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बोल ‘जय श्री राम’-भाग 1: आलिम ने आखिरी सांस लेते हुए क्या कहा था

देवीप्रसाद के कहने पर आलिम को एक पेड़ से बांध दिया गया था. पीड़ा जब अंतहीन हो जाती है, वह मनुष्य को शक्ति प्रदान कर देती है. आलिम के शरीर का हर अंग दर्द में था, लेकिन उस के हृदय और उस की जान को वे तनिक भी चोट नहीं पहुंचा पाए थे.

मानव की उत्पति के स्वाभाविक से प्रश्न का उत्तर शातिर लोगों ने कपोलकल्पित कहानियों के जरिए एक ईश्वर गढ़ लिया और फिर दुकानदारी बढ़ाते हुए उस कपोलकल्पित ईश्वर के एजेंटों की एक लंबी सूची तैयार कर ली गई. हर दुकानदार ने अपने ग्राहकों को उल झाया और मतिभ्रम कर उस का अपना खुद का वजूद उस नितांत कल्पित ईश्वर के मौजमस्ती करने वाले दुकानदारों के आगे सूक्ष्म कर डाला.

लेकिन आज तक एक प्रश्न उस के अंतर में संशय बन विराजमान है और वह प्रश्न है, इस ‘धरा पर जीवन की उत्पति’. इस एक प्रश्न ने ईश्वर जैसी किसी शक्ति के होने के संयोग पर मुहर लगा दी. कोई ईश्वर इस ब्रह्मांड का रचनाकार नहीं है, किंतु, शातिर मनुष्य कपोलकल्पित ईश्वर का रचनाकार है, यह निर्विवाद है. धर्म कोई भी हो, प्रार्थना की शैली भले ही भिन्न हो, आराध्य का रूप भी भिन्न हो, किंतु उस आराध्य, उस के विचारों तथा प्रार्थना की शैली को लोगों के मध्य स्थापित करने वाला मनुष्य ही था.

सभी धर्मों का मार्ग स्वर्ग में बैठी उस शक्ति तक जाता है जिस ने, उन के मतानुसार, यह सृष्टि बनाई तथा फिर सुदूर जा बैठा. एक प्रश्न यह भी है कि, उस ने इस संपूर्ण ब्रह्मांड में मात्र पृथ्वी को मनुष्यों के लिए बनाया, अथवा अन्य ग्रहों पर भी वह पूजनीय है. हालाकि धार्मिक ग्रंथ ईश्वर की सत्ता का संपूर्ण ब्रह्मांड में होने का दावा करते हैं किंतु विज्ञान अभी दूसरे ग्रहों पर जीवन के होने की पुष्टि नहीं कर पाया है. दूसरे ग्रहों की तो छोडि़ए, इसी पृथ्वी के पशुपक्षी इस ईश्वर की कल्पना के शिकार नहीं हैं.

जो ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करता है, वह नहीं स्वीकार करने वालों के सामने कभी सिद्ध नहीं कर सकता, ठीक उसी प्रकार ईश्वर का अस्तित्व नहीं मानने वाला भी भक्तों को ईश्वर की भक्ति से नहीं हटा सकता. एक नास्तिक यह तर्क रख सकता है कि, ईश्वर जैसी कोई शक्ति प्रत्यक्ष उपकरणों से सिद्ध नहीं होती. वहीं, एक आस्तिक इस जटिल संसार के स्वयं उत्पन्न हो जाने के तथ्य को अंगीकार नहीं करेगा. उस के अनुसार आस्था, प्रेम और विश्वास को किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है.

अब तक जितना वैज्ञानिक विकास हुआ है, वह पूर्ण नहीं है. सृष्टि के संपूर्ण रहस्य का पता लगाना अभी शेष है. विज्ञान अभी अपूर्ण है, इसलिए सृष्टिकर्ता पर संशय बना रहेगा. इस संशय का लाभ उठा कर धर्मगुरुओं, बाबाओं, मौलवियों के व्यापार का विकाशन होता रहेगा. उन के दृष्टिकोण को परमपिता की राय बना कर प्रचारित किया जाता रहेगा. मानव प्रजाति एक अदृश्य, अलख तथा अलक्ष्य ईश्वर के नाम पर फैलाई जा रही विषैली हवा में सांस लेती रहेगी. हर मजहब नफरत सिखाता ही है और यह भी सत्य है कि संसार में अत्यधिक हिंसा धार्मिक उन्माद के कारण ही हुई है.

इतना आडंबर, मिथ्याचार, अत्याचार, असहिष्णुता तथा पीड़ा देख कर भी वह ईश्वर इस संसार में न्याय की स्थापना करने नहीं आता. इस का एक ही कारण हो सकता है कि उस का अस्तित्व है ही नहीं.

मेरठ कालेज की लाइब्रेरी के एक कोने में बैठा आलिम अपने विचारों को लिपिबद्ध करने में व्यस्त था. उस की प्रज्ञता तथा विद्वत्ता उस के नाम को चरितार्थ करती थी, आलिम अर्थात ज्ञान. हिंदी में स्नातक की डिग्री उस ने स्वर्णपदक के साथ अर्जित की थी. अब स्नातकोत्तर के प्रथम वर्ष में था. कालेज की पढ़ाई और सिविल सर्विसेज की तैयारी के मध्य जब भी समय मिलता, वह अपने आभ्यंतर के युद्ध को पन्नों पर उतार दिया करता था. कुछ पत्रिकाओं में उस के इन विचारों को स्थान भी मिल जाया करता था. समयसमय पर अनेक वादविवाद प्रतियोगिताओं में शामिल हो कर वह अपने सुवक्ता होने का प्रमाण भी दे दिया करता था.

?जब वह लिखता, उस के आसपास की दुनिया उस के लिए गौण हो जाया करती थी. आज भी वैसा ही हुआ था. लाइब्रेरी में असंख्य लोगों के मध्य भी वह एकाकी था. इसलिए वह जान ही नहीं पाया कि आधे घंटे से वैदेही उसे सामने वाली टेबल से निहार रही थी.

आलिम और वैदेही मुजफ्फरनगर के एक ही गांव से थे. उन का विषय और वर्ष भी समान था. किंतु, उन के बीच विरले ही कभी कोई संवाद हुआ था. इस का प्रयोजन उन दोनों की भिन्न पृष्ठभूमि में निहित था. उन के गांव में एक ब्राह्मण परिवार की लड़की का मुसलमान लड़के के साथ मित्रता तो दूर की बात थी, साधारण परिचय भी गुनाह था. वहां स्त्री को शिक्षा की अनुमति थी, व्यवसाय करने की भी थी लेकिन चयन तथा निर्णय का अधिकार उस के परिवार के पुरुषों को प्राप्त था. शिक्षा तथा नौकरी का अधिकार स्त्री को कृपा के रूप में प्राप्त हुआ था. परिवार वाले, येनकेन प्रकारेण, स्त्री को इस कृपा से अवगत कराना नहीं भूलते थे.

 

नर्सरी में तैयार करें लतावर्गीय सब्जियों के पौधे

जनवरी और फरवरी का महीना लतावर्गीय सब्जियों की रोपाई के लिए खास माना जाता है. इन दिनों लतावर्गीय सब्जियों की रोपाई कर गरमी के लिए अच्छा उत्पादन लिया जा सकता है. इन बेल वाली सब्जियों में लौकी, तोरई, खीरा, टिंडा, करेला, तरबूजा, खरबूज, कद्दू वगैरह की रोपाई कर गरमी के मौसम में मार्च से ले कर जून माह तक अच्छी उपज ली जा सकती है. इन लता वाली सब्जियों की खेती बीज को सीधे खेत में बो कर या नर्सरी में पौध तैयार कर खेत में रोप सकते हैं. जनवरीफरवरी माह में पौधों के उचित जमाव के लिए प्लास्टिक ट्रे, प्लास्टिक लो टनल या पौलीबैग तकनीक का प्रयोग कर लतावर्गीय सब्जियों की नर्सरी तैयार की जा सकती है. इस विधि में प्लास्टिक शीट से लो टनल में भी पौध तैयार करते है. इस में बीज को बो कर पौध तैयार की जाती है.

इस के बाद तैयार पौध को तैयार खेत में रोपा जाता है. इस विधि से लतावर्गीय सब्जियों की रोपाई करने से पौधों के मरने पर उन की जगह दूसरी पौध रोप कर नुकसान से बचा जा सकता है. इन सब्जियों के पौधों की तैयार करें नर्सरी जनवरी से ले कर मार्च माह तक बोई जाने वाली लतावर्गीय सब्जियों के पौधों की अगर अगेती नर्सरी तैयार की जाए, तो बाजार में उपज की आवक जल्दी होने से दाम अच्छा मिलता है और लंबे समय तक उपज भी ली जा सकती है. हम इस समय बोआई के लिए जिन लतावर्गीय वाली सब्जियों का चयन करते हैं, उन में लौकी, करेला, खीरा, कद्दू, टिंडा, खरबूजा, तरबूज, तोरई जैसी किस्में प्रमुख हैं. ऐसे तैयार करें पौध ठंड के मौसम में लतावर्गीय वाली सब्जियों की खेती के लिए नर्सरी में पौध तैयार करने के लिए कई विधियों का प्रयोग किया जाता है, जिस में मुख्य रूप से प्लास्टिक ट्रे, प्लास्टिक लो टनल या पौलीबैग में पौधों को तैयार करना ज्यादा मुफीद होता है.

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ऐसे तैयार करें प्लास्टिक लो टनल सब्जियों की पौध तैयार करने के लिए प्लास्टिक लो टनल में सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था कर लें. इस के लिए ड्रिप इरिगेशन तरीका ज्यादा मुफीद होता है. प्लास्टिक लो टनल बनाने के लिए जमीन से उठी हुई क्यारियां हवा के आनेजाने को नजर में रखते हुए उत्तर से दक्षिण दिशा में बनाई जानी चाहिए. इस के बाद क्यारियों के मध्य में एक ड्रिप लाइन बिछा दी जाती है. इन क्यारियों के ऊपर अर्धवृत्ताकार लोहे के 2 मिलीमीटर मोटे लोहे के तारों को मोड़ कर दोनों सिरों की दूरी 50 से 60 सैंटीमीटर और ऊंचाई भी 50 से 60 सैंटीमीटर रख कर सैट कर लेते हैं. ध्यान रखें, मोड़े गए तारों के बीच की दूरी 1.5 से 2 मीटर हो, जो 20-30 माइक्रोन मोटाई और 2 मीटर चौड़ाई वाली पारदर्शी प्लास्टिक की चादर से ढका हो, इन तारों पर चढ़ा कर ढक दिया जाता है.

बिना मिट्टी के पौध तैयार करना कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती में विशेषज्ञ राघवेंद्र विक्रम सिंह के मुताबिक, इस विधि से लतावर्गीय वाली सब्जियों की पौध तैयार करने के लिए मिट्टी का उपयोग नहीं किया जाता है, बल्कि इस विधि में मृदाविहीन विधि से बीज की रोपाई कर पौध तैयार की जाती है. जो किसान इस विधि से नर्सरी में पौध तैयार करते हैं, उस से सेहतमंद पौधे तो तैयार किए ही जा सकते हैं, साथ ही, इस में बीमारियों का प्रकोप भी कम पाया जाता है. मृदाविहीन विधि से नर्सरी तैयार करने के लिए सब्जी के बीज की बोआई जमीन में न कर के प्लास्टिक ट्रे में की जाती है, जिस के लिए जरूरी चीजों में कोकोपिट, प्लास्टिक ट्रे, वर्मी कंपोस्ट, सब्जी बीज और फफूंदीनाशक के लिए घुलनशील पाउडर बाविस्टीन की जरूरत होती है. इस विधि से बीज को प्लास्टिक ट्रे में रोपाई के पहले कोकोपिट को एक प्लास्टिक या जूट के बोरे में भर कर ऊपर से बोरे का मुंह बांध देते हैं.

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इस के बाद उस को 5-6 घंटे के लिए बोरे को पानी में डुबो कर भिगो देते हैं. 6 घंटे बाद बोरे को पानी से बाहर निकाल कर भीगे हुए कोकोपिट को साफ प्लास्टिक की पन्नी पर पतली परत बनाते हुए फैला देते हैं. उस के बाद कोकोपिट को खूब दबा कर पानी निकाल लेते हैं. जब इस कोकोपिट से पूरा पानी छन जाता है, तो उस में जितनी मात्रा कोकोपिट की होती है, उतनी ही मात्रा में वर्मी कंपोस्ट मिला लेते हैं. जब कोकोपिट और वर्मी कंपोस्ट का मिश्रण तैयार हो जाए, तो उस में प्रति किलोग्राम मिश्रण की दर से 2 ग्राम बाविस्टीन को मिला लेते हैं. जब यह मिश्रण पूरी तरह से तैयार हो जाए, तो प्लास्टिक ट्रे में इस मिश्रण को दबादबा कर भर लेते हैं. ट्रे में मिश्रण को भरने के बाद उस में बीज की बोआई कर ऊपर से कोकोपिट मिश्रण की एक हलकी परत से ढक दिया जाता है.

