श्रुति का दिमाग फिर से परेशान था. ट्रे में थी वह. अपने आप पर उसे गुस्सा आ रहा था, ‘तू क्यों जा रही है वहां’. उस का मन खिन्न हो गया. पूरे 15 वर्ष पहले सबकुछ होते हुए भी उसे अपना घर छोड़ना पड़ा था. दिवाकर के प्रति नफरत आज भी बनी हुई थी. नहीं चाहते हुए भी यादें उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं.
आज श्रुति उम्र के तीसरे पड़ाव की दहलीज पर है. जिंदगी में एक तरह से उस के पास सबकुछ था पर असल में उसे कुछ नहीं मिला. दिवाकर से उस ने अपनी मरजी से शादी की थी, मम्मीपापा ने भी कोई एतराज नहीं किया. उस में कोई कमी भी तो नहीं थी जो वे मना करते. बिना शर्तों के उस की शादी दिवाकर से हुई थी. वह अपने इस निर्णय से खुश थी.
शादी के कुछ समय बाद एक दिन वह बोला, ‘श्रुति, मैं ने तुम्हारे लिए नौकरी ढूंढ़ ली है.’ श्रुति हैरान हो गई थी क्योंकि उस को नौकरी करना कभी भी अच्छा नहीं लगता था पर दिवाकर ने उस के चेहरे पर आतेजाते भावों की तरफ से अनजान बन कर अपनी बात को जारी रखा, ‘मैं ने एक विज्ञापन कंपनी में बात की है. तुम्हें तो बस नौकरी के लिए एक अरजी लिख कर उस पर अपने हस्ताक्षर कर के देने हैं, आगे मैं देख लूंगा. नौकरी तो तुम्हें शतप्रतिशत मिल जाएगी.’
उस ने दिवाकर को मना भी किया था, उसे समझाया भी था कि वह अच्छाखासा कमा लेता है और अपनी जरूरतें भी इतनी ही हैं. वह घर संभाल लेगी. उस का मन नौकरी करने का नहीं है पर दिवाकर के जरूरत से ज्यादा दबाव डालने पर उस ने नौकरी के लिए अरजी लिख कर दे दी. कुछ दिन बाद ही नियुक्तिपत्र आ गया.
नौकरी मिलने की खुशी उसे नहीं थी लेकिन दिवाकर को थी. वह बहुत ही खुश नजर आ रहा था. उस समय भी उस ने कोशिश की कि वह किसी तरह मान जाए. उस का मानना था कि इस से समय अच्छा व्यतीत हो जाएगा, कभी उकताहट नहीं होगी जबकि वह इस बात को अच्छे से जानता था कि उसे घर से कभी उकताहट नहीं होती है. वह घर के कामों में अपने को व्य
दिवाकर ने उस को नौकरी दिलवा दी. शुरू में उस को बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता था पर दिवाकर को चकाचौंध भरी जिंदगी ज्यादा आकर्षित करती थी. दोनों के बीच उलटा था. अकसर औरतों को ऐशोआराम की जिंदगी ज्यादा पसंद होती है. लेकिन श्रुति सादा जीवन पसंद करती थी. वे दोनों मिल कर खूब अच्छा कमा लेते थे. 5-6 वर्षों में ही उन के पास सबकुछ हो गया था. श्रुति नौकरी छोड़ना चाहती थी. उसे अब बच्चे चाहिए थे. पर दिवाकर नौकरी नहीं छुड़वाना चाहता था. वह हमेशा दूसरों के जीवन को इंगित करता रहता था, ‘देखो, वह कैसे रहता है, उन के पास अपना खुद का घर है. बस, तुम 2-4 वर्ष और नौकरी कर लो. बाद में छोड़ देना.’
