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धूमकेतु समस्या

सरकारी दफ्तरों में आजकल धूमकेतु समस्या बढ़ती जा रही है. धूमकेतु शब्द तब लाइमलाइट में आया था जब कुछ साल पहले हेलीस धूमकेतु के दर्शन हुए थे. उस समय कहा गया था कि यह 76 सालों में सिर्फ एक बार दिखता है, मतलब कि इस के दर्शन दुर्लभ होते हैं. एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में एक बार ही इस के दर्शन कर पाता है. हालांकि कुछ अन्य धूमकेतु 2-4 सालों में एक बार या 10 सालों में एक बार दिखाई देते हैं. अर्थात जो तारे कभीकभी दिखते हैं वे धूमकेतु के समान हैं.

धूमकेतु केवल आसमान में ही नहीं बल्कि जमीं पर भी दिखाई देते हैं. अरे, जिस की सरकारी नौकरी लग गई वह तारा ही क्या, सितारा बन जाता है. ऐसे में उस के एकाध लक्षण तो स्वाभाविक रूप से आएंगे ही. यकीन नहीं आता तो आप चले जाएं किसी भी जिले में कुछ सरकारी दफ्तरों में. वहां ऐसे सरकारी अधिकारी मिल जाएंगे जो साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक आधार पर नौकरी करते हैं. वे सप्ताह दो सप्ताह में एक दिन आ गए तो समझ लीजिए उन्होंने बहुत बड़ा एहसान कर दिया है सरकार पर. आज उन्हें 20-25 साल हो गए हैं सरकारी नौकरी करते हुए और वे इस से भी ज्यादा लंबी अवधि के बाद अपने कार्यालय में उपस्थित होते रहे हैं. ये सरकारी क्षेत्र के धूमकेतु हैं जो कभीकभी दिखते हैं. जिसे देखना है देख ले वरना ये दिन के 4 बजतेबजते अदृश्य होने लगते हैं, मतलब अपनी बस या ट्रेन को पकड़ने के लिए दफ्तर से रवाना हो चुके होंगे.

हां, यदि इन से कोई वरिष्ठ पूछ ले कि भाईसाहब कल कहां थे? तो भाईसाहब को यह पूछना बड़ा गरिष्ठ लगेगा. जवाब मिलेगा, ‘सर, यहीं तो था, थोड़ा फील्ड में चला गया था, लौटने में लेट हो गया था.’ अगर अफसर यह पूछ ले कि परसों भी तो नहीं दिखे थे? तो बोलेंगे, ‘सर, कहां से दिखूंगा, उच्च न्यायालय के काम से बाहर गया था.’

और अगर उस के पहले का पूछा तो कहेंगे कि वे पुराने जिले में एक पेशी में गए थे. अब आप पता करते रहो कि कौन सी पेशी थी. ‘पिछले हफ्ते भी तुम 3 दिन गायब थे?’

‘सर, संभागीय बैठक थी.’

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अब अगर अफसर ज्यादा ढीठ निकला और ज्यादा पूछ लिया तो कहेगा, ‘सर, आप तो मेरे पीछे पड़े रहते हैं. आप के पहले भी अफसर थे, कोई इतनी पूछताछ नहीं करता था. उन्हें तो बस काम से मतलब रहता था.’ मतलब, ये मौजूदा अफसर को यह जताना चाह रहे थे कि आप को काम की चाह नहीं है, केवल पूछताछ की पड़ी है. आजकल सरकारी दफ्तरों में धूमकेतुओं की बहुतायत है. मैं ऐसे एक धूमकेतु को जानता हूं जो अपने शहर से दूसरे शहर, जहां वे नौकरी करते थे, को जाने के लिए सुबह 11 बजे की ट्रेन से रवाना होते थे और 4 बजे की ट्रेन से वापस चल देते थे. यह ट्रेन सप्ताह में 3 बार चलती थी तो ये धूमकेतु भी 3 दिन चलते थे. ऐसे धूमकेतु भी हैं जो कि दफ्तर में इसलिए नहीं आ पाते हैं क्योंकि नौकरी से ज्यादा जरूरी नौकरी वे अपने धंधे की कर रहे होते हैं. ये नौकरी से ज्यादा अपने धंधे को समय देते हैं. कई बार दफ्तरी धूमकेतु सिंडीकेट टाइप का भी बना लेते हैं और फिर यदि ऐसा हो गया तो इन के साहब साहबी भूल जाते हैं. दरअसल, ये एक ही समय आते हैं जो कि दफ्तर खुलने से काफी लेट होता है और एक ही समय चले जाते हैं जो कि दफ्तर बंद होने से काफी पहले होता है. क्योंकि बात ट्रेन के टाइम व उस के मासिक पास की रहती है या साझा व्यवस्था वाली मोटरकार की रहती है.

धूमकेतु समस्या सब से ज्यादा बड़े शहरों के पास के छोटे शहरों के दफ्तरों को झेलनी पड़ती है. क्योंकि यहां वही लोग पदस्थापना करवा लेते हैं जिन के मकान परिवार सहित बड़े शहर में रहते हैं. गाहेबगाहे ये धौंस देते रहते हैं कि मजबूरी में यहां नौकरी कर रहे हैं, जब चाहेंगे, वापस चल देंगे. ये बातें सुन कर इन का बौस भी घबराता रहता है कि यदि ये चले गए तो फिर जो थोड़ाबहुत सहयोग मिल रहा है वह भी बंद हो जाएगा क्योंकि रिप्लेसमैंट तो मिलना नहीं है. इस तरह धूमकेतु समस्या एक नया आयाम ले लेती है. यदि दफ्तर का साहब भी इस से ग्रसित हो, वह भी अपडाउन कर रहा हो तो फिर तो इन में बड़ा भाईचारा रहता है. ऐसे में साहब के लिए सीट रोकने का काम मातहत करेंगे. और यदि चारपहिया वाला सिस्टम है तो फिर साहब के लिए एकल सीट ड्राइवर के पास वाली रिजर्व रखी जाएगी. रास्ते में एकाध जगह चाय भी औफर की जाएगी. चाय पीने वाले ये बाबू दफ्तर में आधा घंटा भी बिना चाय के नहीं रह पाते हैं. जैसे बेरोजगारी, महंगाई, कुपोषण, दहेज, महिला उत्पीड़न आदि समस्याओं को सरकार जितना भी रोकने की कोशिश करती है, वे उतना ही बढ़ती जाती हैं. ठीक वही स्थिति धूमकेतु समस्या के साथ है. पता नहीं कब यह समाप्त होगी?

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मेरे औफिस में सफाई अभियान

देश में सफाई अभियान की लहर में सवार सरकारी बाबू इन दिनों गहरी मंत्रणा में हैं. मैलेकुचैले अफसरों को साफसुथरा रहने, कोई काम न करने और झाड़ू पकड़ने की ट्रेनिंग के साथ सख्त हिदायत दी जा रही है कि जनता का काम छोड़ कर खुद की फैलाई गंदगी साफ करें, भले ही एक दिन के लिए.

इधर उन्होंने देश के सफाई अभियान का हाथ में झाड़ू ले कर शुभारंभ किया तो हमारे साहब ने गिरते हुए औफिस की मंजिल में बीमा करवा कर अपनीअपनी मैलीकुचैली कुरसियों की गद्दियों पर पसरे समस्त मैलेकुचैले कर्मचारियों को देश की सफाई की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए आपातकालीन मीटिंग में संबोधित करते हुए कहा, ‘‘हे मेरे औफिस के मैलेकुचैले कर्मचारियो, आप को यह जान कर दुख होगा कि हमारे देश की सरकार ने देश में सफाई अभियान शुरू कर दिया है. इस देश में हम जैसों के लिए औफिस ही एक ऐसी सुरक्षित जगह बची है जहां अपनेअपने हिसाब से गंद पा सकते हैं. पर ताजा खबरें आप अखबारों में नित देख रहे हैं कि इस अभियान में अपने चाटुकारपने की आहुति देने के लिए औफिस का कामकाज छोड़ देश के तमाम अधिकारी, जिन्होंने कभी कलम नहीं उठाई, हाथों में झाड़ू लिए देश को साफ करने निकल पड़े हैं.

