निर्भया के दोषियों की फांसी की सजा पर दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत ने अगले आदेश तक रोक लगा दी है जिस पर निर्भया की मां आशादेवी ने फिर उम्मीद के मुताबिक प्रतिक्रिया दी है कि बार बार फांसी का टलना सिस्टम की नाकामी को दर्शाता है . आज लोगों के बीच हमारे देश में इंसाफ से ज्यादा मुजरिमों को सपोर्ट किया जाता है . इससे स्पष्ट होता है कि हमारा सिस्टम भी दोषियों के बचाव के लिए है .

तकनीकी तौर पर आशादेवी का यह बयान प्रथम दृष्ट्या ही अदालत की अवमानना है , इस पर भी उन्हें आम लोगों का समर्थन मिल रहा है तो लगता ऐसा है कि लोग सिर्फ फांसी की सजा का रोमांच भर लेना चाहते हैं और यह फांसी उनके लिए एक इवैंट बनकर रह गई है . क्या निर्भया के दोषियों को कानूनी प्रक्रिया को ताक में रखते जल्द फांसी महज इसलिए दे दी जाये कि उसकी मां और लोग जल्द ऐसा चाहते हैं ?

ये भी पढ़ें- Holi 2020: सुरक्षित और रंगबिरंगी ईकोफ्रैंडली होली

इस सवाल का जबाब सीधे सीधे न में ही निकलता है .  फांसी के शौकीन लोगों को अदालत की दलीलों पर गौर करते सोचना चाहिए कि यह चार लोगों की ज़िंदगी और उनके कानूनी अधिकारों का भी सवाल है जो किसी मां की इच्छा पर उनसे छीना नहीं जा सकता . बिलाशक इन चारों दरिंदों ने जो किया वह बेहद शर्मनाक , अमानवीय , अमानुषिक और दरिंदगी भरा जुर्म है .  इसकी सजा अदालत उन्हें सुना भी चुकी है और कानूनी औपचारिकताए पूरी होने के बाद फांसी उन्हें होगी भी , लेकिन आशादेवी की बातों से सहमत होने से पहले इन अहम बातों पर गौर करना जरूरी है –

  • यह सिस्टम की नाकामी या कमी नहीं बल्कि खूबी है कि वह संयम से काम लेता है और अपराधी को बचाव के वे पूरे मौके देता है जो संविधान और कानून ने उसके लिए बहुत सोच समझकर बनाए हैं .
  • अदालत का यह कथन भी बेहद अहम है कि दोषी जब अपने रचयिता यानि भगवान से मिले तो उसके पास यह शिकायत न हो कि उसे सभी कानूनी विकल्प अपनाने इजाजत नहीं मिली . हालांकि यहाँ रचयिता शब्द विकल्पहीनता के चलते इस्तेमाल किया गया लगता है लेकिन अदालत की मंशा बेहद साफ है कि मुजरिम भी फांसी चढ़ते चढ़ते यह न सोचे कि उसे उसके कानूनी अधिकारों से वंचित रखते फांसी दी गई .
  • सिस्टम अगर मुजरिमों का सपोर्ट करता तो इन चारों को फांसी की सजा होती ही क्यों
  • जजों ने अपनी सीमाएं बड़ी समझदारी से दोषियों के वकील एपी सिंह की खिंचाई करते जताई भी हैं कि आप आग से खेल रहे हैं आपको सावधान रहना चाहिए . आप एक के बाद एक गलत कदम उठा रहे हैं . आप जानते हैं कि इसका क्या परिणाम हो सकता है .

यहाँ जज धर्मेंद्र राणा की एपी सिंह से नाराजी यह थी कि उन्होने फांसी के एक दिन पहले दोषी पवन की तरफ से दया याचिका लगाई . सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एनबी रमना की अध्यक्षता बाली पाँच जजों की बेंच ने पवन की क्यूरेटिव पिटीशन खारिज करते  साफ कहा कि दोषी को उसके किए की सजा मिलनी ही चाहिए और सजा पर पुनर्विचार करने का कोई सवाल ही नहीं उठता .

ऐसे में आशादेवी का बयान बेबजह का जोश ज्यादा लगता है .  उनकी पीड़ा और व्यथा अपनी जगह ठीक हैं लेकिन कानूनी प्रक्रिया को कोसना एक गलत परम्परा को बढ़ावा देना है . उन्हें भी अदालत की तरह एक बेबस ही सही सब्र रखना चाहिए .  कोई अदालत यह नहीं कह रही , देश के लोग नहीं कह रहे कि निर्भया के दोषियों को फांसी न हो , पर सोचना सभी को पड़ेगा कि आप कैसे महज अपनी इच्छा के आधार पर न्याय की उम्मीद रखते हैं . इस मामले में गलती किसी की नहीं है दोषियों के वकील की भी नहीं जिनहोने अपने मुवक्किलों की पैरवी करने की ज़िम्मेदारी और फीस ली है . वे तो पूरे दांव पेंच आजमाएँगे ही .

सोचा यह जाना चाहिए कि इस फांसी के बार बार टालने से चारों वहशी रोज तिल तिल कर मर रहे हैं क्योंकि मौत से बड़ा मौत का खौफ होता है जिससे उनका वजन कम हो रहा है , वे खा पी नहीं पा रहे , सो नहीं पा रहे .  यह फांसी से ज्यादा संगीन सजा है .

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...