दिल्ली विधानसभा के चुनाव नतीजे महज मुफ्त के मनोविज्ञान का नतीजा नहीं हैं, जैसा कि केंद्र में सत्तारुढ़ भाजपा अपनी झेंप मिटाने के लिए इन्हें ऐसा बताने और बेशर्मी से साबित करने की कोशिश कर रही है. अगर ये महज मुफ्त का जादू होते तो भाजपा और कांग्रेस ने केजरीवाल से ज्यादा मुफ्तिया सौगातों की घोषणा की थी.लेकिन जनता या कहें मतदाताओं ने न तो भाजपा की घोषणाओं में और न ही कांग्रेस के प्रस्तावों पर. किसी पर भी यकीन नहीं किया. हाल के सालों में चुनावी जीत को लेकर एक बहुसंख्यक राय यह भी बनी है कि आक्रामक रणनीति और रोबोटिक प्रबंधन की बदौलत किसी को भी अपने पक्ष में वोट डालने के लिए मजबूर किया जा सकता है. कहने का मतलब यह मानकर चला जाता है कि मतदाताओं की अपनी कोई स्थाई और दृढ सोच नहीं होती. वास्तव में यह मतदाताओं को राजनीतिक पार्टियों द्वारा मंदबुद्धि समझने की ज्यादती है.