‘‘वैसे यह दूसरी बात है कि देश में अब साफ करने के लिए बचा ही क्या है? सारा का सारा देश तो कभी का साफ हो चुका है.’’

माथे पर चुहचुहा आए पसीने को पोंछ टेबल पर रखे गिलास से 2 घूंट पानी पी कर बुरा सा मुंह बनाने के बाद साहब ने स्टाफ को संबोधित करना जारी रखा, ‘‘और हां वर्माजी, कल अपने सफेद बाल डाई कर के आना. कहते हैं कि सुंदर कर्मचारियों में सुंदर औफिस निवास करता है. मन को मारो गोली. प्रैस वालों को भी लगे कि मेरे औफिस के कर्मचारी… कड़की चल रही हो तो कैशियर से पैसे ले लो. पहली तारीख को लौटा देना पर कल…और औफिस की महिला कर्मचारियों से मेरा निवेदन रहेगा कि वे कल कम से कम साथ में स्वैटर बुनने को न लाएं. किसी प्रैस वाले की नजर उन पर पड़ गई तो बेकार का बखेड़ा खड़ा हो सकता है.’’

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‘‘पर सर, कल जनता गलती से औफिस में काम करवाने आ गई तो सफाई अभियान में गतिरोध नहीं आएगा क्या?’’ शर्मा ने सवाल उठाया था तो साहब ने कुछ देर तुनकने के बाद कहा था, ‘‘पीए, नोट दिस पौइंट. तो ऐसा करो, कल के लिए नोटिसबोर्ड पर एक नोटिस तुरंत लगा दो कि कल औफिस में सफाई अभियान चलाया जाएगा. इस के चलते औफिस आम जनता के लिए बंद रहेगा. असुविधा के लिए खेद लिखना न भूलना. और कुछ?’’

‘‘पर सर, हमारा औफिस तो जनता के लिए तकरीबन बंद रहता है. ऐसे में नोटिस लगा कागज खराब करने की आखिर जरूरत क्या है?’’

साहब ने पीए की बात की ओर कोई ध्यान न दे गुलाटी से कहा, ‘‘कल तुम दीवारों पर लगे मकड़ी के जाले साफ करोगे. वैसे भी तुम सारा दिन सब की सीटों पर छलांगें लगाते रहते हो.’’

यह सुन सारे स्टाफ में मन ही मन ठहाका गूंजा तो गुलाटी ने बेहिचके कहा, ‘‘पर सर, दीवारों से मकड़ी के जाले हटाएं तो ऐसा न हो कि दीवारों से मकड़ी के जाले झाड़तेझाड़ते सारी रेत ही झड़ पड़े.’’

साहब को लगा कि गुलाटी सही कह रहा है. सो उस के कहने के बाद बड़ी देर तक सोचते रहे, फिर बोले, ‘‘तो जाले प्यार से अपने रूमाल से निकालिएगा, गुलाटी साहब. और हां, मिसेज वर्मा, कल आप अपने बच्चे को प्लीज साथ न लाएं. उस ने कोयले से लिखलिख कर मेरे कमरे तक की दीवारें खराब कर दी हैं. कल आप ही उन सारी दीवारों को साफ करेंगी ताकि कल आप के बच्चे को कोयले से लिखने के लिए दीवारों में कुछ तो साफ जगह मिले. और हां, मिस्टर हेमराज, हमारे औफिस के सरताज, आप हमेशा चूल्हे में जो बुझी लकडि़यां डाल, उस पर खाली पतीला रख, उस में जो कलछी चला सब को उल्लू बनाते रहते हो न, कल सारे फर्शों पर पोंछा करोगे. और सब से जरूरी…कल सब नए कपड़े पहन कर औफिस आएंगे ताकि अखबारों में छपी तसवीरों को देख कर दूसरे औफिस के इंप्लाइज खूबसूरत हों तो हमारे औफिस के कर्मचारियों जैसे.’’

गिलास का बचा पानी एक ही घूंट में पीने के बाद साहब आगे बोले, ‘‘तो मित्रो, अब हम चाहते हैं कि हमारा जनता के बीच बदनाम औफिस भी सरकार के झाडू के साथ झाड़ू मिला गंदगी से मुक्त हो और जनता में यह संदेश जाए कि हम उतने गंदे नहीं, जितने कि हमें माना जाता रहा है.’’

फिर सामने फंगस लगी दीवार पर टंगी महीनों से एक ही जगह रुकी दीवारघड़ी को कुछ देर घूरने के बाद पिलपिलाते बोले, ‘‘तो दोस्तो, कल ठीक 10 बजे हम सभी अपनीअपनी झाड़ू लिए मुसकराते हुए औफिस आएं. घर से पुरानी झाड़ू प्लीज कोई न लाए ताकि जनता को भी पता चले कि हम अपने औफिस की सफाई के प्रति कितने गंभीर हैं. प्रैस वालों के फोटोग्राफर ठीक 10 बजे यहां अपनेअपने कैमरे ले कर आ जाएंगे. ऐसे में कोई भी लेट नहीं होगा. उस के बाद तय मानिए, हम सालभर किसी को नहीं पूछेंगे कि कब कौन आ रहा है, कब कौन कहां जा रहा है. जिन को झाड़ू लगानी नहीं आती उन से अनुरोध है कि वे घर में जा कर अपनी पत्नी या बाई से हर हाल में झाडू कैसे दी जाती है, सीख कर आएं ताकि प्रैस वालों के सामने कम से कम हमारे औफिस की फजीहत न हो.

‘‘याद रहे, कल कोई औफिस से गायब नहीं रहेगा. यह एक राष्ट्रीय कार्यक्रम है, इसलिए कल किसी को अवकाश भी नहीं दिया जाएगा, घर में चाहे कितनी ही इमरजैंसी क्यों न हो. जो कल औफिस नहीं आएगा उस को कारण बताओ नोटिस ही नहीं दिया जाएगा बल्कि उस की सर्विस बुक में ऐंट्री भी की जाएगी और उसे विलफुल एबसैंट मार्क किया जाएगा. ऐसा होने पर सर्विस में ब्रेक  माना जाएगा. इसे धमकी नहीं, चेतावनी समझा जाए. आप को एक बार फिर सूचित किया जाता है कि अखबार में छपी खबर की कतरन सरकार को भेजी जाएगी ताकि…’’ फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘यह न समझें कि हमारे साहब गीदड़ भभकी दे रहे हैं.’’

उन्होंने सफाई अभियान के मद्देनजर बाकायदा 20 हजार रुपए खर्च कर के रंगीन फोटो सहित प्रैजेंटेशन बनवा कर सफाई मंत्रालय को कूरियर से भेजा भी था पर वह लौट आया क्योंकि सफाई मंत्रालय भी रुपए ऐंठने के अभियान में जुटा है. वह किसी तरह का कोई कागज, चाहे जनता की शिकायत हो या किसी कार्यालय की रिपोर्ट की फाइल, यह ले ही नहीं रहा था. सफाई मंत्रालय जानता है कि न कागज आएंगे न कूड़ा होगा.

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पिल्ला: भाग-4

और क्या पता बीच में ही मर जाए, उन के घर से क्या जाता है? पुलिस वालों का भी क्या ठीक है, वे  भी किसी अनाथालय में ही जा कर डाल आएंगे.’’

