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Fashion : आपके पर्सनैलिटी और आत्मविश्वास को निखारते हैं कपड़े

Fashion : हमारा पहनावा हमारी पहचान बनती है. कौन किस तरह के कपड़े चुनता है, उस से उस की पर्सनैलिटी जाहिर होती है. सही रंग, डिजाइन फिटिंग के कपड़े सिर्फ व्यक्ति की सुंदरता निखारते हैं बल्कि उस के आत्मविश्वास को बढ़ाते भी हैं. हम क्या कैसा दिखें, यह हमारे हाथ में होता है.

हमारा पहनावा हमारे व्यक्तित्व का आईना होता है. कार्यकुशल व्यक्ति की ड्रैस उस के व्यक्तित्व की तरह व्यवस्थित होती है. साफ शब्दों में कहा जाए तो ड्रैस शरीर का पहला घर है जो मौसम के थपेड़ों से हमारी रक्षा करता है. इस नाते वह रक्षा कवच है तो वही हमारा पहला परिचय भी है
मसलन, कोई व्यक्ति जलसेना, थलसेना, वायुसेना या पुलिस में कार्यरत है तो उस की वरदी उस का परिचय देती है. विद्यार्थियों की स्कूल यूनिफौर्म, कामकाजी लोगों की औपचारिक ड्रैस, कारीगरों की ड्रैस या महिलाओं की साडि़यां, सूटसलवार उन का परिचय देती हैं लेकिन इन पर समय, काल एवं परिस्थिति के अनुसार बदलाव देखे गए हैं. पहले योद्धा भी धोती पहनते थे. बाद में चूड़ीदार और अंगरेजी शासन के दौरान सिपाहियों को लड़ने के लिए चुस्त पैंट दी जाने लगी. इस से साफ दृष्टिगोचर है कि आवश्यकता के अनुसार कपड़ों का भी विकास होता है. कपड़े जो मौसम की मार से बचाएं, व्यक्ति की कार्यकुशलता बढ़ाएं और साथ ही साथ व्यक्तित्व को निखारें वही अपनाने योग्य होते हैं
कपड़ों की बात पर एक पुरानी घटना याद गई. मेरे पड़ोस में एक परिवार रहता था. उस की बेटी पूजा, जोकि मेरी छोटी बहन जैसी थी, कालेज में पढ़ती थी. जब भी वह तैयार हो कर निकलती, उस का भाई अभिषेक उसे टोकता. एक दिन उस ने कहा
तुम ऐसे बाहर जाओगी?’
क्यों, इन कपड़ों में क्या खराबी है?’
इस में अलग दिख रही हो, लोग देखेंगे?’
लौंग स्कर्ट है, कुछ दिख ही नहीं रहा तो लोग क्या देखेंगे?’
सलवारसूट पर दुपट्टा ले लो, परदा रहता है.’
पूजा ड्रैस बदले बगैर ही कालेज चली गई. रात के खाने पर पूरा परिवार इकट्ठा बैठा तो भाई ने फिर बहस छेड़ दी.
आधुनिक कपड़े पहन कर कालेज जाती हो, कोई दिक्कत आई तो मुझसे से मत कहना.’  
भाई, तुम जब शौर्ट्स में बाहर जाते हो या पापा लुंगी में टहलते हैं तो तुम्हें कोई दिक्कत आती है?’
मर्द जात खुले सांड की तरह होते हैं, बेटी. हम औरतों को देखभाल कर जीना चाहिए,’ मां बोलीं.
मां की बात बरदाश्त के बाहर हुई तो पूजा ने कहा, ‘क्यों लड़कियां ही सब सीखें? लड़कों को भी कुछ सिखाना चाहिए. उन्हें भी शराफत सीखनी चाहिए. वे आधेअधूरे कपड़ों में मर्द दिखते हैं और हम सिर से पांव तक ढके रहें तभी उन के अहं की तुष्टि होती है, क्यों भला. आप मां हैं, आप तो समझें. आज के समय में मैं 20वीं सदी के कपड़े क्यों अपनाऊं?’  
जो कुछ पूजा ने कहा वह  मुझे बताया तो मैं ने अभिषेक से बात करना चित समझा.
कल को पत्नी को भी ऐसे ही परदा कराओगे. यहां पढ़ाई में, खानेपीने में, कपड़े में, मर्द और औरत का फर्क करने में इतना नहीं  समझ रहे हो कि जो आज दब रही है वह सिर उठाएगी तो कितना कहर ढाएगी. इसलिए बेहतरी इसी में है कि बदलते परिवेश के साथ सोच बदलो.’ मेरी बात पर पूजा खुश हो गई. पहली बार किसी ने उस की ओर से बोला था. फिर मुझे कुछ याद गया तो आपबीती सुनाई


कपड़े दिखाते कौन्फिडैंस


2007 में मेरे पति कुवैत की एक टैलीकौम कंपनी में काम कर रहे थे. बेटी के स्कूल की छुट्टियां हुईं तो हम ने कुवैत घूमने की योजना बनाई. हैदराबाद से कुवैत की सीधी उड़ान थी और हमारी पहली अंतर्राष्ट्रीय उड़ान थी. रात का सफर था. आराम नींद के लिए मैं ने सलवारसूट पहन लिया था. मेरी 8 वर्षीया बेटी विदेश यात्रा को ले कर बहुत उत्साहित थी. हम दोनों जब अपनी सीट तक पहुंचे, अधेड़ उम्र के एक महाशय साइड सीट पर पहले से विराजमान नजर आए.
बेटी को विंडो सीट दे कर मैं बीच वाली सीट पर बैठ गई. बैठी क्या, उसे अटका हुआ समझ जाना चाहिए क्योंकि अच्छे स्वास्थ्य वाले यात्री इकोनौमी क्लास में खुद को किसी तरह फिट कर के ही काम चलाते हैं. यात्रा के दौरान मुझे  वीजा संबंधित कौन सी औपचारिकताएं पूरी करनी हैं, यह सब पति ने फोन पर समझा दिया था. सो, तनावमुक्त थी. मगर मेरे सहयात्री मेरे सीधेसादे पहनावे के कारण मुझे अनाड़ी समझ कर अंतर्राष्ट्रीय उड़ान संबंधित ज्ञान दिए जा रहे थे.
पहले सीट बैल्ट लगाने, फिर वीडियो औन कर देखने का हुनर सिखाया. फिर सामने की सीट से लगे टेबल खोलने बंद करने और एयरहोस्टेस को बुलाने के लिए बटन दबाने की युक्ति समझा दी. इतना ही नहीं, बीचबीच में खींसें निपोरे मेरी ओर देखते जैसे इस अद्भुत ज्ञान के बदले वे वाहवाही के हकदार हैं.
मध्यरात्रि में एक अपरिचित का यों बेतकल्लुफ होना मुझे  कतई रास नहीं रहा था. भलमनसाहत जब भारी लगने लगी तो मैं बेटी की ओर घूम गई. असली राहत तो तब मिली जब बिटिया सोने की तैयारी करने लगी. उस वक्त मैं ने अपना कंधा हलके से उस की सीट की ओर झुकाया और हम दोनों चैन की नींद सो गए.
कुवैत पहुंच कर जब सारा वृत्तांत पति को बताया तो उन की तत्काल प्रतिक्रिया यही थी कि तुम्हें पैंट पहन कर आना था. किसी के कपड़े उस के कौन्फिडैंस को दिखाते हैं. तुम्हें सीधीसादी जान कर टाइम पास कर रहा था. फिर वे स्वयं ही कुछ नए चलन के कपड़े खरीद लाए. उन्हें पहन कर कुवैत से जब लौटी तो मांबेटी अपने में ही मस्त रहे. इस बार हम हवाई यात्रा के अनुभवी हो चुके थे.
मेरा संस्मरण सुन कर सब की खासकर अभिषेक की आंखें फैल गईं. पूजा भी मेरी बातों पर सहमत हुई कि हमें ऐसे कपड़े पहनने चाहिए जिन में दिखावा हो बंधन. परंपरागत अवसर पर भले ही पारंपरिक ड्रैस पहने जाएं मगर सार्वजनिक स्थान पर जब भी दुपट्टे या आंचल से खुद को ढकते हैं तो कौन्फिडैंट के बजाय नाजुक और असहाय नजर आते हैं. असरारुल हक उर्फमजाकसाहब ने क्या खूब लिखा है
तेरे माथे पे यह आंचल
बहुत खूब है लेकिन
तू इस आंचल से एक परचम
बना लेती तो अच्छा था.’
वाकई, आंचल या चूनर में स्त्री के शर्माए, सकुचाए रूप का आभास मिलता है. इसलिए हमें वैसे कपड़े पहनने चाहिए जो केवल हमें ढकें बल्कि हमारा आत्मविश्वास भी बढ़ाएं.
आज के युग में इस अतिरिक्त कपड़े का परचम लहरा कर आंदोलन करने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए.
आखिर, पैरहन हमारी हैं, इसलिए हमेशा वैसे ही कपड़े पहनने चाहिए जो केवल शरीर ढकें बल्कि व्यक्तित्व को निखारें भी. कामकाजी महिलाओं के कपड़े आधुनिक होने के साथ गरिमामय भी होते हैं जिन में कोई भी अतिरिक्त तामझाम नहीं होता. वही तन पर जंचने के साथ आत्मविश्वास में बढ़ोतरी करते हैं. सो, वही पहनने चाहिए.

 

लेखक : आर्य झा

Online Hindi Story : जब भाई बना भाई का दुश्मन

Online Hindi Story : ‘गढ़देशी’ संपत्ति के चक्कर में कितने ही परिवार आपस में लड़ झगड़ कर बिखर गए और दोष समय को देते रहे. ऐसे ही प्रवीण और नवीन थे तो सगे भाई लेकिन रिश्ता ऐसा कि दुश्मन भी शरमा जाए, रार ऐसी कि एकदूसरे को फूटी आंख न सुहाएं. फिर एक दिन… कहते हैं समय राजा को रंक, रंक को राजा बना देता है. कभी यह अधूरा सच लगता है, जब हम गलतियां करते हैं तब करनी को समय से जोड़ देते हैं. इस कहानी के किरदारों के साथ कुछ ऐसा ही हुआ. 2 सगे भाई एकदूसरे के दुश्मन बन गए. जब तक मांबाप थे, रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा का शहर में बड़ा नाम था. रैस्टोरैंट खुलने से देररात तक ग्राहकों का तांता लगा रहता. फुरसत ही न मिलती. पैसों की ऐसी बरसात मानो एक ही जगह बादल फट रहे हों.

समय हमेशा एक सा नहीं रहता. करवटें बदलने लगा. बाप का साया सिर से क्या उठा, भाइयों में प्रौपर्टी को ले कर विवाद शुरू हो गया. किसी तरह जमापूंजी का बंटवारा हो गया लेकिन पेंच रैस्टोरैंट को ले कर फंस गया. आपस में खींचतान चलती रही. घर में स्त्रियां झगड़ती रहीं, बाहर दोनों भाई. एक कहता, मैं लूंगा, दूसरा कहता मैं. खबर को पंख लगे. उधर रिश्ते के मामा नेमीचंद के कान खड़े हो गए. बिना विलंब किए वह अपनी पत्नी और बड़े बेटे को ले कर उन के घर पहुंच गया. बड़ी चतुराई से उस ने ज्ञानी व्यक्ति की तरह दोनों भाइयों, उन की पत्नियों को घंटों आध्यात्म की बातें सुनाईं. सुखदुख पर लंबा प्रवचन दिया. जब देखा कि सभी उस की बातों में रुचि ले रहे हैं, तब वह मतलब की बात पर आया, ‘‘आपस में प्रेमभाव बनाए रखो. जिंदगी की यही सब से बड़ी पूंजी है. रैस्टोरैंट तो बाद की चीज है.’’ नवीन ने चिंता जताई,

‘‘हमारी समस्या यह है कि इसे बेचेंगे, तो लोग थूथू करेंगे.’’ ‘‘थूथू पहले ही क्या कम हो रही है,’’ नेमीचंद सम झाते हुए बोला, ‘‘रैस्टोरैंट ही सारे फसाद की जड़ है. यदि इसे किसी बाहरी को बेचोगे तो बिरादरी के बीच रहीसही नाक भी कट जाएगी.’’ सभी सोच में पड़ गए. ‘‘रैस्टोरैंट एक है. हक दोनों का है. पहले तो मिल कर चलाओ. नहीं चलाना चाहते तो मैं खरीदने की कोशिश कर सकता हूं. समाज यही कहेगा कि रिश्तेदारी में रैस्टोरैंट बिका है…’’ नेमीचंद का शातिर दिमाग चालें चल रहा था. उसे पता था कि सुलह तो होगी नहीं. रैस्टोरैंट दोनों ही रखना चाहते हैं, यही उन की समस्या है. रैस्टोरैंट बेचना इन की मजबूरी है और उसे सोने के अंडे देने वाली मुरगी को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए. आखिरकार, उस की कूटनीति सफल हुई. दोनों भाई रैस्टोरैंट उसे बेचने को राजी हो गए. नेमीचंद ने सप्ताहभर में ही जमाजमाया रैस्टोरैंट 2 करोड़ रुपए में खरीद लिया. बड़े भाई प्रवीण और छोटे भाई नवीन के बीच मसला हल हो गया,

किंतु मन में कड़वाहट बढ़ गई. नेमीचंद ने ‘रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा’ के बोर्ड के नीचे पुराना नाम बदल कर प्रो. नेमीचंद एंड संस लिखवा दिया. रैस्टोरैंट के पुराने स्टाफ से ले कर फर्नीचर, काउंटर कुछ नहीं बदला. एकमात्र मालिकाना हक बदल गया था. दोनों भाई जब भी रैस्टोरैंट के पास से गुजरते, खुद को ठगा महसूस करते. अब दोनों पश्चात्ताप की आग में जलने लगे. दोनों के परिवार पुश्तैनी मकानों में अलगअलग रहा करते थे. दोनों के प्रवेशद्वार अगलबगल थे. बरामदे जुड़े हुए थे, लेकिन बीच में ऊंची दीवार खड़ी थी. दोनों भाइयों की पत्नियां एकदूसरे को फूटी आंख न देखतीं. बच्चे सम झदार थे, मगर मजबूर. भाइयों के बीच कटुता इतनी थी कि एक बाहर निकलता तो दूसरा उस के दूर जाने का इंतजार करता. सभी एकदूसरे की शक्ल देखना पसंद न करते.

रैस्टोरैंट खरीदने के बाद नेमीचंद के दर्शन दुर्लभ हो गए. पहले कुशलक्षेम पूछ लिया करता था. धीरेधीरे नेमीचंद उन की कहानी से गायब ही हो गया. लेदे कर एक बुजुर्ग थे गोकुल प्रसाद. उन के पारिवारिक मित्र थे. जब उन्हें इस घटना की जानकारी हुई तो बड़े दुखी हुए. उसी दिन वे दोनों से मिलने उन के घर चले आए. पहुंचते ही उन्होंने दोनों को एकांत में बुला कर अपनी नाराजगी जताई. फिर बैठ कर सम झाया, ‘‘इस झगड़े में कितना नुकसान हुआ, तुम लोग अच्छी तरह जानते हो. नेमीचंद ने चालाकी की है लेकिन इस में सारा दोष तुम लोगों का है.’’ ‘‘गलती हो गई दादा, रैस्टोरैंट हमारे भविष्य में न था, सो चला गया,’’ प्रवीण पीडि़त स्वर में बोला और दोनों हथेलियों से चेहरा ढक लिया. ‘‘मूर्खता करते हो, दोष भविष्य और समय पर डालते हो,’’ गोकुल प्रसाद ने निराश हो कर लंबी सांस ली, ‘‘सारे शहर में कितनी साख थी रैस्टोरैंट की. खूनपसीने से सींचा था उसे तुम्हारे बापदादा ने.’’ नवीन बेचैन हो गया,

‘‘छोडि़ए, अब जी जलता है मेरा.’’ ‘‘रुपया है तुम्हारे पास. अब सम झदारी दिखाओ. दोनों भाई अलगअलग रैस्टोरैंट खोलो. इस की सम झ तुम लोग रखते हो क्योंकि यह धंधा तुम्हारा पुश्तैनी है.’’ प्रवीण को बात जम गई, ‘‘सब ठीक है. पर एक ही इलाके में पहले से ही एक रैस्टोरैंट है?’’ ‘‘खानदान का नाम भी कुछ माने रखता है,’’ गोकुल प्रसाद ने कहा, ‘‘मैं तुम्हारे पिता का दोस्त हूं, गलत नहीं कहूंगा. खूब चलेगा.’’ ‘‘मैं आप की बात मान लेता हूं,’’ प्रवीण ने कहा, ‘‘इस से भी पूछ लो. इसे रैस्टोरैंट खोलना है या नहीं.’’ नवीन भड़क उठा, ‘‘क्या सम झते हो, तुम खोलो और मैं हाथ पे हाथ धरे बैठा रहूं? ठीक तुम्हारे ही सामने खोलूंगा, देखना.’’ ‘‘क्या हो गया दोनों को? भाई हो कि क्या हो? इतना तो दुश्मन भी नहीं लड़ते,’’ गोकुल प्रसाद झल्लाए और उठने लगे. ‘‘रुकिए दादा. भोजन कर के जाना,’’ प्रवीण ने आग्रह किया. ‘‘आज नहीं. जब दोनों के मन मिलेंगे तब भोजन जरूर करूंगा.’’ गोकुल प्रसाद ने अपनी छड़ी उठाई और अपने घर के लिए चल दिए. दोनों को आइडिया सही लगा.

घर में पत्नियों की राय ली गई और जल्दी ही किराए की जगह पर रैस्टोरैंट खोल दिए. संयोग ऐसा बना कि दोनों को रैस्टोरैंट के लिए जगह आमनेसामने ही मिली. दोनों रैस्टोरैंट चल पड़े. कमाई पहले जैसी तो नहीं थी, तो कम भी न थी. रुपया आने लगा. लेकिन कटुता नहीं गई. दोनों में प्रतिस्पर्धा भी जम कर होने लगी. तू डालडाल, मैं पातपात वाली बात हो गई. दोनों भाइयों में बड़े का रैस्टोरैंट ज्यादा ग्राहक खींच रहा था. इस बात को ले कर नवीन को खासी परेशानी थी. आखिरकार उस ने एक बोर्ड टांग दिया- ‘लंच और डिनर- 100 रुपए मात्र.’ प्रवीण ने भी देखादेखी रेट गिरा दिया, ‘लंच और डिनर- 80 रुपए मात्र.’ ग्राहक को यही सब चाहिए. शहर के लोग लड़ाई का मजा ले रहे थे. मालिकों में तकरार बनी रहे और अपना फायदा होता रहे. नवीन भी चुप नहीं बैठा रहा. कुछ महीनों बाद ही उस ने फिर रेट 75 रुपए कर दिया.