श्रुति का बौस उस के काम से बहुत खुश था. उस को प्रमोशन जल्दीजल्दी मिल गए. नहीं चाहते हुए भी दिवाकर के कहने पर उसे अपने बौस को खाने पर बुलाना पड़ा. जिस दिन बौस को आना था, उस से एक दिन पहले ही दिवाकर ने पूरा मैन्यू तैयार किया, अपने हाथों से डाइनिंग टेबल सजा दी, खाना बनाने में उस की पूरी मदद की जबकि वह बिलकुल भी खुश न थी.
श्रुति चाह कर भी दिवाकर को नहीं समझा सकी कि औफिस का काम औफिस तक ही सीमित रखना चाहिए और जब वह अच्छाखासा कमा लेता है और उसे भी वाजिब प्रमोशन मिल ही रहे हैं तो उसे नौकरी में इतना मत घसीटो कि औफिस को और समय देना पड़े और वह इस से इतना उकता जाए कि उस की इजाजत के बिना छोड़ बैठे.
उस दिन जब बौस खाने पर आए तो दिवाकर ने खूब मेहमाननवाजी की. उस ने उन को बातोंबातों में बोल दिया कि यदि श्रुति को अतिरिक्त काम करना पड़ा तो उस को कभी एतराज नहीं होगा. दिवाकर की रुपयों की भूख बढ़ती जा रही थी. पूरा वेतन दिवाकर के हाथों में जाता था. वह अपने मनमुताबिक खर्च करता था. सारा हिसाब वही रखता था. फ्लैट की किस्त, इंश्योरैंस पौलिसी, गाडि़यों की किस्त, मैडिक्लेम सभी कुछ उस के अनुसार होता था. घर में करीबकरीब सभी सामान इकट्ठा कर लिया था. टीवी, फ्रिज, वाश्ंिग मशीन, कंप्यूटर, छोटेबड़े बिजली के सारे उपकरण, क्रौकरी आदि सबकुछ था. ऐसा कुछ भी तो नहीं था जिस की जरूरत हो और वह पास नहीं हो.
नौकरी करतेकरते वह थक चुकी थी पर जब दिवाकर ने बौस के सामने औफिस के समय के बाद अतिरिक्त काम करने का प्रस्ताव रखा तो उस के सब्र का बांध टूट गया. उस का मन कर रहा था उसी समय नौकरी से इस्तीफा दे दे. वह उस को कैसे समझाए कि वह भागतेभागते थक चुकी है. अपनी गृहस्थी बढ़ाना चाहती है. मां बनना चाहती है. पर वह उस की भावनाओं को समझ कर भी नजरअंदाज कर रहा था. घर में क्लेश होने के डर से वह सबकुछ सहने को मजबूर थी. बहरहाल, बौस बहुत खुश हो कर गए.
पता नहीं उस दिन श्रुति का क्या मन किया कि वह 7 दिन की छुट्टी ले कर घर बैठ गई. दिवाकर बहुत नाराज हुआ क्योंकि 7 दिन का वेतन जो कट रहा था. श्रुति को इस बात की कोई चिंता नहीं थी. घर में रह कर घर का काम करने में उसे बहुत आनंद आ रहा था.
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सप्ताह बाद वह फिर से अपने रुटीन में आ गई. दिवाकर बौस से मिलने के बाद अकसर उन से फोन पर बात करता रहता था जो उसे बिलकुल पसंद नहीं था. वह उस के बौस से घनिष्ठता बढ़ाने की कोशिश में लगा हुआ था पर वह हालात की नजाकत को देख कर चुप रहने में ही अपनी भलाई समझ रही थी.
एक बार बौस ने उसे अपने केबिन में बुलाया और कहा कि औफिस के किसी काम से वे दिल्ली जा रहे हैं, उसे उन के साथ चलना होगा. एक सप्ताह के वेतन के साथ उसे अतिरिक्त रुपया मिलेगा और दिल्ली में रहनाखाना कंपनी के खर्चे पर. लेकिन उस ने साफ शब्दों में इनकार कर दिया और बहाना बना दिया कि पति उसे इस बात की आज्ञा नहीं देंगे.
