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फिरदौस: भाग-4

‘हांऽआंऽ, यों ही, धीरेधीरे कुतुबमीनार भी चढ़ ली जाएगी,’ पास से किसी की थकी सी आवाज सुनाई दी. कोई जवाब न मिलने पर वही आवाज अब ऐसी आई, ‘बाज के पिंजड़े के अंदर बंद कर के रख दिया है.’

तब जा कर एक औरत के खिलखिलाने की आवाज आई. सब मीनार में घूमते हुए ऊपर चढ़ रहे थे. पास के खांचे से रोशनी अंदर पड़ी. सामने एक अधेड़ उम्र का आदमी था. ठुड्डी पर लकदक, झक्क सफेद दाढ़ी लटकी हुई थी. उस के साथ एक जवान औरत चमकीले कपड़े पहने ऊपर चढ़ रही थी.

‘बड़ी हंसी आ रही है. आप को ये सब अच्छा लग रहा है?’

‘कुछ नहीं. बाज के नाम से सामने खाका खिंच गया बाज का, बस.’

‘क्यों? हम में बाज नहीं दिख पाता आप को.’

‘न, न, जानू. मैं ऐसा क्यों सोचूंगी. एकदम नई केतकी हो तुम.’

फिर अंधेरा सा छा गया. सभी संभलसंभल कर चल रहे थे. थोड़ाबहुत जो चलना था, वह भी बंद सा हो गया, ऊपर से पीछे के लोगों का बड़बड़ाना शुरू हो गया. मैं गांव से आए एक बड़े झुंड के बीच में फंसा हुआ सा था.

‘बेहतर कि आंख कानी हो, न कि रास्ता काना. मगर आप तो खुश हैं न?’ फिर चलना रुक गया था.

‘जम कर लुत्फ उठाइए. बड़ा कह रही थीं, कुतुबमीनार जाना है, कुतुबमीनार ले चलिए. लीजिए, ले आए.’

औरत ने भी चुहचुहाती आवाज में कहा, ‘हां, लुत्फ तो खूब उठा रहे हैं हम. बाहर से मीनार सुंदर थी. एक बार ऊपर पहुंच जाएं, तो नजारा भी सुंदर नजर आएगा. मगर तुम कैसे समझोगे ये सब? मक्खी क्या समझे परवाने की गत?’

अब सब चुपचाप इन दोनों की ही बातें सुन रहे थे.

‘लो, शुरू हो गईं ये.’

औरत तैश में आ गई थी. बोलती गई, ‘मक्खी को तो रस से मतलब. मर जाएगी लेकिन चूसना बंद नहीं करेगी.’

आदमी खिसिया कर दबी हंसी हंस दिया, ‘तो बाज से आप ने हमें मक्खी बना दिया. चलो, कोई बात नहीं,’ फिर आगे वालों को ऊपर चढ़ने के लिए कहता हुआ बोला, ‘अरे भाई, आप लोग आगे क्यों नहीं बढ़ रहे हैं. रुके क्यों हैं सब के सब?’

‘देरी करी तो जल्द आएगा, जल्द करी तो देर से आएगा. सुना है अंकल आप ने?’ एक स्वर उभरा.

मैं खुश. बोलने वाला फिरदौस था. मुझ से कुछ ही कदम आगे. मैं उसे पुकारने को था, तभी आगे का आदमी बोल पड़ा, ‘ये खूब है. जान न पहचान, अंकलजी सलाम. बड़े अजीब लोग हैं यहां. अब तो आप भी अपना हनीमून मना कर खुश हो रही होंगी, जानेमन. एक मैं ही फंस गया हूं.’

अंधेरा तो पहले ही था, बस शोर कम था, वह कमी भी सामने वाले जनाब की जवान बीवी ने पूरी कर दी. हमारे चारों तरफ की हवा उस की चीख से गूंज उठी. ‘एक साल होने को आ गया है शादी को, अब अचानक हनीमून याद आया है तुम्हें? यहां, कुतुबमीनार में? यह है तुम्हारा हनीमून मनाने का तरीका? वह भी जुम्मे के रोज? अरे घटिया मर्द, दूर रहो मुझ से.’

इतना कह कर उस ने वहीं रोना शुरू कर दिया. आसपास सभी घबराने लगे. वह आदमी भी शायद चकरा गया, बड़बड़ाने लगा, ‘यह क्या आफत है. अभी तो बांध ही टूटा है, देखना अब शिकायतों की बाढ़ आएगी, फिर जलजले पैदा होंगे. शादी करने में इतनी मुसीबत होगी, किसी ने बताया नहीं था. पहले अच्छी दुलहन नहीं मिलती, फिर उसे खुश रखना ही काम बन जाता है.’

लोग फिर आगे बढ़ने लगे थे. तभी बीवी अड़ गई. ‘मुझे घर जाना है.

चलो, नीचे चलो. मुझे नहीं चढ़नी है कोई मीनारशीनार.’

लोगों ने उस से मिन्नत करनी शुरू कर दी, ‘झगड़े किस शादी में नहीं होते,’ उस से कहने लगे. उधर, आदमी का बड़बड़ाना चिल्लाने में बदल गया, ‘शाहजहां आएंगे. ऊपर से एक रस्सा डलवाएंगे कि बेचारी दुलहन को नीचे लाना है. अरे नालायक औरत, तुम्हें नीचे नहीं ले जा सकता मैं. क्या तुम्हें दिखाई नहीं देता या अक्ल में गांठ पड़ गई है.’

औरत रोने लगी. तब जा कर भीड़ में शांति हुई.

फिरदौस बोला, ‘अरे अंकल, आप दोनों क्यों अपने हनीमून का मजा नहीं लेते? झगड़ क्यों रहे हैं?’

‘यह आप बारबार औरों के मामलों में दखल क्यों देते हैं? क्या आप उन लोगों में से हैं जो किसी की दाढ़ी जले और खुद उस की आग में अपने हाथ सेंकें?’

आसपास के लोग हंस पड़े थे. मैं ने भी मौका निकाल कर, मिन्नतें कर के कि देखिए, मेरा दोस्त वह आगे जा रहा है, आगे बढ़ना शुरू कर दिया. उन मियांबीवी के एकदम पीछे खड़ा फिरदौस स्पष्ट दिख रहा था. मैं उसे आवाज देने जा रहा था पर दे नहीं पाया. अशोक के चेहरे के भाव ने मुझे रोक लिया.

‘मैं चाहता हूं कि तू चला जा,’ अंगरेजी में बोल रहा था वह. शायद वह यह नहीं चाहता था कि आसपास के लोग सुनें. आवाज भी संगीन सी थी.

फिरदौस ने भी अपने मजे के अंदाज में जवाब दिया, ‘क्या? अब आप के लिए शाहजहां को बुलवाना पड़ेगा? वह आएगा लंबा सा रस्सा ले कर?’

