किसान और मोदी सरकार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जौनसन द्वारा 26 जनवरी के उत्सव पर भारत सरकार के अतिथि बनने का न्योता कैंसिल कर देने के पीछे सिर्फ कोरोना ही कारण नहीं. यह ठीक है कि आज ब्रिटेन में कोविड-19 की महामारी एक बार फिर सिर उठा चुकी है, हजारों लोग इस की चपेट में हैं और वहां कई जगह लौकडाउन लगाया गया है लेकिन भारत सरकार के न्योते के स्वीकार करने के समय ही ऐसा होने का अंदेशा था क्योंकि कोविड-19 का एक नया म्यूटैंट दस्तक दे चुका था. इंग्लैंड ने 2 वैक्सीनों को अनुमति दे दी है पर वे कितनी कारगर हैं और कब जनता को राहत देंगी, पता नहीं.
बोरिस जौनसन के 26 जनवरी के उत्सव में शामिल न होने के पीछे दिल्ली में चल रहा किसान आंदोलन भी एक कारण है. लंदन और दूसरे शहरों में आएदिन भारतीय गुट दूतावास व भारत सरकार के दूसरे कार्यालयों के सामने धरनेप्रदर्शन करते रहते हैं. भारतीय मूल के तनमन जीत सिंह सोंधी, जो इंग्लैंड के संसद सदस्य हैं, ने बोरिस जौनसन को पत्र लिखा था कि वे इस कानून का विरोध जताएं.
एक नगर पार्षद ने इसलिए 12,000 लोगों के हस्ताक्षर भी जुटा लिए थे कि बोरिस जौनसन भारत जाएं ही नहीं क्योंकि भारत सरकार इन कानूनों को वापस लेने की मांग करने वाले आंदोलनकारियों पर पुलिस के जरिए दमनात्मक कार्रवाई कर रही है. वाटर कैननों, लाठियों, आंसू गैस के गोलों की तसवीरें इंग्लैंड के मीडिया पर खूब दिखाई भी गई हैं. वहां रह रहे भारतीय किसानों के रिश्तेदार तो परेशान हुए हैं ही, वहीं, इंग्लैंड के उदार, तानाशाहीविरोधी लोग भारत में किसानों के अब तक के शांतिपूर्ण आंदोलन में हिस्सा ले रहे आंदोलनकारियों पर भारत सरकार द्वारा कराई गई पुलिस बर्बरता को तानाशाही का संकेत बता रहे हैं. बोरिस जौनसन इस पचड़े के दौरान भारत आ कर अपनी साख खराब नहीं करना चाहते.
शायद इसलिए भी उन्होंने भारत के गणतंत्र दिवस के मौके पर अतिथि बनने के मोदी सरकार के निमंत्रण, जिसे पहले स्वीकारा था पर अब कोरोना की आड़ ले कर उत्सव में शामिल होने में असमर्थता जाहिर कर दी है. अमेरिका के नए राष्ट्रपति वैसे भारत से मित्रता बनाए रखना चाहते हैं लेकिन उन्हें नरेंद्र मोदी की सरकार से कोई प्रेम नहीं है. कमला हैरिस के उपराष्ट्रपति बनने पर नरेंद्र मोदी की पार्टी ने वैसी खुशियां नहीं मनाईं जो, शायद डोनाल्ड ट्रंप की जीत पर मनाते. मार्च 2020 में नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद में ‘फिर एक बार, ट्रंप सरकार’ का नारा जोरशोर से लगाया था जो विजयी जो बाइडन और कमला हैरिस की जोड़ी को याद होगा. आश्चर्य मगर दिलचस्प यह है कि हमारे पंडों के कुंडली पाठों और जापतपों के बावजूद ट्रंप हार गए हैं. हारे ट्रंप अब पैर घसीट रहे हैं कि किसी तरह मोदीछाप हेरफेर, जो कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गोवा, उत्तरपूर्व में किया गया, को वाशिंगटन में दोहरा सकें.
कृषि कानूनों पर भारत सरकार को बाइडन के नेतृत्व की अमेरिकी सरकार का समर्थन मिलेगा, इस की कोई गुजांइश नहीं है. भारत का कृषि कानूनों के बारे में किसान आंदोलन छोटा नहीं है. यह आंदोलन भारत की मोदी सरकार की कट्टरपंथी छवि को और उजागर कर रहा है. यह आंदोलन अब पूरी दुनिया की आंखों के सामने है. शायद ही कोई हो जो इस मसले पर भारत सरकार के साथ हो. नेपाल और भूटान भी साथ नहीं हैं जो पहले दिल्ली के अनुसार अपना मुंह खोलते थे. अमेरिका और भारत डोनाल्ड ट्रंप की सौगात ऐसी है कि जिस का दर्द पूरा अमेरिका दशकों तक न भूलेगा.