उस दिन जब वह घर पर आई तो देखा ड्राइंगरूम में एक नई अटैची रखी हुई थी, तभी दिवाकर उस के लिए चाय बना कर ले आया. चाय तो अकसर वह वैसे भी बना कर पिलाता था. उसे पता है कि थकान हो या गुस्सा, चाय पीते ही वह शांत हो जाती है. दोनों चाय पीने लगे.
श्रुति के मन में अटैची के बारे में जानने की उत्सुकता हो रही थी, अंदर ही अंदर दिल कुछ अच्छी खबर सुनने को लालायित था. उस ने अपनी उत्सुकता को शांत करने के लिए खुशी को छिपाते हुए पूछा, ‘हम दोनों कहीं बाहर घूमने जा रहे हैं क्या? कहां का प्रोगाम बनाया है?’
दिवाकर बोला, ‘हम नहीं, सिर्फ तुम.’
श्रुति हैरानी से उस की तरफ देखने लगी तो उस ने बौस के साथ हुई सारी बात बताई और कहा कि श्रुति, तुम्हें अपने बौस के साथ 7 दिन के लिए औफिस टूर पर दिल्ली जाना है. उसी के लिए वह अटैची लाया है. पता नहीं उस दिन ऐसा क्या हुआ कि वर्षों का दबा हुआ लावा निकल कर बाहर आ गया. श्रुति का तनमन जल उठा.
दिवाकर द्वारा लाई गई अटैची को उस ने बालकनी से नीचे फेंक दिया और उस को दोटूक जवाब दे दिया कि वह बौस के साथ दिल्ली नहीं जाएगी. ऐसा कहने पर दिवाकर बहुत नाराज हुआ. उस ने कहा कि उस के द्वारा किए वादे का क्या होगा जो उस ने बौस से किया है और फिर वहां रहनेखाने का खर्चा भी तो कंपनी ही उठाएगी. सप्ताह का अतिरिक्त रुपया भी तो मिलेगा. उस दिन वह अपने होशोहवास खो बैठी, एकदम फूट पड़ी, ‘दिवाकर, तुम्हें क्या हो गया है, सारा वक्त तुम पैसापैसा क्यों करते रहते हो. अपने पास किस चीज की कमी है? अपना परिवार बढ़ाने की क्यों नहीं सोचते हो? मैं आज तक नहीं समझ पाई तुम्हारी ख्वाहिशें कब पूरी होंगी.’
दिवाकर ऊंची आवाज में बोला था, ‘तुम जाओगी या नहीं?’
श्रुति के न करते ही उस ने उस के गाल पर जोर से थप्पड़ मारा. थप्पड़ की झन्नाहट आज भी उस के कानों में गूंज रही है. वह एकदम से चिल्लाया था, ‘तुम्हें जाना पडे़गा क्योंकि मैं ने तुम्हारे बौस को हां कर दी है.’
श्रुति उस दिन उस से भी तेज आवाज में चिल्लाई थी, ‘मैं नहीं जाऊंगी. तुम ने मेरे से पूछ कर बोला था क्या?’
दिवाकर ने कहा, ‘तुम मेरी पत्नी हो, मैं तुम्हारी इजाजत के बिना कुछ भी कर सकता हूं और पत्नी होने के नाते तुम्हें मेरा कहना मानना होगा.’
श्रुति उस को देखती रह गई. वह पछता रही थी कि ऐसा दिवाकर में उस ने क्या देखा जो उस के साथ सात फेरे लिए.
दिवाकर द्वारा जोर से थप्पड़ मारने पर उसे रोना नहीं आया बल्कि अपने पर अफसोस हो रहा था कि इस दरिंदे के साथ इतने वर्षों तक क्यों रही, बहुत पहले ही चले जाना चाहिए था. उस रात दिवाकर से ज्यादा सवालजवाब किए बिना वह एक बैग में जितने कपड़े आ सकते थे, रख कर हमेशा के लिए उस को छोड़ आई.