मजबूरन प्रवीण को 60 रुपए पर आना पड़ा. इस तनातनी में 6-7 महीने गुजर गए और आखिर में दोनों रैस्टोरैंट के शटर गिए गए. प्रवीण से सदमा बरदाश्त न हो पाया, उसे एक दिन पक्षाघात हो गया. पासपड़ोसी समय रहते उसे अस्पताल ले गए. आईसीयू में एक सप्ताह बीता, फिर हालत में सुधार दिखा. मोटी रकम इलाज में खर्च हो गई. घर आया, शरीर में जान आने लगी लेकिन आर्थिक तंगी ने उसे मानसिक रूप से बीमार कर दिया. घर की माली हालत अब पहले जैसी न थी. पहले ही झगड़े में काफी नुकसान हो गया था. नवीन की एक बेटी थी मनु. जब भी उसे अकेला पाती, मिलने चली आती. कई दिनों के बाद बरसात आज थम गई थी. आसमान साफ था. प्रवीण स्टिक के सहारे लौन में टहल रहा था. मनु ने उसे देखा तो गेट खोल कर भीतर आ गई. उस ने स्नेह से मनु को देखा और बड़ी उम्मीद से कहा, ‘‘बेटी, पापा से कहना कि ताऊजी एक जरूरी काम से मिलना चाहते हैं.’’ मनु ने हां में सिर हिलाया और पैर छू कर गेट पर खड़ी स्कूटी को फुरती से स्टार्ट किया और कालेज के लिए निकल गई. धूप ढलने लगी, तब मनु कालेज से लौटी. नवीन तब ड्राइंगरूम में बैठा चाय की चुस्कियां ले रहा था. मनु ने किताबें रैक पर रखीं और पापा के सामने वाले सोफे पर जा बैठी. ‘‘पापा, आप कल दिनभर कहां थे?’’ उस ने पूछा.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ ‘‘ऐसे ही पूछ रही हूं,’’ मनु ने सोफे पर बैठे हुए आगे की ओर शरीर झुकाते हुए कहा. ‘‘महल्ले में एक बुजुर्ग की डैथ हो गई थी, इसलिए जाना पड़ा,’’ नवीन ने बताया. ‘‘आप को वहां जाने की जरूरत क्या थी? उन के पासपड़ोसी, रिलेटिव्स तो रहे ही होंगे,’’ मनु ने प्रश्न किया. ‘‘कैसी बेवकूफों वाली बातें कर रही हो. समाज में जीना है तो सब के सुखदुख में शामिल होना चाहिए,’’ नवीन ने सम झाया. ‘‘दैट्स करैक्ट. यही सुनना चाहती थी मैं. जब ताऊजी बीमार पड़े तब यह बात आप की सम झ में क्यों नहीं आई?’’ नवीन को काटो तो खून नहीं. भौंचक्का सा मनु को देखता ही रह गया वह. ‘‘आप और मम्मी ताऊजी को देखने नहीं गए. मैं गई थी सीधे कालेज से, लगातार 3 दिन. मनु कहती रही, ‘‘रौकी भैया भी अस्पताल में थे. मैं ने उन्हें घर चलने को कहा तो बोले, ‘यहां से सीधे होस्टल जाऊंगा.

घर अब रहने लायक नहीं रहा.’’’ ‘‘यह सब मु झे क्यों सुना रही हो?’’ नवीन ने प्रश्न किया. ‘‘इसलिए कि ताऊजी कोई पराए नहीं हैं. आज उन्हें आप की जरूरत है. मिलना चाहते हैं आप से.’’ नवीन ठगा सा रह गया. इस उम्र तक वह जो सम झ न सका, वह छोटी सी उम्र में उसे सिखा रही है. मनु उठी और पापा के गले से लग कर बोली, ‘‘समाज के लिए नहीं, रिश्ते निभाने के लिए ताऊजी से मिलिए. आज और अभी.’’ उधर प्रवीण, नवीन से मिलने को बेचैन था. वह बारबार कलाई घड़ी की सुइयों पर नजरें टिका देता. कभी बरामदे से नीचे मेन गेट की ओर देखने लगता. अंधेरा बढ़ने लगा. रोशनी में कीटपतंगे सिर के ऊपर मंडराने लगे. थक कर वह उठने को हुआ, तभी नवीन आते हुए दिखा. उस ने इशारे से सामने की चेयर पर बैठने को कहा. नवीन कुछ देर असहज खड़ा रहा. मस्तिष्क में मनु की बातें रहरह कर दिमाग में आ रही थीं. वह आगे बढ़ा और चेयर को खींच कर अनमना सा बैठ गया. दोनों बहुत देर तक खामोश रहे.

आखिरकार नवीन ने औपचारिकतावश पूछा, ‘‘तबीयत ठीक है अब?’’ उस ने ‘हां’ कहते हुए असल मुद्दे की बात शुरू कर दी, ‘‘मु झे पैसों की सख्त जरूरत है. मैं ने सोचा है कि मेरे हिस्से का मकान कोई और खरीदे, उस से अच्छा, तु झे बेच दूं. जितना भी देगा, मैं ले लूंगा.’’ नवीन खामोश बैठा रहा. ‘‘सुन रहा है मैं क्या कह रहा हूं?’’ उस ने जोर दे कर कहा. ‘‘सुन रहा हूं, सोच भी रहा हूं. किस बात का झगड़ा था जो हम पर ऐसी नौबत आई. हमारा खून तो एक था, फिर क्यों दूसरों के बहकावे में आए.’’ ‘‘अब पछता कर क्या फायदा? खेत तो चिडि़या कब की चुग गई. मैं ऐसी हालत में न जाने कब तक जिऊंगा. तु झ से दुश्मनी ले कर जाना नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने उदास हो कर बरामदे की छत को ताकते हुए कहा. ‘‘तुम तो बड़े थे, बड़े का फर्ज नहीं निभा पाए. मैं तो छोटा था,’’ नवीन ने उखड़े स्वर में कहा, फिर चश्मा उतार कर रूमाल से नम आंखें साफ करने लगा. ‘‘बड़ा हूं, तो क्या हुआ. छोटे का कोई फर्ज नहीं बनता? खैर छोड़, जो हुआ सो हुआ. अब बता, मेरा हिस्सा खरीदेगा?’’ ‘‘नहीं,’’ नवीन ने सपाट सा जवाब दिया.

‘‘क्यों, क्या हुआ? रैस्टोरैंट बेच कर हम से गलती हो चुकी है. अब मेरी मजबूरी सम झ. भले ही रुपए किस्तों में देना. मैं अब किसी और को बचाखुचा जमीर बेचना नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने फिर दुखी हो कर वजह बताई, ‘‘रौकी की इंजीनियरिंग पूरी हो जाए. यह मेरी अंतिम ख्वाहिश है. शरीर ने साथ दिया तो कहीं किराए पर घर ले कर छोटामोटा धंधा शुरू कर लूंगा.’’ ‘‘हम ने आपस में जंग लड़ी. तुम भी हारे, मैं भी हारा. नुकसान दोनों का हुआ, तो भरपाई भी दोनों को ही करनी है.’’ ‘‘तेरी मंशा क्या है, मैं नहीं जानता. मु झे इतना पता है कि मु झ में अब लड़ने की ताकत नहीं है और लड़ना भी नहीं चाहता,’’ प्रवीण ने टूटे स्वर में कहा. ‘‘मैं लड़ने की नहीं, जोड़ने की बात कह रहा हूं,’’ नवीन ने कुछ देर सोचते हुए जोर दे कर अपनी बात रखी, ‘‘हम लोग मिल कर फिर से रैस्टोरैंट खोलेंगे. अब हम बेचेंगे नहीं, खरीदेंगे.’’ नवीन उठते हुए बोला, ‘‘आज मनु मेरी आंखें न खोलती तो पुरखों की एक और निशानी हाथ से निकल जाती.

’’ प्रवीण आश्चर्य से नवीन को देखता रह गया. उस की आंखें एकाएक बरसने लगीं. गिलेशिकवे खरपतवार की तरह दूर बहते चले गए. ‘‘मकान बेचने की कोई जरूरत नहीं है. सब ठीक हो जाएगा. बिजनैस के लायक पैसा है मेरे पास,’’ जातेजाते नवीन कहता गया. इस बात को लगभग 4 मास हो गए. रैस्टोरैंट के शुभारंभ की तैयारियां शुरू हो गई थीं. इश्तिहार बांटे जा चुके थे. दशहरा का दिन था. रैस्टोरैंट रंगीन फूलों से बेहद करीने से सजा था. शहर के व्यस्ततम इलाके में इस से व्यवस्थित और आकर्षक रैस्टोरैंट दूसरा न था. परिचित लोग दोनों भाइयों को बधाई दे रहे थे. घर की बहुएं वयोवृद्ध गोकुल प्रसाद से उद्घाटन की रस्म निभाने के लिए निवेदन कर रही थीं. गोकुल प्रसाद कोई सगेसंबंधी न थे. पारिवारिक मित्र थे. एक मित्र के नाते उन के स्नेह और समर्पण पर सभी गौरवान्वित हो रहे थे. मनु सितारों जड़े आसमानी लहंगे में सजीधजी आगंतुकों का स्वागत कर रही थी. रौकी, प्रवीण और नवीन के बीच खड़ा तसवीरें खिंचवा रहा था. सड़क पर गुजरते हुए लोग रैस्टोरैंट के बाहर चमचमाते सुनहरे बोर्ड की ओर मुड़मुड़ कर देख रहे थे, जिस पर लिखा था- ‘रैस्टोरैंट अन्नपूर्णा ब्रदरहुड.’’

Hindi Kahani : पति नहीं समझ पाया पत्नी के मन की बात

Hindi Kahani : घंटी बजी तो मैं खीज उठी. आज सुबह से कई बार घंटी बज चुकी थी, कभी दरवाजे की तो कभी टेलीफोन की. इस चक्कर में काम निबटातेनिबटाते 12 बज गए. सोचा था टीवी के आगे बैठ कर इतमीनान से नाश्ता करूंगी. बाद में मूड हुआ तो जी भर कर सोऊंगी या फिर रोहिणी को बुला कर उस के साथ गप्पें मारूंगी, मगर लगता है आज आराम नहीं कर पाऊंगी.

दरवाजा खोला तो रोहिणी को देख मेरी बांछें खिल गईं. रोहिणी मेरी ओर ध्यान दिए बगैर अंदर सोफे पर जा पसरी.

‘‘कुछ परेशान लग रही हो, भाई साहब से झगड़ा हो गया है क्या?’’ उस का उतरा चेहरा देख मैं ने उसे छेड़ा.

‘‘देखा, मैं भी तो यही कहती हूं, मगर इन्हें मेरी परवाह ही कब रही है. मुफ्त की नौकरानी है घर चलाने को और क्या चाहिए? मैं जीऊं या मरूं, उन्हें क्या?’’ रोहिणी की बात का सिरपैर मुझे समझ नहीं आया. कुरेदने पर उसी ने खुलासा किया, ‘‘2 साल की पहचान है, मगर तुम ने देखते ही समझ लिया कि मैं परेशान हूं. एक हमारे पति महोदय हैं, 10 साल से रातदिन का साथ है, फिर भी मेरे मन की बात उन की समझ में नहीं आती.’’

‘‘तो तुम ही बता दो न,’’ मेरे इतना कहते ही रोहिणी ने तुनक कर कहा, ‘‘हर बार मैं ही क्यों बोलूं, उन्हें भी तो कुछ समझना चाहिए. आखिर मैं भी तो उन के मन की बात बिना कहे जान जाती हूं.’’

रोहिणी की फुफकार ने मुझे पैतरा बदलने पर मजबूर कर दिया, ‘‘बात तो सही है, लेकिन इन सब का इलाज क्या है? तुम कहोेगी नहीं, बिना कहे वे समझेंगे नहीं तो फिर समस्या कैसे सुलझेगी?’’

‘‘जब मैं ही नहीं रहूंगी तो समस्या अपनेआप सुलझ जाएगी,’’ वह अब रोने का मूड बनाती नजर आ रही थी.

‘‘तुम कहां जा रही हो?’’ मैं ने उसे टटोलने वाले अंदाज में पूछा.

‘‘डूब मरूंगी कहीं किसी नदीनाले में. मर जाऊंगी, तभी मेरी अहमियत समझेंगे,’’ उस की आंखों से मोटेमोटे आंसुओं की बरसात होने लगी.

‘‘यह तो कोई समाधान नहीं है और फिर लाश न मिली तो भाई साहब यह भी सोच सकते हैं कि तू किसी के साथ भाग गई. मैं बदनाम महिला की सहेली नहीं कहलाना चाहती.’’

‘‘सोचने दो, जो चाहें सोचें,’’ कहने को तो वह कह गई, मगर फिर संभल कर बोली, ‘‘बात तो सही है. ऐसे तो बड़ी बदनामी हो जाएगी. फांसी लगा लेती हूं. कितने ही लोग फांसी लगा कर मरते हैं.’’

‘‘पर एक मुश्किल है,’’ मैं ने उस का ध्यान खींचा, ‘‘फांसी लगाने पर जीभ और आंखें बाहर निकल आती हैं और चेहरा बड़ा भयानक हो जाता है, सोच लो.’’

बिना मेकअप किए तो रोहिणी काम वाली के सामने भी नहीं आती. ऐसे में चेहरा भयानक हो जाने की कल्पना ने उस के हाथपांव ढीले कर दिए. बोली, ‘‘फांसी के लिए गांठ बनानी तो मुझे आती ही नहीं, कुछ और सोचना पड़ेगा,’’ फिर अचानक चहक कर बोली, ‘‘तेरे पास चूहे मारने वाली दवा है न. सुना है आत्महत्या के लिए बड़ी कारगर दवा है. वही ठीक रहेगी.’’

‘‘वैसे तो तेरी मदद करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं, पर सोच ले. उसे खा कर चूहे कैसे पानी के लिए तड़पते हैं. तू पानी के बिना तो रह लेगी न?’’ उस की सेहत इस बात की गवाह थी कि भूखप्यास को झेल पाना उस के बूते की बात नहीं.

रोहिणी ने कातर दृष्टि से मुझे देखा, मानो पूछ रही हो, ‘‘तो अब क्या करूं?’’

‘‘छत से कूदना या फिर नींद की ढेर सारी गोलियां खा कर सोए रहना भी विकल्प हो सकते हैं,’’ मुश्किल वक्त में मैं रोहिणी की मदद करने से पीछे नहीं हट सकती थी.

‘‘ऊफ, छत से कूद कर हड्डियां तो तुड़वाई जा सकती हैं, पर मरने की कोई गारंटी नहीं और गोली खाते ही मुझे उलटी हो जाती है,’’ रोहिणी हताश हो गई.

हर तरकीब किसी न किसी मुद्दे पर आ कर फेल होती जा रही थी. आत्महत्या करना इतना मुश्किल होता है, यह तो कभी सोचा ही न था. दोपहर के भोजन पर हम ने नए सिरे से आत्महत्या की संभावनाओं पर विचार करना शुरू किया तो हताशा में रोहिणी की आंखें फिर बरस पड़ीं. मैं ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, ‘‘कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा, परेशान मत हो.’’

रोहिणी ने छक कर खाना खाया. बाद में 2 गुलाबजामुन और आइसक्रीम भी ली वरना उस बेचारी को तो भूख भी नहीं थी. मेरी जिद ने ही उसे खाने पर मेरा साथ देने को मजबूर किया था.

चाय के दूसरे दौर तक पहुंचतेपहुंचते मुझे विश्वास हो गया कि आत्महत्या के प्रचलित तरीकों से रोहिणी का भला नहीं होने वाला. समस्या से निबटने के लिए नवीन दृष्टिकोण की जरूरत थी. बातोंबातों में मैं ने रोहिणी के मन की बात जानने की कोशिश की, जिस को कहेसुने बिना ही उस के पति को समझना चाहिए था.

बहुत टालमटोल के बाद झिझकते हुए उस ने जो बताया उस का सार यह था कि 2 दिन बाद उसे भाई के साले की बेटी की शादी में जाना था और उस के पास लेटैस्ट डिजाइन की कोई साड़ी नहीं थी. इसलिए 4 माह बाद आने वाले अपने जन्मदिन का गिफ्ट उसे ऐडवांस में चाहिए था ताकि शादी में पति की हैसियत के अनुरूप बनसंवर कर जा सके और मायके में बड़े यत्न से बनाई गई पति की इज्जत की साख बचा सके.

मुझे उस के पति पर क्रोध आने लगा. वैसे तो बड़े पत्नीभक्त बने फिरते हैं, पर पत्नी के मन की बात भी नहीं समझ सकते. अरे, शादीब्याह पर तो सभी नए कपड़े पहनते हैं. रोहिणी तो फिर भी अनावश्यक खर्च बचाने के लिए अपने गिफ्ट से ही काम चलाने को तैयार है. लोग तनख्वाह का ऐडवांस मांगते झिझकते हैं, यहां तो गिफ्ट के ऐडवांस का सवाल है. भला एक सभ्य, सुसंस्कृत महिला मुंह खोल कर कैसे कहेगी? पति को ही समझना चाहिए न.

‘‘अगर मैं बातोंबातों में भाई साहब को तेरे मन की बात समझा दूं तो कैसा रहे?’’ अचानक आए इस खयाल से मैं उत्साहित हो उठी. असल में अपनी प्यारी सहेली को उस के पति की लापरवाही के कारण खो देने का डर मुझे भी सता रहा था.

एक पल के लिए खिल कर उस का चेहरा फिर मुरझा गया और बोली, ‘‘उन्हें फिर भी न समझ आई तो?’’

मैं अभी ‘तो’ का जवाब ढूंढ़ ही रही थी कि टेलीफोन घनघना उठा. फोन पर रोहिणी के पति की घबराई हुई आवाज ने मुझे चौंका दिया.

‘‘रोहिणी मेरे पास बैठी है. हां, हां, वह एकदम ठीक है,’’ मैं ने उन की घबराहट दूर करने की कोशिश की.

‘‘मैं तुरंत आ रहा हूं,’’ कह कर उन्होंने फोन काट दिया. कुछ पल भी न बीते थे कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

दरवाजा खोला तो रोहिणी के पति सामने खड़े थे. रोहित भी आते दिखाई दे गए. इसलिए मैं चाय का पानी चढ़ाने रसोई में चली गई और रोहित हाथमुंह धो कर रोहिणी के पति से बतियाने लगे.

रोहिणी की समस्या के निदान हेतु मैं बातों का रुख सही दिशा में कैसे मोड़ूं, इसी पसोपेश में थी कि रोहिणी ने पति के ब्रीफकेस में से एक पैकेट निकाल कर खोला. कुंदन और जरी के खूबसूरत काम वाली शिफोन की साड़ी को उस ने बड़े प्यार से उठा कर अपने ऊपर लगाया और पूछा, ‘‘कैसी लग रही है? ठीक तो है न?’’

‘‘इस पर तो किसी का भी मन मचल जाए. बहुत ही खूबसूरत है,’’ मेरी निगाहें साड़ी पर ही चिपक गई थीं.

‘‘पूरे ढाई हजार की है. कल शोकेस में लगी देखी थी. इन्होंने मेरे मन की बात पढ़ ली, तभी मुझे बिना बताए खरीद लाए,’’ रोहिणी की चहचहाट में गर्व की झलक साफ थी.

एक यह है, पति को रातदिन उंगलियों पर नचाती है, फिर भी मुंह खोलने से पहले ही पति मनचाही वस्तु दिलवा देते हैं. एक मैं हूं, रातदिन खटती हूं, फिर भी कोई पूछने वाला नहीं. एक तनख्वाह क्या ला कर दे देते हैं, सोचते हैं सारी जिम्मेदारी पूरी हो गई. साड़ी तो क्या कभी एक रूमाल तक ला कर नहीं दिया. तंग आ गई हूं मैं इन की लापरवाहियों से. किसी दिन नदीनाले में कूद कर जान दे दूंगी, तभी अक्ल आएगी, मेरे मन का घड़ा फूट कर आंखों के रास्ते बाहर आने को बेताब हो उठा. लगता है अब अपनी आत्महत्या के लिए रोहिणी से दोबारा सलाहमशवरा करना होगा.

 

लेखिका : शिखा गुप्ता

Emotional Hindi Story : अब कोई नाता नहीं

Emotional Hindi Story : “मुझे माफ करना, अतुल. मैं ने तुम्हारा बहुत अपमान किया है, तिरस्कार किया है और कई बार तुम्हारा मजाक भी उड़ाया है. मगर आज जब मुझे अपने बेटे की सब से ज्यादा जरूरत थी तब तुम ही मेरे करीब थे. अगर आज तुम न होते तो न जाने मेरा क्या हाल होता. मैं शायद इस दुनिया में न होता. अतुल बेटा, हम दोनों तो बिलकुल अकेले पड़ गए थे. अब तो मुझे सुमित को अपना बेटा कहने में भी शर्म आ रही है. उसे विदेश क्या भेजा, वह विदेशी हो कर रह गया, मांबाप को भी भूल गया. अब मेरा उस से कोई नाता नहीं,” यह कहते हुए कांता प्रसाद फफकफफक कर रो पड़े, उन्होंने अतुल को खींच कर गले लगा लिया.