इस से पहले कि सरन बाबू कुछ उत्तर दें, एक सज्जन ने दार्शनिक स्वर में कहा, ‘‘क्या रवैया है, साहब, दुनिया का भी, पाप किसी ने किया और भोगे कोई. अब यह बेचारा फिरेगा मारामारा.’’

सभी लोग आशा से उत्सुक हो कर एकदम सरन बाबू की ओर ही देखने लगे. इस अप्रत्याशित प्रहार से सरन बाबू अचकचा उठे. झुंझला कर कहा, ‘‘अच्छा मजाक है, कोई बालबच्चा नहीं है तो सड़क से उठा कर डाल लूं? तुम भी, लालाजी क्या बातें करते हो, अब इस की जात का पता नहीं, पात का पता नहीं. मेरी बीवी तो घुसने भी नहीं देगी, किस का बच्चा उठा लाए?’’

‘‘हां, यह बात तो है,’’ गंभीरता से सोचते हुए बहुतों ने सिर झुका लिए, ‘‘पता नहीं किस जात का है?’’

एक गांव के से धर्मप्राण आदमी ने पास वाली बुढि़या को समझाया, ‘‘हां, ठीक कह रहे हैं बाबूजी. जरा सा बच्चा, क्या पता लगे किस जात का है? बोल सके नहीं, बता सके नहीं. माथे पर उस के लिखा नहीं कि फलां जात का है. भंगी, चमार, ठाकुर, बामन पता नहीं किस जात का है. और कौन जाने मुसलमान ही हो. कोई कैसे ले ले?’’ फिर बड़े निराश हो कर वे महाशय घर की ओर चल दिए.

‘‘हां, हां, ठीक है,’’ बुढि़या ने स्वागत कथन करते हुए राय दी, ‘‘रांड थी कैसी? यहां बीच सड़क पर डाल गई है. अरे, सब अंधे हो जावें जवानी में. आगे देखें न पीछे. अब तो किसी को लिहाजशरम रही ही नहीं,’’ अथाह दुख उस के प्रत्येक शब्द में कराह रहा था.

प्रत्येक व्यक्ति इस बात को इस तरह ले रहा था जैसे संसार में यह घटना बस पहली ही बार हुई है और कभी किसी भी व्यक्ति के जीवन में, कम से कम उस की आंखों के सामने, ऐसी घटना हुई ही नहीं थी. और इस समय तो बस स्तब्ध रहने के अतिरिक्त वे कुछ कर ही नहीं सकते. भीड़ के बुड्ढेबुढि़या या कुछ और भी व्यक्ति भीड़ से जरा हट कर एकदूसरे के कान के अधिक से अधिक पास मुंह ले जा कर धीमे से धीमे स्वर में बात को इस सामने पड़े बच्चे से अपने पासपड़ोस के जानपहचान वालों के घरों में ले गए थे, फलाने की बहू का अपने देवर से क्या संबंध है, ससुर से कैसे बेपर्दगी करती है, जेठ के सामने कैसे मुसकराती है, उस की लड़की या बहन कैसे उस लड़के को देख कर हंस रही थी, चिट्ठी की गोली बना कर फेंकते अपनी आंखों से देखा, और भी न जाने कौनकौन से जानेअनजाने रहस्य. हालांकि उन में से प्रत्येक एक बात कह लेने के बाद अपने घर की बात मन ही मन जरूर सोच लेता था.

‘‘जातपात से तुम्हें क्या है, सरन बाबू? ले जाओ, अब इस बच्चे की क्या जात?’’ एक सुधारवादी ने राय दी.

‘‘वाह, यह अच्छी कही,’’ सरन बाबू चिढ़ कर बोले, ‘‘किसी का पाप मैं क्यों घर ले जाता फिरूं? और जातपात से होता कैसे नहीं है? हम तो मानते हैं.’’

‘‘तो पता लगा लो न किस जात का है? है कोई टैस्ट ट्यूब?’’ उस आदमी ने सरन बाबू को चुनौती दी, ‘‘सीधी सी बात कही और बाबूजी उस पर ऐंठने ही लगे. अरे, हम ज्यादा बखेड़ा जानते ही नहीं. पाप हो या पुण्य, सीधी सी बात जानते हैं, आदमी का बच्चा है, कैसा फूल सा मुसकरा रहा है. तुम जात और रख दो अभी से उस की छाती पर,’’ शायद वे सरन बाबू से पहले से परिचित नहीं थे.

‘‘जात छाती पर नहीं रख दी, तो तुम क्यों नहीं ले जाते?’’ एक रूई की फतूरी और कंटोपे वाले अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने सरन बाबू का पक्ष लिया.

‘‘जी हां, 6 बच्चे घर पर नहीं होते और 100 के बजाय कुछ भी तनख्वाह ज्यादा होती तो मैं ले जा कर भी दिखा देता,’’ वे बोले.

तभी पास बैठी भंगिन ने जरा ललकार भरे स्वर में कहा, ‘‘कोई नहीं ले जा रहा तो बाबूजी, मैं ले जाऊं? अपने महल्ले में दे दूंगी किसी को. कोई न कोई तो ले ही लेगा,’’ बात उस ने खूब ऊंचे स्वर में सब को सुना कर कही थी.

सब चुप थे, लेकिन इस बात को मन ही मन किसी ने भी स्वीकार नहीं किया कि इस बच्चे को भंगिन ले जाए. रंग खूब गोरा है, हो सकता है किसी ऊंची जाति का हो. भंगिन की इस बात का सभी एक स्वर से विरोध करना चाहते थे. लेकिन विरोध कर तो दें, पर फिर ले कौन?

सरन बाबू ने कुहनी का इशारा किया और धीरे से मुंह को इस तरह झटका कि चलो, इस बेवकूफी में वक्त बरबाद करना मूर्खता है. और वे मेरी प्रतीक्षा न कर के स्वयं मुड़ कर चल दिए. लाचार मुझे भी लौटना पड़ा वरना मेरी प्रबल इच्छा अगली बात देखने की थी. लेकिन सरन बाबू बहुत अधिक क्षुब्ध हो उठे थे, यह उन के मुंह की मुद्रा से साफ था. इस समय मेरे रुकने से वे बहुत बुरा मान जाएंगे.

भीड़ से अलग आ कर उन्होंने भुनभुनाते हुए कहा, ‘हूं, मैं ही बेवकूफ मिला.’

मैं ने कुछ नहीं कहा. चुपचाप चलता रहा. मेरे भीतर एक विचित्र क्षोभ और आंदोलन उमड़ पड़ा था. वाकई कितना मुश्किल प्रश्न है. एक बच्चा है लावारिस, बोल नहीं सकता, बता नहीं सकता, कैसे पता लग सकता है कि उस की जाति क्या है? मुझे सरन बाबू के सारे तर्क व्यर्थ लगे. अब रंग और रक्त की परीक्षा कर के क्यों नहीं बताते कि यह बच्चा ब्राह्मण है या मुसलमान? अंतरतम में मैं प्रसन्न था, अच्छा हुआ.

वह जगह आ गई जहां हम लोगों को अलग होना था. बीच में आई उस उत्तेजना को सरन बाबू दबा कर अब भरसक प्रकृतस्थ होने का प्रयत्न कर चुके थे. अब उन के मुंह पर ऐसा भाव था जैसे कुछ हुआ ही नहीं.

विदा होते हुए उन्होंने कहा, ‘‘अच्छा, भई, तो कल फिर चलेंगे घूमने.’’

‘‘हां, जरूर, जरूर,’’ मैं ने उन का बढ़ा हुआ हाथ अपने हाथ में ले कर उन्हें आश्वासन दिया.

