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आलिम के लिए तो वैदेही का अस्तित्व ही नहीं था. किंतु, वैदेही को आलिम जैसे सुचित्त की विद्वत्ता, सादगी, साफगोई तथा उदासीनता ने मोह लिया था. वह पिछले 2 वर्षों में आलिम से संलाप स्थापित करने के हर प्रयास में पराजित हो  गई थी.

कुरसी पर बैठने से भी आलिम की ऊंचाई का अंदाजा लगाना कठिन नहीं था. लंबा कद, गेहुंआ रंग, पतली नाक पर काले रंग के पतले फ्रेम का चश्मा और हलके कत्थई रंग के होंठ. पिछले 3 वर्षों से वह उसे ऐसे ही निहारती आ रही थी. प्रथम वर्ष तो मात्र अपनी भावनाओं को सम झने में खर्च हो गया. बाद के 2 वर्ष संवाद स्थापित करने के निरर्थक प्रयास में समाप्त हो गए. अब कुछ समय से उसे आलिम के व्यवहार में परिवर्तन प्रतीत हो रहा था. उस की उपस्थिति को समूल नकार देने वाला आलिम अब उसे एक नजर देख लिया करता था. शायद यह उस का भ्रम ही था लेकिन इस भ्रम में कैद वैदेही आज रिहा हो गई थी. अपनी जगह से उठ कर, सीधे आलिम के पास जा पहुंची और उस के निकट वाली कुरसी खींच कर बैठ गई थी.

चर्रचर्र... कुरसी खींचने की इस ध्वनि ने आलिम के प्रवाह को रोक दिया था. अपना सिर उठा कर उस ने आवाज की दिशा में देखा, तो वहां अपने अधरों पर खेदपूर्ण मंदहास के साथ वैदेही को पाया. ऐसा नहीं था कि आलिम को वैदेही के हृदय की दशा का संज्ञान नहीं था लेकिन वह वस्तुस्थितियों को सम झता था. वह भावनाओं को व्यावहारिकता से विजित करना जानता था. इसलिए उस ने अपनी उदासीनता को हथियार बनाया था. लेकिन, वैदेही की भावनाओं का ज्वार तो घटने के स्थान पर बढ़ गया था.

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