दिल्ली विधानसभा के चुनाव नतीजे महज मुफ्त के मनोविज्ञान का नतीजा नहीं हैं, जैसा कि केंद्र में सत्तारुढ़ भाजपा अपनी झेंप मिटाने के लिए इन्हें ऐसा बताने और बेशर्मी से साबित करने की कोशिश कर रही है. अगर ये महज मुफ्त का जादू होते तो भाजपा और कांग्रेस ने केजरीवाल से ज्यादा मुफ्तिया सौगातों की घोषणा की थी.लेकिन जनता या कहें मतदाताओं ने न तो भाजपा की घोषणाओं में और न ही कांग्रेस के प्रस्तावों पर. किसी पर भी यकीन नहीं किया. हाल के सालों में चुनावी जीत को लेकर एक बहुसंख्यक राय यह भी बनी है कि आक्रामक रणनीति और रोबोटिक प्रबंधन की बदौलत किसी को भी अपने पक्ष में वोट डालने के लिए मजबूर किया जा सकता है. कहने का मतलब यह मानकर चला जाता है कि मतदाताओं की अपनी कोई स्थाई और दृढ सोच नहीं होती. वास्तव में यह मतदाताओं को राजनीतिक पार्टियों द्वारा मंदबुद्धि समझने की ज्यादती है.

दिल्ली विधानसभा के नतीजे इन सभी सवालों का करारा जवाब हैं. दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी को 70 सीटों में 62 सीटें मिलना और भाजपा तथा उसके सहयोगी दलों द्वारा 6 महीने में हजारों जनसभाएं करने के बाद भी महज 8 सीटें पाना इस बात का सबूत है कि विपक्ष भले हताश हो बदलाव को लेकर मतदाता हताश या निराश नहीं है.सच तो यह है कि यह राजनीतिक से ज्यादा, भाजपा और उसकी सहयोगी ताकतों की सोच की नैतिक पराजय है. भाजपा अक्लमंद और ताकतवर तभी साबित हो सकती है जब ईमानदारी से इस पर मंथन करे और देश की आत्मा के विरुद्ध जा रहे अपने सियासी नैरेटिव को बदले.हिन्दुस्तान के लोगों को एक हद से आगे कट्टर नहीं बनाया जा सकता. भाजपा ने 2015 के मुकाबले अपने खाते में 5 सीटों का इजाफा किया है और आम आदमी पार्टी ने 5 सीटें गंवायी हैं.

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कुल मिलाकर दिल्ली के विधानसभा चुनाव महज दो पार्टियों के उम्मीदवारों की आपसी जंग बनकर रह गये। कांग्रेस को पिछली बार की तरह इस बार भी एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन 2015 में कांग्रेस को जहां 9.7 फीसदी वोट मिला था, वहीं इस बार यह वोट प्रतिशत गिरकर 4.21 फीसदी के आसपास सिमट गया.इससे अंदाजा लगाने की तो कुछ जरूरत नहीं है लेकिन एक खतरनाक आशंका यह बन गई है कि दिल्ली के राजनीतिक नक्शे से इंडियन नेशनल कांग्रेस का सफाया हो चुका है.सिर्फ कांग्रेस ही नहीं इन चुनावों में 625 उम्मीदवार अपनी किस्मत आजमा रहे थे, लेकिन नतीजों को देखने के बाद लगता है कि दौड़ में तो महज 140 उम्मीदवार ही थे बाकी सब चुनावी लड़ाई का कोरम पूरा कर रहे थे. हालांकि लगातार तीसरी बार हैट्रिक पहले भी देश के कई राज्यों में लगायी गई है, जिसकी वजह कोई विशेष राजनीतिक पार्टी या कोई खास चेहरा रहा हो. पश्चिम बंगाल में तो वाम मोर्चे की सरकार तीन दशक से भी ज्यादा समय रही है और एक दौर ऐसा था जब बंगाल के मुख्यमंत्री का नाम लेने पर जहन में सिर्फ कामरेड ज्योति बसु की तस्वीर ही आती थी.

..और तो और इसी राजधानी दिल्ली में कांग्रेस शीला दीक्षित के नेतृत्व में तीन बार लगातार सरकार बना चुकी है.इसलिए केजरीवाल की हैट्रिक सियासत की कोई अजूबी दास्तान नहीं है. बावजूद इसके अब तक देश की किसी भी सियासी पार्टी की किसी राज्य में लगायी गई हैट्रिक से कहीं ज्यादा अगर आप (आम आदमी पार्टी) की हैट्रिक का वजन है तो उसकी वजह देश का मौजूदा सियासी नैरेटिव है. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में पहली बार यानी 2013 में 28, दूसरी बार यानी 2015 में 67 सीटें जीती थी और इस बार उसकी सीटों का आंकड़ा 62 है. 2015 में आम आदमी पार्टी को 54.3 प्रतिशत वोट मिले थे,वहीं भारतीय जनता पार्टी को 32.3 फीसदी और कांग्रेस को 9.7 फीसदी वोट मिले थे. जबकि 2020 में आम आदमी पार्टी को 53.57 फीसदी, भाजपा को 38.51 फीसदी और कांग्रेस को 4.21 फीसदी मत मिले हैं. इससे बिल्कुल साफ है कि बेहद आक्रामक चुनाव रणनीति और आरपार के अंदाज में अपनी रणनीति ही नहीं बल्कि अपनी विचारधारा को पूरी तरह से दांव में लगाने के बाद भी अगर भाजपा को दिल्ली के मतदाताओं ने नकार दिया है तो इसके गहरे और दूरगामी संदेश हैं.

