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बैरिस्टर बाबू: जब प्रथाओं के भंवर से निकलेगा, तो कैसा होगा अनिरुद्ध और बोंदिता का रिश्ता?

बंगाल में बसी ये कहानी है 8 साल की बोंदिता की, जो बहुत ही शरारती और चंचल है. जाने-अनजाने में ही सही, पर वो समाज में हो रहे भेदभाव और कुरीतियों पर अक्सर सवाल उठाती रहती है. जिसे सुन सब लोग दंग रह जाते हैं. आइए आपको बताते हैं इस नए शो की कहानी की एक खास झलक.

बोंदिता के विवाह की हुई तैयारी 

नन्ही बोंदिता का रिश्ता उसके मामा तय कर चुके हैं, पर अपनी माँ, सुमति से दूर जाने के ख्याल से परेशान बोंदिता अपने होने वाले पति को एक खत के ज़रिए ये लिखकर भेजती है कि वो शादी के बाद अपनी विधवा माँ, सुमति को भी अपने साथ ससुराल लाना चाहती है.

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सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ है अनिरूद्ध

मामी को किसी तरह इस खत के बारे में पता चल जाता है और अब बोंदिता के घरवाले ये बात सोच कर काफी परेशान हैं कि कहीं ये रिश्ता ना टूट जाए. लेकिन वो खत, बोंदिता के होने वाले पति की जगह कहानी के दूसरे मुख्य किरदार, अनिरूद्ध तक पहुंच जाता है. अनिरूद्ध, जो कि लंदन से वकालत की पढ़ाई पूरी करके अपने देश वापस आया है, उसने बाल-विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों से देश को आजाद करने की ठान रखी है.

60 साल के बूढ़े आदमी से होता है बोंदिता का रिश्ता 

खत की वजह से अपनी बेटी की शादी टूटने के डर से परेशान सुमति, हल्दी की रस्म वाले दिन ये देखकर खुश हो जाती है कि एक बूढ़ा आदमी हल्दी लेकर उनके घर आया है. पर उसका दिल दहक जाता है, ये जानकर कि वो 60 साल का आदमी कोई और नहीं बल्कि बोंदिता का होने वाला पति है.

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इन सब बातों से अनजान, 8 साल की हँसती-खेलती बोंदिता की जिंदगी बदलने की कगार पर है. क्या बोंदिता की शादी उस बुढ्ढे आदमी से होगी? या फिर अनिरूद्ध बचा लेगा बोंदिता को इस शादी से? आखिर क्या खेल खेलेगी किस्मत अनिरूद्ध और बोंदिता के साथ? प्रथाओं के भंवर से जब निकलेगा, तो कैसा होगा इनका रिश्ता? जानने के लिए देखिए बैरिस्टर बाबू, आज से, सोमवार से शुक्रवार रात 8:30 बजे, सिर्फ कलर्स पर.

सरकार को ललकारते छात्र

एक तरफ जहां प्रशासन व सरकार के खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आए हैं वहीं छात्र भी अपनी आवाज मुखर करने से पीछे नहीं हैं. जामिया, एएमयू और जेएनयू समेत देश के तमाम शैक्षणिक संस्थानों के छात्र बगावत कर रहे हैं, लाठी खा रहे हैं, लड़मर रहे हैं लेकिन फिर भी वे सरकार से दबने को तैयार नहीं.

तुम न दोगे आजादी हम लड़ कर लेंगे आजादी

है हक हमारी आजादी है जान से प्यारी आजादी

पूंजीवाद से आजादीसामंतवाद से आजादी

आजादी, आजादी, आजादी…

छात्रों द्वारा दिया यह आजादी का नारा आज देश के विभिन्न हिस्सों में गूंज रहा है. 2016 में जब जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से कन्हैया कुमार का यह नारा उठा था तब उसे देशद्रोही, आतंकवादी, नक्सली क्याक्या नहीं कहा गया. आज एक बार फिर छात्र उसी दौर से गुजर रहे हैं जब सरकार के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को देशद्रोह का नाम दे कर दबाने की कोशिश पुरजोर है. यह मोदी सरकार वह सरकार है जो छात्रों को कुचलने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है.

युवा नेता उमर खालिद ने एक ट्वीट में लिखा, ‘‘2005 में जेएनयू में चल रहे एक प्रोटैस्ट के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को छात्रों ने उन की आर्थिक नीतियों के खिलाफ काले  झंडे दिखाए थे. यह एक बड़ी खबर बन गई थी. ऐडमिन ने तुरंत छात्रों को नोटिस भेजा था. अगले ही दिन पीएमओ ने बीच में उतर कर ऐडमिन से छात्रों के खिलाफ किसी भी तरह का ऐक्शन लेने के लिए मना किया था क्योंकि विरोध करना छात्रों का लोकतांत्रिक अधिकार है.’’ वहीं, दूसरी तरफ वर्तमान मोदी सरकार है जिस ने विद्रोह कर रहे छात्रों की बोलती बंद करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है.

देश की राजनीति में छात्र आंदोलन अत्यधिक महत्त्व रखते हैं. भारत में छात्र आंदोलनों या युवा विरोध प्रदर्शनों का विस्तृत इतिहास रहा है. आजादी से पहले देश की आजादी के लिए युवाओं ने विरोध प्रदर्शनों, आंदोलनों, रैलियों और सत्याग्रहों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया. आजादी के बाद विद्यार्थियों द्वारा स्टूडैंट्स यूनियन का गठन हुआ जिस ने पहलेपहल विद्यार्थियों की आवाज को प्रशासन तक पहुंचाने का काम किया और बाद में देश की सरकारी नीतियों की आलोचना करना शुरू किया. प्रशासन और सरकार को हिला कर रख देने वाले छात्र आंदोलन लोकतंत्र का उदाहरण हैं. लेकिन आज इन्हें दबाने और छात्रों को विरोध करने से रोकने की प्रशासन की कोशिश बढ़ती जा रही है जो लोकतंत्र और देश के संविधान को नकारने से ज्यादा कुछ नहीं.

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वर्तमान में नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर जैसे मुद्दों पर छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं. नागरिकता संशोधन कानून के मुताबिक भारत सरकार हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई व पारसी शरणार्थियों को तो भारतीय नागरिकता प्रदान करेगी लेकिन मुसलमान शरणार्थियों को नहीं. सिर्फ मुसलमान ही नहीं बल्कि हर धर्म के लोगों ने इस कानून को संविधान के विरुद्ध पाया और यही कारण है कि 12 दिसंबर से ही इस कानून के विरोध में छात्र सड़कों पर उतर आए.

जामिया मिलिया इसलामिया, गुवाहाटी यूनिवर्सिटी, कोटन यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी, मद्रास यूनिवर्सिटी, दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईटी मुंबई, पंजाब यूनिवर्सिटी व आईआईएम अहमदाबाद समेत कई शैक्षिक संस्थानों के छात्रों ने इस नए कानून के खिलाफ जम कर विरोधप्रदर्शन किया. नतीजतन प्रशासन द्वारा भारत के कई हिस्सों में धारा 144 लगा कर प्रदर्शनों को रोकने की कोशिश की गई. छात्र आंदोलनों से सरकार कितनी भयभीत है, इस का आकलन इस बात से लगाया जा सकता है कि सड़कों पर ही नहीं, बल्कि कालेज कैंपस में घुस कर जामिया और अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के छात्रों पर पुलिस ने डंडे बरसाए.

छात्रों पर प्रशासन का पंजा

15 दिसंबर के दिन जामिया के छात्रों पर कैंपस के बाहर पुलिस ने लाठीडंडे बरसाए और कैंपस के अंदर डा. जाकिर हुसैन लाइब्रेरी में घुस कर छात्रों को पीटा. लाइबे्ररी की टूटी खिड़कियों से पुलिस की बर्बरता स्पष्ट दिखाई दे रही थी. पुलिस ने छात्रों पर आंसूगैस भी छोड़ी, साथ ही गोली चलने की आवाज ने छात्रों को अंदर तक  झं झोड़ कर रख दिया.

अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र व वर्तमान में जामिया से एलएलएम कर रहे मोहम्मद मिनहाजुद्दीन ने इस विरोध प्रदर्शन के चलते अपनी एक आंख खो दी. अफसोस इस बात का है कि वह इस आंदोलन का हिस्सा तक नहीं था. वह शांति से लाइब्रेरी में बैठा पढ़ रहा था जब पुलिस ने उस पर हमला किया.