थोड़ी दूर चल कर वे फिर लौटे. बोले, ‘‘और सुनो, भई, इन जैक्सन फैक्सन के चक्कर में मत आना, पिल्ला मैं ले जाऊंगा. समझे?’’

‘‘अच्छा,’’ मैं ने अन्यमनस्क हो कर उत्तर दिया.

पिल्ला: भाग-3

‘‘आइए, सरन बाबू, जरा देखें क्या है?’’ मैं ने ठिठक कर कहा.

‘‘अरे, होगा क्या, कुछ चुनाव का प्रोपेगैंडा है. आजकल तो सभी पर यही चुनाव का भूत सवार है,’’ उन्होंने लापरवाही से कहा. वे अधिक उत्सुक नहीं थे.

‘‘नहीं, तब भी देखें न,’’ मैं ने कहा, और गली में मुड़ गया. चादर लपेटे, जनेऊ कान पर चढ़ाए एक आदमी सामने के नल पर मिट्टी लगालगा कर हाथ धो रहा था. उसी से पूछा, ‘‘क्यों भई, क्या मामला है?’’

‘‘कुछ नहीं, जी, आज सुबह ही सुबह भंगिन जब झाड़ू लगा रही थी तो मंदिर की दहलीज पर टाट में लिपटी हुई कोई चीज दिखाई दी. उस ने समझा कूड़ाकरकट होगा. झाड़ू मारी तो टाट खुल गया, देखा एक बच्चा था.’’

‘‘बच्चा?’’ चिहुंक कर मेरे मुंह से निकल गया.

‘‘हां, बच्चा. हाल का होगा या 1-2 दिन का होगा,’’ उस ने कुछ दुख प्रकट कर के कहा, ‘‘जाड़े के मारे बेहोश सा था. वह तो लोगों ने रूई से दूध पिलाया, कपड़े उढ़ाए, तब उस के गले से आवाज निकली.’’

‘‘अच्छा, तब तो जरूर देखना चाहिए,’’ वहां से बढ़ कर हम और सरन बाबू भीड़ में आ गए. हृदय में बड़ी उत्सुकता थी, आखिर बच्चे को यहां कौन छोड़ कर चला गया? कैसा है?

भीड़ से झांक कर देखा, गोल घेरा सा छोड़ कर जमीन पर ही वह बच्चा लेटा था. नीचे टाट था, फिर एक सफेद फटी धोती कई तह कर के बिछी हुई थी. उसी पर वह लेटा था. ऊपर से फटे कंबल का टुकड़ा किसी ने उढ़ा दिया था. बच्चे का केवल मुंह ही खुला था, छोटा सा गोलगोल लाल मुंह. सिर में बालों की जगह हलके रोएं, छोटीछोटी आंखें और नाक. देखते ही एक अनजान प्यार उस के लिए दिल में उमड़ने लगा. अधखुली आंखों से संसार को देख रहा था वह मासूम, अबोध, अनजान शिशु. भंगिन न देखती तो नन्ही सी जान चुपचाप मर जाता. लेकिन है कितना प्यारा, अभी संसार की कू्ररता और विषमताओं की छाया उस पर नहीं पड़ी. संसार…एक गहरी सांस हृदय से उठने को हुई. तभी पास वाले सज्जन की चुभती वाणी से चौंक गया.

‘‘किसी को अपने पाप की कमाई रखने की जगह कहां मिली है, मंदिर का दरवाजा,’’ कुटिलता से हंसते हुए वे कह रहे थे. कोट और पाजामा पहने थे. मफलर में बंधा उन का मुंह बनमानुष की शक्ल की याद दिला रहा था.

इधरउधर के वातावरण को देखा, मिश्रित भावनाओं का एक विचित्र वातावरण था. भीड़ में स्त्रियां, पुरुष, बच्चे, बूढ़े…सभी थे.

‘‘हाय, कैसा खूबसूरत बालक है,’’ एक स्त्री ने दयार्द्र हो कर कहा.

‘‘कौन कमबख्त थी, यहां डाल गई?’’

‘‘देखा, अम्मा, छोटीछोटी आंखों से टुकुरटुकुर देख रहा है,’’ एक 5-6 साल की लड़की ने कहा, ‘‘अम्मा, इसे घर ले चल, यहां क्यों पड़ा है?’’ ललक कर मां की उंगली झटकते हुए उस ने मां के मुंह को देखा, ‘‘कौन लिटा गया है इसे यहां?’’

मां ने हाथ झटक कर झिड़क दिया, ‘‘चुप भी रह.’’

एक हलकी लाली उस के सांवले गालों पर झलक कर छिप गई. उसे छिपाने के लिए वह और अधिक तन्मयता से उसे देखने लगी.

एक युवक ने दूसरे के कंधे पर हाथ  मारा, ‘‘देख लो, यह तुम्हीं जैसे किसी लफंगे की करतूत है, और क्या पता, तेरी ही हो.’’

अपने मजाक पर वह खुद ही दांत निकाल कर हंस पड़ा. 2-3 श्रोताओं ने भी उस का साथ दिया.

जिस से कहा गया था, वह झेंप कर मुसकरा उठा, ‘‘चुप बे,’’ कह कर वह और अधिक व्यस्तता से बच्चे को देखने लगा, जैसे इस सब को सुनने की फुरसत नहीं है. लेकिन चोट कुलबुला रही थी. थोड़ी देर चुप रह कर बोला, ‘‘अबे साले, यह तो तुम्हीं जैसे किसी की करतूत है कि आनंद लूटा और हाथ झाड़ कर अलग हो गए, अब भुगतना है जिसे सो भुगते.’’

सारे वातावरण में एक विचित्र रहस्य, सहानुभूति, दिल्लगी व कुतूहल व्याप्त हो गया था. एक व्यक्ति दूसरे की ओर देखता तो कुछ अजीब निगाह से, जैसे मजाक कर रहा हो. बिलकुल स्पष्ट था कि किसी विधवा या कुमारी के पाप का यह परिणाम है, जिसे समाज की नजरों से बचाने के लिए उस ने यहां छोड़ दिया है. लेकिन आखिर उस का कलेजा कैसा होगा? क्या उस का हृदय टुकड़ेटुकड़े हो कर बाहर नहीं आ गया होगा? आखिर वह हिम्मत कैसे कर सकी? पता नहीं उस बेचारी पर क्या बीती होगी? उस की विवशता, धंसी हुई आंखों से सिसकती कराहों के पिघलते लावे जैसे आंसू एकएक बूंद कर के टपकते दिखाई दिए और मैं इस कल्पनाचित्र से ऊपर से नीचे तक बिजली के करंट के झटके की तरह सिहर उठा. कोई सहानुभूति दिखा रहा था, कोई मजाक कर रहा था. वैसे सब के सामने यही प्रश्न था कि इस बच्चे का आखिर होगा क्या?

एक वृद्ध ने टोपी उतार कर अपने सफेद बाल दूसरे को दिखाते हुए कहा, ‘‘सफेद बाल तो हमारे हो गए, हम ने तो अभी तक ऐसा अधर्म देखा नहीं.’’

‘‘हे भगवान, अभी इन आंखों से जाने क्याक्या देखना और रह गया है,’’ घोर दुख से विह्वल हो कर दूसरे वृद्ध ने कहा.

‘‘हमें तो राम अब उठा ले, बाबा. ऐसा कलिजुग तो देखा नहीं जाता,’’ पहले वाले वृद्ध बोले, ‘‘आजकल तो जो न हो जाए सो ही थोड़ा है.’’

भीड़ में अपना सिर छिपा कर किसी ने आवाज कसी, ‘‘बाबा, ये सब तुम्हारे जमाने की ही तो बातें हैं. अभी हम लोगों का जमाना आया कहां है?’’