अतुल की आंखें भी नम हो गईं., वह अतीत की यादों में खो गया. अतुल के पिता रमाकांत की एक छोटी सी मैडिकल शौप थी जो सरकारी अस्पताल के सामने थी. परिवार की आर्थिक स्थिति विकट होने से अतुल ज्यादा पढ़ नहीं पाया था. कक्षा 12 वीं उत्तीर्ण करने के बाद उस ने फार्मेसी में डिप्लोमा किया और अपने पिता के साथ दुकान में उन का हाथ बंटाने लगा.

एक ही शहर में दोनों भाइयों का परिवार रहता था मगर रिश्तों में मधुरता नहीं थी. कांता प्रसाद और छोटे भाई राम प्रसाद के बीच अमीरीगरीबी की दीवार दिनबदिन ऊंची होती जा रही थी. दोनों भाइयों के बीच एक बार पैसों के लेनदेन को ले कर अनबन हो गई थी जिस के कारण उन के बीच कई सालों से बोलचाल बंद थी. होलीदीवाली जैसे त्योहारों पर महज औपचारिकता निभाते हुए उन के बीच मुलाकात होती थी.

अतुल के ताऊजी कांता प्रसाद एक प्राइवेट बैंक में मैंनेजर थे जो अपने इकलौते बेटे सुमित की पढ़ाई के लिए पानी की तरह पैसा बहा रहे थे. सुमित शहर की सब से महंगे और मशहूर पब्लिक स्कूल में पढ़ता था. जब कभी अतुल उन से बैंक में या घर पर मिलने जाता था तब वे उस का मजाक उड़ाते हुए कहते थे–

‘अरे अतुल, एक बार कालेज का तो मुंह देख लेता. अभी 20-22 का हुआ नहीं कि दुकानदारी करने बैठ गया. कालेजलाइफ कब एंजौय करेगा? तेरा बाप क्या पैसा साथ ले कर जाएगा?’

‘नहीं ताऊजी, ऐसी बात नहीं है. मेरी भी आगे पढ़ने की इच्छा है और पापा भी मुझे पढ़ाना चाहते हैं पर मैं अपने घर की आर्थिक स्थिति से अच्छी तरह से अवगत हूं. मैं ने ही उन्हें मना कर दिया कि मुझे आगे नहीं पढ़ना है. निशा और दिशा को पहले पढ़ानालिखाना है ताकि वे पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएं जिस से उन के विवाह में अड़चन न आए. एक बार उन के हाथ पीले हो जाएं तो मम्मीपापा की चिंता मिट जाएगी. वे दोनों आएदिन निशा और दिशा की चिंता करते हैं. आजकल के लड़के पढ़ीलिखी और नौकरी करने वाली लड़कियां ही ज्यादा पसंद करते हैं. ताऊजी, आप को तो पता ही है कि हमारी मैडिकल शौप से ज्यादा आमदनी नहीं होती. सरकारी अस्पताल के सामने मैडिकल की पचासों दुकानें हैं. कंपीटिशन बहुत बढ़ गया है. फिर आजकल औनलाइन का भी जमाना है. मेरा क्या है, मैं निशा और दिशा की विदाई के बाद भी प्राइवेटली कालेज कर लूंगा पर अभी परिवार की जिम्मेदारी निभाना जरूरी है.’

अतुल ने अपनी मजबूरी बताते हुए कहा तो कांता प्रसाद को बड़ा ताज्जुब हुआ कि अतुल खेलनेकूदने की उम्र में इतनी समझदारी व जिम्मेदारी की बातें करने लग गया है. और एक उन का बेटा सुमित जो अतुल की ही उम्र का है मगर उस पर अभी भी बचपना और अल्हड़पन सवार था, वह घूमनेफिरने और मौजमस्ती में ही मशगूल है. कांता प्रसाद के पास रुपएपैसों की कमी न थी. उन के बैंक के कई अधिकारियों के बेटे विदेशों में पढ़ रहे थे, सो  कांता प्रसाद ने भी सुमित को विदेश भेजने के सपने संजो कर रखे थे.

वक्त बीत रहा था. सुमीत इंजीनियरिंग में बीई करने के बाद एमएस के लिए आस्ट्रेलिया चला गया. इसी बीच कांता प्रसाद बैंक से सेवानिवृत हो गए. पत्नी रमा के साथ आराम की जिंदगी बसर कर रहे थे. सुमित के लिए विवाह के ढेरों प्रस्ताव आने शुरू हो गए थे. अपना इकलौता बेटा विदेश में है, यह सोच कर ही कांता प्रसाद मन ही मन फूले न समाते थे. अब तो वे ज़मीन से दो कदम ऊपर ही चलने लगे थे. जब भी कोई रिश्तेदार या दोस्त मिलता तो वे सुमित की तारीफ में कसीदे पढ़ने लग जाते. कुछ दिन तक तो परिवार के सदस्य और यारदोस्त उन का यह रिकौर्ड सुनते रहे मगर धीरेधीरे उन्हें जब बोरियत होने लगी तो वे उन से कन्नी काटने लगे.

वक्त अपनी रफ्तार से चल रहा था. सुमित को आस्ट्रेलिया जा कर 3 साल का वक्त हो गया था. एक दिन सुमित ने बताया कि उस ने एमएस की डिग्री हासिल कर ली है और वह अब यूएस जा रहा है जहां उसे एक मल्टीनैशनल कंपनी में मोटे पैकेज की नौकरी भी मिल गई है. कांता प्रसाद के लिए यह बेशक बहुत ही बड़ी खुशी की बात थी.

कांता प्रसाद और रमा अभी खुशी के इस नशे में चूर थे कि एक दिन सुमित ने बताया कि उस ने अपनी ही कंपनी में नौकरी करने वाली एक फ्रांसीसी लड़की एडेला से शादी कर ली है. सुमित के विवाह को ले कर सपनों के खूबसूरत संसार में खोए हुए कांता प्रसाद और रमा बहुत ही जल्दी यथार्थ के धरातल पर धराशायी हो गए. अब तो दोनों अपने घर में ही बंद हो कर रह गए. लड़की वालों के फोन आने पर ‘अभी नहीं, अभी नहीं’ कह कर टालते रहे. कांता प्रसाद और रमा ने सुमित के विवाह की बात छिपाने की बहुत कोशिश की मगर जिस तरह प्यार और खांसी छिपाए नहीं छिपती, उसी तरह सुमित के विदेशी लड़की से विवाह करने की बात उन के करीबी रिश्तेदारों के बीच बहुत ही जल्दी फैल गई. परिणास्वरूप रिश्तेदारों एवं करीबी लोगों ने उन से किनारा करना शुरू कर दिया.

उधर, सुमित दिनबदिन अपने काम में इतना मसरूफ हो गया था कि वह महीनों तक अपने मातापिता को फोन नहीं कर पाता था. यहां से कांता प्रसाद और रमा फोन करते तो वह कभी काम में व्यस्त बता कर या मीटिंग में है, कह कर फोन काट देता था. अब तो कांता प्रसाद और रमा बिलकुल अकेले पड़ गए थे. छोटीमोटी बीमारी होने पर उन्हें पड़ोसियों का सहारा लेना पड़ता था. मगर हर बार यह मुमकिन नहीं था कि जब उन्हें जरूरत पड़े तब पड़ोसी उन की सेवा में हाजिर हो जाएं. इसी बीच देश में कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने कहर ढाना शुरू कर दिया. लौकडाऊन के कारण कामवाली बाई यशोदा ने आना बंद कर दिया और घरेलू नौकर किशन अपने गांव चला गया. लोग अपनेअपने घरों में बंद हो गए. रमा को दमे की शिकायत थी, तो कांता प्रसाद डायबेटिक थे. चिंता और तनाव ने दोनों को और अधिक बीमार बना दिया था. सुमित इस संकट की घड़ी में व्हाट्सऐप पर ‘टेक केयर, बाहर बिलकुल मत जाना, और जाना पड़ जाए तो मास्क पहन कर जाना, सैनिटाइजर का उपयोग करते रहना, बारबार साबुन से हाथ धोते रहना, सोशल दूरी बनाए रखना’ जैसे महज औपचारिक संदेश नियमित रूप से भेज कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता था.

एक दिन रात में कांता प्रसाद को तेज बुखार आया. उन्हें लगा, मौसम बदलने से आया होगा. घर में ही दवा खा ली. मगर बुखार न उतरा. 2 दिनों बाद उन्हें सांस लेने में तकलीफ होने लगी और मुंह का स्वाद चला गया. तब रमा को पता चला कि ये तो कोरोना के लक्षण हैं. रात में करीब 1 बजे उन्होंने अतुल को फोन किया और सारी बात बताई. अतुल और उस के पिता ने तुरंत भागदौड़ शुरू कर दी. अतुल ने एक सामाजिक संस्था के यहां से एम्ब्युलैंस मंगवाई और अपने पिता के साथ कांता प्रसाद के घर के लिए रवाना हो गया. बीच रास्ते में अतुल अस्पतालों में बैड की उपलब्धता के लिए लगातार फोन कर रहा था. दोतीन अस्पतालों से नकारात्मक उत्तर मिला, मगर एक अस्पताल में एक बैड मिल गया. अतुल ने कांता प्रसाद को फोन कर के अस्पताल जाने के लिए तैयार रहने के लिए कहा. रात करीब 2 बजे कांता प्रसाद को एक अस्पताल के कोरोना वार्ड में एडमिट कर दिया और ट्रीटमैंट चालू हो गया.

रमा की आंखों में छिपा हुआ नीर आंसुओं का रूप धारण कर उस के गालों को भिगोने लगा जिसे देख अतुल ने कहा–

‘ताईजी, प्लीज आंसू न बहाओ. अब चिंता की बात नहीं है. यह शहर का बहुत अच्छा अस्पताल है. ताऊजी जल्दी ही स्वस्थ हो जाएंगे. ताईजी, अब आप हमारे घर चलो. ताऊजी के ठीक होने तक आप हमारे ही घर पर रहना. अस्पताल में कोरोना मरीज के रिश्तेदारों को ठहरने की अनुमति नहीं है.’

रमा का कंठ रुंध गया था. वह बोल नहीं पा रही थी. खामोशी से अतुल के साथ रवाना हो गई.

कांता प्रसाद का औक्सीजन लैवल कम हो जाने से कुछ दिनों तक उन्हें वैंटिलेटर पर रखा गया. फिर उन्हें जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया. डाक्टरों ने बताया कि समय पर बैड मिल जाने से उन की जान बच गई है. कुछ ही दिनों के बाद उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई. कांता प्रसाद मन ही मन सोच रहे थे कि आज अतुल उन की सहायता के लिए दौड़ कर न आता तो न जाने उन का क्या हाल होता. इस कोरोना महामारी ने आज इंसान को इंसान से दूर कर दिया है. कोरोना का नाम सुनते ही अपने लोग ही दूरियां बना लेते हैं. ऐसे में अतुल और राम प्रसाद ने अपनी जान की परवा किए बगैर उन की हर संभव सहायता की थी. बुरे वक्त में अतुल ही उन के काम आया था, उन के अपने बेटे सुमित ने तो उन से अब महज औपचारिक रिश्ता बना कर रखा था. वे मन ही मन सोचने लगे कि अब उस से तो नाता रखना बेकार है.

अतुल के साथसाथ कांता प्रसाद भी अतीत की यादों से वर्तमान में लौटे. वे अभी भी अतुल को अपने गले से लगाए हुए थे. अतुल ने अपने आप को उन से अलग करते हुए कहा–

“ताऊजी, पुरानी बातों को छोड़ दीजिए, मैं तो आप के बेटे के समान हूं. क्या पिता अपने बेटे को डांटताफटकारता नहीं है. फिर आप तो मेरे बड़े पापा हैं. मुझे आप की बातों का कभी बुरा नहीं लगा. अब आप अतीत की कटु यादों को बिसरा दो और अपनी तबीयत का ध्यान रखो. अपनी मैडिकल की दुकान होने से कई बार अस्पतालों में जाना पड़ता है, इसी कारण कुछेक डाक्टरों से मेरी पहचान हो गई है. इसलिए आप को बैड मिलने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई और आप का समय पर इलाज हो गया. अब आप को डाक्टरों ने सख्त आराम की हिदायत दी है.“

बाद में वह ताईजी की ओर मुखातिब होते हुए बोला–

“ताईजी, अब आप ताऊजी के पास ही बैठी रहोगी और इन का पूरा ध्यान रखोगी, साथ ही, अपना भी ध्यान रखोगी. अब आप की उम्र हो गई है, सो आप दोनों को आराम करना चाहिए. अब आप दोनों को किसी तरह की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है. अभी कुछ ही देर में दिशा और निशा यहां पर आ रही हैं. वे किचन संभाल लेंगी और घर का सारा काम भी वे दोनों कर लेंगी.“

अभी अतुल ने अपनी बात समाप्त भी नहीं की कि राम प्रसाद ने अपनी पत्नी सरला और दोनों बेटियों के साथ घर में प्रवेश किया.

राम प्रसाद भीतर आते ही कांता प्रसाद के पैर छूने के लिए आगे बढ़े तो कांता प्रसाद ने उन्हें अपने गले से लगा लिया. दोनों की आंखों से गंगाजमुना बहने लगी. एक लंबे अरसे से दोनों के मन में जमा सारा मैल पलभर में आंसुओं में बह गया.

दोनों भाइयों को वर्षों बाद गले मिलते देख परिवार के अन्य सदस्यों की आंखें भी पनीली हो गईं. निशा और दिशा सभी के लिए चायनाश्ता बनाने के लिए रसोई घर की ओर मुड़ गई. बैठक में कुछ देर तक निस्तब्धता छायी रही जिसे अतुल ने भंग करते हुए कहा–

“ताऊजी, एक बात कहूं, कोरोना महामारी ने लोगों के बीच दूरियां जरूर बढ़ाई हैं पर हमारे लिए कोरोना लकी साबित हुआ है क्योंकि इस ने 2 परिवारों की दूरियां मिटाई हैं.” यह कहते हुए वह जोर से हंसने लगा, अतुल की हंसी ने गमगीन माहौल को खुशनुमा बना दिया.

कांता प्रसाद और राम प्रसाद की नम आंखों में भी हंसी चमक उठी. कांता प्रसाद ने अतुल को इशारे से अपने करीब बुलाया और अपने पास बैठाते हुए कहा–

“अतुल बेटा, एक बात ध्यान से सुनना, सरकारी अस्पताल के सामने मैं ने अपनी एक दुकान बनवारीलाल को किराए पर दे रखी है न, वह इस महीने की 30 तारीख को खाली कर रहा है. अब तुम इस दुकान में शिफ्ट हो जाना, आज से यह दुकान तुम्हारी है, समझे. मैं जल्दी ही वकील से यह दुकान तुम्हारे नाम करवाने के लिए बात कर लूंगा.”

अतुल बीच में बोल पड़ा–

“नहीं ताऊजी, मेरी अपनी दुकान अच्छी चल रही है. प्लीज, आप ऐसा न करें.”

“अरे अतुल, मुझे पता है, तेरी दुकान कितनी अच्छी चलती है, एक कोने में तेरी छोटी सी दुकान है और अस्पताल से बहुत दूर भी. बस, तू मेरी बात मान ले. अपने ताऊजी से बहस न कर,” कांता प्रसाद ने मुसकराते हुए अतुल को डांट दिया.

“भाईसाहब, आप ऐसा न करें, दुकान भले ही चलाने के लिए हमें किराए पर दे दें पर इसे अतुल के नाम पर न करें, सुमित…”

राम प्रसाद भविष्य का विचार करते हुए सुझाव देने लगे तो कांता प्रसाद किंचित आवेश में बीच में बोल पड़े, “अरे रामू, यह मेरी प्रौपर्टी है, मैं चाहे जिसे दे दूं. सुमित से अब हम कोई नाता नहीं रखना नहीं चाहते हैं. अब वह हमारा नहीं रहा. सुमित ने तो अपनी अलग दुनिया बसा ली है. उसे हम दोनों की कोई जरूरत नहीं है. अब तो अतुल ही हमारा बेटा है.”

कांता प्रसाद की आंखें फिर छलक गईं. राम प्रसाद ने इस समय बात को और आगे बढ़ाना उचित न समझा.

कुछ ही देर में निशा और दिशा किचन से नाश्ता ले कर बाहर आ गईं. रमा ने निशा और दिशा को अपने पास बैठाया. दोनों रमा के दाएंबाएं बैठ गईं. रमा ने दोनों के सिर पर हाथ रखते हुए कहा–

“ये जुड़वां बहनें जब छोटी थीं तब दोनों छिपकली की तरह मुझ से चिपकी रहती थीं. रात को सरला बेचारी सो नहीं पाती थी. तब मैं एक को अपने पास सुलाती थी. इन का पालनपोषण करना सरला के लिए तार पर कसरत करने के समान था. देखो, अब ये कितनी बड़ी हो गई हैं.” यह कहते हुए रमा निशा और दिशा का माथा चूमने लगी, फिर कांता प्रसाद की ओर मुखातिब होते हुए बोली–

“आप ने बहुत बातें कर लीं जी, अब मेरी बात भी सुन लो. मैं ने निशा और दिशा का कन्यादान करने का निर्णय लिया है. इन दोनों के विवाह का संपूर्ण खर्च मैं करूंगी. अतुल इन्हें जितना पढ़ना है, पढ़ने देना और अगर तुम प्राइवेटली आगे पढ़ना चाहो तो पढ़ सकते हो. अब तुम्हें और तुम्हारे मम्मीपापा को निशा-दिशा की चिंता करने की जरूरत नहीं है.“

“रमा, तुमने तो मेरे मुंह की बात छीन ली है. मैं भी यही कहने वाला था. हम तो बेटी के लिए तरस रहे थे. ये अपनी ही तो बेटियां हैं.”

कांता प्रसाद ने उत्साहित होते हुए कहा तो उन का चेहरा खुशी से चमक उठा मगर उन की बातें सुन कर राम प्रसाद और मूकदर्शक बन कर बैठी सरला की आंखों से आंसुओं की धारा धीरेधीरे बहने लग गई. माहौल फिर गंभीर बन रहा था,  इस बार निशा ने माहौल को हलकाफुलका करते हुए कहा–

“आप सब तो बस बातें करने में ही मशगूल हो गए हैं. चाय की ओर किसी का ध्यान ही नहीं है. देखो, यह ठंडी हो गई है. मैं फिर से गरम कर के लाती हूं.“ यह कहते हुए निशा उठी तो उस के साथसाथ दिशा भी खड़ी हो गई. दिशा ने सभी के सामने रखी नाश्ते की खाली प्लेटें उठाईं तो निशा ने ठंडी चाय से भरे कप उठाए. फिर दोनों किचन की ओर मुड़ गईं जिन्हें कांता प्रसाद और रमा अपनी नज़रों से ओझल हो जाने तक डबडबाई आंखों से देखते रहे.

Hindi Story : निशा फोन पर किससे बात करती थी

Hindi Story : देर रात गए घर के सारे कामों से फुरसत मिलने पर जब रोहिणी अपने कमरे में जाने लगी तभी उसे याद आया कि वह छत से सूखे हुए कपड़े लाना तो भूल ही गई है. बारिश का मौसम था. आसमान साफ था तो उस ने कपड़ों के अलावा घर भर की चादरें भी धो कर छत पर सुखाने डाल दी थीं. थकान की वजह से एक बार तो मन हुआ कि सुबह ले आऊंगी, लेकिन फिर ध्यान आया कि अगर रात में कहीं बारिश हो गई तो सारी मेहनत बेकार चली जाएगी. फिर रोहिणी छत पर चली गई.