यह अंत है या शुरुआत, यह भी नहीं कहा जा सकता. भारत के भगवा गैंगों ने बाबरी मसजिद तोड़ कर जो दर्द दिया था वह अब भी हो रहा है. उस से पहले देश ने 1947 में दंभ देखा था जिस का खमियाजा दोनोंतीनों देश-भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश भुगत रहे हैं. अमेरिका में ट्रंप समर्थक अब चुनाव परिणाम को अंतिम मानेंगे या वाश्ंिगटन में की लड़ाई को गलियों, सड़कों, शहरों, गांवों तक ले जाएंगे, कहा नहीं जा सकता. अमेरिका आज गोरे, कट्टर धर्मअनुयायियों के दावानल से सुलगने लगा है. ट्रंप न केवल खब्ती राष्ट्रपति थे, बल्कि उन्होंने संकुचित सोच वाले कट्टरों की वर्णश्रेष्ठता की तरह रंगश्रेष्ठता की विचारधारा को फिर उजागर कर दिया है.
यह पुरानी बात नहीं जब अमेरिका में चिकित्सा के जानकार भी कालों को जन्मजात वंशानुगत कमजोर, दोयम मानव मानते थे जैसे यहां दलितों, पिछड़ों को ही नहीं, वैश्यों तक को माना जाता है. जीसस क्राइस्ट गोरे थे या काले या अरब, यह किसी को नहीं मालूम क्योंकि अगर वे हुए थे तो पश्चिम एशिया के यरुशलम इलाके में जहां यूरोपीय किस्म के गोरे तो नहीं रहते पर उन के धर्म का प्रचारप्रसार यूरोप में हुआ और फिर वह गोरों का धर्म बन गया. आज तक चाहे यूरोप हो या अमेरिका, इस धर्म में अनुयायी चाहे दूसरे रंग के कितने ही हों, सत्ता गोरों के हाथों में ही है क्योंकि उन्होंने ही इस धर्म को फैलाया, इस पर किताबें लिखीं, चर्च बनाए, चित्र बनाए, त्योहार मनाए. बाइबल का नाम ले कर क्रूसेड युद्ध मुसलिमों के खिलाफ लड़े गए जिन के चित्रों में साफ गोरे ईसाई और काले या कम गोरे अरब मुसलिम होते थे.
यह भेदभाव, जिस के खिलाफ अमेरिका ने एक गृहयुद्ध लड़ा था, आज फिर अमेरिका के लोकतंत्र को रौंद रहा है. इस आग की आखिरी लपटें डोनाल्ड ट्रंप की खिसियाहट के कारण हैं या असल में शुरुआत ही है, यह वक्त बताएगा. यह पक्का है कि ट्रंप हारे हैं पर बहुत थोड़े वोटों से. जहां सिर्फ 2 पार्टियां हों वहां 7-8 लाख वोटों की जीत कोई बड़ी जीत नहीं होती. भारत में मोदी को भी अब तक 40-42 प्रतिशत ही वोट मिलते रहे हैं. ट्रंप के विभाजनकारी एजेंडे को 49 फीसदी से ज्यादा वोट मिले हैं. बाइडन की जीत के बाद भी जौर्जिया, जहां 2 सीनेट की सीटों पर 5 जनवरी को दोबारा चुनाव हुए थे, डैमोक्रेटिक सीनेटर हजारों की गिनती में ही जीत पाए. ट्रंप ने जो भीड़ जमा की और जिस तरह उन के समर्थकों ने खुल्लमखुल्ला, पुलिस की चुप्पी के कारण, संसद भवन तक पर कब्जा कर लिया था,
वह कृत्य तानाशाही देशों की याद दिलाता है. हमारे लिए सबक है कि हमारी संस्थाएं एकएक कर के गिरती जा रही हैं और अब संसद भवन को गिराने की तैयारी है. लोकतंत्र भी गिरेगा तो पता नहीं चलेगा क्योंकि हमें तो पहले से इस की आदत डाल दी गई है. ट्रंप खुद को तो डुबो रहे ही हैं, अमेरिका भी डूब सकता है. गोरे, मेहनती, अलगअलग देशों से पनाह लेने आए लोगों ने मिल कर ही अमेरिका को बनाया था. आज ट्रंप उन लोगों को अलग कर रहे हैं, जो बाद में लाए गए या खुद आए और उन के रंग, भाषा, धर्म, आदतें अलग हैं. डोनाल्ड ट्रंप ने अकेले वह किया है जो भारत में पौराणिक विचारों के रखवाले 2-8 करोड़ लोगों ने 100-150 साल की मेहनत के बाद किया था. आज 2 बड़े लोकतंत्र खाइयों के किनारे खड़े हैं.