बाबा नाराज हो गए और उस ओर ऐसे देखा जैसे नजरों से ही इस बात को कहने वाले को भस्म कर देंगे, ‘‘अरे लौंडो, सब तुम्हारी ही करतूतें हैं.’’

‘‘अच्छा, यह बहस तो छोड़ो, अब यह बताओ कि होगा क्या इस का?’’ अधेड़ सी उम्र के एक व्यक्ति ने पूछा. अपनी सलेटी शौल और कत्थई रंग के ऊनी कपड़ों में वह इस महल्ले का प्रमुख व्यक्ति मालूम होता था.

‘‘अनाथालय वाले ले जाएंगे. ज्यादा हुआ तो पुलिस वाले ले जाएंगे,’’ एक ने उत्तर दिया.

तभी भीड़ के दूसरे सिरे से किसी ने मजाकभरी आवाज में पुकार कर कहा, ‘‘सरन बाबू, तुम ले जाओ इसे. तुम्हारे कोई बालबच्चा भी नहीं है. पाल लेना इसे. बेचारे का उद्धार हो जाएगा.’’

पास ही किसी ने प्रार्थना के स्वर में कहा, ‘‘हां, सरन बाबू, तुम्हीं ले लो न, अनाथालय वालों के पास पहुंच गया तो उलटासीधा खाना देंगे और दयानंद का डंका बजवाते हुए दरवाजेदरवाजे भीख मंगवाएंगे.

आगे पढ़ें- और क्या पता बीच में ही मर जाए, उन के घर से…

पिल्ला: भाग-2

‘‘बिलकुल, बिलकुल,’’ उन्होंने दृढ़ता से कहा, ‘‘ईश्वर और प्रकृति ने सभी जगह विभाजन किया है. शेर शेर एक नहीं होते, मछलियों में भी सैकड़ों भेद हैं, आप कहीं भी ले लीजिए. फिर यही क्यों असंभव है कि आदमी आदमी में कुछ भेद हो? क्षत्रिय क्षत्रिय है, ब्राह्मण ब्राह्मण है. आप कितनी भी कोशिश कर लीजिए, बनिया नहीं छिप सकता. सभी मनुष्य समान हैं, यह सिद्धांत बड़ा ही अवैज्ञानिक है.’’

‘‘लेकिन ये प्रगतिशील विचारों वाले लोग तो गले के सारे व्यास को फैला कर बस यही चीखते हैं कि सब मनुष्य बराबर हैं, उन में कोई भेद नहीं है,’’ मैं ने तर्क रखा.

‘‘यही तो इन की अवैज्ञानिकता है,’’ उन्होंने बड़े आत्मविश्वास से बताना शुरू किया, ‘‘किसी भी चीज का वैज्ञानिक विश्लेषण आप तभी कर सकते हैं जब अपने को उस से बिलकुल तटस्थ और निर्लिप्त बना लें. जब तक आप का उस वस्तु से किसी भी तरह का संबंध है आप निर्लिप्त नहीं रह सकते यानी वैज्ञानिक दृष्टि से जांच नहीं कर सकते. जो आदमी आदमी के बराबर होने की बात चिल्लाते हैं, असल में वे अपनेआप को तटस्थ नहीं कर पाते. इसीलिए उन का निर्णय सर्वमान्य नहीं है. एक कुत्ता ही अगर कुत्तों में विभाजन करने बैठेगा तो वह कैसे वैज्ञानिक रह सकेगा, यह मेरी समझ में नहीं आता. क्योंकि पता नहीं वह खुद किस वर्ग में आए. इन में विभाजन तो आप ही कर सकेंगे, जो इन सब से बिलकुल अलग हैं. आप ही तो बता सकते हैं, यह ग्रेहाउंड है, यह बुलडौग, पायनियर, ताजी, देशी, शिकारी वगैरह हैं.’’ और अपने तर्क की अकाट्यता पर वे स्वयं संतुष्ट से चलने लगे.

‘‘इस का मतलब तो यह हुआ कि आप सिर्फ यह ही नहीं मानते कि मनुष्य मनुष्य में श्रेष्ठता और हीनता प्राकृतिक है, बल्कि यह भी मानते हैं कि जिन्होंने इन नियमों को बनाया वे मनुष्य मात्र से बौद्धिक रूप में ऊंचे उठे हुए थे, तभी तो यह विभाजन कर सके.’’

मेरा मन इसे स्वीकार तो नहीं कर रहा था, लेकिन बात इतने तर्कपूर्ण ढंग से और इतने आत्मविश्वासपूर्वक कही गई थी कि इस के विरुद्ध कोई युक्ति नहीं सूझ रही थी.

‘‘इस में शक ही क्या रह जाता है? निश्चित रूप से वे मनुष्य मात्र से ऊंचे उठे हुए थे. नहीं तो इतना तर्कपूर्ण विभाजन हो ही नहीं सकता था. और मैं तो यह मानता हूं कि समाज का वह ढांचा बडे़ सोचसमझ कर विशाल अनुभवों के बाद बनाया गया था, यों ही बैठेबैठे किसी के दिमाग में फितूर नहीं आता. समाज में यह जातिवाद और ऊंचनीच रहेगा ही और रहना जरूरी है. इस के बिना समाज चल नहीं सकता. मेरा दावा है कि समाज में जब तक अपना वही पुराना ढांचा नहीं लाया जाता, सुख और शांति आ ही नहीं सकती.’’

जैसे वह किसी घोर विरोधी को उत्तर दे रहे हों, उसी जोश में एकएक वाक्य कहते रहे. आखिर उत्तेजना में जेब से हाथ निकाल कर हवा में हिलाते हुए कहा, ‘‘लोग सांप्रदायिकता सांप्रदायिकता चीखते हैं – समझते हैं नहीं सांप्रदायिकता चीज क्या है? आप ब्राह्मण हैं, भंगी को अपने पास बैठा लीजिए, खाना खा लीजिए साथ, इस से होता क्या है? आप उस खून का क्या करेंगे जो उस की नसनस में दौड़ रहा है, जो उस के बापदादाओं ने दिया है? आप उसे कहां निकाल फेंकेंगे? एक चीते और बबरशेर को सिर्फ साथ बैठा कर खिला देने से ही आप उन का भेद थोड़े ही दूर कर सकेंगे?’’ फिर जैसे अनुपस्थित विरोधियों के प्रति उन्होंने घृणा व्यक्त की, ‘‘बेवकूफी, बकवास.’’

‘‘लेकिन शेरचीतों का बाहरी भेद इतना साफ है कि हम उन्हें देखते ही पहचान लेते हैं. आप आदमी को देखते ही कैसे पहचान लेंगे कि वह किस कुल का है, क्योंकि मनुष्य में जो फर्क है वह भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार है. पहाड़ों पर रहने वाले गोरे होंगे, विषुवत रेखा के पास रहने वाले काले. तो आप कैसे पता लगाएंगे?’’ मैं उन के इस जोश से सहम गया, फिर भी तर्क देता रहा. हम लोग घर के काफी निकट आ गए थे.

‘‘देखो, बेवकूफी की बात तो तुम किया मत करो,’’ अपने बड़े होने के अधिकार का उन्होंने फौरन सदुपयोग किया, ‘‘आप यह क्यों नहीं सोच सकते कि जिन लोगों ने इस तरह का विभाजन किया उन्होंने जातिकुल पहचानने की तरकीब और चिह्न भी दिए हैं? आप ने कभी स्मृतिपुराण आदि कोई चीज उठा कर देखी है कि यों ही बकबक किए जा रहे हैं? आप मेरे सामने लाइए कोई आदमी, मैं बताता हूं.’’