वह कपड़े उठा ही रही थी कि छत के कोने से उसे किसी के बात करने की धीमीधीमी आवाज सुनाई दी. रोहिणी आवाज की दिशा में बढ़ी. दायीं ओर के कमरे के सामने वाली छत पर मुंडेर से सट कर खड़ा हुआ कोई फोन पर धीमी आवाज में बातें कर रहा था. बीचबीच में हंसने की आवाज भी आ रही थी. बातें करने वाले की रोहिणी की ओर पीठ थी इसलिए उसे रोहिणी के आने का आभास नहीं हुआ, मगर रोहिणी समझ गई कि यह कौन है.

रोहिणी 3-4 महीनों से निशा के रंगढंग देख रही थी. वह हर समय मोबाइल से चिपकी या तो बातें करती रहती या मैसेज भेजती रहती. कालेज से आ कर वह कमरे में घुस कर बातें करती रहती और रात का खाना खाने के बाद जैसे ही मोबाइल की रिंग बजती वह छत पर भाग जाती और फिर घंटे भर बाद वापस आती.

रोहिणी के पूछने पर बहाना बना देती कि सहेली का फोन था या पढ़ाई के बारे में बातें कर रही थी. लेकिन रोहिणी इतनी नादान नहीं है कि वह सच न समझ पाए. वह अच्छी तरह जानती थी कि निशा फोन पर लड़कों से बातें करती है. वह भी एक लड़के से नहीं कई लड़कों से.

‘‘निशा इतनी रात गए यहां अंधेरे में क्या कर रही हो? चलो नीचे चलो,’’ रोहिणी की कठोर आवाज सुन कर निशा ने चौंक कर पीछे देखा.

‘‘चल यार, मैं तुझे बाद में काल करती हूं बाय,’’ कह कर निशा ने फोन काट दिया और बिना रोहिणी की ओर देखे नीचे जाने लगी.

‘‘तुम तो एकडेढ़ घंटा पहले छत पर आई थीं निशा, तब से यहीं हो? किस से बातें कर रही थीं इतनी देर तक?’’ रोहिणी ने डपट कर पूछा.

निशा बिफर कर बोली, ‘‘अब आप को क्या अपने हर फोन काल की जानकारी देनी पड़ेगी चाची? आप क्यों हर समय मेरी पहरेदारी करती रहती हैं? किस ने कहा है आप से? मेरा दोस्त है उस से बातें कर रही थी.’’

‘‘निशा, बड़ों से बातें करने की भी तमीज नहीं रही अब तुम्हें. मैं तुम्हारे भले के लिए ही तुम्हें टोकती हूं,’’ रोहिणी गुस्से से बोली.

‘‘मेरा भलाबुरा सोचने के लिए मेरी मां हैं. सच तो यह है कि आप मुझ से जलती हैं. आप की बेटी मेरे जितनी सुंदर नहीं है. उस का मेरे जैसा बड़ा सर्कल नहीं है, दोस्त नहीं हैं. इसीलिए मेरे फोन काल से आप को जलन होती है,’’ निशा कठोर स्वर में बोल कर बुदबुदाती हुई नीचे चली गई.

कपड़ों को हाथ में लिए हुए रोहिणी स्तब्ध सी खड़ी रह गई. उस की गोद में पली लड़की उसे ही उलटासीधा सुना गई.

रोहिणी की बेटी ऋचा निशा से कई गुना सुंदर है, लेकिन हर समय सादगी से रहती है और पढ़ाई में लगी रहती है.

रोहिणी बचपन से ही उसे समझती आई है और ऋचा ने बचपन से ले कर आज तक उस की बताई बात का पालन किया है. वह अपने आसपास फालतू भीड़ इकट्ठा करने में विश्वास नहीं करती. तभी तो हर साल स्कूल और कालेज में टौप करती आई है.

लेकिन निशा संस्कार और गुणों पर ध्यान न दे कर हर समय दोस्तों व सहेलियों से घिरे रहना पसंद करती है. तारीफ पाने के लिए लेटैस्ट फैशन के कपड़े, मेकअप बस यही उस का प्रिय शगल है और इसी में वह अपनी सफलता समझती है. तभी तो ऋचा से 2 साल बड़ी होने के बावजूद भी उसी की क्लास में है.

नीचे जा कर रोहिणी ने ऋचा के कमरे में झांक कर देखा. ऋचा पढ़ रही थी, क्योंकि वह पी.एस.सी. की तैयारी कर रही थी. रोहिणी ने अंदर जा कर उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरा और अपने कमरे में आ गई.

‘जिंदगी में हर बात का एक नियत समय होता है. समय निकल जाने के बाद सिवा पछतावे के कुछ हासिल नहीं होता. इसलिए जीवन में अपने लक्ष्य और प्राथमिकताएं तय कर लेना और उन्हीं के अनुसार प्रयत्न करना,’ यही समझाया था रोहिणी ने ऋचा को हमेशा. और उसे खुशी थी कि उस की बेटी ने जीवन का ध्येय चुनने में समझदारी दिखाई है. पूरी उम्मीद है कि ऋचा अपने लक्ष्य प्राप्ति में अवश्य सफल होगी.

अगले दिन ऋचा और निशा के कालेज जाने के बाद रोहिणी ने अपनी जेठानी से बोली कि निशा आजकल रोज घंटों फोन पर अलगअलग लड़कों से बातें करती है. आप जरा उसे समझाइए. लेकिन बदले में जेठानी का जवाब सुन कर वह अवाक रह गई.

‘‘करने दे रे, यही तो दिन हैं उस के हंसनेखेलने के. बाद में तो उसे हमारी तरह शादी की चक्की में ही पिसना है. बस बातें ही तो कर रही है न और वैसे भी सभी लड़के एक से एक अमीर खानदान से हैं.’’

रोहिणी को समझते देर नहीं लगी कि जेठानी की मनशा क्या है. वैसे भी उन्होंने निशा को ऐसे ढांचे में ही ढाला है कि अमीर खानदान में शादी कर के ऐश से रहना ही उस का एकमात्र ध्येय है. अमीर परिवार के इतने लड़कों में से वह एक मुरगा तो फांस ही लेगी.

रोहिणी को जेठानी की बात अच्छी नहीं लगी, लेकिन उस ने समझ लिया कि उन से और निशा से कुछ भी कहनासुनना बेकार है. वह ऋचा को उन दोनों से भरसक दूर रखने का प्रयत्न करती. वह नहीं चाहती थी कि ऋचा का ध्यान इन बातों पर जाए.

कई महीनों तक रोहिणी ऋचा की पढ़ाई को ले कर व्यस्त रही. उस ने निशा को टोकना छोड़ दिया और अपना सारा ध्यान ऋचा पर केंद्रित कर लिया. आखिर बेटी के भविष्य का सवाल है. रोहिणी अच्छी तरह समझती थी कि बेटी को अच्छे संस्कार दे कर बड़ा करना और बुरी सोहबत से बचा कर रखना एक मां का फर्ज होता है.

एक दिन रोहिणी ने निशा के हाथ में बहुत महंगा मोबाइल देखा तो उस का माथा ठनका. निशा और उस की मां की आपसी बातचीत से पता चला कि कुछ दिन पहले किसी हिमेश नामक लड़के से निशा की दोस्ती हुई है और उसी ने निशा को यह मोबाइल उपहार में दिया है.

जेठानी रोहिणी की ओर कटाक्ष कर के कहने लगीं कि लड़का आई.ए.एस. है. खानदान भी बहुत ऊंचा और अमीर है. निशा की तो लौटरी खुल गई. अब तो यह सरकारी अफसर की पत्नी बनेगी.

रोहिणी को इस बात पर बड़ी चिंता हुई. कुछ ही दिनों की दोस्ती पर कोई किसी पर इतना पैसा खर्च कर सकता है, यह बात उस के गले नहीं उतर रही थी.

उस ने अपने पति नीरज से बात की तो नीरज ने कहा, ‘‘मैं भी धीरज भैया को कह चुका हूं, लेकिन तुम तो जानती हो, वे भाभी और बेटी के सामने खामोश रहते हैं. तुम जबरन तनाव मत पालो. ऋचा पर ध्यान दो.

जब उन्हें अपनी बेटी के भविष्य की चिंता नहीं है तो हम क्यों करें? समझाना हमारा काम था हम ने कर दिया.’’

रोहिणी को नीरज की बात ठीक लगी. उस ने तो निशा को भी अपनी बेटी समान ही समझा, पर अब जब मांबेटी दोनों अपने आगे किसी को कुछ समझती ही नहीं तो वह भी क्या करे.

अगले कुछ महीनों में तो निशा अकसर हिमेश के साथ घूमने जाने लगी. कई बार रात में पार्टियां अटैंड कर के देर से घर आती. उस के कपड़ों से महंगे विदेशी परफ्यूम की खुशबू आती.

कपड़े दिन पर दिन कीमती होते जा रहे थे. रोहिणी ने कभी ऋचा और निशा में भेद नहीं किया था, इसलिए उस के भविष्य के बारे में सोच कर उस के मन में भय की लहर दौड़ जाती. पर वह मन मसोस कर मर्यादा का अंशअंश टूटना देखती रहती. घर में 2 विपरीत धाराएं बह रही थीं.

ऋचा सारे समय अपनी पढ़ाई में व्यस्त रहती और निशा सारे समय हिमेश के साथ अपने सुनहरे भविष्य के सपनों में खोई रहती. उस के पैर जमीन पर नहीं टिकते थे. उस के सुंदर दिखने के उपायों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही थी. वह ऋचा और रोहिणी को ऐसी हेय दृष्टि से देखती थी मानो हिमेश का सारा पैसा और पद उसी का हो.

ऋचा के बी.ए. फाइनल और पी.एस.सी. प्रिलिम्स के इम्तिहान हो गए, लेकिन आखिरी पेपर दे कर आने के तुरंत बाद ही वह अन्य परीक्षा की तैयारियों में जुट गई. उस की दृढ़ता और विश्वास देख कर रोहिणी और नीरज भी आश्वस्त थे कि वह पी.एस.सी. की परीक्षा में जरूर सफल हो जाएगी.

और वह दिन भी आ गया जब रोहिणी और नीरज के चेहरे खिल गए. उन के संस्कार जीत गए. ऋचा की मेहनत सफल हो गई. वह प्रिलिम्स परीक्षा पास कर गई और साथ ही बी.ए. में पूरे विश्वविद्यालय में अव्वल रही.

लेकिन इस खुशी के मौके पर घर में एक तनावपूर्ण घटना घट गई. निशा रात में हिमेश के साथ उस की बर्थडे पार्टी में गई. घर में वह यही बात कह कर गई कि हिमेश ने बहुत से फ्रैंड्स को होटल में इन्वाइट किया है. खानापीना होगा और वह 11 बजे तक घर वापस आ जाएगी. लेकिन जब 12 बजे तक निशा घर नहीं आई तो घर में चिंता होने लगी. वह मोबाइल भी रिसीव नहीं कर रही थी. रात के 2 बजे तक उस की सारी सहेलियों के घर पर फोन किया जा चुका था पर उन में से किसी को भी हिमेश ने आमंत्रित नहीं किया था. जिस होटल का नाम निशा ने बताया था नीरज वहां गया तो पता चला कि ऐसी कोई बर्थडे पार्टी वहां थी ही नहीं.

गंभीर दुर्घटना की आशंका से सब का दिल धड़कने लगा. रोहिणी जेठानी को तसल्ली दे रही थी पर उन के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था. वे रोहिणी से नजरें नहीं मिला पा रही थीं. सुबह 4 बजे जब वे लोग पुलिस में रिपोर्ट करने की सोच रहे थे कि तभी एक गाड़ी तेजी से आ कर दरवाजे पर रुकी और तेजी से चली गई. कुछ ही पलों बाद निशा अस्तव्यस्त और बुरी हालत में घर आई और फूटफूट कर रोने लगी.

उस की कहानी सुन कर धीरज और उस की पत्नी के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. रोहिणी और नीरज अफसोस से भर उठे.

बर्थडे पार्टी का बहाना बना कर हिमेश निशा को एक दोस्त के फार्म हाउस में ले गया. वहां उस के कुछ अधिकारी आए हुए थे. उसने निशा से उन्हें खुश करने को कहा. मना करने पर वह गुस्से से चिल्लाया कि महंगे उपहार मैं ने मुफ्त में नहीं दिए. तुम्हें मेरी बात माननी ही पड़ेगी. उपहार लेते समय तो हाथ बढ़ा कर सब बटोर लिया और अब ढोंग कर रही हो. और फिर पता नहीं उस ने निशा को क्या पिला दिया कि उस के हाथपांव बेदम हो गए और फिर…

कहां तो निशा उस की पत्नी बनने का सपना देख रही थी और हिमेश ने उसे क्या बना दिया. हिमेश ने धमकी दी थी कि किसी को बताया तो…

रोहिणी सोचने लगी अगर मर्यादा का पहला अंश भंग करने से पहले ही निशा सचेत हो जाती तो आज अपनी मर्यादा खो कर न आती.

निशा के कानों में रोहिणी के शब्द गूंज रहे थे, जो उन्होंने एक बार उस से कहे थे कि मर्यादा भंग करते जाने का साहस ही हम में एकबारगी सारी सीमाएं तोड़ डालने का दुस्साहस भर देता है.

वाकई एकएक कदम बिना सोचेसमझे अनजानी राह पर कदम बढ़ाती वह आज गड्ढे में गिर गई थी.

Romantic Hindi Story : ट्रेन में एक यादगार मुलाकात

Romantic Hindi Story : अजीत ने एक नजर उस प्रौस्टिट्यूट बुनसृ को ऊपर से नीचे तक देखा. वह वाकई बहुत खूबसूरत थी. औसतन थाई लड़कियों से लंबी वह अमेरिकी या पश्चिमी देश की लग रही थी. अजीत को उस के साथ बिताई रात भूले नहीं भूलती थी. अजीत छत्रपति शिवाजी टर्मिनल, मुंबई से कोलकाता मेल ट्रेन से पत्नी के साथ धनबाद जा रहा था. अभी 2 साल पहले ही उन की शादी हुई थी. अजीत बर्थ के नीचे सूटकेस रख कर उन्हें चेन से बांध रहा था. अंतरा बोली, ‘‘मैं ऊपर सो जाती हूं. तुम तो सुबह 5 बजतेबजते उठ जाते हो. मैं आराम से सोऊंगी 7-8 बजे तक.’’ थोड़ी देर में वह कौफी ले कर आया.

कौफी पीतेपीते ट्रेन भी खुल चुकी थी. कौफी पी कर अंतरा ऊपर की बर्थ पर सोने चली गई. अजीत बैडलाइट औन कर फिर मैगजीन पढ़ने लगा और इसी बीच उस को नींद भी आ गई थी. जब उस की नींद खुली, सवेरा हो चुका था. ट्रेन मुगलसराय प्लेटफौर्म पर खड़ी थी. बाहर चाय, समोसे, पूरी, अंडे व फल वाले वैंडर्स का शोर था. सामने वाली बर्थ के सज्जन उतर गए थे. वह बर्थ खाली थी. अजीत ने घड़ी में समय देखा, 6 बज रहे थे. उस ने अंदाजा लगाया कि ट्रेन लगभग 4 घंटे लेट चल रही थी. उस ने कंडक्टर से पूछा तो वह बोला, ‘‘उत्तर प्रदेश में आतेजाते ट्रेन लेट हो चली है क्योंकि दिसंबर में कोहरे के चलते दिल्ली से आने वाली सभी ट्रेनें लेट चल रही हैं.’’ तभी उस ने देखा कि एक लड़की दौड़ीदौड़ी आई और उसी कोच में घुसी. ठंड के चलते उस ने शौल से बदन और चेहरा ढक रखा था.

सिर्फ आंखें भर खुली थीं. वह लड़की सामने वाली बर्थ पर जा बैठी. तब तक पैंट्री वाला कोच में चाय ले कर आया. अजीत ने उस से एक कप चाय मांगी और सामने वाली लड़की से भी पूछा, ‘‘मैडम, चाय लेंगी?’’ उस लड़की ने अजीत की ओर बहुत गौर से देखा और चाय वाले से कहा, ‘‘हां, एक कप चाय मु झे भी देना.’’ चाय पीने के लिए उस ने अपने चेहरे से शौल हटाई, तो अजीत उसे देर तक देखता रह गया. वह लड़की भी अजीत को देखे जा रही थी. फिर सहमती हुए बोली, ‘‘आप, अजीत सर हैं न. वाय थान, खा (हैलो सर).?’’ ‘‘और तुम बुनसृ? वाय खाप (हैलो)’’ उसे अपनी थाईलैंड यात्रा की यादें तसवीर के रूप में आंखों के सामने दिखने लगीं. वह लगभग 5 साल पहले अपने एक दोस्त के साथ थाईलैंड घूमने गया था. अजीत का थाईलैंड में एक सप्ताह का प्रोग्राम था. 4 दिनों तक दोनों दोस्त बैंकौक और पटाया में साथसाथ घूमे. दोनों ने खूब मौजमस्ती की थी. इस के बाद उस के दोस्त को कोई लड़की मिल गई और वह उस के साथ हो लिया. उस ने अजीत से कहा, ‘हम लोग इंडिया लौटने वाले दिन उसी होटल में मिलते हैं जहां पहले रुके थे.’ थाईलैंड में प्रौस्टिट्यूशन अवैध तो है पर प्रौस्टिट्यूट वहां खुलेआम उपलब्ध हैं.

वहां की अर्थव्यवस्था में टूरिज्म का खासा योगदान है. यहां तक कि लड़कियों की फोटो, जिन में अकसर लड़कियां टौपलैस होती हैं, स्क्रीन पर देख कर मनपसंद लड़की चुनी जा सकती है. इसी के चलते अनौपचारिक रूप से वहां यह धंधा फलफूल रहा है. अजीत के पीछे भी एक लड़की पड़ गई थी. उस ने अजीत से कहा, ‘वाय खा, थान (हाय सर, नमस्कार).’ फिर इंग्लिश में कहा, ‘आप को थाईलैंड की खूबसूरत रातों की सैर कराऊंगी मैं. ज्यादा पैसे नहीं लूंगी, आप को जो ठीक लगे, दे देना.’ ‘नहीं, मु झे कुछ नहीं चाहिए तुम से.’ ‘सर, बहुत जरूरत है पैसों की. वरना आप से इतना रिक्वैस्ट न करती.’ अजीत ने इस बार एक नजर उसे ऊपर से नीचे तक देखा. लड़की वाकई बहुत खूबसूरत थी. औसतन थाई लड़कियों से लंबी, चेहरा भी थाई लड़की जैसा नहीं लग रहा था.

कुछ अमेरिकी या पश्चिमी देश की लड़की जैसी लग रही थी. अजीत को वह लड़की भा गई बल्कि उस पर दया आ गई. उस ने पूछा, ‘तुम्हारा क्या नाम है?’ ‘मेरा नाम बुनसृ है सर. वैसे, नाम में क्या रखा है?’ ‘बुनसृ का अर्थ इंग्लिश में क्या हुआ?’ ‘ब्यूटीफुल,’ उस ने कुछ शरमा कर, कुछ मुसकरा कर कहा. ‘देखा नाम में क्या रखा है. जितनी सुंदर हो वैसा ही सुंदर नाम है. अच्छा, तुम क्या दिखाओगी मु झे? यहां तो लड़कियों की लाइन लगी है.’ ‘आप जैसा चाहें, रात साथ गुजारना या सैरसपाटा या फिर फुल मसाज.’ ‘मु झे यहां के कैसीनो ले चलोगी?’ ‘यहां जुआ गैरकानूनी है पर चोरीछिपे सब चलता है. चलिए, मैं आप को ले चलती हूं.’ अजीत बुनसृ के साथ कैसीनो गया. इत्तफाक से वह जीतने लगा और बुनसृ उसे और खेलने को कहती रही. उस ने करीब 10 हजार भाट जीते. रात के 2 बज चुके थे.