आगे फिसलन है, कांटे हैं, गृहयुद्ध सा माहौल है, जिस से यूरोप कई सदियों तक त्रस्त रहा. अमेरिका और भारत एक सा रास्ता अपनाएंगे, ऐसा दिख रहा है. ममता के घर में भाजपाई सेंध भारतीय जनता पार्टी ने तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी के गढ़ पश्चिम बंगाल में वैसी ही सेंध मारनी शुरू कर दी है जैसी ममता ने 9 वर्षों पहले जमीजमाई मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के इसी विशाल गढ़ में मारी थी. ममता बनर्जी में अब वह दमखम नहीं रह गया जो पहले था. वे हाथपैर मार कर सोनिया गांधी की कांग्रेस की तरह अपना घर बचाने की कोशिश कर रही हैं. भाजपा ने पुराना हथकंडा अपनाया है. पहले उस ने धर्म के टोटके चलाए. रामनवमी का जुलूस निकाला. दुर्गा पंडालों पर कब्जा किया.
पंडितों के सहारे मुफ्त के कार्यकर्ताओं की फौज तैयार की. हिंदूमुसलिम अलख जगाई. धर्म की गहरी जड़ों को खादपानी दिया और समाज विभाजक शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के ‘आनंद मठ’ जैसी बातें कर के अच्छे राज की जगह मरने के बाद अच्छे स्वर्ग के सपने दिखाने शुरू किए. दुनियाभर में धर्म का सिक्का आज भी चल ही जाता है. पिछली सदी में पहली बार शासकों ने मरने के बाद कल के बजाय जिंदा रहते आज की चिंता करनी शुरू की थी और धर्म को राजकाज से बाहर कर मंदिर, चर्चों और मसजिदों में बंद किया था. तब देशों ने खूब उन्नति की. समाज का नक्शा बदला था. अब बहुत देशों में शासक शासन करने के लिए पूजापाठ को सहारा बना रहे हैं और पूजापाठ को आम जनता, जो नई तकनीक का लाभ उठा रही है पर जानती कुछ नहीं है उस के बारे में, जीवनध्येय मानने लगी है.
वह धर्म का ढिंढोरा पीट कर खुश हो रही है. भारतीय जनता पार्टी को पश्चिम बंगाल में इस का फायदा होने लगा है. वोटों का फायदा तो वोटिंग के दौरान मिलेगा लेकिन अभी तृणमूल कांग्रेस के वोटों से जीते भद्रलोक विधायक अपनी तृणमूल कांग्रेस को तिलांजलि दे उस का यानी भाजपा का दामन थामने लगे हैं. ममता बनर्जी धर्म की साजिश जानती हैं या नहीं, पता नहीं, पर वे खुलेदिल से उस बारे में कुछ नहीं कह सकतीं. यह ऐसा विषय है जिस में सच को कहा ही नहीं जाता. सच कहने वाला राजनीति में सफल नहीं हो सकता. भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, लोकदल, राष्ट्रीय जनता दल, द्रविड़ मुनेत्र कषगम, तेलंगाना राष्ट्र समिति और यहां तक कि कम्युनिस्ट पार्टियां भी धर्म के विषय में खरीखरी कहने में िझ झकती हैं. पहले कोई भी पार्टी धर्म की बात नहीं करती थी.
अब एक ने पूरा ठेका ले लिया है. ऐसे माहौल में तृणमूल कांग्रेस सकते में है. पैसे वाली, गलीगली में समर्थन जुटा सकने वाली, धमकी दे सकने वाली भाजपा का मुकाबला करना ममता के लिए आसान न होगा. ममता बनर्जी के सामने बड़ी चुनौती है. उस का मुकाबला करना आसान नहीं है क्योंकि उन के अधिकांश सांसदों, विधायकों की नीली कमीज के नीचे भगवा रंग रंगा है.
वे रातदिन पूजापाठ में लगे रहते हैं. पैसा कमाते हैं तो उन्हें लगता है, वह उन की मेहनत का नहीं बल्कि पूजापाठ की देन है. ममता के सिपाही दिखने वाले ये नेता अपने समर्थकों को धोखा दे रहे हैं क्योंकि असलियत में ये भाजपा के छिपे सिपाही हैं. इन्हें तोड़ा जा सकता है, आसानी से. बंगाल व बंगालियों के लिए ममता के किए काम नहीं बोलेंगे. सड़कों पर होने वाले भाजपा की धार्मिक द्वेष से लबरेज सभाएं चलेंगी. धर्मभीरु लोगों को उकसानापटाना मुश्किल नहीं है क्योंकि धर्म का पाठ तो जन्म के 6ठे दिन से सिखाना शुरू कर दिया जाता है.