मोहम्मद मिनहाजुद्दीन बताता है, ‘‘पुलिस वाले शीशा तोड़ कर अंदर आए थे. इब्न सीना ब्लौक का जो मेन गेट है, वहां पर शीशे वाला गेट है वे उस शीशे को तोड़ कर आए थे, पूरी तैयारी के साथ आए थे कि इन को मारना है. कोई बातचीत नहीं, कोई पूछताछ नहीं, कोई सवालजवाब नहीं, तुम लोग कौन हो, कहां से आए हो, कैसे बैठे हो, कब से बैठे हो, किसी से कुछ नहीं पूछा गया. बस, सीधे मारना शुरू कर दिया. लगभग 7-8 फुट की लाठियां थीं और एकएक बच्चे को 3-3 पुलिस वाले घेर कर मार रहे थे.’’

15 दिसंबर की ही शाम पुलिस अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी कैंपस में भी जामिया की ही तरह घुसी और स्टूडैंट यूनियन प्रैसिडैंट समेत कई छात्रों की पिटाई की. इस  झड़प में 60 छात्रों को चोटें आईं और वे बुरी तरह घायल हुए. यूनिवर्सिटी छात्रों के अनुसार न केवल पुलिस ने उन्हें आतंकवादी कहा बल्कि उन से जबरदस्ती ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाने के लिए भी कहा.

विरोध प्रदर्शन और पुलिस की छात्रों पर हिंसा का दौर यहीं नहीं रुका. पुलिस अभी तक खुद तो छात्रों को पीट ही रही थी लेकिन दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में जब गुंडों ने घुस कर छात्रों पर हिंसा की तो पुलिस ने उन्हें रोकने के बजाय गेट के बाहर खड़े हो उन की पहरेदारी भी की. 5 जनवरी की शाम 7:30 बजे हथियारबंद नकाबपोशों ने जेएनयू कैंपस में घुस कर स्टूडैंट यूनियन प्रैसिडैंट आइशी घोष व अन्य छात्रों समेत प्रोफैसरों से भी मारपीट की. पुलिस कैंपस के बाहर थी और 9.30 बजे वह कैंपस में घुसी. इस दौरान छात्रों पर गुंडों का यह हमला चलता रहा. लगभग 23 लोग बुरी तरह घायल हुए व उन्हें एम्स में भरती कराया गया.

जेएनयू स्टूडैंट यूनियन प्रैसिडैंट आइशी घोष के अनुसार, ‘‘घंटों बीत जाने के बाद भी जेएनयू ऐडमिनिस्ट्रेशन में किसी ने आ कर हम से हमारा हाल नहीं पूछा. उन्होंने नहीं पूछा कि हमें किसी तरह की सहायता चाहिए या नहीं. हमारी सुरक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए. छात्र डरे हुए हैं. लेकिन, एक बात साफ है कि हम एक रहेंगे. हमारी लड़ाई एडमिनिस्ट्रेशन के खिलाफ है. हम पर कैंपस में हुई हिंसा के लिए एडमिनिस्ट्रेशन जिम्मेदार है.’’ इस हमले के पीछे भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी का नाम भी सामने आया है लेकिन अब तक उस के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं की गई बल्कि आइशी घोष पर ही विरोध करने के कारण एफआईआर दर्ज करा दी गई.

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जेएनयू, जिसे वामपंथी विचारधारा के छात्रों के कारण देशद्रोही यूनिवर्सिटी तक कहा जाता है, के स्टूडैंट्स जेएनयू की बढ़ी फीस पर वाइस चांसलर जगदेश एम कुमार व प्रशासन के खिलाफ हफ्तों से विरोधप्रदर्शन कर रहे थे न कि इस नए कानून पर. लेकिन, जेएनयू पर हुए हमले से यह साफ हो गया कि सरकार की मंशा जेएनयू को हमेशा के लिए बंद करने की है जिस से सरकार की आंख का सब से बड़ा कांटा यानी जेएनयू को हमेशा के लिए हटाया जा सके.

जनआंदोलन का बड़ा हिस्सा छात्र

विश्वविद्यालयों से बाहर दिल्ली के शाहीन बाग, मुंबई, असम, त्रिपुरा आदि राज्यों के विभिन्न क्षेत्रों में नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के खिलाफ हो रहे जनआंदोलनों में छात्र बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं. शाहीन बाग में छात्रों ने ‘रीड टू रिवोल्यूशन’ का एक कोना बनाया है जहां आने वाले हर व्यक्ति को वे किताब देते हैं बैठ कर पढ़ने के लिए, पोस्टर आदि बनाते हैं व लोगों को मदद देने के लिए प्रोत्साहित भी करते हैं.

जिस देश का हर मीडिया हाउस लगातार सरकारी गुलाम बनता जा रहा हो वहां सोशल मीडिया के जरिए ये छात्र सचाई उजागर करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं. आज इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप और फेसबुक जैसे प्लेटफौर्म्स छात्रों के लिए वादविवाद का केंद्र बने हुए हैं. वे छात्र जो विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा हैं अपनी बुलंद आवाज को, अपने विचारों को सोशल मीडिया के जरिए जनजन तक पहुंचा रहे हैं. वहीं इस कानून के समर्थक या कहें मोदीभक्त उन के हौसले को कम करने की पूरी कोशिश में लगे हैं.

एकतरफ जहां मोदीभक्त तर्कहीन वाद की कोशिश में लगे रहते हैं वहीं पढ़ेलिखे छात्रों द्वारा तर्कों के साथ विवरण दिया जाता है. एक छात्र पोस्ट करता है, ‘नरेंद्र मोदी के सपोर्टर्स का कहना है कि लैफ्ट ने एबीवीपी को मारा. हिंदू रक्षा दल के पिंकी चौधरी जेएनयू हिंसा की जिम्मेदारी लेते हैं. तो क्या इस का मतलब यह हुआ कि एबीवीपी को हिंदू रक्षा दल के लोगों ने लेफ्ट विंग के साथ मिल कर मारा है? प्रिय नरेंद्र मोदी, अपने सपोर्टर्स के लिए लौजिक की कुछ क्लासेस लगवा लीजिए, और हां, अमित शाह के साथ खुद भी वह क्लास अटैंड कर लीजिएगा.’

इस में दोराय नहीं कि क्यों जगहजगह सरकार इंटरनैट बंद करने में लगी हुई है? सरकार छात्र विद्रोह को सड़कों से तो साफ करना ही चाहती है, साथ ही, सोशल मीडिया पर भी उन्हें कुछ बोलने नहीं देना चाहती, जैसे उस ने कश्मीर का इंटरनैट बंद कर दिया था. अच्छा है, सरकार छात्रों से डर तो रही है, उसे डरना भी चाहिए.

रागिनी दूबे हत्याकांड : भाग 3

जितेंद्र दूबे बेटियों को बेटे से कम नहीं आंकते थे. बेटियों की शिक्षादीक्षा पर भी वह खर्च करने में पीछे नहीं रहते थे. बेटियां भी पिता के विश्वास पर खरा उतरने की कोशिश करती थीं.

तीनों बेटियों में नेहा बीए में थी, रागिनी 11वीं उत्तीर्ण कर के 12वीं में आई थी और सिया 10वीं पास कर के 11वीं में आई थी. रागिनी, नेहा और सिया दोनों से बिलकुल अलग स्वभाव की थी.

रागिनी पढ़ाईलिखाई से ले कर घर के कामकाज तक मन लगा कर करती थी. वह शर्मीली और भावुक लड़की थी. जरा सी डांट पर उस की आंखों से गंगायमुना बहने लगती थी, इसलिए घर वाले उसे बड़े लाड़प्यार से रखते थे.

बात 2015 के करीब की है. उस समय रागिनी और सिया दोनों सलेमपुर के भारतीय संस्कार स्कूल में अलगअलग क्लास में पढ़ती थीं. रागिनी 10वीं में थी और सिया 9वीं में. दोनों बहनें रोजाना बजहां गांव से हो कर पैदल ही स्कूल आतीजाती थी. स्कूल जातेआते उन पर बजहां गांव के ग्रामप्रधान कृपाशंकर तिवारी के बेटे आदित्य उर्फ प्रिंस की नजर पड़ गई.

प्रिंस पहली ही नजर में रागिनी पर फिदा हो गया. रागिनी साधारण शक्लसूरत की थी लेकिन उस में गजब का आकर्षण था. रागिनी और सिया जब भी स्कूल जातीं, प्रिंस गांव के बाहर 2-3 दोस्तों के साथ उन के इंतजार में खड़ा मिलता. दोनों बहनें उन सब से किनारा कर के राह बदल कर निकल जाती थीं.