वह बोला, ‘बहुत हुआ, अब चलें?’ ‘हां, अब बाकी रात भी आप की सेवा में हाजिर हूं. कहां चलें, होटल?’ ‘हां होटल जाऊंगा पर सिर्फ मैं. तुम अपने पैसे ले कर जा सकती हो,’ और अजीत ने उसे 200 भाट देते हुए पूछा, ‘इतना ठीक है न?’ बुनसृ ने हां बोल कर फोन पर किसी से बात की, फिर कहा, ‘आधे घंटे में मेरा आदमी आ जाएगा, तब तक आप के साथ रहूंगी.’ ‘वह आदमी कौन था, तुम्हारा दलाल?’ ‘छी, सर, प्लीज. ऐसा न कहें. वह मेरा हसबैंड है. मु झे शाम को छोड़ जाता है और जब फोन करती हूं, आ कर ले जाता है. हम यहां से करीब 20 किलोमीटर दूर गांव में रहते हैं. मेरे पति को बिजनैस में बहुत घाटा हुआ था. उस का एक पैर भी खराब है. मेरी मां भी बीमार रहती है. हमारे चावल के खेत हैं पर सिर्फ उस से गुजारा नहीं हो पाता है. मजबूरी में उन लोगों की मरजी से यह सब करती हूं.’ थोड़ी देर में बुनसृ का आदमी आ गया. उस ने बुनसृ से कुछ कहा और बुनसृ ने अजीत से कहा, ‘आप का शुक्रिया अदा कर रहा है.

बोलता है, इतनी जल्दी छुट्टी दे दिया सर ने.’ चलतेचलते बुनसृ ने कहा, ‘आज आप का लकी डे था. कल कहें तो आप की सेवा में आ जाऊं. कुछ और आजमा सकते हैं टोटे में.’ ‘वह क्या है?’ ‘हौर्स रेस में बैटिंग.’ ‘ओके, आ जाना, देखें तुम्हारा साथ कितना लकी होता है.’’ दूसरे दिन बुनसृ अजीत को रेस कोर्स ले गई. जिस घोड़े पर अजीत ने बाजी लगाई वह जीत गया. उसे जैकपौट मिला था. उसे 8 हजार भाट मिले. बुनसृ बोली, ‘यू आर वैरी लकी सर.’ ‘पता नहीं मेरा समय अच्छा था या तुम्हारे साथ का असर है यह.’ ‘अब कहां चलें, सर?’ ‘मेरे होटल चलोगी?’ ‘मेरा तो काम ही है यह.’ ‘नहीं, थोड़ी देर साथ बैठेंगे. डिनर के बाद तुम जा सकती हो.’ ‘क्यों सर, मैं अच्छी नहीं लगी आप को, कल भी आप ने यों ही जाने दिया था?’ ‘अरे नहीं, तुम तो बहुत अच्छी हो. अच्छा बताओ, तुम थाई से ज्यादा अमेरिकी क्यों लगती हो?’ ‘यह भी एक कहानी है. विएतनाम वार के समय 1975 तक अमेरिकी फौजें यहां थीं.

हमारी जैसी मजबूर औरतों को पैसा कमाने के लिए उन फौजियों का मन बहलाना पड़ता था. उस के बाद भी हर साल यहां खोरात एयरबेस पर अमेरिकी, थाई, सिंगापुर और जापान से आए मैरीन का सा झा अभ्यास होता है. उस में भी थाई औरतें कुछ कमा ही लेती हैं. मेरी मां भी उन में से एक रही होगी. उस का जीवन भी गरीबी में बीता है. इसीलिए देखने में मैं आम थाई लड़कियों से अलग हूं,’ बुनसृ बेबाक बोली. रास्ते में लौटते समय अजीत ने बुनसृ के लिए कुछ अच्छे ड्रैस खरीद कर उसे गिफ्ट किए. फिर वे होटल पहुंचे. कुछ देर दोनों ऐसे ही बातें करते रहे थे. फिर अजीत ने डिनर रूम में ही लाने का और्डर दिया. इसी बीच उस के दोस्त का फोन आया. उस ने बताया कि देररात वह आ रहा है. ‘अब तुम जाने के लिए फ्री हो,’ डिनर के बाद अजीत ने बुनसृ से कहा. ‘सच, इतनी जल्दी तो कोई ग्राहक मु झे छुट्टी नहीं देता है.’

‘पिछले 2 दिनों से मैं तुम्हारे साथ हूं. कभी मैं ने ग्राहक जैसा बरताव किया है?’ ‘सौरी, सर.’ ‘अच्छा, आज निसंकोच बोलो, तुम्हें कितने पैसे दूं.’ ‘आप जो चाहें दे दें, मु झे सहर्ष स्वीकार होगा. वैसे, मेरा हक तो कुछ भी नहीं बनता है.’ अजीत ने बुनसृ को पूरे 18,000 भाट दिए. बुनसृ आश्चर्य से उसे देखे जा रही थी. ‘ऐसे क्या देखे जा रही हो. ये पैसे मैं इंडिया से नहीं लाया हूं. ये तुम ने मु झे जितवाए हैं. इन्हें तुम ही रख लो. ना मत कहना वरना मैं नाराज हो जाऊंगा.’ बुनसृ अचानक अजीत से लिपट पड़ी और रोने लगी. अजीत ने उसे अलग कर कहा, ‘रोना बंद करो. यहां से हंसते हुए जाओ. और हो सके तो यह पेशा छोड़ देना.’ ‘सर, आप ने मु झे फर्श से अर्श पर बिठा दिया है. इन पैसों से अपना बिजनैस शुरू करूंगी.’ अगले दिन एयरपोर्ट पर बुनसृ अपने पति के साथ अजीत को विदा करने आई थी. उस समय दोनों में से किसी ने एकदूसरे का फोन नंबर लेने की जरूरत न महसूस की होगी शायद. आज कई सालों बाद वह दिखी तो भी भारत में.

चाय टेबल पर रख वह उठ खड़ी हुई और अजीत से लिपट पड़ी थी. कोच में हलचल और अपने पास की आहट सुन कर ऊपर की बर्थ पर अजीत की पत्नी अंतरा की नींद खुल गई थी. दोनों को आलिंगनबद्ध देख कर वह आश्चर्यचकित थी. अंतरा भी नीचे उतर आई. बुनसृ ने अपने को अलग किया. अजीत ने परिचय कराया, ‘‘यह मेरी पत्नी अंतरा है.’’ फिर अंतरा से बोला, ‘‘यह वही थाई लड़की है. मैं ने तुम से कहा था न कि इस के साथ जितने पैसे मैं ने जुए में जीते थे, सब इसी को दे दिए थे.’’ ‘‘वाय, स्वासदी का हम्म (हैलो, गुड मौर्निंग मैडम),’’ बुनसृ ने अंतरा को कहा. बुनसृ ने पैंट्रीबौय से अंतरा को भी चाय देने को कहा. फिर काफी देर तक तीनों में बातें होती रहीं. अजीत ने बुनसृ से पूछा, ‘‘यहां कैसे आना हुआ?’’ ‘‘मैं पहले बैंकौक से सीधे वाराणसी आई. सारनाथ गई. अब मु झे बोधगया जाना है. मेरे जीवन की यह बड़ी इच्छा थी, आज साकार होने जा रही है.’’ ‘‘और तुम्हारा पति क्यों नहीं आया?’’ ‘‘आप के चलते,’’ और वह हंस पड़ी थी.

अजीत और अंतरा दोनों चकित हो उसे देखने लगे थे. ‘‘हां सर, आप से मिलने के बाद मेरे समय ने गजब का पलटा खाया है. आप के पैसों से हम ने छोटा सा टूरिस्ट सेवा केंद्र खोला था. उस समय बस एक पुरानी कार थी हमारे पास. अब बढ़तेबढ़ते आधा दर्जन कारें हैं हमारे पास. टूरिस्ट सीजन में मैं औरों से भी रैंट पर कार ले लेती हूं. हम दोनों एकसाथ थाईलैंड से बाहर नहीं निकलते हैं ताकि हमारे ग्राहकों को परेशानी न हो. सर, आप के स्नेह से हमारे दिन बदल गए. हम लोगों के पास आप का शुक्रिया अदा करने के लिए शब्द नहीं हैं.’’ वे बातें करते रहे. तब तक ट्रेन गया पहुंचने वाली थी. अजीत ने कहा, ‘‘बोधगया के बाद क्या प्रोग्राम है?’’ ‘‘कल शाम कोलकाता से मेरी बैंकौक की फ्लाइट है.’’ ‘‘मेरे यहां धनबाद एक दिन रुक नहीं सकती हो?’’ अंतरा ने पूछा.

‘मु झे खुशी होगी आप लोगों के साथ कुछ समय रह कर. अगली बार कोशिश करूंगी. पर आप लोग एक बार बैंकौक जरूर जाएं और सर. इस बार आप को थाईलैंड-कंबोडिया बौर्डर ले कर चलूंगी.’’ ‘‘क्यों?’’ ‘‘वहां अच्छे कैसिनोज हैं. विदेशियों के लिए गैंबलिंग लीगल है. शायद इस बार फिर लक साथ दे और आप ढेर सारा पैसा जीतें.’’ ‘‘पर इस बार उस में मेरा भी हिस्सा होगा,’’ अंतरा बोली. सभी एकसाथ हंस पड़े थे. ट्रेन गया प्लेटफौर्म पर थी. बुनसृ अपना सामान ले कर उतर पड़ी. अजीत और अंतरा दोनों कोच के दरवाजे पर खड़े थे. अंतरा बोली, ‘‘सुनो, गया में किसी पर आंख मूंद कर भरोसा न करना. प्लेटफौर्म पर ही टूरिज्म डिपार्टमैंट का बूथ है. वे लोग तुम्हारी मदद कर सकते हैं.’’ ‘‘ओके, थैंक्स. मैं आप की बात का खयाल रखूंगी. आप लोग थाईलैंड जरूर आना. बायबाय.’’ 5 मिनट में ट्रेन खुल पड़ी. बुनसृ गीली आंखों से हाथ हिला कर अजीत और अंतरा को विदा कर रही थी. जब तक आखिरी डब्बा आंखों से ओ झल नहीं हुआ, वह हाथ हिलाती रही. फिर अपनी शौल से ही गीली आंखों को पोंछती हुई गेट की ओर चल पड़ी थी.

Emotional Story : आदर्श मत बनना तनु

Emotional Story : शाम के वक्त 7 बजे थे. अनिल ने औफिस से आते ही बैग सोफे पर पटका और फ्रेश होने चला गया. वहीं बैठी उस की मां माया उस के लिए चाय बनाने के लिए उठ गई. उन्होंने टाइम देखा, बहू तनु भी औफिस से आने ही वाली होगी, यह सोच कर उस के लिए भी चाय चढ़ा दी. चाय बनी ही थी कि डोरबैल बजी. तनु भी आ गई थी. माया को प्यार से देख कर मुसकराई. माया ने स्नेहपूर्वक कहा, ”बेटा, तुम भी फ्रेश हो जाओ, चाय तैयार ही है.”

माया के पति टी वी देख रहे थे. वे औफिस से जल्दी आते हैं. माया ने बहू व बेटे को चाय पिलाई. अनिल ने झींकते हुए कहा, ”तनु, आज सुबह सब्जी में कितना नमक था, बहुत गुस्सा आया मुझे. और एक तो यह गट्टे की सब्जी क्यों बनाई? मुझे जरा भी पसंद नहीं. मां,आप ने भी तनु को नहीं बताया कि मैं यह सब्जी नहीं खाता.”

”तनु को पसंद है. तुम्हारी शादी को 5 महीने ही हुए हैं, तनु को इस सब्जी का शौक है और इस सब्जी को बनाने में उस ने सुबहसुबह बहुत मेहनत की है. कभी तुम उस की पसंद का खाओ, कभी वह तुम्हारी पसंद का खाए. और सब्जी तो बहुत ही अच्छी बनी थी, मुझे भी नहीं आती ऐसी बनानी.”

माया ने देखा, तनु का चेहरा उतर गया था. नयानया विवाह था. माया सोचने लगी, एक पत्नी को पति से मिली तारीफ़ से जितनी ख़ुशी मिलती है, उतनी किसी और की तारीफ़ से नहीं, वह भी जब नयानया विवाह हो. दुनिया नएनए खुमार से भरी ही तो लगती है. आजकल के कपल्स के बीच रोमांस, मानमनुहार के लिए समय ही नहीं. माया हैरान होती हैं अपने बेटेबहू का लाइफस्टाइल देख कर. दोनों के पास सबकुछ है. बस, समय नहीं है. उस पर भी अब अनिल अपनी नवविवाहिता के हाथ की बनी सब्जी की तारीफ़ करने के बजाय कमी निकाल रहा था. हां, नमक ज्यादा था, हो जाता है कभी कभी. पर सुबह के गए अब मिले हैं, तो इस बात को क्या तूल देना. खैर, उन की लाइफ है, बीच में ज्यादा बोलना ठीक नहीं.

अनिल उस के बाद भी चिढ़ा ही रहा. माया जानती हैं, उन के फूडी बेटे को खानेपीने में कोई कमी बरदाश्त नहीं. कितनी बार उन से भी उस की बहस होती ही रही है. इकलौता बेटा है,खूब नखरे दिखाता है. पर अब तनु क्यों सहे इतने नखरे. मैं मां हूं, मैं ने सह लिए. ये बेचारी क्यों सहे. सुबह जातेजाते कितनी हैल्प करवाती है. वे मना करती रह जाती हैं पर तनु जितना हो सकता है, उतने काम करवा कर जाती है. तनु कहती है, ”मां, मुंबई में सफर करने के बाद आ कर तो हिम्मत नहीं होती कुछ करने की, कम से कम सुबह तो कुछ करने दें.”

माया मेड के साथ सब काम मैनेज कर ही लेती हैं पर तनु सुबह कुछ न कुछ कर ही जाती है. तीनतीन टिफ़िन होते हैं, काफी काम होता है. मेड सब के जाने के बाद ही आती है. माया एक पढ़ीलिखी हाउसवाइफ हैं. खाली समय वे टीवी में नहीं, किताबों के साथ बिताती हैं. उन की खूब पढ़ने की आदत है. खुली सोच वाली शांतिपसंद महिला हैं वे. तनु को खूब स्नेह देती हैं, वह भी उन्हें खूब मान देती है. माया के पति और बेटा कुछ आत्मकेंद्रित से हैं, तनु सब को समझने की कोशिश में लगी हुई है. वे जानती हैं कि तनु भी मुंबई की ही लड़की है, उस का मायका भी मुंबई में ही है. पेरैंट्स और एक छोटी बहन सब कामकाजी हैं.

लौकडाउन के बाद औफिस शुरू हुए ही थे. अभी तीनों को हफ्ते में 3 दिन ही जाना पड़ रहा था. बाकी दिन सब वर्क फ्रौम होम करते थे. ऐसे में सब को खूब परेशानी हो रही थी. टू बैडरूम फ्लैट था. लिविंगरूम में रखे डाइनिंग टेबल पर सुधीर काम करते थे. अनिल के रूम में एक टेबल थी जिस पर वह बैठ जाता था. तनु कभी इधर कभी उधर अपना लैपटौप उठाए घूमती रहती. एक दिन झिझकती हुई बोली, “मां, आप के रूम में बैठ कर एक कौल कर लूं, अर्जेंट है, बौस से बात करनी है?”

”और क्या, आराम से बैठो, तब तक मैं किचन में कुछ कर लेती हूं.”

”थैंक्स मां, अनिल तो एक मिनट के लिए भी अपनी टेबल नहीं देता.”

माया को दुख हुआ, बोलीं, ”जब मन हो, मेरे रूम में बैठ कर काम कर लेना.”

तनु की मीटिंग लंबी चली. बैड पर गलत पोस्चर में बैठेबैठे उस का कंधा अकड़ गया. माया ने जब सब को खाने के लिए आवाज दी, सब ने थोड़ी देर के लिए लैपटौप बंद किया. माया ने कहा, ”तनु को बहुत परेशानी हुई बैड पर बैठेबैठे, उसे भी एक टेबल चाहिए. तनु, या तो तुम यहीं पापा के साथ बैठ जाया करो या अनिल अपनी टेबल इसे मीटिंग के लिए तो दे दिया कर.”

सुधीर ने कहा, ”मुझे कोई दिक्कत नहीं है, बेटा. पर मुझे बहुत फ़ोन करने होते हैं, तुम डिस्टर्ब तो नहीं होगी?”

”मुझे अपनी डैस्क पर ही आराम मिलता है,” अनिल ने कहा, ”दो दिन की ही तो बात होती है, कहीं भी एडजस्ट कर लो.”

तनु चुप ही रही. माया बहुत कुछ सोचने लगी थीं. कुछ समय और बीता. एक दिन तनु औफिस से थोड़ा पहले आ गई थी. माया फोन पर अपनी फ्रैंड से एक कोने में ही बैठ कर बात कर रही थीं. तनु जो मूवी देख रही थी,वह ख़तम होने ही वाली थी. अनिल जैसे ही औफिस से आया, उस ने कहा, “अरे तनु, इसे बंद कर दो, बेकार मूवी है और मेरे लिए बढ़िया सी चाय बनाओ.” जुर अनिल ने टीवी बंद कर दिया.

तनु का अपमानित चेहरा देख माया फोन पर फिर बात न कर सकीं, उन्होंने जल्दी ही फोन रख दिया पर चुप रहीं. बेटे पर बहुत गुस्सा आया पर रोजरोज उसे बहू के सामने टोकना शायद उसे अच्छा न लगता.

माया तनु को देखती, हैरान होती कि यह क्यों हर बात में एडजस्ट किए जा रही है जैसे अपनी किसी चीज में कोई इच्छा हो ही न. वही पहनती जो अनिल को पसंद था, वही बनाती जो घर में सब को पसंद हो, कोई भी बात हो, न अपनी राय देती,न पसंद बताती. माया सोचती यह तो अभी नवविवाहिता ही है, कहां हैं इस के सारे शौक, एक मूवी भी अपनी पसंद की नहीं देखती. अनिल जब चाहे,रिमोट ले कर चैनल बदल दे. वह कुछ भी न कहती. बस, मुसकरा कर रह जाती.

एक दिन सब घर से ही काम कर रहे थे. लंच के बाद माया थोड़ी देर आराम करती थीं. उस दिन लेट कर उठीं तो देखा, सुधीर डाइनिंग टेबल पर हमेशा की तरह फोन पर हैं. अनिल के रूम से जोरजोर से हंसने की आवाज़ आई, तो माया ने झांका, अनिल किसी दोस्त से गपें मार रहा था. किचन में जा कर देखा, तनु फर्श पर लैपटौप लिए बैठी थी और किसी मीटिंग में होने का इशारा माया को दिया.

माया चुपचाप अपने रूम में आ कर बैठ गईं. पौन घंटे बाद तनु उन के कमरे में आई और लैपटौप एक तरफ रख, उन के बैड पर पड़ गई. उस के मुंह से एक आह सी निकल गई, इतना ही कहा, “ओह्ह, मां, फर्श पर तो कमर अकड़ गई.”

माया आज और चुप न रह पाईं, बोलीं, ”एक बात करनी है तुम से.”

”हां मां, कहो न.”

”तुम किचन में नीचे बैठ कर काम क्यों कर रही थीं?”

”अनिल ने कहा, वह अपने रूम में ही रहेगा, उसे वहीं आराम मिलता है.”

”तुम ने उसे बताया नहीं कि तुम्हारी जरूरी मीटिंग है.”

”बताया तो था, पर वह बोला, मैं कहीं और बैठ कर अपना काम कर लूं. आप सो रही थीं, तो मैं किचन में ही बैठ गई.”

”सुनो तनु, अपनी बात क्यों नहीं कहतीं तुम?”

