दिसंबर की खामोश सी एक सर्द दोपहर थी. मैं थाना प्रभारी, कोतवाली की हैसियत से कार्यालय के अपने कमरे में कुरसी पर बैठी सरकारी कामों को निबटा कर, फुरसत के क्षणों में अपने पति के साहित्यिक पत्र का जवाब साहित्यिक भाषा में देने का प्रयास कर रही थी. वे लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफैसर थे और उन्होंने मुझ से शिकायत की थी कि पुलिस अधिकारियों में वह दया, ममता नहीं होती जो अन्य विभाग के अधिकारियों, कर्मचारियों में होती है. मैं उन्हें हिंदी भाषा में पत्र लिख कर यह बताना चाहती थी कि पुलिस वाले ऊपर से तो कठोर बने रहते हैं परंतु उन के हृदय में भी दया, ममता, स्नेह और प्यार का सागर हिलोरे लेता है.

मैं अपने पत्र में लिख रही थी, ‘‘एक दिन सागर ने नदी से पूछा, ‘कब तक मिलाती रहोगी मुझे मीठे पानी से?’ नदी ने हंस कर कहा, ‘जब तक तुझ में मिठास न आ जाए तब तक.’ यही तो रिश्ता होता है सच्चे प्रेम का, सच्चे मिलन का.’’

मैं आगे इस रोचक पत्र में बहुत कुछ अपने पति को लिखना चाहती थी कि तभी अचानक कमरे में कदमों की आहट से मेरा ध्यान भंग हुआ. जब तक मैं कुछ समझती तब तक मेरा पूरा कमरा ओपियम सेंट की खुशबू से भर उठा. मैं ने पत्र से नजर उठा कर देखा तो मेरे सामने एक पुरुष व स्त्री खड़े थे. उन दोनों के हावभाव से यह स्पष्ट हो रहा था कि वे रिश्ते में पतिपत्नी हैं.

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