‘ज्यादा बन मत, तुझे मालूम है मैं क्या कहना चाहता हूं.’

मीनार की पेंचदार सोपान में सभी के मिजाज तुनक थे. पहली मंजिल आने पर कोई नहीं रुका. वापसी में रुकेंगे, सब के सब यही सोच कर चढ़ते चले गए. अशोक के शब्दों ने फिरदौस को भौचक्का कर दिया था. चौखट पर पहुंचते ही खींच कर अशोक को बाहर गलियारे में ले गया.

‘अब बता, क्या हुआ तेरे को?’ फिरदौस की आवाज मुझे सुनाई दी.

पता नहीं उसे किस बात का डर था, मैं बाहर नहीं गया, ऊपर चलते लोगों की धार के साथ धीरेधीरे चलने लगा. कुछएक सीढ़ी चढ़ने के बाद बैठ गया और सोचने लगा कि मुझे क्या करना चाहिए. मेरा वहां बैठना लोगों को ज्यादा असुविधाजनक नहीं लग रहा था. बच कर निकल रहे थे. कुछ तो रुक कर मुझ से मेरा हाल भी पूछ रहे थे.

मैं दीवार से सिर टिका कर बैठा था. तभी मेरा ध्यान गया कि मुझे खांचे से वे दोनों दिख रहे हैं. मुश्किल से 2 गज दूर भी नहीं था मुझ से फिरदौस, नीचे की तरफ, गलियारे में. वहां बाहर, अशोक बहुत क्षुब्ध दिख रहा था. सीढि़यों से ऊपर आते लोगों से तो मेरा ध्यान ही हट गया. मुझे बस उन दोनों की बातें सुनाई दे रही थीं, और कुछ नहीं. मेरी समझ में आ गया कि दादी के लिए फोटो खींचना तो एक बहाना था. वह तो बस फिरदौस को कुछ देर के लिए अपने साथ अकेले चाहता था. उस का चेहरा लाल हो गया था. मुझे लगा वह रो रहा था.

आगे पढ़ें- सिसकियां भरतेभरते अशोक बोला, ‘पापा आ रहे हैं दोपहर को…

फिरदौस: भाग-3

क्यों इतने वर्ष बीतने के बाद मैं फिरदौस को याद कर रहा हूं? फिरदौस को मैं भूला तो नहीं था. उस जैसे को कोई भूल ही नहीं सकता. मेरे सरल जीवन में उस की याद सवाल बन कर तब वापस आई जब पिछले महीने मैं केरल में फैमिली रीयूनियन से लौटा. तब से ये ‘फिरदौस का सवाल’ मुझे लगातार सताए जा रहा है. जैसे भी हो, इस का हल मुझे ढूंढ़ना ही पड़ेगा.कोट््टयम बैकवाटर्स रिजोर्ट में अपने मांबाप, भाईभाभी और भतीजी से कई महीनों बाद मिला. हम सब अलकनंदा, मेरी छोटी बहन का इंतजार कर रहे थे. वह 30 साल की है, बोस्टन में आर्किटैक्ट है, अपनी फर्म के लीड आर्किटैक्ट के साथ शादी करने जा रही है. लड़का इंडियन है. मां को बस उम्र का फर्क खल रहा था, लड़का मेरी बहन से तकरीबन 14 साल बड़ा था. लेकिन यह उस की पहली शादी थी.

यह बात स्पष्ट थी कि अलकनंदा अपने मंगेतर को साथ ला रही थी, केवल हम सब से परिचित कराने, हमारी स्वीकृति पाने नहीं. बड़े उत्साह के साथ हम दोनों का इंतजार कर रहे थे. बहुत हैरानी हुई मुझे जब उस के मंगेतर से मिला. मैं उस से पहले मिल चुका था तब, जब मैं फिरदौस से पहली बार मिला था. यह शरद के दोस्तों में से एक था, ग्रुप में सब से चुप यही रहता था. फिरदौस का जिगरी दोस्त था. बातें फिरदौस औरों से करता मगर हाथ उस का अकसर इस के कंधे पर टिका होता था. अशोक नाम था. तब से अशोक काफी बदल चुका है. बोलने लगा है अब, लीडर टाइप बन गया है. देखने में वैसा ही है. मैं भी ज्यादा नहीं बदला हूं. लेकिन शुरू में उस ने मुझे नहीं पहचाना. बातों का सिलसिला शुरू होने के बाद मैं ने उसे अपनी पिछली मुलाकात के बारे में याद दिलाया. वह हैरान हुआ, फिर जल्द ही किसी और विषय के बारे में बात करने लगा. मुझे उस के बरताव से कोई निराशा नहीं हुई. बस, मन में यह सवाल उठ कर रह गया कि मैं अपनी छोटी बहन से यह कैसे कहूं कि यदि मुझ से किसी तरह का वास्ता रखना है तो इस आदमी से शादी करने का खयाल छोड़ दे.

क्या मुझे फिरदौस के साथ बिताया 22-23 साल पहले का वह आखिरी दिन ठीक से याद भी है? हफ्ता गुजर गया था शरद के और उस के दोस्तों के साथ. वे सब मेरे दोस्त भी बन गए थे. उस दिन हम लोग कुतुबमीनार कौम्प्लैक्स घूमने गए थे. तेज धूप में हम मीनार के पास धीरेधीरे टहल रहे थे, फ्रिसबी खेल रहे थे. कुछ देर बाद फिरदौस फिर चालू हो गया. फिर उठाने लगा वह इतिहास की बातें,

‘मेरे लिए तो बस इतिहास ही सच है. इतिहास और…’ उस ने एक लंबी सांस लेते हुए अपने सिर की ओर संकेत किया, ‘मेरे सपने. और सबकुछ ढुलमुल है, बेईमान है.’

उस दिन वह इतिहासकार बन गया. कुतुबमीनार के आसपास के खंडहरों की तरफ इशारा करते हुए वह ताकतवर आदमियों की भावी पीढि़यों पर अपनी छाप छोड़ने की तड़प के बारे में बताने लगा.

‘अब इस मीनार को ही देखो. क्या अफगानों ने यह सिर्फ हिंदुस्तानियों को उन की याद दिलाने के लिए ही खड़ी की थी? या फिर यह एक पुरानी इमारत है जो किसी हिंदू राजा ने अपनी लाड़ली बेटी के लिए बनवाई? वह प्रेम की इमारत जिस की राजकुमारी बेला रोजाना सीढि़यां चढ़ती थी और ऊपर पहुंच कर यमुना की झलक पा कर सुकून महसूस करती थी.’