टे्रन अपनी गति से आगे बढ़ रही थी और पुरानी यादों का सिलसिला जारी था. श्रुति कभी गालों पर ढलक आए आंसुओं को पोंछ लेती और फिर विचार तंद्रा में खो जाती.
वह मम्मीपापा के पास आ तो गई पर अब क्या करेगी, कुछ समझ नहीं आ रहा था उसे. पापा ने समझाया था कि बेटा, वापस दिवाकर के पास चली जाओ पर उस ने साफ इनकार कर दिया था, ‘पापा, मैं उस के पास हरगिज नहीं जाऊंगी. दिवाकर को पत्नी की जरूरत नहीं है. उस को रुपया कमाने वाली मशीन चाहिए, जिस की अपनी कोई इच्छा न हो, कोई भावना न हो, अपने ढंग से जीने के माने जिस के लिए महत्त्व नहीं रखते हों, उस के साथ कोई कैसे रहे.
‘मैं इतने वर्षों से अपना पूरा वेतन उस के हाथों में रखती आई थी. अभी भी आते समय मैं ने रुपयों के बारे में उस से झगड़ा नहीं किया. अपनी खुद की मेहनत से कमाए हुए रुपए भी उस से नहीं मांगे. मैं तो सिर्फ घर चाहती थी जहां बच्चों की किलकारियां हों.
‘मैं अपने छोटेछोटे सपनों को सच होते देखना चाहती थी पर दिवाकर को इन सब से नफरत थी, वह सिर्फ पैसा चाहता था, उस के लिए शायद वह अपने को किसी हद तक गिरा भी सकता था. इतने वर्षों में मैं ने दिवाकर को जितना समझा उस आधार पर मैं कह सकती हूं कि वह धनलोलुप इंसान है. उस के लिए किसी की इच्छाएं कोई माने नहीं रखतीं. पापा, उस ने मेरे को कभी समझने की कोशिश ही नहीं की. हम दोनों की शादी को 10 वर्ष हो गए पर आज तक उस ने धन जोड़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचा.
‘जब मैं औफिस से आती थी तो घर मुझे खाने को दौड़ता था. पूरा घर मुझे व्यवस्थित मिलता था, कभी कोई वस्तु अपनी जगह से हिलाई नहीं जाती थी. हिलाता भी तो कौन, घर में हम दोनों ही तो थे. हमारा घर सभी सुविधाओं से अटा पड़ा था पर हम दोनों में से किसी को भी उन का उपयोग करने का समय नहीं था और न ही मन. उस का तो मुझे नहीं पता पर मैं इन सुविधाओं से ऊब चुकी थी. मन करता था इन सब से दूर जा कर कहीं खुल कर सांस लूं, खुले आसमान को निहारूं, पक्षियों की आवाज सुन कर दिल को चैन दूं, वृक्षों के बीच जा कर उन से अपने दिल की बात कहूं. कहते हैं वृक्ष भी बोलते हैं पर वे चाहे मुझ से न बोलें पर मेरे दिल की बात तो सुन सकते हैं और आप से कहती हूं, मैं ही नहीं, दिवाकर भी कभी खुश नजर नहीं आता था. उस को कभी भी संतोष नहीं होता था, वह हमेशा जोड़ने की फिराक में रहता था.’
ट्रेन ने फिर से रफ्तार पकड़ ली. श्रुति को ध्यान आया जब वह मम्मीपापा के पास आ गई थी तो वे लोग कितने चिंतित हो गए थे कि अब क्या होगा. वह स्वयं परेशान थी, क्या करेगी. दिवाकर के साथ रह कर नौकरी करना उस की जरूरत नहीं थी, उस के दबाव में आ कर कर रही थी पर अब मजबूरी है. वह मम्मीपापा, भाभी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी.