ट्रे में तैयार किए जाने वाली इस नर्सरी में पौधों को हलकी सिंचाई की जरूरत होती है. ऐसे में इस की सिंचाई को हजारे से किया जाना ज्यादा मुफीद होता है. पौलीबैग में नर्सरी तैयार करना लतावर्गीय सब्जियों की पौध तैयार करने के लिए पौलीथिन की छोटी थैलियों का भी उपयोग किया जा सकता है. इन थैलियों में पौधे को उगाने के लिए मिट्टी, खाद व रेत का मिश्रण बराबर के अनुपात में मिला कर भरा जाता है. मिश्रण भरने से पहले हर थैली की तली में 2 से 3 छेद पानी के निकास के लिए बना लेते हैं. बीज को मिश्रण में रोपने के पहले कैप्टान दवा की 2 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से मिला कर उपचारित कर लेते हैं. बीजों के अच्छे जमाव के लिए उन्हें 6 से 12 घंटे तक पानी में डुबो कर निकाल लेते हैं और फिर किसी सूती कपड़े या बोरे के टुकड़े में लपेट कर किसी गरम जगह पर रख देते हैं. जब इन में बीजों का अंकुरण हो जाए, तो इसे तैयार पौलीबैग में बो देते हैं. इस से जमाव दर अच्छी होती है. अच्छे जमाव के लिए हर थैली में 2 से 3 बीजों की बोआई करना उचित होता है.

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बाद में एक पौधा छोड़ कर अन्य को निकाल देते हैं. बीज रोपाई के बाद इन पैकेटों को लो टनल या पौलीहाउस में रख दिया जाता है. दोनों विधियों से पौधों की रोपाई करने के लिए अधिक ठंड से बचाने के लिए इसे प्लास्टिक लो टनल के अंदर रख देते हैं. अगर पौधों में पोषक तत्त्वों की कमी हो, तो पानी में घुलनशील एनपीके मिश्रण का छिड़काव कर देना चाहिए. नर्सरी में लतावर्गीय पौधों को तैयार करने के दौरान देखभाल से जुड़ी जरूरी बातें बस्ती जिले के पचारीकला गांव के प्रगतिशील किसान विजेंद्र बहादुर पाल के मुताबिक, लतावर्गीय सब्जियों की नर्सरी तैयार करने के दौरान हमें कुछ विशेष बातों का खयाल रखना पड़ता है, जिस में पहली बात यह है कि नर्सरी में पर्याप्त नमी बनाए रखें व बीज को नर्सरी में बोने के बाद 11वें और 21वें दिन 2 मिलीलिटर मैंकोजेब प्रति लिटर पानी के साथ घोल बना कर छिड़काव करना चाहिए, जिस से नर्सरी आर्द्रगलन, पौधगलन व दूसरे फफूंदजनित रोग से बचाव होता है.

यह भी ध्यान दें कि जब नर्सरी में पौधे 4 से 5 पत्ती वाले यानी 30 से 35 दिन के हो जाएं, तो ऊंची उठी हुई क्यारियों में अथवा गड्ढा बना कर निश्चित दूरी पर पौधों की रोपाई कर लेनी चाहिए. नर्सरी से सब्जी फसलों की रोपाई से लाभ सर्द मौसम में सब्जी की रोपाई बीज द्वारा सीधे खेत में किए जाने की अपेक्षा नर्सरी में पौध तैयार कर के रोपना ज्यादा मुफीद होता है. इस से न केवल पौधों के लिए उपयुक्त आवश्यक वातावरण दे कर समय से पौध तैयार की जा सकती है, बल्कि बीज की मात्रा भी कम लगती है और सेहतमंद पौधे भी तैयार होते हैं. इस विधि से खेती करने से उत्पादन लागत भी कम लगती है. नर्सरी में लो टनल या पौलीहाउस में पौध तैयार करने से बारिश, ओला, कम या अधिक तापमान, कीड़े व रोगों का प्रभाव पौधों पर कम पड़ता है. नर्सरी में तैयार किए गए पौधों का विकास तेजी से होता है, इसलिए उपज जल्दी मिलनी शुरू हो जाती है. तैयार पौधों की खेत में रोपाई प्रगतिशील किसान राममूर्ति मिश्र का कहना है कि नर्सरी में लतावर्गीय वाली सब्जियों के पौधों की खेत में रोपाई के लिए सब से पहले नाली या थाले बना लेना उचित होता है.

नाली को पूरब से पश्चिम दिशा की ओर बनाया जाता है. ये नालियां 45 सैंटीमीटर चौड़ी और 30 से 40 सैंटीमीटर गहरी बनाई जाती हैं. नाली बनाते समय यह ध्यान रखें कि खीरा, टिंडा के लिए एक नाली से दूसरी नाली के बीच की दूरी 2 मीटर और कद्दू, तरबूज, लौकी, तोरई में 4 मीटर तक दूरी रखी जाए. इसी तरह नाली के उत्तरी किनारों पर थाले बनाए जाने चाहिए, जिस में चप्पनकद्दू, टिंडा व खीरा के लिए 0.50 मीटर रखें. कद्दू, करेला, लौकी, तरबूज के लिए एक मीटर की दूरी रखी जाती है. इस तरह से पौधों की रोपाई करने से कम लागत में अधिक पैदावार ली जा सकती है. किसान राममूर्ति मिश्र के मुताबिक, नर्सरी में लतावर्गीय सब्जियों की तैयार पौध की रोपाई फरवरी माह में शुरू करें, क्योंकि तब तक पाला पड़ने की संभावना कम हो जाती है. ऐसे में पौधों को नुकसान से बचाया जा सकता है.

नर्सरी से पौधों को खेत में पौलीबैग या प्लास्टिक ट्रे से पौधा मिट्टी समेत निकाल कर तैयार क्यारियों में शाम के समय रोपें. जैसे ही पौधों की रोपाई खेत में की जाए, उस के तुरंत बाद पौधों की हलकी सिंचाई करना न भूलें. पौधों को खेत में रोपने के 10-15 दिन बाद फसल की निराईगुड़ाई कर के खरपतवार साफ कर देना चाहिए. साथ ही, पहली गुड़ाई के बाद जड़ों के आसपास हलकी मिट्टी चढ़ानी चाहिए. खेत में रोपी इन लतावर्गीय सब्जियों में जब फूल और फल आ रहा हो, उस समय सिंचाई अवश्य करें. खाद और उर्वरक कृषि विज्ञान केंद्र, बस्ती में विशेषज्ञ, फसल सुरक्षा, डाक्टर प्रेमशंकर के मुताबिक, नर्सरी से तैयार कर लतावर्गीय वाली सब्जियों को खाद व उर्वरक देने में काफी सतर्कता बरतने की जरूरत होती है. ऐसे किसानों को रोपाई के पहले ही फसल में उर्वरक देने की पूरी तैयारी कर लेनी चाहिए. खेत में जब पौध रोपाई के लिए अंतिम जुताई हो जाए, तो उस समय 200 से 500 क्विंटल सड़ी खाद के साथ 2 लिटर ट्राइकोडर्मा मिला देना चाहिए.

इस से फसल को मिट्टी से फैलने वाले फफूंद से बचाया जा सकता है. फसल से अधिक उत्पादन लेने के लिए प्रति हेक्टेयर 240 किलोग्राम यूरिया, 500 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट और 125 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश की जरूरत पड़ती है. इस में सिंगल सुपर फास्फेट व पोटाश की पूरी मात्रा और यूरिया की आधी मात्रा नाली बनाते समय कतार में डालते हैं, जबकि यूरिया की एकचौथाई मात्रा रोपाई के 20 से 25 दिन बाद दे कर मिट्टी चढ़ा देते हैं और एकचौथाई मात्रा 40 दिन बाद टौप ड्रैसिंग के समय दी जाती है. पौधों को गड्ढे में रोपते समय प्रत्येक गड्ढे में 30 से 40 ग्राम यूरिया, 80 से 100 ग्राम सिंगल सुपर

फास्फेट व 40 से 50 ग्राम म्यूरेट औफ पोटाश की मात्रा मिला कर रोपाई की जानी चाहिए. पौधों की कटाई, छंटाई व सहारा देना बड़े स्तर पर सब्जियों की खेती करने वाले बस्ती जिले के दुबौलिया गांव के रहने वाले प्रगतिशील किसान अहमद अली का कहना है कि लतावर्गीय सब्जियों की फसल से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए पौधे की कटाईछंटाई फायदेमंद होती है, इसलिए पौधों को 3 से 7 गांठ के बाद सभी द्वितीय शाखाओं को काट देना चाहिए. पौधों को सहारा देने के लिए मचान बना कर मचान के खंभों के ऊपरी सिरे पर तार बांध कर मचान पर चढ़ा लेते हैं. इस तरह लतावर्गीय सब्जियों की खेती कर के अच्छी उपज हासिल की जा सकती है और आमदनी भी अधिक ले सकते हैं.

मेरी उम्र26 साल है मैं एक 45 वर्षीय इंसान से प्यार करती हूं, अगर मैं उसे छोड़ दूंगी तो आर्थिक मदद हमारी बंद हो जाएगी

सवाल

मैं 26 वर्षीय अविवाहित, सरकारी कार्यरत युवती हूं. पिता की मृत्यु हो चुकी है. मुझ से छोटी 2 बहनें और हैं. मां ने जैसे तैसे हमें पढ़ायालिखाया. एक बहन पार्लर में काम कर रही है. उस से छोटी प्राइवेट कंपनी में रिसैप्शनिस्ट का काम कर रही है. मैं 45 वर्षीय आदमी से प्यार करती हूं और उस से शादी करना चाहती हूं. लेकिन वह शादी करने से मना करता है. मैं उसे छोड़ भी नहीं सकती क्योंकि फाइनैंशियली वह मेरे परिवार की मदद करता है. मु झ पर बहनों की शादी की भी जिम्मेदारी है. उस आदमी को छोड़ती हूं तो आर्थिक मदद बंद हो जाएगी. कुछ सम झ नहीं आ रहा, क्या करूं?

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जवाब

पिता न होने के कारण बड़ी होने के नाते छोटी बहनों की जिम्मेदारी भी आप पर है. दोनों बहनें अब थोड़ाबहुत कमाने लगीं हैं. उन के लिए लड़का खोजना शुरू कर दें. काम आसान नहीं है लेकिन कोशिश करने में क्या हर्ज है. शादी सादी या कोर्ट मैरिज ही करें. लड़के ऐसे ही ढूंढ़ें जिन्हें आप के घर की माली हालत अच्छी तरह पता हो, जिन्हें दानदहेज का लालच न हो. ऐसा घरबार मिल जाए तो अच्छा है. आप को अपने बारे में भी सोचना पड़ेगा क्योंकि शादी की उम्र तो आप की भी हो रही है. वह आदमी आप से शादी नहीं करना चाहता, आप की मजबूरी सम झता है और उसे लगता है कि आर्थिक मजबूरी आप को उस के साथ बंधे रहने को मजबूर करती है तो आप उस की यह गलतफहमी दूर कर दें. उस आदमी से रिश्ता तोड़ दें. बेमेल प्यार की उम्र वैसे भी ज्यादा नहीं होती. अपने लिए दूसरा कोई लड़का ढूंढें़. लड़के को बता दें कि छोटी बहनों के प्रति जिम्मेदारी भी आप की है. जहां चाह होती है वहां राह निकल ही जाती है. आप के सामने 2 विकल्प हैं. सोचसम झ कर सम झदारी से मिलजुल कर आगे की जिंदगी के बारे में सोचिए. बहनें अपने को और भी ज्यादा स्वावलंबी बनाना चाहती हैं तो उन्हें उत्साहित करें. विवाह भी हर समस्या का हल नहीं. यदि जीवन में नई राह की ओर चलते हैं तो कई रास्ते मिलते हैं. इसलिए अपने बूते पर कुछ करने का दम रखें.

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

सफलता के लिए तपना तो पड़ेगा

लेखक- रोहित

कई लोग मेहनत और अनुशासन के पथ पर चलने को कष्टदायक सम झते हैं. वे इस से मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसे में वे लोग कभी अपनी क्षमता का आकलन नहीं कर पाते और भविष्य में आने वाली छोटीमोटी मुसीबतों से ही जल्दी टूट जाते हैं. कहते हैं आग में जल कर ही सोना कुंदन बनता है. यानी पहले खुद को तपाना पड़ता है, उस के बाद सफलता चूमने को मिलती है. लेकिन अजीब यह है कि इंसान अपनी सफलता व असफलता के पैमाने को अपने तथाकथित ‘भाग्य’ और ‘शौर्टकट’ से जोड़ कर देखने लगता है.