आवेश में वे थोड़ी देर चुप रहे. अपने होंठों को भींचते रहे, फिर कुछ नरमी से कहा, ‘‘मैं मानता हूं कि भौगोलिक परिवर्तन होता है, लेकिन कितना होगा? आप मुझे बताइए, बंगाल और गुजरात करीबकरीब एक ही रेखा पर हैं, फिर क्यों वहां के रंगों में इतना फर्क है? तो, भाई मेरे, यह कोई सार्वभौम नियम नहीं है.’’

अपनी बुद्धि पर इस आक्रमण से मैं तिलमिला गया, ‘‘आदमी आदमी में यह विभाजन यहीं क्यों है? हम ने तो किसी भी देश में ऐसा नहीं सुना.’’

‘‘तभी तो वहां आएदिन युद्ध, कत्ल, लड़ाई और डकैती होती हैं. आप मुझे बताइए, वहां कोई सुख, कोई शांति है?’’

‘‘सो तो यहां भी हो रहा है,’’ मैं ने कहा.

‘‘यही तो मैं कह रहा हूं, श्रीमान. यहां यह सबकुछ क्यों है? क्योंकि हम सब उस से दूर हो गए हैं. विदेशों में तो यह चीज है ही नहीं. उस की अंधी नकल में हम भी उसी तरफ भाग रहे हैं. कोई नहीं जानता कहां पहुंचेंगे, कहां मरेंगे. बस घिसटना, पीछे घिसटना,’’ उन्होंने दुख जताया.

‘‘कुछ भी हो, आखिर यूरोप वाले भी इस चीज को समझेंगे ही. जाएंगे कहां?’’ उन्होंने गर्व और विश्वास से कहा.

मैं चुप रहा, प्राय: निरुत्तर भी. हम लोग घनी बस्तियों में आ गए. रोशनी हो रही थी और कोहरा मिट रहा था. नाले की पुलिया पर बैठे कुछ बूढ़े चैस्टरों और अलवानों में ढकेदबे बड़े जोश में अपनेअपने राजनीतिक विचारों को व्यक्त कर रहे थे. मुख्य सड़क पर हम चलने लगे थे.

अचानक मैं चौंक गया. एक पतली सी गली मकानों के बीच में चली गई थी. उसी में जरा भीतर जा कर सैकड़ों आदमी झुंड बनाए खडे़ थे. हम लोग वहीं रुक कर देखने लगे. भीड़ में जिन लोगों के मुंह दिखाई दे रहे थे वे बड़े शरमाए और मुसकराते हुए थे.

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पिल्ला: भाग-1

किसी ने घंटी बजाई. मैं ने छोटी बहन को भेजा, ‘‘देखना, कौन है?’’ उस ने किवाड़ खोले और चौड़ी सी संधि बना कर वहीं खड़ी बाहर किसी से बात करती रही. मैं उत्सुक था कि आखिर कौन है जो भीतर नहीं बुलाया जा सकता? मैं ने बैठेबैठे ही पूछा, ‘‘कौन है?’’

उस ने जवाब कुछ नहीं दिया और भाग कर मेरे पास आ कर धीरे से, ताकि बाहर वाला सुन न ले, बताया, ‘‘कोई आई हैं. मैं ने भीतर आने को कहा, पर नहीं आ रहीं.’’

‘‘आई हैं?’’ आश्चर्य से दोहराता हुआ मैं उठा, ‘‘कौन आई हैं?’’ द्वार पर देखा, 28-30 वर्ष की, सफेद धोती और ब्लाउज में, गेहुंए वर्ण की कोई महिला खड़ी थीं. उलटे पल्ले की धोती देखते ही बताया जा सकता था कि वे पढ़ीलिखी हैं और ईसाई हैं. मैं ने शिष्टतापूर्वक नमस्कार किया. पूरा दरवाजा खोल कर एक ओर हटते हुए कहा, ‘‘आइए, भीतर आइए न. कहिए, कैसे तकलीफ की?’’

‘‘नहीं, नहीं ठीक है,’’ उन्होंने और भी नम्रता से मुसकरा कर कहा. फिर जैसे किसी अपराध की क्षमायाचना कर रही हों, बोलीं, ‘‘देखिए, एक अर्ज है.’’

‘‘कहिए, कहिए न,’’ मैं ने शीघ्रता से कहा. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर अर्ज क्या है, और इन्हें इतना संकोच क्यों हो रहा है?

‘‘देखिए, आप की यह कुतिया है न, यह कब बच्चे दे रही है?’’ फिर मांगने की झेंप से सकुचाते हुए बोलीं, ‘‘हमारा अलसेशियन मर गया है. अब हमें एक कुत्ते की सख्त जरूरत है. वह बेचारा तो बड़ा ही अच्छा था. 12 साल का हो कर मरा. उसे टौमी कहते थे बच्चे.’’ और शायद उस टौमी की याद में पिघल कर उन का गला रुंध गया.

मैं ने इस विषम स्थिति से उन का उद्धार करते हुए कहा, ‘‘बड़े शौक से, बडे़ शौक से. यह तो 2-3 बच्चे देगी, उन सब का हम क्या करेंगे? बहुत हुआ तो 1 रखेंगे. वैसे मैं आप का परिचय…’’

‘‘हां, हां, मैं जैक्सन परिवार की हूं, आशा जैक्सन. प्रैक्टिस कर रही हूं. यहीं पास के महल्ले में हमारा बंगला है. जैक्सन साहब को तो आप जानते होंगे न, शराब की दुकान है बहुत बड़ी, कैंट में. खैर, अगर आप इस बच्चे का कुछ चाहेंगे…’’ फिर जैसे झेंप कर कहा, ‘‘बात यह है कि मुझे आप की कुतिया बहुत पसंद है. बड़े कद का कुत्ता मुझे पसंद नहीं है. छोटे से छोटा हो…और देखिए, मैं आंखें बंद ही ले जाऊंगी.’’

बच्चे का कुछ चाहने की सुन कर मैं ने जल्दी से कहा, ‘‘अरे, अरे, आप क्या बात करती हैं, आप तो पिल्ला लेंगी न?’’

‘‘जी, हां. देखिए, किसी दूसरे को मत दीजिएगा,’’ शिष्टता की प्रतिमूर्ति बन कर उन्होंने कहा, ‘‘मैं परसों फिर पूछ जाऊंगी.’’

‘‘नहीं, कोई बात नहीं है, मैं जरूर आप को दे दूंगा.’’

‘‘अच्छा, मैं चलूं. देखिए, भूलिएगा मत,’’ माथे तक हाथ कर के उन्होंने नमस्कार किया और बरामदा उतर गईं. जाते वक्त फिर कहा, ‘‘देखिए, किसी और से वादा मत कीजिएगा.’’

‘‘आप खातिर जमा रखिए,’’ मैं ने उन्हें मुसकराते हुए आश्वासन दिया.

कानों में मफलर लपेटे और मोटेमोटे चैस्टर डाले हम दोनों ही घूमने जा रहे थे. हाथ जाड़े के कारण हम ने जेबों में ठूंस रखे थे. दिसंबर के अंतिम दिनों की ठंड और सुबह के 5 बजे का वक्त. सूरज निकलने में अभी काफी देर थी और कोहरा बड़ा घना था. सुबह की ठंडी हवा नाककानों को जमाए दे रही थी. बोलने में भी बड़ा आगापीछा सोचना पड़ रहा था. हम लोग चुपचाप ही चलते गए. हम जैसा साहसी एकाध और आताजाता दिखाई दे जाता था. टहल कर लौटने वाले प्राय: जुगाली की तरह उन्मुक्त रूप से दातुन चबाते हुए आते और जाने वाले जाड़े की सीत्कार के साथ ‘रघुपति राघव राजा राम’ या कोई और भजन की धुन मुंह से निकालते हुए.