मीनार के एक तरफ एक और अधबनी मीनार थी, अब सिर्फ पत्थरों का ढेर बन कर रह गई थी. अलाउद्दीन खिलजी, जो राज्य को तलवार की नोक पर चलाता था, अपनी मीनार भी पूरी नहीं कर सका. उस ने वे स्थान दिखाए जहां सुलतान, शहजादे और शहजादियां अपने आखिरी दिनों में आराम फरमा रहे थे, वह अद्भुत विहार और सुडौल खंबे जहां वे इबादत करते थे. एक के बाद एक उस ने कई स्मारक दिखाए. मकबरे, मीनार, खंबे और मेहराब.

हम मीनार चढ़ चुके थे, खाना खा चुके थे और पार्क में एक पेड़ के नीचे छांव में लेट कर यह तय करने की कोशिश कर रहे थे कि वापस चलें या थोड़ी देर और वहीं अलसाए पड़े रहें. आखिर वह हमारा उन सब के साथ आखिरी दिन था. जैसे ही शरद पेट के बल घूम कर कहने को हुआ कि चलो, चलते हैं. अशोक चिल्ला उठा कि वह अपनी दादी के लिए कुतुब की ऊंचाई से एक खास ऐंगल से फोटो लेना तो भूल ही गया. फौरन उठ कर मीनार की ओर भागने लगा.

‘रुकना, देर नहीं करूंगा,’ कहते हुए वह कब का दूर पहुंच गया. तब तक मैं समझ गया था कि फिरदौस भी उठ कर उस के साथ लग लेगा.

फिरदौस और अशोक के जाते ही मैं शरद से शाम को जयपुर जाने के प्रोग्राम के बारे में बात करने के लिए उठ बैठा. जैसे ही उठा, गरदन में अशोक का कैमरा लटका पाया. रैस्टोरैंट में शौचालय जाने से पहले उसी ने मुझे अपना कैमरा पकड़ाया था. वह लेना भूल गया, मेरा भी ध्यान नहीं गया.

शरद की पहली प्रतिक्रिया यही थी कि हम कुछ न करें, खुद जब देखेगा कि कैमरा नीचे रह गया तो अपनेआप ही आ जाएगा लेने. फिर यह सोच कर कि इस से तो और भी देरी हो जाएगी, सभी इस मत के थे कि बेहतर होगा कि हम में से कोई उन के पीछे लग कर कैमरा पकड़ा दे. लेकिन अब फिर से ऊपर चढ़ने को कोई तैयार नहीं था. गरमी तो थी ही, ऊपर से मीनार के अंदर की भीड़ कोई फिर से नहीं झेलना चाह रहा था.

मेरी गाइडबुक में लिखा था कि 319 सीढि़यां मीनार के ऊपर तक पहुंचाती हैं, मगर चढ़ हम सिर्फ पहली 2 मंजिल ही सकते थे. मैं ने सोचा, मैं ही जाता हूं. इस बहाने गिन लूंगा कितनी सीढि़यां चढ़ कर पहली 2 मंजिलों तक पहुंचते हैं. तो चल दिया उन दोनों के पीछे.

बड़े सारे पर्यटक सीढि़यां चढ़ रहे थे. मीनार के निचले भाग में सीढि़यां इतनी चौड़ी थीं कि मियांबीवी का जोड़ा आराम से साथसाथ चल सकता था और 3-4 और बीच में घुसाए जा सकते थे. लेकिन उस दिन चूंकि शुक्रवार था, प्रवेश मुफ्त था. पीछे, आगे, दाएंबाएं खचाखच लोग भरे थे. रोशनी भी दीवार की खांचेदार खिड़कियों से छन कर आ रही थी. कम थी.

आगे पढ़ें- कोई जवाब न मिलने पर वही आवाज अब ऐसी…

फिरदौस: भाग-2

छप्पर जैसी भौंहें मन में ये भ्रम डाल सकती थीं कि बंदा तो यह ‘सिनिक’ होगा. लेकिन वह छप्पर जैसी भौंहें और उस की वह दाढ़ी जो उस ने सिर्फ ठुड्डी में ही उगने दी थी, बातबात में ऊपरनीचे होती थीं और केवल उन के हिलने का अध्ययन कर के आदमी समझ सकता था कि किस हद तक यह इंसान अपने चारों तरफ होने वाली घटनाओं में शामिल है. कभी आंखों में 2 दीप जल जाते, कभी मुसकान उभरती, कभी उड़ जाती और मुंह बन जाता. जीवन को यह आदमी पूरी शिद्दत से जी रहा था.

फिरदौस ने हिंदी में पूछा था, ‘आप को हमारी दिल्ली कैसी लग रही है?’

उन दिनों मेरा ऐक्सेंट तकलीफदेह तो था ही, हिंदी भाषा भी कुल 20 शब्दों में सिकुड़ कर रह गई थी. सब भूल गया था. ‘अभी आई हूं, मालूम नहीं’ कह कर कंधा उचका दिया था. लेकिन उसे मेरे जवाब में कहां दिलचस्पी थी. उसे तो बस मेरा उच्चारण सुनना था. आंखें सिकोड़ कर हंस दिया. एक नजर दोस्तों पर फेरी, फिर मेरा चेहरा हाथों के बीच ले कर हलका सा थप्पड़ जड़ दिया.

‘सुनो तो, हाय, कितनी प्यारी लगती है हमारी हिंदी इस के मुंह से.’

इसी बात पर देर तक हंसता रहा. ढाबे में शरद को हटा कर मेरी बगल की कुरसी में बैठ गया. मुझे पास खींच कर मिमियाती आवाज में बोला, ‘ये कहां आ गई हूं मैं? यही सोच रहा है न तू?’ फिर हंसने लगा. अब साथ में और भी हंस रहे थे. इतनी सादगी से हंस रहा था कि मुझे उस का हंसना खल नहीं रहा था.

फिर खुद ही आगे बोला, ‘ऐसा बस तू ही नहीं सोचता. हम खुद यहीं जने, पले कितनी बार यही सोचसोच कर तरसते रहते हैं कि हम जैसे लोगों को तो अमेरिका में होना चाहिए था. लेकिन यार, शहर है यह हमारा.’

उस की आवाज गंभीर हो गई.

‘यू नो, लाइक अ मदर. यों ही कैसे छोड़ सकते हैं. चल बताता हूं तुझे, कैसे देखता हूं मैं इस शहर को. क्यों इतनी हसीन लगती है मुझे अपनी ये दिल्ली. यह जो गड़बड़झाला देख रहा है न, चारों तरफ की गपड़चौथ, ध्यान मत दे इन सब पर. बस, उन खंडहरों को देख जो बारबार यहांवहां से निकल कर उठतेगिरते रहते हैं, जैसे कि बेताब हो कर कहना चाह रहे हों, हम भी थे, हम अब भी हैं, तुम हमें क्यों नहीं निहारते.