वह मानने लगता है कि यदि ‘भाग्य’ में होगा तो ही कुछ मिलेगा, भाग्य प्रबल होगा तो घर बैठे ही मिल जाएगा या जीवन में कुछ तो जुगाड़ कर लिया जाएगा. ऐसे में व्यक्ति मेहनत करने के लिए उतना नहीं सोचता जितना इन चीजों के प्रबल होने के बारे में सोचता है. थोड़ा सा कष्ट मिलते ही वह अपने पांव पीछे खींचने लगता है. वह संघर्ष के आगे खुद को असहाय महसूस करता है और हार मानने लगता है. ऐसे में वह खुद पर विश्वास करने की जगह दूसरों पर अधिक निर्भर होता जाता है. लेकिन जैसे ही यह निर्भरता टूटती है, उसे एहसास होता है. पर तब तक काफी देर हो चुकी होती है, उस के पास अपना सिर पीटने के अलावा रास्ता नहीं बचता. सच, सही समय पर कड़े परिश्रम का कोई सानी नहीं है.

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इस का उदाहरण धावक हिमा दास से लिया जा सकता है, जिन्होंने सम झाया कि असल जीवन में भी सफलता के लिए लगातार दौड़ना ही पड़ता है. किसान परिवार में पैसों की अहमियत काफी होती है. किसान परिवार में जन्मी हिमा दास सम झौतों से रूबरू होती सफलता की आसमान छूती इमारत के शिखर पर चढ़ीं. किसान पिता ने अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई से 1,200 रुपए के एडिडास कंपनी के जूते खरीदे, जिन्हें बड़े जतन से अपनी पुत्री हिमा दास को सौंपे, जैसे एक पिता अपने पुत्र को विरासत सौंपता है. अब उसी एडिडास कंपनी ने हिमा को चिट्ठी लिख अपना एंबैसडर बनाने का फैसला किया है. गरीब व कमजोर परिवार से आने वाली हिमा दास ने अपनी मेहनत पर भरोसा किया.

कड़े अनुशासन और कठिन परिश्रम को जीवन जीने का ढंग बनाया. उस ने शौर्टकट को दलील नहीं बनाया, क्योंकि वह जानती थी कि रेस चाहे कोई भी हो, उस में शौर्टकट नहीं होता. जिस चीज को लोग अपना भाग्य सम झते हैं, उस ने रियलिस्टिक हो कर उसे अपना अवसर बताया. वह बहुत बार गिरी, थकी, बैठी लेकिन दौड़ना नहीं छोड़ा, फिर चाहे वह ट्रैक पर हो या अपने जीवन के संघर्ष में हो. ऐसे ही दीपा करमाकर हैं, जिन के बारे में तो यहां तक कह दिया गया था कि जिमनास्टिक खेल के लिए उन के पैर अनुकूल नहीं हैं. यहां तो लोगों ने सीधा उन के हिस्से में लिखे कथित भाग्य को ही चुनौती दे दी. उन्होंने अपने कड़े परिश्रम और अटूट अनुशासन से सफलता की इबारत लिख दी. वे न सिर्फ जिमनैस्टिक की खिलाड़ी बनीं बल्कि ओलिंपिक खेलों में पहली खिलाड़ी के तौर पर भारत का प्रतिनिधित्व किया.

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कारण सीधा है कि उन्होंने अपने भाग्य से ज्यादा मेहनत पर जोर दिया. ऐसे और कई लोगों की फेहरिस्त है, फिर चाहे वे किसी भी पेशे से जुड़े व्यक्ति रहे हों, जिन्होंने ऐसे कारनामे किए हैं. भाग्य पर भरोसा आमतौर पर भाग्य को कोसना सब से आसान तरीका होता है. इस से व्यक्ति अपनी गलतियों पर आसानी से परदा डाल लेता है. इस का असर इतना ज्यादा होता है कि बहुत बार ऐसे व्यक्ति अपने ‘भाग्य की होनी’ पर इतना विश्वास करने लग जाते हैं कि कुछ करने की जहमत नहीं उठाते. उन का यही मानना रहता है कि जो होना होगा वह तो होगा ही. वहीं जब बिन किए कुछ होताजाता नहीं, तब फिर से वे अपनी असफलता के लिए अपने भाग्य को कोसने में जुट जाते हैं. वे इसे अपना बुरा समय बताते तो हैं, लेकिन इस बुरे समय को मेहनत और लगन से ठीक करने के बजाय राशिफल, जादूटोना, पूजापाठ, अंधविश्वास से सुल झाने की कोशिश करते हैं.

अपनी इस सनक से वे न सिर्फ भ्रमजाल में फंसते हैं बल्कि ‘गरीबी में आटा गीला’ वाली कहावत की तर्ज पर पैसा भी खूब लुटा देते हैं. भाग्य के भरोसे खुद को छोड़ने से वे आलस और नीरसता से भर जाते हैं. उन के हाथों में कलावे, गले में मालाएं, उंगलियों में अंगूठियां बढ़ने लगती हैं. ऐसे में किसी तरह की महत्वाकांक्षा उन में नहीं रहती. बिना महत्वाकांक्षा और तय गोल के वे अपने रास्ते में भटकते फिरते हैं, जिस कारण वे अपने जीवन में अनुशासन भी तय नहीं कर पाते. ऐसी ही फंतासी में जयपाल सिंह असवाल (59) का परिवार भी फंसा है. जयपाल सिंह दिल्ली के नेहरूनगर इलाके में रहते हैं. उन के 3 बेटे हैं जिन में से 2 बेटों आशीष और विकास की शादी हो चुकी है. 58 वर्ष की उम्र में निजी कंपनी से जयपाल रिटायर हो गए थे. उस दौरान उन के दोनों बेटे कार्यरत थे. आशीष सऊदी अरब में होटल मैनेजमैंट के काम में था, तो विकास रीड एंड टेलर कंपनी में सेल्समैन था.

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3 साल पहले आशीष अपना कौट्रैक्ट खत्म कर सऊदी अरब से वापस दिल्ली आया. दिल्ली आने के बाद उस का कहीं काम करने का मन नहीं किया. उस के पास कुछ सेविंग्स थी तो वही खर्च करता रहा. वहीं विकास का भी यही हाल रहा. पहले उस की जौब कनाट प्लेस में लगी थी, लेकिन जैसे ही उसे कंपनी ने अपनी दूसरी ब्रांच नोएडा जाने को कहा तो उस ने दूर काम करने से मना कर दिया और कामधाम छोड़ कर घर पर बैठ गया. अब आलस का आलम यह है कि नजदीक उसे मनमुताबिक काम मिल नहीं रहा और दूर वह जाना नहीं चाहता. ऐसे में घर के जवान हट्टेकट्टे सदस्य पिछले 2-3 सालों से निठल्ले बैठे हैं. उन के घरखर्च का एकमात्र माध्यम फिलहाल किराएदार से मिलने वाला किराया है. हालफिलहाल जयपाल सिंह से इस सिलसिले में बात हुई. जयपाल ने बताया कि उन के परिवार पर किसी का बुरा साया पड़ा है. उन के बेटों पर किसी ने जादूटोना किया हुआ है.

इसी के चलते उन्होंने अपने गांव में इष्ट देवताओं को खुश करने के लिए बड़ी पूजा रखवाई है. अब जयपाल को कौन सम झाए कि समस्या ‘बुरे साए’ की नहीं, बल्कि बेटों के आलसपन की है. फिलहाल, जयपाल इस बात से चिंतित हैं कि पूजा में लगने वाले खर्च को वे कैसे पूरा करेंगे, क्योंकि पूजा में लगने वाला खर्च लेदे कर 50 से 60 हजार रुपए तक हो ही जाएगा. शौर्टकट भ्रमभरा रास्ता इंसान अपने जीवन में मेहनत से बचने के लिए न सिर्फ भाग्य पर निर्भर रहता है बल्कि वह सोचता है कि कोई ऐसा शौर्टकट हो जिस से कम समय में ज्यादा पैसे कमाए जा सकें. ऐसे व्यक्ति जितनी जल्दी उठते हैं उस से कई गुना रफ्तार से नीचे गिर पड़ते हैं. सफलता मेहनत से मिलती है, इस के लिए कोई शौर्टकट नहीं होता है. शौर्टकट के बल पर हासिल की गई सफलता कुछ समय के लिए ही टिकती है.

सच यह है कि एक समय के बाद व्यक्ति को अर्श से फर्श तक आने में समय नहीं लगता. ऐसे ही कई वाकए लौकडाउन के समय देखने को मिले, जहां पैसा कमाने के लिए आपदा को अवसर बनाने में लोगों ने कोई कमी नहीं छोड़ी. जिस दौरान पहला लौकडाउन लगा, लोगों में खूब भ्रम और डर फैल गया था. लोगों को गलत सूचना मिली कि फूड सप्लाई में भारी शौर्टेज होगी, जिस कारण शहरों में राशन की कमी होने लगेगी. यह भ्रम इलाकों के रिटेल विक्रेताओं और थोक व्यापारियों द्वारा फैलाया गया था. जनता के बीच खाद्य सामग्री स्टोर करने की होड़ सी मचने लग गई. किराए पर रहने वाले लोग इस अव्यवस्था को ले कर खासा सकते में रहे और उन में से कई इस कारण अपने राज्यों को पैदल ही लौट पड़े. लेकिन जो शहरी थे, वे डबल मार झेलते रहे.

दुकानदारों ने मौके का फायदा उठाते हुए राशनपानी के दाम बढ़ा दिए. लेकिन कहते हैं न, शौर्टकट से कुछ पल के लिए खिलाड़ी बना जा सकता है, लेकिन अंत में मुंह की खानी ही पड़ती है. ऐसा ही एक उदाहरण बलजीत नगर के आनंद जनरल स्टोर के अभिषेक कुमार का है. अभिषेक के पिताजी (आनंद) ने 30 साल पहले परचून की दुकान इलाके में खोली थी, जो काफी चलती थी. पिताजी ने बड़ी ईमानदारी और मेहनत से इसे शुरू किया था. इलाके में दुकान का खासा नाम भी था. इलाके के लोग घर की जरूरतों की खरीदारी इसी दुकान से करते थे. यानी कुल मिला कर एक विश्वास आनंद ने ग्राहकों में कायम कर के रखा था. लौकडाउन लगते ही इलाके में राशन की कमी का भ्रम फैला. अभिषेक ने मौका पाते ही सामान के भाव बढ़ाने शुरू कर दिए.

जो सामान 5 रुपए का था उसे 10 में देना शुरू कर दिया. जो 100 का था उसे 150 में. लोग मजबूर थे, उन्हें अपनी जरूरत पूरी करने के लिए सामान लेना ही था. एक दिन टीवी पर सामान के ‘शौर्टेज वाले भ्रम’ की झूठी खबरों को सरकार ने क्लीयर किया. लेकिन अभिषेक और आसपास की दुकान वाले फिर भी बढ़े दाम में सामान बेचते रहे. ऐसे में किसी सज्जन ने दुकान की कंप्लैंट कर दी. पुलिस ने यह बात पुख्ता की और अभिषेक की दुकान सील कर दी. थाने के चक्कर काटने तो पड़े ही, साथ ही भारी बदनामी भी झेलनी पड़ी. लगभग 3-4 महीने तक उस की दुकान बंद रही. लेदे कर उस ने दुकान खुलवाने की आज्ञा प्राप्त की. लेकिन खुलने के बाद लोगों ने उस की दुकान का बायकाट कर दिया.

अब उस दुकान पर कुछ ही ग्राहक जा कर सामान खरीदते हैं. पहले जैसी रौनक न रही. जाहिर है मेहनत का रास्ता मुश्किलों भरा, लंबा और कुछ हद तक तनहा होता है. मगर सफलता का एहसास इस रास्ते की सारी तकलीफें भुलाने के लिए काफी होता है. अपनी मंजिल का रास्ता चुनते समय यह हमेशा याद रखना चाहिए कि मंजिल तक पहुंचने के लिए हम जिस शौर्टकट रास्ते का चुनाव कर रहे हैं, उस की हमें क्या कीमत चुकानी पड़ सकती है. मेहनत के साथ अनुशासन ही सफलता देगा अनुशासन शब्द 2 शब्दों के योग से बना है- अनु और शासन. अनु उपसर्ग है जिस का अर्थ है विशेष. इस प्रकार से अनुशासन का अर्थ हुआ- विशेष शासन. अनुशासन का शाब्दिक अर्थ है- आदेश का पालन या नियमसिद्धांत का पालन करना ही अनुशासन है. दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि नियमबद्ध जीवन व्यतीत करना अनुशासन कहलाता है. भारत में आज के युवाओं में एक अजीब तरह की संस्कृति पनपती जा रही है.

