यार करती हूं पापा,’’ कहतेकहते मैं रो पड़ी.
पापा धीरे से मुसकराए. शिष्टाचार के सभी बंधन तोड़ कर मैं उन से लिपट गई. महीनों से खोई हुई उन की हंसी वापस उन के चेहरे पर थी. उन का ठंडा मीठा स्पर्श आज अर्से बाद मुझे मिला था.
‘‘थैंक्स, पापा,’’ कहतेकहते मेरी आवाज आंसुओं के चलते भर्रा गई