‘मैं ऐसा करता हूं…किसी और जमाने में पहुंच जाता हूं. कहीं से कोई टूटीफूटी दीवार निकल आती है तो मैं उस पर मेहराब सजाने लगता हूं, मकान सा दिखा, तो गुंबद चढ़ा देता हूं. फिरोजी, हरी, गुलाबी गुंबदें, मुझे तो पूरी की पूरी हवेली दिखने लगती है. कितने लोगों ने अपने खेल यहां खेले होंगे. मेरी आंखों के सामने उन के खाके आने लगते हैं… हम से भी बदतर, बेहतर…लेकिन अपनी खुदी में उतने ही रमे हुए. देव, मैं किताबों में कहानियां क्यों पढ़ं ू जब ये कुएं,

ये हमाम, खंबे, टूटी मेहराबें, सिहरती आवाजें मुझे अपनी कहानियां सुना रही हैं. वे मुझ से कहते हैं, फिरदौस, तू अपने को बड़ा समझता है क्या?’

सब खाना खा रहे थे मगर चुपचाप सुन भी रहे थे.

उस रात को इस जगह से मेरे सोए हुए नाते खुदबखुद जाग गए. मैं शरद की बगल वाली खाट में सो रहा था. लग रहा था कि पुराने दोस्तों के बीच सो रहा हूं. सपनों में गुम था या मेरा बेखबर अंतर्मन दिनभर की बातों से अपने को सचेत कर रहा था. दिमाग में फिल्म जैसी घूम रही थी. एकसुरी आवाज में कोई कुछ कह रहा था. वह खोया हुआ शहर यहां जंगली जानवर की तरह जी रहा है. बोलने वाले का चेहरा अंधेरे में लुप्त था, फिर भी मुझे न जाने कैसे पता चल रहा था कि वह उंगली से अपनी कनपटी की तरफ संकेत कर रहा था.

‘मैं सब दीवारों को मिला दूंगा. गुम हुए मकानों को फिर खड़ा कर दूंगा,’ भिनभिनाती सी आवाज में वह बोले चला जा रहा था, ‘मैं उस पुराने शहर को फिर बनाऊंगा, नए शहर के साथ मिला दूंगा. दिल्ली के पुराने रंग वापस लाऊंगा.’

मेज पर और लोग भी बैठे थे. अपनी बातों में मग्न थे. हंस रहे थे. लेकिन मैं सिर्फ इस लड़के की बातें सुन रहा था. वह अब अपनी कमीज की आस्तीन चढ़ा रहा था, तुरंत काम चालू करने जा रहा था.

हमारे चारों तरफ भोंपुओं और हौर्नों की चिल्लपों मची थी. सड़ी गरमी, बारिश के आज भी आसार नहीं नजर आ रहे थे. सड़क पर अलग बवाल था. धीरेधीरे सरकते ट्रैफिक में चालक को आसपास जहां कोई छेद दिखता, तुरंत घुस जाता. और कोई तरीका भी कहां था. यहां लेन में चलने की कोई धारणा नहीं थी. सड़कें खचाखच भरी थीं, गाडि़यां एक के पीछे एक सटी हुई थीं. शरद के अलावा मेरे साथ थ्रीव्हीलर में फिरदौस बैठा था. रास्तेभर उजड़ी इमारतों पर ध्यान दिलाता जा रहा था और उन के पीछे छिपी कहानियों से उन्हें रंगता जा रहा था.

‘सामने उस दालान में पत्थरों के पड़ाव के बीच वह अभागा सा जो मकबरा है, असल में वह एक मध्यकालीन शहजादे की ख्वाबगाह है. सालों तक सुलतान खुद रोजाना अपने बेटे से मिलने आता था, पर बेटा था जो चिरनिद्रा में ऐसा लीन हो गया था, पिता के लिए समय ही नहीं निकाल पाता था. सुनाऊंगा तुझे एक दिन उस बेचारे बाप की कहानी.’

आगे सड़क परिवहन और भी बिगड़ा हुआ था. थ्रीव्हीलर का चालक चालबाजी से चला रहा था, कभी वाहन को किनारे पर चढ़ाए दे रहा था, कभी सड़क के गड्ढों में गिरा रहा था. अंतडि़यां जम कर हिल रही थीं, तिस पर भी फिरदौस किसी और जमाने में खोया हुआ था.

‘इसी राह पर तो रजिया बेगम अपने जवां मर्द उमराव याकूत के साथ घोड़े पर दौड़ लगाती थीं.’

रास्ता और बिगड़ गया था. अब तो पैदल यात्री भी वाहनों के साथसाथ सड़क की पगडंडी बनाए चल रहे थे और अब भी फिरदौस स्वप्नमय था.

ट्रैफिक लाइट के आने पर हमारी आधुनिक मियाना घरघराती हुई रुक गई. चालक ने इंजन बंद कर दिया और आसपास एक दिलचस्प चुप्पी समा गई. वह एक लंबी लाइन थी. हमारे चारों तरफ अनेक थ्रीव्हीलरों का जमाव था. अपनीअपनी बारी से सब धीरेधीरे जाम हो गए. हमारे बगल वाले थ्रीव्हीलर में एक स्मार्ट सी डेल्ही गर्ल पूरी सीट अकेले घेरे हुए थी, एक रानी जैसे अपने सिंहासन पर बैठी हो. रजिया सुल्ताना. बड़े ध्यान से फिरदौस उस का अध्ययन कर रहा था. आंखें चार होते ही एक फ्लाइंग किस उस की तरफ उड़ा दी. आंखों से भी एक संदेश भेज दिया. उस की हरकत से खिसिया कर मैं इधरउधर देखने लगा.

‘ड्राइवर, कितने आटोरिकशे होंगे इस शहर में?’ लड़की ने शायद बेरुखी दिखाने के लिए यों ही सवाल पूछ लिया.

‘कितने आटो रिकशे, मैडम?’ चालक अचकचाने लगा.

लेकिन फिरदौस का दिमाग कब का दौड़ने लगा था. हम से कहने लगा, ‘इस शहर के लोग अपने काम पर जाने के लिए आटो रिकशे ही पसंद करते हैं. अब हमारे चारों तरफ ही देख लो. कम से कम हजार होंगे हमारे आगे, पीछे, बाएं और दाएं. शहर भी इतना बड़ा है, मैं तो यह कहूंगा कि इस वक्त पूरे शहर में आराम से 50 हजार ऐसे मेढक टर्रा रहे हैं. क्यों, क्या खयाल है?’