वे अनुशासन से खुद को बंधाबंधा सा महसूस करते हैं. वे इसे अपनी आजादी के बीच बाधा मानते हैं. उन का मानना रहता है कि वे अपने जीवन के खुद मालिक हैं, जिसे जैसे चाहे वे जिएं. ऐसे में कब उठना है, कब कौन सा काम करना है, किस काम को प्राथमिकता देनी है आदि सिर्फ मूड और इच्छा पर निर्भर करता है. यदि कोई दूसरा व्यक्ति खुद को अनुशासित करता दिखता है, खुद का टाइम मैनेजमैंट करता है, तो वे उसे बड़ी हैरानी और हिकारतभरी नजरों से देखते हैं, उस का सामूहिक उपहास उड़ाया जाता है. अनुशासन का पालन करने का अर्थ यह नहीं है कि आप नियमों और तौरतरीकों के गुलाम हो गए और आप की आजादी छिन गई है. यह सोच गलत है. सोचिए, यदि ट्रेन को पटरी से उतार दें तो वह आजाद तो हो जाएगी लेकिन ऐसे में क्या वह चल पाएगी? इस का आराम से अनुमान लगाया जा सकता है. अनुशासन आजादी में खलल नहीं है, बल्कि नियमकानून के अनुसार किसी काम को करने की सीख है.

एक महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति कुछ पाने की ललक में खुद को पूरी तरह झोंक देता है. उस का खुद को झोंकना सिर्फ काफी नहीं. उस की सफलता के लिए खुद को व्यवस्थित करना बहुत जरूरी है और अनुशासन ही उस की रीढ़ है. सड़क हो या सदन, व्यवसाय हो या खेती, खेल का मैदान हो या युद्धभूमि, अनुशासन के बिना जीत संभव ही नहीं है. जाहिर सी बात है, मेहनत के साथ अनुशासन या सू झबू झ का होना बहुत जरूरी है वरना पता चला कि चढ़ना था दिल्ली की ट्रेन में और बैठ गए कोलकाता की ट्रेन में. अनुशासन में रहने वाला व्यक्ति अपनी प्राथमिकताएं अच्छे से सम झता है. वह यह भलीभांति जानता है कि अपने गोल तक पहुंचने के लिए उसे किस काम को वरीयता देनी है. वह अपनी दिनचर्या निर्धारित करता है. कामों का बंटवारा करता है. वरना बिना अनुशासन के वह कम जरूरी काम में ही फंस कर रह जाएगा और ऐसे में अपने दिनोंदिन खपा देगा.

अनुशासनहीन व्यक्ति चाहे मेहनती ही क्यों न हो, वह अपने गोल से भटकता रहता है. वह अपनी एनर्जी को केंद्रित नहीं कर पाता. उस के पास योजना की कमी रहती है. अगर योजना नहीं, तो उस का विकासपथ विनाश को आमंत्रण भी दे सकता है. खुद को तपाना तो पड़ेगा ही आज तमाम सफल व्यक्तियों से उन की सफलता का राज पूछा जा सकता है, चाहे वे नौकरशाह, डाक्टर, वकील इत्यादि क्यों न हों. वे सभी एक बात पर सहमत होंगे कि मेहनत और अनुशासन के ही कारण वे इस मुकाम तक पहुंचे हैं. देश में इस का सब से बड़ा उदाहरण महात्मा गांधी को लिया जा सकता है. कहते हैं, वे अपने दोनों हाथों से लिखा करते थे. दायां हाथ थक जाए तो बाएं हाथ से लिखने लग जाते थे.

किसी काम को अंत तक करने की ललक उन में खूब थी. उस पर वे पूरी शिद्दत से लग जाते थे. लेकिन उन की सफलता में सिर्फ मेहनत ही नहीं, बल्कि उन के अनुशासन की भी बड़ी भूमिका है. बड़ा नेता होने के बावजूद उन्होंने खुद के लिए अनुशासन सैट किए हुए थे. जो नियम कार्यकारिणी के लिए बने थे वे उन्हें खुद पर भी अप्लाई करते थे. इसी चक्कर में उन्हें एक रोज देरी के चलते खाना खाने की लाइन में लंबा इंतजार करना पड़ गया. यह सच है कि कई लोग मेहनत और अनुशासन के पथ पर चलने को कष्टदायक सम झते हैं. वे अपना मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसे में वे लोग कभी अपनी क्षमता का आकलन नहीं कर पाते. भविष्य में आने वाली छोटीमोटी मुसीबतों से वे जल्दी टूट जाते हैं.

वे साधारण जीवन व्यतीत करते हैं, जिस में उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा तो खोनी ही पड़ती है, साथ में अपने असफल जीवन से समयसमय पर आर्थिक चोट भी खानी पड़ती है. लेकिन यह भलीभांति सम झने की जरूरत है कि जीवन कोई सौफ्टी नहीं, जिसे जीभ लगाया और चाट लिया. इस में कांटे भी समयसमय पर मिलते रहेंगे. जीवन संघर्षों से भरा हुआ है, इस में अंधेरापन भी आएगा ही. काले ब्लैकबोर्ड पर काली चौक मार कर अपनी बात लिखी तो जा सकती है, लेकिन पढ़ी नहीं जा सकती, इसलिए खुद में परिस्थिति के अनुसार कंट्रास पैदा कर सफेद चौक बनना ही पड़ता है. उसी प्रकार खुद को तपाने के लिए जीवन में कंट्रास से गुजरना ही पड़ेगा. जो जीवन के कंट्रास से मुंह मोड़ लेगा वह अपनी बात लिख तो रहा है लेकिन उसे कोई पढ़ नहीं सकता.

बोल ‘जय श्री राम’-भाग 4: आलिम ने आखिरी सांस लेते हुए क्या कहा था

कभी गोरक्षा के नाम पर, तो कभी छेड़छाड़, तो कभी धर्म के नाम पर, किसी न किसी वजह से भीड़ में शामिल हर आदमी आलिम को मार कर धर्म की सेवा करने में लगा हुआ था. भीड़ का मनोविज्ञान सामाजिक विज्ञान का एक छोटा सा हिस्सा रहा है. यह एक अजीब और पुराना तरीका है जिस की प्रासंगिकता समाज में स्थिरता आने और कानूनव्यवस्था के ऊपर भरोसे के बाद खत्म होती गई. आज इस समय मार डालने वाली इस भीड़ का हर आदमी स्वयं को हीरो सम झ रहा था.

भीड़ बहुसंख्य लोकतंत्र के एक हिस्से के तौर पर दिखती है जहां वह खुद ही कानून का काम करती है, खाने से ले कर पहनने तक सब पर उस का नियंत्रण होता है. यह भीड़ खुद को सही मान रही थी और अपनी हिंसा को व्यावहारिक एवं जरूरी भी बता रही थी. भीड़ खुद ही न्याय और नैतिकता के दायरे को तय कर चुकी थी. यहां भीड़ तानाशाही व्यवस्था का ही विस्तार थी.

देवीप्रसाद के कहने पर आलिम को एक पेड़ से बांध दिया गया था. पीड़ा जब अंतहीन हो जाती है, वह मनुष्य को शक्ति प्रदान कर देती है. आलिम के शरीर का हर अंग दर्द में था, लेकिन उस के हृदय और उस की जान को वे तनिक भी चोट नहीं पहुंचा पाए थे. जब भीड़ उसे सजा देने के कुछ नूतन उपाय तलाश रही थी, आलिम कल्पना के पंख लगाए उड़ रहा था. आज निरपराध वह इस धरती और शरीर को छोड़ने वाला था.

किसी ईश्वर की सत्ता को वह मानता नहीं था, इसलिए जानता था कि कोई भी उस की रक्षा करने नहीं आएगा. किंतु ये मूर्ख, जो ईश्वर को मानते थे, आज उसी के नाम पर अपनी ही नस्ल के जीव को बेरहमी से कुचल रहे थे. उन्हें इस बात का लेशमात्र भय नहीं था कि उन का दयालु ईश्वर आलिम की पीड़ा देख कर उस की रक्षा करने आ जाएगा और उन्हें दंडित करेगा. संभवतया उन्हें भय इसलिए नहीं है क्योंकि वे भी जानते हैं कि उन का ईश्वर नहीं आएगा. इस तरह से तो ये सभी भी नास्तिक हैं, अथवा एक तानाशाह के सेवक हैं. कुछ ऐसा ही सोच कर आलिम के सूखे होंठों पर मुसकान खेल गई थी.

‘‘बेटा, ये लोग जो कह रहे हैं, मान ले. तु झे छोड़ देंगे,’’ बाबा की पीड़ा आलिम को रुला गई थी.

‘‘सुन बे, जोर से बोल जय श्री राम,’’ देवीप्रसाद ने चिल्ला कर कहा था.

आलिम के बाबा और उस का छोटा भाई भी नारे लगाने लगे थे. पूरा आकाश, जय श्री राम के नारे से गूंज गया था. लेकिन, आलिम सम झ गया, आज तो भगवान राम भी स्वयं उसे नहीं बचा सकते थे. कोई भी नारा इन नरपिशाचों को उस की बलि चढ़ाने से नहीं रोक सकता था.

अत्यंत कष्टों और जीवन को कई आयामों से देखने के बाद उस ने अपनी एक विचारधारा बनाई थी. अपना छोटा सा जीवन उस ने उसी विचारधारा के साथ व्यतीत किया था. और आज अंत समय में वह अपनी इस निधि को किसी को भी छीनने नहीं देगा. उस की आजादी सदा आजाद रहेगी.

कुछ क्षण सोच कर आलिम ने सिर हिला कर देवीप्रसाद को अपने पास बुलाया था.

‘‘भाइयो, चुप हो जाओ. जो भी नारा लगाएगा,’’ देवीप्रसाद ने यह घोषणा की तो आलिम ने हां में सिर हिला दिया था.

देवीप्रसाद अब आलिम के पास आ कर बैठ गया.

‘‘चल बोल, जय श्री राम.’’

आलिम का धीमा स्वर वह अधम पुरुष सुन नहीं पाया. आलिम के मुख से राम का नाम सुनने का लोभ वह छोड़ नहीं पा रहा था, इसलिए वह उस के पास अपना चेहरा ले गया.

अपने संपूर्ण आत्मबल को कंठ में धारण कर आलिम जोर से चीखा, ‘‘जय श्री राम’’ और देवीप्रसाद के शुभ्र और शिथिल मुख पर थूक दिया था. अचानक सब शांत हो गया. उस नीरवता में, बस, आलिम का तीव्र अट्टहास आवाज कर रहा था.  द्य

 

बोल ‘जय श्री राम’-भाग 3: आलिम ने आखिरी सांस लेते हुए क्या कहा था

‘‘वैदेही, अभी समय लक्ष्य के आकाश पर उड़ान भरने का है, स्वप्नों को जीवन प्रदान करने का है. हृदय में यदि प्रेम है, तो वह सदा रहेगा. यदि यह समय के साथ धूमिल हो भी गया, तो उसे एक आसक्ति सम झ बिसार देना. हर स्थिति में मित्रता तो जीवित रहेगी ही.’’

भावनाओं की एक वेगवती नदी, जो बांध तोड़ कर बह रही थी, साहिल से मिलते ही शांत हो गई थी. वैदेही का हृदय इस पुरुष के शब्दों और उस के नेत्रों से बंध गया था. इस बंधन में भी स्वाधीनता का यह अनुभव नवीन तो था ही, सुभग भी था.

‘‘मित्रता तो सदा रहेगी, आलिम,’’ वैदेही के कपोलों का रंग सुर्खलाल हो गया था.

‘‘इस नवीन मैत्री की साक्षी यह कैंटीन रहेगी.’’ हंसते हुए आलिम खाने का और्डर देने चला गया था.

एक वर्ष में मित्रता का यह बीज अंकुरित हो गया था. उन दोनों ने एकदूसरे को बिना किसी शर्त स्वीकार कर लिया था. न कोई वादा, न किसी रिश्ते का बंधन और न ही कोई प्रतिज्ञा. अनकहे प्रेम की शक्ति वृहत होती है, उसे शब्दों की बैसाखी की आवश्यकता नहीं होती. उन का मौन ही संवाद होता है.

