मणिकांत ने जीवन के लगभग 25 वर्ष तक पूरी निष्ठा और ईमानदारी से पत्नी को प्रेम किया था. पत्नी, परिवार और बच्चों की हर जरूरत पूरी की थी परंतु अब उन्हें लगने लगा था कि उन्होंने मात्र एक जिम्मेदारी निभाई थी. बदले में जो प्यार उन्हें मिलना चाहिए था वह नहीं मिला. औफिस में अधिक देर तक बैठने से उन के मन को सुकून मिलता था. उस दिन उन के एक सहकर्मी मित्र उन के कमरे में आए और सामने बैठते हुए बोले, ‘‘क्यों यार, क्या बात है, आजकल देख रहा हूं, औफिस में देर तक बैठने लगे हो. काम अधिक है या और कोई बात है?’’ मणिकांत ने हलके से मुसकरा कर कहा, ‘‘नहीं, काम तो कोई खास नहीं, बस यों ही.’’
‘‘अच्छा, तो अब भाभीजी अच्छी नहीं लगतीं और बच्चे बड़े हो गए हैं. जिम्मेदारियां कम हो गई हैं?’’ मित्र ने स्वाभाविक तौर पर कहा.
‘‘क्या मतलब?’’ मणिकांत ने चौंक कर पूछा.
‘‘मतलब साफ है, यार. आदमी घर से तब दूर भागता है जब पत्नी बूढ़ी होने लगे और उस का आकर्षण कम हो जाए. बच्चे भी इतने बड़े हो जाते हैं कि उन की अपनी प्राथमिकताएं हो जाती हैं. तब घर में कोई हमारी तरफ ध्यान नहीं देता. ऐसी स्थिति में हम या तो औफिस में काम के बहाने बैठे रहते हैं या किसी और काम में व्यस्त हो जाते हैं.’’
मणिकांत गुमसुम से बैठे रह गए. उन्हें लगा कि सहकर्मी की बात में दम है. वह जीवन की वास्तविकताओं से भलीभांति वाकिफ है और वे अपनी समस्या को उस मित्र के साथ साझा कर मन के बोझ को किसी हद तक हलका कर सकते हैं. मन ही मन निश्चय कर उन्होंने धीरेधीरे अपनी पत्नी से ले कर बच्चों तक की समस्या खोल कर मित्र के सामने रख दी, कुछ भी नहीं छिपाया. अंत में उन्होंने कहा, ‘‘अमित, यही सब कारण हैं जिन से आजकल मेरा मन भटकने लगा है. पत्नी से विरक्ति सी हो गई है. उस का ध्यान बच्चों की तरफ अधिक रहता है, धनसंपत्ति इकट्ठा करने में उस की रुचि है, बच्चों के भविष्य बिगाड़ती जा रही है. बच्चों के बारे में कुछ तय करने में मेरा कोई सहयोग नहीं लेती. इस के अतिरिक्त एक पति की दैनिक जरूरतें क्या हैं, उन की तरफ वह बिलकुल ध्यान नहीं देती.’’
‘‘बच्चों के प्रति मां की चिंता वाजिब है, परंतु मां की बच्चों के प्रति अति चिंता बच्चों को बनाती कम, बिगाड़ती ज्यादा है,’’ अमित ने स्वाभाविक भाव से कहा.
‘‘सच कहते हो. पत्नी और बच्चों के साथ रहते हुए जिस प्रकार का जीवन मैं व्यतीत कर रहा हूं, उस से मुझे लगता है कि पारिवारिक रिश्ते केवल पैसे के इर्दगिर्द घूमते रहते हैं. उन में प्रेम नाम का तत्त्व नहीं होता है या अगर ऐसा कोई तत्त्व दिखाई देता है तो केवल स्वार्थवश. जब तक स्वार्थ की पूर्ति होती रहती है तब तक प्रेम दिखाई देता है. जैसे ही परिवार में अभाव की टोली अपने लंबे पैर पसार कर बैठ जाती है वैसे ही परिवार के बीच लड़ाईझगड़ा आरंभ हो जाता है. तब प्रेम नाम का जीव पता नहीं कहां विलीन हो जाता है.’’
‘‘परिवार में इस तरह की छोटीछोटी बातें होती रहती हैं परंतु मन में गांठ बांध कर इन को बड़ा बनाने का कोई औचित्य नहीं होता,’’ अमित ने समझाने के भाव से कहा.
‘‘मैं ने अपने मन में कोई गांठ नहीं बनाई. अब तक हर संभव कोशिश की कि पत्नी के साथ सामंजस्य बिठा सकूं, बच्चों को उचित मार्गदर्शन दे सकूं, परंतु पत्नी की हठधर्मी के आगे मेरी कोई नहीं चलती. मैं जैसे अपने ही घर में कोई पराया व्यक्ति हूं. मेरी अहमियत केवल यहीं तक है कि मैं उन के लिए पैसा कमाने की मशीन हूं. इस से मेरे मन को ठेस पहुंचती है. बच्चे तो कईकई दिन तक मुझ से बात नहीं करते. मैं उन से आत्मीयता से बात करने की कोशिश करता हूं, तब भी मुझ से दूर रहते हैं. हर जरूरत के लिए वे मां के पास जाते हैं. बड़ा तो जैसेतैसे अब अपने सहीगलत मार्ग पर चल रहा है. अपनी मरजी से शादी की, खुश रहे, परंतु छोटा तो अभी किसी कोर्स के लिए क्वालीफाई तक नहीं कर पाया है. हर बार एंट्रेंस एग्जाम में फेल हो जाता है. दिनभर घूमता रहता है, पता नहीं, क्या करने का इरादा है? उस की हरकतों से मुझे असीम कष्ट पहुंचता है.’’