शरद ने भी हंस कर हामी भर दी. उधर, रजिया सुल्ताना के ड्राइवर ने भी बोल डाला, ‘मैडम, 50 हजार तो आराम से होंगे,’ लेकिन लड़की कब की उदासीन हो कर उलटी तरफ देख रही थी, चालक के जवाब में उस ने कोई रुचि नहीं दिखाई. बत्ती भी हरी होने को हो गई थी, क्योंकि चारों तरफ इंजनों के चालू होने की आवाज गूंजने लगी थी. दोनों की नजरें फिर अकस्मात मिल गईं, फिर फिरदौस ने एक फ्लाइंग किस उस की ओर उड़ा दी. लड़की ने नजर झटक कर कहीं और देखना शुरू कर दिया और फिरदौस जोरजोर से हंसने लगा. अगले पल हम आगे बढ़ चुके थे.

आगे पढ़ें- ? फिरदौस को मैं भूला तो नहीं था. उस…

फिरदौस: भाग-1

घास उगती है, गौरैया कुछ देर जमीन पर फुदकती हैं, उड़ान भर लेती हैं, समुद्र की लहरें भी उठती हैं और किनारे पर सिर फोड़, मिट जाती हैं. मेरे पास मेरे स्पंज हैं. मैं उन्हीं को बढ़ते हुए, फिर मरते हुए देखता हूं. उन की औलाद को भी बढ़ते हुए और मरते हुए देखूंगा. बेशक, मैं भी एक दिन नहीं रहूंगा. समय की ईमानदार गति चुपचाप और सस्नेह देखना मुझे मंजूर है.

पानी में 200 फुट नीचे, मालिबू के समुद्रतट पर, मेरी लैब की टीम नीले और पीले स्पंजों की प्रगति को रिकौर्ड करने आई थी. तसवीरें और अन्य परीक्षणों के लिए सैंपल मेरे छात्र ले रहे थे. मैं सिर्फ स्पंज देखने आया था, उन से मिलने आया था.

आज हम ने एक लघु सफलता हासिल की है. 2 साल से मैं और मेरे छात्र अचंभित थे, विचारमग्न थे, विभिन्न योजनाओं को कार्यान्वित करने में व्यस्त थे. हम ने नीले स्पंजों की कालोनी में एक इकलौता पीला स्पंज छोड़ दिया था. नीला स्पंज, जिन्हें हम वैज्ञानिक एसीजी के नाम से बुलाते हैं, ऐसा पदार्थ बनाता है जो सूअरों में पाचक ग्रंथि के कैंसरयुक्त सैल को मार सकता है. हमारी कोशिशें पीले और नीले स्पंज के संकरण में लगी थीं. उम्मीद यह थी कि ऐसा संकर इंसानों के कैंसर के इलाज में प्रभावशाली होगा. लेकिन शुरुआत में ही इन स्पंजों ने एकदूसरे को कबूल नहीं किया. नीले स्पंज आपस में खुश थे, पीले स्पंज पर ध्यान नहीं देते थे. या तो पीला स्पंज समय के साथ मर जाता था या फिर उस में कल्ले फूटने लगते थे, मतलब वह अपनी ही प्रतिलिपियां बनाने लगता था. आज सवेरे ब्रायन, मेरे छात्र, ने रिपोर्ट करने के लिए फोन किया जिस का हम 2 साल से इंतजार कर रहे थे. नीले स्पंजों में से 1 स्पंज ने ऐसी औलाद पैदा की जो नीली नहीं थी.

जलमग्न, मैं रेतीले तट के निकट तैर रहा था.  सामने एक टीला दिख रहा था. टीले के पीछे नीले स्पंजों का बड़ा मैदान था. इंडिगोलैंड नाम रखा था मेरे छात्रों ने उस का. जल्द ही वह इकलौता पीला स्पंज भी नजर आने लगा. मैं स्पंजों के मैदान के काफी समीप आ गया और देर तक वहीं तैरता रहा. जानता था उन्हें अच्छी तरह. एक जीववैज्ञानिक को अपने जीवित  सैंपल को समझना और उन से एक न्यूनतम संबंध बनाए रख पाना आता है. मैं ने स्पंजों पर उंगलियां फिराईं और वापस जाने को मुड़ गया. धीमेधीमे मंडराती हुई, चुस्त, तनी, सजीसंवरी कैल्प घास के वन में खरामाखरामा तैरती हुई रंगीन मछलियों का झुंड सामने से निकला जा रहा था. काफी नाजुक और खूबसूरत, फिर भी कमजोर नहीं थी यह दुनिया. अंतर्जातीय दृश्य पल में बिगड़ कर फिर पल में ठीक हो जाते थे. आंखों को यही लगता कि कुछ भी तो नहीं बिगड़ा है यहां.

मालिबू के समुद्रतट पर बैठे मैं देख रहा हूं सूर्यास्त को, प्रशांत सागर को और दहकते पानी को. आज के दिन के बारे में सोच रहा हूं. संतुष्ट हूं. लगता है हमारे यत्न सफल होंगे. ऐसा भी हो सकता है कि ये संकर वे न निकलें जिन की हमें तलाश है, लेकिन मुझे खुशी इस बात की है कि कम से कम हम प्रकृति से कुछ तो रिआयत ले पाए.

सामने एक हवासील सीधे नीचे गिरा और पानी को चीरते हुए अंदर घुस गया. वहां पर कई सारी धधकती तरंगें पैदा हो गई हैं. मैं तरंगों का छली खेल देख रहा हूं और सोच रहा हूं कि आज की खबर में कुछ दिल छूने वाली बात तो थी. क्या थी? अचानक फिरदौस का खयाल आया. मन किया कि उसे बता पाऊं कि पानी के नीचे दुनिया कितनी अद्भुत है. मैं तरंगों को तब तक देखता रहा जब तक वे पूरी तरह मिट नहीं गईं. मन में उदासी उग आई. पानी के नीचे की दुनिया के बारे में बताऊंगा तो वह पानी के बाहर की दुनिया के बारे में जरूर पूछेगा. कैसे बताऊंगा उसे कि आदमियों की दुनिया में कुछ नहीं बदला है.

फिरदौस से मुझे मिले एक उम्र बीत गई है. मैं तब 18 साल का था, स्टैनफर्ड जाने वाला था. मस्त बंदा था फिरदौस. पैदाइशी जिज्ञासु था. हमेशा कुछ करने के लिए छटपटाता रहता था. मुझ से 2-1 साल बड़ा था. अब 43 का होता या 44 का. कई साल पहले मर गया बेचारा.

अपनी हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी होने के एकदम बाद मैं ने तय किया कि चूंकि मेरे मांबाप हमेशा अपने को दिल्ली वाला कहते रहते थे, तो क्यों न दिल्ली जाऊं, देखूं, घूम आऊं. वैसे मेरे भाई की और मेरी पैदाइश दिल्ली की ही है. सिर्फ मेरी छोटी बहन लौस ऐंजिलिस में पैदा हुई थी. मैं 8 साल का था जब हम लोग अमेरिका आए. एक दशक बाद जब मैं भारत वापस आया तो शुरूशुरू में मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगा कि मेरा इस जगह से किसी भी तरह का वास्ता है. जहाज से उतरा ही था और उलटे पैरों वापस लौटने की सोच रहा था कि मेरे चचेरे भाई शरद, जो अहमदाबाद में आर्किटैक्चर के स्टूडैंट थे, ने मुझे आने का न्योता दिया था.