”मां, मैं चाहती हूं कि मैं एक अच्छी पत्नी और बहू बन कर रहूं. मेरे मम्मीपापा में जब किसी बात पर झगड़ा होता था तो मुझे अच्छा नहीं लगता था. मैं सोचा करती थी कि मैं अपनी शादी के बाद घर में कोई झगड़ा कभी होने ही नहीं दूंगी.”

माया मुसकराईं, ”तुम्हारे मम्मीपापा झगड़े के बाद नौर्मल हो जाते थे न?”

”हां मां, पर मुझे उन के झगड़े अच्छे नहीं लगते थे.”

”देखो तनु, तुम आदर्श पत्नी या बहू बनने की कोशिश भी न करना, उस से अच्छा होगा कि एक आम बहू या पत्नी बन कर अपने मन की भी कभी करो. सिर्फ हमारे मन से नहीं, कभी अपने मन से भी चलो और अगर कभी किसी से झगड़ा हो भी जाए तो डरना कैसा, हम साथसाथ रहते हैं, कितनी देर तक झगड़ा चलेगा. थोड़ा मनमुटाव कभी हो भी जाए तो रिश्ते टूट थोड़े ही जाते हैं. मैं तो कहती हूं कि उस के बाद का प्यार बड़ा प्यारा होता है.

“कोई बहस न हो, कोई झगड़ा न हो, इसी कोशिश में लगी रहोगी, तो खुद के लिए कैसे जियोगी, कितने दिन ऐसे खुश रह लोगी, मन ही मन कुंठित होती रहोगी. फिर जो नुकसान होगा उसे कौन भरेगा. कल बच्चे हो जाएंगे, फिर तो उन की ही इच्छाएं सर्वोपरि हो जाएंगी. अपने लिए कब जियोगी? फिर आदर्श मां बनने के चक्कर में पड़ जाओगी.

“अपनी बात कहना, फिर उसे पूरा करना सीखो. मैं ने भी यह गलती की है, हमेशा वही किया जो सास, ससुर, ननद, देवर, सुधीर, अनिल को पसंद रहा. जो हमें खुद को अच्छा लगता था, वह किया ही नहीं. अब इतनी उम्र बीतने पर अफ़सोस होता है कि अपने लिए तो मैं जी ही नहीं.

“सो, आदर्श बनने के चक्कर में बिलकुल मत पड़ो. मैं तो कहती हूं कि मुझ पर भी गुस्सा आए, तो मुझ से भी लड़ लो. मन मार कर जीने से फ़ायदा नहीं होगा, कुछ नहीं मिलेगा. उलटे, दिनोंदिन कमजोर होती जाओगी.‘’

तकिये के सहारे लेटी तनु मंत्रमुग्ध सी अपनी सासुमां का चेहरा देखे जा रही थी, सोचने लगी, ये कैसी सासुमां हैं जो मुझे इस तरह से समझा रही हैं, ये तो निराली ही हैं.

माया ने पूछा, ”अब किस सोच में हो?”

”मुझे तो लगता था आप खुश होंगी कि मैं घर में सब का ध्यान रखती हूं, जो कुछ कहा जाता है, मैं वही करती हूं. मैं सच में एक आदर्श बहू और पत्नी बनना चाहती थी, मां.”

”कोई जरूरत नहीं है, मुझे एक आम इंसान अच्छा लगता है जो खुद भी जीना चाहे, जिस की खुद भी इच्छाएं हों और जो उन्हें भी पूरा करना चाहे. वैसे भी, हमारा समाज पुरुषप्रधान है, एक लड़की ही क्यों आदर्श बनने के चक्कर में अपना जीवन होम करे. अनिल और सुधीर क्यों नहीं करते ऐसा कुछ कि हमारी इच्छाओं के लिए अपनी इच्छाएं कभी छोड़ दें, कभी तो कहें कि चलो, आज वह बनाओ जो तुम्हें पसंद हो. ऐसा तो कभी नहीं होता.

“कभी उस की सुनो, कभी वह तुम्हारी सुने, पर ऐसा होता नहीं है. ऐसे में दुख होता है. और मैं यह बिलकुल नहीं चाहती कि मेरी बहू कभी अपना मन मारे. आज भी मेरे मन में कितनी कड़वी यादें हैं जबजब मैं अपने मन का नहीं कर पाई. एक उम्र के बाद तुम्हें यह दुख नहीं होना चाहिए कि कभी तुम ने अपने मन का कुछ किया ही नहीं. आम इंसान की तरह ही जी लो, बहूरानी,‘’ कहतेकहते माया ने तनु के सिर पर हाथ रख दिया. तनु ने उन की हथेली चूम ली. इतने में अनिल अंदर आया, वहीं पलंग पर वह भी लेट गया, बोला, ”तनु, आज मंचूरियन और फ्राइड राइस बनाओगी?”

”नहीं अनिल, आज नहीं, फिर कभी.”

अनिल को जैसे एक झटका लगा, उठ कर बैठ गया, ”क्या?”

”हां, मीटिंग किचन में फर्श पर बैठ कर अटेंड की है, कमर अकड़ गई. आज शौर्टकट मारूंगी, बस, पुलाव ही बना सकती हूं, बहुत थक गई हूं. मां ने भी आज सुबह से बहुत काम कर लिया है, ठीक है न?”

विवाह के बाद यह पहला मौका था जब तनु ने किसी बात के लिए मना किया था. अनिल कभी पत्नी का मुंह देखता, कभी मां का. फिर उस ने इतना ही कहा, ”ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी.”

अनिल का कोई फोन आ गया तो वह बाहर निकल गया. माया ने तनु का हाथ सहलाते हुए कहा, ”शाबाश, यह हुई न बात.”

सुधीर ने अंदर आते हुए पूछा, ”किस बात की शाबाशी दी जा रही है, भाई, हमें भी बताओ.”

”पर्सनल बात है सासबहू की, पापा,” हंसती हुई कह कर तनु रूम से बाहर निकलने लगी, माया ने उसे देखा, तो उस ने माया को आंख मार दी. माया जोर से हंस पड़ीं. सुधीर कुछ समझे नहीं, बस, माया के मुसकराते चेहरे को देखते रह गए.

Entertainment : ‘गेम चेंजर’ में ऐक्शन का ओवर डोज, ‘फतेह’ की स्क्रीनप्ले कमजोर

Entertainment : गेम चेंजरबौलीवुड से ले कर साउथ सिनेमा में भ्रष्टाचार का फिल्मांकन एक बड़ा विषय रहा है. ढेरों फिल्में इसी विषय के इर्दगिर्द बुनी गईं. अपने जीवन से निराश दर्शकों को यह विषय अपील भी करता है क्योंकि उन्हें लगता है उन के जीवन में व्याप्त तमाम कठिनाइयों की जड़ ही राजनीतिक सामाजिक भ्रष्टाचार है. इसे ले कर कई फिल्में हिट हुईं, कई फ्लौप भी. लेकिन याद करने लायक जो फिल्में थीं उन में से कुछ एस शंकर निर्देशित थीं. कहा जा सकता है एस शंकर का यह जौनर ही है और फिल्मगेम चेंजरभी अब उस का हिस्सा बन चुकी है.


फिल्म के लीड हीरो दक्षिण भारतीय कलाकार रामचरण को फिल्मआरआरआरकी रिलीज के बाद हिंदी बैल्ट के दर्शकों ने उसे सिरमाथे पर बैठा लिया था. ‘आरआरआरमें रामचरण को बैस्ट ऐक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया था. ‘गेम चेंजरभी तेलुगू फिल्म से हिंदी में डब की गई है. 500 करोड़ रुपए की लागत से बनी यह पौलिटिकल थ्रिलर फिल्म गुटखा माफिया को तबाह करने वाले एक आईएएस अफसर को केंद्र में रख कर बनी है. फिल्म में रामचरण ने पिता और पुत्र का डबल रोल किया है.


इस फिल्म में पुरानी कहानी को नए अंदाज में परोसा गया है. इस के निर्देशक एस शंकर अपनी फिल्मों में भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाते हुए उस पर चोट करते हैं. उस ने 2 दशक पहलेनायकऔरइंडियनजैसी फिल्में बनाईं जिन्हें दर्शकों ने पसंद किया मगर उस के द्वारा निर्देशित फिल्मइंडियन 2’ को दर्शकों ने नकार दिया. अबगेम चेंजरके जरिए उस ने भ्रष्टाचार के खिलाफ मोरचा सा खोल दिया है. उस की इस फिल्म नेनायकके हीरो रहे अनिल कपूर की याद ताजा कर दी है.


फिल्म की कहानी एक आईएएस अफसर राम नंदन (रामचरण) की है. वह बातबात पर गुस्सा करता है. उस की गर्लफ्रैंड दीपिका (कियारा आडवानी) उसे आईएएस अधिकारी बन कर जनता की भलाई करने के लिए प्रेरित करती है. जिला कलैक्टर बन कर राम जनता की भलाई के लिए कई काम करता है. उधर राज्य के मुख्यमंत्री ने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी है. राम की टक्कर सीएम के बेटे मोपिदेवी (एस जे सूर्या) से होती है. मोपिदेवी खुद सीएम बनने की फिराक में है.


राम अपनी पोस्ंिटग के लिए आंध्र प्रदेश के शहर विशाखापट्टनम जाता है. रास्ते में गुटखा माफिया के गुंडे उस को रोक कर मारामारी करते हैं. रामनंदन का विरोध करने वालों में मुख्यमंत्री सत्यमूर्ति (श्रीकांत) का बेटा मोपिदेवी भी है. वह अस्पताल में अपने पिता मुख्यमंत्री को मार कर खुद मख्यमंत्री बन जाता है. हालांकि, मुख्यमंत्री ने पहले से ही रामनंदन को अपना वारिस घोषित कर रखा था.


मध्यांतर के बाद फ्लैशबैक में रामनंदन के पिता अप्पा अन्ना, जोकि हकलाते हैं, खदान मालिकों के खिलाफ आंदोलन करते हैं. राजनीति चमक जाती है तो अभ्युदय नाम की अपनी पार्टी बनाते हैं. पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने के रास्ते में सत्यमूर्ति द्वारा, उद्योगपतियों के हाथों बिक कर, पार्टी को हथियाने अपर्णा की हत्या करने तक की कहानी सामने आती है. फिर रामनंदन और मोपिदेवी द्वारा एकदूसरे को मात देने का खेल शुरू होता है. आखिरकार रामनंदन मुख्यमंत्री बन जाता है.


फिल्म में लौजिक की कमी है, जैसे एक ही दिन में भ्रष्ट अधिकारी को उस के पद से हटाने, पूरे शौपिंग मौल को जमींदोज करने से ले कर राशन की दुकानों के आसपास के भ्रष्टाचार को खत्म कर दिया जाता है. यों भी एस शंकर की हर फिल्म में हीरो कभी भी किसी रौबिनहुड से कमतर नहीं रहा. अब वे राम चरण अभिनीत फिल्मगेम चेंजरमें भी राजनीतिक भ्रष्टाचार और मुख्यमंत्री की कुरसी को ले कर हो रही खींचतान के साथ नायक को रौबिनहुड की तरह पेश करने में पीछे नहीं रहे.


इंटरवल के बाद घटनाक्रम तेजी से बदलने शुरू होते हैं पर ज्यादातर दृश्य कपोलकल्पित हैं, जिन का वास्तविकता या लौजिक से कोई लेनादेना नहीं. कई बार ऐसा लगता है कि निर्देशक ने कुछ मुद्दों पर कुछ दृश्य फिल्मा लिए, फिर उन्हें एडिटिंग टेबल पर जुड़वा कर एक फिल्म की शक्ल दे डाली. बीचबीच में अनावश्यक रूप से गाने ठूंस दिए गए हैं जो कहानी को आगे बढ़ाने के बजाय व्यवधान पैदा करते हैं.


फिल्म की कहानी की शुरुआत कमजोर है. कहानी में कुछ भी नयापन नहीं है. ‘गेम चेंजरकी कहानी में संविधान वर्तमान में चर्चित चुनाव आयोग को भी पिरो दिया गया है. मध्यांतर से पहले कहानी बोर करती है. निर्देशक ने नायक को रौबिनहुड सरीखा दिखाया है. क्लाइमैक्स घटिया है. मतदान करने के महत्त्व पर भी रोशनी डाली गई है. गाने अनावश्यक हैं. रामनंदन और दीपिका की कहानी भी ठीक से डैवलप नहीं की गई. फिल्म देखते वक्त अन्ना हजारे के आंदोलन की याद ताजा हो आती है.


निर्देशक को यह पता होना चाहिए कि आईएएस अफसर की पहली पोस्टिंग सीधे जिला कलैक्टर की नहीं होती. वहीं आईएएस को उस के गृहनगर में कलैक्टर नहीं बनाया जाता. इस पर शोध किया जाना चाहिए था. फिल्म बेवजह लंबी है, आधा घंटा छोटी की जा सकती थी. राम चरण के चेहरे के भाव एकसमान रहते हैं. कियारा आडवानी सिर्फ सुंदर नजर आई है. एस जे सूर्या का काम अच्छा है. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.


फतेह


सोनू सूद निर्देशित फिल्मफतेहसाइबर क्राइम पर बनी है. देशभर में अपने पैर पसार चुके कर्ज बांटने वाली ऐप्स के जाल में फंस कर जाने कितनी जिंदगियां तबाह हो चुकी हैं. सरकार और रिजर्व बैंक औफ इंडिया समयसमय पर लोगों को इस धोखाधड़ी से बचने के लिए चेताते हैं, मगर फिर भी ये ऐप्स नएनए तरीकों से लोगों की मेहनत की कमाई को उड़ा ले जाती हैं.


हालांकि देश के अधिकांश लोग साइबर क्राइम के नएनए तरीकों से परिचित हो चुके हैं मगर एक्टिंग की दुनिया से आए कलाकार सोनू सूद ने इस फिल्म की कहानी खुद लिखी है और खुद ही फिल्म को निर्देशित भी किया है. सोनू सूद ऐक्टिंग काफी अरसे से कर रहा है, मगर अभी तक उसे पूरी तरह सफलता नहीं मिली है.


सोनू सूद ने अपने कैरियर की शुरुआत 1999 में तमिल फिल्म से की थी. 2002 से उस ने हिंदी फिल्में करनी शुरू कीं. 29 हिंदी फिल्मों में अभिनय करने के बाद भी उसे सफलता नहीं मिली, उस की पहचान नहीं बन पाई. आजकल वह दक्षिण की तमिल, तेलुगू, कन्नड़ फिल्मों में होस्ंिटग कर रहा है. इसलिए अधिकांश दर्शक उसे पहचानते ही नहीं हैं.


सोनू सूद ने कोविड के दौरान लोगों की खूब मदद की, उन्हें खाना खिलाया और अपनी इमेज को चमकाने की कोशिश की. हालांकि कई लोगों की आलोचना भी उसे सहनी पड़ी परंतु वह पीछे नहीं हटा. इस चक्कर में वह फिल्मों से दूर होता चला गया. 2022 मेंसम्राट पृथ्वीराजमें उस ने अभिनय किया, मगर वह असफल ही साबित हुई. अब 3 साल बाद उस ने निर्देशन के क्षेत्र में कदम रखा है और इस फिल्म को निर्देशित ही नहीं किया बल्कि इस की कहानी भी लिखी है. ‘फतेहफिल्म हौलीवुड और बौलीवुड फिल्मों से जोड़तोड़ कर बनाई गई है.


इस से पहलेफतेहशीर्षक से 1999 मेंफतेहफिल्म बनी थी, जिस में उस वक्त के जानेमाने कलाकार संजय दत्त, सुरेश ओबराय, परेश रावल और सोनम जैसे कलाकार थे. वह फिल्म हथियार और ड्रग माफिया के खिलाफ एक सैन्य अभियान जैसे विषय पर थी. इस नईफतेहमें सोनू सूद ने लीड रोल किया है.


फिल्म की कहानी कहने को तो ऐक्शन थ्रिलर है मगर इस में कई फिल्मों की नकल की गई है. फिल्म मेंकिलऔरएनिमलफिल्मों जैसा खूनखराबा है. ऐक्शन सीक्वैंस विदेशी फिल्मजौन विकस्टाइल में है. ज्यादा ऐक्शन दर्शकों के लिए सिरदर्द पैदा करता है. इस फिल्म के साथ यही हुआ है.


हिंसात्मक फिल्म होने की वजह से इस फिल्म कोसर्टिफिकेट तो दिया गया है परंतु ऐसा कुछ आदेश जारी नहीं किया गया कि बच्चे इस फिल्म से दूर रहें. आप को ज्ञात होगा, आस्ट्रेलिया की सरकार ने 16 साल से कम उम्र वाले बच्चों के लिए सोशल मीडिया पर पाबंदी लगा रखी है.


कहानी एक शांत और सुकूनभरी जिंदगी जी रहे रिटायर स्पैशल टास्कफोर्स के जांबाज अफसर फतेह सिंह (सोनू सूद) की है. पंजाब के मोगा में रहने वाले फतेह सिंह अपने गांव में एक डेयरी चलाता है. सादा जीवन जीने वाला फतेह सिंह गांव वालों की हर तरह से मदद करता है. मगर एक दिन मासूम निमरत (शिव ज्योति राजपूत) साइबर क्राइम के जाल में फंस जाती है तो वह शातिर मुजरिमों का परदाफाश करने को मजबूर हो जाता है. हाथों में बंदूक थामे वह दुश्मनों को ललकारता है. इस खूनी जंग में उस का साथ हैकिंग एक्सपर्ट खुशी (जैकलीन फर्नांडीज) देती है.
फिल्म का पहला सीन ही ऐक्शन के मिजाज को सैट कर देता है मगर फिल्म का फर्स्टहाफ धीमा है. हां, सैकंडहाफ जरूर कसा हुआ है.


फिल्म में बताया गया है कि कैसे मोबाइल फोन के लूपहोल्स के चलते भोलेभाले लोगों को लालच के जाल में फंसाया जाता है. निर्देशक ने विषय तो अच्छा लिया है, मगर पटकथा को वह सशक्त नहीं बना पाया है. फिल्म के ऐक्शन सीन काफी अच्छे हैं, संवाद चुटीले हैं. बौस्को मार्टिंस और आदिल शेख की कोरियोग्राफी अच्छी है. अरिजीत सिंह और बीप्राक के गाने ठीकठाक हैं. वीएफएक्स खराब है.


फतेह की भूमिका में 51 वर्षीय सोनू सूद का काम बढि़या है. ऐक्शन दृश्यों में वह बाजी मार ले गया है. जैकलीन फर्नांडीज बिना मेकअप के है, उस ने अपनी भूमिका बखूबी निभाई है. निमरत की भूमिका में शिवज्योति राजपूत ने छाप छोड़ी है. नसीरुद्दीन शाह जैसे कलाकार की भूमिका बड़ी होनी चाहिए थी. ऐक्शन फिल्मों के शौकीन हैं तो इस फिल्म को देख सकते हैं. हां, अगर आप का दिल कमजोर है, खूनखराबा नहीं देखा जाता तो इस से दूरी बनाए रखें. सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.

 Children : स्क्रीन से बच्चे हो रहे हिंसक, दिमाग पर पड़ रहा बुरा असर

Children : बच्चों के कोमल दिमाग विभिन्न चैनल्स पर परोसी जा रही हिंसा से बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं. अपने मनपसंद कार्टून कैरेक्टर्स की हरकतों को कौपी करने से बच्चों के व्यवहार में मानवीय संवेदनाओं और अच्छे गुणों की जगह उग्रता को ज्यादा स्थान मिल रहा है.