निर्दिष्ट स्थान पर आ कर हम लोग रुके और मशीन के पुतलों की तरह लौटने के लिए घूम गए. चुपचाप ही लौट चले. नाम इन का सरन बाबू है. अध्ययन में मुझ से बहुत, और उम्र में 5-6 वर्ष बड़े हैं, इसलिए मैं इन का आदर करता हूं.

आखिर मैं ने कुछ सोच कर हंसते हुए कहा, ‘‘सरन बाबू, आप जैक्सन साहब को जानते हैं? कैंट में शराब की दुकान है?’’

‘‘कौन जैक्सन? जैक्सन ऐंड कंपनी तो नहीं?’’ उन्होंने मेरी ओर देखा.

‘‘हां, हां, वही. कल उन की कोई बहन आई थीं, मिस आशा जैक्सन. पिल्ला लेना चाहती हैं. बड़ी खुशामद कर रही थीं. हमारी जरा सी तो कुतिया है. मुश्किल से 2-3 पिल्ले देगी, और लोगों ने अभी से मांगने शुरू कर दिए हैं.’’

‘‘अच्छे किस्म की होगी?’’ फिर अचानक याद कर के कहा, ‘‘अच्छा, वह 9 इंच ऊंची वाली, क्या नाम है उस का? भई, साफ बात है, उस का 1 पिल्ला तो तुम्हें हमें देना पड़ेगा. पीछे देते रहना किसी जैक्सन फैक्सन को. तुम जानते हो, बालबच्चे कोई हमारे हैं नहीं.

अच्छा सा पिल्ला हमें जरूर चाहिए. मैं तुम से साफ कहे देता हूं, कोई भी बहानेबाजी नहीं सुनूंगा,’’ फिर कुछ रुक कर कहा, ‘‘इन मांगने वालों की क्या है? वही कुतिया तो है न…’’ वह नाम याद करने लगे.

‘‘हां, वही. बड़े अच्छे किस्म की है. वे तो उस का कुछ देने को भी तैयार हैं. हमारे यहां तो यों ही आ गई थीं.’’

‘‘भई, चीज अच्छे किस्म की हो, बीस मांगने वाले आ जाएंगे. कहीं कस्तूरी छिप सकती है? चीज तो दूरदूर से अपना मोल पुकार कर कह देती है,’’ सरन बाबू ने बड़ी गंभीरता से कहा, ‘‘अब यहां जातपात न मानने वालों से मैं एक सवाल करूंगा. क्यों, भई, कुत्ते कुत्ते तो सभी एकबराबर हैं. उन में इस तरह का भेद करना कहां तक उचित है कि एक को आप 2 हजार रुपए का भी खरीदें और एक की बात भी न पूछें?’’

‘‘क्या मतलब आप का? आप कहना चाहते हैं कि आदमी आदमी का यह भेद, रक्त संबंधी ऊंचनीच, शूद्र और ब्राह्मण का बंटवारा ईश्वर का किया हुआ है?’’ मैं ने चौंक कर उन की ओर देखा. मुझे मालूम था कि वे जातिवाद में विश्वास रखते हैं, लेकिन अभी तक मैं अपनेआप को उन से सहमत नहीं कर पाया था.

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Holi 2020: होली खेलने के दौरान फोन में चला जाए पानी तो अपनाएं ये नुस्खें

होली खेलने के दौरान पानी से भीगना और अलग-अलग रंगों में रंग जाने का अलग ही मजा होता है. होली के त्योहार में सबसे बड़ा खतरा होता है मोबाइल फोन को. आमतौर पर लोग होली खेलने के दौरान अपने फोन को बचाने की हर संभव कोशिश करते हैं, लेकिन होली की मस्ती में कभी-कभी फोन की सेफ्टी में चूक हो ही जाती है.

  1. स्मार्टफोन में होली खेलने के दौरान अगर पानी चला जाए तो आपके फोन के खराब हो जाने की संभावना काफी बढ़ जाती है. इसीलिए आपको कुछ ऐसे टिप्स  बताने रहे हैं जो फोन के पानी में भीग जाने की स्थिति में आपको अपनाना चाहिए.स्मार्टफोन को औफ करने के बाद उसे साफ और सूखे कपड़े से पोंछ लें और फिर इसे किसी पेपर टिशू या किचन टावल में लपेट दें ताकि वह फोन में मौजूद पानी को सोख लें.
  2. इसके बाद तुरंत फोन से सिम कार्ड और मेमरी कार्ड निकाल लें और फोन को हर तरफ से झटकें ताकि उसके भीतर गया पानी बाहर आ जाएअगर आपका स्मार्टफोन पानी में गिर जाए या पानी से भीग जाए तो तुरंत उसे स्विच औफ कर दें. भीगा हुआ फोन इस्तेमाल करना खतरनाक हो सकता है क्योंकि पानी फोन के सर्किट्स को नुकसान पहुंचा सकता है और स्मार्टफोन हमेशा के लिए खराब हो सकता है.
  3. आप फोन को सुखाने के लिए इसका बैक पैनल खोलकर सीधे धूप में भी रख सकती हैं. धूप में भी कुछ ही देर में फोन में मौजूद सारा पानी सूख जाता है. हालांकि ऐसा करने में यह ध्यान रखना चाहिए कि ज्यादा तेज धूप में बहुत देर तक फोन न रखें क्योंकि गर्मी से इसके प्लास्टिक कौम्पोनेंट पिघल भी सकते हैं.
  4. जैसे ही फोन औन हो तो जल्द से जल्द इसके अपने पूरे डेटा का बैकअप ले लें. संभव है कि फोन के कुछ पार्ट में खराबी आ गई हो और वे समय के साथ खराब हो जाएं इसलिए आपके फोन में मौजूद डेटा हमेशा के लिए चला जाएगा.

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कभी ना करें ये काम

अगर आपका फोन पानी में भीग गया है और वह वारंटी पीरियड में है तो इसे औथराइज्ड सर्विस स्टेशन में ले जाएं. हालांकि आपको यह ध्यान रखना होगा कि कंपनी से यह बात छिपाएं नहीं कि आपका फोन पानी में भीगने से खराब हुआ है क्योंकि सर्विस सेंटर में फोन के खुलते ही यह पता चल जाता है कि फोन भीगने से खराब हुआ है. अगर ऐसा होता है कंपनी आपको वारंटी नहीं देगी.

  1. फोन के पानी में भीग जाने पर कभी भी इसे हेयरड्रायर से सुखाने की कोशिश न करें. हेयरड्रायर की हवा बहुत गर्म होती है और इससे फोन के इलेक्ट्रॉनिक काम्पोनेंट्स खराब हो सकते हैं. इसके अलावा फोन को सुखाने के लिए उसे किसी हौट अवन या रेडियेटर पास भी न रखें.
  2. फोन के भीगने के बाद इसे चार्ज न करें क्योंकि इससे शौर्ट सर्किट हो सकता है जो डिवाइस को और ज्यादा नुकसान पहुंचा सकता है। इसके अलावा फोन में कोई नुकीली चीज डालने का प्रयास भी न करें क्योंकि अगर ऐसा होता है तो पानी आपके फोन के और भीतर जा सकता है और फोन के कॉम्पोनेंट्स खराब हो सकते हैं.
  3. अगर आप ऊपर बताई गई बातों का ध्यान रखें तो होली पर फोन के भीग जाने पर भी आप उसे सही कर सकती हैं. ध्यान रहे, हमेशा इलेक्ट्रौनिक डिवाइसेज को पानी से दूर रखना चाहिए क्योंकि पानी से ये खराब हो जाते हैं लेकिन फिर भी अगर कभी ये भीग जाएं तो ऊपर बताए गए कदम उठाएं.