ऐसा नहीं था कि दोनों बहनें उन के इरादों से अनजान थीं, इसलिए वे उन से बचने की कोशिश करती थीं. रागिनी प्रिंस से जितनी दूर भागती थी, वह उतना ही उस के करीब आने की कोशिश करता था. वह रागिनी से एकतरफा मोहब्बत करने लगा था. प्रिंस को रागिनी को देखे बिना चैन नहीं मिलता था.

आदित्य तिवारी उर्फ प्रिंस उसी बजहां गांव का रहने वाला था, जहां से हो कर रागिनी और सिया स्कूल जाती थीं. उस के पिता कृपाशंकर तिवारी बजहां के ग्रामप्रधान थे. तिवारी की इलाके में तूती बोलती थी.

कृपाशंकर तिवारी का बेटा प्रिंस बाप के नक्शेकदम पर चल रहा था. पिता की तरह ही वह अभिमानी हो गया था. दूसरों को वह तुच्छ और कीड़ेमकोड़ों से ज्यादा कुछ नहीं समझता था. जब भी वह घर से निकलता तो अकेला नहीं होता था. उस के साथ 5-6 लड़कों की टोली रहती थी. उन में उस के चचेरे भाई नीरज तिवारी, सोनू तिवारी और दोस्त दीपू यादव खास थे.

ये तीनों उस के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे. दोस्तों पर वह पैसा पानी की तरह बहाता था. जब से रागिनी प्रिंस के दिल में उतरी थी, तब से उस का दिन का चैन रातों की नींद उड़ गई थी. वह रागिनी से तथाकथित एकतरफा मोहब्बत करने लगा था.

उसे पाने के लिए वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार था. जबकि रागिनी उस से प्यार करना तो दूर की बात, उस से घृणा करना भी अपनी तौहीन समझती थी.

प्रिंस रागिनी के प्यार में इस कदर पागल था कि उस ने खुद को कमरे में कैद कर लिया था. न तो वह यारदोस्तों से पहले की तरह मिलता था और न ही उन से बातें करता था. प्रिंस की हालत देख कर उस के दोस्त नीरज, सोनू और दीपू तीनों परेशान थे.

यार की जिंदगी की सलामती की खातिर तीनों ने फैसला किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, चाहे सूली पर ही क्यों न चढ़ना पड़े, दोस्त के प्यार को उस के कदमों में ला कर डाल देंगे.

एक दिन की बात है नीरज, सोनू और दीपू ने मिल कर रागिनी और सिया को स्कूल जाते वक्त रास्ते में रोक लिया. तीनों के अचानक रास्ता रोकने से दोनों बहनें बुरी तरह डर गईं. उस के बाद नीरज और सोनू ने प्रिंस के प्रेम करने वाली बातें बता कर रागिनी पर दबाव बनाया कि वह प्रिंस के प्यार को स्वीकार ले. लेकिन रागिनी ने उन तीनों को दुत्कार दिया.

रागिनी की बातें सीधे नीरज के दिल पर छुरी की तरह लगी थीं. उसे कतई उम्मीद नहीं थी कि रागिनी उसे ऐसा जवाब देगी. रागिनी की बातों से उसे धक्का लगा. चूंकि मामला भाई के प्यार से जुड़ा था, इसलिए वह रागिनी के अपमान को अमृत समझ कर पी गया.

उस समय तो नीरज और उस के दोस्तों ने रागिनी को कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन यह बात नीरज ने अपने तक ही सीमित नहीं रखी.

घर पहुंच कर उस ने यह बात प्रिंस को बता दी. भाई की बात सुन कर प्रिंस गुस्से से उबल पड़ा. उसे लगा कि रागिनी में इतनी हिम्मत कहां से आ गई जो उस ने उस के प्यार को ठुकरा दिया. वह उस के प्यार को ठुकरा सकती है तो वह भी उसे जीने नहीं देगा. अगर वह मेरी नहीं हो सकती तो मैं उसे किसी और की भी नहीं होने दूंगा.

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नीरज और उस के दोस्तों ने प्रिंस के गुस्से को और हवा दे दी. रागिनी के प्यार में मर मिटने वाला जुनूनी आशिक प्रिंस रागिनी द्वारा प्रेम प्रस्ताव ठुकराए जाने पर एकदम फिल्मी खलनायक की तरह बन गया. उस दिन के बाद से रागिनी जब भी कहीं आतीजाती दिखती, प्रिंस चारों दोस्तों के साथ अश्लील शब्दों का प्रयोग कर के उसे छेड़ता रहता. वह अपने आवारा दोस्तों को ले कर उस के घर तक पहुंच जाता और घर वालों को धमकाता.

प्रिंस की आवारागर्दी और राह आतेजाते आए दिन छेड़छाड़ करने से रागिनी और उस के घर वाले परेशान हो गए थे. डर के मारे रागिनी ने घर से बाहर निकलना बंद कर दिया था. वह स्कूल भी नहीं जा रही थी. प्रिंस का खौफ रागिनी के दिल में उतर गया था.

जब बात हद से आगे बढ़ गई तो रागिनी के पिता जितेंद्र दूबे ने बांसडीह थाने में प्रिंस और उस के दोस्तों के खिलाफ लिखित शिकायत दी. प्रधान कृपाशंकर की ऊंची पहुंच और दरोगा के हस्तक्षेप की वजह से मामला वहीं का वहीं रफादफा हो गया. इस के बाद प्रिंस और भी उग्र हो गया. उसे लग रहा था कि जितेंद्र दूबे की इतनी हिम्मत कैसे हो गई कि उस के खिलाफ थाने में शिकायत करने पहुंच गया.

बात अप्रैल, 2017 की है. प्रिंस अपने तीनों दोस्तों नीरज, सोनू और दीपू यादव को ले कर दोबारा जितेंद्र दूबे के घर गया और उन्हें धमकाया कि आज के बाद तुम्हारी बेटी रागिनी अगर पढ़ने स्कूल गई तो वह दिन उस की जिंदगी का आखिरी दिन होगा.

प्रिंस की धमकी से रागिनी के घर वाले डर गए. उन्होंने उस दिन से रागिनी को स्कूल भेजना बंद कर दिया. प्रिंस की धमकी से डर कर रागिनी कई महीनों तक स्कूल नहीं गई.

उस साल रागिनी का इंटरमीडिएट था. स्कूल में परीक्षा फार्म भरे जा रहे थे. परीक्षा फार्म भरने के लिए वह 8 अगस्त, 2017 को छोटी बहन सिया के साथ स्कूल जा रही थी. पता नहीं कैसे प्रिंस को उस के जाने की खबर मिल गई और उस ने दोस्तों के साथ मिल कर उसे मार डाला.

पुलिस ने रागिनी हत्याकांड के नामजद 5 आरोपियों में से 2 आरोपियों प्रिंस और दीपू यादव को गोरखपुर भागते समय गिरफ्तार कर लिया था. बाकी के 3 आरोपी प्रधान कृपाशंकर, नीरज तिवारी और सोनू फरार थे.

एसपी सुजाता सिंह ने फरार आरोपियों को गिरफ्तार करने के सख्त आदेश दे दिए थे. आरोपियों को गिरफ्तार कराने के लिए मृतका की बड़ी बहन नेहा दूबे ने सैकड़ों छात्रछात्राओं के साथ कलेक्ट्रेट परिसर में धरनाप्रदर्शन किया. परिवार के सदस्यों को मिल रही धमकी के लिए नेहा ने पुलिस प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया.

कांग्रेस के नेता सागर सिंह राहुल ने भी लापरवाही बरतने के लिए पुलिस प्रशासन को कोसा. पूरे बलिया के सभ्य नागरिक जितेंद्र दूबे के साथ थे. रागिनी को न्याय दिलाने के लिए रोज धरनाप्रदर्शन किए जा रहे थे.

पुलिस पर फरार आरोपियों को बचाने के आरोप लगने लगे थे. जब चारों ओर से पुलिस की आलोचना होने लगी, तब कहीं जा कर पुलिस सक्रिय हुई और फरार आरोपियों प्रधान कृपाशंकर तिवारी, सोनू तिवारी और नीरज तिवारी के ऊपर शिकंजा कसा तो एकएक कर के तीनों ने कोर्ट में आत्मसमर्पण कर दिया.

रागिनी दूबे हत्याकांड के पांचों आरोपियों कृपाशंकर तिवारी, प्रिंस तिवारी, नीरज तिवारी, सोनू तिवारी और दीपू यादव जेल पहुंच गए थे.

पुलिस ने इस मुकदमे में भादंसं की धाराओं 147, 148, 149, 302, 354ए व 7/8 पोक्सो एक्ट के अंतर्गत पांचों आरोपियों के खिलाफ 26 अक्तूबर, 2017 को न्यायालय में आरोपपत्र दाखिल कर दिया. इस के बाद यह मुकदमा न्यायालय में सवा 2 साल तक चलता रहा.