शालिनी कौर दिल्ली के एक स्कूल में नर्सरी क्लास की टीचर हैं. उन की क्लास में 30 बच्चे हैं. उन्हीं में से 2 बच्चे अंकुर और प्रखर, उम्र 4 साल, एक दिन क्लास में एकदूसरे से खूब गुत्थमगुत्था हुए. दोनों ने एकदूसरे के बाल नोचे, नाखुनों से नोचनोच कर गाल लाल कर दिए. शालिनी ने डांट कर दोनों को अलग किया. छुट्टी के वक्त जब सारे बच्चे क्लास से बाहर जाने के लिए लाइन में लगे थे, उस वक्त अंकुर और प्रखर फिर एकदूसरे से भिड़ गए. गोरिल्ला की तरह छाती पर घूंसे मारते हुए दोनों एकदूसरे पर टूट पड़े. प्रखर ने अंकुर को जमीन पर गिरा दिया और उस पर चढ़ बैठा. क्लास के बच्चों ने शोर मचाया तो शालिनी, जो सब से आगे वाले बच्चे की उंगली थाम कर बच्चों की लाइन को बाहर ले जा रही थी, दौड़ कर पीछे क्लास में आई और दोनों को फिर डांट कर अलग किया.
शालिनी नर्सरी क्लास के इन दोनों छात्रों की हरकतें देख कर हैरान थी. अगले कुछ दिनों में भी दोनों के बीच ऐसी ही रंजिश दिखी. क्लास टीचर ने दोनों को अलगअलग बैंच पर बिठाया, मगर मौका पाते ही दोनों गोरिल्ला की तरह एकदूसरे से भिड़ जाते. आखिरकार, शालिनी को प्रिंसिपल से कह कर दोनों के मातापिता को बुलाना पड़ा. वह जानना चाहती थी कि कहीं बच्चों के मातापिता के बीच रिश्ते खराब होने या दोनों के बीच लड़ाई झगड़े आदि का असर तो उन के बच्चों के व्यवहार को उग्र नहीं बना रहा है.

शालिनी दोनों के पेरैंट्स से मिली, बातें कीं, दोनों बच्चों की घर में क्या गतिविधियां होती हैं, वे कब क्या करते हैं, सारी बातें उन से पूछीं. शालिनी ने पाया कि उन के मातापिता के आपसी संबंध तो बहुत अच्छे हैं, बच्चों को घर में भरपूर प्यारदुलार भी मिल रहा है. होमवर्क खत्म करने के बाद बच्चे ज्यादा समय कार्टून चैनल्स पर बिताते हैं. आजकल बहुत सारे चैनलों, जैसे निक जूनियर, कार्टून नैटवर्क, पोगो, कार्टून नैटवर्क एचडी प्लस, हंगामा, सुपर हंगामा, ईटीवी भारत आदि पर बच्चों के लिए अनेक प्रकार के कार्टून शो चल रहे हैं.

दो पीढ़ी पहले तक हन्ना-बारबेरा के कार्टून, जैसे ‘योगी बियर’, ‘टौप कैट’, ‘द फ्लिंटस्टोन्स’ और ‘स्कूबी डू’ जैसे शो खूब पसंद किए जाते थे. इन के अलावा, एमजीएम कार्टून जैसे ‘टौम एंड जेरी’, ‘ड्रौपी’ और ‘स्पाइक एंड टाइक’ शो भी बच्चे बड़े चाव से देखते थे. आज जी क्यू चैनल पर ‘चिंपू सिंपू’ जैसी एनिमेटेड टैलीविजन सीरीज आती है. डिज्नी एक्सडी इंडिया पर ‘चोर पुलिस’ जैसी एनिमेटेड टैलीविजन सीरीज आती है. महा कार्टून टीवी पर ‘सीको से सीखो’ जैसी एनिमेटेड टैलीविजन सीरीज आती है. ईटीवी भारत पर ‘मोटू पतलू’, ‘शिवा’, ‘रुद्रा’ जैसे शो चल रहे हैं. ‘मोटू पतलू’ भारत में सब से मजेदार और सब से लोकप्रिय कार्टूनों में से एक है. ‘मोटू पतलू’ न केवल बच्चों के लिए बल्कि वयस्कों के लिए भी मनोरंजन का एक बड़ा स्रोत है. इस शो को तो बच्चों के साथ उन के मम्मीपापा भी बैठ कर देखते हैं.

बच्चे स्क्रीन में जैसा देखते हैं वैसा करते हैं

शालिनी ने उन कार्टून चैनल्स के नाम नोट किए जो अंकुर और प्रखर देखते हैं. उन्होंने घर आ कर उन चैनल्स को देखा. शालिनी हैरान हुईं क्योंकि ईटीवी बाल भारत पर आने वाले बच्चों के फेवरेट कार्टून कैरेक्टर शिवा और रुद्रा जिस तरह पूरे वक्त अपने शक्तिशाली होने का दंभ भरते हुए फाइट करते हैं, अंकुर और प्रखर भी कुछ उसी अंदाज में क्लास में एकदूसरे से भिड़े रहते हैं. दोनों के डायलौग भी वैसे ही होते हैं : ‘मैं शक्तिशाली हूं’, ‘बच्चा न समझना मुझे’, ‘प्रखर नाम है मेरा’ आदिआदि. वे दोनों क्लास में अन्य बच्चों के साथ उसी तरह की हरकतें करते हैं जैसे उन के फेवरेट कार्टून कैरेक्टर्स टीवी स्क्रीन पर करते दिखाई देते हैं.

शालिनी ने कई दिनों तक वे सभी कार्टून चैनल्स देखे जो उन की क्लास के अधिकांश बच्चे देखते हैं. उन्होंने पाया कि ज्यादातर कार्टून कैरेक्टर्स जो बच्चों द्वारा पसंद किए जा रहे हैं उन में मुख्य कैरेक्टर मारधाड़ करने वाले और अपनी जादुई शक्ति दिखाने वाले ही हैं, जैसे सुपरमैन, स्पाइडरमैन, मोटू, छोटा भीम, रुद्रा, शिवा आदि. ये जिस प्रकार दुश्मनों पर वार करते हैं, हाथों को गोलगोल घुमा कर जादुई कारनामे करते हैं और जिस प्रकार के उग्र डायलौग बोलते हैं, बच्चों के दिमाग पर उस का गहरा प्रभाव पड़ रहा है. वे उसी कैरेक्टर के समान खुद को शक्तिशाली सम?ाते हुए वैसा ही व्यवहार अपने क्लासमेट के साथ करना चाहते हैं.

कई बच्चे तो स्कूल में सीढि़यां उतरते समय दोतीन सीढि़यां लांघ जाते हैं. ऐसा वे दूसरे बच्चों को अपनी ताकत का एहसास कराने के लिए करते हैं, जैसा वे टीवी में देखते हैं.
प्रखर और अंकुर के माध्यम से शालिनी का ध्यान इस ओर गया तो बाद में उन्होंने पाया कि अन्य क्लासेज के भी बहुत सारे बच्चे इन कैरेक्टर्स के हावभाव, गतिविधियों और डायलौग कौपी करते हैं और उन का इस्तेमाल अपने सहपाठियों पर करते हैं. साफ है कि बच्चों के कोमल दिमाग इन कार्टून चैनल्स द्वारा प्रभावित हो रहे हैं और उन के व्यवहार में मानवीय संवेदनाओं व अच्छे गुणों की जगह उग्रता को ज्यादा स्थान मिल रहा है.

टीवी पर पहले भी कार्टून और बच्चों के कार्यक्रम आते थे, मगर वे बच्चों की उम्र व उन के कोमल मन को ध्यान में रख कर बनाए जाते थे. कार्यक्रम ऐसे होते थे जिन में मानवीय गुणों, जैसे प्रेम, भाईचारा, साथ में घूमना, साथ में खेलना, तैराकी, साइकलिंग, रेस, दोस्तों, मातापिता और भाईबहन से प्रेम करना जैसी भावनाओं को पिरोया जाता था. उन में खूब हंसीठिठोली होती थी, जिस से नकारात्मकता और तनाव दूर होता था. इस पीढ़ी के जवान और बूढ़े लोगों को याद होगा आर के नारायण द्वारा लिखित कहानी संग्रह ‘मालगुडी डेज’, जिस में काल्पनिक शहर मालगुडी में रहने वाले लोगों के जीवन का वृत्तांत बहुत ही खूबसूरती से स्क्रीन पर उतारा गया था. मालगुड़ी डेज के एपिसोड आज भी रोमांचित करते हैं.

80 के दशक में जब भारतीय सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने अनेक आजाद निर्माताओं और निर्देशकों को टैलीविजन धारावाहिक बनाने के आमंत्रण दिए थे, तब आर के नारायण की कृति पर आधारित मालगुडी डेज उन्हीं में से एक ऐसा धारावाहिक था जो खासा लोकप्रिय हुआ था और जिस का उस दौर के बच्चों पर गहरा असर पड़ा था. धारावाहिक का मुख्य किरदार स्वामी नाम के बच्चे के इर्दगिर्द बुनी कहानी में प्रेम, भाईचारा, सद्भाव, सत्य और इसी प्रकार के मानवीय गुण सामने लाए जाते थे, जिन का सकारात्मक प्रभाव बच्चों के मनमस्तिष्क पर पड़ता था. उस में कर्णप्रिय लोकसंगीत और लोकनृत्य दृश्य होते थे. सीरियल में कहीं भी मारकाट, गालीगलौज, उग्र संवाद नहीं था, जैसा कि आजकल बन रहे सीरियल या कार्टून आदि में होता है. इस में हर समस्या का समाधान बातचीत के जरिए होता था. यानी इस प्रकार के धारावाहिकों में लोक का ध्यान रखते हुए लोकतंत्र की सच्ची आवाज घरघर पहुंचाई जाती थी. पुराने इंगलिश कार्टून सीरियल्स की बात करें तो ‘मिक्की माउस’, ‘टौम एंड जैरी’, ‘डोनाल्ड डक’ जैसे कैरेक्टर्स भी बच्चों को खूब गुदगुदाते थे. टौम एंड जैरी (एक चूहा एक बिल्ली) हमेशा एकदूसरे के पीछे पड़े रहते थे, मगर एकदूसरे के बिना रह भी नहीं पाते थे. इस कार्टून शो को देखने वाला दोनों की हरकतें देख कर बस हंसता ही रहता था. इस में न कोई उग्र डायलौग था, न कोई खूनखराबा और न ही कोई मौत. मगर आज इस तरह की कार्टून स्टोरी किसी चैनल्स पर नजर नहीं आती.

हिंसा की भरमार

आज कार्टून चैनल्स पर जितने भी नए प्रोग्राम आ रहे हैं, सब में सिर्फ मारधाड़ की ही भरमार है. हरेक में कोई न कोई मर रहा है. यानी नन्हे मन में मौत के भय को भरा जा रहा है. बच्चों को न बालगीत सुनने को मिलते हैं, न अच्छा संगीत, न ही उन को ध्यान में रख कर लिखी गई कोई अच्छी कहानी होती है. आजकल के कार्टून धारावाहिकों में बदले की भावना, मारपीट, उग्र बातचीत के साथ जादुई चीजों की भी भरमार है. कोई हवा में उड़ रहा है, कोई जादू से पेड़ों, पहाड़ों, इंसानों और जानवरों को हवा में उड़ा रहा है, कोई एक हाथ उठा कर हवा में उड़ता हुआ बादलों से भी ऊपर पहुंच जाता है. यानी बच्चों को ऐसी चीजें दिखाई जा रही हैं जिन का वास्तविकता से दूरदूर तक कोई नाता नहीं है.
मातापिता भी इन बातों की ओर कोई ध्यान नहीं देते कि उन के बच्चे स्क्रीन पर जो कुछ देख रहे हैं, उन का क्या प्रभाव उन के बच्चों पर पड़ेगा. अपना पिंड छुड़ाने के लिए वे बच्चों को टीवी के सामने बिठा देते हैं या अपना मोबाइल फोन उन के हाथ में पकड़ा देते हैं. कई बार तो रात में जब मातापिता टीवी पर ‘क्राइम पैट्रोल, ‘सीआईडी’, ‘सावधान इंडिया’ जैसे क्राइम सीरियल्स देखते हैं तो बच्चे भी साथ बैठ कर अथवा लेट कर पूरा सीरियल देख लेते हैं. क्राइम सीरियल्स जिन में हत्या, डकैती, बलात्कार, अपहरण, छोटी बच्चियों की तस्करी, खूनखराबा और गोलीबारी जैसे वीभत्स दृश्यों की भरमार होती है, बच्चों को मानसिक रूप से बीमार बना रहे हैं.

पेरैंट्स जिम्मेदार

आज अगर बच्चे हिंसक और असंवेदनशील हो रहे हैं, मातापिता का कहा नहीं मानते, आपस में लड़ते झगड़ते रहते हैं, उन की दोस्तियां क्षणक्षण में टूटती हैं, वे अवसादग्रस्त हैं या आत्महत्या जैसे घातक कदम उठा रहे हैं तो इस के जिम्मेदार कोई और नहीं, बल्कि उन के मातापिता ही हैं.
रंजना का बेटा केजी में और बेटी क्लास 2 में है. पहले दोनों स्कूल से आते ही होहल्ला मचाते थे या किसी न किसी बात पर एकदूसरे से लड़ते झगड़ते थे या जोरजोर से बातें करते थे. इस के कारण रंजना को अपने काम में दिक्कत होती थी. कई बार उस को किचन छोड़ कर बच्चों की लड़ाई छुड़वाने के लिए बैडरूम की ओर भागना पड़ता था. शोर अलग होता था घर में. इस को रोकने की तरकीब रंजना ने यह निकाली कि उस ने कई कार्टून चैनल्स सब्सक्राइब कर लिए.
अब बेटा स्कूल से लौट कर टीवी पर अपना हिंसक कार्टून चैनल देखता है और बेटी रंजना मोबाइल फोन पर अपना मनपसंद शो देखती है. घर में खामोशी रहती है और रंजना शाम तक अपने पति के घर आने से पहले आराम से घर के सारे काम निबटा लेती है, सहेलियों से जीभर कर फोन पर बातें कर लेती है या अपने मायके वालों से बात कर लेती है. बच्चे स्क्रीन पर बिजी हों तो वह पास के बाजार से घर का सामान भी खरीद लाती है. मगर रंजना यह नही समझ रही कि उस ने अपनी सहूलियत के लिए दोनों बच्चों को जिस आदत में फंसा दिया है, उस का बुरा असर उन के कोमल मस्तिष्क और व्यवहार पर तो पड़ेगा ही, शारीरिक रूप से भी दोनों निर्बल हो जाएंगे, क्योंकि खेलनेकूदने की उम्र में वे दोनों सोफे या बैड पर पड़े टीवी देखते हैं और फास्ट फूड खाते रहते हैं.
एक पीढ़ी पहले तक के बच्चे स्कूल से घर लौटने के बाद पार्क या गली में खेलने जाते थे. कोई क्रिकेट, फुटबौल खेल रहा होता, कोई कबड्डी या खोखो. बहुतेरे बच्चे स्कूल से लौट कर घर की छत पर पतंग उड़ाते थे. इन गतिविधियों से उन का शरीर मजबूत होता था, लक्ष्य पर ध्यान और दृष्टि केंद्रित होती थी. शरीर को भरपूर धूप मिलती थी जिस से हड्डियां मजबूत होती थीं. खेल के दौरान आपसी प्रेम और भाईचारे जैसे सद्गुणों में वृद्धि होती थी. दूसरों से बातव्यवहार का ढंग आता था. सहयोग की भावना का विकास होता था. गेम में हार जाने का दुख सहन करने की भी ताकत डैवलप होती थी. बच्चे अवसाद में नहीं जाते थे बल्कि हारने पर दोगुनी ऊर्जा से जीतने के लिए फिर खेलते थे. लेकिन आज जिस तरह मातापिता अपनी सुविधा के लिए बच्चों को टीवी का गुलाम बना रहे हैं, उस से इन सभी मानवीय गुणों का विलोप होने लगा है. अपने काम में व्यस्त मांबाप यह भी नहीं देखते कि टीवी या मोबाइल फोन पर बच्चा कार्टून चैनल के अलावा और क्याक्या देख रहा है.

चैनल्स के गुलाम बच्चे

अकसर देखा जाता है कि टीवी के गुलाम बने बच्चों के आगे अगर उन का मनपसंद चैनल न लगा तो वे हंगामा बरपाने लगते हैं. भाईबहन आपस में लड़ते हैं, मांबाप से गालीगलौज करते हैं, घर की चीजें उठा कर यहांवहां फेंकते हैं. घर को वे जंग का मैदान बना देते हैं. ऐसे अनेक बच्चों से आप को अस्पतालों के मनोरोग विभाग भरे मिलेंगे.
आज ज्यादातर टीवी चैनल्स, सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स, बौलीवुड, टौलीवुड और हौलीवुड सिर्फ नकारात्मकता, खूनखराबा, हिंसा, दुश्मनी ही परोस रहे हैं, जिन का बुरा असर बच्चों पर ही नहीं, समाज के हर वर्ग पर पड़ रहा है. इन धारावाहिकों और फिल्मों से किशोर और युवा भी प्रभावित हो रहे हैं. कई क्राइम की घटनाओं के बाद यह पाया गया है कि आरोपी ने हत्या के लिए जिस तरीके का इस्तेमाल किया वह उस ने किसी क्राइम सीरियल में देखा था. क्राइम सीरियल और फिल्में पहले भी बनती थीं. जासूसी धारावाहिक ‘करमचंद’, ‘व्योमकेश बख्शी’, ‘अदालत,’ ‘तहकीकात’ आदि याद होंगे. ये सभी क्राइम धारावाहिक ही थे मगर इन में उस तरह का खूनखराबा, बलात्कार, हिंसा, हत्या के खुले और वीभत्स दृश्य नहीं होते थे जैसे कि आजकल देररात टीवी पर आ रहे ‘क्राइम पैट्रोल’, ‘सीआईडी’ या ‘सावधान इंडिया’ में होते हैं. ‘करमचंद’ तो क्राइम का सीरियल होने के बावजूद बड़ा मजाकिया जासूसी धारावाहिक था.

पहले और आज

70 के दशक में बनी फिल्म ‘शोले’ आज भी उसी उत्साह से देखी जाती है जैसे तब देखी गई थी. ‘शोले’ के डायलौग्स आज भी लोगों की जबान पर चढ़े हुए हैं. उस के गीत आज भी कानों में रस घोलते हैं. ‘शोले’ एक निर्मम डाकू गब्बर सिंह की खूनी करतूतों पर आधारित फिल्म है, फिर भी खूनखराबे के दृश्यों से ज्यादा इस फिल्म में मनोरंजक दृश्य और भावनात्मक संवाद दर्शकों के मन में करुणा और प्रेम की भावना को बल देते हैं जबकि आज के दौर में बनने वाली फिल्में चाहे ‘गंगाजल’ हो, ‘एनिमल’ हो या ‘पुष्पा’, सिर्फ गुस्सा, भय और तनाव बढ़ाती हैं. नैटफ्लिक्स, अमेजन जैसे प्लेटफौर्म्स पर जो फिल्में या सीरियल आ रहे हैं उन में सिर्फ गालीगलौज और खूनखराबे के वीभत्स दृश्य ही भरे पड़े हैं, जो बच्चों और वयस्कों की दिमागी सेहत बिगाड़ रहे हैं. मनोरंजन के लिए देखी जाने वाली फिल्मों में इस तरह के हिंसक डायलौग्स चिंता बढ़ा रहे हैं.