दोनों की पारिवारिक पृष्ठभूमि ही नहीं, व्यक्तित्व और आचरण भी भिन्न थे. जहां आलिम नास्तिक था, वहीं वैदेही की ईश्वर में अटूट आस्था थी. हर सुबह कालेज जाने से पूर्व वह 101 बार गायत्री मंत्र का पाठ करना नहीं भूलती थी. आलिम कभी उस की आस्था पर प्रश्न नहीं उठाता और न ही वैदेही उसे आस्तिक बनाने का प्रयास करती थी.

आलिम एक शाकाहारी था. आरंभ में मांसाहार का सेवन करता था किंतु उसे उस का स्वाद कभी पसंद नहीं आया. बचपन में जब अपने बाबा के साथ बकरे अथवा मुरगे का मांस लेने जाता, वह उन्हें कटता देख कर रो देता था. अपने पेट को भरने के लिए किसी जीव की हत्या करने का कारण उसे स्वार्थ लगने लगा था. वहीं, शाकाहारी परिवार में पलीबढ़ी वैदेही बटर चिकन की दीवानी थी. दोनों में से किसी ने भी कभी एकदूसरे के स्वाद पर भी सवाल नहीं उठाया. उन का मानना था, आदमी का आहार उस की पसंद का विषय है. आहार के आधार पर उस का वर्गीकरण करना मूर्खता है.

जहां सूर्योदय को देखना आलिम को प्रिय था, वैदेही को देर तक सोना पसंद था. आलिम को पुराने गीत और गजल पसंद थे, वैदेही नए गानों पर  झूमना पसंद करती थी. लेकिन, वे प्रसन्न थे. क्योंकि, दोनों ने ही अपनी वैयक्तिकता के साथ कोई सम झौता नहीं किया था.

विषय की पढ़ाई के साथ ही दोनों ने सिविल सर्विसेज की तैयारी भी शुरू कर दी थी. वैदेही एक मेधावी छात्रा तो नहीं थी लेकिन परिश्रमी अवश्य थी. उसे आलिम के सान्निध्य से एक मजबूत संबल भी प्राप्त हो गया था. यही कारण था कि स्नातक में बड़ी मुश्किल से प्रथम श्रेणी लाने वाली वैदेही स्नातकोत्तर के प्रथम वर्ष में डिस्ंिटक्शन के साथ पास हुई थी. समय कभी किसी के लिए नहीं थमता. अच्छा हो अथवा बुरा, उसे गुजरना ही होता है.

उन के कालेज का अंतिम साल भी समाप्त हो गया था. आखिरी पेपर के बाद दोनों कुछ दिनों के लिए गांव चले गए थे. शीघ्र ही लौट कर सिविल सर्विसेज की तैयारी में लग जाना था. वैदेही ने तो दिल्ली के एक कोचिंग संस्थान का पता भी कर लिया था. आलिम भी दिल्ली आने की ही सोच रहा था. किंतु उस की प्राथमिकता स्वअध्ययन थी.

उन के बीच हुए एक पारस्परिक अनुबंध के अनुसार दोनों ने गांव में एकदूसरे से दूरी बना रखी थी. भूल से एकदूसरे के सम्मुख पड़ने पर दोनों अजनबीपन की चादर ओढ़ लेते थे. लेकिन लाख सावधानी रखने पर भी नियति को छलना असंभव होता है.

हर गांव में कुछ आवारा और बेकार लड़कों की प्रजाति पाई जाती है. उन की न कोई जाति होती है और न धर्म. उन के लिए हर लड़की, चाहे वह किसी भी धर्म अथवा जाति से संबंध रखती हो, एक वस्तु होती है. बिना किसी भेदभाव के लड़कियों पर भौंडी फब्तियां कसना उन का स्वभाव होता है. वे छेड़छाड़ करते समय लड़की के जातीय अथवा धार्मिक वर्गीकरण पर ध्यान नहीं रखते, वे मात्र उस के शरीर के वर्गों पर नजर रखते हैं. किंतु, जब यह बात लड़की के घर तक पहुंचती है, उन आवारा लड़कों को सजा दिलाने से पूर्व, उन के जातीय अथवा धार्मिक वर्गीकरण के आधार पर बदला लेने की योजना बन जाती है. उस शाम भी कुछ ऐसा ही हुआ था.

उस शाम वैदेही और उस की सहेली जया बाजार से लौट रही थीं. रास्ते में गांव के कुछ आवारा लड़कों का समूह कंचे खेल रहा था. जमीन का बंटवारा भी धर्म और जाति के आधार पर हो रखा था. चूंकि वह महल्ला मुसलमानों का था और उस समूह में अधिकांश मुसलमान थे.

‘‘वह जा रही पंडित की लौंडिया,’’ एक ने कहा था.

‘‘कौन सी वाली?’’ दूसरे ने कहा जैसे बिना देखे तो उस का जीवन समाप्त हो जाएगा.

‘‘जे वाली,’’ इतना कह कर उस ने आगे बढ़ वैदेही का दुपट्टा पकड़ लिया था.

इन फब्तियों को अनसुना कर आगे बढ़ जाने की बात हर लड़की को घुट्टी में बांध कर पिलाई जाती है. वैदेही और जया सिर  झुका कर आगे बढ़ ही रहे थे कि रहमान ने वह अनहोनी कर दी थी.

ठीक उसी समय अचानक आलिम और उस का छोटा भाई घूमते हुए वहां आ गए थे, ‘‘रहमान…’’ आलिम की इस चीख से रहमान कुछ पलों के लिए सहम गया और उस ने दुपट्टा छोड़ दिया था.

तेज कदमों से चलता हुआ आलिम वैदेही के निकट जा खड़ा हुआ था. वैदेही की आंखें आलिम से चुप रहने की विनती करने लगी थीं. आलिम जैसा पुरुष तो ऐसी परिस्थिति में किसी भी स्त्री के लिए उठ खड़ा होता, फिर यहां तो बात वैदेही की थी.

‘‘तुम ठीक हो?’’ वैदेही के हाथों को थाम कर आलिम बोला था. उस के स्वर की पीड़ा ने वैदेही के दिल को छू लिया था. किंतु, वस्तुस्थिति वह सम झ रही थी. उस ने एक  झटके में हाथ हटा लिया था.

‘‘आलिम, आप यहां से जाइए. मैं भी घर चली जाऊंगी,’’ वैदेही ने धीरे से आलिम को सम झाने का प्रयास किया था.

‘‘पहले भी कहा था, बारबार कहूंगा. अज्ञानतावश कही गई गलत बात क्षम्य है लेकिन सही बात भी यदि चतुराई अथवा गलत भावना से कही गई है तो वह गलत है. फिर यह तो सोचसम झ कर किया गया गलत कार्य है. रहमान, अभी माफी मांग,’’ आलिम का क्रोध  झलक रहा था.

रहमान ने उस समय क्षमा मांग ली थी लेकिन उन में से कोई भी जया के भीतर के प्रश्नों के पहाड़ को नहीं देख पाया था. वैदेही ने उसे इस घटना का जिक्र किसी से भी करने से मना किया था. लेकिन इस बात से जया के प्रश्नों का पहाड़ उस के सिर से उतर कर हृदय पर बैठ गया था.

घर पहुंचते ही जया ने वह पहाड़ उतार कर अपनी मां के सम्मुख रख दिया. बातों के मात्र पैर नहीं होते, उन्हें भूख भी लगती है. तभी तो क्षणभर में ही एक से दूसरे कान तक पहुंच जाती है, वह भी दोगुनी और तिगुनी हो कर.

वैदेही के परिवार तक पहुंचने में भी कहां समय लगा था.

‘‘वैदेही,’’ उच्च स्वर में पिता के मुख से अपना नाम सुनते ही वैदेही सब सम झ गई थी.

‘‘जी बाबूजी.’’

‘‘कल कुछ मुल्लों ने तुम्हारा अपमान किया था, तुम ने बताया नहीं.’’ उन की इस बात पर वैदेही के मुख पर दर्दभरी एक मुसकान खेल गई थी.

‘‘बाबूजी, मैं बताने ही वाली थी कि वह घटना याद आ गई थी. बचपन में एक बार जब गुरुजी के अनुचित स्पर्श के बारे में आप को बताया, तो आप ने ‘कोई खास बात नहीं है’ कह कर टाल दिया था. उस के बाद एक लड़के की भद्दी टिप्पणी के बारे में मां को बताया था. उन्होंने इसे स्त्री जीवन का कष्टदायक लेकिन अभिन्न अंग बता कर चुप रहने की शिक्षा दी थी. कल जो हुआ वह कुछ भिन्न नहीं था. क्या बताती आप को?’’

‘‘ज्ञात होता है, तु झे इतना बोलना अहमद का बेटा सिखा रहा है. तुम दोनों का चक्कर कब से चल रहा है?’’ इस बार वैदेही का बड़ा भाई बोला था.

वैदेही अनहोनी की आशंका से कांप गई थी. वह गिड़गिड़ाने लगी थी, ‘‘भाई, ऐसा कुछ नहीं है. वह, बस, मु झे बचा रहा था.’’

‘‘हाथ पकड़ कर, गले से लगा कर,’’ भाई के चेहरे पर कुटिल मुसकान खेल रही थी.

‘‘यह  झूठ है भाई,’’ वैदेही चीख पड़ी थी.

‘‘इन म्लेच्छों को इन की औकात बताने का समय आ गया है. ब्राह्मण की बेटी को हाथ लगाने की कुचेष्टा का उचित दंड देना ही पड़ेगा,’’ बाबूजी ने कहा था.

जब मां और भाभी वैदेही को घसीटते हुए अंदर ले जा रही थीं तो उस ने भाई की आंखों में खून उतरते हुए देख लिया था. जब तक वैदेही के शरीर में शक्ति थी, वह बंद दरवाजे पर चोट करती रही. दरवाजे के बाहर मां और भाभी अनभीष्ट बैठीं वैसे ही अपना काम करती रहीं जैसे इस देश की जनता मूक हो कर करती रहती है. क्लांत वैदेही का शरीर गिर गया, लेकिन उस के हाथ नहीं रुके. विरोध की अभिव्यक्ति नहीं रुकी.

उधर जब एक भीड़, एक अप्रशासनिक समूह, बिना किसी न्याय प्रक्रिया के पूर्वनियोजित योजना के तहत उसे दोषी निर्धारित कर, शारीरिक प्रताड़ना देने आ रही थी, उस समय आलिम अपने जीवन का अंतिम रात्रिभोजन अपने परिवार के साथ कर रहा था.

भीड़ वाले पहले रहमान के घर गए थे लेकिन रहमान उन की पकड़ में नहीं आ पाया. वह भाग गया था. फिर उन का क्रोध आलिम पर अधिक भड़क गया था. उस के घर के दरवाजे पर लातों और घूंसों से दस्तक दी गई. शोर सुनते ही महल्ले के अन्य लोग जाग गए थे लेकिन कोई भी पंडित के बेटे के सम्मुख खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. दरवाजा खोलते ही आलिम को उस के घर से घसीटते हुए गांव के बीच ला कर खड़ा कर दिया गया था. पीछेपीछे उस के बाबा और भाई भी आ गए थे. उस समय तक भीड़ में मात्र ब्राह्मणों का  झुंड था.

‘‘देवी, क्या हुआ है? मौलवी का बेटा तो बड़ा सीधा मालूम पड़ता है. इस ने ऐसा क्या कर दिया? और अगर मामला तेरे घर का था तो गांव को क्यों जगाया?’’ गांव के सरपंच निर्मल ठाकुर ने पूछा था.

‘‘सीधा कह रहे हो ताऊ. अरे, ले कर आ रे,’’ उस के इतना कहते ही एक लड़का आलिम की साइकिल ले कर आ गया था. साइकिल के पीछे एक बड़ा बैग बंधा हुआ था.

‘‘बैग खोल कर दिखा,’’ उस ने आदेश दिया था.

बैग में एक बछड़े का अधकटा शरीर था. पलभर में ही भीड़ की भक्ति दोगुनी हो कर आलिम के शरीर पर टूट पड़ी थी. जो अभी तक तमाशबीन बन कर सब देख रहे थे वे भी अब भक्तिपूर्वक प्रभु की सेवा में लग गए थे. आलिम के पिता और भाई की निर्बल आवाज उन के कानों तक पहुंच ही नहीं रही थी. वे लगातार आलिम के शाकाहारी होने की दुहाई दे रहे थे. लेकिन बाहरी भीड़ को कहां कुछ सुनाई देता है. आलिम को बचाने में भीड़ के क्रोध का शिकार वे दोनों भी हो रहे थे.

बोल ‘जय श्री राम’-भाग 2: आलिम ने आखिरी सांस लेते हुए क्या कहा था

आलिम के लिए तो वैदेही का अस्तित्व ही नहीं था. किंतु, वैदेही को आलिम जैसे सुचित्त की विद्वत्ता, सादगी, साफगोई तथा उदासीनता ने मोह लिया था. वह पिछले 2 वर्षों में आलिम से संलाप स्थापित करने के हर प्रयास में पराजित हो  गई थी.