दरअसल 2014 में कई दशकों के बाद भाजपा ने अकेले अपने दम पर आम चुनाव में बहुमत हासिल किया था और 2019 के लोकसभा चुनाव में उसने न सिर्फ इसको दोहराया बल्कि इसे पहले से और बेहतर किया.इन दो राष्ट्रीय चुनावों के बाद देश का सियासी नैरेटिव भाजपा ही तय करने लगी थी और यह माना जाने लगा था कि भाजपा ही न सिर्फ देश का राजनीतिक मूड बल्कि देश की राजनीतिक सोच भी तय करेगी. जिस तरह से पिछले पांच छह सालों में भाजपा ने अलग अलग प्रदेशों में जीत हासिल की थी और देश के मौजूदा गृहमंत्री तथा भाजपा के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह ने अपनी पहचान एक अपराजय रणनीतिकार के तौरपर विकसित की थी,उससे यह सोचा और समझा जाने लगा था कि देश का सियासी नैरेटिव अब सिर्फ और सिर्फ भाजपा तय करेगी.

साल 2019 के आम चुनावों के जीतने के बाद जिस तरह से उसने ताबड़तोड़ शैली में वो तमाम काम किये जिन्हें पहले बड़े सियासी जोखिम के रूप में देखा जाता था जैसे- कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाना, करीब 90 सालों से लटके राम जन्म भूमि मसले को हल करवाना और तीन तलाक जैसे विधेयक को संसद के दो सदनों में पास कराकर कानून बना देना. ये कुछ ऐसी सफलताएं थीं, जिसके बाद लग रहा था कि अब भाजपा अजेय हो चुकी है.शायद अपने इसी अपराजय एहसास की वजह से भाजपा पिछले कई महीनों से कई मामलों में देश की आम सोच को दरकिनार करते हुए, न सिर्फ अपनी सोच को ताकतवर ढंग से देश में लागू कर रही थी बल्कि डंके की चोट पर ऐसा करते रहने का आभास दे रही थी.

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राजधानी दिल्ली के चुनाव राजनीतिक दृष्टि से कोई बहुत महत्वपूर्ण नहीं थे. एक तो दिल्ली आधा अधूरा राज्य है जिसमें करीब 70 फीसदी राज्य की विभिन्न ताकतें केंद्र सरकार के पास हैं.इसलिए दिल्ली में चुनाव जीत लेना राजनीतिक वजन के हिसाब से कोई खास बात नहीं थी,लेकिन भाजपा ने इसे अपनी आक्रामक विचारधारा और लोकतंत्र के अपने मौडल के अनुमान के कारण बेहद संगीन बना दिया.70 सीटों वाली विधानसभा का चुनाव जीतने के लिए देश की मौजूदा समय में सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी ने इतनी ताकत झोंक दी कि एक वक्त आयेगा जब लोग इस पर यकीन नहीं करेंगे.भाजपा ने दिल्ली के चुनाव जीतने के लिए अपने 300 से ज्यादा सांसदों,केंद्रीय कैबिनेट के सदस्यों, विभिन्न राज्यों के अपने और अपने सहयोगी दलों के मुख्यमंत्रियों और संगठन के दर्जनों पदाधिकारियों के साथ-साथ सहयोगी पार्टियों के वरिष्ठ राजनेताओं को भी उतार दिया.

भाजपा ने इन चुनावों को इस कदर हाइप दे दी कि जैसे वह यह चुनाव हार गयी तो उसका अस्तित्व खत्म हो जायेगा.भाजपा की इसी आक्रामक रणनीति और रवैय्ये तथा सबसे ज्यादा इन चुनाव में पाकिस्तान और शाहीन बाग को मुद्दा बनाने के कारण यह आरपार की लड़ाई में बदल गये.इससे सियासी राजनेताओं को ही नहीं गंभीर समाजशास्त्रियों को लगा कि अगर भाजपा ये दिल्ली के चुनाव जीतती है तो देश की राजनीतिक सोच हमेशा-हमेशा के लिए बदल जायेगी. ऐसे में जाहिर है पूरे देश की निगाहें दिल्ली के मतदाताओं पर टिकी थीं और राजधानी के मतदाताओं ने देश ही नहीं दुनिया को संदेश दे दिया हैकि देश का लोकतंत्र मजबूत है और मतदाता परिपक्व.

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