एक नए शोध के अनुसार, बीते 50 सालों के दौरान बनी फिल्मों के डायलौग्स अधिक हिंसक होते चले गए. आज मरनेमारने के विषय के इर्दगिर्द ही पूरी फिल्म चलती है. फिल्म में दूसरे विषयों की तुलना में अब हत्या से जुड़े डायलौग्स अधिक होते हैं. इस से बच्चों के साथसाथ वयस्कों की सेहत पर भी जोखिम बढ़ रहा है.
ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी के कम्युनिकेशन विभाग के प्रोफैसर ब्रैड बुशमैन ने कहा है कि इस तरह की फिल्मों से अपराध क्षेत्र में तो घटनाएं बढ़ेंगी ही, दूसरे क्षेत्रों में भी ऐसी फिल्मों का असर हो सकता है. स्वभाव में उग्रता, सहनशीलता में कमी, रिश्तों में दूरियां, ब्रेकअप्स, दोस्ती और भाईचारे में कमी जैसी चीजें इन फिल्मों के कारण ही बढ़ती हैं. उन का मानना है कि 1970 की शुरुआत में बनी फिल्मों में 0.21 प्रतिशत इस तरह के डायलौग्स का इस्तेमाल होता था जो 2020 में बढ़ कर 0.34 प्रतिशत हो गया.
1970-2020 तक की इंगलिश फिल्मों के डायलौग का विश्लेषण किया गया. इस में पता चला कि 7 फीसदी फिल्मों में मर्डर जैसे शब्द जम कर इस्तेमाल किए गए थे.
शोधकर्ताओं के अनुसार, इस तरह की बढ़ोतरी को देखते हुए लोगों, विशेषकर बच्चों, को ऐसी फिल्मों के प्रति सचेत किया जाना अब बहुत जरूरी है. साथ ही, लोगों को मीडिया के प्रति जागरूक किया जाना चाहिए. हिंसक मीडिया कंटैंट जैसे टीवी या वीडियो गेम देखने से युवा अधिक हिंसक हो जाते हैं. वहीं बच्चे समाज से दूर और भावनात्मक तौर पर तनाव या अवसाद में चले जाते हैं.
भारत में धार्मिक ग्रंथों पर बनने वाले सीरियल चाहे रामायण हों या महाभारत, ईसाईयों के धर्मग्रंथ हों या मुसलमानों के, सभी रिश्तों में कड़वाहट, ईर्ष्या, लड़ाई, खूनखराबा, मौत जैसी चीजों को बढ़ावा देते हैं. शक्ति का प्रदर्शन हथियारों के साथ लड़ाई के मैदानों में होता है. दिमागी शक्ति और वाक्शक्ति का प्रयोग कहीं भी दिखाई नहीं देता, जबकि बातचीत से हर समस्या का समाधान निकल सकता है.
हमारा कोई भी धार्मिक ग्रंथ ऐसा नहीं है जिस में बैर, शत्रुता आदि का समाधान बातचीत के जरिए निकाला जाए. यहां भाईभाई के बीच बस तलवारें चलती दिखाई देती हैं.
रूस और यूक्रेन लंबे समय से युद्धरत हैं. दुनिया के कुछ नेता कोशिश कर रहे हैं कि बातचीत से समस्या का समाधान हो. इजराइल और फिलिस्तीन को भी समझाया जा रहा है कि बातचीत से हर समस्या सुलझ सकती है.
असली लोकतंत्र तो वही है जहां बातचीत के जरिए चीजों को सुलझा कर विकास के पथ को प्रशस्त किया जाए. मगर यह जानते हुए भी और दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र होने का दंभ भरते हुए भी हम खुद को छोटी सी बात पर तलवारें व बंदूकें निकाल कर सड़कों पर उतर आते हैं. दरअसल बचपन से जिन धर्मग्रंथों की उग्र बातें हमें घुट्टी के साथ पिलाई गई हैं उन का उबाल हमें हथियारों के साथ सड़कों पर ले आता है. हम सोचते ही नहीं कि अगर हम एक लोकतंत्र हैं तो यहां किसी भी समस्या को बातचीत की मेज पर पहले लाना चाहिए. अधिकांश समस्याएं तो वहीं सुलझ जाती हैं.
धार्मिक ग्रंथों की कहानियों पर बनने वाले धारावाहिक और बच्चों के लिए कार्टून शोज भी हिंसा से ओतप्रोत हैं. कोई आंखों से बिजली निकाल कर सामने वाले को भस्म कर रहा है, कोई नाग से दुश्मन को डसवा रहा है, कोई जादुई हथियार फेंक कर दुश्मन का सिर कलम कर रहा है. किसी भी सीरियल में प्रेम, सौंदर्य, कला का प्रदर्शन देखने को नहीं मिलता. ऐसे दृश्य ही नजर नहीं आते जिन से आंखों को सुकून और हृदय को शांति मिले. सब तरफ हिंसा और साजिशों का बाजार लगा है और इस बाजार में देश का बच्चा, किशोर और युवा पगलाया सा घूम रहा है. वह इतना तनावग्रस्त है कि किसी को भी गालियां देने लगता है, किसी पर भी बंदूक तान देता है, किसी की भी बहनबेटी की आबरू नोचने में उस के हाथ नहीं कांपते. उग्रता के अंधेपन में इंसानियत की बातें धुंधली पड़ती जा रही हैं.

 कहां-कहां कैसे कैसे दोषी मां-बाप

बच्चे आजकल 3 से 4 घंटे टीवी या मोबाइल पर हिंसक प्रोग्राम देख रहे हैं.
हिंसक प्रोग्राम देखने वाले बच्चे हिंसा को सामान्य मान लेते हैं.
ऐसे बच्चे हिंसा को विवाद को हल करने का इकलौता तरीका मानते हैं.
बच्चे टीवी हिंसा की नकल जिंदगी में करते हैं.
बच्चे अपने को सुपरमैन और हर दूसरे को विलेन समझने लगते हैं.
मातापिता आमतौर पर इस व्यवहार के दोषी हैं क्योंकि वे चैनल या प्रोग्राम बदलने की कोशिश भी नहीं करते.
इन चैनलों के साथ आने वाले विज्ञापनों के प्रोडक्ट्स भी मातापिता को खरीद कर देने पड़ते हैं.
मातापिता की बदौलत एक बच्चा औसतन 12 हजार हिंसक घटनाएं चैनलों पर देखता है.
गरीब और अधपढ़े घरों में टीवी का असर ज्यादा होता है क्योंकि वहां मांबाप भी उसी तरह झगड़ा करते रहते हैं.
मांबापों की इजाजत के कारण भाइयों में टीवी जैसी दुश्मनी हो जाती है.
टीवी देखने वाले बच्चे आमतौर पर रैडीमेड खाना ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि मांबाप उन की जिद को मानेंगे ही.
बच्चों को पहले हिंसा की आदत डाली जा रही है और फिर जब नशा चढ़ जाता है तो उस के साथ एडवरटाइजिंग परोसी जाती है और मांबाप जिद के कारण उस सामान को खरीद देते हैं जो हिंसा का पाठ पढ़ाने वाले चैनलों में दिखे.

लड़कियों को जल्दी ही सैक्स की ओर लालायित करते हैं मां-बाप टीवी के माध्यम से

टीवी पर खुले सैक्स के सीन देखना आसान है जहां मांबाप खड़े न हों. लड़कियां उत्सुकता में ऐसे ही चैनल देखने लगती हैं जिन में सैक्स सीन काफी हों.
हिंदी-इंग्लिश फिल्मों में शराब, स्मोकिंग लड़कियों को भी पीते दिखाया जाता है. मांबाप चाह कर भी अंकुश नहीं लगा पाते.
लड़कियों को अकसर म्यूजिक वीडियो देखने की अनुमति मांबाप दे ही देते हैं जिन में बहुत उन्मुक्त व्यवहार होता है और छुटपन से ही ये दृश्य देखने को मिल जाते हैं.
‘एनिमल’ जैसी हिंदी फिल्म मोबाइलों पर छोटी लड़कियों के हाथों में पहुंच गई क्योंकि मांबाप बचपन से उन्हें स्क्रीन की आदत डाल देते हैं. ऐसी फिल्में सैक्स को मौडल बिहेवियर बना डालती हैं.

Women : मनमाने फैसले से महिलाओं का हुआ बुरा हाल

Women : बुलडोजर न्याय जैसे मनमाने फैसलों की मार अकसर महिलाओं पर ही पड़ती है. इन सब के पीछे पुरुषवादी सोच काम करती है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी है लेकिन बुलडोजर न्याय की मानसिकता खत्म नहीं हुई है.

दिल दहलाने वाली घटनाएं 


14 फरवरी, 2023, यूपी के हापुड़ की एक दिल दहलाने वाली घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर दिखा जिस में एक पति ने अपनी पत्नी को मकान का गेट बंद कर उसे पहले निर्वस्त्र किया, फिर बैल्ट और डंडों से पीटा.


31 जुलाई,  2022 की खबर है. उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में पुलिस एक चोर की तलाश में चोर के घर पहुंची. पुलिस को जब वह चोर वहां नहीं मिला तो दरोगा ने उस की पत्नी को मारापीटा. महिला को 3 दिनों तक हिरासत में रख कर थर्ड डिग्री टौर्चर किया. इस दौरान महिला के गुप्तांगों में भी चोटें आईं. महिला की इतनी बेदर्दी से पिटाई की गई कि वह चलनेफिरने की हालत में भी नहीं थी.


4 जुलाई, 2018 को पत्रिका में छपी एक खबर के अनुसार, अंबेडकर नगर पुलिस पर बर्बरतापूर्वक घर में घुस कर महिलाओं के साथसाथ राहगीरों और विकलांगों की निर्ममता से पिटाई
का आरोप लगाया गया.


इस तरह की अनगिनत खबरें पढ़नेसुनने को मिल जाएंगी, जिन में बुलडोजर न्याय को चरितार्थ करती हुई घटनाएं घटित होती हैं. पुलिस या कोई आम नागरिक कानून के शासन को त्याग कर किसी की सुरक्षा, जीवन और स्वतंत्रता को अपनी बर्बरता के पहियों के नीचे रौंदता चला जाता है. इस बर्बरता का शिकार ज्यादातर महिलाएं होती हैं. मणिपुर में चल रही हिंसा इस का जीताजागता उदाहरण है. 4 मई की वह घटना जिस ने मानवता को शर्मसार किया था कोई कैसे भूल सकता है जब भीड़ ने महिलाओं की नग्न परेड कराई. उन महिलाओं का गैंगरेप हुआ था. नग्न अवस्था में महिलाओं को घुमाए जाने का वीडियो वायरल हुआ था. वीडियो में लोग बदसुलूकी करते नजर रहे थे और दोनों महिलाएं उन से रहम के लिए गिड़गिड़ा रही थीं.


करीब 800 से हजार लोगों ने आधुनिक हथियारों एसएलआर, इंसास और 303 राइफल से लैस हो कर गांव में धावा बोल दिया. हथियारबंद लोगों ने गांव में लूटपाट की और घर में आग लगा दी,’ वहां भी महिलाओं को ही निशाना बनाया गया. 7 नवंबर, 2024 को मणिपुर के जिरीबाम जिले में फिर से एक दर्दनाक घटना की खबर आई. 3 बच्चों की मां को पहले बर्बरतापूर्वक टौर्चर किया गया, फिर जिंदा जला कर उस की हत्या कर दी गई. उस महिला की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं. रिपोर्ट में 8 घावों का जिक्र किया गया है, जिन में टूटी हुई हड्डियां और जली हुई अलग हुई खोपड़ी शामिल हैं. महिला का शरीर 99 प्रतिशत जल चुका था. रिपोर्ट में कहा गया है कि शरीर के कई हिस्से गायब पाए गए हैं. दाहिनी जांघ के पीछे गहरा घाव देखा गया है.
महिलाओं पर फैसलों की मार बुलडोजर न्यायकानून के शासन को त्याग देना, ऐसा समाज जहां व्यक्तियों की सुरक्षा, जीवन और स्वतंत्रता अधिकारियों या यों कहें किसी व्यक्ति विशेष के मनमाने फैसले पर निर्भर करती है. इस तरह का उदाहरण खाप पंचायत में भी अकसर देखने को मिलता है. पंचायत के फैसले अकसर महिला विरोधी होते हैं. पितृसत्तात्मक सोच वाले पंचायतों के मनमाने फैसलों की मार अकसर महिलाओं पर ही पड़ती है.


साल 2015 में बागपत में एक खाप पंचायत में 2 बहनों के साथ रेप करने और उन्हें निर्वस्त्र कर के गांव में घुमाने का आदेश जारी किया गया, जबकि उस के भाई के ऊपर लगे अपराध की सजा सुनाई जानी थी. उस के भाई पर यह आरोप था कि वह एक ऊंची जाति की महिला के साथ भागा था.
जुलाई 2010 की एक अन्य घटना, हरियाणा की सर्व खाप जाट पंचायत ने फरमान जारी किया कि लड़कियों की शादी के लिए उन के बालिग होने का इंतजार नहीं करना है. उन की शादी 15 साल में ही कर देनी है क्योंकि रेप की घटनाओं में बढ़ोतरी हो रही है. कमाल है, खाप पंचायत का यह मनमाना फैसला कितना महिला विरोधी है. जुर्म पुरुष करें और सजा महिला को? खाप पंचायत के ये कुछ मनमाने महिला विरोधी फैसले थे जिन का जिक्र ऊपर किया गया.


एक नजरिए से देखा जाए तो बुलडोजर न्याय के पीछे एक ऐसी मानसिकता, एक ऐसी प्रवृत्ति कार्य करती है जो पुरुषवादी मानसिकता से संचालित होती है, जिस के पीछे पुरुषवादी सोच काम करती है. इस का एक उदाहरण हमें तथाकथित महाभारत और रामायण काल में अन्य कथाओं में भी देखने को मिल सकता है, जहां पुरुषों के अपराध के लिए महिलाओं को दंडित किया गया.
पांडवों और कौरवों के बीच के विवाद की सजा द्रौपदी के चीरहरण से. द्र्रौपदी को भरी सभा में बालों से खींच कर लाया गया. इंद्र के छल की सजा अहल्या को दी गई जबकि उस का कोई कुसूर था. ऊपर दी गई घटनाओं में यदि हम मणिपुर की बात करें तो यहां भी 2 समुदायों के बीच के विवाद में औरतों को ही निशाना बनाया गया. महिलाओं को निर्वस्त्र कर उन्हें घसीटा गया. नग्न अवस्था में उन से परेड कराई गई, उन के साथ बर्बरता की गई, क्या यह घटना हमें महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण प्रसंग की याद नहीं दिलाती? इंद्र के छल की सजा अहल्या को दिए जाने की कहानी, खाप पंचायत के मनमाने फैसले के समतुल्य नहीं लगती? जब भाई की गलती की सजा बहनों को सुनाई गई या फिर खाप पंचायत का यह फैसला कि लड़कियों की शादी 15 वर्ष में इसलिए कर दी जाए क्योंकि रेप की घटनाएं बढ़ रही हैं तो क्या रेप की घटनाओं में होने वाली वृद्धि के लिए लड़कियां जिम्मेदार हैं? ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अहल्या के साथ हुए बलात्कार के लिए अहल्या जिम्मेदार थी.


पुलिस की बर्बरता


लखनऊ में पुलिस ने मोबाइल चोरी कुबूलवाने के लिए रोहित तिवारी नाम के शख्स को थर्ड डिग्री टौर्चर दिया, जिस से उस की तबीयत खराब हो गई. उस की तबीयत इतनी बिगड़ी कि वह उठ भी नहीं पा रहा. उस की पत्नी जो कि 8 महीने की गर्भवती है बमुश्किल उस की देखभाल कर रही है. रोज कमाने वाला कारीगर रोहित अब परिवार कैसे चलाएगा, एक महीने तक वह कार्य करने योग्य नहीं. ऐसे में पत्नी की दवा और खाने की दिक्कत उस के सामने गई है. पुलिस वाले की मानसिकता बुलडोजर न्याय की है. तभी वह बिना जुर्म साबित हुए उस ने थर्ड डिग्री का ऐसा टौर्चर किया कि उस की तबीयत इस हद तक खराब हो गई और साथसाथ उस की गर्भवती पत्नी के लिए भी मुसीबत तकलीफ पैदा कर दी. ऊपर जितनी भी घटनाओं की चर्चा हुई है वे सारी बुलडोजर न्याय जैसी ही हैं जिन में कानून के शासन को पूर्णतया त्याग दिया गया है, जहां किसी की सुरक्षा, जीवन और स्वतंत्रता किसी के मनमाने फैसले पर निर्भर है.


बीबीसी संवाददाता रेहान फजल के 28 मई, 2022 के एक लेख में, आंखफोड़वा कांड का उल्लेख है कि कैसे भागलपुर में पुलिस ने आंखों में तेजाब डाल कर 33 लोगों को अंधा किया था. यह पुलिस वालों की तुरंत न्याय करने की दिल दहलाने वाली कहानी है, जो 1980 में पहली बार भागलपुर में अंधे किए गए लोगों की खबर है कि कुछ पुलिस वालों ने तुरंत न्याय करने के नाम पर कैसे कानून अपने हाथ में ले लिए और 33 अंडरट्रायल लोगों की आंख फोड़ कर उन में तेजाब डाल दिया.


बाद में इस पर एक फिल्म भी बनी थीगंगाजलनाम से. यह भी बुलडोजर न्याय का ही उदाहरण है, क्योंकि यहां भी 33 अंडर ट्रायल लोगों की आंखें फोड़ कर जानेअनजाने 33 अंडर ट्रायल लोगों के साथसाथ उन के पूरे परिवार को दंडित किया गया. एक तरह से उन के साथसाथ उन के घर की महिलाएं और बच्चों को भी दंडित किया गया जो उन पर आश्रित थे जबकि न्याय का यह तकाजा है कि कोई व्यक्ति तब तक दोषी करार नहीं दिया जाता जब तक वह निर्दोष है. इन लोगों का भी दोष अभी सिद्ध नहीं हुआ था. ये अंडरट्रायल थे.


सजा बीवीबच्चों को क्यों


ठीक इसी प्रकार भारत की जेलों में कई ऐसे कैदी वर्षों से बंद पड़े हुए हैं जिन का अभी ट्रायल चल रहा है. इन का जुर्म अभी सिद्ध नहीं हुआ है, फिर भी ये जेल में बंद रह कर सजा काट रहे हैं और बाहर इन के बीवी बच्चे बिना जुर्म किए ही जुर्म की सजा काट रहे हैं. इन अंडरट्रायल कैदियों को वर्षों तक जेल में कैद रखा जाना एक तरह से उन के साथसाथ उन के परिवार, उन के बीवीबच्चों, घर की महिलाओं को भी सजा दिए जाने के ही बराबर है. इन के घरवालों को बिना किसी जुर्म के मानसिक, सामाजिक उत्पीड़न झेलने को मजबूर कर दिया जाना सुखद अनुभव नहीं हो सकता.
2021 में जारी डाटा के अनुसार, देश की कुल 1283 जेलों में लगभग 5,54,000 लोग बंद हैं. इन में 4,27,000 बंदी हैं जिन का अभी ट्रायल चल रहा है. बाकी सजायाफ्ता यानी कैदी हैं. वहीं एक अन्य खबर की मानें तो भारत की जेलों में सिर्फ 22 प्रतिशत कैदी ही ऐसे हैं जिन्हें किसी अपराध में दोषी करार दिया गया है. इस के अलावा 77 प्रतिशत ऐसे हैं जिन के केस अलगअलग अदालतों में चल रहे हैं और उन पर फैसला नहीं आया है. यानी, ये विचाराधीन कैदी हैं. भारत की जेलों में आधे से ज्यादा ऐसे कैदी हैं जिन का केस अभी अदालत में वर्षों से चल रहा है. 13 नवंबर, 2024 को बुलडोजर मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पूरे प्रशासन को फटकार लगाई. सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर की कार्यवाही पर रोक लगा दी है. इसे अवैध घोषित कर दिया है. लेकिन बुलडोजर न्याय की मानसिकता खत्म नहीं हुई है. यह किसी किसी तरह समाज में व्याप्त है. आप इसे मणिपुर की घटना के तौर पर देख सकते हैं या खाप पंचायत में दिए जाने वाले महिला विरोधी फैसलों के तौर पर देख सकते हैं. हर जगह इन घटनाओं में एकसमान सी बात आप देखेंगे और वह है इस का महिला विरोधी होना. सो यह जरूरी है कि इस मानसिकता का और अधिक विस्तार नहीं होना चाहिए.

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