ज्यादा भागदौड़ किए बिना उसे एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी मिल गई. स्कूल के पीछे ही उस के रहने की व्यवस्था थी. वह बहुत खुश थी. बच्चों का साथ था. 8वीं कक्षा तक का स्कूल था. दिनभर तो व्यस्त रहती थी परंतु रात के समय उस का अतीत उसे डसने लगता था. हमेशा यही विचार आता, काश, दिवाकर की सोच अच्छी होती तो उस के वैवाहिक जीवन में यह मोड़ न आता. हालांकि आज तक उस के और दिवाकर के बीच में तलाक नहीं हुआ है. दोनों में से किसी एक ने भी इस बारे में नहीं सोचा. पता नहीं, वह कैसा है पर उस की जिंदगी पटरी से उतर चुकी है.
आर्थिक दृष्टि से मजबूत है फिर भी जिंदगी में खालीपन है. आज उसे अपने किए पर अफसोस हो रहा था. जिस मार्ग पर वह चाह कर भी नहीं चलना चाहती थी उसी पर चलना पड़ रहा है. थोड़ी समझदार होने के बाद से ही वह सोचा करती थी कि नौकरी कभी नहीं करूंगी. अपना प्यारा सा घर बसाऊंगी, जहां प्यार ही प्यार होगा पर वह जो चाहती थी उस को नहीं मिला. उस का घरपरिवार तो कभी बना ही नहीं.
कल पापा के नाम तार आया था. दिवाकर की मां का देहांत हो गया. पता नहीं उन लोगों ने क्यों सूचित किया. इस से पहले दिवाकर के बड़े भाई का देहांत हुआ था तब तो सूचना नहीं आई थी. उस समय यदि इत्तला कर देते तो शायद वह चली जाती. और हो सकता था कि जिंदगी में नया मोड़ आ जाता पर अब उन लोगों को उस की याद आई है. उसे पापा ने फोन पर जब इस बारे में बताया था तो उस ने बोल दिया था, ‘तो क्या हुआ, दुनिया में हर दिन कितनी ही
मौतें होती हैं. दिवाकर की मां की भी मौत हो गई तो क्या हुआ, मैं वहां जा कर क्या करूंगी.’
श्रुति के इस जवाब से उस के पापा बुरी तरह से नाराज हुए.
अगले दिन ही मम्मीपापा और भैया उस के घर आ पहुंचे. उन के बहुत समझाने पर वह दिवाकर की मम्मी के तेरहवीं पर जाने को तैयार हुई थी. हालांकि उसे अपने सासससुर से कभी कोई शिकायत नहीं रही. वे लोग एक ही शहर में रहे थे. शुरू में साथ ही थे पर दिवाकर ने प्रौपर्टी बनाने के लिए अलग फ्लैट खरीदा था. मम्मीपापा आते रहते थे. धीरेधीरे उन को दिवाकर और श्रुति के बीच विचारों का जो मतभेद था उस का एहसास हो गया था. उन्होंने दिवाकर को समझाने की बहुत कोशिश की पर उस पर किसी की बात का कोई असर नहीं हुआ. उन्होंने उन दोनों के उन के हाल पर छोड़ दिया.
ट्रेन के रुकते ही उस की विचारतंद्रा भंग हुई. वह अपने मम्मीपापा और भैया के साथ स्टेशन से बाहर आ गई. अब उस शहर में पहुंचते ही उस को लग रहा था वह एकदम अनजान शहर में आ गई है जबकि यहां उस ने अपनी जिंदगी के पूरे 10 वर्ष बिताए थे. ससुराल के घर पहुंच कर घंटी बजाने पर जिस व्यक्ति ने दरवाजा खोला उसे देख कर वह घबरा गई. आधे काले, आधे सफेद बाल, दाढ़ी बढ़ी हुई, आंखों पर चश्मा…उस ने ध्यान से देखा, पैरों में जूतों की जगह गंदी चप्पल. क्या यह वही दिवाकर है? वह ऐसा हो गया? उस को देख कर तो नहीं लगता कि वह कभी वैभवपूर्ण जिंदगी जी रहा था. उस का वैभवहीन व्यक्तित्व देख कर वह हैरान हो गई.