बाहुबली ग्रामप्रधान कृपाशंकर तिवारी ने मुकदमे को खत्म करने के लिए वादी जितेंद्र दूबे को खूब धमकाया. घटना की एकमात्र चश्मदीद गवाह सिया को गवाही न देने के लिए गुंडे भेज कर रागिनी जैसा अंजाम भुगतने की धमकियां दी गईं, लेकिन ऐसी धमकी का न तो जितेंद्र दूबे पर असर हुआ और न ही सिया पर.

बाहुबली कृपाशंकर तिवारी को कानून के अंतर्गत मुंहतोड़ जवाब देने के लिए जितेंद्र दूबे ने कमर कस ली थी. इस दौरान अभियोजन पक्ष के सरकारी वकील सुनील कुमार ने अदालत को घटना से संबंधित तमाम सबूत दिए, साथ ही 12 गवाहों की गवाहियां कराईं.

बचाव पक्ष के अधिवक्ता अशोक कुमार ने अपने मुवक्किलों को बचाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन वे ऐसा कोई सबूत पेश नहीं कर पाए, जो उन्हें बचा पाता.

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12 सितंबर, 2019 को दोनों अधिवक्ताओं की बहस पूरी हुई. न्यायाधीश चंद्रभानु सिंह ने दोनों अधिवक्ताओं की बहस सुनी और अपना फैसला सुरक्षित रखा.

9 दिनों बाद यानी 20 सितंबर, 2019 को उन्होंने अपना फैसला सुनाया, जिस में पांचों  अभियुक्त दोषी ठहराए गए. फैसला सुनाए जाने तक पांचों अभियुक्त जेल में ही बंद थे.

गवाहों के बयानों और सबूतों के आधार पर न्यायाधीश चंद्रभानु सिंह ने रागिनी दूबे की हत्या के मामले में सही न्याय कर दिया था.

रागिनी दूबे हत्याकांड : भाग 2

सूचना पा कर थानेदार बृजेश शुक्ल पुलिस टीम के साथ अस्पताल पहुंच गए. रागिनी की हत्या की सूचना मिलते ही गांव वाले और जितेंद्र दूबे के जानने वाले अस्पताल पहुंचने लगे. उन का गुस्सा पुलिस वालों पर निकल रहा था. वे पुलिस मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे.

स्थिति को संभाल पाना पुलिस वालों के लिए मुश्किल हो रहा था. जैसेतैसे स्थिति पर काबू पाया जा सका. भीड़ को अलग कर के पुलिस ने कानूनी काररवाई शुरू कर दी. सब से पहले उन्होंने लाश का मुआयना किया. हत्यारों ने रागिनी के गले पर चाकू से वार कर के उसे मौत के घाट उतारा था.

थानेदार शुक्ल ने शव का पंचनामा भर कर उसे पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भिजवा दिया. उस के बाद एकमात्र चश्मदीद गवाह सिया से हत्यारों के बारे में पूछताछ की. सिया हत्यारों को पहचाती थी. उस ने थानेदार को उन के बारे में सब कुछ बता दिया.

हत्यारे बजहां गांव के रहने वाले ग्राम प्रधान कृपाशंकर तिवारी का बेटा आदित्य तिवारी उर्फ प्रिंस, भतीजे सोनू तिवारी, नीरज तिवारी और दीपू यादव थे. चाकू से वार प्रिंस ने किया था और उस की मदद सोनू, नीरज और दीपू ने की थी.

सिया ने जो बयान पुलिस को दिया उस के अनुसार मामला कुछ इस तरह था. प्रधान का बेटा प्रिंस सालों से रागिनी को तंग कर रहा था. वह रागिनी से तथाकथित एकतरफा प्रेम करता था, लेकिन रागिनी उसे पसंद नहीं करती थी. रागिनी ने प्रिंस की हरकतों पर कोई तवज्जो नहीं दी, तो वह ओछी हरकतों पर उतर आया. वह रागिनी को रास्ते में आतेजाते छेड़ने लगा.

वह भद्देभद्दे कमेंट करता था. लेकिन रागिनी ने उसे पलट कर जवाब नहीं दिया. वह उस की हरकतों को बरदाश्त करती रही. पर जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा तो उस ने अपने घर वालों को प्रिंस की हरकतों के बारे में बता दिया.

बेटी की परेशानी सुन कर जितेंद्र को दुख भी हुआ और क्रोध भी आया. बात बेटी के मानसम्मान से जुड़ी थी. वह इतनी बड़ी बात को नजरअंदाज नहीं कर सकते थे. जितेंद्र उसी समय शिकायत ले कर ग्रामप्रधान कृपाशंकर तिवारी के घर जा पहुंचे.

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कृपाशंकर घर पर ही मिल गया. जितेंद्र दूबे ने उस के बेटे की ओछी हरकतों का पिटारा उस के सामने खोल दिया. लेकिन प्रधान ने उन की शिकायत पर कोई ध्यान नहीं दिया, उलटे उन्हें ही डांटडपट कर वहां से भगा दिया. जितेंद्र अपना सा मुंह ले कर घर लौट आए.

जाहिर है इस का परिणाम उलटा ही निकलना था. शाम को आवारागर्दी कर के घर लौटे बेटे से कृपाशंकर ने पूछा कि बांसडीह के पंडित जितेंद्र तुम्हारी शिकायत ले कर आए थे. तुम उन की बेटी को आतेजाते छेड़ते हो, तंग करते हो.

इस पर प्रिंस ने सफाई दी कि यह सब झूठ है. मैं ने किसी के साथ कोई बदसलूकी नहीं की. मैं तो उस की बेटी को जानता तक नहीं, छेड़ने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. पंडित मुझे बदनाम करने के लिए झूठ बोल रहा है.

उस समय प्रिंस ने पिता की आंखों में धूल झोंक कर खुद को बचा लिया. उस के पिता ने उस की बातों पर यकीन भी कर लिया. पैसे और ताकत के गुरूर में अंधे पिता को बेटे की करतूत दिखाई नहीं दी. इस के बाद प्रिंस को रागिनी मामूली सी लड़की लगने लगी.

गुस्से में उस ने रागिनी से बदला लेने की ठान ली. रागिनी ने यह बात अपने घर में क्यों बताई और उस का पिता जितेंद्र दूबे शिकायत ले कर उस के पिता के पास क्यों गया, दोनों ही बातें प्रिंस को कचोट रही थीं. आखिरकार प्रिंस ने वही किया, जो उस ने करने की ठान ली थी.

बहरहाल, थानेदार बृजेश शुक्ल ने जितेंद्र दूबे की तहरीर पर 5 नामजद आरोपियों आदित्य उर्फ प्रिंस, ग्रामप्रधान कृपाशंकर तिवारी, उन के दोनों भतीजों सोनू तिवारी व नीरज तिवारी तथा दीपू यादव के खिलाफ हत्या व छेड़छाड़ की धाराओं में मुकदमा दर्ज कर लिया.

मामला बेहद गंभीर और दिल दहला देने वाला था. दिनदहाड़े हुई घटना से पूरा इलाका थर्रा उठा था. एसपी सुजाता सिंह इस मामले को ले कर बेहद गंभीर थीं. उन्होंने अपराधियों को गिरफ्तार करने के सख्त आदेश दिए.

कप्तान का आदेश मिलते ही थानेदार बृजेश शुक्ल और उन की पुलिस टीम ने आरोपियों को गिरफ्तार करने के लिए कमर कस ली. फलस्वरूप जिले से सटे उन बाहरी इलाकों की चारों ओर से नाकाबंदी कर दी गई, जो दूसरे जिलों में जा कर खुलते थे.

अपराधियों को पकड़ने के लिए पुलिस मुस्तैद थी. जल्दी ही पुलिस को इस का लाभ भी मिल गया. बलिया से हो कर गोरखपुर जाने वाली रोड पर 2 आरोपी आदित्य तिवारी उर्फ प्रिंस और दीपू यादव उस समय पुलिस के हत्थे चढ़ गए जब वे जिला छोड़ कर गोरखपुर भाग रहे थे.

पुलिस दोनों गिरफ्तार अभियुक्तों को ले कर थाना बांसडीह रोड पहुंची और उन से रागिनी दूबे हत्याकांड की गहनता से पूछताछ की. पहले तो प्रधान के बेटे प्रिंस ने अपने पिता की ताकत की धौंस झाड़ी, अकड़ भी दिखाई, लेकिन पुलिस की अकड़ के सामने उस की अकड़ ढीली पड़ गई.