कुरसी पर बैठने से भी आलिम की ऊंचाई का अंदाजा लगाना कठिन नहीं था. लंबा कद, गेहुंआ रंग, पतली नाक पर काले रंग के पतले फ्रेम का चश्मा और हलके कत्थई रंग के होंठ. पिछले 3 वर्षों से वह उसे ऐसे ही निहारती आ रही थी. प्रथम वर्ष तो मात्र अपनी भावनाओं को सम झने में खर्च हो गया. बाद के 2 वर्ष संवाद स्थापित करने के निरर्थक प्रयास में समाप्त हो गए. अब कुछ समय से उसे आलिम के व्यवहार में परिवर्तन प्रतीत हो रहा था. उस की उपस्थिति को समूल नकार देने वाला आलिम अब उसे एक नजर देख लिया करता था. शायद यह उस का भ्रम ही था लेकिन इस भ्रम में कैद वैदेही आज रिहा हो गई थी. अपनी जगह से उठ कर, सीधे आलिम के पास जा पहुंची और उस के निकट वाली कुरसी खींच कर बैठ गई थी.

चर्रचर्र… कुरसी खींचने की इस ध्वनि ने आलिम के प्रवाह को रोक दिया था. अपना सिर उठा कर उस ने आवाज की दिशा में देखा, तो वहां अपने अधरों पर खेदपूर्ण मंदहास के साथ वैदेही को पाया. ऐसा नहीं था कि आलिम को वैदेही के हृदय की दशा का संज्ञान नहीं था लेकिन वह वस्तुस्थितियों को सम झता था. वह भावनाओं को व्यावहारिकता से विजित करना जानता था. इसलिए उस ने अपनी उदासीनता को हथियार बनाया था. लेकिन, वैदेही की भावनाओं का ज्वार तो घटने के स्थान पर बढ़ गया था.

आलिम चश्मा उतार कर उसे ही देख रहा था. उन भूरी आंखों की आर्द्रता का वैदेही पहली बार अनुभव कर रही थी. समय को रोक लेने की उस की प्रार्थना अस्वीकार हो गई थी. आलिम के नेत्रों के अग्रहण की उपेक्षा कर वह बोली थी, ‘‘मु झे सम झ आ गया है कि आप सम झ गए हैं.’’

आलिम ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया. बस, अपनी डायरी और पुस्तकों को उठाया और लाइब्रेरी से बाहर निकल गया था. उस अपमान से वैदेही का मुख कुछ क्षणों के लिए काला अवश्य पड़ गया था लेकिन उस उपेक्षा ने उस के निश्चय को अधिक दृढ़ कर दिया था.

आलिम को लगा कि वैदेही चली जाएगी लेकिन वह तो उस के पीछेपीछे कैंटीन तक आ गई थी, बोली, ‘‘आप मु झ से भाग क्यों रहे हैं?’’ ‘‘ऐसा कुछ नहीं है,’’ आलिम कुरसी खींच कर बैठ गया था. उस ने वैदेही को भी बैठने का संकेत किया.

‘‘फिर बिना कुछ कहे, चले क्यों आए?’’ उस ने बैठते हुए कहा था. ‘‘जहां तक मैं जानता हूं, लाइब्रेरी में बात करना अनुपयुक्त है.’’ आलिम की बात सुन वैदेही की पलकें  झुक गई थीं.

‘‘मैं…’’ वैदेही कुछ कहती, इस से पहले ही आलिम ने उसे रोक दिया था, ‘‘पहले कुछ खाने का और्डर दे दें, मैं ने सुबह से कुछ खाया नहीं.’’ ‘‘हां…हां, वैदेही बोली थी.’’ ‘‘आप कुछ लेंगी?’’ आलिम ने पूछा तो  वैदेही ने न में गरदन हिला दी थी.

‘‘मेरे साथ खाने में कोई समस्या तो नहीं?’’ आलिम के इस व्यंग्यमिश्रित वाक्य ने वैदेही के हृदय को मरोड़ दिया था. वह तड़प उठी थी. ‘‘मेरी घ्राणशक्ति आप की सुगंध को मेरे हृदय तक ले गई थी. मेरे नेत्रों के द्वार से हो कर, बिना किसी दस्तक के, आप मेरी जान में बस गए. उस एक क्षण में मेरे शरीर, मेरे अंतर्मन और मेरे हृदय का आप के साथ समागम हो गया था, समस्या तब नहीं हुई, तो अब तो मैं भी आप ही हूं.’’

वैदेही जिन पंक्तियों का अभ्यास कर के आई थी और जिन्हें बोलने के प्रयास में हारे जा रही थी, उन के स्थान पर कुछ भिन्न कह गई थी. लेकिन, जब हृदय बोलता है, होंठ खामोश हो जाते हैं.

आलिम निरुशब्द, निर्निमेष वैदेही को देखता रह गया था. उस उन्मेष में उस का हृदय भी पलभर के लिए जागृत हुआ था. लेकिन, वह सत्य सम झता था. वह निर्बल नहीं था. वह मूर्ख भी नहीं था. उस ने स्वयं को संभाल लिया था.

‘‘वैदेही, मैं आप की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता, उन का सम्मान करता हूं. लेकिन यह मात्र मूर्खता नहीं है, बल्कि अपने उज्ज्वल भविष्य की हत्या है.’’

‘‘तो आप ने भी एक  झूठ ओढ़ा हुआ है. बातें समाज को बदलने की करते हैं लेकिन वास्तविक प्रयास से पीछे हट जाते हैं. इतना विरोधाभास क्यों?’’ वैदेही क्रोधित हो गई थी. आलिम के होंठों पर एक विजयी मुसकान खिल गई. उसे वैदेही से ऐसी ही प्रतिक्रिया की अपेक्षा थी.

‘‘मैं मात्र समाज बदलने की बात नहीं करना चाहता, वास्तविकता में बदलाव चाहता हूं. मैं आज मात्र एक छात्र हूं. मेरे विचार मात्र मेरे हैं. मु झे इस लायक बनना है कि जब मैं कुछ कहूं तो उसे यह समाज सुने. अंतर्जातीय अथवा अंतर्धर्मीय प्रेम अथवा विवाह कर लेने मात्र से यह समाज नहीं बदलेगा. उस से पूर्व, स्वयं को आर्थिक तथा मानसिक रूप से इतना सशक्त बनाओ कि किसी भी तरह के विरोध का प्रभावशाली प्रतिवचन दे सको.

‘‘आज मेरे पास वह शक्ति नहीं है कि मेरी इन भावनाओं का प्रतिफल यदि मेरे परिवार, हमारे समुदायों और हमारे गांव को चुकाना पड़े तो मैं खड़ा हो सकूं. समाज को बदलने की बात लिखना जितना सरल है, बदलना उतना ही कठिन. यहां तक आने के लिए मैं ने कठिनाइयों के विशाल सागर को पार किया है. और आज भी स्वयं को डूबने से बचाने में प्रयासरत हूं.

‘‘तुम भी तो सम झती हो कि अत्यंत परिश्रम के बाद ही एक स्त्री उस गांव से निकल कर यहां तक पहुंचती है. यहां तक आ कर बदलाव का आरंभ तो तुम ने कर ही दिया है लेकिन तुम्हारा एक कदम उस गांव की अन्य स्त्रियों के लिए शिक्षा का द्वार सदा के लिए बंद कर देगा. तुम जो कह रही हो, वह गलत नहीं है लेकिन धर्म और जाति की पट्टी बांधे खड़ा यह समाज गांधारीरूपी है. इस की आंखों से पट्टी उतारने के लिए और सही समय पर सत्य का बोध कराने के लिए शिक्षा के दीपक को हर स्त्री व पुरुष के भीतर जलाना होगा. कूपमंडूकता के इस सागर को पार करने के लिए पुस्तकों का सेतु बनाना होगा.

 

किसान और मोदी सरकार

किसान और मोदी सरकार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जौनसन द्वारा 26 जनवरी के उत्सव पर भारत सरकार के अतिथि बनने का न्योता कैंसिल कर देने के पीछे सिर्फ कोरोना ही कारण नहीं. यह ठीक है कि आज ब्रिटेन में कोविड-19 की महामारी एक बार फिर सिर उठा चुकी है, हजारों लोग इस की चपेट में हैं और वहां कई जगह लौकडाउन लगाया गया है लेकिन भारत सरकार के न्योते के स्वीकार करने के समय ही ऐसा होने का अंदेशा था क्योंकि कोविड-19 का एक नया म्यूटैंट दस्तक दे चुका था. इंग्लैंड ने 2 वैक्सीनों को अनुमति दे दी है पर वे कितनी कारगर हैं और कब जनता को राहत देंगी, पता नहीं.

बोरिस जौनसन के 26 जनवरी के उत्सव में शामिल न होने के पीछे दिल्ली में चल रहा किसान आंदोलन भी एक कारण है. लंदन और दूसरे शहरों में आएदिन भारतीय गुट दूतावास व भारत सरकार के दूसरे कार्यालयों के सामने धरनेप्रदर्शन करते रहते हैं. भारतीय मूल के तनमन जीत सिंह सोंधी, जो इंग्लैंड के संसद सदस्य हैं, ने बोरिस जौनसन को पत्र लिखा था कि वे इस कानून का विरोध जताएं.

एक नगर पार्षद ने इसलिए 12,000 लोगों के हस्ताक्षर भी जुटा लिए थे कि बोरिस जौनसन भारत जाएं ही नहीं क्योंकि भारत सरकार इन कानूनों को वापस लेने की मांग करने वाले आंदोलनकारियों पर पुलिस के जरिए दमनात्मक कार्रवाई कर रही है. वाटर कैननों, लाठियों, आंसू गैस के गोलों की तसवीरें इंग्लैंड के मीडिया पर खूब दिखाई भी गई हैं. वहां रह रहे भारतीय किसानों के रिश्तेदार तो परेशान हुए हैं ही, वहीं, इंग्लैंड के उदार, तानाशाहीविरोधी लोग भारत में किसानों के अब तक के शांतिपूर्ण आंदोलन में हिस्सा ले रहे आंदोलनकारियों पर भारत सरकार द्वारा कराई गई पुलिस बर्बरता को तानाशाही का संकेत बता रहे हैं. बोरिस जौनसन इस पचड़े के दौरान भारत आ कर अपनी साख खराब नहीं करना चाहते.

शायद इसलिए भी उन्होंने भारत के गणतंत्र दिवस के मौके पर अतिथि बनने के मोदी सरकार के निमंत्रण, जिसे पहले स्वीकारा था पर अब कोरोना की आड़ ले कर उत्सव में शामिल होने में असमर्थता जाहिर कर दी है. अमेरिका के नए राष्ट्रपति वैसे भारत से मित्रता बनाए रखना चाहते हैं लेकिन उन्हें नरेंद्र मोदी की सरकार से कोई प्रेम नहीं है. कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति बनने पर नरेंद्र मोदी की पार्टी ने वैसी खुशियां नहीं मनाईं जो, शायद डोनाल्ड ट्रंप की जीत पर मनाते. मार्च 2020 में नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद में ‘फिर एक बार, ट्रंप सरकार’ का नारा जोरशोर से लगाया था जो विजयी जो बाइडन और कमला हैरिस की जोड़ी को याद होगा. आश्चर्य मगर दिलचस्प यह है कि हमारे पंडों के कुंडली पाठों और जापतपों के बावजूद ट्रंप हार गए हैं. हारे ट्रंप अब पैर घसीट रहे हैं कि किसी तरह मोदीछाप हेरफेर, जो कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गोवा, उत्तरपूर्व में किया गया, को वाशिंगटन में दोहरा सकें.

कृषि कानूनों पर भारत सरकार को बाइडन के नेतृत्व की अमेरिकी सरकार का समर्थन मिलेगा, इस की कोई गुजांइश नहीं है. भारत का कृषि कानूनों के बारे में किसान आंदोलन छोटा नहीं है. यह आंदोलन भारत की मोदी सरकार की कट्टरपंथी छवि को और उजागर कर रहा है. यह आंदोलन अब पूरी दुनिया की आंखों के सामने है. शायद ही कोई हो जो इस मसले पर भारत सरकार के साथ हो. नेपाल और भूटान भी साथ नहीं हैं जो पहले दिल्ली के अनुसार अपना मुंह खोलते थे. अमेरिका और भारत डोनाल्ड ट्रंप की सौगात ऐसी है कि जिस का दर्द पूरा अमेरिका दशकों तक न भूलेगा.