पीछे दिवाकर की बड़ी बहन सीमा दीदी खड़ी थीं. श्रुति ने उन के पैर छुए. वे उस को गले लगा कर बुरी तरह रोने लगीं पर उसे रोना नहीं आ रहा था. कुछ देर वे अपना मन हलका कर वहां से हटीं और उसे दिवाकर के पापा के पास ले गईं. उस ने उन के पैर छुए. उन्होंने आशीर्वाद दिया. बस, इतना ही पूछा, ‘‘कैसी हो, बेटी?’’
श्रुति ने संक्षिप्त सा जवाब दिया, ‘‘ठीक हूं.’’
उसे वहां घुटन हो रही थी. मन ही मन डर था, दिवाकर का सामना कैसे कर पाएगी. उस की परछाईं से ही उसे अजीब सी बेचैनी होने लगती है. धीरेधीरे घर के सभी सदस्यों से मिलना हो रहा था.
उसे जेठानी दीदी कहीं नहीं दिखाई दे रही थीं. उस का मन डर गया. कहीं इन लोगों ने उन को भी उन के पीहर तो नहीं भेज दिया.
दिवाकर के भैया दिवाकर से 1 वर्ष ही बड़े थे लेकिन उन की शादी उस के बाद हुई थी. पर किस से पूछे. यहां तो सब लोग उसे ही पराया समझ रहे हैं. वैसे वह तो है भी पराई. वह स्वयं अपने को मेहमान भी मानने के लिए तैयार न थी. हालांकि दिवाकर के अतिरिक्त उसे किसी भी सदस्य से कोई शिकायत न थी. सामने नजर पड़ी तो देखा, दिवाकर सीढि़यों से नीचे उतर रहा था. शायद उस ने श्रुति को नहीं देखा था. उस का मन हुआ, वह वहां से हट जाए पर फिर सोचा, अभी नहीं तो थोड़ी देर बाद ही सही, सामना तो होना ही है. अब जब यहां आ ही गई है, कब तक उस से बचती फिरेगी. उस ने उस को नजरअंदाज करने के लिए उस तरफ पीठ कर ली.
उसे लगा दिवाकर के कदम उस की तरफ आ रहे हैं लेकिन उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा, केवल एहसास से अनुभव किया. कुछ ही पलों में दिवाकर उस के सामने आ गया. उसे देख कर उस की आंखों में हैरानी और पश्चात्ताप के भाव नजर आ रहे थे. उस को शायद उम्मीद ही नहीं होगी कि वह आएगी. उस की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई थी. वह पूरी तरह से टूट चुका था.
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अब तो अभिमान ही नहीं स्वाभिमान भी नहीं रहा था. उस की ऐसी दशा देख कर पलभर के लिए वह विचलित हो गई. पर एकाएक उस ने अपने को संभाल लिया. सोचने लगी, यह वही दिवाकर है जिस ने उसे हमेशा अपने ढंग से जीने को मजबूर किया. उस के व्यक्तित्व को अपनी इच्छाओं तले रौंदा, कभी जीवन जीने नहीं दिया. उस की गलती यही थी कि उस ने कभी इस से प्यार किया था, जिस की सजा भुगत रही है. पर शायद इस ने सिर्फ अपनेआप से प्यार किया. नहीं, मैं इस को कभी माफ नहीं कर सकती.
अचानक दिवाकर की आवाज से वह डर सी गई, ‘‘श्रुति, कैसी हो? चलो उधर चलते हैं.’’
नहीं चाहते हुए भी उस के कदम दिवाकर के पीछेपीछे चल दिए. वे दोनों मम्मी वाले कमरे में गए.