आखिरकार दोनों ने पुलिस के सामने अपने घुटने टेक दिए और अपना जुर्म कबूल कर लिया. बाकी के तीनों आरोपी मौके से फरार हो गए थे. यह 10 अगस्त, 2017 की बात है.

आदित्य तिवारी उर्फ प्रिंस और दीपू यादव से पुलिसिया पूछताछ और बयानों के आधार पर दिल दहला देने वाली घटना की जो कहानी सामने आई, वह मानव मन को झिंझोड़ देने वाली थी.

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55 वर्षीय जितेंद्र दूबे मूलत: बलिया जिले के गांव बांसडीह के रहने वाले थे. उन का 6 सदस्यों का भरापूरा परिवार था. पतिपत्नी और  4 बच्चे, जिन में 3 बेटियां नेहा, रागिनी और सिया व 1 बेटा अमन था. जितेंद्र निजी व्यवसाय से अपने परिवार का भरणपोषण करते थे. उन का परिवार खुशहाल था और मजे से जी रहा था.

जितेंद्र दूबे ने अपने बच्चों में संस्कार, आदर्श और मानमर्यादा कूटकूट कर भरी थी. बांसडीह के लोग उन की बेटियों की मिसाल देते थे. उन की बेटियां न तो बेवजह किसी के घर उठतीबैठती थीं और न ही फालतू में गप्पें लड़ाती थीं.

अगले भाग में पढ़ें- प्रिंस को रागिनी को देखे बिना चैन नहीं मिलता था.

रागिनी दूबे हत्याकांड : भाग 1

सदियों से अनचाही सी रवायत चली आ रही है कि धनदौलत और ताकत वाले अपने से कमतर लोगों को दबा कर रखते हैं और उन का मनमाना शोषण करते हैं. यह बात तब और घातक हो जाती है जब ऐसे लोग कमजोरों की बहूबेटियों पर नजरें जमाने लगते हैं. अमीर घर के आदित्य उर्फ प्रिंस द्वारा रागिनी की हत्या भी इसी सब की शृंखला थी. लेकिन कानून ने…

उस रोज सितंबर 2019 की 20 तारीख थी. बलिया के जिला एवं सत्र (विशेष) न्यायाधीश चंद्रभानु

सिंह को बलिया के बहुचर्चित रागिनी दूबे हत्याकांड में फैसला सुनाना था. दोनों पक्षों के वकीलों की दलीलें पूरी हो चुकी थीं. अभियुक्त कृपा शंकर तिवारी, आदित्य तिवारी उर्फ प्रिंस, नीरज तिवारी, सोनू तिवारी और दीपू यादव अदालत में मौजूद थे. उन के अलावा अदालत में फैसला सुनने वालों की भी भीड़ थी.

आखिरी दलीलों के बाद न्यायाधीश चंद्रभानु सिंह ने फैसला लिख कर सुरक्षित रख लिया था. जब उन्होंने फैसले की फाइल उठा कर सामने रखी तो अदालत में सन्नाटा छा गया.

न्यायाधीश चंद्रभानु सिंह ने अदालत में मौजूद पांचों अभियुक्तों पर उड़ती सी नजर डाल कर फैसला सुनाना शुरू किया, ‘अदालत में पेश किए गए तमाम सबूतों और 12 गवाहों की गवाहियों से पांचों अभियुक्त दोषी साबित हुए हैं. इसलिए यह अदालत दोषियों कृपाशंकर तिवारी, आदित्य तिवारी, नीरज तिवारी और सोनू तिवारी को उम्रकैद की सजा सुनाती है. उम्रकैद के साथसाथ इन चारों को 50-50 हजार का जुर्माना भी भरना होगा.’

एक पल रुक कर न्यायाधीश चंद्रभानु सिंह ने आगे कहा, ‘एक अभियुक्त दीपू यादव जो किशोर है का मामला अभी बाल न्यायालय में विचाराधीन है. पांचों मुजरिम जमानत पर चल रहे थे. तत्काल प्रभाव से पांचों के जमानत बांड निरस्त किए जाते हैं. अदालत 4 मुजरिमों को जेल भेजने का आदेश देती है. जबकि पांचवें दोषी दीपू यादव को बाल कारागर भेजा जाएगा.’

अदालत के आदेश का तत्काल पालन हुआ. पुलिस ने पांचों दोषियों को गिरफ्त में ले लिया, जिन में से कृपाशंकर तिवारी, आदित्य तिवारी, नीरज तिवारी और सोनू तिवारी को जिला कारागर भेज दिया गया, जबकि दीपू यादव को बालगृह भेजा गया.

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जिस केस में इन लोगों को सजा सुनाई गई थी, वह 2 साल पहले 8 अगस्त, 2017 को हुआ था. उस दिन नाबालिग रागिनी दूबे के साथ जो कुछ हुआ वह दिल दहला देने वाला था. धनदौलत और गुरूर में अंधे बजहां ग्रामप्रधान कृपाशंकर तिवारी के बेटे आदित्य तिवारी उर्फ प्रिंस ने एकतरफा प्यार में अपने दोस्तों के साथ मिल कर नाबालिग रागिनी दूबे के साथ जो हैवानियत भरा खेल खेला था, उस से इंसानियत भी शरमा गई थी.

8 अगस्त, 2017 की सुबह रागिनी दूबे तैयार हो कर अपनी बहन सिया के साथ स्कूल जाने के लिए घर से निकली थी. इन बहनों का घर बलिया जिले की बांसडीह रोड थाने के अंतरगत आने वाले बांसडीह गांव में था. रागिनी और सिया सलेमपुर के भारतीय संस्कार स्कूल में पढ़ती थी. रागिनी 12वीं में थी और सिया 11वीं में.

दरअसल डर की वजह से रागिनी महीनों से स्कूल नहीं जा पाई थी. उसे बोर्ड की परीक्षा के फार्म के बारे में पता करना था कि फार्म कब भरा जाएगा. साथ ही गैरहाजिरी में छूटी पढ़ाई के बारे में भी जानना था. इसीलिए वह बहन के साथ स्कूल जा रही थी.

रागिनी और सिया अकसर पड़ोस के गांव बजहां के काली मंदिर के रास्ते से स्कूल जाती थीं. उस दिन भी वे बातें करती हुई उसी रास्ते स्कूल जा रही थीं. जब दोनों बहनें काली मंदिर के पास पहुंची, तो अचानक 2 बाइक आड़ेतिरछे उन के सामने आ कर खड़ी हो गईं. दोनों बाइकों पर 4 युवक सवार थे.

अचानक सामने आ कर रुकी बाइकों को देख रागिनी और सिया सकपका गईं, क्योंकि वे दोनों बाइकों से भिड़तेभिड़ते बची थीं.

उन युवकों की इस हरकत पर रागिनी को गुस्सा आया तो वह उन पर चिल्लाई, ‘‘दिखता नहीं है क्या तुम्हें? अंधे हो गए हो?’’

‘‘दिखता भी है और अंधा भी नहीं हूं. बोल, क्या कर लेगी?’’ गुरूर में डूबा युवक बाइक से उतरते हुए बोला, वह आदित्य तिवारी उर्फ प्रिंस था. उस ने आगे कहा, ‘‘जा तुझे जो करना है, कर लेना. मैं नहीं डरता. मैं यहां से नहीं हटूंगा.’’

‘‘देखो, शराफत से हमारा रास्ता छोड़ दो और हमें जाने दो.’’

‘‘अगर रास्ता नहीं छोड़ा तो क्या करोगी?’’ प्रिंस अकड़ते हुए बोला.

‘‘दीदी, क्यों बहस करती हो इन से. मां ने कहा था कि इन के मुंह मत लगना. इन के मुंह लगोगी तो कीचड़ के छींटे हम पर ही पड़ेंगे.’’ सिया ने रागिनी को समझाया.

‘‘देख, तेरी छोटी बहन कितनी समझदार है, कितनी समझदारी भरी बातें कर रही है.’’ प्रिंस ने रागिनी पर तंज कसा.

‘‘नहीं सिया नहीं, आज मैं रास्ता नहीं बदलूंगी और न ही इन कमीनों से डरूंगी. बहुत जी ली, इन चांडालों से डरडर के. इन कुत्तों ने मेरा जीना हराम कर रखा है. इन से जितना डरेंगे, ये हमें उतना ही डराएंगे. इन्हें इन की औकात दिखानी ही पड़ेगी.’’

‘‘ओ, झांसी की रानी.’’ प्रिंस गुर्राया, ‘‘किसे औकात दिखाएगी तू, मुझे. तुझे पता है किस से पंगा ले रही है. प्रधान कृपाशंकर तिवारी का बेटा हूं. प्रिंस नाम है मेरा. मिनटों में छठी का दूध याद दिला दूंगा. तेरी औकात क्या है कुतिया. मैं ने तुझे स्कूल जाने से मना किया था कि तू स्कूल नहीं जाएगी.’’