यह अंत है या शुरुआत, यह भी नहीं कहा जा सकता. भारत के भगवा गैंगों ने बाबरी मसजिद तोड़ कर जो दर्द दिया था वह अब भी हो रहा है. उस से पहले देश ने 1947 में दंभ देखा था जिस का खमियाजा दोनोंतीनों देश-भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश भुगत रहे हैं. अमेरिका में ट्रंप समर्थक अब चुनाव परिणाम को अंतिम मानेंगे या वाश्ंिगटन में की लड़ाई को गलियों, सड़कों, शहरों, गांवों तक ले जाएंगे, कहा नहीं जा सकता. अमेरिका आज गोरे, कट्टर धर्मअनुयायियों के दावानल से सुलगने लगा है. ट्रंप न केवल खब्ती राष्ट्रपति थे, बल्कि उन्होंने संकुचित सोच वाले कट्टरों की वर्णश्रेष्ठता की तरह रंगश्रेष्ठता की विचारधारा को फिर उजागर कर दिया है.

यह पुरानी बात नहीं जब अमेरिका में चिकित्सा के जानकार भी कालों को जन्मजात वंशानुगत कमजोर, दोयम मानव मानते थे जैसे यहां दलितों, पिछड़ों को ही नहीं, वैश्यों तक को माना जाता है. जीसस क्राइस्ट गोरे थे या काले या अरब, यह किसी को नहीं मालूम क्योंकि अगर वे हुए थे तो पश्चिम एशिया के यरुशलम इलाके में जहां यूरोपीय किस्म के गोरे तो नहीं रहते पर उन के धर्म का प्रचारप्रसार यूरोप में हुआ और फिर वह गोरों का धर्म बन गया. आज तक चाहे यूरोप हो या अमेरिका, इस धर्म में अनुयायी चाहे दूसरे रंग के कितने ही हों, सत्ता गोरों के हाथों में ही है क्योंकि उन्होंने ही इस धर्म को फैलाया, इस पर किताबें लिखीं, चर्च बनाए, चित्र बनाए, त्योहार मनाए. बाइबल का नाम ले कर क्रूसेड युद्ध मुसलिमों के खिलाफ लड़े गए जिन के चित्रों में साफ गोरे ईसाई और काले या कम गोरे अरब मुसलिम होते थे.

यह भेदभाव, जिस के खिलाफ अमेरिका ने एक गृहयुद्ध लड़ा था, आज फिर अमेरिका के लोकतंत्र को रौंद रहा है. इस आग की आखिरी लपटें डोनाल्ड ट्रंप की खिसियाहट के कारण हैं या असल में शुरुआत ही है, यह वक्त बताएगा. यह पक्का है कि ट्रंप हारे हैं पर बहुत थोड़े वोटों से. जहां सिर्फ 2 पार्टियां हों वहां 7-8 लाख वोटों की जीत कोई बड़ी जीत नहीं होती. भारत में मोदी को भी अब तक 40-42 प्रतिशत ही वोट मिलते रहे हैं. ट्रंप के विभाजनकारी एजेंडे को 49 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं. बाइडन की जीत के बाद भी जौर्जिया, जहां 2 सीनेट की सीटों पर 5 जनवरी को दोबारा चुनाव हुए थे, डैमोक्रेटिक सीनेटर हजारों की गिनती में ही जीत पाए. ट्रंप ने जो भीड़ जमा की और जिस तरह उन के समर्थकों ने खुल्लमखुल्ला, पुलिस की चुप्पी के कारण, संसद भवन तक पर कब्जा कर लिया था,

वह कृत्य तानाशाही देशों की याद दिलाता है. हमारे लिए सबक है कि हमारी संस्थाएं एकएक कर के गिरती जा रही हैं और अब संसद भवन को गिराने की तैयारी है. लोकतंत्र भी गिरेगा तो पता नहीं चलेगा क्योंकि हमें तो पहले से इस की आदत डाल दी गई है. ट्रंप खुद को तो डुबो रहे ही हैं, अमेरिका भी डूब सकता है. गोरे, मेहनती, अलगअलग देशों से पनाह लेने आए लोगों ने मिल कर ही अमेरिका को बनाया था. आज ट्रंप उन लोगों को अलग कर रहे हैं, जो बाद में लाए गए या खुद आए और उन के रंग, भाषा, धर्म, आदतें अलग हैं. डोनाल्ड ट्रंप ने अकेले वह किया है जो भारत में पौराणिक विचारों के रखवाले 2-8 करोड़ लोगों ने 100-150 साल की मेहनत के बाद किया था. आज 2 बड़े लोकतंत्र खाइयों के किनारे खड़े हैं.

आगे फिसलन है, कांटे हैं, गृहयुद्ध सा माहौल है, जिस से यूरोप कई सदियों तक त्रस्त रहा. अमेरिका और भारत एक सा रास्ता अपनाएंगे, ऐसा दिख रहा है. ममता के घर में भाजपाई सेंध भारतीय जनता पार्टी ने तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी के गढ़ पश्चिम बंगाल में वैसी ही सेंध मारनी शुरू कर दी है जैसी ममता ने 9 वर्षों पहले जमीजमाई मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के इसी विशाल गढ़ में मारी थी. ममता बनर्जी में अब वह दमखम नहीं रह गया जो पहले था. वे हाथपैर मार कर सोनिया गांधी की कांग्रेस की तरह अपना घर बचाने की कोशिश कर रही हैं. भाजपा ने पुराना हथकंडा अपनाया है. पहले उस ने धर्म के टोटके चलाए. रामनवमी का जुलूस निकाला. दुर्गा पंडालों पर कब्जा किया.

पंडितों के सहारे मुफ्त के कार्यकर्ताओं की फौज तैयार की. हिंदूमुसलिम अलख जगाई. धर्म की गहरी जड़ों को खादपानी दिया और समाज विभाजक शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के ‘आनंद मठ’ जैसी बातें कर के अच्छे राज की जगह मरने के बाद अच्छे स्वर्ग के सपने दिखाने शुरू किए. दुनियाभर में धर्म का सिक्का आज भी चल ही जाता है. पिछली सदी में पहली बार शासकों ने मरने के बाद कल के बजाय जिंदा रहते आज की चिंता करनी शुरू की थी और धर्म को राजकाज से बाहर कर मंदिर, चर्चों और मसजिदों में बंद किया था. तब देशों ने खूब उन्नति की. समाज का नक्शा बदला था. अब बहुत देशों में शासक शासन करने के लिए पूजापाठ को सहारा बना रहे हैं और पूजापाठ को आम जनता, जो नई तकनीक का लाभ उठा रही है पर जानती कुछ नहीं है उस के बारे में, जीवनध्येय मानने लगी है.

वह धर्म का ढिंढोरा पीट कर खुश हो रही है. भारतीय जनता पार्टी को पश्चिम बंगाल में इस का फायदा होने लगा है. वोटों का फायदा तो वोटिंग के दौरान मिलेगा लेकिन अभी तृणमूल कांग्रेस के वोटों से जीते भद्रलोक विधायक अपनी तृणमूल कांग्रेस को तिलांजलि दे उस का यानी भाजपा का दामन थामने लगे हैं. ममता बनर्जी धर्म की साजिश जानती हैं या नहीं, पता नहीं, पर वे खुलेदिल से उस बारे में कुछ नहीं कह सकतीं. यह ऐसा विषय है जिस में सच को कहा ही नहीं जाता. सच कहने वाला राजनीति में सफल नहीं हो सकता. भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल, द्रविड़ मुनेत्र कषगम, तेलंगाना राष्ट्र समिति और यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी धर्म के विषय में खरीखरी कहने में िझ झकती हैं. पहले कोई भी पार्टी धर्म की बात नहीं करती थी.

अब एक ने पूरा ठेका ले लिया है. ऐसे माहौल में तृणमूल कांग्रेस सकते में है. पैसे वाली, गलीगली में समर्थन जुटा सकने वाली, धमकी दे सकने वाली भाजपा का मुकाबला करना ममता के लिए आसान न होगा. ममता बनर्जी के सामने बड़ी चुनौती है. उस का मुकाबला करना आसान नहीं है क्योंकि उन के अधिकांश सांसदों, विधायकों की नीली कमीज के नीचे भगवा रंग रंगा है.

वे रातदिन पूजापाठ में लगे रहते हैं. पैसा कमाते हैं तो उन्हें लगता है, वह उन की मेहनत का नहीं बल्कि पूजापाठ की देन है. ममता के सिपाही दिखने वाले ये नेता अपने समर्थकों को धोखा दे रहे हैं क्योंकि असलियत में ये भाजपा के छिपे सिपाही हैं. इन्हें तोड़ा जा सकता है, आसानी से. बंगाल व बंगालियों के लिए ममता के किए काम नहीं बोलेंगे. सड़कों पर होने वाले भाजपा की धार्मिक द्वेष से लबरेज सभाएं चलेंगी. धर्मभीरु लोगों को उकसानापटाना मुश्किल नहीं है क्योंकि धर्म का पाठ तो जन्म के 6ठे दिन से सिखाना शुरू कर दिया जाता है.

किसान परेड और गणतंत्र दिवस

लेखक-रोहित और शाहनवाज

26 जनवरी का दिन भारत के लिए महत्वपूर्ण दिन है. इस दिन की अपनेआप में ऐतिहासिक भूमिका है जिसे हर वर्ष याद रखा जाता है. इस दिन की एहमियत देश के संविधान से है. 72 साल पहले यह वही दिन था जब देश में संविधान लागू किया गया. संविधान यानी देश का वह ग्रन्थ जो सर्वोपरी है, सर्वमान्य है और हर नागरिक के लिए है. नागरिक वह जो इस देश की उन्नति में किसी न किसी तरह से अपनी भूमिका अदा कर रहा है. फिर चाहे वह सीमा पर डटा जवान हो या खेतखलिहानों, फेक्टरीकारखानों में मजदूरकिसान हो. यह दिन सभी के लिए आजादी को गढ़ने और अपनी आजादी को बचाए रखने की पुनर्व्याख्या के तौर पर है.किसानों ने अपनी परेड निकाल यह साबित कर दिया कि असली गणतंत्र दिवस जनता के लिए और जनता के द्वारा किया जाने वाला समारोह है.यही कारण भी था कि किसानों ने ‘ट्रेक्टर परेड’ कर गणतंत्र के इस दिन को रिडिफाइन किया.

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इस साल 26 जनवरी कादिनअब इतिहास में लिखी जाने वाली वह परिघटना बन गई है जिस के होने के बाद अब जायज और नाजायज दोतरफा एंगल हमेशा तलाशे जाते रहेंगे. पर,किन्तु, परंतु, अगर, मगर के साथ यह दिन आगे आने वाले लम्बे समय तक याद रखा जाएगा.इस दिन की याद के केंद्र में हर साल चलने वाली सालाना राजपथ परेड नहीं होगी, ना ही हर साल आने वाले विदेशी मेहमान होंगे बल्कि वेआंदोलित किसान रहेंगेजो पिछले कुछ महीने से लगातार अपनी मांगो को ले कर हाड़ कंपाती ठंड में दिल्ली की सीमाओं पर डंटे हुएथे. वे किसान जो अपने हिस्से की आजादी को बचाए रखने की जद में बैठे हुए थे कि सरकार उन की मांगे मान जाए.गणतंत्र दिवस के दिन किसानों द्वारा निकाली गई समानांतर परेड सीधासीधा सरकार को चुनौती थी कि वे अपनी मांगों को ले कर कितने अडिग हैं.

 नांगलोई में किसान-प्रशासन

किसानों की इस अनौखी परेड को सीधे ग्राउंड से कवर करने के लिए हमारी टीम उस जगह पर पहुंची जहां प्रशासन और आंदोलित किसानों के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई थी. हम सीधे नांगलोई मेट्रो स्टेशन पहुंचे. नांगलोई वह रस्साकस्सी वाली जगह थी जहां टिकरी बौर्डर से आए हजारोंहजार किसानों का रूट नजफ़गढ़ के लिए मुड़ना था. इस रूट की तय दिशा नांगलोई, झरोदा, रोहतक, असोड़ा से होते हुए वापस टिकरी के गंतव्य तक पहुंचना था. यह लगभग 62 किलोमीटर का रूट था.

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मेट्रो स्टेशन से नीचे रोड़ की तरफ झांका तो, दोनों तरह दूरदूर जहां तक नजर पहुंच रही थी किसानों का जनसेलाब दिख रहा था. रोड़ के एक तरफ लाइन से खड़े ट्रेक्टर इस बात की तस्दीक दे रहे थे कि किसानों के भीतर इस परेड को ले कर तैयारी भरपूर थी, वहीँ हजारों की संख्या में पैदल चल रहे किसानों को देखते बन रहा था कि वे इस परेड को ले कर कितने उत्साह में हैं.