‘अरे, तुम एक बार आओ तो. मैं तुम्हें अपना शहर दिखाऊंगा. अहमदाबाद से मेरे दोस्त भी आ रहे हैं, फील्ड ट्रिप के लिए, मध्यकालीन स्मारकों का अध्ययन करने. डरा दिया न? हाहा नौर्मल हैं हम. वो शेर हैं जो मजे करते हैं, मजे, क्या बोलते हो तुम अमेरिकन लोग… डूड्स हैं. सिर्फ मेरा दोस्त, फिरदौस, अध्ययन करेगा. उसे तो आखिर दिल्ली बदलनी है, हाहा, पागल है…मगर मस्त है, ऐंटरटेनर टाइप है, हंसाता रहता है.’

14 अगस्त, 1981 को मैं जिस टैक्सी में बैठा था, वह भट्ठी सी थी. बाहर आसमान से भी आग बरस रही थी. सूरज की रोशनी से आंखें चुंधिया रही थीं. लेकिन जब टैक्सी रुकी और मुझे शरद दिखाई दिया, हम मिले और दौड़ के उस ने मुझे अपने साथियों से मिलाया, उस वक्त मेरी सब आशंकाएं उड़नछू हो गईं. 9 या 10 खुशदिल लड़के, मिलते ही हम दोस्त बन गए. फिरदौस भी उन में था, उस पर ध्यान न जाना असंभव था. उस का

20 वर्षीय चेहरा महज चेहरा नहीं एक ग्रंथ था. दोस्तों पर चालें चलचल कर, उन की खिंचाई करकर के, जितनी बार दिनभर में वह ठट्ठा मार कर हंसा होगा, उस के चेहरे पर खिंचीं लकीरें उस सब का हिसाब रख रही थीं.

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हाइटैक स्कूल

इन दिनों वसंत के आगमन की सूचना प्राइवेट स्कूल देने लगे हैं. ज्यादा से ज्यादा बच्चों के ऐडमिशन पाने के फेर में बड़ेबड़े रंगीन पोस्टर व कटआउट शहर के हर कोने में लगे मिलते हैं जिन में इन स्कूलों की आलीशान बिल्डिंग, एसी रूम, स्कूल में स्विमिंग पूल, घुड़सवारी, जिम आदि का मोटेमोटे अक्षरों में गुणगान किया होता है.

इन स्कूलों में मोटी कमाई करने का सुनहरा मौका होता है ऐडमिशन के समय मुंहमांगी रकम मांगना. दाखिले के समय प्रबंधक कमेटी की पूरी कोशिश होती है कि कोई भी सीट खाली न छूटने पाए. गरीब तबके के लोग तो स्कूल का प्रोस्पैक्ट्स खरीदने की हिम्मत भी नहीं कर सकते जिस के अंत में लिखा होता है कि स्कूल के विकास के लिए आप कितना डोनेशन दे सकते हैं. यह डोनेशन 1 लाख रुपए से ज्यादा हो सकता है. देने वाले देते ही हैं.

वैसे भी एक सीट के लिए सैकड़ों लोग लाइन में लगे होते हैं. अब सरकारी स्कूलों में अपना बच्चा कोई समझदार व समर्थ आदमी नहीं डालता. सब जानते हैं कि 15 हजार रुपए पगार पा कर भी मास्टरनी महोदया पूरा दिन या तो स्वेटर बुनती रहती है या वोटर लिस्टें रिवाइज करती रहती है. प्राइवेट स्कूल में टीचर से पिं्रसिपल पूरा दिन खींच कर काम लेती है. तभी तो ये स्कूल अच्छे परिणाम भी दिखाते हैं.
अच्छे स्कूल की तलाश में आजकल हर कोई रहता है. मेरे एक दोस्त का बेटा अभी 2 साल का भी नहीं था कि दोस्त ने 7 स्कूलों के पिं्रसिपलों से मुलाकात कर ली मगर हर जगह उसे निराशा ही हाथ लगी. हमारे एक दो नंबर की कमाई वाले अमीर पड़ोसी ने मिडटर्म में ही अपने बच्चे को उस के वर्तमान स्कूल से हटा कर एक हाईफाई स्कूल में ऐडमिशन कराया. हमें बड़ी हैरानी हुई. इतना खर्च करने के पीछे क्या कारण हो सकता है, हम ने पूछने की हिम्मत कर ही डाली.

कारण उन्होंने बताया, ‘वहां के बच्चों में किलर इंसटिंक्ट’ यानी मरनेमारने वाली गलाकाट प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं थी.’ यहां भी महीने बाद उन का मोहभंग हो गया. एक दिन मिले तो दुख के मारे बुरी तरह फट पड़े, ‘यार, कल एक अखबार में इस स्कूल के बारे में पढ़ा तो मन दुखी हो गया. इन की पासपर्सैंटेज बहुत ‘लो’ जाने लगी है.’

सच बोलना इतना फायदेमंद हो सकता है, यह कोई मुझ से पूछे. यारदोस्त, पड़ोसी व बाहर के लोग अब मुझ से यह नहीं पूछते कि वे अपने बच्चों को किस स्कूल में डालें. मैं सच्ची बात जो कहता हूं. मेरा एक ही जवाब होता है, ‘स्कूल की बाहरी बिल्ंिडग या हाईफाई स्टाफ का पढ़ाई से कुछ लेनादेना नहीं है. स्कूल के भवन के अंदर ईमानदारी से करवाई जाने वाली पढ़ाई ही सब से महत्त्वपूर्ण बात है.’

समझदार लोग सही कहते हैं कि मूर्ख को समझाने का एक ही तरीका है. उसे वही करने दिया जाए जो वह कर रहा है या करना चाहता है. भैंस के आगे बीन बजाने या अंधे के आगे नाचने से क्या फायदा.
आजकल स्कूलों की श्रेष्ठता का एक ही मापदंड है. फुल्ली एसी रूम, हाइटैक कंप्यूटर रूम, सुसज्जित जिम, अंगरेजी में बतियाने वाली तेजतर्रार टीचर जो पेंरैंटटीचर मीटिंग में फर्राटेदार अंगरेजी बोल कर मांबाप को शर्मसार कर सकें तथा डैश्ंिग ऐनुअल फंक्शन जिस में बौलीवुड का कोई बड़ा स्टार आ जाए तो समझो कि अगले साल सारा शहर उस स्कूल का दीवाना हो जाएगा.