‘‘हां, तो.’’ रागिनी डरी नहीं बल्कि प्रिंस के सामने तन कर खड़ी हो गई, ‘‘तू होता कौन है, मुझे कहीं जाने से रोकने वाला?’’

‘‘दीदी, क्यों बेकार की बहस किए जा रही हो.’’ सिया बोली, ‘‘चलो यहां से.’’

‘‘नहीं सिया, तुम चुप रहो.’’ रागिनी ने सिया से कहा, ‘‘कहीं नहीं जाऊंगी यहां से. रोजाना मरमर के जीने से तो अच्छा है एक बार मर जाएं. मैं जिल्लत की जिंदगी नहीं जीना चाहती. इन दुष्टों को इन के किए की सजा मिलनी ही चाहिए.’’ रागिनी सिया पर चिल्लाई.

‘‘तूने दुष्ट किसे कहा कमीनी? ’’

‘‘तुझे, और किसे.’’

धीरेधीरे दोनों के बीच विवाद बढ़ता गया. बात बढ़ती देख प्रिंस के दोस्त अपनी बाइक से नीचे उतर आए और उस के पास जा खड़े हुए, सिया रागिनी को समझाने में लगी थी कि लड़कों से पंगा मत लो, यहां से चलो. लेकिन उस ने सिया की एक न सुनी.

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गुस्से से लाल हुए प्रिंस ने आव देखा न ताव, रागिनी को जोर से धक्का मारा. वह लड़खड़ा कर जमीन पर जा गिरी. रागिनी अभी संभलने की कोशिश कर ही रही थी कि प्रिंस उस पर टूट पड़ा. प्रिंस को रागिनी से भिड़ता देख उस के तीनों साथी भी उस का साथ देने लगे.

सब ने मिल कर रागिनी को कब्जे में ले लिया. दोस्तों का साथ पा कर इंसान से हैवान बने प्रिंस ने कमर में खोंस कर रखे फलदार चाकू से रागिनी के गले पर ताबड़तोड़ वार कर के उसे मौत के घाट उतार दिया. इस के बाद चारों बाइक पर सवार हो कर भाग गए.

घटना इतनी अप्रत्याशित थी कि न तो रागिनी ही कुछ समझ पाई थी और न ही सिया. आंखों के सामने बहन की हत्या होते देख सिया के मुंह से दर्दनाक चींख निकल गई. उस की चीख इतनी तेज थी की गांव वाले घरों से बाहर निकल आए और उस ओर दौड़े, जिधर से चीखने की आवाज आई थी.

उन्होंने देखा एक लड़की खून से सनी जमीन पर मरी पड़ी थी. वहीं दूसरी लड़की उस के पास बैठी दहाड़ मार कर रो रही थी. गांव वालों को समझते देर नहीं लगी कि मृतका उस की बहन है.

दिन दहाड़े हुई इस लोमहर्षक घटना से लोग सन्न रह गए. उन्हें लगा कि वाकई बदमाशों के हौसले इतने बुलंद हो गए हैं कि उन्होंने राह चलते बहूबेटियों का जीना हराम कर दिया है. गांव वालों ने इस घटना की सूचना बांसडीह रोड थाने के थानाप्रभारी बृजेश शुक्ल को दे दी.

गांव वाले जानते थे कि मृतका का नाम रागिनी दूबे है. जो पास के गांव बांसडीह निवासी जितेंद्र दूबे की बेटी है. उन्होंने यह खबर जितेंद्र दूबे को भी दे दी. बेटी की हत्या की सूचना मिलते ही दूबे परिवार में कोहराम मच गया.

जितेंद्र दूबे तुरंत घटना स्थल की ओर दौड़े. उन के पीछेपीछे उन की पत्नी वंदना और बड़ी बेटी नेहा भी थीं. शव के पास बैठी सिया दहाड़ मारमार कर रो रही थी. रागिनी की रक्तरंजित लाश देख जितेंद्र का गुस्सा फूट पड़ा. जैसेतैसे उन्होंने खुद पर काबू पाया और बेटी को टैंपो में लाद कर जिला अस्पताल ले गए, जहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया.

तभी जितेंद्र को बीते 2-3 दिन पहले की बात याद आ गई. कुछ शरारती तत्त्वों ने उन के घर आ कर धमकी दी थी कि अगर रागिनी स्कूल गई तो वह दिन उस की जिंदगी का आखिरी दिन होगा. आखिरकार हत्यारे अपने मंसूबों में कामयाब हो ही गए थे.

अगले भाग में पढ़ें- तुम उन की बेटी को आतेजाते छेड़ते हो, तंग करते हो.

Bigg Boss 13 : सिद्धार्थ शुक्ला के सपोर्ट में आई राखी सावंत

कलर्स चैनल पर प्रसारित होने वाला रिएलिटी शो Bigg Boss 13 का ग्रैंड फिनाले करीब आ रहा है. इस शो के विनर को लेकर दर्शकों के बीच काफी क्रेज है. आखिर इस शो का विनर कौन होगा. खबरों की माने तो Siddharth Shukla और Asim Riaz में से किसी एक के विनर बनने की संभावना है.

आपको बता दें, Rakhi Sawant ने सिद्धार्थ शुक्ला को सपोर्ट किया है. राखी सावंत ने इंस्टाग्राम पर एक वीडियो शेयर किया है. इस वीडियो में  राखी ने ये कहा कि बिग बौस बिल्कुल भी स्क्रिप्टेड नहीं होता है.

राखी ने इस वीडियो में  सिद्धार्थ शुक्ला की तारीफ की है और ये भी कहा इंसान जैसा होता है वैसा ही दिखता है. एक तरफ क्या रट लगा रखी है सबने सिद्धार्थ के बारे में. Siddharth Shukla  के बारे में आप जानते ही कितना हैं ? बहुत अच्छा लड़का है Siddharth. अपनी मेहनत से आगे बढ़ा है. जो भी अपनी मेहनत से आगे बढ़ा है उसे कोई नहीं गिरा सकता.

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राखी ने आगे कहा- मैं दूसरों के बारे में नहीं कहूंगी कि कौन जीतेगा. लेकिन मैं ये जरूर कहूंगी कि सिद्धार्थ बेहद अच्छा इंसान है. जो दोस्तों, पैरेंट्स की इज्जत करता है. उतार चढ़ाव सभी की जिंदगी में आते हैं. खैर, 15 फरवरी को मालूम पड़ेगा कि सीजन 13 का विनर कौन बनता है.

पिछले एपिसोड में आपने देखा कि सलमान खान ने शहनाज की एक्टिंग देखकर सिडनाज को एक खास टैग दिया.  सलमान ने  ये भी कहा कि आप दोनों को कोई अलग नहीं कर सकता है. आप दोनों ‘दो जिस्म एक जान हो’.

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संबंध

संबंध : भाग 4

‘‘तो इस में घबराने की क्या बात है, मां? भेज दो उस के मायके. बड़े चालाक बनते हैं वे. अपनी बीमार बेटी तुम्हारे मत्थे मढ़ गए.’’

‘‘उन्होंने तो हवाई जहाज की टिकटें भी भेजी हैं पर अंजू खुद नहीं जा रही और सच पूछो तो मेरा भी मोह पड़ गया है उस में, इतनी प्यारी है वह.’’

‘‘तो ठीक है, करती रहो सेवा उस की.’’

और फिर एक बार भी पलट कर उस का हाल नहीं पूछा था मैं ने. वैसे भी इधर व्यवसाय के सिलसिले में अश्विनी काफी परेशान थे. कई जगह माल भेज कर पैसों की वसूली नहीं हो पा रही थी. एक दिन शाम को बहुत झल्लाए थे मेरे ऊपर.

‘‘रीना, क्या तुम्हें नहीं मालूम तुम्हारी भाभी अस्पताल में हैं.’’

‘‘तो इस में नया क्या है?’’

‘‘क्या औपचारिकतावश उन का हाल नहीं पूछना चाहिए तुम्हें? अब वे घर आ गई हैं. चलो, मिल कर आते हैं. बीमार मनुष्य से यदि दो शब्द भी सहानुभूति के बोलो तो दुख बंट जाता है.’’

बेमन से मैं तैयार हो कर चल पड़ी थी. एक पल के लिए उन का पीला चेहरा देख कर तरस भी आया, पर न जाने दूसरे ही पल वह घृणा में क्यों बदल गया था. मैं मां से बतियाती रही. मां लगातार अंजू का ध्यान रख रही थीं और मैं कुढ़ रही थी. वातावरण को सामान्य बनाने के लिए मां बोली थीं, ‘‘रीना, अंजू का गाना सुनोगी?’’