‘‘बैठ जाओ, श्रुति,’’ दिवाकर बोला, ‘‘तुम वापस आ जाओ, मुझे अपने द्वारा किए गए व्यवहार का बहुत दुख है. हमें माफ कर दो.’’
पर उस का दिल तो पत्थर बन चुका था. वह कुछ नहीं बोली. उस की बातों पर उस ने कुछ भी रिऐक्ट नहीं किया. उस ने पूछा, ‘‘तुम कैसी हो, कैसे जीवननिर्वाह कर रही हो?’’
उस का मन तो किया, उस को कहे कि तुम होते कौन हो यह सब पूछने वाले पर चुप रह गई. उस ने उस से जानने की कोशिश नहीं की कि वह कैसा है, क्या करता है, कहां रह रहा है.
‘‘तुम्हारे जाने के सालभर बाद मैं यहां मम्मीपापा के साथ रहने आ गया था,’’ उस ने खुद ही बताया, ‘‘वह फ्लैट सामान सहित मैं ने बेच दिया. वहां से अपनी व्यक्तिगत जरूरत की वस्तुओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लाया. तुम्हारे जाने के बाद मुझे तुम्हारा महत्त्व समझ में आया. तुम्हारे बिना जिंदगी के माने कुछ नहीं रहे पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. तुम्हारे पास आ कर माफी मांगने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.’’
श्रुति के दिल ने कहा, ‘काश, दिवाकर उस समय तुम ऐसा कर पाते.’ श्रुति का मन दीदी के बारे में जानने को कर रहा था पर वह चुप रही. उसी समय सीमा दीदी आ गईं. दिवाकर के साथ अकेले में रहने में उसे घुटन सी हो रही थी. दीदी के आने पर राहत महसूस हुई.
‘‘तुम दोनों को पापा बुला रहे हैं,’’ उन्होंने कहा.
वे दोनों पापा के पास गए. पापा ने कहा, ‘‘दिवाकर कल रिंकू को लेने उस के होस्टल गया था. वह कल आएगी. आज उस की कोई परीक्षा थी. बहू, बड़ी बहू का देहांत हो चुका है. उस समय हम लोगों ने तुम्हें नहीं बताया, इस के लिए मैं तुम से माफी चाहता हूं. अब दिवाकर की मां भी नहीं रहीं. इसलिए रिंकू की जिम्मेदारी मैं तुम्हें सौंपता हूं. आशा है तुम इनकार नहीं करोगी. दिवाकर के साथ रहने का या नहीं रहने का फैसला तुम्हारे पर ही छोड़ता हूं.’’
आज दिवाकर की मां की मृत्यु को हुए कई दिन बीत चुके थे. तेरहवीं का कार्य सुचारु रूप से संपन्न हो गया. रिंकू भी पहुंच गई थी. रात को ही रिंकू को अपने साथ ले कर श्रुति भारी मन से वापस आ गई. वह उस से ऐसे चिपकी हुई थी जैसे कोई बच्चा डर के बाद मां की गोद से चिपक जाता है. दिवाकर श्रुति व रिंकू को छोड़ने आया था पर दोनों के बीच फासला बना रहा.
श्रुति सोच रही थी जो दिवाकर नहीं कर सका वह बेचारी जेठानी दीदी ने दुनिया से जा कर कर दिखाया. मेरी सूनी गोद भर दी. वह आ तो गई पर ससुर की वृद्धावस्था और दिवाकर के हालात ने उसे फैसला बदलने को मजबूर कर दिया. उस ने तय किया कि रिंकू को होस्टल से हटा कर उस के दादाजी व चाचा के पास रह कर पढ़ाएगी. इस छोटी सी बच्ची को अपनों से दूर रहने को मजबूर नहीं करेगी. अब अगर नौकरी करेगी तो उसी शहर में जहां बच्ची के अपने घर वाले हैं और चाची के रूप में वह उस की मां है.