मातापिता अच्छे स्कूल का चुनाव कैसे करते हैं, यह मिलियन डौलर वाला प्रश्न है. पुराने जमाने में कोई दुविधा नहीं होती थी. एक ही औप्शन था- बोरी वाला स्कूल. जन्मदिन पर 8 आने के 1 किलो बताशे ला कर पूरे स्कूल में बांट दो और 2 पैसे प्रतिमाह की फीस देते रहने पर आप का बच्चा कब 10वीं कर जाता था, पता ही नहीं चलता था.

अब तो अपने इकलौते लाड़ले को स्कूल में प्रवेश दिलाने के लिए बड़ेबड़ों के छक्के छूट जाते हैं. मेरा एक मित्र बता रहा था कि देहरादून में एक ऐसा स्कूल भी खुला है जहां नर्सरी क्लास के बच्चे की मासिक फीस 50 हजार रुपए है. इस स्कूल की खास बात उस ने यह बताई कि नर्सरी के बच्चों को लैपटौप पर ही सारा काम करवाते हैं और साल के अंत में विदेशी लोकेशन पर ले कर जाते हैं.

तुलसी बाबा ने सही कहा है, ‘सकल पदारथ है जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं.’ नर्सरी लैवल से ही लैपटौप पर पढ़ने वाले व हर साल विदेश के टूर पर जाने वाले ये नौनिहाल ही देश के भावी कर्णधार बनते हैं. आज भी हमारे मंत्रियों, अभिनेताओं, अफसरों व उद्यमियों में देश के सर्वोच्च महंगे स्कूल से पढ़ने वालों की संख्या काफी अधिक है. जो लोग कहते हैं कि होनहार बिरबान के होत चीकने पात… वे शायद इन्हीं स्कूलों में पढ़ने वाले होनहार बच्चों की बात करते होंगे. आम लोगों के बच्चे तो इस ओलिंपिक रेस से बहुत पहले से ही बाहर हैं.

 

Coronavirus पर बोले पीएम मोदी, लोगों से कहा- घबराने की जरूरत नहीं है

कोरोनावायरस (कोविड-19) के छह और संदिग्ध मामले मंगलवार को उत्तर प्रदेश के आगरा में सामने आने के बाद भारत की चिंताएं बढ़ गई हैं. सरकार के एक बयान के अनुसार, “हाई वायरल के छह मामले आगरा में नमूना जांच के दौरान पाए गए. ये लोग कल नई दिल्ली में पाए गए कोविड-19 के मरीज के संपर्क में आए थे. इन लोगों को अलग स्थान पर रखा गया है. इनके नमूने पुणे स्थित एनआईवी भेज दिए गए हैं.”

बयान के अनुसार, “इन छह लोगों के संपर्क में आए लोगों का पता इंटीग्रेटेड डिसीज सर्विलांस प्रोग्राम (आईडीएसपी) नेटवर्क से लगाया जा रहा है.” इसके साथ ही भारत में इस बीमारी की चपेट में आए लोगों की संख्या बढ़कर आठ हो गई है. कोविड-19 के दो मामले सोमवार को पाए गए, जिनमें एक राष्ट्रीय राजधानी तथा दूसरा मामला तेलंगाना में पाया गया.

स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक बयान में कहा, “कोविड-19 का एक पॉजिटिव मामला नई दिल्ली में पाया गया है और एक मामला तेलंगाना में पाया गया है.” स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, दिल्ली में जो व्यक्ति कोविड-19 से संक्रमित पाया गया, वह इटली की यात्रा करके आया है, वहीं तेलंगाना वाला व्यक्ति दुबई से आया था. देश में इससे पहले कोरोनावायरस के तीन मामले केरल में पाए गए थे, लेकिन इस बीमारी से ठीक होने के बाद सभी को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया था.

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एयर इंडिया ने मंगलवार को पुष्टि कर कहा कि 25 फरवरी को वियना-दिल्ली उड़ान का एक यात्री कोरोना वायरस की जांच में पॉजिटिव पाया गया है. एयर इंडिया ने ट्वीट किया, “यह यात्रियों की सावधानी के लिए है, जिन्होंने 25 फरवरी 20 की एआई154 वियना-दिल्ली से उड़ान भरी थी. यात्रियों में से एक को कोरोना वायरस की जांच में पॉजिटिव पाया गया है. कृपया कोरोना वायरस के संबंध में स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा अधिसूचित प्रोटोकॉल का पालन करें.”

कोरोना वायरस के खतरे को देखते हुए सरकार ने इटली, ईरान, दक्षिण कोरिया व जापान के नागरिकों के प्रवेश की शर्तों को तत्काल प्रभाव से कड़ा कर दिया है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा मंगलवार को जारी संशोधित यात्रा एडवाइजरी के अनुसार, इन देशों के नए यात्रियों को नए वीजा के लिए आवेदन करना होगा.

सभी अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों के यात्री जो किसी पोर्ट से भारत में प्रवेश कर रहे हैं, उन्हें विधिवत अपना स्वघोषित फार्म(जिसमें निजी विवरण फोन नंबर व भारत में पता) व ट्रेवल हिस्ट्री स्वास्थ्य अधिकारियों व इमिग्रेशन अधिकारियों को देना होगा.

प्रतिबंधित यात्रियों के अलावा यात्री (विदेशी व भारतीय) जो सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, ईरान, इटली, हांगकांग, मकाऊ, वियतनाम, मलेशिया, इंडोनेशिया, नेपाल, थाईलैंड, सिंगापुर व ताइवान से आने वाली यात्रियों को प्रवेश के दौरान मेडिकल स्क्रीनिंग से गुजरना होगा.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तरप्रदेश के आगरा से कोरोनावायरस के छह नए संदिग्ध मामले सामने आने के बाद लोगों से न घबराने और साथ मिलकर काम करने का आग्रह किया है. मोदी ने ट्वीट कर कहा, “घबराने की जरूरत नहीं है. हमें साथ मिलकर काम करने की जरूरत है. खुद की सुरक्षा के लिए छोटा मगर महत्वपूर्ण कदम उठाएं.”

उन्होंने साथ ही एक पोस्टर ट्वीट किया, जिसमें सामान्य साफ-सफाई के तौर-तरीकों के बारे में बताया गया है, जिसमें लगातार हाथ धोने और आंख, नाक और मुंह को बार-बार छूने से बचने के लिए कहा गया है, ताकि वायरस न फैले.

Holi 2020: होली पर बनाना हो स्वीट डिश तो ट्राय करें ये टेस्टी चौको फज

सामग्री

– 450 ग्राम कुकिंग चौकलेट

– 400 ग्राम कंडैंस्ड मिल्क

– 100 ग्राम ड्राइ फ्रूट्स

– रोस्टेड या पाउडर

– 2-3 बूंदें कौफी ऐसेंस

बनाने की विधि

– चौकलेट को तोड़ कर डबल बौयलर में पिघला लें.