‘‘कभी तुम ने भाभीजी के स्वभाव का विश्लेषण करने का प्रयत्न किया या जानने की कोशिश की कि वे क्यों ऐसी हैं?’’ अमित ने पूछा.
‘‘बहुत बार किया. कई बार तो उस से ही पूछा, ‘तुम क्यों इतनी चिड़चिड़ी हो? जब देखो तब गुस्से में रहती हो. तुम्हें क्यों हर वक्त सब से परेशानी रहती है?’ तब वह भड़क कर बोली, ‘कौन कहता है कि मैं चिड़चिड़ी हूं और सदा गुस्से में रहती हूं. मेरे स्वभाव में क्या कमी है? आप को ही मेरा स्वभाव अच्छा नहीं लगता तो मैं क्या करूं.’ बाद में मैं ने उस के मायके में पता किया तो पता चला कि वह जन्म से ऐसी ही चिड़चिड़ी, गुस्सैल और जिद्दी थी. तोड़नाफोड़ना उस का स्वभाव था. मनमानी कर के अपनी सहीगलत बातें मांबाप से मनवा लेती थी. उसी चरित्र को आज भी वह जी रही है. अब उस में क्या परिवर्तन आएगा?’’
‘‘मैं कुछ हद तक तुम्हारी समस्या समझ सकता हूं. तुम्हारे परिवार की यह स्थिति पत्नी के स्वार्थी और कर्कश स्वभाव के कारण है. ऐसी पत्नी दूसरों को उपेक्षित कर के स्वयं ऊंचा रख कर देखती है. उस के लिए उस का स्वर और बच्चे ही अहम होते हैं. ऐसी स्त्रियों का अनुपात हमारे समाज में कम है, फिर भी उन की संख्या कम नहीं है. इस तरह की पत्नियां अपने पतियों का जीवन ही नहीं, पूरे ससुराल वालों का जीना दुश्वार किए रहती हैं. मुझे लगता है भाभीजी ऐसे ही चरित्र वाली महिला हैं. इस तरह की स्त्रियां चोट खा कर भी नहीं संभलतीं.’’
‘‘तब फिर परिवार में सामंजस्य बनाए रखने और खुशियों को जिंदा रखने का क्या उपाय है?’’ मणिकांत ने पूछा.
‘‘बहुत आसान है मेरे भाई. जब घरपरिवार में पत्नी और बच्चों से खुशियां न मिलें तो आदमी अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए भी खुशी तलाश कर सकता है.’’
‘‘वह कैसे?’’ उन्होंने अपनी जिज्ञासा व्यक्त की.
‘‘तुम अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए परिवार को भी खुश रख सकते हो, और स्वयं के लिए मन की खुशी भी तलाश कर सकते हो,’’ अमित ने रहस्यमयी तरीके से कहा.
‘‘मन की खुशी कैसी होती है?’’ मणिकांत की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी. अमित के सामने वे एक बच्चा बन गए थे.
अमित ने एक शिक्षक की तरह उन्हें समझाया, ‘‘खुशियां केवल भौतिक चीजों से ही नहीं मिलतीं, ये मनुष्य के मन में भी होती हैं. बस, हम उन्हें पहचान नहीं पाते.’’
‘‘मन की खुशियां कैसे तलाश की जा सकती हैं? ’’ वे जानने के लिए उतावले हो रहे थे.
‘‘ऐसी खुशियां हम अपनी रुचि और शौक के मुताबिक कार्य कर के प्राप्त कर सकते हैं. प्रत्येक मनुष्य स्वभाव से कलाकार होता है, उस के चरित्र में रचनात्मकता होती है, परंतु जीवन की आपाधापी और परिवार के चक्कर में घनचक्कर बन कर, वह अपने आंतरिक गुणों को भुला बैठता है. अगर हम अपने आंतरिक गुणों की पहचान कर लें तो हर व्यक्ति, लेखक, चित्रकार, कलाकार, अभिनेता आदि बन सकता है. तुम बताओ, तुम्हारी रुचियां कौन सी हैं?’’
मणिकांत सोचने लगे. फिर कहा, ‘‘अब तो जैसे मैं भूल ही गया हूं कि मेरी रुचियां और शौक क्या हैं, परंतु विद्यार्थी जीवन में कविताएं लिखी थीं और कुछ चित्रकारी का भी शौक था.’’ अमित ने उत्साहित हो कर कहा, ‘‘बस, यही तो हैं तुम्हारे आंतरिक गुण. तुम को बहुत अधिक उलझने की आवश्यकता नहीं है. बस, तुम फिर से लिखना शुरू कर दो और पैंसिल ले कर कागज पर आकार बनाना आरंभ करो. फिर देखना, कैसे तुम्हारी कला और लेखन में निखार आता है. तुम अपने परिवार के सभी कष्ट और दुख भूल कर स्वयं में इतना मगन हो जाओगे कि चारों तरफ तुम को खुशियां ही खुशियां बिखरी नजर आएंगी.’’