मैं ने बेमन से ‘हां’ कहा. अंजू के प्रति छिपा तिरस्कार मां बखूबी पहचानती थीं. और तभी अंजू का गाना सुना. इतना मीठा स्वर मैं ने पहली बार सुना था. उन्होंने उस के कपड़े बदलवाए. उस की उंगलियां फिर मुड़ गई थीं. वह हमारे जाने से बहुत खुश होती थी. जितना मेरे पास आने का प्रयत्न करती मैं उसे मूक प्रताड़ना देती.

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अचानक अश्विनी अपने व्यवसाय की परेशानियां ले बैठे. अंजू सबकुछ चुपचाप सुनती रही. फिर भैया के साथ मिल कर उस ने बहुत मशविरे दिए. बाबूजी भी हतप्रभ से उस के सुझावों को सुन रहे थे. उस के सुझावों से अश्विनी को वाकई लाभ हुआ था. वह जब भी ठीक होती, भैया के साथ मेरे घर आती. गाड़ी में बैठ कर भैया के साथ कई बार दफ्तर जाती. बाबूजी तो अब वृद्ध हो गए थे. भैया दौरे पर चले जाते. वह फैक्टरी व दफ्तर अच्छी प्रकार संभाल लेती थी. 4 वर्ष के वैवाहिक जीवन में एक बार भी तो पलट कर मायके को न निहारा था उस ने. मेरी बिटिया को भी इतना प्यार करती कि कहना मुश्किल है. बाबूजी भी बेटी से ज्यादा स्नेह देते उसे. पर मैं उस वातावरण में घुटती थी.

बाबूजी तो अपने साथ घुमा भी लाते थे उसे. मां को कई बार हाथों से दवा और जूस पिलाते देखा था मैं ने. पर न जाने क्यों मेरे हृदय की वितृष्णा स्नेह में नहीं बदल पा रही थी. अश्विनी कई बार समझाते, पर मेरा दिल न पसीजता. बारबार अंजू का जिक्र होता और मैं उसे और तिरस्कृत करती. अब तो मैं ने वहां जाना भी छोड़ दिया था.

उड़तीउड़ती खबर सुनी थी कि आज अंजू मां की सेवा कर रही थी. अब उस ने घर भली प्रकार संभाल लिया है. कभी उस की बीमारी की खबर भी सुनती, पर एक कान से सुनती दूसरे कान से निकाल भी देती. एक दिन बाबूजी का फोन आया था. घबराहट से पूछ रहे थे, ‘‘अश्विनी कहां है?’’

‘‘वे तो अभी आए नहीं. क्यों? क्या बात है? क्या आज आप की बहू फिर बीमार हो गई?’’

मेरे स्वर की कड़वाहट छिपी न थी. उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, फोन का चोगा रख दिया था. तभी अश्विनी का क्रुद्ध स्वर सुनाई पड़ा था, ‘‘हद होती है शुष्क व्यवहार की. एक व्यक्ति जीवनमरण के बीच झूल रहा है और तुम्हारे विचार इतने ओछे हैं कि तुम उन का मुख भी नहीं देखना चाहतीं. मनुष्य को मानवता के प्रति तो प्रतिबद्ध होना ही चाहिए. रीना, कम से कम इंसानियत के नाते ही मां का हाल पूछ लेतीं.’’

‘‘क्या हुआ मां को?’’

‘‘पिछले कई दिन से वे डायलिसिस पर हैं. डाक्टर ने गुरदे का औपरेशन बताया है,’’ वे कपड़े बदल कर कहीं जाने की तैयारी कर रहे थे.

‘‘कहां जा रहे हो?’’

‘‘अस्पताल.’’

‘‘तुम ने मुझे आज तक बताया क्यों नहीं कि मां बीमार हैं?’’

‘‘इसलिए कि तुम्हारे जैसी पाषाण- हृदया नारी कभी पसीज नहीं सकती. जीवनमरण के बीच झूलती तुम्हारी मां को गुरदे की आवश्यकता है? तुम्हारे जैसी मंदबुद्धि स्त्री को इन बातों से क्या सरोकार?’’

मैं भी साथ जाने को तैयार हो गई थी. कितना गिरा हुआ महसूस कर रही थी मैं स्वयं को. यदि मां को कुछ हो गया तो? बूढ़ा जर्जर शरीर एक अनजान की सेवा करता रहा, उसे अपनाता रहा, और मैं? उस की कोखजायी उस की अवहेलना ही तो करती रही. आज अपने शरीर का एक अंग दे कर मां की जान बचा लूं तो धन्य समझूं स्वयं को.

गाड़ी की गति से तेज मेरे विचारों की गति थी.

अस्पताल के बरामदे में भाभी, भैया व बाबूजी बदहवास से खड़े थे. अंजू फूटफूट कर रो रही थी.

‘‘दीदी, मेरा परीक्षण करवाइए. मैं गुरदा दूंगी मां को.’’

मैं ने मन में सोचा, ‘ढोंगी स्त्री, यह मां की जान बचाएगी? वह सुखी संसार इसी के कारण तो नरक बना था.’ डाक्टर से विचारविमर्श करने के बाद मेरा व अंजू का परीक्षण किया गया. हम दोनों ही गुरदा दे सकते थे, पर अंजू जिद पर अड़ी रही. बोली, ‘‘मेरे जीवन का मूल्य ही क्या है? मैं ने इस परिवार को दिया ही क्या है. यदि रीना को कुछ हो गया तो उस की बिटिया को कौन पालेगा?’’ उस के तर्क के सामने हम चुप हो गए थे. भाभी व मां को औपरेशन थिएटर में ले जाया गया था.

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औपरेशन का समय लंबा ही होता जा रहा था. डाक्टर ने बताया कि औपरेशन कामयाब हो गया है पर अंजू खतरे से बाहर नहीं है.

हम सब सन्नाटे में आ गए थे. पहली बार मैं ने भाभी के गुणों को जाना था. किस प्रकार उस ने स्वयं को इस परिवार से बांधा, मैं यह सब अब समझ सकी थी. मेरी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह रही थी. आज तक अंजू की मौत मांगने वाली रीना उस की दीर्घायु की कामना कर रही थी. डर सा लग रहा था कहीं उस का यह अंतिम पड़ाव न हो. भाभी के साथ भैया व मांबाबूजी का बंधन अटूट है. मेरा मन उस के प्रति सहानुभूति से भर गया था. तभी डाक्टर ने बताया, ‘‘अब अंजू खतरे से बाहर है.’’

भाग कर उस के बिस्तर तक पहुंच गई थी मैं. उस के माथे पर चुंबनों की बौछार लगा दी थी. सभी विस्फारित नेत्रों से मुझे देख रहे थे. शायद विश्वास नहीं कर पा रहे थे पर मेरी आंखों की कोरों से निकले आंसू भाभी के आंसुओं से मिल कर यह दर्शा रहे थे मानो यथार्थ और प्रकृति का समागम हो. मां का हाथ मेरे सिर पर था इंतजार था कब दोनों स्वास्थ्यलाभ ले कर अपने घर लौटेंगी.

संबंध : भाग 3

किस से कहें, क्या कहें? भोलीभाली मां छलप्रवंचनाओं के छद्मों को कदापि नहीं पहचान पाई थीं, तभी तो ‘हां’ कर बैठी थीं.

मेहमानों की खुसुरफुसुर सुन कर लग रहा था उन्हें अंजू के बारे में पता लग चुका था. अभी रात्रि के 10 बजे थे. सहसा देविका मौसी घर आई थीं. बोलीं, ‘‘दीदी, तुम सब से अंजू मिलना चाहती है. उस की जिद है कि जब तक विपिन से बात नहीं करेगी, यह विवाह संपन्न न होगा.’’

इस पल तक हर दिल में व्याप्त समुद्री शोर थम सा गया. एक लमहे के लिए मानो सन्नाटा छाया सा लगने लगा था वहां. मुझे कुछ आशा की किरण दमकती लगी. गाड़ी निकाल कर मैं, मां व भैया अंजू के पास गए थे. बाबूजी अपने उच्च रक्तचाप के कारण जा नहीं पाए थे. कमरे में अंजू व देविका मौसी ही थीं. उस ने आगे बढ़ कर मां के चरण स्पर्श किए. मां ने भी आशीर्वाद दिया था. अंजू ने ही मौन तोड़ा था :

‘‘मां, क्या आप मुझे बहू के रूप में स्वीकार कर पाएंगी?’’

मां इस प्रश्न के लिए तैयार न थीं.