– चौकलेट पिघलने तक उस का तापमान मीडियम ही रहना चाहिए.

– इसे बौयलर से उतार कर ड्राई फू्रट्स, ऐसेंस तथा कंडैंस्ड मिल्क डाल कर लगातार हिलाती रहें.

–  कंडैंस्ड मिल्क का तापमान नौर्मल होना चाहिए.

– एक बरतन या प्लेट में फौयल पेपर बिछा कर मिक्सचर को उस पर फैला कर ड्राई फ्रूट्स से सजाएं और    फिर जैसे ही यह थोड़ा ठंडा हो बर्फी की तरह टुकड़े में काट लें.

Holi 2020: इस होली पर ट्राय करें निमकी विद थेपला आटा

सामग्री

– 1/2 कप थेपला आटा

– 1 बड़ा चम्मच बटर

–  2 बड़े चम्मच मैदा

– 1 छोटा चम्मच अजवाइन

–  1 छोटा चम्मच कलौंजी

– 1/2 छोटा चम्मच कालीमिर्च चूर्ण

– निमकी तलने के लिए

– रिफाइंड औयल

बनाने की विधि

– थेपले के आटे में सारी सामग्री मिला कर गुनगुने पानी से थोड़ा सख्त आटा गूंध कर 15 मिनट ढक कर      रखें.

– फिर मोटीमोटी 3 लोइयां बनाएं और उन्हें मठरी की तरह मोटा बेलें.

– मनचाहे आकार में काट गरम तेल में मीडियम आंच पर सुनहरा होने तक तल लें.

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किसी आशादेवी की ख्वाहिश अदालत से ऊपर नहीं

निर्भया के दोषियों की फांसी की सजा पर दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत ने अगले आदेश तक रोक लगा दी है जिस पर निर्भया की मां आशादेवी ने फिर उम्मीद के मुताबिक प्रतिक्रिया दी है कि बार बार फांसी का टलना सिस्टम की नाकामी को दर्शाता है . आज लोगों के बीच हमारे देश में इंसाफ से ज्यादा मुजरिमों को सपोर्ट किया जाता है . इससे स्पष्ट होता है कि हमारा सिस्टम भी दोषियों के बचाव के लिए है .

तकनीकी तौर पर आशादेवी का यह बयान प्रथम दृष्ट्या ही अदालत की अवमानना है , इस पर भी उन्हें आम लोगों का समर्थन मिल रहा है तो लगता ऐसा है कि लोग सिर्फ फांसी की सजा का रोमांच भर लेना चाहते हैं और यह फांसी उनके लिए एक इवैंट बनकर रह गई है . क्या निर्भया के दोषियों को कानूनी प्रक्रिया को ताक में रखते जल्द फांसी महज इसलिए दे दी जाये कि उसकी मां और लोग जल्द ऐसा चाहते हैं ?

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इस सवाल का जबाब सीधे सीधे न में ही निकलता है .  फांसी के शौकीन लोगों को अदालत की दलीलों पर गौर करते सोचना चाहिए कि यह चार लोगों की ज़िंदगी और उनके कानूनी अधिकारों का भी सवाल है जो किसी मां की इच्छा पर उनसे छीना नहीं जा सकता . बिलाशक इन चारों दरिंदों ने जो किया वह बेहद शर्मनाक , अमानवीय , अमानुषिक और दरिंदगी भरा जुर्म है .  इसकी सजा अदालत उन्हें सुना भी चुकी है और कानूनी औपचारिकताए पूरी होने के बाद फांसी उन्हें होगी भी , लेकिन आशादेवी की बातों से सहमत होने से पहले इन अहम बातों पर गौर करना जरूरी है –

  • यह सिस्टम की नाकामी या कमी नहीं बल्कि खूबी है कि वह संयम से काम लेता है और अपराधी को बचाव के वे पूरे मौके देता है जो संविधान और कानून ने उसके लिए बहुत सोच समझकर बनाए हैं .
  • अदालत का यह कथन भी बेहद अहम है कि दोषी जब अपने रचयिता यानि भगवान से मिले तो उसके पास यह शिकायत न हो कि उसे सभी कानूनी विकल्प अपनाने इजाजत नहीं मिली . हालांकि यहाँ रचयिता शब्द विकल्पहीनता के चलते इस्तेमाल किया गया लगता है लेकिन अदालत की मंशा बेहद साफ है कि मुजरिम भी फांसी चढ़ते चढ़ते यह न सोचे कि उसे उसके कानूनी अधिकारों से वंचित रखते फांसी दी गई .
  • सिस्टम अगर मुजरिमों का सपोर्ट करता तो इन चारों को फांसी की सजा होती ही क्यों
  • जजों ने अपनी सीमाएं बड़ी समझदारी से दोषियों के वकील एपी सिंह की खिंचाई करते जताई भी हैं कि आप आग से खेल रहे हैं आपको सावधान रहना चाहिए . आप एक के बाद एक गलत कदम उठा रहे हैं . आप जानते हैं कि इसका क्या परिणाम हो सकता है .

यहाँ जज धर्मेंद्र राणा की एपी सिंह से नाराजी यह थी कि उन्होने फांसी के एक दिन पहले दोषी पवन की तरफ से दया याचिका लगाई . सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एनबी रमना की अध्यक्षता बाली पाँच जजों की बेंच ने पवन की क्यूरेटिव पिटीशन खारिज करते  साफ कहा कि दोषी को उसके किए की सजा मिलनी ही चाहिए और सजा पर पुनर्विचार करने का कोई सवाल ही नहीं उठता .

ऐसे में आशादेवी का बयान बेबजह का जोश ज्यादा लगता है .  उनकी पीड़ा और व्यथा अपनी जगह ठीक हैं लेकिन कानूनी प्रक्रिया को कोसना एक गलत परम्परा को बढ़ावा देना है . उन्हें भी अदालत की तरह एक बेबस ही सही सब्र रखना चाहिए .  कोई अदालत यह नहीं कह रही , देश के लोग नहीं कह रहे कि निर्भया के दोषियों को फांसी न हो , पर सोचना सभी को पड़ेगा कि आप कैसे महज अपनी इच्छा के आधार पर न्याय की उम्मीद रखते हैं . इस मामले में गलती किसी की नहीं है दोषियों के वकील की भी नहीं जिनहोने अपने मुवक्किलों की पैरवी करने की ज़िम्मेदारी और फीस ली है . वे तो पूरे दांव पेंच आजमाएँगे ही .

सोचा यह जाना चाहिए कि इस फांसी के बार बार टालने से चारों वहशी रोज तिल तिल कर मर रहे हैं क्योंकि मौत से बड़ा मौत का खौफ होता है जिससे उनका वजन कम हो रहा है , वे खा पी नहीं पा रहे , सो नहीं पा रहे .  यह फांसी से ज्यादा संगीन सजा है .

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