लेखिका- डा. अनामिका पापड़ीवाल

मरीज शारीरिक रूप से ही नहीं, मानसिक रूप से भी बीमार होता है. डाक्टर और दवा के साथसाथ उसे मानसिक रूप से संतुष्ट कर दिया जाए तो उपचार के और बेहतर परिणाम सामने आएंगे. अभी कुछ दिनों पहले की बात है, मैं एक मरीज से मिली जो काफी दिनों से बीमार थी. उस के पति, पिता सभी काफी निराश लगे. उन से निराशा का कारण पूछा गया तो उन्होंने बताया कि डाक्टर साहब के इलाज से फायदा तो बहुत है परंतु फिर भी वे वहां जिस समस्या को ले कर आए थे वह तो सही हुई नहीं. मरीज को कुछ खाते ही उलटी आ जाती है और बारबार उबकाई आती है,

कुछ खाया ही नहीं जा रहा. वे चाहते हैं कि किसी पेट के डाक्टर को दिखाया जाए, तभी फायदा होगा. अभी हम फिजीशियन को दिखा रहे हैं. उन की बड़ी बेटी को भी पहले ही ऐसे ही उलटियों की शिकायत हुई थी और गैस्ट्रोएंट्रोलौजिस्ट को दिखाने पर सही हो गई थी. उन की मानसिक स्थिति को समझते हुए मैं ने तुरंत संबंधित अधिकारियों से बात की और फिजीशियन द्वारा गैस्ट्रोएंट्रोलौजिस्ट को बुलवा कर मरीज को दिखाया. उन्होंने जो परीक्षण कराने को कहे, वे सभी मरीज पहले करा चुकी थी, परंतु रिपोर्ट स्वीकार नहीं कर पा रही थी.

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जब गैस्ट्रोएंट्रोलौजिस्ट ने मरीज से बातचीत की तो उस से ही उन्हें इतनी संतुष्टि मिल गई कि जो मरीज पिछले 7-8 दिनों से बिलकुल निढाल अवस्था में थी, 2 दिनों बाद तो काफी सही महसूस करने लगी और तीसरे दिन पूर्णतया स्वस्थ हो कर अपने घर चली गई. यह केस इंगित करता है कि कभीकभी दवाइयों और पूरी देखभाल के बावजूद मरीज के मन का कोई भाग असंतुष्ट रह जाता है. और यदि उसे संतुष्ट कर दिया जाए, तो मरीज के ठीक होने की तीव्रता बढ़ जाती है. अस्पताल में आ कर ही पता लगता है कि जीवन क्या है, उस का हमारे जीवन में क्या मूल्य है.

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