बीती 23 फरवरी से राजधानी दिल्ली में शुरू हुई हिंसा में इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय तक 22 लोगों की मौत हो चुकी थी और 250 लोग जख्मी हैं. जहां तक मौतों का सवाल है, अब तक जीटीबी अस्पताल में 21 और जेपी अस्पताल में 1 मौत हुई है. अब हालात काबू में करने की जिम्मेदारी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल पर है. गृहमंत्री अमित शाह दिल्ली के हालात पर जल्द ही रिपोर्ट पेश करेंगे.
मगर मूल सवाल यह है कि दिल्ली में किसी भी संकट से निपटने के लिए मौजूद तमाम संसाधनों के बावजूद आखिर इस कदर हिंसा हुई कैसे? क्या इसके लिए सिर्फ कपिल मिश्रा जैसे छुटभैय्ये नेता और उनके उकसाऊ भाषण जिम्मेदार हैं या इसके लिए केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक की घोर लापरवाही जिम्मेदार है? या फिर हिंसक उग्रता को जांचने परखने के लिए दिल्ली को एक मॉडल की तरह इस्तेमाल किये जाने की यह देन है?
ये भी पढ़ें- चार दिनों से सुलगती आग में जल रही है दिलवालों की दिल्ली
इसमें कोई दो राय नहीं है कि दिल्ली में जनसंख्या के अनुपात में पुलिसबलों की संख्या काफी कम है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महज 1484 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले दिल्ली शहर में 84,000 से ज्यादा पुलिसबल है, जिसमें करीब 50,000 पुलिसबल हमेशा सक्रिय और सेवा में रहता है. क्या इतने बड़े पुलिस दल को भी 5 से 6 कालोनियों में भड़की दंगों को काबू में करना मुश्किल था? वह भी तब जब उत्तर पूर्व दिल्ली की इन चार पांच कालोनियों को छोड़कर पूरी दिल्ली में शांतिपूर्ण माहौल था.
उत्तर प्रदेश के पूर्व डीआईजी पुलिस तथा चर्चित विचारक विभूति नारायण राय ने बहुत साल पहले एक बात कही थी कि अगर सरकार और पुलिस न चाहे तो दंगे भड़क तो सकते हैं, लेकिन वो फैल नहीं सकते.