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कातिल किलर : भाग 2

रेखा सिकरवार से देवकरण की मुलाकात सन 2016 में हुई थी. हुआ यह कि रेखा को उस के पति ने छोड़ दिया था. इस के लिए रेखा अपने ग्रह नक्षत्र दिखाने के लिए पंडित रमेशचंद्र व्यास के पास आई थी. रमेशचंद्र व्यास ने रेखा को अपनी कुंडली के बारे में देवकरण से सलाह लेने को कहा. देवकरण ने कुंडली देख कर उस की परेशानियां तो बता दीं, लेकिन खुद परेशानी में फंस गया.

हुआ यह कि सलाह के सिलसिले में रेखा ने देवकरण से उस का मोबाइल नंबर ले लिया और फिर अकसर उस से फोन पर अपनी समस्याओं के बारे में बातचीत करने लगी.

मंदिरों में पूजापाठ का काम सुबह काफी जल्द शुरू हो कर देर रात तक चलता था. मंदिर में पूजा के अलावा देवकरण कई यजमानों के घर विभिन्न तरह के अनुष्ठान करवाने के लिए जाता था, इसलिए रेखा से उस की बात अकसर रात में ही हो पाती थी.

इसी बातचीत के दौरान रेखा का देवकरण की तरफ झुकाव हो गया. रेखा काफी शातिर थी. वह जानती थी कि देवकरण के पास काफी पैसा है, इसलिए उस ने उसे शीशे में उतारने की योजना बनाई. उस ने एक रोज पूजापाठ के बहाने देवकरण को अपने घर बुलाया.

देवकरण जब वहां पहुंचा तो उस के घर पूजापाठ की कोई तैयारी नहीं थी. यह देख वह कुछ देर रुक कर वापस लौटने लगा तो रेखा ने उसे रोक कर कहा, ‘‘क्या सिर्फ पूजा करना ही अनुष्ठान है? स्त्रीपुरुष का प्यार भी तो अनुष्ठान ही होता है.’’

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देवकरण कोई बच्चा नहीं था जो रेखा के कहने का मतलब न समझता. रेखा के प्रति उस के मन में भी आकर्षण था, लेकिन अपने परिवार की इज्जत एवं पेशे की पवित्रता को ध्यान में रख कर वह खुद आगे नहीं बढ़ा था. लेकिन जब रेखा ने खुला प्रेम प्रस्ताव दिया तो वह खुद को रोक नहीं सका, अंतत: दोनों ने अपनी हसरतें पूरी कर लीं. इस के बाद आए दिन दोनों की एकांत में मुलाकातें होने लगीं. रेखा के पास रोजीरोटी का कोई सहारा नहीं था, सो देवकरण से वह देहसुख के बदले पैसे वसूलने लगी.

इसी दौरान रेखा की छोटी बहन सुमन सिकरवार को भी उस के पति ने छोड़ दिया, जिस से वह भी मायके आ कर रहने लगी थी. खर्च बढ़ा तो रेखा की देवकरण से मांग भी बढ़ने लगी. लेकिन देवकरण ने इस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया. इसी बीच पिता रमेशचंद्र व्यास ने देवकरण का रिश्ता उज्जैन में ही फ्रीगंज निवासी अंतिमा के साथ तय कर दिया.

यह बात रेखा को पता चली तो वह समझ गई कि पत्नी के आने के बाद देवकरण उस के कब्जे में ज्यादा दिन नहीं रहेगा. इसलिए देवकरण जब उसे अपनी शादी का निमंत्रण पत्र देने गया तो रेखा ने उसे खूब लताड़ा. रेखा ने कहा कि उस ने वादा किया था कि वह शादी के बाद भी उस का खर्च उठाता रहेगा.

अप्रैल, 2017 में अंतिमा से देवकरण का विवाह हो गया. वह बहुत सुंदर थी. अंतिमा के मधुर व्यवहार से ससुराल में सब खुश थे. पत्नी के प्यार ने देवकरण को रेखा से दूर कर दिया. लेकिन रेखा, उस की मां और बहन सुमन को यह मंजूर नहीं था. देवकरण उन के लिए वह खजाना था, जिस में हाथ डाल कर वे जब चाहे पैसा निकाल सकती थीं.

इसलिए रेखा, उस की बहन सुमन और मां भागवंती देवकरण को धमकाने लगीं. उन्होंने धमकी दी कि अगर उस ने पैसा नहीं दिया तो वे उसे बलात्कार के आरोप में जेल पहुंचा देंगी.

इसी दौरान रेखा की छोटी बहन सुमन एक साड़ी शोरूम में नौकरी करने लगी थी, जहां पहले से वहां काम कर रहे लाखन के साथ उस के अवैध संबंध बन गए. लाखन भी शातिर था, इसलिए कुछ ही दिन में उस ने सुमन की बहन रेखा को अपने प्रेमजाल में फांस लिया.

कुछ दिनों में यह जानकारी सुमन को भी मिल गई. लाखन और रेखा के संबंधों पर सुमन ने भी कोई ऐतराज नहीं जताया. इस बीच जब रेखा और देवकरण का मामला लाखन की जानकारी में आया तो मां और दोनों बेटियों के साथ वह भी देवकरण को पैसों के लिए धमकाने लगा.

देवकरण के पिता रमेशचंद्र की समाज में काफी इज्जत थी. लोग उन का बहुत सम्मान करते थे, इसलिए देवकरण परेशान रहने लगा. साथ ही उसे पत्नी अंतिमा की भी चिंता थी. उसे लगता था कि यदि अंतिमा को रेखा के बारे में पता चलेगा तो वह उस के बारे में क्या सोचेगी.

दूसरी तरफ 2 सालों में 5 लाख से भी ज्यादा रुपए और ज्वैलरी हड़पने के बाद भी रेखा, सुमन, दोनों बहनों के प्रेमी लाखन और मां भागवंती की मांग लगातार बढ़ती जा रही थी.

घटना के एक दिन पहले देवकरण उदयपुर में एक यजमान के घर बड़ा अनुष्ठान करवाने गया हुआ था. यह बात रेखा को पता चली तो वह उस पर दबाव बनाने लगी कि अनुष्ठान की दक्षिणा में मिली धनराशि वह सीधे ला कर उसे सौंप दे.

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देवकरण ऐसा करता तो घर पर पिता को क्या जवाब देता, इसलिए उस ने रेखा की बात नहीं मानी, जिस से रेखा की मां भागवंती ने उसे फोन पर धमकी दी कि वह उस के हाथपैर तुड़वा देगी.

लाखन ने भी देवकरण को धमकाया कि यदि उस ने पैसे नहीं दिए तो अंजाम भुगतने को तैयार रहे. इस से देवकरण को लगने लगा कि अब उस की इज्जत को कोई नहीं बचा सकता.

इस से उस ने परिवार की इज्जत बचाने के लिए खुद की जान देने का निर्णय कर लिया. लेकिन खुद की जान देने से पहले उस ने अपनी गलती के लिए पत्नी अंतिमा से क्षमा मांगने की सोच कर अपनी परेशानी बता दी.

इस पर अंतिमा ने कहा कि जब वह नहीं रहेगा तो वह अकेली जीवित रह कर क्या करेगी.

इसलिए उस ने भी साथ मरने का फैसला कर लिया. जिस के बाद 17 अप्रैल को मंदिर से घर वापस आ कर देवकरण ने अपने कमरे में अपनी लाइसेंसी पिस्टल से पहले अंतिमा के सिर में गोली मारी, फिर खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर ली.

पूछताछ करने के बाद देवकरण को ब्लैकमेल करने वाली दोनों बहनों रेखा, सुमन उन की मां भागवंती और प्रेमी लाखन को गिरफ्तार कर जेल भेज दियाकातिल किलर : भाग 1

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