वे भैया की ओर उन्मुख हो कर बोलीं, ‘‘कोई भी फैसला किसी भी प्रकार के दबाव में आ कर मत कीजिएगा. इस में देविका चाची का भी कोई दोष नहीं है. लगभग 3 वर्ष पूर्व मेरी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी. बुरी तरह जख्मी हो गई थी मैं. डाक्टरों ने प्रयत्न कर के मुझे तो बचा लिया पर आज भी मुझे कई दिनों के अंतराल पर बेहोशी के दौरे पड़ते हैं. उस के 1-2 दिन बाद तक मेरे हाथ यों टेढ़े हो जाते हैं. सामान्य होने में कुछ वक्त लगता है. मांजी, मैं आप के घर की खुशियां बरबाद करना नहीं चाहती. देविका चाची भी इस दुर्घटना के बारे में अनभिज्ञ थीं. मैं पूर्णरूप से एक आदर्श बहू बनने का प्रयत्न करूंगी. विपिनजी, आप का निर्णय ही मेरा अंतिम निर्णय होगा.’’

स्पष्ट रूप से उस ने बात समझाई थी. मैं ने सोचा, भैया का उत्तर अवश्य ही नकारात्मक होगा. उन्होंने तो एक पल भी हामी भरने में देर न की थी.

मां को भी यह संबंध शायद स्वीकार था. कहीं कोरी वचनबद्धता के तहत तो भैया व मां ने हामी नहीं भरी थी? या दहेज के लालच में आ कर मां अपने बेटे का जीवन बलिदान कर रही थीं? मैं ने भैया से पूछा भी था, ‘एक अपाहिज के साथ जीवन बिता सकेंगे आप?’

मां से भी कहा था, ‘धनदौलत तो हाथों का मैल है, मां. अपने बेटे को यों बेचो मत. भैया का जीवन अंधकारमय हो जाएगा. अब क्या तुम्हारे दिन हैं सेवाटहल करने के, थक जाओगी तुम?’

अपने भाई की खुशियों को आग में जलता देख भला किस बहन का दिल रुदन करने को न चाहेगा. भैया ने अपना स्नेहिल हाथ मेरे सिर पर रख कर कहा था, ‘रीना, यदि अंजू विवाह के बाद यों दुर्घटनाग्रस्त हुई होती तो क्या हम उसे स्वीकार न करते?’

‘तब की बात और थी, भैया.’

‘अच्छा एक बात बता, यदि हमारी कोई बहन अपाहिज होती तो क्या हम उस का घर बसाने का प्रयत्न न करते?’

‘अवश्य करते, पर छल से नहीं.’

‘तो इस पूरे घटनाक्रम में अंजू तो दोषी नहीं. मैं वादा करता हूं मैं अपनी तरफ से किसी को शिकायत का मौका नहीं दूंगा.’

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हम सब चुप रह गए थे. सीधासरल व्यक्तित्व लिए भैया भविष्य की दुश्ंिचताओं से अनभिज्ञ से थे. मेरे प्रतिकार, विरोध, प्रतिवाद सब व्यर्थ हो गए थे. मैं मूकदर्शिका सी बनी अपने परिवार की खुशियां अग्नि के हवाले होते देख रही थी. जी चाहा, इस विवाह में सम्मिलित ही न होऊं, कहीं भाग जाऊं. पर सामाजिक बंधनों में जकड़े मनुष्य को मर्यादा के अंश सहेजने ही पड़ते हैं.

भैया का विवाह संपन्न हो गया.

विवाहोपरांत दिए जाने वाले प्रीतिभोज के अवसर पर मेहमानों की अगवानी व स्वागतसत्कार के लिए भैया के साथ खड़ी भाभी मेहमानों की भीड़ में गश खा कर गिर पड़ी थीं. मेहमानों के समक्ष बहाना बनाना पड़ा था, थकावट के कारण ऐसा हुआ है. एक टीस सी उभरी दिल में. यदि तब भाभी मृत्यु की गोद में समा गई होती तो मेरे भैया का जीवन यों बरबाद न होता.

मां व बाबूजी ने पूर्ण स्नेह व सम्मान दिया था बहू को. फूल की कोंपल के समान उस की रक्षा की जाती थी. मां किसी भी अभद्र व्यवहार को बरदाश्त नहीं करती थीं. कपोत की तरह अपने डैनों से ढक कर वे भाभी की रक्षा कर रही थीं. सभी के होंठ सी गए थे. मानवता की मूर्ति बनी थीं वे. यदि भाभी सामान्य होतीं तो मां पर अवश्य गर्व करती. पर एक बीमार स्त्री को अपने बेटे के साथ प्रणयसूत्र में बांध कर उन्होंने उस के प्रति जो अन्याय किया था, उसे मैं भूल नहीं पा रही थी.

दहेज में रंगीन टीवी, वीसीआर और एअरकंडीशनर से ले कर हीरे, माणिक, मोती सभी कुछ तो थे, पर इन चीजों की यहां कोई कमी न थी.

घर आ कर मैं फूटफूट कर इतना रोई कि शायद दीवारें भी पसीज गई होंगी. अश्विनी ने बहुत प्यार से समझाया था, ‘वैवाहिक संबंध संयोगवश बनते हैं. तुम्हारे भैया की शादी जिस से होनी थी, हो गई. इस संबंध में व्यर्थ चिंता करने से क्या लाभ है. और यह भी तो हो सकता है कि तुम्हारी भाभी का स्वभाव इतना मृदु हो कि तुम सब को वह स्नेहपाश में बांध ले.’

मैं चुप हो गई.

तभी सास, ननद आ धमकी थीं. सास बोलीं, ‘‘हां भई, अब तो एसी दहेज में मिलने लगे हैं. हमारे बेटे को तो कूलर भी नहीं मिला था. अब बहू टेढ़ीमेढ़ी हो तो क्या हुआ?’’

जी चाहा प्रत्युत्तर में उन का मुंह नोच लूं. तुम्हारे हृदय में मानवता हो तो जानो मोल मानवता का, पर अश्विनी ने इशारे से चुप करवा दिया था. 3-4 दिन बाद मां को फोन किया. सोचा, अकेली होंगी. कुछ तो मन हलका कर लेंगी मेरे साथ. भैयाभाभी तो हनीमून पर गए थे. फोन अंजू ने उठाया, ‘‘हैलो, रीना तुम? इतनी जल्दी क्यों आ गईं अपने घर?’’

‘‘……’’

‘‘तुम लोग तो 15 दिन बाद आने वाले थे न?’’

‘‘हां, वहां जा कर मां से फोन पर बात की तो मालूम पड़ा, बाबूजी बीमार हैं, इसीलिए वापस आ गए.’’

उस के स्वर में मिसरी घुली थी. मैं ने सोचा, ‘तुम्हारे जैसी बीमार स्त्री कश्मीर की वादियों में भैया का क्या मन मोह पाई होगी?’

तभी मैं बाबूजी से मिलने चल पड़ी थी.

अंजू उन के सिरहाने बैठी थी. मां को जबरदस्ती सुला दिया था उस ने. बोली, ‘‘परेशान हो जाती हैं मां बाबूजी को देख कर. मैं तो हूं ही यहां.’’

और वह एक ट्रे में बाबूजी के लिए जूस व मेरे लिए चाय ले कर आ गई थी. दीनू को भेज कर समोसे भी मंगवाए थे उस ने. बोली, ‘‘खाओ न, तुम्हें बहुत पसंद हैं न ये.’’

उस के बाद वह हर एक घंटे बाद बाबूजी का बुखार देखती रही. अच्छा तो बहुत लगा यह सब, पर फिर सोचा, कहीं यह आडंबर तो नहीं. अपना दोष छिपाने के लिए नाटक कर रही हो? पर आत्ममंथन करने पर मैं ही ग्लानि से भर गई थी. बेटी होने का मैं ने कौन सा कर्तव्य निभाया.

शाम को उस ने अश्विनी को भी फोन कर बुला लिया. जबरदस्ती हमें रोक लिया था उस ने. पूरी मेज मेरी पसंद के भोजन से सजी थी, पर मेरे मुंह से प्रशंसा का एक भी शब्द नहीं निकल रहा था. भैया भी हाथोंहाथ ले रहे थे. सभी सामान्य थे.

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वापस अपने घर आई तो यहां भी जी नहीं लग रहा था. तभी भैया मां को ले कर आए थे. मां बोली थीं, ‘‘कल अंजू फिर बेहोश हो गई थी. उस की तबीयत देख कर घबरा जाती हूं. कौन से अस्पताल में दाखिल करूं, समझ नहीं आता?’’

अगले भाग में पढ़ें- क्या औपचारिकतावश उन का हाल नहीं पूछना चाहिए तुम्हें?

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