यह मुझे दिन पर दिन क्या होता जा रहा है? वह मन ही मन घबराती है. दिमाग पर एक धुंध सी छाई रहती है. जब धुंध कभी छंटती है तो उसे एकएक बात याद आती है.
उसे हठात याद आया कि एक बार ज्योति ने टमाटर का सूप बनाया था और उसे भी थोड़ा पीने को दिया. उसे उस का स्वाद बहुत अच्छा लगा. ‘अरे बहू, थोड़ा और सूप मिलेगा क्या?’ उस ने पुकार कर कहा.
थोड़ी देर में रसोइया कप में उस के लिए सूप ले आया. सुमित्रा खुश हो गई. उस ने एक घूंट पिया तो लगा कि इस का स्वाद कुछ अलग है.
उस ने रसोइए से पूछा तो वह अपना सिर खुजाते हुए बोला, ‘‘मांजी, सूप खत्म हो गया था. मेमसाब बोलीं कि अब दोबारा सूप कौन बनाएगा. सो, उन्होंने थोड़ा सा टमाटर का सौस गरम पानी में घोल कर आप के लिए भिजवा दिया.’’
सुमित्रा ने सूप पीना छोड़ दिया. उस का मन कड़वाहट से भर गया. अगर उस ने अपनी सास के लिए ऐसा कुछ किया होता तो वे उस की सात पुश्तों की खबर ले डालतीं, उस ने सोचा.
एक बार उस को फ्लू हो गया.
3-4 दिन से मुंह में अन्न का एक दाना भी न गया था. उसे लगा कि थोड़ा सा गरम दूध पिएंगी तो उसे फायदा पहुंचेगा. वह धीरे से पलंग से उठी. घिसटती हुई रसोई घर तक गई, ‘‘बहू, एक प्याला दूध दे दो. इस समय वही पी कर सो जाऊंगी. और कुछ खाने का मन नहीं कर रहा.’’
‘‘दूध?’’ ज्योति मानो आसमान से गिरी, ‘‘ओहो मांजी, इस समय तो घर में दूध की एक बूंद भी नहीं है. मैं ने सारा दूध जमा दिया है दही के लिए. कहिए तो बाजार से मंगा दूं?’’
‘‘नहीं, रहने दो,’’ सुमित्रा बोली.
वह वापस अपने कमरे में आई. क्या सब के जीवन में यही होता है? उस ने मन ही मन कहा. वह हमेशा सोचती आई कि जब वह बहू से सास बन जाएगी तो उस का रवैया बदल जाएगा. वह अपनी बहू पर हुक्म चलाएगी और उस की बहू दौड़दौड़ कर उस का हुक्म बजा लाएगी लेकिन यहां तो सबकुछ उलटा हो रहा था. कहने को वह सास थी पर उस के हाथ में घर की बागडोर न थी. उस की एक न चलती थी. उस की किसी को परवा न थी. वह एक अदना सा इंसान थी, कुणाल के प्रिय कुत्ते टाइगर से भी गईबीती. टाइगर की कभी तबीयत खराब होती तो उसे एक एसी कार में बिठा कर फौरन डाक्टर के पास ले जाया जाता पर सुमित्रा बुखार में तपती रहे तो उस का हाल पूछने वाला कोई न था. वह अपनी इस स्थिति के लिए किसे दोष दे.
उसे लग रहा था कि वह एक अवांछित मेहमान बन कर रह गई है. वह उपेक्षित सी अपने कमरे में पड़ी रहती है या निरुद्देश्य सी घर में डोलती रहती है. उस का कोई हमदर्द नहीं, कोई हमराज नहीं. वह पड़ीपड़ी दिन गिन रही है कि कब सांस की डोर टूटे और वह दुनिया से कूच कर जाए.
सास हो कर भी उस की ऐसी दशा? यह बात उस के पल्ले नहीं पड़ती. एक जमाना था कि बहू का मतलब होता था एक दबी हुई, सहमी हुई प्राणी जिस का कोई अस्तित्व न था, जो बेजबान थी और जिस पर मनमाना जुल्म ढाया जा सकता था, जिसे दहेज के लिए सताया जा सकता था और कभीकभी नृशंसतापूर्वक जला भी दिया जाता था.
आज के जमाने में बहू की परिभाषा बदल गई है. आज की बहू दबंग है. शहजोर है. वाचाल है. ईंट का जवाब पत्थर से देने वाली. एक की दस सुनाने वाली. वह किसी को पुट्ठे पर हाथ नहीं रखने देती. उस से संभल कर पेश आना पड़ता है. उस के मायके वालों पर टिप्पणी करते ही वह आगबबूला हो जाती है. रणचंडी का रूप धारण कर लेती है. ऐसी बहू से वह कैसे पेश आए. उसे कुछ समझ में न आता था.
उसे याद आया कि उस की सास जब तक जीवित रहीं, हमेशा कहती रहीं, ‘अरी बहू, यह बात अच्छी तरह गांठ बांध ले कि तेरा खसम तेरा पति बाद में है, मेरा बेटा पहले है. वह कोई आसमान से नहीं टपका है तेरी खातिर, उसे मैं ने अपनी कोख में 9 महीने रखा और जन्म दिया है और मरमर कर पाला है. उस पर तेरे से अधिक मेरा हक है और हमेशा रहेगा.’
सुमित्रा अगर ज्योति से ये सब कहने जाएगी तो शायद ज्योति कहेगी कि मांजी आप को अपना बेटा मुबारक हो. आप रहो उसे ले कर. मैं चली अपने बाप के घर. और आप
लोगों को शीघ्र ही तलाक के कागजात मिल जाएंगे.’
सुमित्रा यही सब सोचने लगी.
हाय तलाक का हौवा दिखा कर बहू घरभर को चुप करा देगी. सुमित्रा की तो सब तरह से हार थी. चित भी बहू की, पट भी उस की.
सुमित्रा ने अपना सिर थाम लिया. सारी उम्र सोचती रही कि वह सास बन जाएगी तो ऐश करेगी. अपने घर पर राज करेगी. पर आज उसे लग रहा था कि सास बन कर भी उस के जीवन में कुछ खास बदलाव नहीं आया. क्या यह नए जमाने का दस्तूर था या बहू की पढ़ाई की कारामात थी या उस के पिता की दौलत का करिश्मा था या फिर बहू की परवरिश का कमाल?
उस की बहू तेजतर्रार है, मुंहजोर है, निर्भीक है, स्वच्छंद है, काबिल है और अपने नाम का अपवाद है.
और सुमित्रा पहले भी बहू थी और आज सास होने के बाद भी बहू है.