परेड में गाड़ियों, ट्रेक्टरों-ट्रोलियों में लगे बड़ेबड़े स्पीकर पर देशभक्ति के गाने ऐसे चल रहे थे मानो यह दिन किसानों के लिए खास हो. अधिकतर महिला व बुजुर्ग किसान ट्रेक्टर पर बैठे कर जा रहे थे. इस रैली को सफल बनाने के लिए मौके परजगहजगह पर वालंटियर किसानों के समर्थन में आए डाक्टर और एम्बुलेंस की टीम हर समय मौजूद थी.बाकि युवाओं की एक बड़ी संख्या सड़क पर पैदल मार्च करते हुए रास्ता तय कर रही थी. यह उन्ही युवाओं में से थे जिसे भाजपा अपना वोटर कह कर दंभ भरती रहती थी. कुछ के हाथों में तिरंगा था तो कुछ के हाथों में किसानी का झंडा.

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दिलचस्प बात यह कि नांगलोई के जिस इलाके में किसानों की यह परेड चल रही थी वहां पर आम लोग रोड के दोनों तरफ खड़े हो कर इस का अनुभव ले रहे थे. ठीक उसी जगह पर चाय की टपरियां, खानेपीने की दुकानें उसी तरह से चल रही थी जैसे हर दिन चला करती हैं. वे न तो किसानों की इस परेड से भयभीत थे और न ही आशंकित थे. कुछकुछ समय में ऐसे आम शहरी लोग भी वहां देखे जा सकते थे जो पानी की थैलियां, बिस्कुट के पैकेट, केले, संतरे इत्यादि ट्रैकटर में बैठे किसानों के बीच बांट रहे थे. वहीं दिल्लीवासी परेड में शामिल किसानों के गले में मालाएं डाल कर उन का स्वागत भी कर रहे थे. यह दिखा रहा था कि किसानों को आम समर्थन भी हासिल था.

एक वाक्या ऐसा आया जब हम बैरिकेड के ठीक दाहिने तरफ खड़े थे उसी दौरान पुलिस की तरफ से एक आंसू गैस का गोला किसानों की तरफ फैंका गया, जिस के धुंए से वहां मौजूद अर्धसैनिक बल का एक जवान भी चपेट में आ गया और बेहोश हो गया. जैसे ही वह वहां मौजूद किसान वालंटियर और डाक्टर की नजर में पड़ा, तो उसे बिना किसी देरी के उन के द्वारा तुरंत एम्बुलेंस में बैठाया गया.परेड को ले कर मीडिया में जिस तरह की बातें उस दौरान चल रही थी उस के विपरीत किसान इस कोशिश में लगे थे की चीजें व्यवस्थित तौर पर चल सके. और यह उस का सब से बड़ा उदाहरण भी है की सरकार ने अपना पल्ला झाड़ते हुए इतने बड़े हुजूम को संभालने की पूरी जिम्मेदारी किसानों के सर ही लाद दी थी.

प्रशासन खुद को किसानो से दूर पहले ही कर चुकी थी.इस पर एक सवाल बनना यह लाजमी है की प्रशासन की जिम्मेदारी क्या महज किसानों को दिल्ली के अन्दर घुसने से रोकना मात्र था? क्या उन की जिम्मेदारी यह नहीं थी की जिस तरह सेकिसान इतने बड़े क्राउड को मेनेज कर रहे थे, वो भी उन के साथ सहयोग करते?

जाहिर है पुलिस द्वारा किसी प्रकार का क्राउड मेनेजमेंट नहीं किया जा रहा था. वे बस बाधक प्रतीत लग रहे थे. कुछ क्षण ऐसे आए जब किसानों और पुलिस के बीच टकराव की स्थिति तीखी हो गई. जाहिर है इस तरह की संभावनाएं हर आंदोलन में दिखती हैं. इतिहास में हर आंदोलन में ऐसे टकराव कहीं न कहीं देखने को मिल ही जाते हैं. आंदोलन में तरहतरह के लोग शामिल होते हैं जो अप्रशिक्षित, थोड़े भटके व आपसी अंतर्विरोधों में होते हैं.आंदोलन की नियति ही कई उठापटकों से हो कर गुजरती है.

यह दुर्भाग्य है किन्तु हकीकत भी की किसानों के बीचकुछ फ्रिंज एलेमेंट्स (असामाजिक तत्व) भी रहे जिन्होंने बैरिकेड पार करने की भी कोशिश की.जिस के बाद स्वाभाविक है कि एक टकराव की स्थिति भी पैदा हुई. जिस में हिंसा दोनों तरफ से हुई. किन्तु इस छिटपुट टकराव (स्वाभाविक) के बाद भी बहुसंख्यक किसानों ने यह साबित किया की वे न तो किसी गरीब का ठेला तोड़ने दिल्ली आएं हैं, न हुडदंग मचाने आएं हैं और ना ही किसी को परेशान करने आए हैं, बल्कि उन का सीधा टकराव इस प्रशासन से है जिन्होंने ये 3 किसान विरोधी कानून पास किए हैं.

 मीडिया-प्रशासन का सेलेक्टिवेनेस

ट्रेक्टर परेड के दिन भी मीडिया का पूरा जोर उन कुछकाद फ्रिंज एलिमेंट्स की फूटेज को खंगालने में लगा रहा जो टकराव पैदा कर रहे थे. वहीँ ऐसे चीजों को पूरी तरह से छिपाने का काम किया जा रहा था जिस में पुलिस प्रशासन द्वारा किसान आन्दोलनकारियों पर बर्बर तरीके से लाठीयां भांजी जा रही थी, आंसू गैस के गोले छोड़े जा रहे थे. बहुत बार पुलिस का यह बर्ताव बेफिजूल होता भी दिखाई दे रहा था.नांगलोई में कई वारदाते ऐसी घट रहीं थी,जिस में आन्दोलनकारी किसानों के साथ वहां खड़े आम लोगों को पुलिस द्वारा खदेड़ा जा रहा था.

हैरानी वाली बात यह कि इन किसानों में अधिकतर किसान शांतिपूर्ण व व्यवस्थित तरीके से अपने तय रूट पर परेड को सफल बना रहे थे,जिन्हें ले कर मीडिया में किसी प्रकार की कोई रिपोर्टिंग दर्ज नहीं की जा रही थी.जिन कुछ प्रकरणों को बारबार चैनलों के माध्यम से दोहराया जा रहा था वह आम जनता को उकसानेव आन्दोलनकारी किसानों को भटकाने के अलावा और कुछ नहीं था.सरकार, भाजपा का आईटीसेल व मीडिया के पूरे सेक्शन द्वाराइस पूरी परिघटना में किसानों को विलेन बनाने की योजना चल रही थी. लेकिन सरकार की क्या जिम्मेदारी है?आखिर गृह मंत्रालय कर क्या रहा है? किसान आईटीओ, लाल किला के प्रचीर तक इतनी आसानी से कैसे पहुंच गए? प्रधानमंत्री इतने समय से चल रहे किसान आन्दोलन पर कुछ क्यों नहीं कह रहे? इन तरह के जरुरी सवालों से ये लोग लगातार पल्ला झाड़ रहेथे.

दिल्ली के बौर्डर पर जब से किसान अपनी मांगों को ले कर डटे रहे तब से सरकार और मीडिया इस आंदोलन को बदनाम करने की साजिश रचती आई है. किसानों को कभी खालिस्तानी, कभी आतंकवादी तो कभी नक्सलवादी कह कर बदनाम किया जाता रहा है और  उन्हें इस देश का दुश्मन बताया जाता रहा है. शुरुआत में तो मीडिया और प्रशासन इन्हें किसान मानने को ही तैयार नहीं थी. किन्तु जैसेजैसे किसानों का यह आक्रोश जनआंदोलन में तब्दील हुआ तो जनता के चौतरफा हमले से इन की नींद उड़ती गई.

संभव है की इस घटना के बाद किसानों के लिए अब ‘अराजक’ शब्द का भी इस्तेमाल किया जाने लगेगा. किन्तु कानूनों केविरोध में उठ रहींआवाजों का जिस प्रकार सरकार दमन कर रही है उसे तानाशाह कहने की हिम्मत अब मीडिया संस्थानों में बिलकुल भीबची नहीं है.ध्यान देने वाली बात यह है की 2014 के बाद भारत में जितने भी बड़े जनआंदोलन हुए हैं सरकार ने आंदोलन को दमन व बदनाम करने के लिएहिंसा को मुख्य हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया है.

सरकार के साथ 11 दौर की विफल बातचीत के बाद भी किसानों ने अपना आपा नहीं खोया. भाजपाई मंत्रियों, आईटीसेल और गोदी मीडिया के द्वारा आंदोलन पर टेररिस्ट फंडिंग, पाकिस्तानी और न जाने क्याक्या निराधार किस्म के आरोप लगाए जाते रहे लेकिन किसान अपनी राह से डिगे नहीं. जाहिर है पूरी प्रशासनिक व्यवस्था द्वारा इन प्रताड़नाओं को सहना ही किसानों के लिए अपनेआप में चैलेंज रहा है. जिस में किसान कामयाब भी रहे.साथ ही यह भी संभव है कि ट्रेक्टर परेड के दिन कुछकाद फ्रिंज एलिमेंट द्वारा कीगई घटनाओं में सरकार का लगातार किसानों के प्रति नीरस रव्वैया बने रहना ही मुख्य जिम्मेदार है.मसला जो भी हो,जिस प्रकार सरकार और मीडिया ने समस्त किसान आन्दोलन को दंगाई,उपद्रवी व अराजक बताया उस के विपरीत यह बात भी सामने है कि दिल्ली की सड़कों में चल रहे इस आन्दोलन में किसी आमजन की कोई हताहत की घटना सामने नहीं आई, ना ही किसी ने अपने संपत्ति के नुकसान की बात कही है.

प्रशासन की मंशा इस बात से समझी जा सकती है कि इस घटना के बाद उन 37 किसान नेताओं पर मुकदमा दर्ज किया गया है, जो तय रूट पर परेड कर रहे थे.अगर इन किसान नेताओं पर ‘व्यवस्था को ना बनाए रखने’ के तहत यह कार्यवाही की गई है तो पूरी केंद्र सरकार इस कृत्य में भागीदार रही है.क्या यह सर्कार से नहीं पूछा जाना चाहिए कि कैसे ये गिनती के फ्रिंज एलिमेंट आसानी से लाल किला के प्राचीर पर चढ़ गए? आखिर लालकिला के प्राचीर पर दीप सिद्धू की मिस्ट्री और भाजपा के साथ केमेस्ट्री क्या है?ऐसे में देश के गृह मंत्री को अपने पद पर बने रहने का क्या अधिकार रह जाताहै.

किसान परेड से गणतंत्र के मायने

हर साल 26 जनवरी, गणतंत्र दिवस के दिन जब हम अपने घरों में होते हैं तो सुबह 8 बजे के बाद चैनल बदल कर सीमा पर तैनात जवानों और देश के विभिन्न राज्यों की झाकियां देखते हैं. हर साल होने वाली परेड में केवल देश के बड़े नेता, विदेशों से आने वाले मुख्य अथिति और गिनेचुने वो स्पेशल लोग होते हैं जो परेड का पास खरीदते हैं और परेड देखते हैं. इस सरकारी परेड में अकसर‘तंत्र’ तो मौजूद रहता है लेकिन ‘गण’ अपने टीवी चैनलों में ही कहीं सीमट कर रह जाता है.

इस साल 26 जनवरी का गणतंत्र दिवस अपनेआप में बेहद खास था. क्योंकि किसानों ने आंदोलन के लिए इसी दिन को अपनी ट्रेकटर रैली के लिए चुना था. एक तरफ राफेल उड़ रहा था तो दूसरी तरफ ट्रैक्टर मार्च हो रहा था. जनता की निगाहें नए नवेले राफेल पर नहीं बल्कि किसानों के ट्रैक्टर पर थी. किसानो की इस परेड ने पूरे देश में यह संदेश जरुर दे दिया कि गणतंत्र लुटियन जोन में बैठे नेताओं की बपौती नहीं है. बल्कि यह आम लोगों की है.

यह परेड एक तरह से सरकार को सीधी चुनौती थी की लोकतंत्र के मायने में लोगों के तंत्र की भूमिका अहम होती है न की राज के तंत्र की. इस परेड के जायज नाजायज पहलू हमेशा विवादों में जरुर रहेंगे किन्तु बिना साजोसामान, तामझाम के किसानों की परेड कर पाने की इस क्षमता ने इतिहास में अपना नाम हमेशा के लिए दर्ज कर लिया है और सत्ता में बैठे अहंकारी सत्ताधारियों के मुह पर एक जोरदार तमाचा मारा है.

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